"वन महोत्सव": अवतरणों में अंतर
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वनों को विनाश से बचाने एवं वृक्षारोपण योजना को वन महोत्सव का नाम देकर अधिक-से-अधिक लोगों को इससे जोड़कर भू-आवरण को वनों से आच्छादित करना एक अच्छा नया प्रयास है। यद्यपि यह कार्य एवं नाम दोनों ही नए नहीं है। हमारे पवित्र [[वेद|वेदों]] में भी इसका उल्लेख है। [[गुप्त वंश]], [[मौर्य वंश]], [[मुग़ल वंश]] में भी इस दिशा में सार्थक प्रयास किए गए थे। इसका वर्णन [[इतिहास]] में उल्लिखित है। सन [[1947]] में [[जवाहरलाल नेहरू|स्व. जवाहरलाल नेहरू]], [[राजेंद्र प्रसाद|स्व. डॉ. राजेंद्र प्रसाद]] एवं [[अबुल क़लाम आज़ाद|मौलाना अब्दुल क़लाम आज़ाद]] के संयुक्त प्रयासों से देश की राजधानी [[दिल्ली]] में [[जुलाई]] के प्रथम [[सप्ताह]] को वन महोत्सव के रूप में मनाया गया, किंतु यह कार्य में विधिवत्ता नहीं रख सके। यह पुनीत कार्य सन [[1950]] में कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी द्वारा संपन्न हुआ, जो आज भी प्रतिवर्ष हम वन महोत्सव के रूप में मनाते आ रहे हैं। वन महोत्सव सामान्यतः [[जुलाई]]-[[अगस्त]] माह में मनाकर अधिक-से-अधिक वृक्षारोपण किया जाता है। [[वर्षा ऋतु|वर्षा काल]] में ये चार माह के पौधे थोड़े से प्रयास से अपनी जड़ें जमा लेते हैं। | वनों को विनाश से बचाने एवं वृक्षारोपण योजना को वन महोत्सव का नाम देकर अधिक-से-अधिक लोगों को इससे जोड़कर भू-आवरण को वनों से आच्छादित करना एक अच्छा नया प्रयास है। यद्यपि यह कार्य एवं नाम दोनों ही नए नहीं है। हमारे पवित्र [[वेद|वेदों]] में भी इसका उल्लेख है। [[गुप्त वंश]], [[मौर्य वंश]], [[मुग़ल वंश]] में भी इस दिशा में सार्थक प्रयास किए गए थे। इसका वर्णन [[इतिहास]] में उल्लिखित है। सन [[1947]] में [[जवाहरलाल नेहरू|स्व. जवाहरलाल नेहरू]], [[राजेंद्र प्रसाद|स्व. डॉ. राजेंद्र प्रसाद]] एवं [[अबुल क़लाम आज़ाद|मौलाना अब्दुल क़लाम आज़ाद]] के संयुक्त प्रयासों से देश की राजधानी [[दिल्ली]] में [[जुलाई]] के प्रथम [[सप्ताह]] को वन महोत्सव के रूप में मनाया गया, किंतु यह कार्य में विधिवत्ता नहीं रख सके। यह पुनीत कार्य सन [[1950]] में कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी द्वारा संपन्न हुआ, जो आज भी प्रतिवर्ष हम वन महोत्सव के रूप में मनाते आ रहे हैं। वन महोत्सव सामान्यतः [[जुलाई]]-[[अगस्त]] माह में मनाकर अधिक-से-अधिक वृक्षारोपण किया जाता है। [[वर्षा ऋतु|वर्षा काल]] में ये चार माह के पौधे थोड़े से प्रयास से अपनी जड़ें जमा लेते हैं। | ||
==वन महोत्सव की आवश्यकता क्यों== | ==वन महोत्सव की आवश्यकता क्यों== | ||
यह विचार भी मन में आता है कि वन | यह विचार भी मन में आता है कि वन महोत्सव मनाने की आवश्यकता ही क्यों हुई? वे क्या परिस्थितियां थीं कि साधारण से वृक्षारोपण को महोत्सव का रूप देना पड़ा? संभवतः बढ़ती आबादी की आवश्यकता पूर्ति के लिए कटते जंगल, प्रकृति के प्रति उदासीनता ने ही प्राकृतिक संतुलन बिगाड़ दिया। अनजाने में हुई भूल या लापरवाही के दुष्परिणाम सामने आते ही मानव-मन में चेतना का संचार हुआ और मानव