"ब्रज एक अद्भुत संस्कृति -आदित्य चौधरी": अवतरणों में अंतर
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श्रृंगं पृथिव्या: स्वालक्ष्यं प्रभूतधनधान्यवत्॥ [[हरिवंश पुराण]], विष्णुपर्व, 57 | 2-3 </ref> | श्रृंगं पृथिव्या: स्वालक्ष्यं प्रभूतधनधान्यवत्॥ [[हरिवंश पुराण]], विष्णुपर्व, 57 | 2-3 </ref> | ||
ब्रज की मान्यताएँ और कहावतें ख़ासी दिलचस्प हैं “मथुरा की बेटी गोकुल की गाय। करम फूटै तौ अनत जाय”। इससे सीधा अर्थ यही निकलता है कि ब्रज-क्षेत्र की बेटियों का विवाह ब्रज में ही होने की परम्परा थी और गोकुल की गायों को भी [[गोकुल]] से बाहर भेजने की परम्परा नहीं थी। चूँकि पुत्री को 'दुहिता' कहा गया है अर्थात गाय दुहने और गऊ सेवा करने वाली। इसलिए बेटी गऊ की सेवा से वंचित हो जाती है और गायों की सेवा ब्रज जैसी होना बाहर कठिन है। वृद्ध होने पर गायों को कटवा भी दिया जाता था, जो ब्रज में संभव नहीं था। ब्रज के संत अक्सर कहा करते थे कि ‘ब्रजहिं छोड़ बैकुंठउ न जइहों’। (ब्रज को छोड़ कर स्वर्ग के आनंद भोगने का मन भी नहीं होता।) ‘मानुस हों तो वही रसखान, बसों ब्रज गोकुल गाँव की ग्वारन’। इस प्रकार के अनेक उदाहरण हैं जो ब्रज को अद्भुत बनाते हैं। ब्रज के संतों ने और ब्रजवासियों ने तो कभी मोक्ष की कामना भी नहीं की क्योंकि ब्रज में इह लीला के समाप्त होने पर ब्रजवासी, ब्रज में ही वृक्ष का रूप धारण करता है अर्थात ब्रजवासी मृत्यु के | ब्रज की मान्यताएँ और कहावतें ख़ासी दिलचस्प हैं “मथुरा की बेटी गोकुल की गाय। करम फूटै तौ अनत जाय”। इससे सीधा अर्थ यही निकलता है कि ब्रज-क्षेत्र की बेटियों का विवाह ब्रज में ही होने की परम्परा थी और गोकुल की गायों को भी [[गोकुल]] से बाहर भेजने की परम्परा नहीं थी। चूँकि पुत्री को 'दुहिता' कहा गया है अर्थात गाय दुहने और गऊ सेवा करने वाली। इसलिए बेटी गऊ की सेवा से वंचित हो जाती है और गायों की सेवा ब्रज जैसी होना बाहर कठिन है। वृद्ध होने पर गायों को कटवा भी दिया जाता था, जो ब्रज में संभव नहीं था। ब्रज के संत अक्सर कहा करते थे कि ‘ब्रजहिं छोड़ बैकुंठउ न जइहों’। (ब्रज को छोड़ कर स्वर्ग के आनंद भोगने का मन भी नहीं होता।) ‘मानुस हों तो वही रसखान, बसों ब्रज गोकुल गाँव की ग्वारन’। इस प्रकार के अनेक उदाहरण हैं जो ब्रज को अद्भुत बनाते हैं। ब्रज के संतों ने और ब्रजवासियों ने तो कभी मोक्ष की कामना भी नहीं की क्योंकि ब्रज में इह लीला के समाप्त होने पर ब्रजवासी, ब्रज में ही वृक्ष का रूप धारण करता है अर्थात ब्रजवासी मृत्यु के पश्चात् स्वर्गवासी न होकर ब्रजवासी ही रहता है और यह क्रम अनन्त काल से चल रहा है। ऐसी अनोखी मान्यता है ब्रज की।[[चित्र:Kambojika.jpg|कम्बोजिका|200px|right]] | ||
[[शूरसेन महाजनपद|शूरसेन देश]] (महाजनपद) की मुख्य नगरी ‘मथुरा’ के विषय में कोई वैदिक संकेत नहीं प्राप्त हुआ है किन्तु ई.पू. पाँचवीं शताब्दी से इसका अस्तित्व सिद्ध हो चुका है। [[अंगुत्तरनिकाय]]<ref>अंगुत्तरनिकाय 1 | 167, एकं समयं आयस्मा महाकच्छानो मधुरायं विहरति गुन्दावने [</ref> एवं मज्झिम<ref>मज्झिम 2 | 84 </ref> में आया है कि [[बुद्ध]] के एक महान शिष्य महाकाच्यायन ने मथुरा में अपने गुरु के सिद्धान्तों की शिक्षा दी। [[मैगस्थनीज़]] सम्भवत: मथुरा को जानता था और इसके साथ हरेक्लीज के सम्बन्ध से भी परिचित था। 'माथुर'<ref>मथुरा का निवासी, या वहाँ उत्पन्न हुआ या मथुरा से आया हुआ </ref> शब्द [[जैमिनि]] के पूर्व मीमांसासूत्र में भी आया है। यद्यपि पाणिनि के सूत्रों में स्पष्ट रूप से 'मथुरा' शब्द नहीं आया है, किन्तु वरणादि-गण<ref>पाणिनि, 4 | 2 | 82 </ref> में इसका प्रयोग मिलता है। किन्तु पाणिनि को वासुदेव, अर्जुन<ref>पाणिनि 4 | 3 | 98 </ref>, यादवों के अन्धक-वृष्णि लोग, सम्भवत: गोविन्द भी<ref>3 | 1 | 138 एवं वार्तिक 'गविच विन्दे: संज्ञायाम्' </ref> ज्ञात थे। ब्रज क्षेत्र जो कभी शूरसेन जनपद था उसके नामकरण के संबंध में विद्वानों के अनेक मत हैं किन्तु कोई भी सर्वमान्य नहीं है। [[शत्रुघ्न]] के पुत्र शूरसेन के नाम पर नामकरण संभव नहीं लगता क्योंकि वाल्मीकि रामायण में सीताहरण के बाद [[सुग्रीव]] ने वानरों को [[सीता]] की खोज में उत्तर दिशा में भेजा तो शतबलि और वानरों से कहा- 'उत्तर में म्लेच्छ' पुलिन्द, शूरसेन, प्रस्थल , भरत ([[इन्द्रप्रस्थ]] और [[हस्तिनापुर]] के आसपास के प्रान्त), कुरु ([[कुरुदेश]]) (दक्षिण कुरु- कुरुक्षेत्र के आसपास की भूमि), मद्र, [[कम्बोज]], [[यवन]], शकों के देशों एवं नगरों में भली भाँति अनुसन्धान करके [[दरद देश]] में और [[हिमालय]] पर्वत पर ढूँढ़ो।<ref>बाल्मीकि रामायाण,किष्किन्धाकाण्ड़,त्रिचत्वारिंशः सर्गः। | [[शूरसेन महाजनपद|शूरसेन देश]] (महाजनपद) की मुख्य नगरी ‘मथुरा’ के विषय में कोई वैदिक संकेत नहीं प्राप्त हुआ है किन्तु ई.पू. पाँचवीं शताब्दी से इसका अस्तित्व सिद्ध हो चुका है। [[अंगुत्तरनिकाय]]<ref>अंगुत्तरनिकाय 1 | 167, एकं समयं आयस्मा महाकच्छानो मधुरायं विहरति गुन्दावने [</ref> एवं मज्झिम<ref>मज्झिम 2 | 84 </ref> में आया है कि [[बुद्ध]] के एक महान शिष्य महाकाच्यायन ने मथुरा में अपने गुरु के सिद्धान्तों की शिक्षा दी। [[मैगस्थनीज़]] सम्भवत: मथुरा को जानता था और इसके साथ हरेक्लीज के सम्बन्ध से भी परिचित था। 'माथुर'<ref>मथुरा का निवासी, या वहाँ उत्पन्न हुआ या मथुरा से आया हुआ </ref> शब्द [[जैमिनि]] के पूर्व मीमांसासूत्र में भी आया है। यद्यपि पाणिनि के सूत्रों में स्पष्ट रूप से 'मथुरा' शब्द नहीं आया है, किन्तु वरणादि-गण<ref>पाणिनि, 4 | 2 | 82 </ref> में इसका प्रयोग मिलता है। किन्तु पाणिनि को वासुदेव, अर्जुन<ref>पाणिनि 4 | 3 | 98 </ref>, यादवों के अन्धक-वृष्णि लोग, सम्भवत: गोविन्द भी<ref>3 | 1 | 138 एवं वार्तिक 'गविच विन्दे: संज्ञायाम्' </ref> ज्ञात थे। ब्रज क्षेत्र जो कभी शूरसेन जनपद था उसके नामकरण के संबंध में विद्वानों के अनेक मत हैं किन्तु कोई भी सर्वमान्य नहीं है। [[शत्रुघ्न]] के पुत्र शूरसेन के नाम पर नामकरण संभव नहीं लगता क्योंकि वाल्मीकि रामायण में सीताहरण के बाद [[सुग्रीव]] ने वानरों को [[सीता]] की खोज में उत्तर दिशा में भेजा तो शतबलि और वानरों से कहा- 'उत्तर में म्लेच्छ' पुलिन्द, शूरसेन, प्रस्थल , भरत ([[इन्द्रप्रस्थ]] और [[हस्तिनापुर]] के आसपास के प्रान्त), कुरु ([[कुरुदेश]]) (दक्षिण कुरु- कुरुक्षेत्र के आसपास की भूमि), मद्र, [[कम्बोज]], [[यवन]], शकों के देशों एवं नगरों में भली भाँति अनुसन्धान करके [[दरद देश]] में और [[हिमालय]] पर्वत पर ढूँढ़ो।<ref>बाल्मीकि रामायाण,किष्किन्धाकाण्ड़,त्रिचत्वारिंशः सर्गः। | ||
तत्र म्लेच्छान् पुलिन्दांश्र्च शूरसेनां स्तथैव च। | तत्र म्लेच्छान् पुलिन्दांश्र्च शूरसेनां स्तथैव च। |
07:43, 23 जून 2017 का अवतरण
‘ब्रज’ एक अद्भुत संस्कृति -आदित्य चौधरी
ब्रज का ज़िक्र आते ही जो सबसे पहली आवाज़ हमारी स्मृति में आती है, वह है घाटों से टकराती हुई यमुना की लहरों की आवाज़… कृष्ण के साथ-साथ खेलकर यमुना ने बुद्ध और महावीर के प्रवचनों को साक्षात उन्हीं के मुख से अपनी लहरों को थाम कर सुना… फ़ाह्यान की चीनी भाषा में कहे गये मो-तो-लो (मोरों का नृत्य स्थल ‘मथुरा’) को भी समझ लिया और प्लिनी के ‘जोमनेस’ उच्चारण को भी… यमुना की ये लहरें रसख़ान और रहीम के दोहों पर झूमी हैं… सूर और मीरा के पदों पर नाची हैं… लेकिन महमूद ग़ज़नवी के नरसंहार से रक्ताभ हुई ये यमुना की सहमी हुई लहरों को मियां तानसेन की तोड़ी से कितनी राहत मिली थी यह तो यमुना ही जाने… बादशाह अकबर के बनवाये हुए घाटों को अभी अच्छी तरह पखार भी न पायी थी यमुना… कि अहमद शाह अब्दाली ने इन लहरों को ब्रजवासियों के रक्त से सने उसके सिपाहियों के हाथों को धोने पर मजबूर किया… यह सब तो चलता ही रहा साथ ही साथ यमुना ने ही जन्म दिया ब्रज-संस्कृति को…
ब्रज की संस्कृति के साथ ही 'ब्रज' शब्द का चलन भक्ति आन्दोलन के दौरान पूरे चरम पर पहुँच गया। चौदहवीं-पन्द्रहवीं शताब्दी की कृष्ण भक्ति की व्यापक लहर ने ब्रज शब्द की पवित्रता को जन-जन में पूर्ण रूप से प्रचारित कर दिया। सूर, मीरां (मीरा) और रसख़ान के भजन तो जैसे आज भी ब्रज के वातावरण में गूंजते रहते हैं। कृष्ण भक्ति में ऐसा क्या है जिसने मीरां से राजसी रहन-सहन छुड़वा दिया और सूर की रचनाओं की गहराई को जानकर विश्व भर में इस विषय पर ही शोध होता रहा कि सूर वास्तव में दृष्टिहीन थे भी या नहीं। संगीत विशेषज्ञों की एक धारणा यह भी है कि ब्रज में सोलह हज़ार राग रागनियों का निर्माण हुआ था। जिन्हें कृष्ण की रानियाँ भी कहा जाता है। ...