मिलिन्दपन्ह

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  • बौद्ध धर्म के मिलिन्दपन्ह ग्रंथ से ईसा की प्रथम दो शताब्दियों के भारतीय जन-जीवन के विषय में जानकारी मिलती है।
  • इस ग्रंथ में यूनानी नरेश मिनेण्डर (मिलिन्द) एवं बौद्ध भिक्षु नागसेन के बीच बौद्ध मत पर वार्तालाप का वर्णन है।

नागसेन के जीवन के बारे में "मिलिन्द प्रश्न"[1] में जो कुछ मिलता है, उससे इतना ही मालूम होता है, कि हिमालय-पर्वत के पास (पंजाब) में कजंगल गाँव में सोनुत्तर ब्राह्मण के घर में उनका जन्म हुआ था। पिता के घर में ही रहते उन्होंने ब्राह्मणों की विद्या वेद, व्याकरण आदि को पढ़ लिया था। उसके उनका परिचय उस वक्त वत्तनीय (=वर्त्तनीय) स्थान में रहते एक विद्वान भिक्षु रोहण से हुआ, जिससे नागसेन बौद्ध-विचारों की ओर झुके। रोहण के शिष्य बन वह उनके साथ विजम्भवस्तु [2] (=विजम्भवस्तु) होते हिमालय में रक्षिततल नामक स्थान में गये। वहीं गुरु ने उन्हें उस समय की रीति के अनुसार कंठस्थ किये सारे बौद्ध वाड्मय को पढाया। और पढ़ने की इच्छा से गुरु की आज्ञा के अनुसारवह एक बार फिर पैदल चलते वर्त्तनीय में एक प्रख्यात विद्वान अश्वगुप्त के पास पहुँचे। अश्वगुप्त अभी इस नये विद्यार्थी की विद्या-बुद्धि की परख कर ही रहे थे, कि एक दिन किसी गृहस्थ के घर भोजन के उपरांत कायदे के अनुसार दिया जाने वाला धर्मोपदेश नागसेन के जिम्मे पड़ा। नागसेन की प्रतिभा उससे खुल गई और अश्वगुप्त ने इस प्रतिभाशाली तरुण को और योग्य हाथों में सौंपनें के लिए पटना (=पाटलिपुत्र) के अशोका राम बिहार में वास वाले आचार्य धर्मरक्षित के पास भेज दिया। सौ योजन पर अवस्थित पटना पैदल जाना आसान काम न था, किंतु अब भिक्षु बराबर आते-आते रहते थे, व्यापारियों का सार्थ (=कारवाँ) भी एक-न-एक चलता ही रहता था। नागसेन को एक ऐसा ही कारवाँ मिल गया जिसके स्वामी ने बड़ी खुशी से इस तरुण विद्वान को खिलाते-पिलाते साथ ले चलना स्वीकार किया। अशोका राम में आचार्य धर्मरक्षित के पास रहकर उन्होंने बौद्ध तत्त्व-ज्ञान और पिटक का पूर्णतया अध्ययन किया। इसी बीच उन्हें पंजाब से बुलौवा आया और वह एक बार फिर रक्षिततल पर पहुँचे। मिनान्दर (=मिलिन्द) का राज्य यमुना से आमू (वक्षु) दरिया तक फैला हुआ था। यद्यपि उसकी एक राजधानी बलख (वाहलीक) भी थी, किंतु हमारी इस परंपरा के अनुसार मालूम होता है, मुख्य राजधानी सागल (=स्यालकोट) नगरी थी। प्लूतार्क ने लिखा है कि- मिनान्दर बड़ा न्यायी, विद्वान और जनप्रिय राजा था। उसकी मृत्यु के बाद उसकी हड्डियों पर बड़े-बड़े स्तूप बनवाये। मिनान्दर को शास्त्र चर्चा और बहस की बड़ी आदत थी, और साधारण पंडित उसके सामने नहीं टिक सकते थे। भिक्षुओं ने कहा- 'नगसेन! राजा मिलिन्द वाद विवाद में प्रश्न पूछ कर भिक्षु-संघ को तंग करता और नीचा दिखाता है; जाओ तुम उस राजा का दमन करो।" नागसेन, संध के आदेश को स्वीकार कर सागल नगर के असंखेय्य नामक परिवेण (=माठ) में पहुँचे। कुछ ही समय पहले वहाँ के बड़े पंडित आयु पाल को मिनान्दर ने चुप कर दिया था। नागसेन के आने की खबर शहर में फैल गई। मिनान्दर ने अपने एक अमात्य देवमंत्री (=जो शायद यूनानी दिमित्री है) से नागसेन से मिलने की इच्छा प्रकट की। स्वीकृति मिलने पर एक दिन "पाँच सौ यवनों के साथ अच्छे रथ पर सवार हो असंखेय्य परिवेण में गया। राजा ने नमस्कार और अभिनंदन के बाद प्रश्न शुरु किये।" इन्ही प्रश्नों के कारण इस ग्रंथ का नाम "मिलिन्द-प्रश्न" पड़ा। यद्यपि उपलभ्य पाली "मिलिन्द पंझ" में छ: परिच्छेद' हैं, किंतु उनमें से पहले के तीन ही पुराने मालूम होते हैं; चीनी भाषा में भी इन्हीं तीन परिच्छेदों का अनुवाद मिलता है। मिनान्द ने पहले दिन मठ में जाकर नागसेन से प्रश्न किये; दूसरे दिन उसने महल में निमंत्रण कर प्रश्न पूछे।

