"बुद्ध": अवतरणों में अंतर

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[[चित्र:Buddha-3.jpg|पारदर्शी [[चीवर]] धारण किए हुए बुद्ध<br /> भिक्षु यशदिन्न द्वारा निर्मित बुद्ध प्रतिमा, [[मथुरा]]|thumb|250px]]  
{{बुद्ध विषय सूची}}
'''गौतम बुद्ध'''<br />
{{पात्र परिचय
'''बुद्ध''' को 'गौतम बुद्ध', 'महात्मा बुद्ध' आदि नामों से भी जाना जाता है। वे संसार प्रसिद्ध [[बौद्ध धर्म]] के संस्थापक माने जाते हैं। बौद्ध धर्म [[भारत]] की श्रमण परम्परा से निकला [[धर्म]] और [[दर्शन]] है। आज बौद्ध धर्म सारे संसार के चार बड़े धर्मों में से एक है। इसके अनुयायियों की संख्या दिन-प्रतिदिन आज भी बढ़ रही है। इस धर्म के संस्थापक बुद्ध राजा शुद्धोदन के पुत्र थे और इनका जन्म स्थान [[लुम्बिनी]] नामक ग्राम था। वे छठवीं से पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व तक जीवित थे। उनके गुज़रने के बाद अगली पाँच शताब्दियों में, बौद्ध धर्म पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फ़ैला गया और अगले दो हज़ार सालों में मध्य, पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी जम्बू महाद्वीप में भी फैल गया। आज बौद्ध धर्म में तीन मुख्य सम्प्रदाय हैं- 'थेरवाद', '[[महायान]]' और '[[वज्रयान]]'। बौद्ध धर्म को पैंतीस करोड़ से अधिक लोग मानते हैं और यह दुनिया का चौथा सबसे बड़ा [[धर्म]] है।  
|चित्र=Buddha-3.jpg
{{संदर्भ|बिम्बिसार|बोधगया|मधुवन|पिपरावा|पाटलिपुत्र|}}
|चित्र का नाम=पारदर्शी चीवर धारण किए हुए बुद्ध
|अन्य नाम=[[सिद्धार्थ]], गौतम बुद्ध, महात्मा बुद्ध, शाक्य मुनि
|अवतार=[[विष्णु|भगवान विष्णु]] के [[अवतार|दस अवतारों]] में नौवें अवतार 
|वंश-गोत्र=
|कुल=
|पिता=[[शुद्धोदन|राजा शुद्धोदन]] 
|माता=[[महामाया|रानी महामाया]]  
|धर्म पिता=
|धर्म माता=
|पालक पिता=
|पालक माता=
|जन्म विवरण=563 ईसा पूर्व, [[लुम्बिनी]] ([[कपिलवस्तु]]) 
|समय-काल=
|धर्म-संप्रदाय=[[बौद्ध धर्म]]- '[[थेरवाद सम्प्रदाय|थेरवाद]]', '[[महायान]]', '[[वज्रयान]]'
|परिजन=
|गुरु=
|विवाह=[[यशोधरा]]
|संतान=राहुल
|विद्या पारंगत=
|रचनाएँ=
|महाजनपद=
|शासन-राज्य=[[शाक्य गणराज्य]] 
|मंत्र=
|वाहन=
|प्रसाद=
|प्रसिद्ध मंदिर
|व्रत-वार=
|पर्व-त्योहार=
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|अस्त्र-शस्त्र=
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|रंग-रूप=
|पूजन सामग्री=
|वाद्य=
|सिंहासन=
|प्राकृतिक स्वरूप=
|प्रिय सहचर=
|अनुचर=
|शत्रु-संहार
|संदर्भ ग्रंथ=
|प्रसिद्ध घटनाएँ=
|अन्य विवरण= बौद्ध धर्म को पैंतीस करोड़ से अधिक लोग मानते हैं और यह दुनिया का चौथा सबसे बड़ा [[धर्म]] है।
|मृत्यु=483 ईसा पूर्व, [[कुशीनगर]] (आयु- 80 वर्ष)
|यशकीर्ति=
|अपकीर्ति=
|संबंधित लेख=[[सारनाथ]], [[सांकाश्य]], [[कौशांबी]], [[वैरंजा]], [[कान्यकुब्ज]]
|शीर्षक 1=जयंती
|पाठ 1=[[वैशाख]] की [[पूर्णिमा]] ([[बुद्ध पूर्णिमा]])
|शीर्षक 2=अंतिम शब्द
|पाठ 2="हे भिक्षुओं, इस समय आज तुमसे इतना ही कहता हूँ कि जितने भी [[संस्कार]] हैं, सब नाश होने वाले हैं, प्रमाद रहित हो कर अपना कल्याण करो।"<ref>हदं हानि भिक्खये, आमंतयामि वो, वयध्म्मा संखारा, अप्पमादेन सम्पादेया -महापरिनिब्वान सुत्त, 235 (यह 483 ई. पू. की घटना है। वे अस्सी वर्ष के थे।)</ref>
|अन्य जानकारी= [[मथुरा]] में अनेक बौद्ध कालीन मूर्तियाँ मिली हैं। जो [[मौर्य काल]] और [[कुषाण काल]] में मथुरा की अति उन्नत मूर्ति कला की अमूल्य धरोहर हैं।
|बाहरी कड़ियाँ=
|अद्यतन=
}}
'''बुद्ध''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Buddha'') को 'गौतम बुद्ध', 'महात्मा बुद्ध' आदि नामों से भी जाना जाता है। वे संसार प्रसिद्ध [[बौद्ध धर्म]] के संस्थापक माने जाते हैं। बौद्ध धर्म [[भारत]] की श्रमण परम्परा से निकला [[धर्म]] और [[दर्शन]] है। आज बौद्ध धर्म सारे संसार के चार बड़े धर्मों में से एक है। इसके अनुयायियों की संख्या दिन-प्रतिदिन आज भी बढ़ रही है। इस धर्म के संस्थापक बुद्ध राजा शुद्धोदन के पुत्र थे और इनका जन्म स्थान [[लुम्बिनी]] नामक ग्राम था। वे छठवीं से पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व तक जीवित थे। उनके गुज़रने के बाद अगली पाँच शताब्दियों में, बौद्ध धर्म पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैल गया और अगले दो हज़ार सालों में मध्य, पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी जम्बू महाद्वीप में भी फैल गया। आज बौद्ध धर्म में तीन मुख्य सम्प्रदाय हैं- '[[थेरवाद]]', '[[महायान]]' और '[[वज्रयान]]'। बौद्ध धर्म को पैंतीस करोड़ से अधिक लोग मानते हैं और यह दुनिया का चौथा सबसे बड़ा [[धर्म]] है।  
