ब्राह्मण

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ब्राह्मण
ब्राह्मण
ब्राह्मण
विवरण 'ब्राह्मण' भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण हिस्सा हैं। ब्राह्मण वर्ण अब हिन्दू समाज की एक जाति भी है।
अन्य नाम 'विप्र', 'द्विज', 'द्विजोत्तम' या 'भूसुर'
अधिकार अर्चा, दान, अजेयता, अवध्यता
कर्तव्य 'ब्राह्मण्य' (वंश की पवित्रता), 'प्रतिरूपचर्या' (कर्तव्यपालन), 'लोकपक्ति' (लोक को प्रबुद्ध करना)
उपजातियाँ त्यागी, बाजपेयी, भूमिहार, महियाल, गालव, अनाविल, चितपावन, कार्वे, अयंगर, हेगडे, नंबूदिरी, अयंगर, अय्यर, नियोगी, दास, मिश्र, गौड़, सारस्वत, कान्यकुब्ज, मैथिल, उत्कल
संबंधित लेख वर्ण व्यवस्था, हिन्दू धर्म, ब्राह्मण ग्रंथ, ब्राह्मण साहित्य, ब्राह्मण ग्रन्थों के भाष्यकार
अन्य जानकारी सामवेदीय ब्राह्मण ग्रन्थों में ताण्ड्य ब्राह्मण सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं। इसमें पच्चीस अध्याय हैं। इसलिए यह 'पंचर्विश ब्राह्मण' भी कहलाते हैं। जिन ब्राह्मणों के बैठने से ब्रह्मभोज की पंक्ति दूषित समझी जाती है, उनको 'पंक्तिदूषण' कहा जाता है।

ब्राह्मण भारत में आर्यों की समाज व्‍यवस्‍था अर्थात् वर्ण व्यवस्था का सबसे ऊपर का वर्ण है। भारत के सामाजिक बदलाव के इतिहास में जब भारतीय समाज को हिन्दू के रूप में संबोधित किया जाने लगा, तब ब्राह्मण वर्ण, जाति में भी परि‍वर्तित हो गया। ब्राह्मण वर्ण अब हिन्दू समाज की एक जाति भी है। ब्राह्मण को 'विप्र', 'द्विज', 'द्विजोत्तम' या 'भूसुर' भी कहा जाता है।

इतिहास

ब्राह्मण समाज का इतिहास प्राचीन भारत के वैदिक धर्म से आरंभ होता है। 'मनुस्मृति' के अनुसार आर्यावर्त वैदिक लोगों की भूमि है। ब्राह्मण व्यवहार का मुख्य स्रोत वेद हैं। ब्राह्मणों के सभी सम्प्रदाय वेदों से प्रेरणा लेते हैं। पारंपरिक तौर पर यह विश्वास है कि वेद 'अपौरुषेय'[1] तथा अनादि हैं, बल्कि अनादि सत्य का प्राकट्य है, जिनकी वैधता शाश्वत है। वेदों को श्रुति माना जाता है[2] धार्मिक व सांस्कॄतिक रीतियों एवं व्यवहार में विविधताओं के कारण और विभिन्न वैदिक विद्यालयों के उनके संबन्ध के चलते, ब्राह्मण समाज विभिन्न उपजातियों में विभाजित है। सूत्र काल में, लगभग 1000 ई. पू. से 200 ई. पू. वैदिक अंगीकरण के आधार पर, ब्राह्मण विभिन्न शाखाओं में बटने लगे। प्रतिष्ठित विद्वानों के नेतॄत्व में, एक ही वेद की विभिन्न नामों की पृथक-पृथक् शाखाएं बनने लगीं। इन प्रतिष्ठित ऋषियों की शिक्षाओं को 'सूत्र' कहा जाता है। प्रत्येक वेद का अपना सूत्र है। सामाजिक, नैतिक तथा शास्त्रानुकूल नियमों वाले सूत्रों को 'धर्मसूत्र' कहते हैं , आनुष्ठानिक वालों को 'श्रौतसूत्र' तथा घरेलू विधिशास्त्रों की व्याख्या करने वालों को 'गृहसूत्र' कहा जाता है। सूत्र सामान्यतया पद्य या मिश्रित गद्य-पद्य में लिखे हुए हैं।

