"अनमोल वचन 13": अवतरणों में अंतर
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===मनुष्य परमात्मा का सर्वोच्च साक्षात मंदिर=== | ===मनुष्य परमात्मा का सर्वोच्च साक्षात मंदिर=== | ||
* ऐश्वर्य का भूषण, सज्जनता-शूरता का मित-भाषण, ज्ञान का शांति, कुल का भूषण विनय, धन का उचित व्यय, तप का अक्रोध, समर्थ का क्षमा और धर्म का भूषण निश्छलता है। यह तो सबका पृथक- | * ऐश्वर्य का भूषण, सज्जनता-शूरता का मित-भाषण, ज्ञान का शांति, कुल का भूषण विनय, धन का उचित व्यय, तप का अक्रोध, समर्थ का क्षमा और धर्म का भूषण निश्छलता है। यह तो सबका पृथक-पृथक् हुआ, परंतु सबसे बढ़कर सबका भूषण शील है। ~ भर्तृहरि | ||
* प्रेम की रोटियों में अमृत रहता है, चाहे वह गेहूं की हों या बाजरे की। ~ प्रेमचंद | * प्रेम की रोटियों में अमृत रहता है, चाहे वह गेहूं की हों या बाजरे की। ~ प्रेमचंद | ||
* मनुष्य ही परमात्मा का सर्वोच्च साक्षात मंदिर है। ~ विवेकानंद | * मनुष्य ही परमात्मा का सर्वोच्च साक्षात मंदिर है। ~ विवेकानंद | ||
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* उपदेश की अपेक्षा कहीं अधिक हम अनुकरण से सीखते हैं। ~ बर्क | * उपदेश की अपेक्षा कहीं अधिक हम अनुकरण से सीखते हैं। ~ बर्क | ||
* यदि तुम भलाई का अनुकरण परिश्रम के साथ करो तो परिश्रम समाप्त हो जाता है और भलाई बनी रहती है, यदि तुम बुराई का अनुकरण सुख के साथ करो तो सुख चला जाता है और बुराई बनी रहती है। ~ सिसरो | * यदि तुम भलाई का अनुकरण परिश्रम के साथ करो तो परिश्रम समाप्त हो जाता है और भलाई बनी रहती है, यदि तुम बुराई का अनुकरण सुख के साथ करो तो सुख चला जाता है और बुराई बनी रहती है। ~ सिसरो | ||
* कोई व्यक्ति नकल से अभी तक | * कोई व्यक्ति नकल से अभी तक महान् नहीं हुआ है। ~ जॉनसन | ||
* अनुभव प्राप्ति के लिए अत्यंत अधिक मूल्य चुकाना पड़ता है परंतु इससे जो शिक्षा मिलती हैै वह अन्य किसी साधन द्वारा नहीं मिल सकती। ~ कार्लाइल | * अनुभव प्राप्ति के लिए अत्यंत अधिक मूल्य चुकाना पड़ता है परंतु इससे जो शिक्षा मिलती हैै वह अन्य किसी साधन द्वारा नहीं मिल सकती। ~ कार्लाइल | ||
* अनुभव एक रत्न है और इसे ऐसा होना भी चाहिए क्योंकि यह प्राय: अत्यधिक मूल्य में ख़रीदा जाता है। ~ शेक्सपि यर | * अनुभव एक रत्न है और इसे ऐसा होना भी चाहिए क्योंकि यह प्राय: अत्यधिक मूल्य में ख़रीदा जाता है। ~ शेक्सपि यर | ||
पंक्ति 91: | पंक्ति 91: | ||
* मनुष्य जिस समय पशु के समान आचरण करता है, उस समय वह पशुओ से भी नीचे गिर जाता है। ~ रवींद्र नाथ | * मनुष्य जिस समय पशु के समान आचरण करता है, उस समय वह पशुओ से भी नीचे गिर जाता है। ~ रवींद्र नाथ | ||
* जिसने ज्ञान को आचरण मे उतार लिया, उसने ईश्वर को ही मूर्तिमान कर लिया। ~ विनोबा भावे | * जिसने ज्ञान को आचरण मे उतार लिया, उसने ईश्वर को ही मूर्तिमान कर लिया। ~ विनोबा भावे | ||
* शास्त्र पढ़ कर भी लोग मूर्ख होते हैं, किंतु जो उसके अनुसार आचरण करता है वह | * शास्त्र पढ़ कर भी लोग मूर्ख होते हैं, किंतु जो उसके अनुसार आचरण करता है वह विद्वान् होता है। रोगियो के लिए भली भांति सोचकर तय की गई दवा का नाम लेने भर से किसी को रोग से छुटकारा नहीं मिल सकता। ~ हितोपदेश | ||
* मनुष्य का आचरण ही बताता है कि दरअसल वह कैसा है। ~ काका कालेलकर | * मनुष्य का आचरण ही बताता है कि दरअसल वह कैसा है। ~ काका कालेलकर | ||
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* विद्या के लिए मोमबत्ती की तरह पिघलना चाहिए। ~ अज्ञात | * विद्या के लिए मोमबत्ती की तरह पिघलना चाहिए। ~ अज्ञात | ||
* सज्जन अपना नाम नहीं लेते, श्रेष्ठ लोगों की यही आचार परंपरा है। ~ श्रीहर्ष | * सज्जन अपना नाम नहीं लेते, श्रेष्ठ लोगों की यही आचार परंपरा है। ~ श्रीहर्ष | ||
* वही मनुष्य | * वही मनुष्य महान् है जो भीड़ की प्रशंसा की उपेक्षा कर सकता है और उसकी कृपा से स्वतंत्र रहकर प्रसन्न रहता है। ~ एडीसन | ||
* हिम्मत से रहित व्यक्ति का रद्दी के काग़ज़ की तरह कोई आदर नहीं करता। ~ कृपाराम | * हिम्मत से रहित व्यक्ति का रद्दी के काग़ज़ की तरह कोई आदर नहीं करता। ~ कृपाराम | ||
