"अनमोल वचन 13": अवतरणों में अंतर
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===मनुष्य का कर्तव्य है कि कष्ट देने वाले से भी प्रेम करे=== | ===मनुष्य का कर्तव्य है कि कष्ट देने वाले से भी प्रेम करे=== | ||
* कोई भीतरी कारण ही पदा को परस्पर मिलाता है, बाहरी गुणों पर प्रीति आश्रित नहीं होती। ~ भवभूति | * कोई भीतरी कारण ही पदा को परस्पर मिलाता है, बाहरी गुणों पर प्रीति आश्रित नहीं होती। ~ भवभूति | ||
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* मनुष्य का कर्तव्य है कि कष्ट देनेवाले से भी प्रेम करे। ~ मारकस आंटोनियस | * मनुष्य का कर्तव्य है कि कष्ट देनेवाले से भी प्रेम करे। ~ मारकस आंटोनियस | ||
* जहां प्रेम जितना उग्र होता है वहां वैसी ही तीखी घृणा भी होती है। ~ अज्ञेय | * जहां प्रेम जितना उग्र होता है वहां वैसी ही तीखी घृणा भी होती है। ~ अज्ञेय | ||
===मनुष्य का जीवन एक महानदी की भांति है=== | |||
* जैसे जल द्वारा अग्नि को शांत किया जाता है वैसे ही ज्ञान के द्वारा मन को शांत रखना चाहिए। ~ वेदव्यास | |||
* हताश न होना सफलता का मूल है और यही परम सुख है। उत्साह मनुष्य को कर्म के लिए प्रेरित करता है और उत्साह ही कर्म को सफल बनाता है। ~ वाल्मीकि | |||
* मनुष्य का जीवन एक महानदी की भांति है जो अपने बहाव द्वारा नवीन दिशाओं में राह बना लेती है। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर | |||
===मनुष्य की जिह्वा छोटी होती है=== | ===मनुष्य की जिह्वा छोटी होती है=== | ||
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* मनुष्य की जिह्वा छोटी होती है, पर वह बड़े-बड़े दोष कर बैठती है। ~ इस्माइल इब्न अबीबकर | * मनुष्य की जिह्वा छोटी होती है, पर वह बड़े-बड़े दोष कर बैठती है। ~ इस्माइल इब्न अबीबकर | ||
* सहयोग प्रेम की सामान्य अभिव्यक्ति के अलावा कुछ नहीं है। ~ रामतीर्थ | * सहयोग प्रेम की सामान्य अभिव्यक्ति के अलावा कुछ नहीं है। ~ रामतीर्थ | ||
===मनुष्य की चाहत=== | |||
* एकाएक बिना विचारे कोई काम नहीं करना चाहिए। सम्यक विचार न करना परम आपत्ति का उत्पादक होता है। गुण के ऊपर अपने आप को समर्पण करने वाली संपत्तियां विचारवान पुरुष को स्वयं मनोनीत करती हैं। ~ भारवि | |||
* मनुष्य जितना चाहता है, उतनी ही उसकी प्राप्त करने की शक्ति बढ़ती जाती है। अभाव पर विजय पाना ही जीवन की सफलता है। उसे स्वीकार कर के उसकी ग़ुलामी करना ही कायरपन है। ~ शरतचंद्र | |||
* जो नेक काम करता है और नाम की इच्छा नहीं करता उसकी चित्त-शुद्धि होती जाती है। उसका काम सहज ही परमशक्ति को अर्पण हो जाता है। ~ विनाबा भावे | |||
* कार्य उसी का सिद्ध होता है जो समय को विचार कर कार्य करता है। वह खिलाड़ी कभी नहीं हारता जो दांव पर विचार कर खेलता है। ~ वृंद | |||
===मनुष्य को अपना कार्य करना ही चाहिए=== | |||
* जो दूसरों में दोष निकालते हैं, वे अपने दोषों से अनभिज्ञ रहते हैं। ~ वेमना | |||
* धन तो असमय के मेघ के समान अकस्मात आता है और चला जाता है। ~ सोमदेव | |||
* किसी कार्य के लिए कला एवं विज्ञान ही पर्याप्त नहीं है, उसमें धैर्य की भी आवश्यकता पड़ती है। ~ गेटे | |||
* यदि पर्वत भी वृक्ष के समान आंधी में हिल उठे, तो उन दोनों में अंतर ही क्या रहा? ~ कालिदास | |||
* यद्यपि सब कर्म देवाधीन हैं, तथापि मनुष्य को अपना कार्य करना ही चाहिए। ~ धनपाल | |||
* जहां धन होता है, वहां त्याग-बुद्धि नहीं होती है। जहां शौर्य होता है, वहां विवेक शून्य होता है। ~ पानुगंटि | |||
===मनुष्य के दु:ख से दुखी होना ही सच्चा सुख है=== | |||
* पार्थिव सुख ही एक मात्र सुख नहीं है- बल्कि धर्म के लिए दूसरों के लिए उस सुख को उत्सर्ग कर देना ही श्रेय है। ~ शरतचंद | |||
* निरोगी रहना, ऋणी न होना, अच्छे लोगों से मेल रखना, अपनी वृत्ति से जीविका चलाना और निभर्य होकर रहना- ये मनुष्य के सुख हैं। ~ वेदव्यास | |||
* दुखी सुख की इच्छा करता है। सुखी और अधिक सुख चाहता है। वास्तव में, दु:ख के प्रति उपेक्षा भाव रखना ही सुख है। ~ विसुद्धिमग्ग | |||
* मनुष्य के दु:ख से दुखी होना ही सच्चा सुख है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी | |||
===मनुष्य परमात्मा का सर्वोच्च साक्षात मंदिर=== | |||
* ऐश्वर्य का भूषण, सज्जनता-शूरता का मित-भाषण, ज्ञान का शांति, कुल का भूषण विनय, धन का उचित व्यय, तप का अक्रोध, समर्थ का क्षमा और धर्म का भूषण निश्छलता है। यह तो सबका पृथक-पृथक् हुआ, परंतु सबसे बढ़कर सबका भूषण शील है। ~ भर्तृहरि | |||
* प्रेम की रोटियों में अमृत रहता है, चाहे वह गेहूं की हों या बाजरे की। ~ प्रेमचंद | |||
* मनुष्य ही परमात्मा का सर्वोच्च साक्षात मंदिर है। ~ विवेकानंद | |||
* मन का दु:ख मिट जाने पर शरीर का दु:ख भी मिट जाता है। ~ वेदव्यास | |||
===मनुष्य अकेला आता है=== | ===मनुष्य अकेला आता है=== | ||
* मनुष्य इस संसार में अकेला ही जन्मता है और अकेला ही मर जाता है। एक धर्म ही उसके साथ-साथ चलता है, न तो मित्र चलते हैं और न बांधव। कार्यों में सफलता, सौभाग्य और सौंदर्य सब कुछ धर्म से ही प्राप्त होते हैं। ~ मत्स्य पुराण | * मनुष्य इस संसार में अकेला ही जन्मता है और अकेला ही मर जाता है। एक धर्म ही उसके साथ-साथ चलता है, न तो मित्र चलते हैं और न बांधव। कार्यों में सफलता, सौभाग्य और सौंदर्य सब कुछ धर्म से ही प्राप्त होते हैं। ~ मत्स्य पुराण | ||
* परोपकार का आचरण मत त्यागो। संसार क्षणिक है। जब चंद्रमा और सूर्य भी अस्त हो जाते हैं, तब अन्य कौन स्थिर है? ~ सुप्रभाचार्य | * परोपकार का आचरण मत त्यागो। संसार क्षणिक है। जब चंद्रमा और सूर्य भी अस्त हो जाते हैं, तब अन्य कौन स्थिर है? ~ सुप्रभाचार्य | ||
* तुम्हारा मन शुद्ध है, तो तुम्हारे लिए | * तुम्हारा मन शुद्ध है, तो तुम्हारे लिए जगत् शुद्ध है। ~ शिव | ||
* किसी कार्य के लिए कला एवं विज्ञान ही पर्याप्त नहीं है, उसमें धैर्य की भी आवश्यकता पड़ती है। ~ गेटे | * किसी कार्य के लिए कला एवं विज्ञान ही पर्याप्त नहीं है, उसमें धैर्य की भी आवश्यकता पड़ती है। ~ गेटे | ||
* विचार और व्यवहार में सामंजस्य न होना ही धूर्तता है, मक्कारी है। ~ प्रेम चंद | * विचार और व्यवहार में सामंजस्य न होना ही धूर्तता है, मक्कारी है। ~ प्रेम चंद | ||
===मनुष्य | ===मनुष्य अनुकरण करने वाला प्राणी है और जो सबसे आगे=== | ||
* | * मनुष्य अनुकरण करने वाला प्राणी है और जो सबसे आगे बढ़ जाता है वही समूह का नेतृत्व करता है। ~ शिलर | ||
* | * उपदेश की अपेक्षा कहीं अधिक हम अनुकरण से सीखते हैं। ~ बर्क | ||
* | * यदि तुम भलाई का अनुकरण परिश्रम के साथ करो तो परिश्रम समाप्त हो जाता है और भलाई बनी रहती है, यदि तुम बुराई का अनुकरण सुख के साथ करो तो सुख चला जाता है और बुराई बनी रहती है। ~ सिसरो | ||
* कोई व्यक्ति नकल से अभी तक महान् नहीं हुआ है। ~ जॉनसन | |||
* अनुभव प्राप्ति के लिए अत्यंत अधिक मूल्य चुकाना पड़ता है परंतु इससे जो शिक्षा मिलती हैै वह अन्य किसी साधन द्वारा नहीं मिल सकती। ~ कार्लाइल | |||
* अनुभव एक रत्न है और इसे ऐसा होना भी चाहिए क्योंकि यह प्राय: अत्यधिक मूल्य में ख़रीदा जाता है। ~ शेक्सपि यर | |||
===मनुष्य क्षमा कर सकता है, देवता नहीं=== | ===मनुष्य क्षमा कर सकता है, देवता नहीं=== | ||
* मनुष्य क्षमा कर सकता है, देवता नहीं कर सकता। मनुष्य हृदय से लाचार है, देवता नियम का कठोर प्रवर्त्तयिता। मनुष्य नियम से विचलित हो सकता है, पर देवता की कुटिल भृकुटि नियम की निरंतर रखवाली के लिए तनी ही रहती है। मनुष्य इसलिए बड़ा है, क्योंकि वह | * मनुष्य क्षमा कर सकता है, देवता नहीं कर सकता। मनुष्य हृदय से लाचार है, देवता नियम का कठोर प्रवर्त्तयिता। मनुष्य नियम से विचलित हो सकता है, पर देवता की कुटिल भृकुटि नियम की निरंतर रखवाली के लिए तनी ही रहती है। मनुष्य इसलिए बड़ा है, क्योंकि वह ग़लती कर सकता है और देवता इसलिए बड़ा होता है क्योंकि वह नियम का नियंता है। ~ हजारी प्रसाद द्विवेदी | ||
