सौत्रान्तिक दर्शन

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उद्भव एवं विकास

  • सामान्यतया विद्वानों की धारणा है कि सौत्रान्तिक निकाय का प्रादुर्भाव बुद्ध के परिनिर्वाण के अनन्तर द्वितीय शतक में हुआ।
  • पालि-परम्परा के अनुसार वैशाली की द्वितीय संगीति के तत्काल बाद कौशाम्बी में आयोजित महासंगीति में महासांघिक निकाय का गठन किया गया और बौद्ध संघ दो भागों में विभक्त हो गया। थोड़े ही दिनों के अनन्तर स्थविर निकाय से महीशासक और वृजिपुत्रक (वज्जिपुत्तक) निकाय विकसित हुए। उसी शताब्दी में महीशासक निकाय से सर्वास्तिवाद, उससे काश्यपीय; उनसे संक्रान्तिवादी, फिर उससे सूत्रवादी निकाय का जन्म हुआ। आशय यह कि सभी अठारह निकाय उसी शताब्दी में विकसित हो गये।

समीक्षा

  1. निकायों के नामों और काल के विषय में जो मतभेद उपलब्ध होते हैं। उसका कारण देश भेद और आवागमन की सुविधा का अभाव भी प्रतीत होता है। उदाहरणार्थ भारत के पश्चिमोत्तर में अर्थात कश्मीर, गान्धार आदि प्रदेशों में सौत्रान्तिक निकाय कश्मीर वैभाषिकों से पृथक् होकर विलम्ब से अस्तित्व में आया, अत: वसुमित्र उसका अद्भवकाल चतुर्थ बुद्ध शताब्दी निश्चित करते हैं। उस निकाय ने मध्य देश अर्थात मथुरा आदि स्थानों में पहले ही अपना स्वरूप प्राप्त कर लिया, अत: वसुमित्र से अन्य आचार्यों का मत भिन्न हो गया। इस प्रकार का मतभेद होने पर भी उनमें मौलिक एकरूपता दृष्टिगोचर होती है। उदाहरण के रूप में काश्यपीय निकाय के विभिन्न नाम विभिन्न प्रदेशों में थे।
  2. ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि सौत्रान्तिक निकाय के बीज बुद्ध काल में ही विद्यमान थे। पालि भाषा में उपनिबद्ध और उपलब्ध प्रामाणिक बुद्धवचनों में तथा भोट भाषा और चीनी भाषा में उपलब्ध एवं सुरक्षित उनके अनुवादों में 'सुत्तन्तिक', 'सुत्तधर' (सूत्रधर), 'सुत्तवादी' (सूत्रवादी) आदि शब्द बहुलतया उपलब्ध होते हैं। ज्ञात है कि उस काल में सिद्धान्त विशेष के लिए 'वाद' शब्द प्रयुक्त होता था। सूत्रों में 'सुत्तधर', 'सुत्तवादी', 'सुत्तन्तिक', 'सुत्तन्तवादी' आदि शब्द उन भिक्षुओं के लिए प्रयुक्त होता था, जो सूत्रपिटक के विशेषज्ञ होते थे, जिन्हें सूत्रपिटक कण्ठस्थ था और जो उसके व्याख्यान में निपुण थे।

सौत्रान्तिक की परिभाषा

  • जो निकाय सूत्रों का या सूत्रपिटक का सबसे अधिक प्रामाण्य स्वीकार करता है, उसे सौत्रान्तिक कहते हैं। अट्इसालिनी में सूत्र शबद के अनेक अर्थ कहे गये हैं, यथा:

अत्थानं सूचनतो सुवुत्ततो सवनतो थ सूदनतो।
सुत्ताणा सुत्तसभागतो च सुत्तं ति अक्खातं॥ -(अट्ठसालिनी, निदानकथावण्णना, पृ. 39)

