आदित्य चौधरी फ़ेसबुक पोस्ट
- दिनांक- 21 मार्च, 2017
बहुत पुरानी बात है कि एक राज्य के राजा सुकान्त देव का जीवन, राज-काज के दबाव के कारण अत्यधिक तनाव ग्रस्त हो गया। राज्य के मंत्री प्रबुद्धगुप्त ने राजा को तनाव मुक्ति के लिए ध्यान करने की सलाह दी। ध्यान-योग के अनेक शिक्षक बुलाए गए लेकिन राजा, ध्यान धारण नहीं कर पाए। यह अत्यन्त चिन्ता का विषय बन गया। मंत्री ने राजा से कहा- “राजन! अब अापको ध्यान के लिए स्वामी परमानंद से संपर्क करना होगा, तभी आपको ध्यान धरने में सफलता मिलेगी।”
“वे कहाँ निवास करते हैं, उनको सम्मान सहित तुरंत बुलवाया जाय।” राजा ने कहा।
मंत्री ने आशंका जताई” वे हमारे राज्य की सीमा के निकट एक छोटे से गाँव में आश्रम बनाकर रहते हैं… स्वामीजी यहाँ नहीं आएँगे, उनके पास जाना पड़ेगा”
राजा पूरे लाव-लश्कर के साथ गाँव की ओर चल दिए। राजा ने सबको गाँव से बाहर ही रोक दिया और अपने मंत्री और दो सिपाही लेकर स्वामीजी के आश्रम की ओर चल दिए। रास्ते में गाँव की जनता बहुत ख़ुशहाल मिली, लोग बहुत प्रसन्न मुद्रा में थे, चारों ओर साफ़ सफ़ाई थी। राजा सुकान्त देव और मंत्री प्रबुद्धगुप्त को बहुत अच्छा लगा और वह तेज़ क़दमों से आश्रम की ओर बढ़ने लगे। जब आश्रम नज़दीक आता जा रहा था तो कौओं की काँव-काँव और कुत्तों के भोंकने आवाज़ें बढ़ती जा रही थी जिससे राजा और मंत्री आश्चर्य में पड़ गए।
आश्रम में पहुँच कर देखा तो छोटे से आश्रम के बीच एक फूस की कुटिया थी जिसके बाहर स्वामीजी बैठे कुत्तों को रोटी खिला रहे थे और साथ ही साथ कौवे और भिन्न प्रकार की चिड़ियाओं को भी दाना चुगा रहे थे। आश्रम में केवल एक महात्मा और थे जो स्वामीजी के शिष्य थे।
राजा और मंत्री यह सब देखकर दंग रह गए और स्वामी जी को प्रणाम करने के बाद उनके शिष्य के इशारे से एक चटाई पर धरती में ही बैठ गए। स्वामीजी भी राजा के सम्मुख चटाई पर ही बैठ गए।
राजा ने कहा” महाराज जी! मैं आपके लिए बहुत सुविधाजनक आश्रम बनवाए देता हूँ जहाँ ये शोर करने वाले जीव-जन्तुओं से आपको छुटकारा मिल जाएगा और आपके ध्यान धरने में कोई असुविधा नहीं होगी। यदि आप चाहेंगे तो गाँव से दूर कुत्तों और चिड़ियों के लिए भी एक बाड़ा बनवा दिया जाएगा और इनके भोजन का प्रबंध भी करा दिया जाएगा।”
