अपोहवाद
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अपोहवाद की स्थापना बौद्ध दर्शन ने यथार्थवाद के साथ अन्य सभी वादों को अस्वीकार करके अपने सिद्धान्त क्षणिकवाद का पोषण करते हुए की थी। बौद्धों के अपोहवाद में सत्य का अंश यह है कि सभी जातिगत प्रत्यय बौद्धिक प्रत्यय हैं तथा उनका साक्षात्कार विशिष्ट गतिशील विशेषों के आधार पर होता है।
- बौद्ध दर्शन में सामान्य का खंडन करके नामजात्याद्यसंयुत अर्थ को ही शब्दार्थ माना गया है। न्यायमीमांसा दर्शनों में कहा गया है कि भाषा सामान्य या जाति के बिना नहीं रह सकती। प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग शब्द हो तो भाषा का व्यवहार नष्ट हो जाएगा। अनेकता में एकत्व व्यवहार भाषा की प्रवृत्ति का मूल है और इसी को तात्विक दृष्टि से सामान्य कहा जाता है।[1]
- भाषा ही नहीं, ज्ञान के क्षेत्र में भी सामान्य का महत्व है, क्योंकि यदि एक ज्ञान को दूसरे ज्ञान से पृथक् माना जाए तो एक ही वस्तु के अनेक ज्ञानों में परस्पर कोई संबंध नहीं हो सकेगा। अत: सामान्य या जाति को अनेक व्यक्तियों में रहने वाली एक नित्य सत्ता माना गया है। यही सत्ता भाषा के व्यवहार का कारण है और भाषा का भी यही अर्थ है।
- बौद्धों के अनुसार सभी पदार्थ क्षणिक हैं। अत: वे सामान्य की सत्ता नहीं मानते। यदि सामान्य नित्य है तो वह अनेक व्यक्तियों में कैसे रहता है? यदि सामान्य नित्य है तो नष्ट पदार्थ में रहने वाले सामान्य का क्या होता है? अत: वह किसी अन्य वस्तु से संबंधित न होकर अपने आप में ही विशिष्ट एक सत्ता है, जिसे स्वलक्षण कहा जाता है।[1]
- अनेक स्वलक्षण पदार्थों में ही अज्ञान के कारण एकता की मिथ्या प्रतीति होती है और चूंकि लोक व्यवहार के लिए ऐसी प्रतीति की आवश्यकता है, इसलिए सामान्य लक्षण पदार्थ व्यावहारिक सत्य तो हैं, किंतु परमार्थत: वे असत् हैं।
- शब्दों का अर्थ परमार्थत: सामान्य के संबंध से रहित होकर ही भासित हाता है। इसी को 'अन्यापोह' या 'अपोह' कहते हैं।
- अपोह सिद्धांत के विकास के तीन स्तर माने जाते हैं-
- दिंडनाग के अनुसार शब्दों का अर्थ अन्याभाव मात्र होता है।
- शान्तरक्षित ने कहा कि, "शब्द भावात्मक अर्थ का बोध कराता है, उसका अन्य से भेद 'ऊहा' से मालूम होता है।"
- रत्नकीर्ति ने अन्य के भेद से युक्त शब्दार्थ माना है।
- उपरोक्त तीन सिद्धांत कम से कम अन्य से भेद को शब्दार्थ अवश्य मानते हैं। यही 'अपोहवाद' की विशेेषता है।[1]
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