दार्शनिक विचार

अपने उत्तर में नागसेन ने बुद्ध के दर्शन के अनात्मवाद, कर्म या पुनर्जन्म, नाम-रूप (=मन और भौतिक तत्त्व), निर्वाण आदि को ज्यादा विशद करने का प्रयत्न किया है। (1). अनात्मवाद- मिनान्द से पहले बौद्धों के अनात्मवाद की ही परीक्षा करनी चाही। उसने पूछा [3] (क) "भंते (स्वामिन)! आप किस नाम से जाने जाते है?" "नागसेन..... नाम से (मुझे) पुकारते हैं? .....किंतु यह केवल व्यवहार के लिए संज्ञा भर है, क्योंकि यरथार्थ में ऐसा कोई एक पुरुष (=आत्मा) नहीं है। "भंते! यदि एक पुरुष नहीं है तो कौन आपको वस्त्र..... भोजन देता है? कौन उसको भोग करता है? कौन शील (=सदाचार) की रक्षा करता है? कौन ध्यान........ का अभ्यास करता है? कौन आर्यमार्ग के फल निर्वाण का साक्षात्कार करता है? ......यदि ऐसी बात है तो न पाप है और न पुण्य, न पाप और पुण्य का कोई करने वाला है.. न करने वाला है।... न पाप और पुण्य.... के ...फल होते हैं? यदि आपको कोई मार डाले तो किसी का मारना नहीं हुआ।.... (फिर) नागसेन क्या है? ......क्या ये केश नागसेन हैं?" "नहीं महाराज!" "ये रोयें नागसेन हैं?" "नहीं महाराज!" "ये नख, दाँत, चमड़ा, माँस, स्नायु, हड्डी, मज्जा, बुक्क, हृदय, यकृत, क्लोमिक, प्लीहा, फुफ्फुस, आँत, पतली, आँत, पेट, पाखाना, पित्त, कफ, पीव, लोहू, पसीना, मेद, आँसू, चर्बी, राल, नासामल, कर्णमल, मस्तिष्क नागसेन हैं?" "नहीं महाराज" "तब क्या आपका रूप (=भौतिक तत्त्व) ....वेदना ...संज्ञा... संस्कार या विज्ञान नागसेन हैं?" "नहीं महाराज!" "...तो क्या.... रूप... विज्ञान (=पाँचों स्कंध) सभी एक साथ नागसेन हैं?" "नहीं महाराज!" "....तो क्या.... रूप आदि से भिन्न कोई नागसेन है?" "नहीं महाराज!" "भंते! मैं आपसे पूछते-पूछते थक गया किंतु नागसेन क्या है। इसका पता नहीं लग सका। तो क्या नागसेन केवल शब्दमात्र है? आखिर नागसेन है कौन?"