पंक्ति 142: | पंक्ति 142: | ||
* विचारपूर्वक किया गया श्रम उच्च से उच्च प्रकार की समाजसेवा है। ~ महात्मा गांधी | * विचारपूर्वक किया गया श्रम उच्च से उच्च प्रकार की समाजसेवा है। ~ महात्मा गांधी | ||
* दूसरों को दु:ख दिए बिना, दुष्टों की विनय किए बिना और सज्जनों के मार्ग का त्याग किए बिना अत्यल्प जो कुछ भी है, वही बहुत है। ~ अज्ञात | * दूसरों को दु:ख दिए बिना, दुष्टों की विनय किए बिना और सज्जनों के मार्ग का त्याग किए बिना अत्यल्प जो कुछ भी है, वही बहुत है। ~ अज्ञात | ||
* किसी | * किसी महान् कार्य को करने के प्रसंग में शत्रुओं से भी संधि कर लेना चाहिए। ~ भागवत | ||
* विपत्ति के पीछे विपत्ति और संपत्ति के पीछे संपत्ति आती है। ~ बाण | * विपत्ति के पीछे विपत्ति और संपत्ति के पीछे संपत्ति आती है। ~ बाण | ||
===महान वह है, जो ग़लत रास्ते से लौट सके=== | ===महान वह है, जो ग़लत रास्ते से लौट सके=== | ||
* जो प्रकृति से ही | * जो प्रकृति से ही महान् हैं उनके स्वाभाविक तेज को किसी (शारीरिक)ओज-प्रकाश की अपेक्षा नहीं रहती। ~ चाणक्य | ||
* संपत्ति और विपत्ति में एक समान आचरण करनेवाले ही | * संपत्ति और विपत्ति में एक समान आचरण करनेवाले ही महान् कहलाते हैं। ~ विष्णु शर्मा | ||
* विष के एक घड़े से समुद्र को दूषित नहीं किया जा सकता, क्योंकि समुद्र अत्यंत | * विष के एक घड़े से समुद्र को दूषित नहीं किया जा सकता, क्योंकि समुद्र अत्यंत महान् और विशाल है। वैसे ही महापुरुष को किसी की निंदा दूषित नहीं कर सकती। ~ इत्तिवृत्तक | ||
* मैं | * मैं महान् उसको मानता हूं जो स्वत: अपना मार्ग बनाते हैं, परंतु कहीं मिथ्या मार्ग पर चल पड़ें तो लौट आने का साहस और बुद्धि भी रखते हैं। ~ गुरुदत्त | ||
===महानता जिस क्षुद्रता में पलती है=== | ===महानता जिस क्षुद्रता में पलती है=== | ||
पंक्ति 155: | पंक्ति 155: | ||
* महानता जिस क्षुद्रता में पलती है, वह क्षुद्रता कभी महानता को समझती नहीं। ~ रांगेय राघव | * महानता जिस क्षुद्रता में पलती है, वह क्षुद्रता कभी महानता को समझती नहीं। ~ रांगेय राघव | ||
* यद्यपि सब कर्म देवाधीन हैं, तथापि मनुष्य को अपना काम करना ही चाहिए। ~ अपभ्रंश से | * यद्यपि सब कर्म देवाधीन हैं, तथापि मनुष्य को अपना काम करना ही चाहिए। ~ अपभ्रंश से | ||
* ठीक समय पर किया हुआ थोड़ा-सा काम भी बहुत उपकारी है और समय बीतने पर किया हुआ | * ठीक समय पर किया हुआ थोड़ा-सा काम भी बहुत उपकारी है और समय बीतने पर किया हुआ महान् उपकार भी व्यर्थ हो जाता है। ~ योगवशिष्ठ | ||
===मेहनती भाग्य को भी परास्त कर देते हैं=== | ===मेहनती भाग्य को भी परास्त कर देते हैं=== | ||
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===मिथ्या प्रशंसा बहुत कष्टप्रद होती है=== | ===मिथ्या प्रशंसा बहुत कष्टप्रद होती है=== | ||
* प्रार्थना या भजन जीभ से नहीं होता है। इसी से गूंगे, तोतले और मूढ़ भी प्रार्थना कर सकते हैं। ~ महात्मा गांधी | * प्रार्थना या भजन जीभ से नहीं होता है। इसी से गूंगे, तोतले और मूढ़ भी प्रार्थना कर सकते हैं। ~ महात्मा गांधी | ||
* वही अच्छी प्रार्थना करता है जो | * वही अच्छी प्रार्थना करता है जो महान् और क्षुद्र सभी जीवों से सर्वोत्तम प्रेम करता है, क्योंकि हमसे प्रेम करनेवाले ने ही उन सबको बनाया है और वह उनसे प्रेम करता है। ~ कालरिज | ||
* जो जिसका प्रिय व्यक्ति है, वह उसका कोई विलक्षण धन है। प्रिय व्यक्ति कुछ न करता हुआ भी सामीप्यादि दुखों को दूर कर देता है। ~ भवभूति | * जो जिसका प्रिय व्यक्ति है, वह उसका कोई विलक्षण धन है। प्रिय व्यक्ति कुछ न करता हुआ भी सामीप्यादि दुखों को दूर कर देता है। ~ भवभूति | ||
* मिथ्या प्रशंसा बहुत कष्टप्रद होती है। ~ भास | * मिथ्या प्रशंसा बहुत कष्टप्रद होती है। ~ भास | ||
* यदि बात तुम्हारे हृदय से | * यदि बात तुम्हारे हृदय से उत्पन्ननहीं हुई है तो तुम कदापि दूसरों के हृदय प्रभावित नहीं कर सकते। ~ गेटे | ||
* प्रमाद में मनुष्य कठोर सत्य का भी अनुभव नहीं करता। ~ जयशंकर प्रसाद | * प्रमाद में मनुष्य कठोर सत्य का भी अनुभव नहीं करता। ~ जयशंकर प्रसाद | ||
