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अकबर की मृत्यु से कुछ समय पहले का चित्र-1605 ई.

जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर भारत का महानतम मुग़ल शंहशाह बादशाह था। जिसने मुग़ल शक्ति का भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांश हिस्सों में विस्तार किया। अकबर को अकबर-ऐ-आज़म, शहंशाह अकबर तथा महाबली शहंशाह के नाम से भी जाना जाता है।

जन्म

अकबर का जन्म 15 अक्टूबर, 1542 ई. (19 इसफन्दरमिज रविवार, रजब हिजरी का दिन या विक्रम संवत 1599 के कार्तिक मास की छठी)[1] को 'हमीदा बानू' के गर्भ से अमरकोट के राणा वीरसाल के महल में हुआ था। आजकल कितने ही लोग अमरकोट को उमरकोट समझने की ग़लती करते हैं। वस्तुत: यह इलाका राजस्थान का अभिन्न अंग था। आज भी वहाँ हिन्दू राजपूत बसते हैं। रेगिस्तान और सिंध की सीमा पर होने के कारण अंग्रेज़ों ने इसे सिंध के साथ जोड़ दिया और विभाजन के बाद वह पाकिस्तान का अंग बन गया। अकबर के बचपन का नाम 'बदरुद्दीन' था। 1546 ई. में अकबर के खतने के समय हुमायूँ ने उसका नाम 'जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर' रखा। अकबर के जन्म के समय की स्थिति सम्भवतः हुमायूँ के जीवन की सर्वाधिक कष्टप्रद स्थिति थी। इस समय उसके पास अपने साथियों को बांटने के लिए एक कस्तूरी के अतिरिक्त कुछ भी न था। अकबर का बचपन माँ-बाप के स्नेह से रहित अस्करी के संरक्षण में माहम अनगा, जौहर शम्सुद्दीन ख़ाँ एवं जीजी अनगा की देख-रेख में कंधार में बीता। हुमायूँ ऐसी स्थिति में नहीं था कि, अपने प्रथम पुत्र के जन्मोत्सव को उचित रीति से मना सकता। सारी कठिनाइयों में मालिक के साथ रहने वाला जौहर, अकबर के समय बहुत बूढ़ा होकर मरा। उसने लिखा है-

बादशाह ने इस संस्मरण के लेखक को हुक्म दिया-जो वस्तुएँ तुम्हें मैनें सौंप रखी हैं, उन्हें ले आओ। इस पर मैं जाकर दो सौ शाहरुखदी (रुपया), एक चाँदी का कड़ा और दो दाना कस्तूरी (नाभि) ले आया। पहली दोनों चीज़ों को उनके मालिकों के पास लौटाने के लिए हुक्म दिया। फिर एक चीनी की तस्तरी मंगाई। उसमें कस्तूरी को फोड़कर रख दिया और यह कहते हुए उपस्थित व्यक्तियों में उसे बाँटा: "अपने पुत्र के जन्म दिन के उपलक्ष्य में आप लोगों को भेंट देने के लिए मेरे पास बस यही मौजूद है। मुझे विश्वास है, एक दिन उसकी कीर्ति सारी दुनिया में उसी तरह फैलेगी, जैसे एक स्थान में यह कस्तूरी"