"महाराज! ...क्या आप पैदल चल कर यहाँ आये या किसी सवारी पर ?" "भंते! .... मैं रथ पर आया।" "महाराज!.... तो मुझे बतावें कि आपका रथ कहाँ है? क्या हरिस (=ईषा) रथ है?" "नहीं भंते!" "क्या अक्ष रथ है?" "नहीं भंते!" "क्या चक्के रथ हैं?" "नहीं भंते! "क्या रथ का पंजर... रस्सियाँ... लगाम.... चाबुक.... रथ है? "नहीं भंते! "महाराज! क्या हरीस आदि सभी एक साथ रथ हैं? "नहीं भंते! "महाराज! क्या हरीस आदि के परे कहीं रथ है?" "नहीं भंते!" "महाराज! मैं आपसे पूछते-पूछते थक गया, किंतु यह पता नहीं लगा कि रथ कहाँ है? क्या रथ केवल एक मात्र है। आखिर यह रथ है क्या? आप झूठ बोलते हैं कि रथ नहीं है! महाराज! सारे जम्बूद्वीप (=भारत) के आप सबसे बड़े राजा हैं; भला किससे डरकर आप झूठ बोलते हैं?

"भंते नागसेन! मैं झूठ नहीं बोलता। हरीस आदि रथ के अवयवों के आधार पर केवल व्यवहार के लिए 'रथ' ऐसा एक नाम बोला जाता है।" "महाराज! बहुत ठीक, आपने जान लिया कि रथ क्या है। इसी तरह मेरे केश आदि के आधार पर केवल व्यवहार के लिए 'नागसेन' ऐसा एक नाम बोला जाता है। परंतु, परमार्थ में नागसेन कोई एक पुरुष विद्यमान नहीं है। भिक्षुणी वज्रा ने भगवान् के सामने इसीलिए कहा था- 'जैसे अवयवों के आधार पर 'रथ' संज्ञा होती है, उसी तरह (रूप आदि) स्कंधों के होने से एक सत्त्व (=जीव) समझा जाता है।"[4]

(ख) "महाराज! 'जान लेना' विज्ञान की पहिचान है, 'ठीक से समझ लेना' प्रज्ञा की पहिचान है; और 'जीव' ऐसी कोई चीज नहीं है।" भंते! यदि जीव कोई चीज ही नहीं है, तो हम लोगों में वह क्या है जो आँख से रूपों को देखता है, कान से शब्दों को सुनता है, नाक से गंधों को सूँघता है, जीभ से स्वादों को चखता है, शरीर से स्पर्श करता है और मन से धर्मों को जानता है।"

'महाराज! यदि शरीर से भिन्न कोई जीव है जो हम लोगों के भीतर रह आँख से रूप को देखता है, तो आँख निकाल लेने पर बड़े छेद से उसे और भी अच्छी तरह देखना चाहिए। कान काट देने पर बड़े छेद से उसे और भी अच्छी तहर सुनना चाहिए। नाक काट देने पर उसे और भी अच्छी तरह सूँघना चाहिए। जीभ काट देने पर उसे और भी अच्छी तरह स्वाद लेना चाहिए और शरीर को काट देने पर उसे और भी अच्छी तरह स्पर्श करना चाहिए।" "नहीं भंते! ऐसी बात नहीं है।" "महाराज! तो हम लोगों के भीतर कोई जीव भी नहीं है।"[5]

(2) कर्म या पुनर्जन्म- आत्मा के न मानने पर किये गये भले बुरे कर्मों की जिम्मेवारी तथा उसके अनुसार परलोक में दु:ख-सुख भोगना कैसे होगा, मिनान्दर ने इसकी चर्चा चलाते हुए कहा। "भंते! कौन जन्म ग्रहण करता है?" "महाराज! नाम[6] (=विज्ञान) और रूप[7]…..| "क्या यही नाम-रूप जन्म ग्रहण करता है?"