* मिथ्या प्रशंसा बहुत कष्टप्रद होती है। ~ भास | * मिथ्या प्रशंसा बहुत कष्टप्रद होती है। ~ भास | ||
पंक्ति 304: | पंक्ति 304: | ||
* राज्य छाते के समान होता है, जिसका अपने हाथ में पकड़ा हुआ दंड थकान को उतना दूर नहीं करता, जितना कि थकान उत्पन्न करता है। ~ कालिदास | * राज्य छाते के समान होता है, जिसका अपने हाथ में पकड़ा हुआ दंड थकान को उतना दूर नहीं करता, जितना कि थकान उत्पन्न करता है। ~ कालिदास | ||
* विनय के बिना संपत्ति क्या? चंद्रमा के बिना रात क्या? ~ भामह | * विनय के बिना संपत्ति क्या? चंद्रमा के बिना रात क्या? ~ भामह | ||
* वह विजय | * वह विजय महान् होती है जो बिना रक्तपात के मिलती है। ~ स्पेनी लोकोक्ति | ||
===राजलक्ष्मी तो चंचल होती है=== | ===राजलक्ष्मी तो चंचल होती है=== | ||
पंक्ति 323: | पंक्ति 323: | ||
* गूंगा कौन है? जो समयानुसार प्रिय वाणी बोलना नहीं जानता। ~ अमोघवर्ष | * गूंगा कौन है? जो समयानुसार प्रिय वाणी बोलना नहीं जानता। ~ अमोघवर्ष | ||
* दूसरे का अप्रिय वचन सुन कर भी उत्तम व्यक्ति सदा प्रिय वाणी ही बोलता है। ~ अज्ञात | * दूसरे का अप्रिय वचन सुन कर भी उत्तम व्यक्ति सदा प्रिय वाणी ही बोलता है। ~ अज्ञात | ||
* भली प्रकार प्रयुक्त की गई वाणी को विद्वानों ने कामनापूर्ण | * भली प्रकार प्रयुक्त की गई वाणी को विद्वानों ने कामनापूर्ण करने वाली कामधेनु कहा है। ~ दण्डी | ||
* प्रियजन द्वारा कही गई प्रिय बातें प्रियतर होती हैं। ~ भास | * प्रियजन द्वारा कही गई प्रिय बातें प्रियतर होती हैं। ~ भास | ||
* शुद्ध आशय हो तो रूखे वचन को भी सज्जन रूखा नहीं समझता है। ~ अश्वघोष | * शुद्ध आशय हो तो रूखे वचन को भी सज्जन रूखा नहीं समझता है। ~ अश्वघोष | ||
पंक्ति 345: | पंक्ति 345: | ||
==ल== | ==ल== | ||
===लाभ से लोभ निरंतर बढ़ता है=== | ===लाभ से लोभ निरंतर बढ़ता है=== | ||
* मधुर शब्दों में कही हुई बात अनेक प्रकार से कल्याण करती है, किंतु यही यदि कटु शब्दों में कही जाए तो | * मधुर शब्दों में कही हुई बात अनेक प्रकार से कल्याण करती है, किंतु यही यदि कटु शब्दों में कही जाए तो महान् अनर्थ का कारण बन जाती है। ~ वेदव्यास | ||
* आज का अंडा आने वाले कल की मुर्गी से अधिक अच्छा होता है। ~ तुर्की लोकोक्ति | * आज का अंडा आने वाले कल की मुर्गी से अधिक अच्छा होता है। ~ तुर्की लोकोक्ति | ||
* वर्तमान को असाधारण संकट से ग्रस्त बताना एक फैशन ही है। ~ डिजरायली | * वर्तमान को असाधारण संकट से ग्रस्त बताना एक फैशन ही है। ~ डिजरायली | ||
पंक्ति 364: | पंक्ति 364: | ||
* जिस तरह एक जवान स्त्री बूढ़े पुरुष का आलिंगन करना नहीं चाहती, उसी तरह लक्ष्मी भी आलसी, भाग्यवादी और साहसविहीन व्यक्ति को नहीं चाहती। ~ अज्ञात | * जिस तरह एक जवान स्त्री बूढ़े पुरुष का आलिंगन करना नहीं चाहती, उसी तरह लक्ष्मी भी आलसी, भाग्यवादी और साहसविहीन व्यक्ति को नहीं चाहती। ~ अज्ञात | ||
* जहां मूर्ख नहीं पूजे जाते, जहां अन्न संचित रहता है और जहां स्त्री-पुरुष में कलह नहीं होता, वहां लक्ष्मी आप ही आकर विराजमान हो जाती है। ~ अथर्व वेद | * जहां मूर्ख नहीं पूजे जाते, जहां अन्न संचित रहता है और जहां स्त्री-पुरुष में कलह नहीं होता, वहां लक्ष्मी आप ही आकर विराजमान हो जाती है। ~ अथर्व वेद | ||
* लक्ष्मी पूजा के अनेक रूप हैं। लेकिन | * लक्ष्मी पूजा के अनेक रूप हैं। लेकिन ग़रीबों की पेट पूजा करना ही श्रेष्ठ लक्ष्मी पूजन है। इससे आत्मतोष भी होता है। ~ रामतीर्थ | ||
* धनवान लोगों के मन में हमेशा शंका रहती है, इसलिए यदि हम लक्ष्मी देवी को खुश रखना चाहते हैं तो हमें अपनी पात्रता सिद्ध करनी होगी। ~ महात्मा गांधी | * धनवान लोगों के मन में हमेशा शंका रहती है, इसलिए यदि हम लक्ष्मी देवी को खुश रखना चाहते हैं तो हमें अपनी पात्रता सिद्ध करनी होगी। ~ महात्मा गांधी | ||
* न्याय और नीति सब लक्ष्मी के ही खिलौने हैं। वह जैसा चाहती है नचाती है। ~ प्रेमचंद | * न्याय और नीति सब लक्ष्मी के ही खिलौने हैं। वह जैसा चाहती है नचाती है। ~ प्रेमचंद | ||