ब्राह्मण अर्ध्य देते हुए

व्याख्या

ब्रह्म = वेद का पाठक अथवा ब्रह्म = परमात्मा का ज्ञाता। ऋग्वेद की अपेक्षा अन्य संहिताओं में यह साधारण प्रयोग का शब्द हो गया था, जिसका अर्थ पुरोहित है। ऋग्वेद के 'पुरुषसूक्त' (10.90) में वर्णों के चार विभाजन के सन्दर्भ में इसका जाति के अर्थ में प्रयोग हुआ है। वैदिक ग्रन्थों में यह वर्ण क्षत्रियों से ऊँचा माना गया है। राजसूय यज्ञ में ब्राह्मण क्षत्रिय को कर देता था, किन्तु इससे शतपथ ब्राह्मण में वर्णित ब्राह्मण की श्रेष्ठता न्यून नहीं होती। इस बात को बार-बार कहा गया है कि क्षत्रिय तथा ब्राह्मण की एकता से ही सर्वागींण उन्नति हो सकती है। यह स्वीकार किया गया है कि कतिपय राजन्य एवं धनसम्पन्न लोग ब्राह्मण को यदि कदाचित दबाने में समर्थ हुए हैं, तो उनका सर्वनाश भी शीघ्र ही घटित हुआ है। ब्राह्मण पृथ्वी के देवता ('भूसुर') कहे गये है, जैसे कि स्वर्ग के देवता होते हैं। ऐतरेय ब्राह्मण में ब्राह्मण को दान लेने वाला (आदायी) तथा सोम पीने वाला (आपायी) कहा गया है। उसके दो अन्य विरूद 'आवसायी' तथा 'यथाकाम-प्रयाप्य' का अर्थ अस्पष्ट है। पहले का अर्थ सब स्थानों में रहने वाला तथा दूसरे का आनन्द से घूमने वाला हो सकता है।[3]

पाणिनि काल में ब्राह्मण

कात्यायन ने चार वर्णों के भाव या कर्म को चातुर्वर्ण्य कहा है।[4] आनुपूर्वी क्रम से चारों वर्णों के लिये 'ब्राह्मणक्षत्रियविट् शूद्रा:' यह समस्त पद प्रयुक्त होता था।[5] पाणिनि ने 'ब्रह्मन्' और 'ब्राह्मण' दोनों शब्दों को पर्याय रूप में प्रयुक्त किया है। ब्रह्मन् के लिए हितकारी इस अर्थ में ब्रह्मण्य पद बनता था।[6] पतंजलि ने इसका अर्थ 'ब्राह्मणेभ्य: हितम्' किया है। उनका कहना है कि ब्रह्मन् और ब्राह्मण पर्यायवाची हैं।[7], किंतु यत् प्रत्यय ब्रह्मन शब्द से ही होता है, ब्राह्मण से नहीं। ज्ञात होता है कि पाणिनि-काल में ब्रह्मन शब्द ब्रह्मणोचित अध्यात्मिक गुण-सम्पत्ति के लिए प्रयुक्त होता था और ब्राह्मण जन्म पर आश्रित जाति के लिए। ब्राह्मण के भाव (आदर्श) और कर्म (आचार) के लिये ब्राह्मण्य पद सिद्ध किया गया है।[8] नाम मात्र के आचारहीन ब्राह्मण 'ब्रह्मबंधु' कहलाते थे। ऐतरेय ब्राह्मण, छन्दोग्य उपनिषद, श्रौतसूत्र एवं गृह्यसूत्रों में 'ब्रह्मबंधु' शब्द पाया जाता हैं। सूत्र 6।3।44 की काशिका वृत्ति में उदाहृत 'ब्रह्मबंधुतर' और 'ब्रह्मबंधुतम' प्रयोग बताते हैं कि 'ब्रह्मबंधु' पद के पीछे कुत्सा परक व्यंग्य की कई कोटियाँ थीं। पाणिनि के समय में केवल जाति का अभिमान करने वाले कर्म-विहीन ब्राह्मणों के लिए ब्रह्मबंधु की तरह 'ब्राह्मणजातीय' यह नया विशेषण भी प्रचलित हो गया था।[9]