"महाराज! यही नाम और रूप जन्म नहीं ग्रहण करता। मनुष्य इस नाम और रूप से पाप या पुण्य़ करता है, उस कर्म के करने से दूसरा नाम रूप जन्म ग्रहण करता है।" भंते! तब तो पहला नाम और रूप अपने कर्मों से मुक्त हो जाता है?" "महाराज! यदि फिर भी जन्म नहीं ग्रहण करे, तो मुक्त हो गया; किंतु चूँकि वह फिर भी जन्म ग्रहण करता है, इसलिए (मुक्त) नहीं हुआ।" "....उपमा देकर समझावें।"

(1) "आम की चोरी"[8]- कोई आदमी किसी का आम चुरा ले। उसे आम का मालिक पकड़ कर राजा के पास ले जाये- राजन्! इसने मेरा आम चुराया है'। इस पर वह (चोर) ऐसा कहे- 'नहीं', मैंने इसके आमों को नहीं चुराया है। इसने (जो आम लगाया था) वह दूसरा था, और मैंने जो आम लिये वे दूसरे हैं।.... महाराज! अब बतावें कि उसे सजा मिलनी चाहिए या नहीं", "....... सजा मिलनी चाहिए।" "सो क्यों?" "भंते! वह ऐसा भले ही कहे, किंतु पहले आम को छोड़ दूसरे ही को चुराने के लिए उसे ज़रूर सजा मिलनी चाहिए।" "महाराज! इसी तरह इस नाम और रूप से पाप या पुण्य.... करता है। उन कर्मों से दूसरा नाम और रूप जन्मता है। इसीलिए वह अपने कर्मों से मुक्त नहीं हुआ।......

(2) "आग का प्रवास- महाराज! ...कोई आदमी जाड़े में आग जलाकर तापे और उसे बिना बुझाये छोड़कर चला जाये। वह आग किसी दूसरे आदमी के खेत को जला दे... (पकड़कर राजा के पास ले जाने पर वह आदमी बोले-) 'मैंने इस खेत को नहीं जलाया।.... वह दूसरी ही आग थी, जिसे मैंने जलाया था, और वह दूसरी है जिससे.... खेत जला। मुझे सजा नहीं मिलनी चाहिए।' ......महाराज! उसे सजा मिलनी चाहिए या नहीं! "... मिलनी चाहिए।.... उसी की जलाई हुई आग ने बढ़ते-बढ़ते खेत को भी जला दिया।....

(3) "दीपक से आग लगना- महाराज! कोई आदमी दीया लेकर अपने घर के उपरले छत पर जाये और भोजन करे। वह दीया जलता हुआ कुछ तिनकों में लग जाये। वे तिनके घर को (आग) लगा दें, और वह घर सारे गाँव को लगा दे। गाँव वाले उस आदमी को पकड़कर कहें- 'तुमने गाँव में क्यों आग लगाई?' इस पर वह कहे- मैंने गाँव में आग नहीं लगाई। उस दीये की आग दूसरी ही थी, जिसकी रोशनी में मैंने भोजन किया था, और वह आग दूसरी ही थी, जिसने गाँव जलाया।' इस तरह आपस में झगड़ा करते (यदि) वे आपके पास आवें तो आप किधर फैसला देंगे?" "भंते! गाँव वालों की ओर....।" "महाराज! इसी तरह यद्यपि मृत्यु के साथ एक नाम और रूप का लय होता है और जन्म के साथ दूसरा नाम और रूप उठ खड़ा होता है, किंतु यह भी उसी से होता है। इसलिए वह अपने कर्मों से मुक्त नहीं हुआ।"

(ग)- विवाहित कन्या- महाराज! कोई आदमी..... रुपया दे एक छोटी सी लड़की से विवाह कर, कहीं दूर चला जाये। कुछ दिनों के बाद वह बढ़कर जवान हो जाये। तब कोई दूसरा आदमी रुपया देकर उससे विवाह कर ले। इसके बाद पहला आदमी आकर कहे- 'तुमने मेरी स्त्री को क्यों निकाल लिया? इस पर वह ऐसा जवाब दे- मैंने तुम्हारी स्त्री को क्यों निकाला। वह छोटी लड़की दूसरी ही थी, जिसके साथ तुमने विवाह किया था और जिसके लिए रुपये दिये थे। यह सयानी, जवान औरत दूसरी ही है जिसके साथ मैंने विवाह किया है और जिसके लिए रुपये दिये हैं। अब यदि दोनों इस तरह झगड़ते हुए आपके पास आवें तो आप किधर फैसला देंगे?