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===लोभ ही पाप की जन्मस्थली है=== | ===लोभ ही पाप की जन्मस्थली है=== | ||
* लोभ पाप का घर है, लोभ ही पाप की जन्मस्थली है और यही दोष, क्रोध आदि को उत्पन्न | * लोभ पाप का घर है, लोभ ही पाप की जन्मस्थली है और यही दोष, क्रोध आदि को उत्पन्न करने वाली है। ~ बल्लाल कवि | ||
* जैसे नमक के बिना अन्न स्वादरहित और फीका लगता है, वैसे ही वाचाल के कथन निस्सार होते हैं और किसी को रुचिकर नहीं लगते। ~ तुकाराम | * जैसे नमक के बिना अन्न स्वादरहित और फीका लगता है, वैसे ही वाचाल के कथन निस्सार होते हैं और किसी को रुचिकर नहीं लगते। ~ तुकाराम | ||
* प्रिय होने पर भी जो हितकर न हो, उसे न कहें। हितकर कहना ही अच्छा है, चाहे वह अत्यंत अप्रिय हो। ~ विष्णुपुराण | * प्रिय होने पर भी जो हितकर न हो, उसे न कहें। हितकर कहना ही अच्छा है, चाहे वह अत्यंत अप्रिय हो। ~ विष्णुपुराण | ||
पंक्ति 398: | पंक्ति 398: | ||
* वास्तव में शुभ और अशुभ दोनों एक ही हैं और हमारे मन पर अवलंबित हैं। मन जब स्थिर और शांत रहता है, तब शुभाशुभ कुछ भी उसे स्पर्श नहीं कर पाता। ~ विवेकानंद | * वास्तव में शुभ और अशुभ दोनों एक ही हैं और हमारे मन पर अवलंबित हैं। मन जब स्थिर और शांत रहता है, तब शुभाशुभ कुछ भी उसे स्पर्श नहीं कर पाता। ~ विवेकानंद | ||
* जल से शरीर शुद्ध होता है, मन सत्य से शुद्ध होता है, विद्या और तप से भूतात्मा तथा ज्ञान से बुद्धि शुद्ध होती है। ~ मनुस्मृति | * जल से शरीर शुद्ध होता है, मन सत्य से शुद्ध होता है, विद्या और तप से भूतात्मा तथा ज्ञान से बुद्धि शुद्ध होती है। ~ मनुस्मृति | ||
* शील अपरिमित बल है। शील सर्वोत्तम शस्त्र है। शील श्रेष्ठ आभूषण है और रक्षा | * शील अपरिमित बल है। शील सर्वोत्तम शस्त्र है। शील श्रेष्ठ आभूषण है और रक्षा करने वाला अद्भुत कवच है। ~ थेर गाथा | ||
* लज्जा और संकोच करने पर ही शील उत्पन्न होता है और ठहरता है। ~ विसुद्ध्मिग्ग | * लज्जा और संकोच करने पर ही शील उत्पन्न होता है और ठहरता है। ~ विसुद्ध्मिग्ग | ||
==व== | ==व== | ||
===विरोध हर सरकार के लिए | ===विरोध हर सरकार के लिए ज़रूरी है=== | ||
* विरोध हर सरकार के लिए | * विरोध हर सरकार के लिए ज़रूरी है। कोई भी सरकार प्रबल विरोध के बिना अधिक दिन टिक नहीं सकती। ~ डिजरायली | ||
* जो हमसे कुश्ती लड़ता है, हमारे अंगों को मज़बूत करता है। वह हमारे गुणों को तेज करता है। एक तरह से हमारा विरोधी हमारी मदद ही करता है। ~ बर्क | * जो हमसे कुश्ती लड़ता है, हमारे अंगों को मज़बूत करता है। वह हमारे गुणों को तेज करता है। एक तरह से हमारा विरोधी हमारी मदद ही करता है। ~ बर्क | ||
* विकास के लिए यूं तो कई चीज़ें | * विकास के लिए यूं तो कई चीज़ें ज़रूरी होती हैं, लेकिन कठिनाई और विरोध वह देसी मिट्टी है जिसमें पराक्रम और आत्मविश्वास का विकास होता है। ~ जॉन नेल | ||
* विरोध बहुत रचनात्मक होता है। वह उत्साहियों को सदैव उत्तेजित करता है, उन्हें बदलता नहीं। ~ शिलर | * विरोध बहुत रचनात्मक होता है। वह उत्साहियों को सदैव उत्तेजित करता है, उन्हें बदलता नहीं। ~ शिलर | ||
* विपत्ति ही ऐसी तुला है जिस पर हम मित्रों को तोल सकते हैं। सुदिन अच्छी तुला नहीं है। ~ प्लूटार्क | * विपत्ति ही ऐसी तुला है जिस पर हम मित्रों को तोल सकते हैं। सुदिन अच्छी तुला नहीं है। ~ प्लूटार्क | ||
पंक्ति 453: | पंक्ति 453: | ||
* हम देवों की शुभ मति के अधीन रहें। ~ ऋग्वेद | * हम देवों की शुभ मति के अधीन रहें। ~ ऋग्वेद | ||
* मर्यादा का उल्लंघन कभी मत करो। ~ चाणक्य | * मर्यादा का उल्लंघन कभी मत करो। ~ चाणक्य | ||
* सच्चे | * सच्चे संन्यासी तो अपनी मुक्ति की भी उपेक्षा करते हैं -जगत के मंगल के लिए ही उनका जन्म होता है। ~ विवेकानंद | ||
* अपने भीतर शांति प्राप्त हो जाने पर सारा संसार ही शांत दिखाई देने लगता है। ~ योगवासिष्ठ | * अपने भीतर शांति प्राप्त हो जाने पर सारा संसार ही शांत दिखाई देने लगता है। ~ योगवासिष्ठ | ||