{{संदर्भ|बिम्बिसार|बोधगया|मधुवन|पिपरावा|पाटलिपुत्र}}
==जीवन परिचय==
==जीवन परिचय==
====जन्म====
====जन्म====
'''गौतम बुद्ध का मूल नाम''' 'सिद्धार्थ' था। सिंहली, अनुश्रुति, खारवेल के अभिलेख, अशोक के सिंहासनारोहण की तिथि, कैण्टन के अभिलेख आदि के आधार पर महात्मा बुद्ध की जन्म तिथि 563 ई.पूर्व स्वीकार की गयी है। इनका जन्म शाक्यवंश के राजा [[शुद्धोदन]] की रानी महामाया के गर्भ से लुम्बिनी में [[माघ]] [[पूर्णिमा]] के दिन हुआ था। शाक्य गणराज्य की राजधानी [[कपिलवस्तु]] के निकट [[लुम्बिनी]] में उनका जन्म हुआ। सिद्धार्थ के [[पिता]] शाक्यों के राजा शुद्धोधन थे। बुद्ध को '''शाक्य मुनि''' भी कहते हैं। सिद्धार्थ की माता मायादेवी उनके जन्म के कुछ देर बाद मर गई थी। कहा जाता है कि फिर एक [[ऋषि]] ने कहा कि वे या तो एक महान राजा बनेंगे, या फिर एक महान साधु। लुम्बिनी में, जो दक्षिण मध्य नेपाल में है, सम्राट [[अशोक]] ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में बुद्ध के जन्म की स्मृति में एक स्तम्भ बनवाया था। [[मथुरा]] में अनेक बौद्ध कालीन मूर्तियाँ मिली हैं। जो [[मौर्य काल]] और कुषाण काल में [[मथुरा]] की अति उन्नत मूर्ति कला की अमूल्य धरोहर हैं। बुद्ध की जीवन-कथाओं में वर्णित है कि सिद्धार्थ ने कपिलवस्तु को छोड़ने के पश्चात् [[अनोमा नदी]] को अपने घोड़े कंथक पर पार किया था और यहीं से अपने परिचारक छंदक को विदा कर दिया था।
'''गौतम बुद्ध का मूल नाम''' '[[सिद्धार्थ]]' था। सिंहली, अनुश्रुति, [[खारवेल]] के [[अभिलेख]], [[अशोक]] के सिंहासनारोहण की तिथि, कैण्टन के अभिलेख आदि के आधार पर महात्मा बुद्ध की जन्म तिथि 563 ई.पूर्व स्वीकार की गयी है। इनका जन्म शाक्यवंश के राजा [[शुद्धोदन]] की रानी [[महामाया]] के गर्भ से [[लुम्बिनी]] में [[वैशाख]] [[पूर्णिमा]] के दिन हुआ था। [[शाक्य गणराज्य]] की राजधानी [[कपिलवस्तु]] के निकट [[लुम्बिनी]] में उनका जन्म हुआ। सिद्धार्थ के [[पिता]] शाक्यों के राजा शुद्धोधन थे। बुद्ध को '''शाक्य मुनि''' भी कहते हैं। सिद्धार्थ की माता मायादेवी उनके जन्म के कुछ देर बाद मर गई थी। कहा जाता है कि फिर एक [[ऋषि]] ने कहा कि वे या तो एक महान् राजा बनेंगे, या फिर एक महान् साधु। लुम्बिनी में, जो दक्षिण मध्य नेपाल में है, सम्राट [[अशोक]] ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में बुद्ध के जन्म की स्मृति में एक स्तम्भ बनवाया था। [[मथुरा]] में अनेक बौद्ध कालीन मूर्तियाँ मिली हैं। जो [[मौर्य काल]] और कुषाण काल में [[मथुरा]] की अति उन्नत मूर्ति कला की अमूल्य धरोहर हैं। बुद्ध की जीवन-कथाओं में वर्णित है कि सिद्धार्थ ने कपिलवस्तु को छोड़ने के पश्चात् [[अनोमा नदी]] को अपने घोड़े कंथक पर पार किया था और यहीं से अपने परिचारक छंदक को विदा कर दिया था।
====लुंबिनी ग्राम====
====लुंबिनी ग्राम====
[[चित्र:First-Bath-Of-Baby-Buddha-Mathura-Museum-4.jpg|thumb|250px|left|शिशु बुद्ध का प्रथम स्नान]]
{{Main|लुंबिनी}}
{{Main|लुंबिनी}}
[[कपिलवस्तु]] के पास ही लुम्बिनी ग्राम स्थित था, जहाँ पर गौतम बुद्ध का जन्म हुआ था। इसकी पहचान [[नेपाल]] की तराई में स्थित रूमिनदेई नामक ग्राम से की जाती है। [[बौद्ध धर्म]] का यह एक प्रमुख केन्द्र माना जाने लगा। [[अशोक]] अपने राज्य-काल के बीसवें वर्ष धर्मयात्रा करता हुआ लुम्बिनी पहुँचा था। उसने इस स्थान के चारों ओर पत्थर की दीवाल खड़ी कर दी। वहाँ उसने एक स्तंभ का निर्माण भी किया, जिस पर उसका एक लेख ख़ुदा हुआ है। यह स्तंभ अब भी अपनी जगह पर विद्यमान है। विद्वानों का ऐसा अनुमान है कि अशोक की यह लाट ठीक उसी जगह खड़ी है, जहाँ बुद्ध का जन्म हुआ था। अशोक ने वहाँ के निवासियों को कर में भारी छूट दे दी थी। जो तीर्थयात्री वहाँ आते थे, उन्हें अब यहाँ यात्रा-कर नहीं देना पड़ता था। वह कपिलवस्तु भी आया हुआ था गौतम बुद्ध के जिस स्तूप का निर्माण शाक्यों ने किया था, उसे उसने आकार में दुगुना करा दिया था।
[[कपिलवस्तु]] के पास ही लुम्बिनी ग्राम स्थित था, जहाँ पर गौतम बुद्ध का जन्म हुआ था। इसकी पहचान [[नेपाल]] की तराई में स्थित [[रूमिनदेई]] नामक ग्राम से की जाती है। [[बौद्ध धर्म]] का यह एक प्रमुख केन्द्र माना जाने लगा। [[अशोक]] अपने राज्य-काल के बीसवें [[वर्ष]] धर्मयात्रा करता हुआ लुम्बिनी पहुँचा था। उसने इस स्थान के चारों ओर पत्थर की दीवाल खड़ी कर दी। वहाँ उसने एक स्तंभ का निर्माण भी किया, जिस पर उसका एक लेख ख़ुदा हुआ है। यह स्तंभ अब भी अपनी जगह पर विद्यमान है। विद्वानों का ऐसा अनुमान है कि अशोक की यह लाट ठीक उसी जगह खड़ी है, जहाँ बुद्ध का जन्म हुआ था। अशोक ने वहाँ के निवासियों को कर में भारी छूट दे दी थी। जो तीर्थयात्री वहाँ आते थे, उन्हें अब यहाँ यात्रा-कर नहीं देना पड़ता था। वह कपिलवस्तु भी आया हुआ था। गौतम बुद्ध के जिस [[स्तूप]] का निर्माण शाक्यों ने किया था, उसे उसने आकार में दुगुना करा दिया था।