* मेरी सम्मति में इंसान 3 प्रकार के होते हैं। एक वे जो जीवन को कोसते हैं। दूसरे वे जो उसे आशीर्वाद देते हैं। और तीसरे वे जो इस पर सोच विचार करते हैं। मैं पहले प्रकार के इंसानों से उनकी दुखी अवस्था, दूसरे प्रकार के इंसानों से उनकी शुभ भावना और तीसरे प्रकार के इंसानों से उनकी बुद्धिमत्ता के कारण प्रेम करता हूं। ~ खलील जिब्रान | * मेरी सम्मति में इंसान 3 प्रकार के होते हैं। एक वे जो जीवन को कोसते हैं। दूसरे वे जो उसे आशीर्वाद देते हैं। और तीसरे वे जो इस पर सोच विचार करते हैं। मैं पहले प्रकार के इंसानों से उनकी दुखी अवस्था, दूसरे प्रकार के इंसानों से उनकी शुभ भावना और तीसरे प्रकार के इंसानों से उनकी बुद्धिमत्ता के कारण प्रेम करता हूं। ~ खलील जिब्रान | ||
* जंगली पशु क्रीड़ा के लिए कभी किसी की हत्या नहीं करते। मानव ही वह प्राणी है जिसके लिए अपने साथी प्राणियों की यंत्रणा तथा मृत्यु मनोरंजक होती है। ~ जेम्स एंथनी फ्राउड | * जंगली पशु क्रीड़ा के लिए कभी किसी की हत्या नहीं करते। मानव ही वह प्राणी है जिसके लिए अपने साथी प्राणियों की यंत्रणा तथा मृत्यु मनोरंजक होती है। ~ जेम्स एंथनी फ्राउड | ||
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* कर्म, विद्या, धर्म, शील और उत्तम जीवन- इनसे ही मनुष्य शुद्ध होते हैं, गोत्र और धन से नहीं। ~ मज्झिम निकाय | * कर्म, विद्या, धर्म, शील और उत्तम जीवन- इनसे ही मनुष्य शुद्ध होते हैं, गोत्र और धन से नहीं। ~ मज्झिम निकाय | ||
* किसी के धन का लालच मत करो। ~ ईशावास्योपनिषद् | * किसी के धन का लालच मत करो। ~ ईशावास्योपनिषद् | ||
===मनुष्य केवल रोटी से जीवित नहीं रहता=== | ===मनुष्य केवल रोटी से जीवित नहीं रहता=== | ||
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* उचित पाबंदी को निभाकर चलना उतना ही कल्याणकारी है, जितना अनुचित पाबंदी को तोड़कर चलना। ~ कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' | * उचित पाबंदी को निभाकर चलना उतना ही कल्याणकारी है, जितना अनुचित पाबंदी को तोड़कर चलना। ~ कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' | ||
* धूल अपमानित की जाती है किंतु बदले में वह अपने फूलों की ही भेंट देती है। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर | * धूल अपमानित की जाती है किंतु बदले में वह अपने फूलों की ही भेंट देती है। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर | ||
===मनुष्य जिस समय पशु के समान आचरण=== | |||
* मनुष्य जिस समय पशु के समान आचरण करता है, उस समय वह पशुओ से भी नीचे गिर जाता है। ~ रवींद्र नाथ | |||
* जिसने ज्ञान को आचरण मे उतार लिया, उसने ईश्वर को ही मूर्तिमान कर लिया। ~ विनोबा भावे | |||
* शास्त्र पढ़ कर भी लोग मूर्ख होते हैं, किंतु जो उसके अनुसार आचरण करता है वह विद्वान् होता है। रोगियो के लिए भली भांति सोचकर तय की गई दवा का नाम लेने भर से किसी को रोग से छुटकारा नहीं मिल सकता। ~ हितोपदेश | |||
* मनुष्य का आचरण ही बताता है कि दरअसल वह कैसा है। ~ काका कालेलकर | |||
===मन नहीं मरता तो माया नहीं मरती=== | ===मन नहीं मरता तो माया नहीं मरती=== | ||
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* विद्या के लिए मोमबत्ती की तरह पिघलना चाहिए। ~ अज्ञात | * विद्या के लिए मोमबत्ती की तरह पिघलना चाहिए। ~ अज्ञात | ||
* सज्जन अपना नाम नहीं लेते, श्रेष्ठ लोगों की यही आचार परंपरा है। ~ श्रीहर्ष | * सज्जन अपना नाम नहीं लेते, श्रेष्ठ लोगों की यही आचार परंपरा है। ~ श्रीहर्ष | ||
* वही मनुष्य | * वही मनुष्य महान् है जो भीड़ की प्रशंसा की उपेक्षा कर सकता है और उसकी कृपा से स्वतंत्र रहकर प्रसन्न रहता है। ~ एडीसन | ||
* हिम्मत से रहित व्यक्ति का रद्दी के | * हिम्मत से रहित व्यक्ति का रद्दी के काग़ज़ की तरह कोई आदर नहीं करता। ~ कृपाराम | ||
===मान-बड़ाई मीठी छुरी है=== | ===मान-बड़ाई मीठी छुरी है=== | ||
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* मान-बड़ाई मीठी छुरी है। विष भरा सोने का घड़ा है। ~ शिव | * मान-बड़ाई मीठी छुरी है। विष भरा सोने का घड़ा है। ~ शिव | ||
* अपनी बुद्धि से साधु होना अच्छा, पराई बुद्धि से राजा होना अच्छा नहीं है। ~ उडि़या लोकोक्ति | * अपनी बुद्धि से साधु होना अच्छा, पराई बुद्धि से राजा होना अच्छा नहीं है। ~ उडि़या लोकोक्ति | ||
===माता-पिता का आदर करें=== | |||
* संसार रूपी विष - वृक्ष के दो फल अमृततुल्य हैं - काव्यामृत के रस का आस्वादन और सज्जनों की संगति। ~ अज्ञात | |||
* कांच का कटोरा, नेत्रों का जल, मोती और मन, ये एक बार टूटने पर पहले जैसे नहीं रहते। अत: पहले ही सावधानी बरतनी चाहिए। ~ राजस्थानी लोकोक्ति | |||
* अपने पिता और अपनी माता का आदर कर और अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम कर। ~ नवविधान | |||
* रूप में अनुरक्त मत हों। उधर जाते हुए नेत्रों को रोकें। रूप में आसक्त पतंगे को दीपक में जलते हुए देखें। ~ देवसेन | |||
* यदि तुम सूर्य के खो जाने पर आंसू बहाओगे, तो तारों को भी खो बैठोगे। ~ रवींद्रनाथ टैगोर | |||
===मुहब्बत रूह की खुराक=== | ===मुहब्बत रूह की खुराक=== | ||
* मुहब्बत रूह की खुराक है। यह वह अमृत की बूंद है जो मरे हुए भावों को जिंदा कर देती है। मुहब्बत आत्मिक वरदान है। यह | * मुहब्बत रूह की खुराक है। यह वह अमृत की बूंद है जो मरे हुए भावों को जिंदा कर देती है। मुहब्बत आत्मिक वरदान है। यह ज़िंदगी की सबसे पाक, सबसे ऊंची, सबसे मुबारक बरकत है। ~ प्रेमचंद | ||
* प्रेम कभी दावा नहीं करता, वह हमेशा देता है। प्रेम हमेशा कष्ट सहता है। न कभी झुंझलाता है, न बदला लेता है। ~ महात्मा गांधी | * प्रेम कभी दावा नहीं करता, वह हमेशा देता है। प्रेम हमेशा कष्ट सहता है। न कभी झुंझलाता है, न बदला लेता है। ~ महात्मा गांधी | ||
* प्रेम चतुर मनुष्य के लिए नहीं, वह तो शिशु से सरल हृदयों की वस्तु है। ~ जयशंकर प्रसाद | * प्रेम चतुर मनुष्य के लिए नहीं, वह तो शिशु से सरल हृदयों की वस्तु है। ~ जयशंकर प्रसाद | ||
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===महान कार्य के लिए शत्रुओं से भी संधि कर लें=== | ===महान कार्य के लिए शत्रुओं से भी संधि कर लें=== | ||
* विचारपूर्वक किया गया श्रम उच्च से उच्च प्रकार की समाजसेवा है। ~ महात्मा गांधी | * विचारपूर्वक किया गया श्रम उच्च से उच्च प्रकार की समाजसेवा है। ~ महात्मा गांधी | ||
* दूसरों को | * दूसरों को दु:ख दिए बिना, दुष्टों की विनय किए बिना और सज्जनों के मार्ग का त्याग किए बिना अत्यल्प जो कुछ भी है, वही बहुत है। ~ अज्ञात | ||
* किसी | * किसी महान् कार्य को करने के प्रसंग में शत्रुओं से भी संधि कर लेना चाहिए। ~ भागवत | ||
* विपत्ति के पीछे विपत्ति और संपत्ति के पीछे संपत्ति आती है। ~ बाण | * विपत्ति के पीछे विपत्ति और संपत्ति के पीछे संपत्ति आती है। ~ बाण | ||
===महान वह है, जो | ===महान वह है, जो ग़लत रास्ते से लौट सके=== | ||
* जो प्रकृति से ही | * जो प्रकृति से ही महान् हैं उनके स्वाभाविक तेज को किसी (शारीरिक)ओज-प्रकाश की अपेक्षा नहीं रहती। ~ चाणक्य | ||
* संपत्ति और विपत्ति में एक समान आचरण करनेवाले ही | * संपत्ति और विपत्ति में एक समान आचरण करनेवाले ही महान् कहलाते हैं। ~ विष्णु शर्मा | ||
* विष के एक घड़े से समुद्र को दूषित नहीं किया जा सकता, क्योंकि समुद्र अत्यंत | * विष के एक घड़े से समुद्र को दूषित नहीं किया जा सकता, क्योंकि समुद्र अत्यंत महान् और विशाल है। वैसे ही महापुरुष को किसी की निंदा दूषित नहीं कर सकती। ~ इत्तिवृत्तक | ||
* मैं | * मैं महान् उसको मानता हूं जो स्वत: अपना मार्ग बनाते हैं, परंतु कहीं मिथ्या मार्ग पर चल पड़ें तो लौट आने का साहस और बुद्धि भी रखते हैं। ~ गुरुदत्त | ||
===महानता जिस क्षुद्रता में पलती है=== | ===महानता जिस क्षुद्रता में पलती है=== | ||
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* महानता जिस क्षुद्रता में पलती है, वह क्षुद्रता कभी महानता को समझती नहीं। ~ रांगेय राघव | * महानता जिस क्षुद्रता में पलती है, वह क्षुद्रता कभी महानता को समझती नहीं। ~ रांगेय राघव | ||