* विचार ही कार्य का मूल है। विचार गया तो कार्य गया ही समझो। ~ महात्मा गांधी | * विचार ही कार्य का मूल है। विचार गया तो कार्य गया ही समझो। ~ महात्मा गांधी | ||
पंक्ति 471: | पंक्ति 471: | ||
* उच्च या नीच कुल में जन्म होना भाग्य के अधीन है। मेरे अधीन तो पुरुषार्थ है। ~ भट्टनारायण | * उच्च या नीच कुल में जन्म होना भाग्य के अधीन है। मेरे अधीन तो पुरुषार्थ है। ~ भट्टनारायण | ||
* वह विजय अच्छी विजय नहीं है, जिसमें फिर से पराजय हो। वही विजय अच्छी है, जिस विजय की फिर विजय न हो। ~ जातक | * वह विजय अच्छी विजय नहीं है, जिसमें फिर से पराजय हो। वही विजय अच्छी है, जिस विजय की फिर विजय न हो। ~ जातक | ||
* प्रयत्न न करने पर भी | * प्रयत्न न करने पर भी विद्वान् लोग जिसे आदर दें, वही सम्मानित है। इसलिए दूसरों से सम्मान पाकर भी अभिमान न करे। ~ वेद व्यास | ||
* मृत्यु सुनने में जितनी भयावह लगती है, पर देखने में उतनी ही निरीह और स्वाभाविक है। ~ शिवानी | * मृत्यु सुनने में जितनी भयावह लगती है, पर देखने में उतनी ही निरीह और स्वाभाविक है। ~ शिवानी | ||
पंक्ति 494: | पंक्ति 494: | ||
* मैंने सत्य को पा लिया, ऐसा मत कहो, बल्कि कहो, मैंने अपने मार्ग पर चलते हुए आत्मा के दर्शन किए हैं। ~ खलील जिब्रान | * मैंने सत्य को पा लिया, ऐसा मत कहो, बल्कि कहो, मैंने अपने मार्ग पर चलते हुए आत्मा के दर्शन किए हैं। ~ खलील जिब्रान | ||
* अनिष्ट से यदि इष्ट सिद्धि हो भी जाए, तो भी उसका परिणाम अच्छा नहीं होता। ~ नारायण पंडित | * अनिष्ट से यदि इष्ट सिद्धि हो भी जाए, तो भी उसका परिणाम अच्छा नहीं होता। ~ नारायण पंडित | ||
* संपन्नता | * संपन्नता महान् शिक्षक है पर विपत्ति महानतर शिक्षक है। संपत्ति मन को लाड़ से बिगाड़ देती है, किंतु अभाव उसे प्रशिक्षित कर शक्तिशाली बनाता है। ~ हैजलिट | ||
* विपत्ति में पड़े हुए मनुष्यों का प्रिय करनेवाले दुर्लभ होते हैं। ~ शूद्रक | * विपत्ति में पड़े हुए मनुष्यों का प्रिय करनेवाले दुर्लभ होते हैं। ~ शूद्रक | ||
पंक्ति 508: | पंक्ति 508: | ||
* वीर तो अपने अंदर ही 'मार्च' करते हैं, क्योंकि हृदयाकाश के केंद्र में खड़े होकर वे कुल संसार को हिला सकते हैं। ~ सरदार पूर्णसिंह | * वीर तो अपने अंदर ही 'मार्च' करते हैं, क्योंकि हृदयाकाश के केंद्र में खड़े होकर वे कुल संसार को हिला सकते हैं। ~ सरदार पूर्णसिंह | ||
* वरात्माएं सत्कार्य में विरोध की परवा नहीं करतीं और अंत में उस पर विजय ही पाती हैं। ~ प्रेमचंद्र | * वरात्माएं सत्कार्य में विरोध की परवा नहीं करतीं और अंत में उस पर विजय ही पाती हैं। ~ प्रेमचंद्र | ||
* जो | * जो महान् है वह महान् पर ही वीरता दिखाता है। ~ नारायण पंडित | ||
* बिना विवेक की वीरता महासमुद्र की लहर में डोंगी-सी डूब जाती है। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र | * बिना विवेक की वीरता महासमुद्र की लहर में डोंगी-सी डूब जाती है। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र | ||
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* विद्या शील के अभाव में शोचनीय और द्वेष से अपवित्र हो जाती है। ~ क्षेमेंद्र | * विद्या शील के अभाव में शोचनीय और द्वेष से अपवित्र हो जाती है। ~ क्षेमेंद्र | ||
* जो जिस विद्या से युक्त है, वही उसके लिए परम देवता है। वह पूज्य और अर्चनीय है और वही उसके लिए उपकारिका है। ~ विष्णुपुराण | * जो जिस विद्या से युक्त है, वही उसके लिए परम देवता है। वह पूज्य और अर्चनीय है और वही उसके लिए उपकारिका है। ~ विष्णुपुराण | ||
* केवल पढ़-लिख लेने से कोई | * केवल पढ़-लिख लेने से कोई विद्वान् नहीं होता। जो सत्य, तप, ज्ञान, अहिंसा, विद्वानों के प्रति श्रद्धा और सुशीलता को धारण करता है, वही सच्चा विद्वान् है। ~ अज्ञात | ||
* धर्म की रक्षक विद्या ही है क्योंकि विद्या से ही धर्म और अधर्म का बोध होता है। ~ दयानंद | * धर्म की रक्षक विद्या ही है क्योंकि विद्या से ही धर्म और अधर्म का बोध होता है। ~ दयानंद | ||
पंक्ति 554: | पंक्ति 554: | ||
* हमारी शिक्षा तब तक अधूरी रहेगी जब तक उसमें धार्मिक विचारों का समावेश नहीं किया जाता। ~ अज्ञात | * हमारी शिक्षा तब तक अधूरी रहेगी जब तक उसमें धार्मिक विचारों का समावेश नहीं किया जाता। ~ अज्ञात | ||