  • सूत्र को ही 'सूत्रान्प्त' भी कहते हैं अथवा सूत्र के आधार पर प्रवर्तित सिद्धान्त 'सूत्रान्त' कहलाते हैं। उनसे सम्बद्ध निकाय 'सौत्रान्तिक' है। जिन वचनों के द्वारा भगवान जगत का हित सम्पादित करते हैं, वे वचन 'सूत्र' हैं। अथवा जैसे मणि, सुवर्ण आदि के दानों को एक धागे में पिरोकर सुन्दर हार (आभूषण) का निर्माण किया जाता है, उसी तरह नाना अध्याशय एवं रुचि वाले सत्त्वों के लिए उपदिष्ट नाना बुद्धवचनों को निर्वाण के अर्थ में जिनके द्वारा आबन्धन किया जाता है, वे सूत्र हैं।
  • महायानी परम्परा के अनुसार बुद्ध का कोई एक भी वचन ऐसा नहीं है, जिसमें ज्ञेय, मार्ग और फल संगृहीत न हो। इसलिए बुद्धवचन ही 'सूत्र' है। अत: 'सूत्र' यह बुद्ध वचनों का सामान्य नाम है।
  • यशोमित्र ने अभिधर्मकोशभाष्यटीका की टीका में सौत्रान्तिक शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए लिखा है : 'क: सौत्रान्तिकार्थ:? ये सूत्रप्रामाणिका:, न तु शास्त्रप्रामाणिकास्ते सौत्रान्तिका:[1]' अर्थात् सौत्रान्तिक शब्द का क्या अर्थ है? जो सूत्र को, न कि शास्त्र को प्रमाण मानते हैं, वे सौत्रान्तिक हैं। इन्हें ही दार्ष्टान्तिक भी कहते हैं, क्योंकि वे दृष्टान्त के माध्यम से बुद्ध वचनों का व्याख्यान करने में अत्यन्त निपुण होते हैं। इस निर्वचन के द्वारा त्रिपिटक के सम्बन्ध में सौत्रान्तिकों की दृष्टि का संकेत भी किया गया है।

त्रिपिटक

इस विंषय में किसी का कोई विवाद नहीं है कि महाकाश्यप आदि महास्थविरों ने बुद्ध वचनों का सकंलन करके उन्हें त्रिपिटक का स्वरूप प्रदान किया। काल क्रम में आगे चलकर बुद्धवचनों के सम्बन्ध में परस्पर विरुद्ध विविध मत-मतान्तर और विविध साम्प्रदायिक दृष्टियाँ प्रस्फुटिक हुई। इस विषय में सौत्रान्तिकों की विशेष दृष्टि है। इनके मतानुसार स्थविरवादियों का अभिधर्मपिटक, जिसमें धम्मसंगणि, विभंग आदि 7 ग्रन्थ संगृहीत हैं, वह (अभिधर्मपिटक) बुद्धवचन नहीं माना जा सकता। इनका कहना है कि इन ग्रन्थों में असंस्कृत धर्मों की द्रव्यसत्ता आदि अनेक युक्तिहीन सिद्धान्त प्रतिपादित हैं। भगवान बुद्ध कभी भी युक्तिहीन बातें नहीं बोलते, अत: इन्हें बुद्धवचन के रूप में स्वीकार करना असम्भव है। वस्तुत: ये (सातों) ग्रन्थ परवर्ती हैं और आभिधार्मिकों की कृति हैं। अत: ये शास्त्र हैं। उन्होंने इनके रचयिताओं के नामों का भी उल्लेख किया है, यथा-ज्ञानप्रस्थान के कर्ता आर्यकात्यायनीपुत्र, प्रकरणपाद के वसुमित्र, विज्ञानकाय के देवशर्मा, धर्मस्कन्ध के शारीपुत्र, प्रज्ञप्तिशास्त्र के मौद्गलयायन, धातुकाय के पूर्ण तथा संगीतिपर्याय के महाकौष्ठिल्ल कर्ता हैं। ये ग्रन्थ किसी प्रामाणिक पुरुष द्वारा रचित नहीं हैं और न प्रथम संगीति में इनका संगायन ही हुआ है, अत: पृथग्जनों द्वारा विरचचित होने से हम सौत्रान्तिक इन्हें बुद्धवचन नहीं मानते। इनका कहना है कि बुद्ध द्वारा उपदिष्ट सूत्र ही हमारे मत में प्रमाण हैं, न कि कोई अन्य शास्त्र।