जनपदों के अनुसार ब्राह्मणों के नाम

'ब्रह्मणो जानपदाख्यायां'[10] सूत्र से ज्ञात होता है कि भिन्न-भिन्न देशों में बस जाने के कारण ब्राह्मणों के अलग-अलग नामों की प्रथा चल पड़ी थी। कंबोज जनपद से लेकर कलिंग-अश्मक-कच्छ-सौवीर जनपदों तक फैले हुए विस्तृत प्रदेश में ब्राह्मण फैल चुके थे। स्वभावत: पृथक्-पृथक् भूखंडों के अनुसार उनके अलग नाम भी पड़े होंगे। काशिका में सुराष्ट्र ब्रह्म (=सुराष्ट्रेषु ब्रह्म) और अवंति ब्रह्मा (= अवंतिषु ब्रह्मा) ये दो उदाहरण हैं। अवंतिब्रह्म मालव ब्राह्मणों के पूर्ववर्ती थे, क्योंकि उज्जयिनी के साथ शब्द का सम्बंध गुप्त काल के लगभग आरम्भ हुआ। इसी प्रकार गुजराती और कच्छी ब्राह्मणों के पूर्ववर्ती सुराष्ट्र के ब्राह्मण रहे होंगे। जनपदों के अनुसार नाम पड़ने के कारण ब्राह्मणों के पंचगौड़ और पंचद्राविड़ दो मुख्य भेद कालांतर में प्रसिद्ध हुए।

बुद्ध तथा महावीर का कथन

न जटाहि न गोत्तेहि न जच्चा होति ब्राह्मणो।
यम्हि सच्चं च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो॥

अर्थात् भगवान बुद्ध कहते हैं कि "ब्राह्मण न तो जटा से होता है, न गोत्र से और न जन्म से। जिसमें सत्य है, धर्म है और जो पवित्र है, वही ब्राह्मण है। कमल के पत्ते पर जल और आरे की नोक पर सरसों की तरह जो विषय-भोगों में लिप्त नहीं होता, मैं उसे ही ब्राह्मण कहता हूं।"[11]

ब्राह्मण

तसपाणे वियाणेत्ता संगहेण य थावरे।
जो न हिंसइ तिविहेण तं वयं बूम माहणं॥

अर्थात महावीर स्वामी कहते हैं कि "जो इस बात को जानता है कि कौन प्राणी त्रस है, कौन स्थावर है। और मन, वचन और काया से किसी भी जीव की हिंसा नहीं करता, उसी को हम ब्राह्मण कहते हैं।"

न वि मुंडिएण समणो न ओंकारेण बंभणो।
न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण न तावसो॥

अर्थात् महावीर स्वामी कहते हैं कि "सिर मुंडा लेने से ही कोई श्रमण नहीं बन जाता। 'ओंकार' का जप कर लेने से ही कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता। केवल जंगल में जाकर बस जाने से ही कोई मुनि नहीं बन जाता। वल्कल वस्त्र पहन लेने से ही कोई तपस्वी नहीं बन जाता।"

शनकैस्तु क्रियालोपदिनाः क्षत्रिय जातयः।
वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणा दर्शनेन च॥
पौण्ड्रकाशचौण्ड्रद्रविडाः काम्बोजाः भवनाः शकाः ।
पारदाः पहल्वाश्चीनाः किरताः दरदाः खशाः॥[12]

अर्थात् ब्राह्मणत्व की उपलब्धि को प्राप्त न होने के कारण उस क्रिया का लोप होने से पोण्ड्र, चौण्ड्र, द्रविड़, काम्बोज, भवन, शक, पारद, पहलव, चीनी किरात, दरद व खश ये सभी क्षत्रिय जातियां धीरे-धीरे शूद्रत्व को प्राप्त हो गईं।[11]

अधिकार तथा कर्तव्य

शतपथ ब्राह्मण में ब्राह्मण के कर्तव्यों की चर्चा करते हुए उसके अधिकार इस प्रकार कहे गये हैं-