====भविष्यवाणी====
====भविष्यवाणी====
'''यह विधाता की लीला ही थी कि लुम्बिनी में''' जन्म लेने वाले बुद्ध को [[काशी]] में धर्म प्रवर्त्तन करना पड़ा। [[त्रिपिटक]] तथा जातकों से काशी के तत्कालीन राजनीतिक महत्त्व की सहज ही कल्पना हो जाती है। प्राचीन [[बौद्ध]] ग्रंथों में बुद्ध काल में (कम से कम पाँचवी शताब्दि ई.पूर्व) [[काशी]] की गणना [[चम्पा]], [[राजगृह]], [[श्रावस्ती]], [[साकेत (अयोध्या)|साकेत]] एवं [[कौशाम्बी]] जैसे प्रसिद्ध नगरों में होती थी।[[चित्र:buddha1.jpg|बुद्ध प्रतिमा, [[मथुरा संग्रहालय|राजकीय संग्रहालय]], [[मथुरा]]|thumb|200px|left]]  बुद्ध (सिद्धार्थ) के जन्म से पहले उनकी माता ने विचित्र सपने देखे थे। पिता शुद्धोदन ने 'आठ' भविष्य वक्ताओं से उनका अर्थ पूछा तो सभी ने कहा कि महामाया को अद्भुत पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी। यदि वह घर में रहा तो चक्रवर्ती सम्राट बनेगा और यदि उसने गृह त्याग किया तो संन्यासी बन जाएगा और अपने ज्ञान के प्रकाश से समस्त विश्व को आलोकित कर देगा। शुद्धोदन ने सिद्धार्थ को चक्रवर्ती सम्राट बनाना चाहा, उसमें क्षत्रियोचित गुण उत्पन्न करने के लिये समुचित शिक्षा का प्रबंध किया, किंतु सिद्धार्थ सदा किसी चिंता में डूबे दिखाई देते थे। अंत में पिता ने उन्हें विवाह बंधन में बांध दिया। एक दिन जब सिद्धार्थ रथ पर शहर भ्रमण के लिये निकले थे तो उन्होंने मार्ग में जो कुछ भी देखा उसने उनके जीवन की दिशा ही बदल डाली। एक बार एक दुर्बल वृद्ध व्यक्ति को, एक बार एक रोगी को और एक बार एक शव को देख कर वे संसार से और भी अधिक विरक्त तथा उदासीन हो गये। पर एक अन्य अवसर पर उन्होंने एक प्रसन्नचित्त संन्यासी को देखा। उसके चेहरे पर शांति और तेज़ की अपूर्व चमक विराजमान थी। सिद्धार्थ उस दृश्य को देख-कर अत्यधिक प्रभावित हुए।
'''यह विधाता की लीला ही थी कि लुम्बिनी में''' जन्म लेने वाले बुद्ध को [[काशी]] में धर्म प्रवर्तन करना पड़ा। [[त्रिपिटक]] तथा जातकों से काशी के तत्कालीन राजनीतिक महत्त्व की सहज ही कल्पना हो जाती है। प्राचीन [[बौद्ध]] ग्रंथों में बुद्ध काल में (कम से कम पाँचवी शताब्दि ई.पूर्व) [[काशी]] की गणना [[चम्पा]], [[राजगृह]], [[श्रावस्ती]], [[साकेत (अयोध्या)|साकेत]] एवं [[कौशाम्बी]] जैसे प्रसिद्ध नगरों में होती थी। बुद्ध (सिद्धार्थ) के जन्म से पहले उनकी [[माता]] ने विचित्र सपने देखे थे। पिता शुद्धोदन ने 'आठ' भविष्य वक्ताओं से उनका अर्थ पूछा तो सभी ने कहा कि [[महामाया]] को अद्भुत पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी। यदि वह घर में रहा तो [[चक्रवर्ती|चक्रवर्ती सम्राट]] बनेगा और यदि उसने गृह त्याग किया तो संन्यासी बन जाएगा और अपने ज्ञान के प्रकाश से समस्त विश्व को आलोकित कर देगा। शुद्धोदन ने सिद्धार्थ को चक्रवर्ती सम्राट बनाना चाहा, उसमें क्षत्रियोचित गुण उत्पन्न करने के लिये समुचित शिक्षा का प्रबंध किया, किंतु सिद्धार्थ सदा किसी चिंता में डूबे दिखाई देते थे। अंत में [[पिता]] ने उन्हें [[विवाह]] बंधन में बांध दिया। एक दिन जब सिद्धार्थ रथ पर शहर भ्रमण के लिये निकले थे तो उन्होंने मार्ग में जो कुछ भी देखा उसने उनके जीवन की दिशा ही बदल डाली। एक बार एक दुर्बल वृद्ध व्यक्ति को, एक बार एक रोगी को और एक बार एक शव को देख कर वे संसार से और भी अधिक विरक्त तथा उदासीन हो गये। पर एक अन्य अवसर पर उन्होंने एक प्रसन्नचित्त संन्यासी को देखा। उसके चेहरे पर शांति और तेज़ की अपूर्व चमक विराजमान थी। सिद्धार्थ उस दृश्य को देख-कर अत्यधिक प्रभावित हुए।
====गृहत्याग====
====गृहत्याग====
'''सिद्धार्थ के मन में निवृत्ति मार्ग के प्रति''' नि:सारता तथा निवृति मर्ण की ओर संतोष भावना उत्पन्न हो गयी। जीवन का यह सत्य सिद्धार्थ के जीवन का दर्शन बन गया। विवाह के दस वर्ष के उपरान्त उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। पुत्र जन्म का समाचार मिलते ही उनके मुँह से सहसा ही निकल पड़ा- 'राहु'- अर्थात बंधन। उन्होंने पुत्र का नाम 'राहुल' रखा। इससे पहले कि सांसारिक बंधन उन्हें छिन्न-विच्छिन्न करें, उन्होंने सांसारिक बंधनों को छिन्न-भिन्न करना प्रारंभ कर दिया और गृहत्याग करने का निश्चय किया। एक महान रात्रि को 29 वर्ष के युवक सिद्धार्थ ज्ञान प्रकाश की तृष्णा को तृप्त करने के लिये घर से बाहर निकल पड़े।
