परिनिर्वाण मन्दिर उत्तर प्रदेश के सर्वाधिक प्राचीन नगरों में से एक कुशीनगर में स्थित है। सर्वप्रथम कार्लाइल ने 1876 ई. में इस मन्दिर और परिनिर्वाण प्रतिमा को खोज निकाला था। प्रतिमा को ईंटों के बने एक सिंहासन पर स्थापित किया गया था। यह सिंहासन 24 फुट लंबा तथा 5 फुट 6 इंच चौड़ा था। इसका प्रवेश द्वार पश्चिम की ओर था। उत्तर और दक्षिण की दीवारों में एक-एक खिड़कियाँ थीं। इसमें कोई संदेह नहीं कि परिनिर्वाण प्रतिमा की स्थापना 5वीं शताब्दी में हुई थी, परन्तु यह मन्दिर इतना प्राचीन नहीं प्रतीत होता। मूर्ति पर प्रयुक्त परवर्ती प्लास्टर इस बात का सूचक है कि यह मन्दिर कई शताब्दियों तक परिवर्तित होता रहा।
बुद्ध प्रतिमा तथा सिंहासन
मन्दिर मुख्य स्तूप के पश्चिम में स्थित था। कार्लाइल ने 1876 ई. में मन्दिर और परिनिर्वाण प्रतिमा की खोज की थी। कार्लाइल को ऊँची दीवारें तो मिली थीं, परंतु छत के अवशेष नहीं मिले थे। इसमें केवल गर्भगृह और उसके आगे एक प्रवेश कक्ष था। इस टीले के गर्भगृह में खुदाई करते समय कार्लाइल को एक ऊँचे सिंहासन पर तथागत की 20 फुट (लगभग 6.1 मीटर) लंबी परिनिर्वाण मुद्रा की प्रतिमा मिली थी। यह प्रतिमा चित्तीदार बलुआ पत्थर की है। इसमें बुद्ध को पश्चिम की तरफ मुख करके लेटे हुए दिखाया गया है। इसका सिर उत्तराभिमुख है, दाहिना हाथ सिर के नीचे और बायाँ हाथ जंघे पर स्थित है। पैर एक-दूसरे के ऊपर हैं।[1] इस प्रतिमा को ईंटों के बने एक सिंहासन पर स्थापित किया गया था। यह सिंहासन 24 फुट लंबा तथा 5 फुट 6 इंच चौड़ा था। सिंहासन के ऊपर पत्थर की पट्टियाँ जड़ी हुई थीं।
सिंहासन के अग्रभाग में तीन शोक संतप्त मूर्तियाँ हैं।[2] इसके नीचे पाँचवीं शताब्दी का लेख उत्कीर्ण है।[3] इस लेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि परिनिर्वाण मूर्ति का प्रतिष्ठापक 'हरिबल'[4] नामक व्यक्ति था और इसका शिल्पी मथुरा का 'दिन्न' था।
निर्वाण मन्दिर की खोज
मलबे की सफाई के पश्चात् कार्लाइल को निर्वाण मन्दिर का पता चला। मन्दिर की दीवार की मोटाई 3.05 मीटर और गर्भगृह की लंबाई-चौड़ाई 9.35x3.66 मीटर थी। प्रवेश कक्ष की लंबाई 10.92 मीटर तथा चौड़ाई 4.57 मीटर थी। सफाई के समय कार्लाइल को अल्प मात्रा मे चौरस ईंटें और टेढ़ी दीवार के अवशेष मिले थे, जिसके आधार पर कार्लाइल ने यह मत व्यक्त किया था कि इस मन्दिर की छत मेहराब गुंबज से युक्त थी। इसका प्रवेश द्वार पश्चिम की ओर था। उत्तर और दक्षिण की दीवारों में एक-एक खिड़कियाँ थीं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि मूर्ति की दृष्टि से इस मन्दिर का गर्भगृह छोटा है और प्रदक्षिणा के लिए पर्याप्त स्थान नहीं है।
प्रतिमा की स्थापना
इसमें कोई संदेह नहीं कि परिनिर्वाण प्रतिमा की स्थापना 5वीं शताब्दी में हुई थी, परन्तु यह मन्दिर इतना प्राचीन नहीं प्रतीत होता। मूर्ति पर प्रयुक्त परवर्ती प्लास्टर इस बात का सूचक है कि यह मन्दिर कई शताब्दियों तक परिवर्तित होता रहा। उत्तरी और दक्षिणी दीवारों के नीचे, मूर्ति से युक्त पूर्ववर्ती मन्दिर के अवशेष उस स्थान से मिले हैं, जहाँ से कार्लाइल को परिनिर्वाण मन्दिर के अवशेष मिले थे।[5]