  1. अर्चा
  2. दान
  3. अजेयता
  4. अवध्यता
  • ब्राह्मण के कर्तव्य इस प्रकार हैं-
  1. 'ब्राह्मण्य' (वंश की पवित्रता)
  2. 'प्रतिरूपचर्या' (कर्तव्यपालन)
  3. 'लोकपक्ति' (लोक को प्रबुद्ध करना)
  • ब्राह्मण स्वयं को ही संस्कृत करके विश्राम नहीं लेता था, अपितु दूसरों को भी अपने गुणों का दान आचार्य अथवा पुरोहित के रूप में करता था।
  • आचार्यपद से ब्राह्मण का अपने पुत्र को अध्याय तथा याज्ञिक क्रियाओं में निपुण करना एक विशेष कार्य था।[13]
  • उपनिषद ग्रन्थों में आरुणि एवं श्वेतकेतु[14] तथा वरुण एवं भृगु का उदाहरण है।[15]
  • आचार्य के अनेकों शिष्य होते थे तथा उन्हें वह धार्मिक तथा सामाजिक प्रेरणा से पढ़ाने को बाध्य होता था। उसे प्रत्येक ज्ञान अपने छात्रों पर प्रकट करना पड़ता था। इसी कारण कभी कभी छात्र आचार्य को अपने में परिवर्तित कर देते थे, अर्थात् आचार्य के समान पद प्राप्त कर लेते थे। अध्ययन काल तथा शिक्षण प्रणाली का सूत्रों में विवरण प्राप्त होता है।
  • पुरोहित के रूप में ब्राह्मण महायज्ञों को कराता था। साधारण गृहृयज्ञ बिना उसकी सहायता के भी हो सकते थे, किन्तु महत्त्वपूर्ण क्रियाएँ (श्रौत) उसके बिना नहीं सम्पन्न होती थीं। क्रियाओं के विधिवत किये जाने पर जो धार्मिक लाभ होता था, उसमें दक्षिणा के अतिरिक्त पुरोहित यजमान का साझेदार होता था। पुरोहित का स्थान साधारण धार्मिक की अपेक्षा सामाजिक भी होता था। वह राजा के अन्य व्यक्तिगत कार्यों में भी उसका प्रतिनिधि होता था। राजनीति में उसका बड़ा हाथ रहने लगा था।

स्मृति ग्रन्थों का उल्लेख

ब्राह्मण

स्मृति ग्रन्थों में ब्राह्मणों के मुख्य छ: कर्तव्य (षट्कर्म) बताये गये हैं-

  1. पठन
  2. पाठन
  3. यजन
  4. याजन
  5. दान
  6. प्रतिग्रह

इनमें पठन, यजन और दान सामान्य तथा पाठन, याजन तथा प्रतिग्रह विशेष कर्तव्य हैं। आपद्धर्म के रूप में अन्य व्यवसाय से भी ब्राह्मण निर्वाह कर सकता था, किन्तु स्मृतियों ने बहुत से प्रतिबन्ध लगाकर लोभ और हिंसावाले कार्य उसके लिए वर्जित कर रखे हैं। गौड़ अथवा लक्षणावती का राजा आदिसूर ने ब्राह्मण धर्म को पुनरुज्जीवित करने का प्रयास किया, जहाँ पर बौद्ध धर्म छाया हुआ था।

वर्गीकरण

इस समय देश भेद के अनुसार ब्राह्मणों के दो बड़े विभाग हैं-

  1. पंचगौड
  2. पंचद्रविण
ब्राह्मण

पश्चिम में अफ़ग़ानिस्तान का गोर देश, पंजाब, जिसमें कुरुक्षेत्र सम्मिलित है, गोंडा-बस्ती जनपद, प्रयाग के दक्षिण व आसपास का प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ये पाँचों प्रदेश किसी न किसी समय पर गौड़ कहे जाते रहे। इन्हीं पाँचों प्रदेशों के नाम पर सम्भवत: सामूहिक नाम 'पंच गौड़' पड़ा। आदि गौड़ों का उद्गम कुरुक्षेत्र है। इस प्रदेश के ब्राह्मण विशेषत: गौड़ कहलाये। कश्मीर और पंजाब के ब्राह्मण सारस्वत, कन्नौज के आस-पास के ब्राह्मण कान्यकुब्ज, मिथिला के ब्राह्मण मैथिल तथा उत्कल के ब्राह्मण उत्कल कहलाये। नर्मदा के दक्षिणस्थ आन्ध्र, द्रविड़, कर्नाटक, महाराष्ट्र और गुर्जर, इन्हें 'पंच द्रविड' कहा गया है। वहाँ के ब्राह्मण इन्हीं पाँच नामों से प्रसिद्ध हैं।