ढोल और बाजे बजाकर इस खुशख़बरी की सूचना दी गई।

शिक्षा

अकबर आजीवन निरक्षर रहा। प्रथा के अनुसार चार वर्ष, चार महीने, चार दिन पर अकबर का अक्षरारम्भ हुआ और मुल्ला असामुद्दीन इब्राहीम को शिक्षक बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। कुछ दिनों के बाद जब पाठ सुनने की बारी आई, तो वहाँ कुछ भी नहीं था। हुमायूँ ने सोचा, मुल्ला की बेपरवाही से लड़का पढ़ नहीं रहा है। लोगों ने भी जड़ दिया-“मुल्ला को कबूतरबाज़ी का बहुत शौक़ है। उसने शागिर्द को भी कबूतरों के मेले में लगा दिया है”। फिर मुल्ला बायजीद शिक्षक हुए, लेकिन कोई भी फल नहीं निकला। दोनों पुराने मुल्लाओं के साथ मौलाना अब्दुल कादिर के नाम को भी शामिल करके चिट्ठी डाली गई। संयोग से मौलाना का नाम निकल आया। कुछ दिनों तक वह भी पढ़ाते रहे। काबुल में रहते अकबर को कबूतरबाज़ी और कुत्तों के साथ खेलने से फुर्सत नहीं थी। हिन्दुस्तान में आया, तब भी वहीं रफ्तार बेढंगी रही। मुल्ला पीर मुहम्मद-बैरम ख़ाँ के वकील को यह काम सौंपा गया। लेकिन अकबर ने तो कसम खा ली थी कि, बाप पढ़े न हम। कभी मन होता तो मुल्ला के सामने किताब लेकर बैठ जाता। हिजरी 863 (1555-56 ई.) में मीर अब्दुल लतीफ़ कजवीनी ने भी भाग्य परीक्षा की। फ़ारसी तो मातृभाषा ठहरी, इसलिए अच्छी साहित्यिक फ़ारसी अकबर को बोलने-चालने में ही आ गई थी। कजबीनी के सामने दीवान हाफ़िज शुरू किया, लेकिन जहाँ तक अक्षरों का सम्बन्ध था, अकबर ने अपने को कोरा रखा। मीर सैयद अली और ख्वाजा अब्दुल समद चित्रकला के उस्ताद नियुक्त किये गए। अकबर ने कबूल किया और कुछ दिनों रेखाएँ खींची भी, लेकिन किताबों पर आँखें गड़ाने में उसकी रूह काँप जाती थी।

स्मरण शक्ति का धनी

अक्षर ज्ञान के अभाव से यह समझ लेना ग़लत होगा कि, अकबर अशिक्षित था। आखिर पुराने समय में जब लिपि का आविष्कार नहीं हुआ था, हमारे ऋषि भी आँख से नहीं, कान से पढ़ते थे। इसीलिए ज्ञान का अर्थ संस्कृत में श्रुत है और महाज्ञानी को आज भी बहुश्रुत कहा जाता है। अकबर बहुश्रुत था। उसकी स्मृति की सभी दाद देते हैं। इसलिए सुनी बातें उसे बहुत जल्द याद आ जाती थीं। हाफ़िज, रूमी आदि की बहुत-सी कविताएँ उसे याद थीं। उस समय की प्रसिद्ध कविताओं में शायद ही कोई होगी, जो उसने सुनी नहीं थी। उसके साथ बाकायदा पुस्तक पाठी रहते थे। फ़ारसी की पुस्तकों के समझने में कोई दिक्कत नहीं थी, अरबी पुस्तकों के अनुवाद (फ़ारसी) सुनता था। ‘शाहनामा’ आदि पुस्तकों को सुनते वक़्त जब पता लगा कि संस्कृत में भी ऐसी पुस्तकें हैं, तो वह उनको सुनने के लिए उत्सुक हो गया और महाभारत, रामायण आदि बहुत-सी पुस्तकें उसने अपने लिए फ़ारसी में अनुवाद करवाईं। ‘महाभारत’ को ‘शाहनामा’ के मुकाबले का समझकर वह अनुवाद करने के लिए इतना अधीर हो गया कि, संस्कृत पंडित के अनुवाद को सुनकर स्वयं फ़ारसी में बोलने लगा और लिपिक उसे उतारने लगे। कम फुर्सत के कारण यह काम देर तक नहीं चला। अक्षर पढ़ने की जगह उसने अपनी जवानी खेल-तमाशों और शारीरिक-मानसिक साहस के कामों में लगाई। चीतों से हिरन का शिकार, कुत्तों का पालना, घोड़ों और हाथियों की दौड़ उसे बहुत पसन्द थी। किसी से काबू में न आने वाले हाथी को वह सर करता था और इसके लिए जान-बूझकर ख़तरा मोल लेता था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अकबरनामा |लेखक: शेख अबुल फजल |अनुवादक: डॉ. मथुरालाल शर्मा |प्रकाशक: राधा पब्लिकेशन, नई दिल्ली |पृष्ठ संख्या: 1 |

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