* यद्यपि सब कर्म देवाधीन हैं, तथापि मनुष्य को अपना काम करना ही चाहिए। ~ अपभ्रंश से | * यद्यपि सब कर्म देवाधीन हैं, तथापि मनुष्य को अपना काम करना ही चाहिए। ~ अपभ्रंश से | ||
* ठीक समय पर किया हुआ थोड़ा-सा काम भी बहुत उपकारी है और समय बीतने पर किया हुआ | * ठीक समय पर किया हुआ थोड़ा-सा काम भी बहुत उपकारी है और समय बीतने पर किया हुआ महान् उपकार भी व्यर्थ हो जाता है। ~ योगवशिष्ठ | ||
===मेहनती भाग्य को भी परास्त कर देते हैं=== | ===मेहनती भाग्य को भी परास्त कर देते हैं=== | ||
* निरंतर अथक परिश्रम करनेवाले भाग्य को भी परास्त कर देते हैं। ~ तिरुवल्लुवर | * निरंतर अथक परिश्रम करनेवाले भाग्य को भी परास्त कर देते हैं। ~ तिरुवल्लुवर | ||
* परिश्रमी धीर व्यक्ति को इस | * परिश्रमी धीर व्यक्ति को इस जगत् में कोई वस्तु अप्राप्य नहीं है। ~ सोमदेव | ||
* परिश्रम ही हर सफलता की कुंजी है और वही प्रतिभा का पिता है। ~ कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' | * परिश्रम ही हर सफलता की कुंजी है और वही प्रतिभा का पिता है। ~ कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' | ||
* जंग लग कर नष्ट होने की अपेक्षा जीर्ण होकर नष्ट होना अधिक अच्छा है। ~ बिशप रिचर्ड कंबरलैंड | * जंग लग कर नष्ट होने की अपेक्षा जीर्ण होकर नष्ट होना अधिक अच्छा है। ~ बिशप रिचर्ड कंबरलैंड | ||
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===मिल गया उस पर संतोष करो=== | ===मिल गया उस पर संतोष करो=== | ||
* संतुष्ट मन वाले के लिए सभी दिशाएं सदा सुखमयी हैं, जैसे जूता पहनने वाले के लिए कंकड़ और कांटे आदि से | * संतुष्ट मन वाले के लिए सभी दिशाएं सदा सुखमयी हैं, जैसे जूता पहनने वाले के लिए कंकड़ और कांटे आदि से दु:ख नहीं होता। ~ भागवत | ||
* जो कुछ तुम्हें मिल गया है, उस पर संतोष करो और सदैव प्रसन्न रहने की चेष्टा करो। यहां पर 'मेरी' और 'तेरी' का अधिकार किसी को भी नहीं दिया गया है। ~ हाफिज | * जो कुछ तुम्हें मिल गया है, उस पर संतोष करो और सदैव प्रसन्न रहने की चेष्टा करो। यहां पर 'मेरी' और 'तेरी' का अधिकार किसी को भी नहीं दिया गया है। ~ हाफिज | ||
* जिसमें न दंभ है, न अभिमान है, न लोभ है, न स्वार्थ है, न तृष्णा है और जो क्रोध से रहित तथा प्रशांत है, वही ब्राह्मण है, वही श्रमण है, और वही भिक्षु है। ~ उदान | * जिसमें न दंभ है, न अभिमान है, न लोभ है, न स्वार्थ है, न तृष्णा है और जो क्रोध से रहित तथा प्रशांत है, वही ब्राह्मण है, वही श्रमण है, और वही भिक्षु है। ~ उदान | ||
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===मिथ्या प्रशंसा बहुत कष्टप्रद होती है=== | ===मिथ्या प्रशंसा बहुत कष्टप्रद होती है=== | ||
* प्रार्थना या भजन जीभ से नहीं होता है। इसी से गूंगे, तोतले और मूढ़ भी प्रार्थना कर सकते हैं। ~ महात्मा गांधी | * प्रार्थना या भजन जीभ से नहीं होता है। इसी से गूंगे, तोतले और मूढ़ भी प्रार्थना कर सकते हैं। ~ महात्मा गांधी | ||
* वही अच्छी प्रार्थना करता है जो | * वही अच्छी प्रार्थना करता है जो महान् और क्षुद्र सभी जीवों से सर्वोत्तम प्रेम करता है, क्योंकि हमसे प्रेम करनेवाले ने ही उन सबको बनाया है और वह उनसे प्रेम करता है। ~ कालरिज | ||
* जो जिसका प्रिय व्यक्ति है, वह उसका कोई विलक्षण धन है। प्रिय व्यक्ति कुछ न करता हुआ भी सामीप्यादि दुखों को दूर कर देता है। ~ भवभूति | * जो जिसका प्रिय व्यक्ति है, वह उसका कोई विलक्षण धन है। प्रिय व्यक्ति कुछ न करता हुआ भी सामीप्यादि दुखों को दूर कर देता है। ~ भवभूति | ||
* मिथ्या प्रशंसा बहुत कष्टप्रद होती है। ~ भास | * मिथ्या प्रशंसा बहुत कष्टप्रद होती है। ~ भास | ||
* यदि बात तुम्हारे हृदय से | * यदि बात तुम्हारे हृदय से उत्पन्ननहीं हुई है तो तुम कदापि दूसरों के हृदय प्रभावित नहीं कर सकते। ~ गेटे | ||
* प्रमाद में मनुष्य कठोर सत्य का भी अनुभव नहीं करता। ~ जयशंकर प्रसाद | * प्रमाद में मनुष्य कठोर सत्य का भी अनुभव नहीं करता। ~ जयशंकर प्रसाद | ||
* मिथ्या प्रशंसा बहुत कष्टप्रद होती है। ~ भास | * मिथ्या प्रशंसा बहुत कष्टप्रद होती है। ~ भास | ||
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===योग्यता एक चौथाई व्यक्तित्व का निर्माण करती है=== | ===योग्यता एक चौथाई व्यक्तित्व का निर्माण करती है=== | ||
* व्यक्ति की पूजा की बजाय गुण-पूजा करनी चाहिए। व्यक्ति तो | * व्यक्ति की पूजा की बजाय गुण-पूजा करनी चाहिए। व्यक्ति तो ग़लत साबित हो सकता है और उसका नाश तो होगा ही, गुणों का नाश नहीं होता। ~ महात्मा गांधी | ||
* योग्यता एक चौथाई व्यक्तित्व का निर्माण करती है। शेष पूर्ति प्रतिष्ठा द्वारा होती है। ~ मोहन राकेश | * योग्यता एक चौथाई व्यक्तित्व का निर्माण करती है। शेष पूर्ति प्रतिष्ठा द्वारा होती है। ~ मोहन राकेश | ||
* पृथ्वी पर ये तीनों व्यर्थ हैं- प्रतिभाशून्य की विद्या, कृपण का धन और डरपोक का बाहुबल। ~ बल्लाल | * पृथ्वी पर ये तीनों व्यर्थ हैं- प्रतिभाशून्य की विद्या, कृपण का धन और डरपोक का बाहुबल। ~ बल्लाल | ||
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===ये तो पहिए के घेरे के समान हैं=== | ===ये तो पहिए के घेरे के समान हैं=== | ||
* | * दु:ख या सुख किसी पर सदा ही नहीं रहते। ये तो पहिए के घेरे के समान कभी नीचे, कभी ऊपर यों ही होते रहते हैं। ~ कालिदास | ||
* इस संसार में | * इस संसार में दु:ख अनंत हैं तथा सुख अत्यल्प हैं। इसलिए दुखों से घिरे सुखों पर दृष्टि नहीं लगानी चाहिए। ~ योगवासिष्ठ | ||
* बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि सुख या दुख, प्रिय अथवा अप्रिय, जो प्राप्त हो जाए, उसका हृदय से स्वागत करे, कभी हिम्मत न हारे। ~ वेदव्यास | * बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि सुख या दुख, प्रिय अथवा अप्रिय, जो प्राप्त हो जाए, उसका हृदय से स्वागत करे, कभी हिम्मत न हारे। ~ वेदव्यास | ||
* जैसा सुख-दुख दूसरे को दिया जाता है, वैसा ही सुख-दुख स्वयं को भी प्राप्त होता है। ~ अज्ञात | * जैसा सुख-दुख दूसरे को दिया जाता है, वैसा ही सुख-दुख स्वयं को भी प्राप्त होता है। ~ अज्ञात | ||
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* राज्य छाते के समान होता है, जिसका अपने हाथ में पकड़ा हुआ दंड थकान को उतना दूर नहीं करता, जितना कि थकान उत्पन्न करता है। ~ कालिदास | * राज्य छाते के समान होता है, जिसका अपने हाथ में पकड़ा हुआ दंड थकान को उतना दूर नहीं करता, जितना कि थकान उत्पन्न करता है। ~ कालिदास | ||
* विनय के बिना संपत्ति क्या? चंद्रमा के बिना रात क्या? ~ भामह | * विनय के बिना संपत्ति क्या? चंद्रमा के बिना रात क्या? ~ भामह | ||
* वह विजय | * वह विजय महान् होती है जो बिना रक्तपात के मिलती है। ~ स्पेनी लोकोक्ति | ||
===राजलक्ष्मी तो चंचल होती है=== | ===राजलक्ष्मी तो चंचल होती है=== | ||
पंक्ति 290: | पंक्ति 311: | ||
* राज्य का अस्तित्व अच्छे जीवन के लिए होता है, केवल जीने के लिए नहीं। ~ अरस्तू | * राज्य का अस्तित्व अच्छे जीवन के लिए होता है, केवल जीने के लिए नहीं। ~ अरस्तू | ||
* वही वास्तव में राजा है जो अनाथों का नाथ, निरुपायों का अवलंब, दुष्टों को दंड देनेवाला, डरों हुओं को अभय देनेवाला और सभी का उपकारक, मित्र, बंधु, स्वामी, आश्रयस्थल, श्रेष्ठ गुरु, पिता, माता तथा भाई है। ~ अज्ञात | * वही वास्तव में राजा है जो अनाथों का नाथ, निरुपायों का अवलंब, दुष्टों को दंड देनेवाला, डरों हुओं को अभय देनेवाला और सभी का उपकारक, मित्र, बंधु, स्वामी, आश्रयस्थल, श्रेष्ठ गुरु, पिता, माता तथा भाई है। ~ अज्ञात | ||
===राजा की स्थिति प्रजा पर ही निर्भर होती है। जिसे=== | |||
* राजा की स्थिति प्रजा पर ही निर्भर होती है। जिसे पुरवासी और देशवासियों को प्रसन्न रखने की कला आती है, वह राजा इस लोक और परलोक में सुख पाता है। ~ वेदव्यास | |||