क्रियाशील हो उठा। सभी ये जानते हैं कि हमारे द्वारा काटे गए वृक्षों पर नाना प्रकार के पक्षियों का बसेरा होता था। शाखाओं, पत्तों, जड़ों एवं तनों पर अनेक कीट-पतंगों, परजीवी अपना जीवन जीते थे एवं बेतहाशा वनों की कटाई से नष्ट हुए प्राकृतावास के कारण कई वन्य प्राणी लुप्त हो गए एवं अनेक विलोपन के कगार पर हैं। भूमि के कटाव को रोकने में वृक्ष-जड़ें ही हमारी मदद करती हैं। वर्षा की तेज बूंदों के सीधे जमीनी टकराव को पेड़ों के पत्ते स्वयं पर झेलकर बूंदों की मारक क्षमता को लगभग शून्य कर देते हैं। वन महोत्सव मनाने की आवश्यकता हमें क्यों पड़ रही है? इस प्रश्न के मूल में डी-फारेस्टेशन (गैरवनीकरण) मुख्य कारण है- गैर वनीकरण मानवीय हो या प्राकृतिक। यूं तो प्रकृति स्वयं को सदा से ही सहेजती आई है। इस धरा पर वनों का आवरण कितना बढ़ा या घटा है। इस क्षरण में भूमि, कीट, पतंगे, वृक्ष पशु-पक्षी सभी आ जाते हैं। | ||
भारतीय वन सर्वेक्षण संस्थान, [[देहरादून]] की भूमिका महत्वपूर्ण है कि वह अपने सर्वेक्षण से वनों की वस्तुस्थिति हमारे सामने लाता है, तभी हमें पता चलता है कि पूर्व में वनों की स्थिति क्या थी और आज क्या है? वन नीति, 1988 के अनुसार भूमि के कुल क्षेत्रफल का 33 प्रतिशत भाग वन-आच्छादित होना चाहिए। तभी प्राकृतिक संतुलन रह सकेगा, किंतु सन [[2001]] के रिमोट सेंसिंग द्वारा एकत्रित किए गए आकड़ों के अनुसार देश का कुल क्षेत्रफल 32,87,263 वर्ग कि.मी. है। इनमें वन भाग 6,75,538 वर्ग कि.मी. है, जिससे वन आवरण मात्र 20 प्रतिशत ही होता है और ये आंकड़े भी पुराने हैं। यदि [[मध्य प्रदेश]] की चर्चा करें तो मध्य प्रदेश का कुल क्षेत्रफल 308445 वर्ग कि.मी है एवं वन भूमि 76265 वर्ग कि.मी. है यानी 24 प्रतिशत वन प्रदेश भूमि पर है, जबकि वास्तविकता यह कि प्रदेश का वन-आवरण अब लगभग 19 प्रतिशत ही शेष बचा है। वनों का क्षरण अनेक प्रकार से होता है। इनमें वृक्षों को काटना, सुखाना, जलाना, अवैध उत्खनन प्रमुख हैं। गांवों, नगरों, महानगरों का क्षेत्रफल बढ़ रहा है और जंगल संकुचित हो रहे हैं। दैनिक आवश्यकताओं के लिए लकड़ी के प्रयोग की मांग बढ़ी है। बड़े-बड़े बांधों का निर्माण होने से आस-पास के बहुत बड़े वन क्षेत्र जलमगन होकर डूब चुके हैं और सदैव के लिए अपना अस्तित्व खो चुके हैं।<ref>{{cite web |url=http://hindi.indiawaterportal.org/node/48421l |title=वन महोत्सव |accessmonthday= 16 अप्रैल|accessyear= 2017|last= |first= |authorlink= |format= |publisher=sahisamay.com |language= हिंदी}}</ref> | भारतीय वन सर्वेक्षण संस्थान, [[देहरादून]] की भूमिका महत्वपूर्ण है कि वह अपने सर्वेक्षण से वनों की वस्तुस्थिति हमारे सामने लाता है, तभी हमें पता चलता है कि पूर्व में वनों की स्थिति क्या थी और आज क्या है? वन नीति, 1988 के अनुसार भूमि के कुल क्षेत्रफल का 33 प्रतिशत भाग वन-आच्छादित होना चाहिए। तभी प्राकृतिक संतुलन रह सकेगा, किंतु सन [[2001]] के रिमोट सेंसिंग द्वारा एकत्रित किए गए आकड़ों के अनुसार देश का कुल क्षेत्रफल 32,87,263 वर्ग कि.मी. है। इनमें वन भाग 6,75,538 वर्ग कि.