निष्कर्ष

  • सौत्रान्तिक निकाय का अस्तित्व तो तृतीय संगीति के अवसर पर सम्राट अशोक के काल में विद्यमान था, किन्तु दार्शनिक प्रस्थान के रूप में उसका विकास सम्भवत: ईसा पूर्व प्रथम शतक में सम्पन्न हुआ।
  • निकाय के साथ सौत्रान्तिक शब्द का प्रयोग तो सम्भवत: तब प्रारम्भ हुआ, जब अन्य निकायों और मान्यताओं के बीच विभाजन-रेखा अधिक सुस्पष्ट हुई।
  • सात अभिधर्म ग्रन्थों का संग्रह परवर्ती है, इसलिए बुद्ध वचनों के रूप में सौत्रान्तिकों ने उन्हें मान्यता प्रदान नहीं की।
  • सूत्रपिटक और विनयपिटक को प्रामाणिक बुद्धवचन मानकर सौत्रान्तिकों ने अपने सिद्धान्तों की अन्य निकायों से अलग स्थापना की। तभी से सौत्रान्तिक निकाय की परम्परा प्रारम्भ हुई। ऐसा लगता है कि अन्य लोगों ने जब बुद्धवचनों का अभिधर्मपिटक के रूप में संग्रह किया और उन्हें बुद्धवचन के रूप में माना, तब प्रारम्भ में सौत्रान्तिकों ने विरोध किया होगा, किन्तु अन्य निकाय वालों ने उनका विरोध मानने से इन्कार कर दिया होगा, तब विवश होकर उन्होंने पृथक् निकाय की स्थापना की। यह घटना द्वितीय बुद्धाब्द में घटनी चाहिए।
  • महाराज अशोक के काल में सभी निकायों के त्रिपिटक अस्तित्व में आ गये थे। इसीलिए अशोक के समय कथावत्थु नामक ग्रन्थ में अन्य मतों की समालोचना सम्भव हो सकी। इसलिए यह निश्चित होता है कि अभिधर्म का बुद्धवचन सम्बन्धी विवाद एवं सौत्रान्तिक निकाय का गठन उससे पूर्ववर्ती है। यही विवाद अन्ततोगत्वा अन्य निकायों से सौत्रान्तिक निकाय के पृथक् होने के रूप में परिणत हुआ। यही सौत्रान्तिक निकाय के उद्गम का हेतु और काल है।

प्रमुख सौत्रान्तिक सिद्धान्त

सौत्रान्तिकों की जो प्रमुख विशेषताएं हैं, जिनकी वजह से वे अन्य बौद्ध, अबौद्ध दार्शनिकों से भिन्न हो जाते हैं, अब हम उन विशेषताओं की ओर संकेत करना चाहते हैं। ज्ञात है कि बौद्ध धर्म में अनेक निकायों का विकास हुआ। यद्यपि उनकी दार्शनिक मान्यताओं में भेद हैं, फिर भी बुद्धवचनों के प्रति गौरव बुद्धि सभी में समान रूप से पाई जाती है। सभी निकायों के पास अपने-अपने त्रिपिटक थे। ऐतिहासिक क्रम में महायान का भी उदय हो गया। यह नि:सन्दिग्ध है। कि पुरुषार्थ-सिद्धि सभी भारतीय दर्शनों का परम लक्ष्य है। इसी लक्ष्य को ध्यान में रख कर बौद्धों में यानों की व्यवस्था की गई है। उनके दर्शनों का गठन भी यानव्यवस्था पर आधारित है। इसके आधारभूत तत्त्व तीन होते हैं, यथा-

  1. आश्रय, वस्तु आलम्बन या पदार्थ,
  2. आश्रित मार्ग (शील, समाधि, प्रज्ञा),
  3. प्रयोजन या लक्ष्यभूत फल।

आश्रय, वस्तु या पदार्थ

मीमांसा के अवसर पर दो सत्यों अर्थात परमार्थ सत्य और संवृति सत्य की चर्चा की जाती है।