* बिना राजा के देश में किसी की कोई वस्तु अपनी नहीं रहती। मछलियों की भांति सब लोग एक-दूसरे को अपना ग्रास बनाते, लूटते-खसोटते रहते हैं। ~ माघ | |||
* राजा सत्य है, राजा धर्म है, राजा कुलीन पुरुषों का कुल है, राजा ही माता और पिता है तथा राजा समस्त मानवों का हित साधन करने वाला है। ~ केशवदास | |||
* जिस देश को राजनीतिक उन्नति करना हो, वह यदि पहले सामाजिक उन्नति नहीं कर लेगा तो राजनीतिक उन्नति आकाश में महल बनाने जैसी होगी। ~ महात्मा गांधी | |||
* यदि राजसत्ता अत्याचारी हो तो किसान का सीधा उत्तर है- जा, जा, तेरे ऐसे कितने राज मैंने मिट्टी में मिलते देखे हैं। ~ सरदार पटेल | |||
* राज शक्ति का स्थान जन शक्ति से ऊंचा नहीं है। ~ जय प्रकाश नारायण | |||
===रूखे वचन को भी सज्जन रूखा नहीं समझता=== | ===रूखे वचन को भी सज्जन रूखा नहीं समझता=== | ||
* गूंगा कौन है? जो समयानुसार प्रिय वाणी बोलना नहीं जानता। ~ अमोघवर्ष | * गूंगा कौन है? जो समयानुसार प्रिय वाणी बोलना नहीं जानता। ~ अमोघवर्ष | ||
* दूसरे का अप्रिय वचन सुन कर भी उत्तम व्यक्ति सदा प्रिय वाणी ही बोलता है। ~ अज्ञात | * दूसरे का अप्रिय वचन सुन कर भी उत्तम व्यक्ति सदा प्रिय वाणी ही बोलता है। ~ अज्ञात | ||
* भली प्रकार प्रयुक्त की गई वाणी को विद्वानों ने कामनापूर्ण | * भली प्रकार प्रयुक्त की गई वाणी को विद्वानों ने कामनापूर्ण करने वाली कामधेनु कहा है। ~ दण्डी | ||
* प्रियजन द्वारा कही गई प्रिय बातें प्रियतर होती हैं। ~ भास | * प्रियजन द्वारा कही गई प्रिय बातें प्रियतर होती हैं। ~ भास | ||
* शुद्ध आशय हो तो रूखे वचन को भी सज्जन रूखा नहीं समझता है। ~ अश्वघोष | * शुद्ध आशय हो तो रूखे वचन को भी सज्जन रूखा नहीं समझता है। ~ अश्वघोष | ||
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==ल== | ==ल== | ||
===लाभ से लोभ निरंतर बढ़ता है=== | ===लाभ से लोभ निरंतर बढ़ता है=== | ||
* मधुर शब्दों में कही हुई बात अनेक प्रकार से कल्याण करती है, किंतु यही यदि कटु शब्दों में कही जाए तो | * मधुर शब्दों में कही हुई बात अनेक प्रकार से कल्याण करती है, किंतु यही यदि कटु शब्दों में कही जाए तो महान् अनर्थ का कारण बन जाती है। ~ वेदव्यास | ||
* आज का अंडा आने वाले कल की मुर्गी से अधिक अच्छा होता है। ~ तुर्की लोकोक्ति | * आज का अंडा आने वाले कल की मुर्गी से अधिक अच्छा होता है। ~ तुर्की लोकोक्ति | ||
* वर्तमान को असाधारण संकट से ग्रस्त बताना एक फैशन ही है। ~ डिजरायली | * वर्तमान को असाधारण संकट से ग्रस्त बताना एक फैशन ही है। ~ डिजरायली | ||
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* जो मारता है वह सबल है, जो भय करता है वह निर्बल है। ~ यशपाल | * जो मारता है वह सबल है, जो भय करता है वह निर्बल है। ~ यशपाल | ||
* कायरता की भांति वीरता भी संक्रामक होती है। ~ प्रेमचंद | * कायरता की भांति वीरता भी संक्रामक होती है। ~ प्रेमचंद | ||
===लक्ष्मी पूजा के अनेक रूप हैं=== | |||
* जिस तरह एक जवान स्त्री बूढ़े पुरुष का आलिंगन करना नहीं चाहती, उसी तरह लक्ष्मी भी आलसी, भाग्यवादी और साहसविहीन व्यक्ति को नहीं चाहती। ~ अज्ञात | |||
* जहां मूर्ख नहीं पूजे जाते, जहां अन्न संचित रहता है और जहां स्त्री-पुरुष में कलह नहीं होता, वहां लक्ष्मी आप ही आकर विराजमान हो जाती है। ~ अथर्व वेद | |||
* लक्ष्मी पूजा के अनेक रूप हैं। लेकिन ग़रीबों की पेट पूजा करना ही श्रेष्ठ लक्ष्मी पूजन है। इससे आत्मतोष भी होता है। ~ रामतीर्थ | |||
* धनवान लोगों के मन में हमेशा शंका रहती है, इसलिए यदि हम लक्ष्मी देवी को खुश रखना चाहते हैं तो हमें अपनी पात्रता सिद्ध करनी होगी। ~ महात्मा गांधी | |||
* न्याय और नीति सब लक्ष्मी के ही खिलौने हैं। वह जैसा चाहती है नचाती है। ~ प्रेमचंद | |||
===लोभ कभी बूढ़ा नहीं होता=== | ===लोभ कभी बूढ़ा नहीं होता=== | ||
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===लोभ पाप का मूल है=== | ===लोभ पाप का मूल है=== | ||
* | * दु:ख में एक भी क्षण व्यतीत करना संसार के सारे सुखों से बढ़कर है। ~ हाफिज | ||
* लोभ पाप का मूल है, द्वेष पाप का मूल है और मोह पाप का मूल है। ~ मज्झिम निकाय | * लोभ पाप का मूल है, द्वेष पाप का मूल है और मोह पाप का मूल है। ~ मज्झिम निकाय | ||
* हे शक्तिशाली मार्गदर्शक तेरी रक्षण शक्ति और बहु-विधि ज्ञान-शक्ति से तू हमें उत्तम शिक्षा दे। हमें अवगुण, क्षुधा और व्याधि से मुक्त कर। ~ ऋग्वेद | * हे शक्तिशाली मार्गदर्शक तेरी रक्षण शक्ति और बहु-विधि ज्ञान-शक्ति से तू हमें उत्तम शिक्षा दे। हमें अवगुण, क्षुधा और व्याधि से मुक्त कर। ~ ऋग्वेद | ||
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===लोभ ही पाप की जन्मस्थली है=== | ===लोभ ही पाप की जन्मस्थली है=== | ||
* लोभ पाप का घर है, लोभ ही पाप की जन्मस्थली है और यही दोष, क्रोध आदि को उत्पन्न | * लोभ पाप का घर है, लोभ ही पाप की जन्मस्थली है और यही दोष, क्रोध आदि को उत्पन्न करने वाली है। ~ बल्लाल कवि | ||
* जैसे नमक के बिना अन्न स्वादरहित और फीका लगता है, वैसे ही वाचाल के कथन निस्सार होते हैं और किसी को रुचिकर नहीं लगते। ~ तुकाराम | * जैसे नमक के बिना अन्न स्वादरहित और फीका लगता है, वैसे ही वाचाल के कथन निस्सार होते हैं और किसी को रुचिकर नहीं लगते। ~ तुकाराम | ||
* प्रिय होने पर भी जो हितकर न हो, उसे न कहें। हितकर कहना ही अच्छा है, चाहे वह अत्यंत अप्रिय हो। ~ विष्णुपुराण | * प्रिय होने पर भी जो हितकर न हो, उसे न कहें। हितकर कहना ही अच्छा है, चाहे वह अत्यंत अप्रिय हो। ~ विष्णुपुराण | ||
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* वास्तव में शुभ और अशुभ दोनों एक ही हैं और हमारे मन पर अवलंबित हैं। मन जब स्थिर और शांत रहता है, तब शुभाशुभ कुछ भी उसे स्पर्श नहीं कर पाता। ~ विवेकानंद | * वास्तव में शुभ और अशुभ दोनों एक ही हैं और हमारे मन पर अवलंबित हैं। मन जब स्थिर और शांत रहता है, तब शुभाशुभ कुछ भी उसे स्पर्श नहीं कर पाता। ~ विवेकानंद | ||
* जल से शरीर शुद्ध होता है, मन सत्य से शुद्ध होता है, विद्या और तप से भूतात्मा तथा ज्ञान से बुद्धि शुद्ध होती है। ~ मनुस्मृति | * जल से शरीर शुद्ध होता है, मन सत्य से शुद्ध होता है, विद्या और तप से भूतात्मा तथा ज्ञान से बुद्धि शुद्ध होती है। ~ मनुस्मृति | ||
* शील अपरिमित बल है। शील सर्वोत्तम शस्त्र है। शील श्रेष्ठ आभूषण है और रक्षा | * शील अपरिमित बल है। शील सर्वोत्तम शस्त्र है। शील श्रेष्ठ आभूषण है और रक्षा करने वाला अद्भुत कवच है। ~ थेर गाथा | ||
* लज्जा और संकोच करने पर ही शील उत्पन्न होता है और ठहरता है। ~ विसुद्ध्मिग्ग | * लज्जा और संकोच करने पर ही शील उत्पन्न होता है और ठहरता है। ~ विसुद्ध्मिग्ग | ||
==व== | ==व== | ||
===विरोध हर सरकार के लिए | ===विरोध हर सरकार के लिए ज़रूरी है=== | ||
* विरोध हर सरकार के लिए | * विरोध हर सरकार के लिए ज़रूरी है। कोई भी सरकार प्रबल विरोध के बिना अधिक दिन टिक नहीं सकती। ~ डिजरायली | ||
* जो हमसे कुश्ती लड़ता है, हमारे अंगों को | * जो हमसे कुश्ती लड़ता है, हमारे अंगों को मज़बूत करता है। वह हमारे गुणों को तेज करता है। एक तरह से हमारा विरोधी हमारी मदद ही करता है। ~ बर्क | ||
* विकास के लिए यूं तो कई | * विकास के लिए यूं तो कई चीज़ें ज़रूरी होती हैं, लेकिन कठिनाई और विरोध वह देसी मिट्टी है जिसमें पराक्रम और आत्मविश्वास का विकास होता है। ~ जॉन नेल | ||
* विरोध बहुत रचनात्मक होता है। वह उत्साहियों को सदैव उत्तेजित करता है, उन्हें बदलता नहीं। ~ शिलर | * विरोध बहुत रचनात्मक होता है। वह उत्साहियों को सदैव उत्तेजित करता है, उन्हें बदलता नहीं। ~ शिलर | ||
* विपत्ति ही ऐसी तुला है जिस पर हम मित्रों को तोल सकते हैं। सुदिन अच्छी तुला नहीं है। ~ प्लूटार्क | * विपत्ति ही ऐसी तुला है जिस पर हम मित्रों को तोल सकते हैं। सुदिन अच्छी तुला नहीं है। ~ प्लूटार्क | ||
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===विचार और व्यवहार में सामंजस्य न होना ही धूर्तता है=== | ===विचार और व्यवहार में सामंजस्य न होना ही धूर्तता है=== | ||