".... पहले आदमी की ओर।......(क्योंकि) वही लड़की तो बढ़कर सयानी हुई।"

(घ)[9]"भंते! जो उत्पन्न है, वह वही व्यक्ति है या दूसरा?" "न वही और न दूसरा ही।.... (1) जब आप बच्चे थे और खाट पर चित्त ही लेट सकते थे, क्या आप अब इतने बड़े होकर भी वही हैं?" "नहीं भंते! अब मैं दूसरा हो गया हूँ।" "महाराज! यदि आप वही बच्चा नहीं हैं, तो अब आपकी कोई माँ भी नहीं है, कोई पिता भी नहीं है, कोई गुरु भी नहीं।.... क्योंकि तब तो गर्भ की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं की भी भिन्न-भिन्न माताएँ होयेंगे। बड़े होने पर माता भी भिन्न हो जायेगी। शिल्प सीखने वाला (विद्यार्थी) दूसरा और सीखकर तैयार (हो जाने पर)....दूसरा होगा। अपराध करने वाला दूसरा होगा और (उसके लिए) हाथ-पैर किसी दूसरे का काटा जायेगा।"

"भंते!.... आप इससे क्या दिखाना चाहते हैं?" "महाराज! मैं बचपन में दूसरा था और इस समय बड़ा होकर दूसरा हो गया हूँ; किंतु वह सभी भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ इस शरीर पर ही घटने से एक ही में ले ली जाती हैं।....... (2) यदि कोई आदमी दीया जलावे, तो वह रात भर जलता रहेगा न ?" ".......रात भर जलता रहेगा।" "महाराज! रात के पहले पहर में जो दीये की टेम थी। क्या वही दूसरे या तीसरे पहर में भी बनी रहती है?" "नहीं, भंते!" "महाराज! तो क्या वह दीया पहले पहर में दूसरा, दूसरे और तीसरे पहर में और हो जाता है?" "नहीं भंते! वही दीया सारी रात जलता रहता है।" "महाराज! ठीक इसी तरह किसी वस्तु के अस्तित्व के सिलसिले में एक अवस्था उत्पन्न होती है, एक लय होती है- और इस तरह प्रवाह जारी रहता है। एक प्रवाह की दो अवस्थाओं में एक क्षण का भी अंतर नहीं होता; क्योंकि एक के लय होते ही दूसरी उत्पन्न हो जाती है। इसी कारण न (वह) वही जीव है और न दूसरा ही हो जाता है। एक जन्म के अंतिम विज्ञान (=चेतना) के लय होते ही दूसरे जन्म का प्रथम विज्ञान उठ खड़ा होता है। (ड)[10]"भंते! जब एक नाम-रूप से अच्छे या बुरे कर्म किये जाते हैं, तो वे कर्म कहाँ ठहरते हैं?" "महाराज! कभी भी पीछा नहीं छोड़ने वाली छाया की भाँति वे कर्म उसका पीछा करते हैं।" "भंते! क्या वे कर्म दिखाये जा सकते हैं, (कि) वह यहाँ ठहरे हैं?" "महाराज! वे इस तरह नहीं दिखाये जा सकते।..... क्या कोई वृक्ष के उन फलों को दिखा सकता है जो अभी लगे ही नहीं....?

(3) नाम और रूप- बुद्ध ने विश्व के मूल तत्त्व को विज्ञान (=नाम) और भौतिक तत्त्व (=रूप) में बाँटा है, इनके बारे में मिनान्दर ने पूछा- "भंते! ....नाम क्या चीज है और रूप क्या चीज?"