परमार्थ सत्य

  • सौत्रान्तिकों की दो धाराओं में से आगम-अनुयायी सौत्रान्तिकों के अनुसार यन्त्र आदि उपकरणों के द्वारा विघटन कर देने पर अथवा बुद्धि द्वारा विश्लेषण करने पर जिस विषय की पूर्व बुद्धि नष्ट नहीं होती, वह 'परमार्थ सत्य' है। यथा-नील, पीत, चित्त, परमाणु, निर्वाण आदि का कितना ही विघटन या विश्लेषण किया जाए, फिर भी नीलबुद्धि, परमाणुबुद्धि या निर्वाणबुद्धि नष्ट नहीं होती, अत: ऐसे पदार्थ उनके मत में परमार्थ सत्य माने जाते हैं। इस मत में चारों आर्यसत्यों के जो सोलह आकार होते हैं, वे परमार्थत: सत माने जाते हैं। ज्ञात है कि प्रत्येक सत्य के चार आकार होते हैं। जैसे दु:खसत्य के अनित्यता, दु:खता, शून्यता एवं अनात्मता ये चार आकार है। समुदय सत्य के समुदय, हेतु, प्रत्यय और प्रभव ये चार आकार, निरोध सत्य के निरोध, शान्त, प्रणीत एवं नि:सरण ये चार आकार तथा मार्गसत्य के मार्ग, न्याय, प्रतिपत्ति और निर्याण ये चार आकार होते हैं। इस तरह कुल 16 आकार होते हैं।
  • युक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिक मत के अनुसार जो परमार्थत: अर्थक्रिया-समर्थ है और प्रत्यक्ष आदि प्रामाणिक बुद्धि का विषय है, वह 'परमार्थ सत्य' है, जैसे- घट आदि। इस मत के अनुसार योगी का समाहित ज्ञान संस्कार (हेतु-प्रत्यय से उत्पन्न) स्कन्धों का ही साक्षात् प्रत्यक्ष करता है तथा उनकी आत्मशून्यता और निर्वाण का ज्ञान तो उस प्रत्यक्ष के सामर्थ्य से होता है।

संवृतिसत्य— इस मत में पाँच स्कन्ध संवृतिसत्य हैं परमार्थत: अर्थक्रियासमर्थ न होना संवृतिसत्य का लक्षण है। संवृतिसत्य, सामान्यलक्षण, नित्य, असंस्कृत एवं अकृतक धर्म पर्यायवाची हैं। संवृति का तात्पर्य विकल्प ज्ञान से है। उसके प्रतिभास स्थल में जो सत्य है, वह संवृतिसत्य है। विकल्प के संवृति इसलिए कहते हैं, क्योंकि वह वस्तु की यथार्थ स्थिति के ग्रहण में आवरण करता है। आगमानुयायी सौत्रान्तिकों के अनुसार यन्त्र आदि उपकरणों द्वारा विघटन करने पर या बुद्धि द्वारा विश्लेषण करने पर जिन पदार्थों की पूर्वबुद्धि नष्ट हो जाती है, वे संवृतिसत्य हैं, यथा- घट, अम्बु आदि।

  • इस दर्शन में पाँच प्रकार के प्रमेय माने जाते हैं, यथा- रूप, चित्त, चैतसिक, विप्रयुक्त संस्कार एवं असंस्कृत निर्वाण। ये स्कन्ध, आयतन और धातुओं में यथायोग्य संगृहीत होते हैं।

आश्रित मार्ग

जिस मार्ग की भावना की जाती है, वह मार्ग वस्तुत: सम्यक ज्ञान ही है।

  1. नैरात्म्य ज्ञान,
  2. चारों आर्यसत्यों के सोलह आकारों का ज्ञान,
  3. सैतीस बोधिपक्षीय धर्म,
  4. चार अप्रमाण,
  5. नौ अनुपूर्व समापत्तियाँ- ये धर्म यथायोग्य लौकिक और अलौकिक मार्गों में संगृहीत होत हैं।

फल

  • स्रोत आपन्न, सकृदागामी, अनागामी और अर्हत ये चार आर्य पुद्गल होते हैं। ये चारों मार्गस्थ और फलस्थ दो प्रकार के होते हैं, अत: आर्यपुद्गलों की संख्या आठ मानी जाती है।
  • सोपधिशेष निर्वाण प्राप्त और निरुपधिशेष निर्वाण प्राप्त-इस तरह अर्हत पुद्गल भी द्विविध होते हैं।
  • प्रत्येक बुद्धत्व और सम्यक संबुद्धत्व भी फल माने जाते हैं।
  • बुद्धत्वप्राप्ति और अर्हत्वप्राप्ति के मार्ग में यद्यपि ज्ञानगत कोई विशेषता इस मत में नहीं मानी जाती, किन्तु पारमिताओं की पूर्ति का दीर्घकालीन अभ्यास अर्थात पुण्यसंचय बुद्धत्व प्राप्ति के मार्ग की विशेषता मानी जाती है।