लेकिन यह कहना कठिन है कि यह वही प्राचीन मन्दिर था, जिसमें परिनिर्वाण प्रतिमा सर्वप्रथम स्थापित की गई थी और जिसका उल्लेख ह्वेनसाँग ने किया था।[6] कार्लाइन द्वारा अन्वेषित इस परिनिर्वाण मन्दिर का निर्माण 11वीं-12वीं शताब्दी में हुआ होगा, जबकि कुशीनगर अवनति की ओर अग्रसर था। कार्लाइल ने इस मूर्ति की मरम्मत और मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया।[7] आधुनिक काल में भी इसका कई बार जीर्णोद्धार होता रहा।[8]
इन्हें भी देखें: कुशीनगर एवं कुशीनगर का इतिहास
विहार
मन्दिर के चारों तरफ विहार बने हुए थे, जिन्हें सुविधा की दृष्टि से कई वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
पश्चिमी वर्ग
स्तूप और निर्वाण मन्दिर के चारों ओर ईंटों से निर्मित कई स्थापत्य हैं, जिनका समय-समय पर एक धार्मिक मठ के रूप में विकास होता रहा। यहाँ से दो मठों[9] का पता चला है। यहाँ उत्खनन से बड़ी मात्रा में लिपि से युक्त और तिथिपरक वस्तुएँ प्रकाश में आई हैं। यहीं से प्राप्त मिट्टी की एक मुहर पर बने दो साल वृक्षों के नीचे बुद्ध की समाधि और दो पंक्तियों में ‘महापरिनिर्वाण भिक्षु संघ’ लेख लिखा हुआ है।[10] दो अन्य मुहरें भी मिलीं हैं, जिन पर 'मैत्रेय' की आकृति है, परंतु लेख वही है। इन लेखों की तिथि चौथी शताब्दी प्रतीत होती है। चाँदी का एक सिक्का भी मिला है, जिसे 'क्षत्रप' नरेश दामसेन का माना जा सकता है। इसके अतिरिक्त कुछ टूटी हुई मृण्मूर्तियाँ और बड़ी मात्रा में मृदभांड भी मिले हैं। इन समस्त वस्तुओं का निचली सतह से मिलना यह सिद्ध करता है कि ये दोनों मठ चौथी शताब्दी के पहले निर्मित हुए होंगे। उत्खनन से पश्चिम मन्दिर के सामने कई भवन प्रकाश में आए हैं, जिनका प्रसार 107.93 मीटर लंबाई में था।
इन भवनों में 45.72 मीटर वर्गाकार घेरे में फैला सबसे बड़ा एक मठ था। इस मठ के चारों ओर 3.05 मीटर चौड़ा गलियारा बना था। इसमें भिक्षुओं के निवास के लिए छोटे-छोटे कई कमरे बने थे। कमरों और गलियारों की फर्श कंकरीट की बनी थी। मठ की दीवारें बहुत बड़ी और मोटी थीं, जिससे इस मठ के कई मंजिला होने का अनुमान किया जाता है। उत्खनन में एक कुएँ से 900 ई. की एक अभिलिखित मुहर भी मिली है, जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि इस भवन का निर्माण 8वीं शताब्दी में हो चुका था और विनाश 900 ई. के आसपास हुआ।[11] ऐसा लगता है कि इस भवन निर्माण के एक शताब्दी बाद प्राचीन भवन के स्थान पर एक नए भवन का निर्माण हुआ और परवर्ती भवन के निर्माताओं ने पुराने भवन के पुरावशेषों का भरपूर उपयोग किया। मुख्य भवन के दक्षिण-एक दूसरे से संबंधित चार अन्य भवनों के अवशेष प्रकाश में आऐ हैं। उल्लेखनीय है कि एक-दूसरे से संबंधित होते हुए भी ये सभी भवन योजना और आकार में परस्पर भिन्न हैं। मन्दिर के उत्तर-पूर्व में एक चौकोर विहार चौकोर बरामदा भी बना था। पश्चिम में एक ऐसा मठ मिला है। जिसके आँगन में एक तालाब था। इन दोनों विहारों की खुदाई से गुप्त काल (चौथी-पाँचवीं शताब्दी) की लिखित मुहरें, धातु, पाषाण पात्र एवम् अन्य उपयोगी वस्तुएँ मिली हैं।