* श्रेष्ठ व्यक्ति का सम्मान करके उन्हें अपना बना लेना दुर्लभ पदार्थ से भी अधिक दुर्लभ है। ~ तिरुवल्लुवर | * श्रेष्ठ व्यक्ति का सम्मान करके उन्हें अपना बना लेना दुर्लभ पदार्थ से भी अधिक दुर्लभ है। ~ तिरुवल्लुवर | ||
* हर व्यक्ति को जो | * हर व्यक्ति को जो चीज़ हृदयंगम हो गई है, वह उसके लिए धर्म है। धर्म बुद्धिगम्य वस्तु नहीं, हृदयगम्य है। इसलिए धर्म मूर्ख लोगों के लिए भी है। ~ महात्मा गांधी | ||
* विचार और व्यवहार में सामंजस्य न होना ही धूर्तता है, मक्कारी है। ~ प्रेमचंद | * विचार और व्यवहार में सामंजस्य न होना ही धूर्तता है, मक्कारी है। ~ प्रेमचंद | ||
* हम संसार को | * हम संसार को ग़लत पढ़ते हैं और कहते हैं कि वह हमें धोखा दे रहा है। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर | ||
===विजय सदा ही भव्य होती है=== | ===विजय सदा ही भव्य होती है=== | ||
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* उच्च या नीच कुल में जन्म होना भाग्य के अधीन है। मेरे अधीन तो पुरुषार्थ है। ~ भट्टनारायण | * उच्च या नीच कुल में जन्म होना भाग्य के अधीन है। मेरे अधीन तो पुरुषार्थ है। ~ भट्टनारायण | ||
* वह विजय अच्छी विजय नहीं है, जिसमें फिर से पराजय हो। वही विजय अच्छी है, जिस विजय की फिर विजय न हो। ~ जातक | * वह विजय अच्छी विजय नहीं है, जिसमें फिर से पराजय हो। वही विजय अच्छी है, जिस विजय की फिर विजय न हो। ~ जातक | ||
* प्रयत्न न करने पर भी | * प्रयत्न न करने पर भी विद्वान् लोग जिसे आदर दें, वही सम्मानित है। इसलिए दूसरों से सम्मान पाकर भी अभिमान न करे। ~ वेद व्यास | ||
* मृत्यु सुनने में जितनी भयावह लगती है, पर देखने में उतनी ही निरीह और स्वाभाविक है। ~ शिवानी | * मृत्यु सुनने में जितनी भयावह लगती है, पर देखने में उतनी ही निरीह और स्वाभाविक है। ~ शिवानी | ||
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* मैंने सत्य को पा लिया, ऐसा मत कहो, बल्कि कहो, मैंने अपने मार्ग पर चलते हुए आत्मा के दर्शन किए हैं। ~ खलील जिब्रान | * मैंने सत्य को पा लिया, ऐसा मत कहो, बल्कि कहो, मैंने अपने मार्ग पर चलते हुए आत्मा के दर्शन किए हैं। ~ खलील जिब्रान | ||
* अनिष्ट से यदि इष्ट सिद्धि हो भी जाए, तो भी उसका परिणाम अच्छा नहीं होता। ~ नारायण पंडित | * अनिष्ट से यदि इष्ट सिद्धि हो भी जाए, तो भी उसका परिणाम अच्छा नहीं होता। ~ नारायण पंडित | ||
* संपन्नता | * संपन्नता महान् शिक्षक है पर विपत्ति महानतर शिक्षक है। संपत्ति मन को लाड़ से बिगाड़ देती है, किंतु अभाव उसे प्रशिक्षित कर शक्तिशाली बनाता है। ~ हैजलिट | ||
* विपत्ति में पड़े हुए मनुष्यों का प्रिय करनेवाले दुर्लभ होते हैं। ~ शूद्रक | * विपत्ति में पड़े हुए मनुष्यों का प्रिय करनेवाले दुर्लभ होते हैं। ~ शूद्रक | ||
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* वीर तो अपने अंदर ही 'मार्च' करते हैं, क्योंकि हृदयाकाश के केंद्र में खड़े होकर वे कुल संसार को हिला सकते हैं। ~ सरदार पूर्णसिंह | * वीर तो अपने अंदर ही 'मार्च' करते हैं, क्योंकि हृदयाकाश के केंद्र में खड़े होकर वे कुल संसार को हिला सकते हैं। ~ सरदार पूर्णसिंह | ||
* वरात्माएं सत्कार्य में विरोध की परवा नहीं करतीं और अंत में उस पर विजय ही पाती हैं। ~ प्रेमचंद्र | * वरात्माएं सत्कार्य में विरोध की परवा नहीं करतीं और अंत में उस पर विजय ही पाती हैं। ~ प्रेमचंद्र | ||
* जो | * जो महान् है वह महान् पर ही वीरता दिखाता है। ~ नारायण पंडित | ||
* बिना विवेक की वीरता महासमुद्र की लहर में डोंगी-सी डूब जाती है। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र | * बिना विवेक की वीरता महासमुद्र की लहर में डोंगी-सी डूब जाती है। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र | ||
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* विद्या शील के अभाव में शोचनीय और द्वेष से अपवित्र हो जाती है। ~ क्षेमेंद्र | * विद्या शील के अभाव में शोचनीय और द्वेष से अपवित्र हो जाती है। ~ क्षेमेंद्र | ||
* जो जिस विद्या से युक्त है, वही उसके लिए परम देवता है। वह पूज्य और अर्चनीय है और वही उसके लिए उपकारिका है। ~ विष्णुपुराण | * जो जिस विद्या से युक्त है, वही उसके लिए परम देवता है। वह पूज्य और अर्चनीय है और वही उसके लिए उपकारिका है। ~ विष्णुपुराण | ||
* केवल पढ़-लिख लेने से कोई | * केवल पढ़-लिख लेने से कोई विद्वान् नहीं होता। जो सत्य, तप, ज्ञान, अहिंसा, विद्वानों के प्रति श्रद्धा और सुशीलता को धारण करता है, वही सच्चा विद्वान् है। ~ अज्ञात | ||
* धर्म की रक्षक विद्या ही है क्योंकि विद्या से ही धर्म और अधर्म का बोध होता है। ~ दयानंद | * धर्म की रक्षक विद्या ही है क्योंकि विद्या से ही धर्म और अधर्म का बोध होता है। ~ दयानंद | ||
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* मोहांध और अविवेकी के समीप लक्ष्मी अधिक समय नहीं रहती। ~ सोमदेव | * मोहांध और अविवेकी के समीप लक्ष्मी अधिक समय नहीं रहती। ~ सोमदेव | ||
===वह विजय | ===विद्या, शूरवीरता, दक्षता, बल और=== | ||
* विद्या, शूरवीरता, दक्षता, बल और धैर्य, ये पांच मनुष्य के स्वाभाविक मित्र हैं। बुद्धिमान लोग हमेशा इनके साथ रहते हैं। ~ वेदव्यास | |||
* अच्छे स्वभाव वाले मित्र अपने घर के सोने चांदी अथवा उत्तम आभूषणो को अपने अच्छे मित्रो से अलग नहीं समझते। ~ वाल्मीकि | |||
* मुंह के सामने मीठी बाते करने और पीठ पीछे छुरी चलाने वाले मित्र को दुधमुंहे विष भरे घड़े की तरह छोड़ दे। ~ हितोपदेश | |||
* सबसे निकृष्ट मित्र वह है जो अच्छे दिनो मे पास आता है और मुसीबत के दिनो मे त्याग देता है। ~ अज्ञात | |||
===विद्या-वृष्टि सब पर बराबर हो=== | |||
* जैसे सूर्य सबको एक सा प्रकाश देता है, बादल जैसे सबके लिए समान बरसते हैं, इसी तरह विद्या-वृष्टि सब पर बराबर होनी चाहिए। ~ महात्मा गांधी | |||
* जैसे आग में डालने से सोना काला नहीं पड़ता, वैसे ही जिस शिक्षक के सिखाने में किसी तरह की भूल न दिखलाई पड़े उसे ही सच्ची शिक्षा कहते हैं। ~ कालिदास | |||
* जो शिक्षा हमें निर्बलों को सताने के लिए तैयार करे, जो हमें धरती और धन का ग़ुलाम बनाए, जो हमें भोग-विलास में डुबाए, जो हमें दूसरों का ख़ून पीकर मोटा होने का इच्छुक बनाए, वह शिक्षा नहीं भ्रष्टता है। ~ प्रेमचंद | |||
* हमारी शिक्षा तब तक अधूरी रहेगी जब तक उसमें धार्मिक विचारों का समावेश नहीं किया जाता। ~ अज्ञात | |||
===वह विजय महान् होती है जो बिना रक्तपात के मिलती है=== | |||
* मनुष्य में जो स्वाभाविक बल है, उसकी अभिव्यक्ति धर्म है। ~ विवेकानंद | * मनुष्य में जो स्वाभाविक बल है, उसकी अभिव्यक्ति धर्म है। ~ विवेकानंद | ||
* वह विजय | * वह विजय महान् होती है जो बिना रक्तपात के मिलती है। ~ स्पेनी लोकोक्ति | ||
* अमृत और मृत्यु- दोनों ही इस शरीर में स्थित हैं। मनुष्य मोह से मृत्यु को और सत्य से अमृत को प्राप्त होता है। ~ वेदव्यास | * अमृत और मृत्यु- दोनों ही इस शरीर में स्थित हैं। मनुष्य मोह से मृत्यु को और सत्य से अमृत को प्राप्त होता है। ~ वेदव्यास | ||
* वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो पराये को भी अपना बना ले। ~ विमल मित्र | * वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो पराये को भी अपना बना ले। ~ विमल मित्र | ||
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* मेघ वर्षा करते समय यह नहीं देखता कि भूमि उपजाऊ है या ऊसर। वह दोनों को समान रूप से सींचता है। गंगा का पवित्र जल उत्तम और अधम का विचार किए बिना सबकी प्यास बुझाता है। ~ तुकाराम | * मेघ वर्षा करते समय यह नहीं देखता कि भूमि उपजाऊ है या ऊसर। वह दोनों को समान रूप से सींचता है। गंगा का पवित्र जल उत्तम और अधम का विचार किए बिना सबकी प्यास बुझाता है। ~ तुकाराम | ||