फलस्थ पुद्गल

जैसे श्रावकयान में चार मार्गस्थ और चार फलस्थ आठ आर्यपुद्गल माने जाते हैं, वैसे ही इस मत के अनुसार प्रत्येक बुद्धयान में भी आर्य पुद्गलों की व्यवस्था की जाती है। किन्तु खङृगोपम प्रत्येक बुद्ध निश्चय ही अर्हत से भिन्न होता है। वह बुद्ध आदि के उपदेशों की बिना अपेक्षा किये आन्तरिक स्वत: स्फूर्त ज्ञान द्वारा निर्वाण का अधिगम करता है। उसका निरुपधिशेष निर्वाण बुद्ध से शून्य देश और काल में होता है। मार्गस्थ और फलस्थ आर्य पुद्गलों के पारमार्थिक संघ में बीस प्रकार के पुद्गल होते हैं। इनका विस्तृत विवेचना अभिसमयालङ्कार और अभिधर्मकोश आदि ग्रन्थों में उपलब्ध है।

सौत्रान्तिक दर्शन की दस विशेषताएं

क्षणभङ्ग सिद्धि
बौद्ध लोग, जो प्रत्येक वस्तु के उत्पाद, स्थिति और भङ्य ये तीन लक्षण मानते हैं, उनको लेकर बौद्धेतर दार्शनिकों के साथ उनके बहुत व्यापक, गम्भीर और दीर्घकालीन विवाद हैं। सौत्रान्तिकों के अनुसार उत्पाद के अनन्तर विनष्ट होनेवाली वस्तु ही क्षण है। उनके अनुसार उत्पाद मात्र ही वस्तु होती है। वस्तु की त्रैकालिक सत्ता नहीं होती। कारण-सामग्री के जुट जाने पर कार्य का निष्पन्न होना ही उत्पाद है। उत्पन्न की भी स्थिति नहीं होती, अपितु उत्पाद के अनन्तर वस्तु नहीं रहती, यही उसकी भङ्गावस्था है।

सूत्रप्रामाण्य
सौत्रान्तिकों के मतानुसार ज्ञानप्रस्थान आदि सात अभिधर्मशास्त्र बुद्ध वचन नहीं हैं, अपितु वे आचार्यों की कृति हैं। वसुमित्र आदि आचार्य उन ग्रन्थों के प्रणेता हैं, अत: वे शास्त्र हैं, न कि बुद्धवचन या आगम। ऐसा मानने पर भी अर्थात सूत्रपिटक मात्र को प्रमाण मानने परी इनके मत में अभिधर्म का आभाव या त्रिपिटक का अभाव नहीं हैं। जिन सूत्रों में वस्तु के स्वलक्षण और सामान्य लक्षण आदि की विवेचना की गई है, वे सूत्र ही अभिधर्म हैं, जैसे अर्थविनिश्चयसूत्र आदि। बुद्धवचन 84,000 धर्मस्कन्ध, 12 अंग एवं तीन पिटकों में संगृहीत होते हैं। परवर्ती सौत्रान्तिक सूत्रों का नेयार्थ और नीतार्थ में विभाजन भी करते हैं।

परमाणुवाद
सौत्रान्तिक मत में परमाणु निरवयव एवं द्रव्यसत् माने जाते हैं। ये परमाणु ही स्थूल रूपों के आरम्भक होते हैं। जब परमाणुओं से स्थूल रूपों का आरम्भ होता है, तब एक संस्थान में विद्यमान होते हुए भी इनमें परस्पर स्पर्श नहीं होता। सौत्रान्तिक मत में ऐसा कोई रूप नहीं होता, जो अनिदर्शन और अप्रतिघ होता हो, जैसा कि अविज्ञप्ति नामक रूप की सत्ता वैभाषिक मानते हैं। इनके अनुसार अविज्ञप्तिरूप की स्वलक्षणसत्ता नहीं है, उसकी मात्र प्रज्ञप्तिसत्ता है।