मी. है, जिससे वन आवरण मात्र 20 प्रतिशत ही होता है और ये आंकड़े भी पुराने हैं। यदि [[मध्य प्रदेश]] की चर्चा करें तो मध्य प्रदेश का कुल क्षेत्रफल 308445 वर्ग कि.मी है एवं वन भूमि 76265 वर्ग कि.मी. है यानी 24 प्रतिशत वन प्रदेश भूमि पर है, जबकि वास्तविकता यह कि प्रदेश का वन-आवरण अब लगभग 19 प्रतिशत ही शेष बचा है। वनों का क्षरण अनेक प्रकार से होता है। इनमें वृक्षों को काटना, सुखाना, जलाना, अवैध उत्खनन प्रमुख हैं। गांवों, नगरों, महानगरों का क्षेत्रफल बढ़ रहा है और जंगल संकुचित हो रहे हैं। दैनिक आवश्यकताओं के लिए लकड़ी के प्रयोग की मांग बढ़ी है। बड़े-बड़े बांधों का निर्माण होने से आस-पास के बहुत बड़े वन क्षेत्र जलमगन होकर डूब चुके हैं और सदैव के लिए अपना अस्तित्व खो चुके हैं।<ref>{{cite web |url=http://hindi.indiawaterportal.org/node/48421l |title=वन महोत्सव |accessmonthday= 16 अप्रैल|accessyear= 2017|last= |first= |authorlink= |format= |publisher=sahisamay.com |language= हिंदी}}</ref> |
09:55, 16 अप्रैल 2017 का अवतरण
वन महोत्सव भारत में प्रतिवर्ष जुलाई माह के प्रथम सप्ताह में आयोजित किया जाने वाला महोत्सव है। यह महोत्सव भारत सरकार द्वारा वृक्षारोपण को प्रोत्साहन देने के लिए आयोजित किया जाता है। सन 1960 के दशक में यह पर्यावरण संरक्षण और प्राकृतिक परिवेश के प्रति संवेदनशीलता को अभिव्यक्त करने वाला एक आंदोलन था। तत्कालीन कृषिमंत्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने इसका सूत्रपात किया था।
इतिहास
वनों को विनाश से बचाने एवं वृक्षारोपण योजना को वन महोत्सव का नाम देकर अधिक-से-अधिक लोगों को इससे जोड़कर भू-आवरण को वनों से आच्छादित करना एक अच्छा नया प्रयास है। यद्यपि यह कार्य एवं नाम दोनों ही नए नहीं है। हमारे पवित्र वेदों में भी इसका उल्लेख है। गुप्त वंश, मौर्य वंश, मुग़ल वंश में भी इस दिशा में सार्थक प्रयास किए गए थे। इसका वर्णन इतिहास में उल्लिखित है। सन 1947 में स्व. जवाहरलाल नेहरू, स्व. डॉ. राजेंद्र प्रसाद एवं मौलाना अब्दुल क़लाम आज़ाद के संयुक्त प्रयासों से देश की राजधानी दिल्ली में जुलाई के प्रथम सप्ताह को वन महोत्सव के रूप में मनाया गया, किंतु यह कार्य में विधिवत्ता नहीं रख सके। यह पुनीत कार्य सन 1950 में कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी द्वारा संपन्न हुआ, जो आज भी प्रतिवर्ष हम वन महोत्सव के रूप में मनाते आ रहे हैं। वन महोत्सव सामान्यतः जुलाई-अगस्त माह में मनाकर अधिक-से-अधिक वृक्षारोपण किया जाता है। वर्षा काल में ये चार माह के पौधे थोड़े से प्रयास से अपनी जड़ें जमा लेते हैं।
वन महोत्सव की आवश्यकता क्यों
यह विचार भी मन में आता है कि वन महोत्सव मनाने की आवश्यकता ही क्यों हुई? वे क्या परिस्थितियां थीं कि साधारण से वृक्षारोपण को महोत्सव का रूप देना पड़ा? संभवतः बढ़ती आबादी की आवश्यकता पूर्ति के लिए कटते जंगल, प्रकृति के प्रति उदासीनता ने ही प्राकृतिक संतुलन बिगाड़ दिया। अनजाने में हुई भूल या लापरवाही के दुष्परिणाम सामने आते ही मानव-मन में चेतना का संचार हुआ और मानव क्रियाशील हो उठा। सभी ये जानते हैं कि