* जो बलवान होकर निर्बल की रक्षा करता है, वही मनुष्य कहलाता है और जो स्वार्थवश परहानि करता है, वह पशुओं से भी गया-बीता है। ~ दयानंद | * जो बलवान होकर निर्बल की रक्षा करता है, वही मनुष्य कहलाता है और जो स्वार्थवश परहानि करता है, वह पशुओं से भी गया-बीता है। ~ दयानंद | ||
* बल तथा कोश से संपन्न | * बल तथा कोश से संपन्न महान् व्यक्तियों का महत्व ही क्या यदि उन्होंने दूसरों के कष्ट का उसी क्षण विनाश नहीं किया। ~ सोमदेव | ||
* उपकार करने का साहसी स्वभाव होने के कारण गुणी लोग अपनी हानि की भी चिंता नहीं करते। दीपक की लौ अपना अंग जलाकर ही प्रकाश उत्पन्न करती है। ~ अज्ञात | * उपकार करने का साहसी स्वभाव होने के कारण गुणी लोग अपनी हानि की भी चिंता नहीं करते। दीपक की लौ अपना अंग जलाकर ही प्रकाश उत्पन्न करती है। ~ अज्ञात | ||
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* संसार में ऐसा कोई भी नहीं है जो नीति का जानकार न हो, परन्तु उसके प्रयोग से लोग विहीन होते हैं। ~ कल्हण | * संसार में ऐसा कोई भी नहीं है जो नीति का जानकार न हो, परन्तु उसके प्रयोग से लोग विहीन होते हैं। ~ कल्हण | ||
* कुल के कारण कोई बड़ा नहीं होता, विद्या ही उसे पूजनीय बनाती है। ~ चाणक्य | * कुल के कारण कोई बड़ा नहीं होता, विद्या ही उसे पूजनीय बनाती है। ~ चाणक्य | ||
===वही मनुष्य शांति पाता है जो=== | |||
* जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं का त्याग कर निस्पृह हो जाता है और ममता तथा अहंकार को छोड़ देता है, वही शांति पाता है। ~ अज्ञात | |||
* जैसे चक्की छत में जल भरता है वैसे ही अज्ञानी के मन में कामनाएं जमा होती हैं। ~ बुद्ध | |||
* जो खोटे लोग होते हैं वे उन महात्माओं के काम को बुरा बताते ही हैं जिनहें पहचानने की उनमें योग्यता नहीं होती। ~ कालिदास | |||
* ख्याति-प्रेम वह प्यास है जो कभी नहीं बुझती। वह अगस्त ऋषि की भांति सागर को पीकर भी शांत नहीं होती। ~ प्रेमचंद | |||
* सज्जन लोग चाहे दूर भी रहें पर उनके गुण उनकी ख्याति के लिए स्वयं दूत का कार्य करते हैं। केवड़ा पुष्प की गंध सूंघकर भ्रमर स्वयं उसके पास चले आते हैं। ~ पंचतंत्र | |||
===वही मंगल है जिससे मन प्रसन्न हो=== | ===वही मंगल है जिससे मन प्रसन्न हो=== | ||
* वही मंगल है जिससे मन प्रसन्न हो। वही जीवन है जो परसेवा में बीते। वही अर्जित है जिसका भोग स्वजन करें। ~ गरुड़पुराण | * वही मंगल है जिससे मन प्रसन्न हो। वही जीवन है जो परसेवा में बीते। वही अर्जित है जिसका भोग स्वजन करें। ~ गरुड़पुराण | ||
* | * ग़लती से जिनको तुम 'पतित' कहते हो, वे वे हैं जो 'अभी उठे नहीं' हैं। ~ रामतीर्थ | ||
* जंग लग कर नष्ट होने की अपेक्षा जीर्ण होकर नष्ट होना अधिक अच्छा है। ~ रिचर्ड कंबरलैंड | * जंग लग कर नष्ट होने की अपेक्षा जीर्ण होकर नष्ट होना अधिक अच्छा है। ~ रिचर्ड कंबरलैंड | ||
* परिश्रमी धीर व्यक्ति को इस | * परिश्रमी धीर व्यक्ति को इस जगत् में कोई वस्तु अप्राप्य नहीं है। ~ सोमदेव | ||
* निरंतर और अथक परिश्रम करनेवाले भाग्य को भी परास्त कर देंगे। ~ तिरुवल्लुवर | * निरंतर और अथक परिश्रम करनेवाले भाग्य को भी परास्त कर देंगे। ~ तिरुवल्लुवर | ||
पंक्ति 544: | पंक्ति 599: | ||
* गूंगा कौन है? जो समयानुकूल प्रिय वाणी बोलना नहीं जानता है। ~ अमोघवर्ष | * गूंगा कौन है? जो समयानुकूल प्रिय वाणी बोलना नहीं जानता है। ~ अमोघवर्ष | ||
* जो बल से विजय प्राप्त करता है, वह शत्रु पर आधी विजय ही प्राप्त करता है। ~ मिल्टन | * जो बल से विजय प्राप्त करता है, वह शत्रु पर आधी विजय ही प्राप्त करता है। ~ मिल्टन | ||
* असंयमी | * असंयमी विद्वान् अंधा मशालदार है। ~ शेख सादी | ||
* कटा हुआ वृक्ष भी बढ़ता है। क्षीण हुआ चंद्रमा भी पुन: बढ़कर पूरा हो जाता है। इस बात को समझकर संत पुरुष अपनी विपत्ति में नहीं घबराते हैं। ~ भर्तृहरि | * कटा हुआ वृक्ष भी बढ़ता है। क्षीण हुआ चंद्रमा भी पुन: बढ़कर पूरा हो जाता है। इस बात को समझकर संत पुरुष अपनी विपत्ति में नहीं घबराते हैं। ~ भर्तृहरि | ||
पंक्ति 550: | पंक्ति 605: | ||
* आपत्तिकाल में प्रकृति बदल देना अच्छा, परंतु अपने आश्रय के प्रतिकूल चेष्टा अच्छी नहीं। ~ अभिनंद | * आपत्तिकाल में प्रकृति बदल देना अच्छा, परंतु अपने आश्रय के प्रतिकूल चेष्टा अच्छी नहीं। ~ अभिनंद | ||
* विनयी जनों को क्रोध कहां? और निर्मल अंत:करण में लज्जा का प्रवेश कहां? ~ भास | * विनयी जनों को क्रोध कहां? और निर्मल अंत:करण में लज्जा का प्रवेश कहां? ~ भास | ||
* जो | * जो ज़मीन पर बैठता है, उसे कौन नीचे बिठा सकता है, जो सबका दास है, उसे कौन दास बना सकता है? ~ महात्मा गांधी | ||
* | * विद्वान् तो बहुत होते हैं, लेकिन विद्या के साथ जीवन का आचरण करने वाले कम होते हैं। ~ सरदार पटेल | ||
* मनुष्य की जिह्वा छोटी होती है, परंतु वह बड़े-बड़े दोष कर बैठती है। ~ इस्माइल इब्न अबीबकर | * मनुष्य की जिह्वा छोटी होती है, परंतु वह बड़े-बड़े दोष कर बैठती है। ~ इस्माइल इब्न अबीबकर | ||
===विनोद बहुत गंभीर होता है=== | |||
* किसी जगह पर विनोदी इंसान के आने से ऐसा लगता है जैसे दूसरा दीपक जला दिया गया हो। ~ अज्ञात | |||
* विनोद को लोग फ़ालतू चीज़ समझ लेते हैं, वह बहुत गंभीर होता है। ~ चर्चिल | |||
* विनोद का उपयोग रक्षा के लिए होना चाहिए, उसे दूसरों को घायल करने के लिए तलवार कभी नहीं बनना चाहिए। ~ फुलर | |||
* विनोद उचित मात्रा में ही ठीक रहता है। वह बातचीत का नमक है, भोजन नहीं। ~ हैजलिट | |||
* विनोद निर्धन के बस की बात नहीं, वह धनियों का ही सफल होता है। ~ गोल्डस्मिथ | |||
* विनोद किसी समय ही अच्छा लग सकता है, हर समय नहीं। ~ फ्रैंकलिन | |||
===विद्वानों की संगति से ज्ञान मिलता है=== | ===विद्वानों की संगति से ज्ञान मिलता है=== | ||
* प्रेम से शोक उत्पन्न होता है, प्रेम से भय | * प्रेम से शोक उत्पन्न होता है, प्रेम से भय उत्पन्नहोता है, प्रेम से मुक्त को शोक नहीं, फिर भय कहां से? ~ धम्मपद | ||
* विद्वानों की संगति से ज्ञान मिलता है, ज्ञान से विनय, विनय से लोगों का प्रेम और लोगों के प्रेम से क्या नहीं प्राप्त होता? ~ अज्ञात | * विद्वानों की संगति से ज्ञान मिलता है, ज्ञान से विनय, विनय से लोगों का प्रेम और लोगों के प्रेम से क्या नहीं प्राप्त होता? ~ अज्ञात | ||
* पदार्थों का कोई आंतरिक हेतु ही मिलाता है। प्रेम बाहरी उपाधियों पर आश्रित नहीं होता। ~ भवभूति | * पदार्थों का कोई आंतरिक हेतु ही मिलाता है। प्रेम बाहरी उपाधियों पर आश्रित नहीं होता। ~ भवभूति | ||
* जिसका घर है, उसके लिए वह मथुरापुरी जैसा है। जिसका वर है, उसके लिए तो वह श्रीकृष्ण जैसा है। ~ उडि़या लोकोक्ति | * जिसका घर है, उसके लिए वह मथुरापुरी जैसा है। जिसका वर है, उसके लिए तो वह श्रीकृष्ण जैसा है। ~ उडि़या लोकोक्ति | ||
===विद्वानों की संगति से मूर्ख भी | ===विद्वानों की संगति से मूर्ख भी विद्वान् बन जाता है=== | ||
* उदात्त चित्त वाले लोगों में दूसरों के प्रकट हुए दोषों को भी चिरकाल तक छिपाने की निपुणता होती है और अपने गुण को प्रकट करने में उन्हें अतिशय अकौशल होता है। ~ माघ | * उदात्त चित्त वाले लोगों में दूसरों के प्रकट हुए दोषों को भी चिरकाल तक छिपाने की निपुणता होती है और अपने गुण को प्रकट करने में उन्हें अतिशय अकौशल होता है। ~ माघ | ||
* जिस प्रकार बादल एकत्र होकर फिर अलग हो जाते हैं , उसी प्रकार प्राणियों का संयोग और वियोग है। ~ अश्वघोष | * जिस प्रकार बादल एकत्र होकर फिर अलग हो जाते हैं , उसी प्रकार प्राणियों का संयोग और वियोग है। ~ अश्वघोष | ||
* जिसके मन में राग-द्वेष नहीं है और जो तृष्णा को त्याग कर शील तथा संतोष को ग्रहण किए हुए है, वह संत पुरुष | * जिसके मन में राग-द्वेष नहीं है और जो तृष्णा को त्याग कर शील तथा संतोष को ग्रहण किए हुए है, वह संत पुरुष जगत् के लिए जहाज़ है। ~ तुलसीदास | ||
* विद्वानों की संगति से मूर्ख भी | * विद्वानों की संगति से मूर्ख भी विद्वान् बन जाता है जैसे निर्मली के बीज से मटमैला पानी स्वच्छ हो जाता है। ~ कालिदास | ||
===विकास कृत्रिम निर्धनता है=== | ===विकास कृत्रिम निर्धनता है=== | ||