द्रव्यसत्त्व-प्रज्ञप्तिसत्त्व
सौत्रान्तिकों के अनुसार वे ही पदार्थ द्रव्यसत माने जाते हैं, जो अपने स्वरूप को स्वयं अभिव्यक्त करते हैं तथा जिनमें अध्यारोपित स्वरूप का लेशमात्र भी नहीं होता। उदाहरणस्वरूप रूप्, वेदना आदि धर्म वैसे ही हैं। जब रूप आदि धर्म अपने स्वरूप का या अपने आकार का अपने ग्राहक ज्ञानों में, ज्ञानेद्रियों अथवा आर्य ज्ञानों में आधान (अर्पण) करते हैं, तब वे किसी की अपेक्षा नहीं करते, अपितु स्वत: अपने बल से करते हैं। अपि च, चक्षुरादि प्रत्यक्ष ज्ञान अथवा योगिज्ञान जब रूप आदि का साक्षात्कार करते हैं, तब वे भी उसमें किसी कल्पित आकार का आरोपण नहीं करते। इसलिए रूप, वेदना आदि इनके मत में द्रव्यसत या परमार्थसत माने जाते हैं। पुद्गल आदि धर्म वैसे नहीं हैं। वे अपने स्वरूप का स्वत: ज्ञान में आधान नहीं करते। न तो ज्ञान में पुद्गल आदि का आभास होता है। जब यथार्थ की परीक्षा की जाती है, तब उनका स्वरूप विदीर्ण होने लगता है। केवल उनके अधिष्ठान नाम-रूप आदि धर्म ही उपलब्ध होते हैं। पुद्गल कहीं उपलब्ध नहीं होता। अत: ऐसे धर्म प्रज्ञप्तिसत माने जाते हैं।

ज्ञान की साकारता
वैभाषिक आदि दर्शन के अनुसार रूप आदि विषयों का ग्रहण चक्षु आदि इन्द्रियों के द्वारा होता है, ज्ञान द्वारा नहीं। इन्द्रियों के द्वारा गृहीत नील, पीत आदि विषयों का चक्षुर्विज्ञान आदि इन्द्रिय-विज्ञान अनुभव करते हैं अर्थात इन्द्रियों में प्रतिबिम्बित आकार ही इन्द्रियविज्ञानों का विषय हुआ करता है, अन्यथा विज्ञान बिना आकार के ही होता है। सौत्रान्तिक दर्शन के अनुसार नील, पीत आदि विषय अपना आकार स्वग्राहक ज्ञान में अर्पित करते हैं, फलत: विज्ञान विषयों के आकार से आकरित हो जाते हैं। ज्ञानगत आकार के द्वारा ही विषय अपने को प्रकाशित करते हैं। यदि ऐसा नहीं माना जाएगा तो विज्ञान की बिना अपेक्षा किये ही विषय का प्रकाश होने लगेगा। अत: जहाँ विषय का अवभास होता है, वह ज्ञान ही है। फलत: ज्ञान में प्रतिभासित नील, पीत आदि विषयों की बाह्यसत्ता सिद्ध होती है।

साकार ज्ञानों के भेद
ज्ञानगत आकार के बारे में तीन प्रकार के मत पाये जाते हैं, यथा- ग्राह्य-ग्रहक समसंख्या वाद, नाना अद्वैत वाद तथा नाना अनुपूर्वग्रहण वाद, इसे अर्धाण्डाकार वाद भी कहते हैं।