"महाराज! जितनी स्थूल चीजें हैं, सभी रूप हैं, और जितने सूक्ष्म मानसिक धर्म हैं, सभी नाम हैं।..... दोनों एक दूसरे के आश्रित हैं, एक दूसरे के बिना ठहर नहीं सकते। दोनों सदा साथ ही होते हैं। .......यदि मुर्गी के पेट में (बीज रूप में) बच्चा नहीं हो तो अंडा भी नहीं हो सकता; क्योंकि बच्चा और अंडा दोनों एक दूसरे पर आश्रित हैं। दोनों एक ही साथ होते हैं। यह (सदा से).... होता चला आया है।......"


(4) निर्वाण- मिनान्दर ने निर्वाण के बारे में पूछते हुए कहा[11]

"भंते! क्या निरोध हो जाना ही निर्वाण है?" "हाँ, महाराज! निरोध (=बन्द) हो जाना ही निर्वाण है।.... सभी....अज्ञानी.... विषयों के उपभोग में लगे रहते हैं, उसी में आनन्द लेते हैं, उसी में डूबे रहते हैं। वे उसी की धारा में पड़े रहते हैं, बार-बार जन्म लेते, बूढ़े होते, मरते, शोक करते, रोते-पीटते, दुःख, बेचैनी और परेशानी से नहीं छूटते। (वह) दुःख ही दुःख में पड़े रहते हैं। महाराज! किंतु ज्ञानी....विषयों के भोग (=उपादान) में नहीं लगे रहते। इससे उनकी तृष्णा का निरोध हो जाता है। उपादान के निरोध से भव (=आवागमन) का निरोध हो जाता है। भव के निरोध से जन्मना बन्द हो जाता है।.... (फिर) बूढ़ा होना, मरना...सभी दुःख बन्द (=निरुद्ध) हो जाते हैं। महाराज! इस तरह निरोध हो जाना ही निर्वाण है।.... [12] .....(बुद्ध) कहाँ हैं?" "महाराज! भगवान् परम निर्वाण को प्राप्त हो गये हैं, जिसके बाद उनके व्यक्तित्व को बनाये रखने के लिए कुछ भी नहीं रह जाता......।"

"भंते! उपमा देकर समझावें।" "महाराज! क्या होकर-बुझ-गई जलती आग की लपट दिखाई जा सकती है.......?

"नहीं भंते! वह लपट तो बुझ गई।"

नागसेन ने अपने प्रश्नोत्तरों से बुद्ध के दर्शन में कोई बात नहीं जोड़ी, किंतु उन्होंने उसे कितना साफ किया यह ऊपर के उद्धरणों से स्पष्ट है। यहाँ हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए, कि नागसेन का अपना जन्म हिन्दी यूनानी साम्राज्य और सभ्यता के केन्द्र स्यालकोट (=सागल) के पास हुआ था, और भारतीय ज्ञान के साथ-साथ यूनानी ज्ञान का भी परिचय रखने के कारण ही वह मिनान्दर जैसे तार्किक का समाधान कर सके थे। मिनान्दर और नागसेन का यह संवाद इतिहास की उस विस्तृत घटना का एक नमूना है, जिसमें कि हिन्दी और यूनानी प्रतिभाएँ मिलकर भारत में नई विचार-धाराओं का आरम्भ कर रही थीं।


सन्दर्भ त्रुटि: अमान्य <ref> टैग; नाम रहित संदर्भों में जानकारी देना आवश्यक है






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संबंधित लेख

  1. 'मिलिन्द प्रश्न, अनुवादक भिक्षु जगदीश काश्यप, 1637 ई.
  2. वर्त्तनीय, कंगजल और शायद विजम्भवस्तु भी स्यालकोट के ज़िले में थे।
  3. मिलिन्द-प्रश्न, 2।9 (अनुवाद, पृष्ठ 30-34)
  4. संयुत्तनिकाय, 5।10।6
  5. वही, 3।4।44 (अनुवाद, पृष्ठ 110)
  6. Mind.
  7. Matter
  8. वही, 2।2।14 (अनुवाद, पृष्ठ 57-60)
  9. वही, 2।2।9 (अनुवाद, पृ.49)
  10. वही
  11. वही, 3।1।6(अनुवाद, पृ. 85)
  12. वही, 3।2।18 (अनुवाद, पृ. 91)