* मन में संतोष होना स्वर्ग की प्राप्ति से भी बढ़कर है, संतोष ही सबसे बड़ा सुख है। संतोष यदि मन में भली-भांति प्रतिष्ठित हो जाए तो उससे बड़कर संसार में कुछ भी नहीं है। ~ वेदव्यास | * मन में संतोष होना स्वर्ग की प्राप्ति से भी बढ़कर है, संतोष ही सबसे बड़ा सुख है। संतोष यदि मन में भली-भांति प्रतिष्ठित हो जाए तो उससे बड़कर संसार में कुछ भी नहीं है। ~ वेदव्यास | ||
* जो अप्राप्त वस्तु के लिए चिंता नहीं करता और प्राप्त वस्तु के लिए सम रहता है, जिसने न | * जो अप्राप्त वस्तु के लिए चिंता नहीं करता और प्राप्त वस्तु के लिए सम रहता है, जिसने न दु:ख देखा है, न सुख- वह संतुष्ट कहा जाता है। ~ महोपनिषद | ||
* जिसका मन संतुष्ट है, सभी संपत्तियां उसकी हैं। ~ अज्ञात | * जिसका मन संतुष्ट है, सभी संपत्तियां उसकी हैं। ~ अज्ञात | ||
* संतोष स्वाभाविक संपत्ति है, विकास कृत्रिम निर्धनता। ~ सुकरात | * संतोष स्वाभाविक संपत्ति है, विकास कृत्रिम निर्धनता। ~ सुकरात | ||
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===वर्तमान तो कर्म चाहता है, स्वप्न नहीं=== | ===वर्तमान तो कर्म चाहता है, स्वप्न नहीं=== | ||
* वर्तमान तो कर्म चाहता है, स्वप्न नहीं। वह यथार्थ के दर्शन चाहता है। ~ हरिकृष्ण प्रेमी | * वर्तमान तो कर्म चाहता है, स्वप्न नहीं। वह यथार्थ के दर्शन चाहता है। ~ हरिकृष्ण प्रेमी | ||
* राजा अपने राज्य का प्रथम सेवक होता है। ~ फ्रेडरिक | * राजा अपने राज्य का प्रथम सेवक होता है। ~ फ्रेडरिक महान् | ||
* व्यक्ति के अंतर्मन को परखना चाहिए। ~ दशवैकालिक | * व्यक्ति के अंतर्मन को परखना चाहिए। ~ दशवैकालिक | ||
* शरीर और मन साथ ही साथ उन्नत होने चाहिए। ~ विवेकानंद | * शरीर और मन साथ ही साथ उन्नत होने चाहिए। ~ विवेकानंद | ||
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* शेष ऋण, शेष अग्नि तथा शेष रोग पुन: बढ़ते हैं, अत: इन्हें शेष नहीं छोड़ना चाहिए। ~ शौनकीयनीतिसार | * शेष ऋण, शेष अग्नि तथा शेष रोग पुन: बढ़ते हैं, अत: इन्हें शेष नहीं छोड़ना चाहिए। ~ शौनकीयनीतिसार | ||
* धीरज होने से दरिद्रता भी शोभा देती है। धुले हुए होने से जीर्ण वस्त्र भी अच्छे लगते हैं। घटिया भोजन भी गर्म होने से सुस्वादु लगता है और सुंदर स्वभाव के कारण कुरूपता भी शोभा देती है। ~ चाणक्य नीति | * धीरज होने से दरिद्रता भी शोभा देती है। धुले हुए होने से जीर्ण वस्त्र भी अच्छे लगते हैं। घटिया भोजन भी गर्म होने से सुस्वादु लगता है और सुंदर स्वभाव के कारण कुरूपता भी शोभा देती है। ~ चाणक्य नीति | ||
* जो व्यक्ति मूर्ख के सामने | * जो व्यक्ति मूर्ख के सामने विद्वान् दिखने की कामना करते हैं, वे विद्वानों के सामने मूर्ख लगते हैं। ~ क्विन्टिलियन | ||
===विनम्रता शरीर की अंतरात्मा है=== | ===विनम्रता शरीर की अंतरात्मा है=== | ||
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* वीरता कभी-कभी हृदय की कोमलता का भी दर्शन कराती है। ऐसी कोमलता देखकर सारी प्रकृति कोमल हो जाती है, ऐसी सुंदरता देख लोग माहित हो जाते हैं। ~ सरदार पूर्णसिंह | * वीरता कभी-कभी हृदय की कोमलता का भी दर्शन कराती है। ऐसी कोमलता देखकर सारी प्रकृति कोमल हो जाती है, ऐसी सुंदरता देख लोग माहित हो जाते हैं। ~ सरदार पूर्णसिंह | ||
* विलास सच्चे सुख की छाया मात्र है। ~ प्रेमचंद | * विलास सच्चे सुख की छाया मात्र है। ~ प्रेमचंद | ||
===विश्वास उन शक्तियो मे से एक है जो=== | |||
* विश्वास उन शक्तियो मे से एक है जो मनुष्य को जीवित रखती है, विश्वास का पूर्ण अभाव ही जीवन का अवसान है। ~ विलियम जेम्स | |||
* जैसे फल के पहले फूल होता है, वैसे ही सत्कार्य के पहले ज़रूरी होता है विश्वास। ~ ह्वैटली | |||
* मनुष्य उसी काम को ठीक तरह से कर सकता है, उसी मे सफलता प्राप्त कर सकता है जिसकी सिद्धि मे उसका सच्चा विश्वास है। ~ स्वेट मार्डेन | |||
* अविश्वासी के उत्तम विचार से विश्वासी की भूल कहीं अधिक अच्छी है। ~ टामस रसल | |||
* सदाचार के आचरण के अतिरिक्त विश्वास को दृढ़ बनाने वाली दूसरी वस्तु नहीं है। ~ एडीसन | |||
* विश्वास हृदय की वह पेसिल है जो स्वर्गीय वस्तुओ को चित्रित करती है। ~ टी बरब्रिज | |||
* अविश्वासी होने से बड़ा दुर्गुण और कोई नहीं हो सकता। ऐसा मनुष्य किसी को अपना नहीं बना सकता। ~ सुदर्शन | |||
===विश्वास लाख हथौड़ी की चोट से भी नहीं=== | |||
* विश्वास लाख हथौड़ी की चोट से भी नहीं टूटता। नीलकंठ के समान विष पान करके भी विश्वास सदा अजर अमर है। ~ अमृतलाल नागर | |||
* महापुरुषों का विश्वास इतना प्रबल और अनन्य होता है कि वे कुछ से कुछ भी बना सकते हैं। ~ स्वामी शिवानंद | |||
* विश्वास वह पक्षी है जो प्रभात के पूर्व अंधकार में ही प्रकाश का अनुभव करता है और गाने लगता है। ~ रवींद्रनाथ | |||
* विश्वास के बिना काम करना सतहविहीन गड्ढे में पहुंचने के प्रयत्नों के समान है। ~ महात्मा गांधी | |||
===वृद्ध मनुष्य अपवादों को जानता है=== | ===वृद्ध मनुष्य अपवादों को जानता है=== | ||
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* श्रद्धा में निराशा का कोई स्थान नहीं है। ~ गांधी | * श्रद्धा में निराशा का कोई स्थान नहीं है। ~ गांधी | ||
* आत्मवान संयमी पुरुषों को न तो विषयों में आसक्ति होती है और न वे विषयों के लिए युक्ति ही करते हैं। ~ अश्वघोष | * आत्मवान संयमी पुरुषों को न तो विषयों में आसक्ति होती है और न वे विषयों के लिए युक्ति ही करते हैं। ~ अश्वघोष | ||
===व्याकुल होते हैं अज्ञानी मनुष्य=== | |||
* अज्ञानी मनुष्य थोड़ा ही आरंभ करते हैं और बहुत व्याकुल होते हैं, पर ज्ञानी बड़ा कार्य आरंभ करने पर भी नहीं घबराते। ~ हितोपदेश | |||
* जीवन की गहराई की अनुभूति के कुछ क्षण ही होते हैं, वर्ष नहीं। ~ महादेवी वर्मा | |||
* अविश्वास से अर्थ की प्राप्ति नहीं हो सकती और हो भी जाए, तो जो विश्वासपात्र नहीं है उससे कुछ लेने को जी ही नहीं चाहता। अविश्वास के कारण सदा भय लगा रहता है और भय से जीवित मनुष्य मृतक के समान हो जाता है। ~ वेदव्यास | |||
* अशांति के बिना शांति नहीं मिलती। लेकिन अशांति हमारी अपनी हो। हमारे मन का जब खूब मंथन हो जाएगा, जब हम दु:ख की अग्नि में खूब तप जाएंगे, तभी हम सच्ची शांति पा सकेंगे। ~ महात्मा गांधी | |||
* आत्मविश्वास सरीखा दूसरा मित्र नहीं। आत्मविश्वास ही भावी उन्नति की प्रथम सीढ़ी है। ~ विवेकानंद | |||
* जब मनुष्य स्वयं आत्मविश्वास खो बैठता है तो उसके पतन का सिरा खोजने से भी नहीं मिलता। ~ अज्ञात | |||
==श== | ==श== | ||
===शास्त्र पढ़कर भी लोग मूर्ख होते हैं=== | ===शास्त्र पढ़कर भी लोग मूर्ख होते हैं=== | ||
* शास्त्र पढ़कर भी लोग मूर्ख होते हैं, किंतु जो उसके अनुसार आचरण करता है, वस्तुत: वही | * शास्त्र पढ़कर भी लोग मूर्ख होते हैं, किंतु जो उसके अनुसार आचरण करता है, वस्तुत: वही विद्वान् है। ~ हितोपदेश | ||
* निर्मल अंत:करण को जिस समय जो प्रतीत हो वही सत्य है। उस पर दृढ़ रहने से शुद्ध सत्य की प्राप्ति हो जाती है। ~ महात्मा गांधी | * निर्मल अंत:करण को जिस समय जो प्रतीत हो वही सत्य है। उस पर दृढ़ रहने से शुद्ध सत्य की प्राप्ति हो जाती है। ~ महात्मा गांधी | ||
* अविश्वास से अर्थ की प्राप्ति नहीं हो सकती। और जो विश्वासपात्र नहीं है, उससे कुछ लेने को जी भी नहीं चाहता। अविश्वास के कारण सदा भय लगा रहता है और भय से जीवित मनुष्य मृतक के समान हो जाता है। ~ वेद व्यास | * अविश्वास से अर्थ की प्राप्ति नहीं हो सकती। और जो विश्वासपात्र नहीं है, उससे कुछ लेने को जी भी नहीं चाहता। अविश्वास के कारण सदा भय लगा रहता है और भय से जीवित मनुष्य मृतक के समान हो जाता है। ~ वेद व्यास | ||
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* शांति और सुख बाह्य वस्तुएं नहीं हैं, वह तुम्हारे अंदर ही निवास करती हैं। ~ सत्य साईं बाबा | * शांति और सुख बाह्य वस्तुएं नहीं हैं, वह तुम्हारे अंदर ही निवास करती हैं। ~ सत्य साईं बाबा | ||
* अपने भीतर ही यदि शांति मिल गई तो सारा संसार शांतिमय प्रतीत होता है। ~ योगवाशिष्ठ | * अपने भीतर ही यदि शांति मिल गई तो सारा संसार शांतिमय प्रतीत होता है। ~ योगवाशिष्ठ | ||