===वह विजय | ===वह विजय महान् होती है जो बिना रक्तपात के मिलती है=== | ||
* मनुष्य में जो स्वाभाविक बल है, उसकी अभिव्यक्ति धर्म है। ~ विवेकानंद | * मनुष्य में जो स्वाभाविक बल है, उसकी अभिव्यक्ति धर्म है। ~ विवेकानंद | ||
* वह विजय | * वह विजय महान् होती है जो बिना रक्तपात के मिलती है। ~ स्पेनी लोकोक्ति | ||
* अमृत और मृत्यु- दोनों ही इस शरीर में स्थित हैं। मनुष्य मोह से मृत्यु को और सत्य से अमृत को प्राप्त होता है। ~ वेदव्यास | * अमृत और मृत्यु- दोनों ही इस शरीर में स्थित हैं। मनुष्य मोह से मृत्यु को और सत्य से अमृत को प्राप्त होता है। ~ वेदव्यास | ||
* वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो पराये को भी अपना बना ले। ~ विमल मित्र | * वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो पराये को भी अपना बना ले। ~ विमल मित्र | ||
पंक्ति 563: | पंक्ति 563: | ||
* मेघ वर्षा करते समय यह नहीं देखता कि भूमि उपजाऊ है या ऊसर। वह दोनों को समान रूप से सींचता है। गंगा का पवित्र जल उत्तम और अधम का विचार किए बिना सबकी प्यास बुझाता है। ~ तुकाराम | * मेघ वर्षा करते समय यह नहीं देखता कि भूमि उपजाऊ है या ऊसर। वह दोनों को समान रूप से सींचता है। गंगा का पवित्र जल उत्तम और अधम का विचार किए बिना सबकी प्यास बुझाता है। ~ तुकाराम | ||
* जो बलवान होकर निर्बल की रक्षा करता है, वही मनुष्य कहलाता है और जो स्वार्थवश परहानि करता है, वह पशुओं से भी गया-बीता है। ~ दयानंद | * जो बलवान होकर निर्बल की रक्षा करता है, वही मनुष्य कहलाता है और जो स्वार्थवश परहानि करता है, वह पशुओं से भी गया-बीता है। ~ दयानंद | ||
* बल तथा कोश से संपन्न | * बल तथा कोश से संपन्न महान् व्यक्तियों का महत्व ही क्या यदि उन्होंने दूसरों के कष्ट का उसी क्षण विनाश नहीं किया। ~ सोमदेव | ||
* उपकार करने का साहसी स्वभाव होने के कारण गुणी लोग अपनी हानि की भी चिंता नहीं करते। दीपक की लौ अपना अंग जलाकर ही प्रकाश उत्पन्न करती है। ~ अज्ञात | * उपकार करने का साहसी स्वभाव होने के कारण गुणी लोग अपनी हानि की भी चिंता नहीं करते। दीपक की लौ अपना अंग जलाकर ही प्रकाश उत्पन्न करती है। ~ अज्ञात | ||
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* गूंगा कौन है? जो समयानुकूल प्रिय वाणी बोलना नहीं जानता है। ~ अमोघवर्ष | * गूंगा कौन है? जो समयानुकूल प्रिय वाणी बोलना नहीं जानता है। ~ अमोघवर्ष | ||
* जो बल से विजय प्राप्त करता है, वह शत्रु पर आधी विजय ही प्राप्त करता है। ~ मिल्टन | * जो बल से विजय प्राप्त करता है, वह शत्रु पर आधी विजय ही प्राप्त करता है। ~ मिल्टन | ||
* असंयमी | * असंयमी विद्वान् अंधा मशालदार है। ~ शेख सादी | ||
* कटा हुआ वृक्ष भी बढ़ता है। क्षीण हुआ चंद्रमा भी पुन: बढ़कर पूरा हो जाता है। इस बात को समझकर संत पुरुष अपनी विपत्ति में नहीं घबराते हैं। ~ भर्तृहरि | * कटा हुआ वृक्ष भी बढ़ता है। क्षीण हुआ चंद्रमा भी पुन: बढ़कर पूरा हो जाता है। इस बात को समझकर संत पुरुष अपनी विपत्ति में नहीं घबराते हैं। ~ भर्तृहरि | ||
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* विनयी जनों को क्रोध कहां? और निर्मल अंत:करण में लज्जा का प्रवेश कहां? ~ भास | * विनयी जनों को क्रोध कहां? और निर्मल अंत:करण में लज्जा का प्रवेश कहां? ~ भास | ||
* जो ज़मीन पर बैठता है, उसे कौन नीचे बिठा सकता है, जो सबका दास है, उसे कौन दास बना सकता है? ~ महात्मा गांधी | * जो ज़मीन पर बैठता है, उसे कौन नीचे बिठा सकता है, जो सबका दास है, उसे कौन दास बना सकता है? ~ महात्मा गांधी | ||
* | * विद्वान् तो बहुत होते हैं, लेकिन विद्या के साथ जीवन का आचरण करने वाले कम होते हैं। ~ सरदार पटेल | ||
* मनुष्य की जिह्वा छोटी होती है, परंतु वह बड़े-बड़े दोष कर बैठती है। ~ इस्माइल इब्न अबीबकर | * मनुष्य की जिह्वा छोटी होती है, परंतु वह बड़े-बड़े दोष कर बैठती है। ~ इस्माइल इब्न अबीबकर | ||