एक अन्य विहार का भी अवशेष मिला है। विहार का कंद्रीय भाग आयताकार और उसकी दीवारें नीची थीं। पूर्व में एक समान दूरी पर गड्ढे निर्मित थे। ऐसी संभावना है कि इन गड्ढों में लकड़ी के खंभे रहे होंगे, जिनके सहारे लकड़ी की छत टिकी रही होगी। इन्हें स्तंभ-गर्त कह सकते हैं। संभवत: इस भवन का उपयोग विचार-विमर्श के निमित्त सभा-भवन के रूप में किया जाता था। इस विहार के नीचे अन्य अवशेष विद्यमान थे, परंतु यह स्पष्ट नहीं है कि ये अवशेष मूल विहार की नींव हैं या किसी अन्य विहार के खंडहर। ऊपरी सतह से कुछ मृदभांड और लोहे का एक चम्मच मिला है।[12] उपर्युक्त विहार के दक्षिण 34.53 मीटर वर्गाकार घेरे में विस्तृत एक अन्य विहार का अवशेष मिला है। इस विहार के बीच में आँगन और इसके चारों तरफ गलियारेयुक्त 20 कमरे थे।
यह विहार आकार में मेजर किटाई द्वारा उत्खनित सारनाथ के विहार से पर्याप्त समानता रखता है।[13] इसकी बाहरी दीवार की मोटाई 5 फुट तथा आँगन के चारों तरफ की दीवार की मोटाई 4 फुट 2 इंच है। इस विहार में प्रयुक्त ईंटों की माप 14 इंचx8½ इंच से 9 इंचx2 इंच से 2½ इंच है। उत्खनन करने पर इन विहारों से बड़ी मात्रा में मुहरें तथा चंद्रगुप्त द्वितीय (400 ई.) का एक सोने का सिक्का मिला है। इसके अतिरिक्त एक कमरे से कुषाण काल (प्रथम शताब्दी ई.) का एक अभिलेख भी प्राप्त हुआ है। आँगन की खुदाई से मथुरा में निर्मित लाल पत्थर की कुछ मूर्तियाँ मिली हैं।[14] अत: यह निश्चित होता है कि इस वर्ग के सभी विहारों का निर्माण प्रथम शताब्दी में और इनका विनाश 5वीं-6वीं शताब्दी अर्थात् गुप्त काल में हुआ।[15]
दक्षिणी वर्ग
इस वर्ग के स्मारको में अधिकांश छोटे-छोटे स्तूप थे, जिनकी स्थापना श्रद्धालु भक्तों एवं तीर्थयात्रियों द्वारा की गई थी। ये स्मारक दक्षिण ओर से एक निश्चित लंबाई की दीवार से आवृत्त थे। स्मारकों के मध्य में दो ऐसे स्तूप थे, जिनके प्रयुक्त ईंटें अनिश्चित आकार की थीं और नीचे की कार्निसेज और अलंकृत स्तंभ मुख्य स्तूप के समान थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि इसका निर्माण मुख्य स्तूप के साथ ही हुआ होगा। इसके उत्तर एक आयताकार विहार था, जिसका अधिष्ठान मुख्य स्तूप के समान था। इसके भीतर ईंट की क़ब्रनुमा एक ठोस संरचना थी। यह निर्माण पूर्ववर्ती प्रतीत होता है, क्योंकि इसकी नींव एक पंक्ति में नहीं है। पश्चिमाभिमुख इसका प्रवेश द्वार 1.57 मीटर चौड़ा था। इसके दोनों किनारों पर बुद्ध की ध्यानावस्थित मृण्मूर्ति स्थापित थी।
पूर्वीभाग
पूर्वी वर्ग के अवशेषों में सबसे रोचक तथा महत्त्वपूर्ण अवशेष था, एक चबूतरेनुमा बड़ा स्थापत्य। यह संरचना पक्की ईंटों की बनी थी तथा मुख्य संरचना के तिरछे थी। यह दो चबूतरों से युक्त था। निचला चबूतरा चौकोर और सीढ़ियों से युक्त था। ऊपरी चबूतरा अपेक्षाकृत छोटा था और उसके चारों तरफ 3.66 मीटर ईंटों का बना एक प्रदक्षिणा-पथ था। यह प्रदक्षिणा-पथ चारों तरफ समान नहीं है क्योंकि दोनों चबूतरे एक-दूसरे के समानांतर नहीं थे। निचले चबूतरे की दीवारें सादी थीं, जबकि ऊपरी चबूतरे में अलंकृत साँचे में ढली ईंटों एवं कार्निसेज का प्रयोग किया गया था। यह (7 वीं शती में) निर्मित स्तूपों से घिरा हुआ था। 