अन्तर्विभाग

उपर्युक्त दसों के अनेक अन्तर्विभाग हैं। ये सभी या तो स्थानों के नाम से प्रसिद्ध हुए, या वंश के किसी पूर्व पुरुष के नाम से प्रख्यात, अथवा किसी विशेष पदवी, विद्या या गुण के कारण नामधारी हुए। बड़नगरा, विशनगरा, भटनागर, नागर, माथुर, मूलगाँवकर इत्यादि स्थानवाचक नाम हैं। वंश के पूर्व पुरुष के नाम, जैसे- सान्याल (शाण्डिल्य), नारद, वशिष्ठ, कौशिक, भारद्वाज, कश्यप, गोभिल ये नाम वंश या गोत्र के सूचक हैं। पदवी के नाम, जैसे- 'चक्रवर्त्ती वन्द्योपाध्याय', 'मुख्योपाध्याय', 'भट्ट', 'फडनवीस', 'कुलकर्णी', 'राजभट्ट', 'जोशी' (ज्योतिषी), 'देशपाण्डे' इत्यादि। विद्या के नाम, जैसे- 'चतुर्वेदी', 'त्रिवेदी', 'शास्त्री', 'पाण्डेय', 'व्यास', 'द्विवेदी' इत्यादि। कर्म या गुण के नाम, जैसे- 'दीक्षित', 'सनाढय', 'सुकुल', 'अधिकारी', 'वास्तव्य', 'याजक', 'याज्ञिक', 'नैगम', 'आचार्य', 'भट्टाचार्य' इत्यादि।

ब्राह्मणों को सम्पूर्ण भारतवर्ष में विभिन्न उपनामों से जाना जाता है, जैसे- पूर्वी उत्तर प्रदेश, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, दिल्ली, हरियाणाराजस्थान के कुछ भागों में त्यागी, अवध (मध्य उत्तर प्रदेश) तथा मध्य प्रदेश में बाजपेयी, बिहारबंगाल में भूमिहार, जम्मू कश्मीर, पंजाब व हरियाणा के कुछ भागों में महियाल, मध्य प्रदेश व राजस्थान में गालव, गुजरात में अनाविल, महाराष्ट्र में चितपावन एवं कार्वे, कर्नाटक में अयंगर एवं हेगडे, केरल में नम्बूदरीपाद, तमिलनाडु में अयंगर एवं अय्यर, आंध्र प्रदेश में नियोगी एवं राव तथा उड़ीसा में दास एवं मिश्र आदि बिहार में मैथिल ब्राह्मण आदि।

पंक्तिदूषण ब्राह्मण

  • जिन ब्राह्मणों के बैठने से ब्रह्मभोज की पंक्ति दूषित समझी जाती है, उनको पंक्तिदूषण कहा जाता है।
  • ऐसे लोगों की बड़ी लम्बी सूची है।

पंचर्विश ब्राह्मण

सामवेदीय ब्राह्मण ग्रन्थों में ताण्ड्य ब्राह्मण सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं। इसमें पच्चीस अध्याय हैं। इसलिए यह पंचर्विश ब्राह्मण भी कहलाता है।

भातपाँत

  • भातपाँत एक विचारधारा है। भातपाँत का अर्थ है, "एक पंक्ति में बैठकर समान कुल के लोगों के द्वारा कच्चा भोजन करना।"
  • यह विचारधारा बहुत प्राचीन है।
  • पुराणों और स्मृतियों में हव्य-कव्यग्रहण के सम्बन्ध में ब्राह्मणों की एक पंक्ति में बैठने की पात्रता पर विस्तार से विचार हुआ है।


इन्हें भी देखें: हिन्दू धर्म, वर्ण व्यवस्था, जाति, जाट, कायस्थ, वैश्य, क्षत्रिय एवं शूद्र


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. किसी मानव/देवता ने नहीं लिखे
  2. श्रवण हेतु, जो मौखिक परंपरा का द्योतक है।
  3. ऐतरेय ब्राह्मण 7.29,2
  4. गुण-वचन ब्राह्मणादिभ्य: कर्मणि च, 5।1।124, सूत्र पर वार्तिक
  5. वर्णा-नामानुपूर्वेण पूर्वनिपात, 2।2।34 वा.
  6. ब्रह्मणे हितम, 5।1।7
  7. समानार्थावेतौ ब्रह्मन शब्दों ब्राह्मण शब्दश्च
  8. गुण वचन ब्राह्मणादिभ्य: कर्मणि च, 5।1।1।24
  9. पाणिनीकालीन भारत |लेखक: वासुदेवशरण अग्रवाल |प्रकाशक: चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-1 |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 90-91 |
  10. 5।4।104
  11. 11.0 11.1 कौन है असली ब्राह्मण जानिए (हिन्दी) वेबदुनिया। अभिगमन तिथि: 25 मार्च, 2015।
  12. - मनुसंहिता (1- (/43-44)
  13. शतपथ ब्राह्मण 1,6,2,4
  14. बृ0 उ0 6,1,1
  15. शतपथ ब्राह्मण 11,6,1,1

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