ज
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विवरण | ज देवनागरी वर्णमाला में चवर्ग का तीसरा व्यंजन है। |
भाषाविज्ञान की दृष्टि से | यह तालव्य, घोष, अल्पप्राण और स्पर्श-संघर्षी है। |
व्याकरण | [ संस्कृत (धातु) जन् + ड, अथवा जि + ड ] पुल्लिंग- पिता, जनक, उत्पत्ति, जन्म। |
विशेष | फ़ारसी और अंग्रेज़ी से आए शब्दों की ‘ज़’ ध्वनि, जो वर्त्स्य और संघर्षी तथा ‘स’ का घोष रूप है, हिंदी-भाषियों द्वारा कहीं ‘ज’ और कहीं ‘ज़’ बोली जाती है। |
संबंधित लेख | छ, च, झ, ञ |
अन्य जानकारी | विदेशी ध्वनियों को भी देवनागरी लिपि में शुद्ध लिखने और बोलने में समर्थ हिंदीभाषी ‘ज़’ और ‘ज’ को बोलने/लिखने में त्रुटि नहीं करना चाहते, क्योंकि ‘जीना’ और ‘ज़ीना’, ‘जरा’ और ‘ज़रा’, ‘नाज और ‘नाज़’ इत्यादि में अर्थ का बहुत अंतर ‘ज’ के स्थान पर ‘ज़’ अथवा ‘ज़’ के स्थान पर ‘ज’ बोलने लिखने से हो जाता है। |
ज देवनागरी वर्णमाला में चवर्ग का तीसरा व्यंजन है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से यह तालव्य, घोष, अल्पप्राण और स्पर्श-संघर्षी है। फ़ारसी आदि और अंग्रेज़ी से आए शब्दों की ‘ज़’ ध्वनि, जो वर्त्स्य और संघर्षी तथा ‘स’ का घोष रूप है, हिंदी-भाषियों द्वारा कहीं ‘ज’ और कहीं ‘ज़’ बोली जाती है। सामान्य बोलचाल में तथा हिंदी की बोलियों में ‘ज़’ प्राय: ‘ज’ हो जाता है परंतु ‘ज’ और ‘ज़’ दोनों ही लेखन और बातचीत में सहज रूप में अपनाएं जाते हैं।
- विशेष-
- विदेशी ध्वनियों को भी देवनागरी लिपि में शुद्ध लिखने और बोलने में समर्थ हिंदीभाषी ‘ज़’ और ‘ज’ को बोलने/लिखने में त्रुटि नहीं करना चाहते, क्योंकि ‘जीना’ और ‘ज़ीना’, ‘जरा’ और ‘ज़रा’, ‘नाज और ‘नाज़’ इत्यादि में अर्थ का बहुत अंतर ‘ज’ के स्थान पर ‘ज़’ अथवा ‘ज़’ के स्थान पर ‘ज’ बोलने लिखने से हो जाता है।
- ‘ज’ वर्ण में स्वरों की मात्राएँ सामान्य रूप से जुड़ती है इनके अनुस्वार–युक्त रूप तथा अनुनासिक रूप चंद्रबिंदु-युक्त रूप भी बनते हैं।
- शिरोरेखा के ऊपर मात्रा होने पर चंद्रबिंदु के स्थान पर मुद्रण आदि में सुविधा के लिए केवल बिंदु (अनुस्वार जैसा) का प्रयोग भी प्रचलित है (जोँक –जोंक) परंतु इसमें बिंदी को पंचम वर्ण (ञ्) के स्थान पर लगी बिंदी समझने का भ्रम हो सकता है।
- ‘ज्’ से ‘ज’ का संयोग अर्थात् ‘ज्’ का द्वित्व ‘ज्ज’ के रूप में होता है (लज्जा, सज्जित)।
- ‘ज’ वर्ण से पहले आकर मिलने वाले व्यंजनों में ‘ञ्’ और ‘र्’ मुख्य हैं। ‘ञ्’ का संयुक्त रूप ‘ञ्ज’ होता है (कञ्ज, पुञ्ज) और ‘र’ का संयुक्त रूप ‘र्ज’ (वर्जन, तर्जनी)।
- ‘ञ्’ के संयुक्त रूप वाले शब्दों को शिरोरेखा के ऊपर बिंदी लगाकर लिखना भी प्रचलित है। जैसे- कञ्ज-कंज, पुञ्ज-पुंज।
- ‘ज’ पहले आकर प्राय: प्राय: ’झ’, ‘ञ’, ‘य’ और ‘र’ से मिलता है। इन वर्णों से संयुक्त रूप क्रमश: ‘ज्झ’, ‘ज्ञ’, ‘ज्य’ और ‘ज्र’ होते हैं। जैसे- तुज्झ, ज्ञान, राज्य, वज्र। इनमें से ‘ज्’ और ‘ञ’ का संयुक्त रूप ‘ज्ञ’ क्षेत्रीय बोलियों में शताब्दियों से ‘ग्य’ बोला जाता रहा है (ज्ञान=ग्यान) जबकि वास्तव में यह ‘ज्ञ’ है (ज्ञान=ज्ञान) और संस्कृतज्ञ इसका शुद्ध उच्चारण ही करते हैं।
- ‘ज’ के समान ही ‘ज़’ के भी संयुक्त रूप समझने चाहिए परंतु ‘ज’ और ‘ञ’ से इसका संयोग नहीं होता।
- [ संस्कृत (धातु) जन् + ड, अथवा जि + ड ] पुल्लिंग- पिता, जनक, उत्पत्ति, जन्म, विष्णु, मोक्ष, मुक्ति, विष, ज़हर, पिशाच, कांति, आभा, वेग।
- समस्त (=समास वाले) पद के अंत मे जुड़कर ‘ज’ = ...से उत्पन्न’। जैसे- वारिज = वीर से उत्पन्न, मलयज = मलय से उत्पन्न।[1]
ज की बारहखड़ी
ज | जा | जि | जी | जु | जू | जे | जै | जो | जौ | जं | जः |
ज अक्षर वाले शब्द
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पुस्तक- हिन्दी शब्द कोश खण्ड-1 | पृष्ठ संख्या- 946
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