स्वामी जी मुस्कुरा कर बोले” राजन! आपने मेरे लिए इतना सोचा यह आपकी बड़ी कृपा है किन्तु ये कुत्ते और कौए मुझसे पहले यहाँ नहीं थे। इन्हें तो मैंने ही इकट्ठा किया है। इनके कोलाहल और शोर-ग़ुल में ही तो ध्यान धारण करने की साधना होती है। ध्यान धरने के लिए किसी स्थान-विशेष की आवश्यकता नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि किसी शांत स्थान पर ही ध्यान धरा जाता हो। ध्यान धरने से भीतरी शांति मिलती है जिस पर बाहर की अशांति को कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता। मैं भी पहले ध्यान धरने के लिए कोई शांत स्थान ढूंढा करता था। जब मुझे ध्यान की वास्तविकता का ज्ञान हुआ तो मैंने कोलाहल में ही ध्यान का अभ्यास किया जो कि सर्वश्रेष्ठ है।”
स्वामीजी ने आगे कहा-
“राजन ध्यान तो युद्ध के मैदान में भी किया जा सकता है। जब युद्ध होता है तो आस-पास के गाँवों में लोग सामान्य दिनचर्या के अनुसार ही गहरी नींद में सो जाते हैं। पड़ोसी देशों में आपस में गोलाबारी होती रहती है और सीमान्त गाँवों में रहने वाली जनता चैन से सो लेती है। गहरी नींद में सोया हुआ बच्चा बंदूक़ की आवाज़ से भी नहीं जागता। ध्यान की स्थिति तो निद्रा से भी अधिक गहरी होती है। इसलिए ध्यान के लिए कोई विशेष प्रपंच अथवा सुविधा की आवश्यकता नहीं है। ध्यान तो प्रकृति द्वारा प्रदत्त है, यह मनुष्य ने नहीं बनाया। हाँ इतना अवश्य है कि मनुष्य यदि अपनी इच्छानुसार ध्यान में जाना चाहे तो उसे अभ्यास करना पड़ता है।”
स्वामीजी की बातों से राजा सुकान्त देव की सारी जिज्ञासाओं का समाधान हो गया और वे अपने राजधानी लौट गए। इसके बाद राजा को कभी तनाव नहीं हुआ।
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- दिनांक- 20 मार्च, 2017
कुछ लोग रिश्तों को जीते नहीं
बस निबाहते हैं।
ज़ाहिर है इसके अद्भुत आनंद से वंचित रह जाते हैं।
बहुत से तो बस रिश्तों को ढोते हैं
और विधाता को दोष देकर रोते हैं।
कुछ ऐसे भी हैं
जो रिश्तों को तोड़ने की जुगत लगाते हैं।
इस प्रयास में कभी-कभी अकेले ही रह जाते हैं।
परम अानंदित तो वे हैं जो
रिश्तों को जी भर के जीते हैं
और फिर
शानदार यादों के मंज़र सजाते हैं।
तो आइये रिश्तों को जी भर कर जीएँ
और इस रस भरे आनंद को पीएँ।
© आदित्य चौधरी
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- दिनांक- 5 फरवरी, 2017
संस्कार, मान्यताएँ और आस्था एक बार बन जाती हैं तो उनका टूटना बहुत मुश्किल होता है और कभी-कभी तो नामुमकिन। ये हमारी आदत भी बन जाती हैं और जब भी हम इनसे दूर हटने की कोशिश करते हैं, हमको अटपटा सा महसूस होता है।
मेरे बचपन से ही हमारे घर पर प्रत्येक शनिवार को एक पंडित जी आते थे। जिन्हें कटोरी में सरसों का तेल एक लोहे की कील और सिक्का डालकर दिया जाता था। उस कटोरी में हम सब अपना चेहरा भी देखा करते थे। पंडित जी बहुत भले और सरल स्वभाव के थे। “चौधरी साहब के आनंद हों बहना, पौत्र ख़ुश रहें” पंडित जी की यह आवाज़ आज भी मेरे कानों में गूंजती है। उनका क़द ऊँचा था (कुछ बचपन की वजह से लगता भी था) छरहरा बदन था और गांधी टोपी पहनते थे।