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===विद्वानों की संगति से ज्ञान मिलता है=== | ===विद्वानों की संगति से ज्ञान मिलता है=== | ||
* प्रेम से शोक उत्पन्न होता है, प्रेम से भय | * प्रेम से शोक उत्पन्न होता है, प्रेम से भय उत्पन्नहोता है, प्रेम से मुक्त को शोक नहीं, फिर भय कहां से? ~ धम्मपद | ||
* विद्वानों की संगति से ज्ञान मिलता है, ज्ञान से विनय, विनय से लोगों का प्रेम और लोगों के प्रेम से क्या नहीं प्राप्त होता? ~ अज्ञात | * विद्वानों की संगति से ज्ञान मिलता है, ज्ञान से विनय, विनय से लोगों का प्रेम और लोगों के प्रेम से क्या नहीं प्राप्त होता? ~ अज्ञात | ||
* पदार्थों का कोई आंतरिक हेतु ही मिलाता है। प्रेम बाहरी उपाधियों पर आश्रित नहीं होता। ~ भवभूति | * पदार्थों का कोई आंतरिक हेतु ही मिलाता है। प्रेम बाहरी उपाधियों पर आश्रित नहीं होता। ~ भवभूति | ||
* जिसका घर है, उसके लिए वह मथुरापुरी जैसा है। जिसका वर है, उसके लिए तो वह श्रीकृष्ण जैसा है। ~ उडि़या लोकोक्ति | * जिसका घर है, उसके लिए वह मथुरापुरी जैसा है। जिसका वर है, उसके लिए तो वह श्रीकृष्ण जैसा है। ~ उडि़या लोकोक्ति | ||
===विद्वानों की संगति से मूर्ख भी | ===विद्वानों की संगति से मूर्ख भी विद्वान् बन जाता है=== | ||
* उदात्त चित्त वाले लोगों में दूसरों के प्रकट हुए दोषों को भी चिरकाल तक छिपाने की निपुणता होती है और अपने गुण को प्रकट करने में उन्हें अतिशय अकौशल होता है। ~ माघ | * उदात्त चित्त वाले लोगों में दूसरों के प्रकट हुए दोषों को भी चिरकाल तक छिपाने की निपुणता होती है और अपने गुण को प्रकट करने में उन्हें अतिशय अकौशल होता है। ~ माघ | ||
* जिस प्रकार बादल एकत्र होकर फिर अलग हो जाते हैं , उसी प्रकार प्राणियों का संयोग और वियोग है। ~ अश्वघोष | * जिस प्रकार बादल एकत्र होकर फिर अलग हो जाते हैं , उसी प्रकार प्राणियों का संयोग और वियोग है। ~ अश्वघोष | ||
* जिसके मन में राग-द्वेष नहीं है और जो तृष्णा को त्याग कर शील तथा संतोष को ग्रहण किए हुए है, वह संत पुरुष जगत् के लिए जहाज़ है। ~ तुलसीदास | * जिसके मन में राग-द्वेष नहीं है और जो तृष्णा को त्याग कर शील तथा संतोष को ग्रहण किए हुए है, वह संत पुरुष जगत् के लिए जहाज़ है। ~ तुलसीदास | ||
* विद्वानों की संगति से मूर्ख भी | * विद्वानों की संगति से मूर्ख भी विद्वान् बन जाता है जैसे निर्मली के बीज से मटमैला पानी स्वच्छ हो जाता है। ~ कालिदास | ||
===विकास कृत्रिम निर्धनता है=== | ===विकास कृत्रिम निर्धनता है=== | ||
पंक्ति 637: | पंक्ति 637: | ||
===वर्तमान तो कर्म चाहता है, स्वप्न नहीं=== | ===वर्तमान तो कर्म चाहता है, स्वप्न नहीं=== | ||
* वर्तमान तो कर्म चाहता है, स्वप्न नहीं। वह यथार्थ के दर्शन चाहता है। ~ हरिकृष्ण प्रेमी | * वर्तमान तो कर्म चाहता है, स्वप्न नहीं। वह यथार्थ के दर्शन चाहता है। ~ हरिकृष्ण प्रेमी | ||
* राजा अपने राज्य का प्रथम सेवक होता है। ~ फ्रेडरिक | * राजा अपने राज्य का प्रथम सेवक होता है। ~ फ्रेडरिक महान् | ||
* व्यक्ति के अंतर्मन को परखना चाहिए। ~ दशवैकालिक | * व्यक्ति के अंतर्मन को परखना चाहिए। ~ दशवैकालिक | ||
* शरीर और मन साथ ही साथ उन्नत होने चाहिए। ~ विवेकानंद | * शरीर और मन साथ ही साथ उन्नत होने चाहिए। ~ विवेकानंद | ||
पंक्ति 647: | पंक्ति 647: | ||
* शेष ऋण, शेष अग्नि तथा शेष रोग पुन: बढ़ते हैं, अत: इन्हें शेष नहीं छोड़ना चाहिए। ~ शौनकीयनीतिसार | * शेष ऋण, शेष अग्नि तथा शेष रोग पुन: बढ़ते हैं, अत: इन्हें शेष नहीं छोड़ना चाहिए। ~ शौनकीयनीतिसार | ||
* धीरज होने से दरिद्रता भी शोभा देती है। धुले हुए होने से जीर्ण वस्त्र भी अच्छे लगते हैं। घटिया भोजन भी गर्म होने से सुस्वादु लगता है और सुंदर स्वभाव के कारण कुरूपता भी शोभा देती है। ~ चाणक्य नीति | * धीरज होने से दरिद्रता भी शोभा देती है। धुले हुए होने से जीर्ण वस्त्र भी अच्छे लगते हैं। घटिया भोजन भी गर्म होने से सुस्वादु लगता है और सुंदर स्वभाव के कारण कुरूपता भी शोभा देती है। ~ चाणक्य नीति | ||
* जो व्यक्ति मूर्ख के सामने | * जो व्यक्ति मूर्ख के सामने विद्वान् दिखने की कामना करते हैं, वे विद्वानों के सामने मूर्ख लगते हैं। ~ क्विन्टिलियन | ||