2.54x2.52 मीटर परिधि में विस्तृत इस चबूतरे-युक्त भवन के उत्तर-पश्चिम एक छोटे भवन का अवशेष मिला है। इस भवन में प्रयुक्त ईंटें बड़े आकार की है। इनकी नाप 48.26x25.4x7.62 से.मी. और 46.20x25.4x6.98 से.मी. थी। इस प्रकार की ईंटें मौर्य काल में प्रयुक्त होती थीं। अत: यह भवन मौर्य काल का प्रतीत होता है। यहाँ से कुषाणों के ताँबे के सिक्के मिले हैं। इन कुषाण सिक्कों में 8 कनिष्क के और 4 कदफिसस के हैं। इसके आसपास परंतु नीचे दबे पड़े अनेक छोटे स्तूप मिले हैं, जिसके आधार पर इन स्तूपों के भवन से पूर्व के होने का अनुमान किया जाता है।
इन्हें भी देखें: प्राचीन कुशीनगर के पुरावशेष
उत्तरी वर्ग
इस वर्ग के बने भवन मौर्यकालीन थे, जो समय-समय पर श्रद्धालु तीर्थयात्रियों द्वारा बनवाए गए थे। निचली सतह से दो चौकोर मकानों के अवशेष मिले हैं।[16] पश्चिम की ओर दीवारों में प्रयुक्त ईंटें मौर्य युगीन प्रतीत होती हैं। सतह से नीचे खोदने पर एक पकाई मिट्टी की पहली शताब्दी ई.पू. की नारी प्रतिमा और 5वीं शताब्दी का एक खंडित प्रस्तर-अभिलेख मिला है। इनके उत्तर में दो अन्य भवनों के अवशेष मिले हैं, जिन्हें क्रमश: ‘आई’ तथा ‘जे’ कहा गया है। ‘आई’ भवन आयताकार है, जो 103 फुट लंबा और 97 फुट चौड़ा है। इसमें चारों ओर कमरे बने थे और बीच में 67’7’’ X66’6’’ नाप का ख़ाली स्थान था, जिसमें 44 फुट चौकोर और 2 फुट गहरा जलकुंड बना था। यह जलकुंड 2 फुट चौड़ी दीवार से आवृत्त था, जिसके ऊपर 1 फुट 2 इंच चौड़ी नीची दीवार उठी हुई थी। इस दीवार के ऊपरी भाग से बड़े आकार की ईंटें मिली हैं, जिनकी माप 16 इंचx10 इंचx 2½ इंच थी।[17] ऐसा आभास होता है कि इस दीवार के सामने लकड़ी के खंभे के सहारे बरामदा था। यह बरामदा पूर्व ओर 9 फुट 5 इंच चौड़ा था। इसकी फर्श कंकरीट की थी जो भूमि से 3 फुट नीचे थी। इस भवन का प्रवेश कक्ष आयताकार था। यह कक्ष ईंटों से निर्मित एक चबूतरे से युक्त था। यह चबूतरा लंबाईxचौड़ाई में क्रमश: 4 फुट 3 इंचx5 फुट 6 इंच विस्तृत था। इसकी ऊँचाई 9 इंच थी। इसी प्रकार के एक स्थापत्य का अवशेष सारनाथ में भी मिला था।[18]
इस भवन से सटा हुआ एक अन्य भवन 'जे' भी था, पर उसकी पूर्ण खुदाई नहीं हो पाई है। लेकिन एक अंश की खुदाई से यह निश्चित हो गया है कि यह एक कमरों से युक्त विहार था और इसके बीच में 30 फुट चौकोर आँगन था।[19] इन मठों के बौद्ध विहार होने के संदर्भ में संदेह है। संभवत: ये मठ तीर्थयात्रियों के आवास रहे होंगे। इस भवन से कुछ लेखयुक्त मुहरें मिली हैं, जो ‘डी’ मठ से प्राप्त मुहरों के समान हैं। इनमें से एक मुहर 900 ई. की है। इससे इस मठ के परवर्ती होने की सूचना मिलती है। संभवत: इस मठ का निर्माण 10वीं-11वीं शताब्दी में कभी हुआ था।
इन्हें भी देखें: माथा कुँवर मन्दिर कुशीनगर
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कार्लाइल को यह मूर्ति 1877 ई. में खुदाई करते समय ऊपरी सतह से 10 फुट नीचे मिली थी। उसी समय यह मूर्ति कई खंड़ों में विभक्त थी। इस मूर्ति की पहले भी मरम्मत की गई थी। देखें, आ.स.रि., भाग 18, पृ. 57-58 और भाग 22, पृ. 17 । ऐसा लगता है कि इस प्रकार की प्रतिमाओं का कुशीनगर में प्राधान्य था और इनकी पूजा की जाती थी। परिनिर्वाण से संबंधित अन्य छोटी प्रतिमाएँ भी मिली हैं। इसी प्रकार की एक विशाल प्रतिमा अजंता की गुफा नं. 26 में भी उपलब्ध है। देखें, नलिनाक्ष दत्त एवं कृष्णदत्त बाजपेयी, डेवलपमेंट आफ बुद्धिज्म इन उत्तर प्रदेश, पृ. 360 (पादटिप्पणी)