हमारे द्वारा काटे गए वृक्षों पर नाना प्रकार के पक्षियों का बसेरा होता था। शाखाओं, पत्तों, जड़ों एवं तनों पर अनेक कीट-पतंगों, परजीवी अपना जीवन जीते थे एवं बेतहाशा वनों की कटाई से नष्ट हुए प्राकृतावास के कारण कई वन्य प्राणी लुप्त हो गए एवं अनेक विलोपन के कगार पर हैं। भूमि के कटाव को रोकने में वृक्ष-जड़ें ही हमारी मदद करती हैं। वर्षा की तेज बूंदों के सीधे जमीनी टकराव को पेड़ों के पत्ते स्वयं पर झेलकर बूंदों की मारक क्षमता को लगभग शून्य कर देते हैं। वन महोत्सव मनाने की आवश्यकता हमें क्यों पड़ रही है? इस प्रश्न के मूल में डी-फारेस्टेशन (गैरवनीकरण) मुख्य कारण है- गैर वनीकरण मानवीय हो या प्राकृतिक। यूं तो प्रकृति स्वयं को सदा से ही सहेजती आई है। इस धरा पर वनों का आवरण कितना बढ़ा या घटा है। इस क्षरण में भूमि, कीट, पतंगे, वृक्ष पशु-पक्षी सभी आ जाते हैं।
भारतीय वन सर्वेक्षण संस्थान, देहरादून की भूमिका महत्वपूर्ण है कि वह अपने सर्वेक्षण से वनों की वस्तुस्थिति हमारे सामने लाता है, तभी हमें पता चलता है कि पूर्व में वनों की स्थिति क्या थी और आज क्या है? वन नीति, 1988 के अनुसार भूमि के कुल क्षेत्रफल का 33 प्रतिशत भाग वन-आच्छादित होना चाहिए। तभी प्राकृतिक संतुलन रह सकेगा, किंतु सन 2001 के रिमोट सेंसिंग द्वारा एकत्रित किए गए आकड़ों के अनुसार देश का कुल क्षेत्रफल 32,87,263 वर्ग कि.मी. है। इनमें वन भाग 6,75,538 वर्ग कि.मी. है, जिससे वन आवरण मात्र 20 प्रतिशत ही होता है और ये आंकड़े भी पुराने हैं। यदि मध्य प्रदेश की चर्चा करें तो मध्य प्रदेश का कुल क्षेत्रफल 308445 वर्ग कि.मी है एवं वन भूमि 76265 वर्ग कि.मी. है यानी 24 प्रतिशत वन प्रदेश भूमि पर है, जबकि वास्तविकता यह कि प्रदेश का वन-आवरण अब लगभग 19 प्रतिशत ही शेष बचा है। वनों का क्षरण अनेक प्रकार से होता है। इनमें वृक्षों को काटना, सुखाना, जलाना, अवैध उत्खनन प्रमुख हैं। गांवों, नगरों, महानगरों का क्षेत्रफल बढ़ रहा है और जंगल संकुचित हो रहे हैं। दैनिक आवश्यकताओं के लिए लकड़ी के प्रयोग की मांग बढ़ी है। बड़े-बड़े बांधों का निर्माण होने से आस-पास के बहुत बड़े वन क्षेत्र जलमगन होकर डूब चुके हैं और सदैव के लिए अपना अस्तित्व खो चुके हैं।[1]
उद्देश्य
वन महोत्सव पर पौधे लगाकर कई उद्देश्यों को साधा जाता है, जैसे- वैकल्पिक ईधन व्यवस्था, खाद्यान्न संसाधन बढ़ाना, उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिये खेतों के चारों ओर शेल्टर बेल्ट बनाना, पशुओं के लिये चारा उत्पादन, छाया व सौंदर्यकरण, भूमि संरक्षण आदि। यह लोगों में पेड़ों के प्रति जागरुकता की शिक्षा का उत्सव है और यह बताता है कि पेड़ लगाना व उनका रखरखाव करना ग्लोबल वार्मिंग व प्रदूषण को रोकने में सबसे अच्छा रास्ता है। वन महोत्सव जीवन के उत्सव तरह मनाया जाता है।
सफलता