कहते हैं कि आस्था के प्रश्नों के उत्तर इतिहास में नहीं खोजे जाते लेकिन आस्था जन्म देती है संस्कृति को और संस्कृति के स्थायित्व से ही जन्म लेती है कोई महान सभ्यता। दुनिया भर में नदियों ने हमें अनेक महान सभ्यताएँ दी हैं। सिन्धु नदी ने दी ‘सिन्धु-घाटी सभ्यता’ (हड़प्पा और मुअन-जो-दाड़ो)। सिन्धु सभ्यता की प्राचीन लिपि पढ़ी तो नहीं जा सकी लेकिन उस लिपि के अपने आप में पूर्ण और उन्नत होने पर सभी विद्वान सहमत हैं। मैसोपोटामियां और हड़प्पा में व्यापारिक संबंध कितने व्यवस्थित थे इसकी कहानी अनेक मुहरबंद पार्सलों पर लगी मुहरें कहती हैं। नील नदी (मिस्री भाषा में ‘इतेरू’) ने दी ‘मिस्र की सभ्यता’ जहाँ फ़राऊनों के बनवाये अद्भुत पिरॅमिडों को देखकर जो सवाल मस्तिष्क में आते हैं उनका उत्तर इतिहासकारों और वैज्ञानिकों के पास भी नहीं है। ब्रज में ही स्वामी हरिदास का जीवन, 'एक ही वस्त्र और एक मिट्टी का करवा' नियम पालन में बीता और इनका गायन सुनने के लिए राजा महाराजा भी कुटिया के द्वार पर आसन जमाए घन्टों बैठे रहते थे। बैजूबावरा, तानसेन, नायक बख़्शू (ध्रुपद-धमार प्रसिद्धि) जैसे अमर संगीतकारों ने संगीत की सेवा ब्रज में रहकर ही की थी। अष्टछाप कवियों के अलावा बिहारी, अमीर ख़ुसरो, भूषण, घनानन्द आदि ब्रज-भाषा के कवि, साहित्य में अमर हैं। ब्रज भाषा के साहित्यिक प्रयोग के उदाहरण महाराष्ट्र में तेरहवीं शताब्दी में ‘महानुभाव संप्रदाय’ द्वारा मिलते हैं। बाद में उन्नीसवीं शती तक गुजरात, असम, मणिपुर, केरल तक भी साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ। ब्रज भाषा के प्रयोग के बिना शास्त्रीय गायन की कल्पना करना भी असंभव है। आज भी फ़िल्मों के गीतों में मधुरता लाने के लिए ब्रज भाषा का ही प्रयोग होता है। ब्रज भाषा में जिन शब्दों का प्रयोग होता है वे या तो ब्रजभाषा में मिलते हैं या फिर संस्कृत में। हिन्दी में इन शब्दों का प्रयोग नहीं है जैसे पोखर, बीजना, कण्डिया आदि।
पौराणिक ग्रंथों में मथुरा के अनेक उल्लेख हैं। वराह पुराण[2] में आया है- विष्णु कहते हैं कि इस पृथिवी या अन्तरिक्ष या पाताल लोक में कोई ऐसा स्थान नहीं है जो मथुरा के समान मुझे प्यारा हो- मथुरा मेरा प्रसिद्ध क्षेत्र है और मुक्तिदायक है, इससे बढ़कर मुझे कोई अन्य स्थल नहीं लगता। पद्म पुराण[3] में आया है- 'माथुरक नाम विष्णु को अत्यन्त प्रिय है'। हरिवंश पुराण[4] में मथुरा का सुन्दर वर्णन किया है: 'मथुरा मध्य-देश का ककुद (अर्थात् अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थल) है, यह लक्ष्मी का निवास-स्थल है, या पृथिवी का श्रृंग है। इसके समान कोई अन्य नहीं है और यह प्रभूत धन-धान्य से पूर्ण है।'[5] शूरसेन देश (महाजनपद) की मुख्य नगरी ‘मथुरा’ के विषय में कोई वैदिक संकेत नहीं प्राप्त हुआ है किन्तु ई.पू. पाँचवीं शताब्दी से इसका अस्तित्व सिद्ध हो चुका है। अंगुत्तरनिकाय[6] एवं मज्झिम[7] में आया है कि बुद्ध के एक महान शिष्य महाकाच्यायन ने मथुरा में अपने गुरु के सिद्धान्तों की शिक्षा दी। मैगस्थनीज़ सम्भवत: मथुरा को जानता था और इसके साथ हरेक्लीज के सम्बन्ध से भी परिचित था। 