[[चित्र:buddha1.jpg|thumb|250px|बुद्ध प्रतिमा, [[मथुरा संग्रहालय|राजकीय संग्रहालय]], [[मथुरा]]]]
*कुछ विद्वानों का मत है कि गौतम ने यज्ञों में हो रही हिंसा के कारण गृहत्याग किया।
'''सिद्धार्थ के मन में निवृत्ति मार्ग के प्रति''' नि:सारता तथा निवृति मर्ण की ओर संतोष भावना उत्पन्न हो गयी। जीवन का यह सत्य सिद्धार्थ के जीवन का दर्शन बन गया। [[विवाह]] के दस वर्ष के उपरान्त उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। पुत्र जन्म का समाचार मिलते ही उनके मुँह से सहसा ही निकल पड़ा- 'राहु'- अर्थात् बंधन। उन्होंने पुत्र का नाम 'राहुल' रखा। इससे पहले कि सांसारिक बंधन उन्हें छिन्न-विच्छिन्न करें, उन्होंने सांसारिक बंधनों को छिन्न-भिन्न करना प्रारंभ कर दिया और गृहत्याग करने का निश्चय किया। एक महान् रात्रि को 29 वर्ष के युवक सिद्धार्थ ज्ञान प्रकाश की तृष्णा को तृप्त करने के लिये घर से बाहर निकल पड़े।
*कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार गौतम ने दूसरों के दुख को न सह सकने के कारण घर छोड़ा था।
*कुछ विद्वानों का मत है कि गौतम ने [[यज्ञ|यज्ञों]] में हो रही हिंसा के कारण गृहत्याग किया।
*कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार गौतम ने दूसरों के दु:ख को न सह सकने के कारण घर छोड़ा था।
====ज्ञान की प्राप्ति====
====ज्ञान की प्राप्ति====
[[चित्र:Buddha-Statue-Bodhgaya-Bihar.jpg|thumb|250px|बुद्ध प्रतिमा, [[बोधगया]], [[बिहार]]]]
'''गृहत्याग करने के बाद सिद्धार्थ ज्ञान की खोज में''' भटकने लगे। [[बिंबिसार]], उद्रक, आलार एवम् कालाम नामक सांख्योपदेशकों से मिलकर वे [[उरुवेला]] की रमणीय वनस्थली में जा पहुँचे। वहाँ उन्हें कौंडिल्य आदि पाँच साधक मिले। उन्होंने ज्ञान-प्राप्ति के लिये घोर साधना प्रारंभ कर दी। किंतु उसमें असफल होने पर वे [[गया]] के निकट एक [[पीपल]] के वृक्ष के नीचे आसन लगा कर बैठ गये और निश्चय कर लिया कि भले ही प्राण निकल जाए, मैं तब तक समाधिस्थ रहूँगा, जब तक ज्ञान न प्राप्त कर लूँ। सात [[दिन]] और सात रात्रि व्यतीत होने के बाद, आठवें दिन [[वैशाख पूर्णिमा]] को उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ और उसी दिन वे [[तथागत]] हो गये। जिस वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ वह आज भी 'बोधिवृक्ष' के नाम से विख्यात है। ज्ञान प्राप्ति के समय उनकी अवस्था 35 वर्ष थी। ज्ञान प्राप्ति के बाद 'तपस्सु' तथा 'काल्लिक' नामक दो [[शूद्र]] उनके पास आये। महात्मा बुद्ध नें उन्हें ज्ञान दिया और [[बौद्ध धर्म]] का प्रथम अनुयायी बनाया।  
'''गृहत्याग करने के बाद सिद्धार्थ ज्ञान की खोज में''' भटकने लगे। बिंबिसार, उद्रक, आलार एवम् कालाम नामक सांख्योपदेशकों से मिलकर वे उरुवेला की रमणीय वनस्थली में जा पहुँचे। वहाँ उन्हें कौंडिल्य आदि पाँच साधक मिले। उन्होंने ज्ञान-प्राप्ति के लिये घोर साधना प्रारंभ कर दी। किंतु उसमें असफल होने पर वे [[गया]] के निकट एक वटवृक्ष के नीचे आसन लगा कर बैठ गये और निश्चय कर लिया कि भले ही प्राण निकल जाए, मैं तब तक समाधिस्त रहूँगा, जब तक ज्ञान न प्राप्त कर लूँ। सात दिन और सात रात्रि व्यतीत होने के बाद, आठवें दिन [[वैशाख]] [[पूर्णिमा]] को उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ और उसी दिन वे तथागत हो गये। जिस वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ वह आज भी 'बोधिवृक्ष' के नाम से विख्यात है। ज्ञान प्राप्ति के समय उनकी अवस्था 35 वर्ष थी। ज्ञान प्राप्ति के बाद 'तपस्सु' तथा 'काल्लिक' नामक दो शूद्र उनके पास आये। महात्मा बुद्ध नें उन्हें ज्ञान दिया और [[बौद्ध धर्म]] का प्रथम अनुयायी बनाया।  
[[चित्र:Buddha-Statue-Bodhgaya-Bihar.jpg|thumb|250px|left|बुद्ध प्रतिमा, [[बोधगया]], [[बिहार]]]]
बोधगया से चल कर वे [[सारनाथ]] पहुँचे तथा वहाँ अपने पूर्वकाल के पाँच साथियों को उपदेश देकर अपना शिष्य बना दिया। बौद्ध परंपरा में यह उपदेश 'धर्मचक्र प्रवर्त्तन' नाम से विख्यात है। महात्मा बुद्ध ने कहा कि इन दो अतियों से सदैव बचना चाहिये-<br />
[[बोधगया]] से चल कर वे [[सारनाथ]] पहुँचे तथा वहाँ अपने पूर्वकाल के पाँच साथियों को उपदेश देकर अपना शिष्य बना दिया। बौद्ध परंपरा में यह उपदेश 'धर्मचक्र प्रवर्तन' नाम से विख्यात है। महात्मा बुद्ध ने कहा कि इन दो अतियों से सदैव बचना चाहिये-
*काम सुखों में अधिक लिप्त होना तथा
*काम सुखों में अधिक लिप्त होना तथा
*शरीर से कठोर साधना करना। उन्हें छोड़ कर जो मध्यम मार्ग मैंने खोजा है, उसका सेवन करना चाहिये।<ref>विनय पिटक 1, 10</ref>