जब नया संवतसर आता था तो वे संवत सुनाने आते थे। संवत सुनाने में वे बताते थे उस वर्ष में कितनी बारिश होगी कितनी ठंड पड़ेगी और कितनी लू चलेंगी। ज़ोरदार बात ये है कि पिताजी भी संवत सुना करते थे। “ इस बार संवत माली के घर में है बहना, तो बारिश ज़्यादा होगी।” पंडित जी बताते…। इसके साथ ही वर्ष में कितना धर्म कितना अधर्म और कितना पाप कितना पुण्य है यह भी बताते थे। वे कहते “इस संवत में 14 बिस्से पाप और 6 बिस्से पुण्य है। याने पाप ज़्यादा और पुण्य कम है।” इसका अर्थ समझने के लिए पहले उस ज़माने की गणना को समझना होगा। बिस्सा (शुद्ध रूप ‘बिस्वा’) का अर्थ है एक बीघा खेत का बीसवाँ भाग याने कि ‘सौ प्रतिशत’ कहने के लिए कहा जाता था “बात तो पूरे 20 बिस्से सही है” इसी का दूसरा रूप होता था “बात तो पूरे सोलह आने सही है।” उस समय एक रुपये में सोलह आने होते थे। कॅरेट को भी प्रतिशत के लिए इस्तेमाल किया जाता था और आज भी कहते हैं “बात तो 24 कॅरेट सही है”।
पंडित जी को स्वर्गवासी हुए बीसियों साल हो गए। उनके बाद उनका दामाद आने लगा और अब उनका धेवता (बेटी का बेटा) आता है। ये लोग कभी संवत नहीं सुना पाए क्योंकि इन्हें जानकारी ही नहीं है। अब फिर नया संवत आने वाला है, बहुत मन करता है कि कोई आए और संवत सुनाए। असल बात यह है कि मैं बिल्कुल भी यह नहीं मानता कि शनिदेव किसी का भला-बुरा कर सकते हैं लेकिन बचपन के संस्कार अभी तक चले आ रहे हैं और उन्हें निबाहने में आनंद भी आता है।
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- दिनांक- 18 जनवरी, 2017
आज ही लिखी कुछ पंक्तियाँ आपकी सेवा में मित्रो!
"क्योंकि ये चुनाव है"
वादों के पुल पर
उम्मीदों के कारवाँ
ज़िन्दगी की कश्मकश की
उफनती नदी को
पार करने की कोशिश
करते नज़र आएँगे
मगर अफ़सोस
सब दिल का बहलाव है
क्योंकि ये चुनाव है
अाँखों की झाइयों से
कंपती उँगलियों की
ख़ाली अँजली को ताकते
उसके भरने की चाह में
नारों से गुँजाते तंबुओं
में अपने घर का सपना देख आएँगे
मगर अफ़सोस
सब दिल का बहलाव है
क्योंकि ये चुनाव है
झूठ के लबादों से लदे
ओढ़े नक़ाब
दिल फ़रेब वफ़ादारी का
शोर मचाते क़ाफ़िलों
से बिखेरते जलवा अपना
करिश्माई ज़ुबान में
अपना भाषण सुनाएँगे
कि भई हम जनता के लिए
जनता की सरकार बनाएँगे
मगर अफ़सोस
सब दिल का बहलाव है
क्योंकि ये चुनाव है
न रिश्वत बदलेगी
न चौथ
सरकारी अस्पताल चलेंगे
बिना डॉक्टर-दवाई
स्कूल चलेंगे बिना पढ़ाई
जनता रहेगी चुप और गुमसुम
कुछ भी बदलेगा नहीं
सिर्फ़ चेहरे बदलते जाएँगे
शायद नए चेहरे कुछ तो बदल पाएँगे?
