आदित्य चौधरी -फ़ेसबुक पोस्ट वर्ष 2010-2011

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आदित्य चौधरी फ़ेसबुक पोस्ट
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न कभी 'ज़माना' बदला है और न ही उसमें 'रहने वाले'। बदलती है तो बस “पीढ़ी”।

14 नवंबर, 2010

यहाँ तो वक़्त बहुत कम और काम बहुत ज़्यादा है।
मुख़्तसर सी ख़ुशी का भी दाम बहुत ज़्यादा है॥

10 दिसंबर, 2010

या तो कुछ ऐसा करो कि लोग उस पर लिखें...
या कुछ ऐसा लिखो कि लोग उसे पढ़ें...
...किसी ने कहा है पता नहीं किसने?

10 दिसंबर, 2010

कोई वादा नहीं किया लेकिन
क्यूं तेरा इंतज़ार रहता है
बे वजह जब क़रार मिल जाये
दिल बड़ा बेक़रार रहता है...
... जब भी ये दिल उदास रहता है
जाने कौन आस-पास रहता है…

19 जनवरी, 2011

वह कड़ी का समाप्त हुई जो स्वामी हरिदास और तानसेन शुरू होकर उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ और कुमार गंधर्व तक पहुँचती थी।
पण्डित जसराज, पण्डित छुन्नू लाल मिश्र और राजन-साजन मिश्र अभी कमान संभाले हुए हैं, लेकिन कब तक...?
शास्त्रीय संगीत हमेशा से एक वर्ग विशेष की रुचि रहा है लेकिन बच्चों, जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों तक की पसंद शास्त्रीय संगीत ही रहा है।
पण्डित जी के सामने भारत रत्न पुरस्कार भी कितना छोटा था...।

19 जनवरी, 2011

श्राद्ध प्रथा वैदिक काल के बाद शुरू हुई और इसके मूल में इसी श्लोक की भावना है। उचित समय पर शास्त्रसम्मत विधि द्वारा पितरों के लिए श्रद्धा भाव से मन्त्रों के साथ जो दान-दक्षिणा आदि, दिया जाय, वही श्राद्ध कहलाता है।

15 सितंबर, 2011

बौद्ध धर्म के मिलिन्दपन्ह ग्रंथ (मिलिन्दपञ्ह) से ईसा की प्रथम दो शताब्दियों के भारतीय जन-जीवन के विषय में जानकारी मिलती है।
इस ग्रंथ में यूनानी नरेश मिनेण्डर (मिलिन्द) एवं बौद्ध भिक्षु नागसेन के बीच बौद्ध मत पर वार्तालाप का वर्णन है। नागसेन ने बुद्ध के दर्शन के अनात्मवाद, कर्म या पुनर्जन्म, नाम-रूप (मन और भौतिक तत्त्व), निर्वाण आदि को ज्यादा विशद करने का प्रयत्न किया है।[1]

7 नवंबर, 2011

प्रसिद्ध है कि एक बार काशी के पंडितों में द्वैत और अद्वैत तत्त्व का शास्त्रार्थ बहुत दिनों तक चलता रहा। जब किसी शिष्य ने कबीर साहब का मत पूछा तो उन्होंने जवाब में शिष्य से ही कई प्रश्न किए। शिष्य ने जो उत्तर दिया उसका सार-मर्म यह था कि विद्यमान पंडितों में इस विषय में कोई मतभेद नहीं है कि भगवान, रूप, रस, गंध एवं स्पर्श से परे हैं, गुणों और क्रियाओं के अतीत हैं, वाक्य और मन के अगोचर हैं। कबीरदास ने हसँकर जवाब दिया कि भला उन लड़ने वाले पंडितों से पूछो कि भगवान रूप से निकल गया, रस से निकल गया, रस से अतीत हो गया, गुणों के ऊपर उठ गया, क्रियाओं की पहुँच के बाहर हो रहा, वह अंत में आकर संख्या में अटक जाएगा? जो सबसे परे है वह क्या संख्या के परे नहीं हो सकता? यह कबीर का द्वैताद्वैत-विलक्षण समतत्त्ववाद है।

23 नवंबर, 2011

‘A sense of reality is a matter of talent. Most people lack that talent and maybe it’s just as well.’ -from the movie 'Autom Sonata’

2 दिसंबर, 2011

अमीर ख़ुसरो और ग़ालिब की रचनाओं को गुनगुनाती हुई दिल्ली नादिरशाह की लूट की चीखों से सहम भी जाती है।
चाँदनी चौक-जामा मस्जिद की सकरी गलियों से गुज़रकर चौड़े राजपथ पर 26 जनवरी की परेड को निहारती हुई दिल्ली 30 जनवरी को उन तीन गोलियों की आवाज़ को नहीं भुला पाती जो राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के सीने में धँस गयी थी।
दिल्ली ने दौलताबाद जाने के तुग़लकी फ़रमानों को भी सुना और लाल क़िले से प्रधानमंत्री के अभिभाषणों पर तालियाँ भी बजायी।
कभी रघुराय ने दिल्ली की रायसीना पहाड़ी को अपने कैमरे में क़ैद कर लिया तो कभी हुसैन के रंगों ने दिल्ली को रंग दिया।
दिल्ली कभी कुतुबमीनार की मंज़िलों को चढ़ाने में पसीना बहाती रही तो कभी हुमायूँ के मक़बरे में पत्थरों को तराशती रही।
नौ बार लूटे जाने से भी दिल्ली के श्रृंगार में कोई कमी नहीं आयी। आज भी दिल्ली विश्व के सुन्दरतम नगरों में गिनी जाती है।

2 दिसंबर, 2011

ईश्वर इस लिए ईश्वर है क्योंकि वह अज्ञात है। यदि वह ज्ञात है या जो ज्ञात है वह ईश्वर हो ही नहीं सकता।

3 दिसंबर, 2011

'अत्यधिक सभ्य' होने से हम किसी के भी प्रिय नहीं रह जाते।

3 दिसंबर, 2011






टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. दर्शन दिग्दर्शन |लेखक: राहुल सांकृत्यायन |

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