*शरीर से कठोर साधना करना। उन्हें छोड़ कर जो मध्यम मार्ग मैंने खोजा है, उसका सेवन करना चाहिये।<ref>विनय पिटक 1, 10</ref>
यही उपदेश इनका 'धर्मचक्र प्रवर्तन' के रूप में पहला उपदेश था। अपने पाँच अनुयाइयों के साथ वे [[वाराणसी]] पहुँचे। यहाँ उन्होंने एक श्रेष्ठि पुत्र को अपना अनुयायी बनाया तथा पूर्णरुप से 'धर्म प्रवर्त्तन' में जुट गये। अब तक उत्तर [[भारत]] में इनका काफ़ी नाम हो गया था और अनेक अनुयायी बन गये थे। कई वर्षों बाद महाराज शुद्धोदन ने इन्हें देखने के लिये कपिलवस्तु बुलवाना चाहा, लेकिन जो भी इन्हें बुलाने आता वह स्वयं इनके उपदेश सुन कर इनका अनुयायी बन जाता था। इनके शिष्य घूम-घूम कर इनका प्रचार करते थे।
यही उपदेश इनका 'धर्मचक्र प्रवर्तन' के रूप में पहला उपदेश था। अपने पाँच अनुयाइयों के साथ वे [[वाराणसी]] पहुँचे। यहाँ उन्होंने एक श्रेष्ठि पुत्र को अपना अनुयायी बनाया तथा पूर्णरुप से 'धर्म प्रवर्त्तन' में जुट गये। अब तक [[उत्तर भारत]] में इनका काफ़ी नाम हो गया था और अनेक अनुयायी बन गये थे। कई वर्षों बाद महाराज [[शुद्धोदन]] ने इन्हें देखने के लिये कपिलवस्तु बुलवाना चाहा, लेकिन जो भी इन्हें बुलाने आता वह स्वयं इनके उपदेश सुन कर इनका अनुयायी बन जाता था। इनके शिष्य घूम-घूम कर इनका प्रचार करते थे।
{{seealso|बोधगया|सारनाथ}}
{{seealso|बोधगया|सारनाथ}}
==बुद्ध की शिक्षा==
==बुद्ध की शिक्षा==
'''मनुष्य जिन दु:खों से पीड़ित है, उनमें बहुत बड़ा हिस्सा''' ऐसे दु:खों का है, जिन्हें मनुष्य ने अपने अज्ञान, ग़लत ज्ञान या मिथ्या दृष्टियों से पैदा कर लिया हैं उन दु:खों का प्रहाण अपने सही ज्ञान द्वारा ही सम्भव है, किसी के आशीर्वाद या वरदान से उन्हें दूर नहीं किया जा सकता। सत्य या यथार्थता का ज्ञान ही सम्यक ज्ञान है। अत: सत्य की खोज दु:खमोक्ष के लिए परमावश्यक है। [[चित्र:Buddha-Sarnath-1.jpg|left|बौद्ध भिक्षुओं को शिक्षा देते हुए भगवान बुद्ध |thumb|250px]] खोज अज्ञात सत्य की ही की जा सकती है। यदि सत्य किसी शास्त्र, आगम या उपदेशक द्वारा ज्ञात हो गया है तो उसकी खोज नहीं। अत: बुद्ध ने अपने पूर्ववर्ती लोगों द्वारा या परम्परा द्वारा बताए सत्य को नकार दिया और अपने लिए नए सिरे से उसकी खोज की। बुद्ध स्वयं कहीं प्रतिबद्ध नहीं हुए और न तो अपने शिष्यों को उन्होंने कहीं बांधा। उन्होंने कहा कि मेरी बात को भी इसलिए चुपचाप न मान लो कि उसे बुद्ध ने कही है। उस पर भी सन्देह करो और विविध परीक्षाओं द्वारा उसकी परीक्षा करो। जीवन की कसौटी पर उन्हें परखो, अपने अनुभवों से मिलान करो, यदि तुम्हें सही जान पड़े तो स्वीकार करो, अन्यथा छोड़ दो। यही कारण था कि उनका धर्म रहस्याडम्बरों से मुक्त, मानवीय संवेदनाओं से ओतप्रोत एवं हृदय को सीधे स्पर्श करता था।
[[चित्र:Buddha-Sarnath-1.jpg|thumb|250px|बौद्ध भिक्षुओं को शिक्षा देते हुए भगवान बुद्ध]]
'''मनुष्य जिन दु:खों से पीड़ित है, उनमें बहुत बड़ा हिस्सा''' ऐसे दु:खों का है, जिन्हें मनुष्य ने अपने अज्ञान, ग़लत ज्ञान या मिथ्या दृष्टियों से पैदा कर लिया हैं उन दु:खों का प्रहाण अपने सही ज्ञान द्वारा ही सम्भव है, किसी के आशीर्वाद या वरदान से उन्हें दूर नहीं किया जा सकता। सत्य या यथार्थता का ज्ञान ही सम्यक ज्ञान है। अत: सत्य की खोज दु:ख मोक्ष के लिए परमावश्यक है। खोज अज्ञात सत्य की ही की जा सकती है। यदि सत्य किसी शास्त्र, आगम या उपदेशक द्वारा ज्ञात हो गया है तो उसकी खोज, खोज नहीं। अत: बुद्ध ने अपने पूर्ववर्ती लोगों द्वारा या परम्परा द्वारा बताए सत्य को नकार दिया और अपने लिए नए सिरे से उसकी खोज की। बुद्ध स्वयं कहीं प्रतिबद्ध नहीं हुए और न तो अपने शिष्यों को उन्होंने कहीं बांधा। उन्होंने कहा कि मेरी बात को भी इसलिए चुपचाप न मान लो कि उसे बुद्ध ने कही है। उस पर भी सन्देह करो और विविध परीक्षाओं द्वारा उसकी परीक्षा करो। जीवन की कसौटी पर उन्हें परखो, अपने अनुभवों से मिलान करो, यदि तुम्हें सही जान पड़े तो स्वीकार करो, अन्यथा छोड़ दो। यही कारण था कि उनका धर्म रहस्याडम्बरों से मुक्त, मानवीय संवेदनाओं से ओतप्रोत एवं [[हृदय]] को सीधे स्पर्श करता था।
====त्रिविध धर्मचक्र प्रवर्तन====
====त्रिविध धर्मचक्र प्रवर्तन====