मगर अफ़सोस
सब दिल का बहलाव है
क्योंकि ये चुनाव है
© आदित्य चौधरी
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- दिनांक- 8 जनवरी, 2017
सुरक्षा और संतुष्टि की स्थिति प्राप्त करने के लिए बहुत ज़्यादा पैसा कमाने की इच्छा हो जाती है लेकिन होता कुछ और ही है।
बहुत सारा पैसा कमाने के बाद असुरक्षा और असंतुष्टि का भाव और ज़्यादा बढ़ जाता है।
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- दिनांक- 6 जनवरी, 2017
क़ामयाबी कोई पंछी नहीं है जिसे पिंजरे में क़ैद करके रख लिया जाय। क़ामयाबी तो उड़ती पतंग है जिसे कटने का डर बना रहता है। कभी ‘ढील देकर’ से तो कभी ‘डोर खींच कर’ से इसे आकाश में थामे रहना पड़ता है। पेच लड़ाना भी हर हाल में आना चाहिए वरना हाथ में सिर्फ़ डोर ही रह जाती है।
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- दिनांक- 3 जनवरी, 2017
नया साल आ गया अब कुछ नसीहतें देदी जायें… न न न आपको नहीं ख़ुद को ही। मतलब ये कि नए साल में क्या-क्या करना है और क्या-क्या नहीं करना है।
जैसे कि-
कोई डेढ़ सौ बार सुना सुनाया हाथी-चींटी वाला चुटकुला सुना रहा हो तब भी पूरे चुटकुले को पूरे धैर्य से सुनना है जिससे कि सुनाने वाला ‘हर्ट’ न हो। सुनने के बाद हँसी न भी आए तब भी मुस्कुराना ज़रूर है या फिर ‘नाइस जोक’ कह देना है।
किसी से मिलने पर उसके कपड़ों की तारीफ़ करनी है। कपड़े फटीचर हों तो ये ज़रूर कहना है कि ‘बडे़ फ़्रॅश लग रहे हो’। अगर चार दिन की दाढ़ी बढ़ रही हो तो कहना है ‘वैसे दाढ़ी भी तुम पर सूट करती है, थोड़ा अलग हट के लग रहे हो’ और हाँ, अच्छा कहने के लिए ‘कूल’ कहना है।
कोई छींके तो ‘गॉड ब्लॅस यू’ या सिर्फ़ ‘गॉड ब्लॅस’ कहना है, भले ही वो हमारे मुँह पर ही छींके। हाँ उसके छींकने से जो बौछार हमारे ऊपर आएगी उसे उसके सामने ही नहीं पौंछना है।इधर-उधर जा कर पौंछना है।
किसी ग़लती पर या हल्की फुल्की चोट पर ‘ओह’ या ‘अरे’ नहीं कहना है बल्कि ‘आउच’ कहना है। यदि और अधिक सु-संस्कृत होना है तो
फिर ’ऊप्स’ कहना है। ये भी ध्यान रहे कि’ओ माइ गॉड’ अादि का उपयोग भी समय-समय पर करना है। ‘हे भगवान’ या ‘हे राम’ कहेंगे तो गँवार माने जाएँगे।
बहुत ज़्यादा सड़ी हुई बदबू को बदबू न कहकर ‘फ़नी स्मॅल’ कहना है। ख़ुद चाहे तीन दिन तक न नहाएँ लेकिन परफ़्यूम से पसीने की गंध को दबाए रखना है।
सिनेमाहॉल में हँसी की बात पर भी ज़ोर से हँसना नहीं है। सिर्फ़ ‘आइ लाइक इट’ कह देना है। फ़िल्में भी सिर्फ़ हॉलीवुड की देखनी हैं (भले ही अग्रेज़ी समझ में न आए)। चार लोगों में बैठकर हिन्दी फ़िल्मों का मज़ाक़ उड़ाना है। गाने भी अंग्रेज़ी सुनने हैं।
रिक्शे-ऑटो वालों तक से अंग्रेज़ी में बात करनी है या फिर हर एक वाक्य में कम से कम चार शब्द अंग्रेज़ी के बोलने हैं। जैसे कि "भैया प्लीज़ मुझे ना वो नॅक्स्ट क्रॉसिंग पे ड्राप कर दोगे क्या? वोई रॅड बिल्डिंग के जस्ट बग़ल में… अॅक्चुली मैं लेट हो रहा हूँ जॉब के लिए”।
खाना खाने के लिए किसी दाल-रोटी वाले भोजनालय की बजाय किसी इटॅलियन, मॅक्सिकन या जापानी रेस्त्रां में जाना है। वहाँ के खाने के अजीब-अजीब नामों को याद करना है जैसे ब्लॅकबीन साल्सा, पास्ता, टॉरटिला सूप, सुशी आदि। खाना कितना भी बेस्वाद हो (वो तो होगा ही) लेकिन उसे बहुत तारीफ़ करते हुए खाना है। यम्मी-यम्मी भी कहते रहना है।
इतना सब करके देखा जाय, बाक़ी बाद में।
इस तरह नया साल भी आराम से कट जाएगा।
अापको नववर्ष की शुभकामनाएँ।
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शब्दार्थ
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