वन महोत्सव को राष्ट्रीय स्तर पर काफ़ी सराहना व सफलता मिली है। वन महोत्सव सप्ताह के दौरान देश भर में लाखों पौधे लगाये जाते हैं। प्रत्येक नागरिक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह वन महोत्सव सप्ताह में एक पौधा जरूर लगाये। वन महोत्सव लोगों में पेड़ों को काटने से होने वाले नुकसान के प्रति सजगता फैलाने में सहायक है। यह महोत्सव लोगों द्वारा घरों, ऑफिसों, स्कूल, कॉलेज आदि में पौधों का पौधारोपण कर मनाया जाता है। इस अवसर पर अलग-अलग स्तर पर जागरुकता अभियान चलाये जाते हैं। लोगों को प्रोत्साहित करने के लिये विभिन्न संगठनों व वॉलंटियर्स द्वारा निशुल्क पौधों का वितरण भी किया जाता है।
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी 15 अगस्त, 2014 को दिल्ली के लाल क़िले से सवच्छता अभियान का आह्वान करना पड़ा। ईको फ़्रेन्डली बजट की बातें आनी शुरू हो चुकी हैं। ये चीजें वन महोत्सव के उद्देश्य की गंभीरता को स्पष्ट रेखांकित करती हैं। पर्यावरण की सुरक्षा केवल सरकार या सरकारी अमले के बलबूते पर नहीं हो सकती है। यह केवल और केवल आम जनता की जन भागीदारी से ही संभव है। वन महोत्सव को प्रभावी बनाने के लिए विद्यालयों के छात्रों के साथ प्रभात फेरी का आयोजन कर गाँव-गाँव, गली-गली में वन महोत्सव के नारे लगवाना आवश्यक है, जिससे लोगों में जागरूकता सन्देश आसानी प्रसारित हो सके।[2]
नारे
- बंजर धरती करे पुकार, पेड़ लगाकर करो सिंगार।
- वन उपवन कर रहे पुकार, देते हम वर्षा की बोछार।
- सर साटे रूख रहे, तो भी सस्तो जाण।
- कहते हे सब वेद-पुराण, एक वृक्ष दस पुत्र सामान।
- धरती पर स्वर्ग है वहाँ, हरे भरे वृक्ष है जहाँ।
- जहां हरयाली है, वहीं खुशहाली है।
- वृक्ष प्रदूषण-विष पी जाते, पर्यावरण पवित्र बनाते।
- पेड़ लगाएं, प्राण बचाएं।
- कड़ी धूप में जलते हैं पाँव, होते पेड़ तो मिलती छाँव।
- पेड़ों से वायु, वायु से आयु।
पेड़ों से लाभ
पेड़ हवा के झोंके, वर्षा, धूप और पाला सब कुछ सहते हैं, फूलों, पत्तों और फलों का भार वहन करते हैं। सब कुछ सहन करके भी पेड़ एड़ी से चोटी तक जीवन पर्यन्त दूसरों को समर्पित रहते हैं। हमारे सुख के लिये पेड़ अपना तन भी समर्पित कर देते हैं। यह किसी-न-किसी रूप में हमारे लिये लाभदायक ही रहते हैं-
- साँस के लिये ऑक्सीजन बनाते हैं।
- धूप की पीड़ा और ठंड के कष्ट से बचाते हैं।
- धरती का श्रृंगार कर सुंदर प्रकृति का निर्माण करते हैं।
- पथिकों को विश्राम-स्थल, पक्षियों को नीड़, जीव-जन्तुओं को आश्रय स्थल देते हैं।
- पेड़ अपना तन समर्पित कर गृहस्थों को ईधन, इमारती लकड़ी, पत्तों-जड़ों तथा छालों से समस्त जीवों को औषधि देते हैं।
- पत्ते, फूल, फल, जड़, छाल, लकड़ी, गन्ध, गोंद, राख, कोयला, अंकुर और कोंपलों से भी प्राणियों की अन्य अनेकानेक कामनाएँ पूर्ण करते हैं।
कुल मिलाकर पेड़ हमारी पहली साँस से लेकर अंतिम संस्कार तक मदद करते हैं। ऐसे परोपकारी संसार में सच्चे संत ही हो सकते हैं, जो सारी बाधाएं स्वयं झेलकर दूसरों की सहायता करते हैं। हमारे पौराणिक साहित्य से दो उद्धरण : दस कुओं के बराबर एक बावड़ी, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र तथा दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वन महोत्सव (हिंदी) sahisamay.com। अभिगमन तिथि: 16 अप्रैल, 2017।
- ↑ वन महोत्सव (हिंदी) sahisamay.com। अभिगमन तिथि: 16 अप्रैल, 2017।
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