'''भगवान बुद्ध प्रज्ञा व करुणा की मूर्ति थे'''। ये दोनों गुण उनमें उत्कर्ष की पराकाष्ठा प्राप्त कर समरस होकर स्थित थे। इतना ही नहीं, भगवान बुद्ध अत्यन्त उपायकुशल भी थे। उपाय कौशल बुद्ध का एक विशिष्ट गुण है अर्थात वे विविध प्रकार के विनेय जनों को विविध उपायों से सन्मार्ग पर आरूढ़ करने में अत्यन्त प्रवीण थे। वे यह भलीभाँति जानते थे कि किसे किस उपाय से सन्मार्ग पर आरूढ़ किया जा सकता है। फलत: वे विनेय जनों के विचार, रूचि, अध्याशय, स्वभाव, क्षमता और परिस्थिति के अनुरूप उपदेश दिया करते थे। भगवान बुद्ध की दूसरी विशेषता यह है कि वे सन्मार्ग के उपदेश द्वारा ही अपने जगत्कल्याण के कार्य का सम्पादन करते हैं, न कि वरदान या ऋद्धि के बल से, जैसे कि [[शिव]] या [[विष्णु]] आदि के बारे में अनेक कथाएँ [[पुराण|पुराणों]] में प्रचलित हैं। उनका कहना है कि तथागत तो मात्र उपदेष्टा हैं, कृत्यसम्पादन तो स्वयं साधक व्यक्ति को ही करना है। वे जिसका कल्याण करना चाहते हैं, उसे धर्मों (पदार्थों) की यथार्थता का उपदेश देते थे। भगवान बुद्ध ने भिन्न-भिन्न समय और भिन्न-भिन्न स्थानों में विनेय जनों को अनन्त उपदेश दिये थे। सबके विषय, प्रयोजन और पात्र भिन्न-भिन्न थे। ऐसा होने पर भी समस्त उपदेशों का अन्तिम लक्ष्य एक ही था और वह था विनेय जनों को दु:खों से मुक्ति की ओर ले जाना। मोक्ष या निर्वाण ही उनके समस्त उपदेशों का एकमात्र रस है।
'''भगवान बुद्ध प्रज्ञा व करुणा की मूर्ति थे'''। ये दोनों गुण उनमें उत्कर्ष की पराकाष्ठा प्राप्त कर समरस होकर स्थित थे। इतना ही नहीं, भगवान बुद्ध अत्यन्त उपायकुशल भी थे। उपाय कौशल बुद्ध का एक विशिष्ट गुण है अर्थात् वे विविध प्रकार के विनेय जनों को विविध उपायों से सन्मार्ग पर आरूढ़ करने में अत्यन्त प्रवीण थे। वे यह भलीभाँति जानते थे कि किसे किस उपाय से सन्मार्ग पर आरूढ़ किया जा सकता है। फलत: वे विनेय जनों के विचार, रुचि, अध्याशय, स्वभाव, क्षमता और परिस्थिति के अनुरूप उपदेश दिया करते थे। भगवान बुद्ध की दूसरी विशेषता यह है कि वे सन्मार्ग के उपदेश द्वारा ही अपने जगत्कल्याण के कार्य का सम्पादन करते हैं, न कि वरदान या ऋद्धि के बल से, जैसे कि [[शिव]] या [[विष्णु]] आदि के बारे में अनेक कथाएँ [[पुराण|पुराणों]] में प्रचलित हैं। उनका कहना है कि तथागत तो मात्र उपदेष्टा हैं, कृत्यसम्पादन तो स्वयं साधक व्यक्ति को ही करना है। वे जिसका कल्याण करना चाहते हैं, उसे धर्मों (पदार्थों) की यथार्थता का उपदेश देते थे। भगवान बुद्ध ने भिन्न-भिन्न समय और भिन्न-भिन्न स्थानों में विनेय जनों को अनन्त उपदेश दिये थे। सबके विषय, प्रयोजन और पात्र भिन्न-भिन्न थे। ऐसा होने पर भी समस्त उपदेशों का अन्तिम लक्ष्य एक ही था और वह था विनेय जनों को दु:खों से मुक्ति की ओर ले जाना। मोक्ष या निर्वाण ही उनके समस्त उपदेशों का एकमात्र रस है।
 
==बौद्ध धर्म का प्रचार==
==बौद्ध धर्म का प्रचार==
{{Main|बौद्ध धर्म}}
{{Main|बौद्ध धर्म}}
[[चित्र:Buddhism-Symbol.jpg|thumb|200px|[[बौद्ध धर्म]] का प्रतीक]]
बौद्ध धर्म [[भारत]] की श्रमण परम्परा से निकला [[धर्म]] और [[दर्शन शास्त्र|दर्शन]] है। इसके संस्थापक महात्मा बुद्ध, शाक्यमुनि (गौतम बुद्ध) थे। वे छठवीं से पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व तक जीवित थे। उनके गुज़रने के बाद अगली पाँच शताब्दियों में, बौद्ध धर्म पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैला, और अगले दो हज़ार सालों में मध्य, पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी जम्बू महाद्वीप में भी फैल गया। [[चित्र:Buddhism-Symbol.jpg|thumb|left|[[बौद्ध धर्म]] का प्रतीक]] आज, बौद्ध धर्म में तीन मुख्य सम्प्रदाय हैं: [[थेरवाद]], [[महायान]] और [[वज्रयान]]। बौद्ध धर्म को पैंतीस करोड़ से अधिक लोग मानते हैं और यह दुनिया का चौथा सबसे बड़ा धर्म है।
बौद्ध धर्म [[भारत]] की श्रमण परम्परा से निकला [[धर्म]] और [[दर्शन शास्त्र|दर्शन]] है। इसके संस्थापक महात्मा बुद्ध, शाक्यमुनि (गौतम बुद्ध) थे। वे छठवीं से पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व तक जीवित थे। उनके गुज़रने के बाद अगली पाँच शताब्दियों में, बौद्ध धर्म पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फ़ैला, और अगले दो हज़ार सालों में मध्य, पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी जम्बू महाद्वीप में भी फ़ैल गया। आज, बौद्ध धर्म में तीन मुख्य सम्प्रदाय हैं: थेरवाद, महायान और [[वज्रयान]]। बौद्ध धर्म को पैंतीस करोड़ से अधिक लोग मानते हैं और यह दुनिया का चौथा सबसे बड़ा धर्म है।
====सारनाथ====
====सारनाथ====
{{Main|सारनाथ}}
{{Main|सारनाथ}}
सारनाथ [[काशी]] से सात मील पूर्वोत्तर में स्थित बौद्धों का प्राचीन तीर्थ है, ज्ञान प्राप्त करने के बाद भगवान [[बुद्ध]] ने प्रथम उपदेश यहाँ दिया था, यहाँ से ही उन्होंने "धर्म चक्र प्रवर्तन" प्रारम्भ किया, यहाँ पर सारंगनाथ महादेव का मन्दिर है, यहाँ [[सावन]] के महीने में हिन्दुओं का मेला लगता है। यह [[जैन]] तीर्थ है और जैन ग्रन्थों में इसे सिंहपुर बताया है। सारनाथ की दर्शनीय वस्तुयें-[[अशोक]] का चतुर्मुख सिंहस्तम्भ, भगवान बुद्ध का मन्दिर, धमेख [[स्तूप]], चौखन्डी स्तूप, राजकीय संग्राहलय, जैन मन्दिर, चीनी मन्दिर, मूलंगधकुटी और नवीन विहार हैं, [[मुहम्मद ग़ोरी|मुहम्मद गौरी]] ने इसे लगभग ख़त्म कर दिया था, सन 1905 में पुरातत्त्व विभाग ने यहाँ खुदाई का काम किया, उस समय [[बौद्ध]] धर्म के अनुयायों और इतिहासवेत्ताओं का ध्यान इस पर गया।
सारनाथ [[काशी]] से सात मील पूर्वोत्तर में स्थित बौद्धों का प्राचीन तीर्थ है, ज्ञान प्राप्त करने के बाद भगवान [[बुद्ध]] ने प्रथम उपदेश यहाँ दिया था, यहाँ से ही उन्होंने "धर्म चक्र प्रवर्तन" प्रारम्भ किया, यहाँ पर सारंगनाथ महादेव का मन्दिर है, यहाँ [[सावन]] के महीने में [[हिन्दू|हिन्दुओं]] का मेला लगता है। यह [[जैन]] तीर्थ है और जैन ग्रन्थों में इसे सिंहपुर बताया है। [[सारनाथ]] की दर्शनीय वस्तुयें-[[अशोक]] का चतुर्मुख सिंहस्तम्भ, भगवान बुद्ध का मन्दिर, [[धमेख स्तूप]], चौखन्डी स्तूप, राजकीय संग्राहलय, जैन मन्दिर, चीनी मन्दिर, मूलंगधकुटी और नवीन विहार हैं, [[मुहम्मद ग़ोरी|मुहम्मद गौरी]] ने इसे लगभग ख़त्म कर दिया था, सन् 1905 में [[पुरातत्त्व]] विभाग ने यहाँ खुदाई का काम किया, उस समय [[बौद्ध]] धर्म के अनुयायों और इतिहासवेत्ताओं का ध्यान इस पर गया।
====ब्रज (मथुरा)====
====ब्रज (मथुरा)====
[[चित्र:Buddha-Image-Installed-by-Kayastha-Bhatti-Priya-Mathura-Museum-3.jpg|thumb|250px|कायस्थ भट्टिप्रिय द्वारा स्थापित बुद्ध प्रतिमा, [[मथुरा संग्रहालय]]]]
[[चित्र:Buddha-Image-Installed-by-Kayastha-Bhatti-Priya-Mathura-Museum-3.jpg|thumb|250px|कायस्थ भट्टिप्रिय द्वारा स्थापित बुद्ध प्रतिमा, [[मथुरा संग्रहालय]]]]
{{Main|मथुरा}}
{{Main|मथुरा}}
[[मथुरा]] और बौद्ध धर्म का घनिष्ठ संबंध था। जो [[बुद्ध]] के जीवन-काल से [[कुषाण काल|कुषाण-काल]] तक अक्षु्ण रहा। '[[अंगुत्तरनिकाय]]' के अनुसार भगवान बुद्ध एक बार मथुरा आये थे और यहाँ उपदेश भी दिया था।<ref>अंगुत्तनिकाय, भाग 2, पृ 57; तत्रैव, भाग 3,पृ 257</ref> 'वेरंजक-ब्राह्मण-सुत्त' में भगवान् बुद्ध के द्वारा मथुरा से वेरंजा तक यात्रा किए जाने का वर्णन मिलता है।<ref>भरत सिंह उपापध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृ 109</ref> पालि विवरण से यह ज्ञात होता है कि बुद्धत्व प्राप्ति के बारहवें वर्ष में ही बुद्ध ने मथुरा नगर की यात्रा की थी। <ref>[[दिव्यावदान]], पृ 348 में उल्लिखित है कि भगवान बुद्ध ने अपने परिनिर्वाण काल से कुछ पहले ही मथुरा की यात्रा की थी। भगवान्......परिनिर्वाणकालसमये..........मथुरामनुप्राप्त:।'' [[पालि भाषा|पालि]] परंपरा से इसका मेल बैठाना कठिन है।</ref> मथुरा से लौटकर बुद्ध वेरंजा आये फिर उन्होंने श्रावस्ती की यात्रा की। <ref>उल्लेखनीय है कि वेरंजा उत्तरापथ मार्ग पर पड़ने वाला बुद्धकाल में एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव था, जो मथुरा और सोरेय्य के मध्य स्थित था।</ref> भगवान बुद्ध के शिष्य [[महाकाच्यायन]] मथुरा में बौद्ध धर्म का प्रचार करने आए थे। इस नगर में [[अशोक]] के गुरु उपगुप्त<ref>वी ए स्मिथ, अर्ली हिस्ट्री ऑफ इंडिया (चतुर्थ संस्करण), पृ 199</ref>, [[ध्रुव]] ([[स्कंद पुराण]], काशी खंड, अध्याय 20), एवं प्रख्यात गणिका वासवदत्ता<ref>मथुरायां वासवदत्ता नाम गणिकां।' दिव्यावदान (कावेल एवं नीलवाला संस्करण), पृ 352</ref> भी निवास करती थी। मथुरा राज्य का देश के दूसरे भागों से व्यापारिक संबंध था। मथुरा उत्तरापथ और दक्षिणापथ दोनों भागों से जुड़ा हुआ था।<ref>आर सी शर्मा, बुद्धिस्ट् आर्ट आफ मथुरा, पृ 5</ref> राजगृह से [[तक्षशिला]] जाने वाले उस समय के व्यापारिक मार्ग में यह नगर स्थित था।<ref>भरत सिंह उपाध्याय, बुद्धिकालीन भारतीय भूगोल, पृ 440</ref>
[[मथुरा]] और [[बौद्ध धर्म]] का घनिष्ठ संबंध था। जो [[बुद्ध]] के जीवन-काल से [[कुषाण काल|कुषाण-काल]] तक अक्षु्ण रहा। '[[अंगुत्तरनिकाय]]' के अनुसार भगवान बुद्ध एक बार मथुरा आये थे और यहाँ उपदेश भी दिया था।<ref>अंगुत्तनिकाय, भाग 2, पृ 57; तत्रैव, भाग 3,पृ 257</ref> 'वेरंजक-ब्राह्मण-सुत्त' में भगवान् बुद्ध के द्वारा मथुरा से वेरंजा तक यात्रा किए जाने का वर्णन मिलता है।<ref>भरत सिंह उपापध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृ 109</ref> पालि विवरण से यह ज्ञात होता है कि बुद्धत्व प्राप्ति के बारहवें वर्ष में ही बुद्ध ने मथुरा नगर की यात्रा की थी। <ref>[[दिव्यावदान]], पृ 348 में उल्लिखित है कि भगवान बुद्ध ने अपने परिनिर्वाण काल से कुछ पहले ही मथुरा की यात्रा की थी। भगवान्...