===शांति जैसा तप नहीं=== | |||
* शांति के समान दूसरा तप नहीं है, न संतोष से परे सुख है, तृष्णा से बढ़कर दूसरी व्याधि नहीं है, न दया से अधिक धर्म है। ~ चाणक्य | |||
* संतोष से बढ़कर अन्य कोई लाभ नहीं। जो मनुष्य इस विशेष सद्गुण से संपन्न है वह त्रिलोक में सबसे धनी व्यक्ति है। ~ स्वामी शिवानन्द | |||
* संतोष यद्यपि कड़वा वृक्ष है तथापि इसका फल बड़ा ही मीठा और लाभदायक है। ~ मौलाना रूमी | |||
* संतान वह सबसे कठिन परीक्षा है जो ईश्वर ने मनुष्य को परखने के लिए गढ़ी है। ~ प्रेमचन्द | |||
* पवित्रता वह संपत्ति है जो प्रेम के बाहुल्य से पैदा होती है। ~ रवीन्द्र | |||
* सच्चे संस्कृति सुधार और सभ्यता का लक्षण परिग्रह की वृद्धि नहीं, बल्कि विचार और इच्छापूर्वक उसकी कमी है। जैसे-जैसे परिग्रह कम करते हैं वैसे-वसे सच्चा सुख और संतोष बढ़ता है। ~ महात्मा गांधी | |||
===शांति की अपनी विजयें होती हैं=== | ===शांति की अपनी विजयें होती हैं=== | ||
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* लोगों को यह याद रखना चाहिए कि शांति ईश्वर प्रदत्त नहीं होती। यह वह भेंट है, जिसे मनुष्य एक-दूसरे को देते हैं। ~ एली वाइजेला | * लोगों को यह याद रखना चाहिए कि शांति ईश्वर प्रदत्त नहीं होती। यह वह भेंट है, जिसे मनुष्य एक-दूसरे को देते हैं। ~ एली वाइजेला | ||
* अपने कल्याण के इच्छुक व्यक्ति को स्वेच्छाचारी नहीं होना चाहिए। ~ सोमदेव | * अपने कल्याण के इच्छुक व्यक्ति को स्वेच्छाचारी नहीं होना चाहिए। ~ सोमदेव | ||
* सच्चे संन्यासी तो अपनी मुक्ति की भी उपेक्षा करते हैं- | * सच्चे संन्यासी तो अपनी मुक्ति की भी उपेक्षा करते हैं- जगत् के मंगल के लिए ही उनका जन्म होता है। ~ विवेकानंद | ||
* हे राजन, क्षण भर का समय है ही क्या, यह समझने वाला मनुष्य मूर्ख होता है। और एक कौड़ी है ही क्या, यह सोचने वाला दरिद्र हो जाता है। ~ नारायण पंडित | * हे राजन, क्षण भर का समय है ही क्या, यह समझने वाला मनुष्य मूर्ख होता है। और एक कौड़ी है ही क्या, यह सोचने वाला दरिद्र हो जाता है। ~ नारायण पंडित | ||
* कामना सरलता से लोभ बन जाती है और लोभ वासना बन जाता है। ~ सत्य साईंबाबा | * कामना सरलता से लोभ बन जाती है और लोभ वासना बन जाता है। ~ सत्य साईंबाबा | ||
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===शोक का भागी होता है=== | ===शोक का भागी होता है=== | ||
* जो फल को जाने बिना ही कर्म की ओर दौड़ता है, वह फल-प्राप्ति के अवसर पर केवल शोक का भागी होता है- जैसे कि पलाश को सींचनेवाला पुरुष उसका फल न खाने पर खिन्न होता है। ~ वाल्मीकि | * जो फल को जाने बिना ही कर्म की ओर दौड़ता है, वह फल-प्राप्ति के अवसर पर केवल शोक का भागी होता है- जैसे कि पलाश को सींचनेवाला पुरुष उसका फल न खाने पर खिन्न होता है। ~ वाल्मीकि | ||
* जब तक तकलीफ सहने की तैयारी नहीं होती तब तक | * जब तक तकलीफ सहने की तैयारी नहीं होती तब तक फ़ायदा दिखाई दे ही नहीं सकता। फायदे की इमारत नुकसान की धूप में बनी है। ~ विनोबा | ||
* समय गंवाना सभी खर्चों से कीमती और व्यर्थ होता है। ~ अज्ञात | * समय गंवाना सभी खर्चों से कीमती और व्यर्थ होता है। ~ अज्ञात | ||
* प्रेम द्वेष को परास्त करता है। ~ गांधी | * प्रेम द्वेष को परास्त करता है। ~ गांधी | ||
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===शक्ति भय के अभाव में रहती है=== | ===शक्ति भय के अभाव में रहती है=== | ||
* अपने | * अपने ख़ज़ाने में वृद्धि करने के लिए दूसरे के हिस्से को हड़प लेने वाला व्यक्ति निकृष्ट है। ~ तिरुवल्लुवर | ||
* धन्य वह है जो किसी बात की आशा नहीं करता, क्योंकि उसे कभी निराश नहीं होना है। ~ अलेक्जेंडर पोप | * धन्य वह है जो किसी बात की आशा नहीं करता, क्योंकि उसे कभी निराश नहीं होना है। ~ अलेक्जेंडर पोप | ||
* शक्ति भय के अभाव में रहती है, न कि मांस या पुट्ठों के गुणों में, जो कि हमारे शरीर में होते हैं। ~ महात्मा गांधी | * शक्ति भय के अभाव में रहती है, न कि मांस या पुट्ठों के गुणों में, जो कि हमारे शरीर में होते हैं। ~ महात्मा गांधी | ||
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* दूसरे के उपकार का विस्मरण उचित नहीं होता, पर दूसरे पर उपकार को उसी दम भूल जाना ही उचित है। ~ तिरुवल्लुवर | * दूसरे के उपकार का विस्मरण उचित नहीं होता, पर दूसरे पर उपकार को उसी दम भूल जाना ही उचित है। ~ तिरुवल्लुवर | ||
* जब तक तुम स्वयं में विश्वास नहीं करते, परमात्मा में तुम विश्वास नहीं कर सकते। ~ विवेकानंद | * जब तक तुम स्वयं में विश्वास नहीं करते, परमात्मा में तुम विश्वास नहीं कर सकते। ~ विवेकानंद | ||
* विषयों की खोज में | * विषयों की खोज में दु:ख है। उनकी प्राप्ति होने पर तृप्ति नहीं होती। उनका वियोग होने पर शोक होना निश्चित है। ~ अश्वघोष | ||
* शूरवीर व्यक्ति जलहीन बादल के समान व्यर्थ गर्जना नहीं करते। ~ वाल्मीकि | * शूरवीर व्यक्ति जलहीन बादल के समान व्यर्थ गर्जना नहीं करते। ~ वाल्मीकि | ||
* मेरा लक्ष्य संसार से मैत्री है और मैं अन्याय का प्रबलतम विरोध करते हुए भी दुनिया को अधिक से अधिक स्नेह दे सकता हूं। ~ महात्मा गांधी | * मेरा लक्ष्य संसार से मैत्री है और मैं अन्याय का प्रबलतम विरोध करते हुए भी दुनिया को अधिक से अधिक स्नेह दे सकता हूं। ~ महात्मा गांधी | ||
पंक्ति 692: | पंक्ति 786: | ||
===शाश्वत तो हमारे हित हैं=== | ===शाश्वत तो हमारे हित हैं=== | ||
* बोल वह है जो कि सुनने वाले को वाशीभूत कर ले, और न सुनने वालों में भी सुनने की इच्छा उत्पन्न कर दे। ~ तिरुवल्लुवर | * बोल वह है जो कि सुनने वाले को वाशीभूत कर ले, और न सुनने वालों में भी सुनने की इच्छा उत्पन्न कर दे। ~ तिरुवल्लुवर | ||
* व्यक्ति की पूजा की बजाए गुण-पूजा करनी चाहिए। व्यक्ति तो | * व्यक्ति की पूजा की बजाए गुण-पूजा करनी चाहिए। व्यक्ति तो ग़लत साबित हो सकता है और उसका नाश तो होगा ही, गुणों का नाश नहीं होता। ~ महात्मा गांधी | ||
* हमारे न तो कोई शाश्वत मित्र है और न कोई स्थायी शत्रु। शाश्वत तो हमारे हित हैं और उन हितों का अनुसरण करना हमारा कर्त्तव्य है। ~ पार्मस्टन | * हमारे न तो कोई शाश्वत मित्र है और न कोई स्थायी शत्रु। शाश्वत तो हमारे हित हैं और उन हितों का अनुसरण करना हमारा कर्त्तव्य है। ~ पार्मस्टन | ||
* हर स्थिति नहीं, हर क्षण अमूल्य है, क्योंकि यह संपूर्ण अनंतता का प्रतीक है। ~ गेटे | * हर स्थिति नहीं, हर क्षण अमूल्य है, क्योंकि यह संपूर्ण अनंतता का प्रतीक है। ~ गेटे | ||
===शिक्षा का उद्देश्य=== | |||
* जब तक तुम्हारे पास कहने के लिए कुछ ख़ास न हो, तब तक किसी से भी कुछ न कहो। ~ कार्लाइल | |||
* प्रवीणता और आत्मविश्वास - जीवन संग्राम में यही दोनों अविजित सेनाएं हैं। ~ जॉर्ज हरबर्ट | |||
* शिक्षा का सबसे बड़ा उद्देश्य किसी व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाना है। ~ सैमुअल स्माइल्स | |||
* किसी कार्य के लिए कला और विज्ञान ही पर्याप्त नहीं होते, उसके लिए धैर्य की आवश्यकता भी पड़ती है। ~ गेटे | |||
* युवक नियमों को जानता है, परंतु वृद्ध मनुष्य अपवादों को जानता है। ~ ओलिवर वेंडल होमेस | |||
===शिक्षा का लक्ष्य चरित्र है=== | ===शिक्षा का लक्ष्य चरित्र है=== | ||
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
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==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
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10:02, 9 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
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इन्हें भी देखें: अनमोल वचन 1, अनमोल वचन 2, अनमोल वचन 3, अनमोल वचन 4, अनमोल वचन 5, अनमोल वचन 6, अनमोल वचन 7, अनमोल वचन 8, अनमोल वचन 9, कहावत लोकोक्ति मुहावरे एवं सूक्ति और कहावत
अनमोल वचन |
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