  • ग्राह्य-ग्राहक समसंख्या वाद— नील, पीत आदि अनेक वर्णों से युक्त चित्र का दर्शन करते समय चित्र में जितने वर्ण होते हैं, उतनी ही संख्या में वर्ण प्रतिबिम्बित विज्ञान भी होते हैं। जैसे चित्र के वर्ण परस्पर भिन्न और पृथक्-पृथक् अवस्थित होते हैं, वैसे ही वे विज्ञान भी होते हैं, अन्यथा विषय और ज्ञान का निश्चित नियम नहीं बन सकेगा। इस वाद के अनुसार चित्र में जितने वर्ण होते हैं, उतने ही विज्ञान एक साथ उत्पन्न होते हैं।
  • नाना अद्वैत वाद— यद्यपि नाना वर्ण वाले चित्रपट को आलम्बन बनाकर अनेक आकारों से युक्त विज्ञान उत्पन्न होता है, तथापि वह चक्षुर्विज्ञान एक ही होता है। एक विज्ञान का अनेक आकारों से युक्त होना न तो असम्भव है और न विरुद्ध ही। क्योंकि अनेक वर्णों का आभास ज्ञान में एकसाथ ही होता है। ज्ञान के अन्दर विद्यमान वे अनेक आकार एक ज्ञान के ही अंश होते हैं, न कि पृथक। इस मत के अनुसार वह चित्र भी अनेक वर्णमाला होने पर भी द्रव्यत: एक और अभिन्न ही होता है। उसमें स्थित सभी वर्ण उस चित्र के अंश ही होते हैं।
  • नाना अनुपूर्वग्रहण वाद— जिस प्रकार एक चित्र में नील, पीत आदि अनेक वर्ण अलग-अलग स्थित होते हैं, वैसे ज्ञान में भी अनेकता होना आवश्यक नहीं है। उस चित्र को ग्रहण करने वाला चक्षुर्विज्ञान एक होते हुए भी उन सभी वर्णों का साक्षात्कार करता है। इस मत के अनुसार अनेक वर्णों के ज्ञान के लिए ज्ञान का अनेक होना आवश्यक नहीं है। यह विषय बड़ा गम्भीर है। घट, पट आदि अनेक वस्तुओं को एक साथ देखने वाला चक्षुर्विज्ञान क्या एक होता है या अनेक। फिर केवल एक विषय को देखनेवाला चक्षुर्विज्ञान तो सम्भव ही नहीं है। क्योंकि प्रत्येक विषय के अपने अवयव होते हैं। चक्षुर्विज्ञान जब एक विषय को देखता है तो उसके अवयवों को भी देखता है। तब क्या उन अवयवों के अनुरूप अनेक चक्षुर्विज्ञान होते हैं अथवा एक ही चक्षुर्विज्ञान होता है? इस विषय में विद्वानों के अनेक मत हैं।

कार्य और कारण की भिन्नकालिकता
कारण हमेशा कार्य से पूर्ववर्ती होता है, इस पर सौत्रान्तिकों का बड़ा आग्रह है। कार्य सर्वदा कारण के होने पर होता है (अन्वय) और न होने पर नहीं होता है (व्यतिरेक)। यदि कार्य और कारण दोनों समान काल में होंगे तो कारण में कार्य को उत्पन्न करने के स्वभाव की हानि का दोष होगा, क्योंकि कारण के काल में कार्य विद्यमान ही है। इस स्थिति में कारण की निरर्थकता का भी प्रसंग (दोष) होगा। इसलिए वैभाषिकों को छोड़कर सौत्रान्तिक आदि सभी बौद्ध दार्शनिक परम्पराएं कारण को कार्य से पूर्ववर्ती ही मानती हैं। वैभाषिक कारण को कार्य का समकालिक तो मानते ही हैं, कभी-कभी तो कार्य से पश्चात्कालिक कारण भी मानते हैं। स्थविरवादी भी सहभू हेतु, पश्चाज्जात हेतु आदि मानते हैं।

प्रहाण और प्रतिपत्ति
वैभाषिक आदि जैसे अर्हत के द्वारा प्राप्त क्लेशप्रहाण और प्राप्त आर्यज्ञान की हानि (पतन) मानते हैं, वैसे सौत्रान्तिक नहीं मानते। सौत्रान्तिकों का कहना है कि क्लेशप्रहाण और आर्यज्ञान का अधिगम चित्त के धर्म हैं और चित्त के दृढ़ होने से उनके भी दृढ़ होने के कारण उनकी हानि की सम्भावना नहीं है। इस विषय का विस्तृत विवरण प्रमाणवार्तिक [2] और उसके अलंकारभाष्य में अवलोकनीय है।

ध्यानाङ्गों की विशेषता
नौ समापत्तियाँ (4 रूपी, 4 अरूपी और निरोधसमापत्ति) होती हैं। इसमें सौत्रान्तिकों और वैभाषिकों में मतभेद नहीं है। किन्तु निरोधसमापत्ति के बारे में सौत्रान्तिकों की कुछ विशेषता है। वैभाषिकों के अनुसार निरोधसमापत्ति अवस्था में चित्त और चैतसिकों का सर्वथा निरोध हो जाता है, यहाँ तक कि उनकी वासनाएं भी अवशिष्ट नहीं रहतीं। क्योंकि वासनाओं की आधार चित्तसन्तति का सर्वथा निरोध हो चुका है। हाँ, उनकी प्राप्ति आदि विप्रयुक्त संस्कार अवशिष्ट रह सकती हैं।