- ↑ इन मूर्तियों की पहचान कठिन है बाईं तरफ एक नारी की प्रतिमा है, जो दोनों हाथ जमीन पर रखकर शोकसंतप्त मुद्रा में झुकी हुई है। दाईं ओर की मूर्ति स्त्री की है अथवा पुरुष की, यह तो स्पष्ट नहीं है पर यह मूर्ति भी शोकसंतप्त मुद्रा में दाएँ हाथ से सिर को पकड़े हुए हैं। बीच की मूर्ति बैठी हुई है। ये मूर्तियाँ आनंद, सुभद्र और मल्लिका को हो सकती है। बीच की मूर्ति हरिबल की भी हो सकती है।
- ↑ देयधर्म्मोयं महावीरस्वामिनो हरिबलस्य। प्रतिमा चेयं घटित दिन्नेन माथुरेण॥ देखें, आ. स. इ. ए. रि., 1906-07, पृ. 49
- ↑ यह हरिबल स्वामी संभवत: वही है जिसने मुख्य स्तूप में ताम्रपत्र को स्थापित किया था।
- ↑ देखें, फोगल, आर्कियोलाजिकल, सर्वे आफ इंडिया, वार्षिक रिपोर्ट, 1904-05 पृ. 48-49
- ↑ सेमुअल बील, बुद्धिस्ट रिकार्ड्स आफ दि वेस्टर्न वर्ल्ड, भाग 3 (कलकत्ता संस्करण, 1958), पृ. 283
- ↑ परिनिर्वाण प्रतिमा अपनी कलात्मकता के लिए प्रसिद्ध है। इसकी विशेषता यह है कि मूर्ति को तीन ओर से देखने पर इसके तीन भाव प्रकट होते हैं- मूर्ति पैर की ओर से देखने पर शांत, बीच से देखने पर शोकसंतप्त, तथा सिर की ओर से देखने पर प्रसन्न मुद्रा में प्रतीत होती है।
- ↑ मई 1955 में भारत सरकार द्वारा एक समिति गठित की गई जिसका प्रमुख उद्देश्य बुद्ध के जीवन से संबंधित स्थलों का पुनरुद्धार करना था।
- ↑ (क्यू और क्यू1)
- ↑ आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया, वार्षिक रिपोर्ट, 1906-7, पृ. 63
- ↑ आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया, वार्षिक रिपोर्ट, 1905-06
- ↑ तत्रैव, 1906-07, पृ. 44
- ↑ आ. स. रि., भाग 1, पृ. 127, प्लेट 32
- ↑ आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया, वार्षिक रिपोर्ट, 1906-07, पृ. 50; उल्लेखनीय है कि लाल पत्थर की मूर्तियों का प्रचलन उस समय मथुरा में था तथा इन मूर्तियों की माँग सर्वत्र रहती थी। अत: संभव है यहीं से लाकर इन मूर्तियों को यहाँ स्थापित किया गया होगा।
- ↑ उल्लेखनीय है कि हूणों ने 5वीं और 6वीं शताब्दी में गुप्तों को आक्रांत किया था। संभव है कि यह विनाश उन्हीं के द्वारा हुआ हो।
- ↑ संभवत: ये प्रारंभिक मन्दिरों के अवशेष हो सकते हैं।
- ↑ आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया, वार्षिक रिपोर्ट, 1906-07, पृ. 53
- ↑ मेजर किटोई को सारनाथ के एक मठ से इसी तरह के अवशेष मिले थे। इस चबूतरे पर बुद्ध की प्रतिमा रहती थी। हालाँकि किटोई द्वारा उत्खलित मठ दक्षिणाभिमुख था जबकि कुशीनगर का यह मठ उत्तराभिमुख था, लेकिन दोनों मठ में यह चबूतरा पश्चिम दीवाल से सटा था। अत: यह निश्चित होता है कि इस चबूतरे पर बुद्ध की प्रतिमा स्थापित रही होगी।
- ↑ आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया, वार्षिक रिपोर्ट, 1906-07, पृ. 54
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख