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उत्पाद बौद्ध दर्शन के अनुसार भौतिक तथा मानसिक अवस्थाओं में एक क्षण भी स्थिर रहनेवाला कोई तत्व नहीं है। सभी चीजें प्रदीपशिखा की तरह अनवरत अविच्छिन्न रूप से प्रवाहशील हैं। तो भी, चूँकि हमारा ज्ञान स्थिर कल्पानाओं से बना हुआ है, उस अनित्यस्वरूप की व्याख्या शब्दों से करना कठिन है। अत: बुद्ध के मौलिक अनित्यवाद ने आगे चलकर क्षणिकवाद कार रूप ग्रहण कर लिया। इस 'क्षण' की कल्पना अत्यंत सूक्ष्म की गई। इसमें उत्पाद, स्थिति, भंग के क्षण माने गए। उत्पाद-स्थिति-भंग, इन तीन क्षणों का एक चित्तक्षण या रूपक्षण माना गया। आगे चलकर दार्शनिकों ने बताया कि परमतात्विक दृष्टि में उत्पाद-स्थिति-भंग के तीन क्षण हो ही नहीं सकते, सत्ता की प्रवाहशीलता तो अविच्छिन्न है। (भि.ज.का)[1]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 2 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 85 |

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