प्रमाण आदि सम्यग्ज्ञान
विज्ञान की साकारता के आधार पर सौत्रान्तिक प्रमाणों की व्यवस्था करते हैं। विज्ञान की साकारता का प्रतिपादन पहले किया जा चुका है। प्रमाणों में स्वसंवेदन प्रत्यक्ष की स्थापना सौत्रान्तिकों की विशेषता है। सौत्रान्तिकों की ज्ञानमीमांसा में ज्ञान और उनके भेदों की चर्चा है।

बुद्ध, बोधिसत्त्व और बुद्धकाय
पारमिताओं की साधना के आधार पर बोधिसत्त्वों की चर्या का वर्णन सूत्रपिटक में प्राय: जातकों में उपलब्ध होता हैं। बुद्धत्व ही बोधिसत्त्वों का अन्तिम पुरुषार्थ है क्योंकि उसके द्वारा ही वे बहुजन का हित सम्पादन करने में पूर्ण समर्थ होते हैं। इसके लिए वे तीन असंख्येय कल्प पर्यन्त ज्ञानसम्भार का अर्जन करते हैं। जम्बूद्वीप का आर्य बोधिसत्त्व बुद्धत्व के सर्वथा योग्य होता है। कामधातु के अन्य द्वीपों में तथा अन्य धातु और योनियों में उत्पन्न काय से बुद्धत्व की प्राप्ति सम्भव नहीं है।

काय

महायान से अतिरिक्त अन्य बौद्ध निकायों की इस विषय में प्राय: समान मान्यता है कि भगवान बुद्ध के दो काय होते हैं, यथा- रूपकाय और धर्मकाय। वैभाषिकों की यह मान्यता है कि *भगवान बुद्ध का रूपकाय, जो बत्तीस लक्षणों और अस्सी अनुव्यजंनों से प्रतिमण्डित है, वह सास्रव होता है तथा माता-पिता के शुक्र-शोणित से उत्पन्न 'करज काय' होता है।

  • सौत्रान्तिक में कुछ आगमानुयायी भी प्राय: इसी मत के हैं।
  • स्थविरवादी भी ऐसा ही मानते हैं।
  • युक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिक रूपकाय को 'बुद्ध' ही मानते हैं, क्योंकि वह अनेक कल्पों तक सम्भारों का सम्भरण करने से पुण्यपुंजात्मक होता है।
  • धर्मकाय के स्वरूप के बारे में वैभाषिकों और सौत्रान्तिकों में विशेष मतभेद नहीं है, किन्तु धर्मकाय से सम्बद्ध जो निर्वाण तत्त्व है, उसे वैभाषिक द्रव्यसत मानते हैं।
  • सौत्रान्तिकों के अनुसार निर्वाण का अभावस्वरूप होना, उसकी धर्मता है और यही सर्व प्रपंचों का उपशम है।

ज्ञानमीमांसा

  • सौत्रान्तिकों की ज्ञानमीमांसा के विकास में आचार्य दिङ्नाग का योगदान विद्वानों से तिरोहित नहीं है।
  • यद्यपि उनसे पहले भी न्यायविद्या से सम्बद्ध प्रमाणविद्या का अस्तित्व था, किन्तु वह इतना मिला- स्पष्ट विभाजन देख सकते हैं।
  • बौद्धेतर शास्त्रों में आगम, शब्द, ऐतिह्य आदि ज्ञान से भिन्न जुला था कि उसमें वैदिक, अवैदिक, आदि भेद करना सम्भव नहीं था।
  • दिङ्नाग के बाद हम उनमें साधन भी प्रमाण माने जाते हैं किन्तु आचार्य दिङ्नाग में सम्यग ज्ञान को ही सर्वप्रथम प्रमाण निर्धारित किया।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अभिधर्मकोशभाष्टीका, स्फुटार्था, पृ. 15
  2. (1:206)

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