===विनम्रता शरीर की अंतरात्मा है=== | ===विनम्रता शरीर की अंतरात्मा है=== | ||
पंक्ति 664: | पंक्ति 664: | ||
===विश्वास उन शक्तियो मे से एक है जो=== | ===विश्वास उन शक्तियो मे से एक है जो=== | ||
* विश्वास उन शक्तियो मे से एक है जो मनुष्य को जीवित रखती है, विश्वास का पूर्ण अभाव ही जीवन का अवसान है। ~ विलियम जेम्स | * विश्वास उन शक्तियो मे से एक है जो मनुष्य को जीवित रखती है, विश्वास का पूर्ण अभाव ही जीवन का अवसान है। ~ विलियम जेम्स | ||
* जैसे फल के पहले फूल होता है, वैसे ही सत्कार्य के पहले | * जैसे फल के पहले फूल होता है, वैसे ही सत्कार्य के पहले ज़रूरी होता है विश्वास। ~ ह्वैटली | ||
* मनुष्य उसी काम को ठीक तरह से कर सकता है, उसी मे सफलता प्राप्त कर सकता है जिसकी सिद्धि मे उसका सच्चा विश्वास है। ~ स्वेट मार्डेन | * मनुष्य उसी काम को ठीक तरह से कर सकता है, उसी मे सफलता प्राप्त कर सकता है जिसकी सिद्धि मे उसका सच्चा विश्वास है। ~ स्वेट मार्डेन | ||
* अविश्वासी के उत्तम विचार से विश्वासी की भूल कहीं अधिक अच्छी है। ~ टामस रसल | * अविश्वासी के उत्तम विचार से विश्वासी की भूल कहीं अधिक अच्छी है। ~ टामस रसल | ||
पंक्ति 694: | पंक्ति 694: | ||
==श== | ==श== | ||
===शास्त्र पढ़कर भी लोग मूर्ख होते हैं=== | ===शास्त्र पढ़कर भी लोग मूर्ख होते हैं=== | ||
* शास्त्र पढ़कर भी लोग मूर्ख होते हैं, किंतु जो उसके अनुसार आचरण करता है, वस्तुत: वही | * शास्त्र पढ़कर भी लोग मूर्ख होते हैं, किंतु जो उसके अनुसार आचरण करता है, वस्तुत: वही विद्वान् है। ~ हितोपदेश | ||
* निर्मल अंत:करण को जिस समय जो प्रतीत हो वही सत्य है। उस पर दृढ़ रहने से शुद्ध सत्य की प्राप्ति हो जाती है। ~ महात्मा गांधी | * निर्मल अंत:करण को जिस समय जो प्रतीत हो वही सत्य है। उस पर दृढ़ रहने से शुद्ध सत्य की प्राप्ति हो जाती है। ~ महात्मा गांधी | ||
* अविश्वास से अर्थ की प्राप्ति नहीं हो सकती। और जो विश्वासपात्र नहीं है, उससे कुछ लेने को जी भी नहीं चाहता। अविश्वास के कारण सदा भय लगा रहता है और भय से जीवित मनुष्य मृतक के समान हो जाता है। ~ वेद व्यास | * अविश्वास से अर्थ की प्राप्ति नहीं हो सकती। और जो विश्वासपात्र नहीं है, उससे कुछ लेने को जी भी नहीं चाहता। अविश्वास के कारण सदा भय लगा रहता है और भय से जीवित मनुष्य मृतक के समान हो जाता है। ~ वेद व्यास | ||
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* लोगों को यह याद रखना चाहिए कि शांति ईश्वर प्रदत्त नहीं होती। यह वह भेंट है, जिसे मनुष्य एक-दूसरे को देते हैं। ~ एली वाइजेला | * लोगों को यह याद रखना चाहिए कि शांति ईश्वर प्रदत्त नहीं होती। यह वह भेंट है, जिसे मनुष्य एक-दूसरे को देते हैं। ~ एली वाइजेला | ||
* अपने कल्याण के इच्छुक व्यक्ति को स्वेच्छाचारी नहीं होना चाहिए। ~ सोमदेव | * अपने कल्याण के इच्छुक व्यक्ति को स्वेच्छाचारी नहीं होना चाहिए। ~ सोमदेव | ||
* सच्चे | * सच्चे संन्यासी तो अपनी मुक्ति की भी उपेक्षा करते हैं- जगत् के मंगल के लिए ही उनका जन्म होता है। ~ विवेकानंद | ||
* हे राजन, क्षण भर का समय है ही क्या, यह समझने वाला मनुष्य मूर्ख होता है। और एक कौड़ी है ही क्या, यह सोचने वाला दरिद्र हो जाता है। ~ नारायण पंडित | * हे राजन, क्षण भर का समय है ही क्या, यह समझने वाला मनुष्य मूर्ख होता है। और एक कौड़ी है ही क्या, यह सोचने वाला दरिद्र हो जाता है। ~ नारायण पंडित | ||
* कामना सरलता से लोभ बन जाती है और लोभ वासना बन जाता है। ~ सत्य साईंबाबा | * कामना सरलता से लोभ बन जाती है और लोभ वासना बन जाता है। ~ सत्य साईंबाबा |
10:02, 9 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
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इन्हें भी देखें: अनमोल वचन 1, अनमोल वचन 2, अनमोल वचन 3, अनमोल वचन 4, अनमोल वचन 5, अनमोल वचन 6, अनमोल वचन 7, अनमोल वचन 8, अनमोल वचन 9, कहावत लोकोक्ति मुहावरे एवं सूक्ति और कहावत
अनमोल वचन |
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