'माथुर'[8] शब्द जैमिनि के पूर्व मीमांसासूत्र में भी आया है। यद्यपि पाणिनि के सूत्रों में स्पष्ट रूप से 'मथुरा' शब्द नहीं आया है, किन्तु वरणादि-गण[9] में इसका प्रयोग मिलता है। किन्तु पाणिनि को वासुदेव, अर्जुन[10], यादवों के अन्धक-वृष्णि लोग, सम्भवत: गोविन्द भी[11] ज्ञात थे। ब्रज क्षेत्र जो कभी शूरसेन जनपद था उसके नामकरण के संबंध में विद्वानों के अनेक मत हैं किन्तु कोई भी सर्वमान्य नहीं है। शत्रुघ्न के पुत्र शूरसेन के नाम पर नामकरण संभव नहीं लगता क्योंकि वाल्मीकि रामायण में सीताहरण के बाद सुग्रीव ने वानरों को सीता की खोज में उत्तर दिशा में भेजा तो शतबलि और वानरों से कहा- 'उत्तर में म्लेच्छ' पुलिन्द, शूरसेन, प्रस्थल , भरत (इन्द्रप्रस्थ और हस्तिनापुर के आसपास के प्रान्त), कुरु (कुरुदेश) (दक्षिण कुरु- कुरुक्षेत्र के आसपास की भूमि), मद्र, कम्बोज, यवन, शकों के देशों एवं नगरों में भली भाँति अनुसन्धान करके दरद देश में और हिमालय पर्वत पर ढूँढ़ो।[12] इससे स्पष्ट है कि शत्रुघ्न के पुत्र से पहले ही 'शूरसेन' जनपद नाम अस्तित्व में था। हैहयवंशी कार्तवीर्य अर्जुन के सौ पुत्रों में से एक का नाम शूरसेन था और उसके नाम पर यह शूरसेन राज्य का नामकरण होने की संभावना भी है, किन्तु हैहयवंशी कार्तवीर्य अर्जुन का मथुरा से कोई सीधा संबंध होना स्पष्ट नहीं है। महाभारत के समय में मथुरा शूरसेन देश की प्रख्यात नगरी थी। लवणासुर (मधु के पुत्र) के वधोपरांत शत्रुघ्न ने इस नगरी को पुन: बसाया था। मथुरा में मिली राज्वुल की राज महिषी ‘कम्बोजिका’ की ख़ूबसूरत मूर्ति माथुरी, गांधार और यवन कला के मेल का अद्भुत नमूना है। कम्बोजिका की शान में ही राज्वुल (राजबुल या बाद में राजुल भी) ने ऐतिहासिक सिंह शीर्ष (Lion Capitol) लगवाया था जो अब लंदन के संग्रहालय में सुरक्षित है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत आदिपर्व 221 | 46
- ↑ वराह पुराण 152 | 8 एवं 11
- ↑ पद्म पुराण 4 | 69 | 12
- ↑ हरिवंश पुराण, विष्णुपर्व, 57 | 2-3
- ↑ तस्मान्माथुरक नाम विष्णोरेकान्तवल्लभम्। पद्म पुराण 4 | 69 | 12
मध्यदेशस्य ककुदं धाम लक्ष्म्याश्च केवलम्।
श्रृंगं पृथिव्या: स्वालक्ष्यं प्रभूतधनधान्यवत्॥ हरिवंश पुराण, विष्णुपर्व, 57 | 2-3 - ↑ अंगुत्तरनिकाय 1 | 167, एकं समयं आयस्मा महाकच्छानो मधुरायं विहरति गुन्दावने [
- ↑ मज्झिम 2 | 84
- ↑ मथुरा का निवासी, या वहाँ उत्पन्न हुआ या मथुरा से आया हुआ
- ↑ पाणिनि, 4 | 2 | 82
- ↑ पाणिनि 4 | 3 | 98
- ↑ 3 | 1 | 138 एवं वार्तिक 'गविच विन्दे: संज्ञायाम्'
- ↑ बाल्मीकि रामायाण,किष्किन्धाकाण्ड़,त्रिचत्वारिंशः सर्गः।
तत्र म्लेच्छान् पुलिन्दांश्र्च शूरसेनां स्तथैव च।
प्रस्थलान् भरतांश्र्चैव कुरुंश्र्च सह मद्रकैः॥
काम्बोजयवनांश्र्चैव शकानां पत्तनानि च। - ↑ यह पुस्तक, लेखक की वेबसाइट, www.brajdiscovery.org पर उपलब्ध है।
- ↑ गोथिक शैली से अभिप्राय तिकोने मेहराबों वाली यूरोपीय शैली से है जिससे इमारत के विशाल होने का आभास होता है
- ↑ ट्रॅवल्स इन इंडिया लेखक: ज़्यां-बॅपतिस्ते तॅवरनियर अध्याय 12 पृष्ठ 272
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