परिनिर्वाणकालसमये...मथुरामनुप्राप्त:।'' [[पालि भाषा|पालि]] परंपरा से इसका मेल बैठाना कठिन है।</ref> मथुरा से लौटकर बुद्ध वेरंजा आये फिर उन्होंने श्रावस्ती की यात्रा की। <ref>उल्लेखनीय है कि वेरंजा उत्तरापथ मार्ग पर पड़ने वाला बुद्धकाल में एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव था, जो मथुरा और सोरेय्य के मध्य स्थित था।</ref> भगवान बुद्ध के शिष्य [[महाकाच्यायन]] मथुरा में बौद्ध धर्म का प्रचार करने आए थे। इस नगर में [[अशोक]] के गुरु उपगुप्त<ref>वी ए स्मिथ, अर्ली हिस्ट्री ऑफ इंडिया (चतुर्थ संस्करण), पृ 199</ref>, [[ध्रुव]] ([[स्कंद पुराण]], काशी खंड, अध्याय 20), एवं प्रख्यात गणिका वासवदत्ता<ref>मथुरायां वासवदत्ता नाम गणिकां।' दिव्यावदान (कावेल एवं नीलवाला संस्करण), पृ 352</ref> भी निवास करती थी। मथुरा राज्य का देश के दूसरे भागों से व्यापारिक संबंध था। मथुरा उत्तरापथ और दक्षिणापथ दोनों भागों से जुड़ा हुआ था।<ref>आर सी शर्मा, बुद्धिस्ट् आर्ट आफ मथुरा, पृ 5</ref> राजगृह से [[तक्षशिला]] जाने वाले उस समय के व्यापारिक मार्ग में यह नगर स्थित था।<ref>भरत सिंह उपाध्याय, बुद्धिकालीन भारतीय भूगोल, पृ 440</ref>
 
====सांकाश्य====
====सांकाश्य====
{{Main|सांकाश्य}}
{{Main|सांकाश्य}}
गौतम बुद्ध के जीवन काल में सांकाश्य ख्याति प्राप्त नगर था। पाली कथाओं के अनुसार यहीं बुद्ध त्रयस्त्रिंश स्वर्ग से अवतरित होकर आए थे। इस स्वर्ग में वे अपनी माता तथा तैंतीस देवताओं को अभिधम्म की शिक्षा देने गए थे। [[पालि भाषा|पाली]] दंतकथाओं के अनुसार बुद्ध तीन सीढ़ियों द्वारा स्वर्ग से उतरे थे और उनके साथ [[ब्रह्मा]] और शक भी थे। इस घटना से संबन्ध होने के कारण बौद्ध, सांकाश्य को पवित्र तीर्थ मानते थे और इसी कारण यहाँ अनेक [[स्तूप]] एवं विहार आदि का निर्माण हुआ था। यह उनके जीवन की चार आश्चर्यजनक घटनाओं में से एक मानी जाती है। सांकाश्य ही में बुद्ध ने अपने प्रमुख शिष्य आन्नद के कहने से स्त्रियों की प्रव्रज्या पर लगाई हुई रोक को तोड़ा था और भिक्षुणी उत्पलवर्णा को दीक्षा देकर स्त्रियों के लिए भी बौद्ध संघ का द्वार खोल दिया था। पालिग्रंथ अभिधानप्पदीपिका में संकस्स (सांकाश्य) की उत्तरी [[भारत]] के बीस प्रमुख नगरों में गणना की गई है। पाणिनी ने <ref>पाली कथाओं 4,2,80</ref> में सांकाश्य की स्थिति इक्षुमती नदी पर कहीं है जो संकिसा के पास बहने वाली ईखन है।
गौतम बुद्ध के जीवन काल में सांकाश्य ख्याति प्राप्त नगर था। पाली कथाओं के अनुसार यहीं बुद्ध त्रयस्त्रिंश स्वर्ग से अवतरित होकर आए थे। इस स्वर्ग में वे अपनी माता तथा तैंतीस देवताओं को अभिधम्म की शिक्षा देने गए थे। [[पालि भाषा|पाली]] दंतकथाओं के अनुसार बुद्ध तीन सीढ़ियों द्वारा स्वर्ग से उतरे थे और उनके साथ [[ब्रह्मा]] और शक भी थे। इस घटना से संबन्ध होने के कारण बौद्ध, सांकाश्य को पवित्र तीर्थ मानते थे और इसी कारण यहाँ अनेक [[स्तूप]] एवं विहार आदि का निर्माण हुआ था। यह उनके जीवन की चार आश्चर्यजनक घटनाओं में से एक मानी जाती है। सांकाश्य ही में बुद्ध ने अपने प्रमुख शिष्य आन्नद के कहने से स्त्रियों की प्रव्रज्या पर लगाई हुई रोक को तोड़ा था और भिक्षुणी उत्पलवर्णा को दीक्षा देकर स्त्रियों के लिए भी बौद्ध संघ का द्वार खोल दिया था। पालिग्रंथ अभिधानप्पदीपिका में संकस्स (सांकाश्य) की उत्तरी [[भारत]] के बीस प्रमुख नगरों में गणना की गई है। [[पाणिनी]] ने <ref>पाली कथाओं 4,2,80</ref> में सांकाश्य की स्थिति [[इक्षुमती नदी]] पर कहीं है जो संकिसा के पास बहने वाली ईखन है।
====कौशांबी====
====कौशांबी====
[[चित्र:Kushinagar-1.jpg|thumb|बौद्ध भिक्षु ध्यान स्थली, [[कुशीनगर]]|250px]]
{{मुख्य|कौशांबी}}
{{मुख्य|कौशांबी}}
उदयन के समय में गौतम बुद्ध कौशांबी में अक्सर आते-जाते रहते थे। उनके सम्बन्ध के कारण कौशांबी के अनेक स्थान सैकड़ों वर्षों तक प्रसिद्ध रहे। [[बुद्धचरित]] 21,33 के अनुसार कौशांबी में, बुद्ध ने धनवान, घोषिल, कुब्जोत्तरा तथा अन्य महिलाओं तथा पुरुषों को दीक्षित किया था। यहाँ के विख्यात श्रेष्ठी घोषित (सम्भवतः बुद्धचरित का घोषिल) ने '''घोषिताराम''' नाम का एक सुन्दर उद्यान बुद्ध के निवास के लिए बनवाया था। घोषित का भवन नगर के दक्षिण-पूर्वी कोने में था। घोषिताराम के निकट ही [[अशोक]] का बनवाया हुआ 150 हाथ ऊँचा स्तूप था। इसी विहारवन के दक्षिण-पूर्व में एक भवन था जिसके एक भाग में आचार्य वसुबंधु रहते थे। इन्होंने '''विज्ञप्ति मात्रता सिद्धि''' नामक ग्रंथ की रचना की थी। इसी वन के पूर्व में वह मकान था जहाँ [[आर्य]] असंग ने अपने ग्रंथ '''योगाचारभूमि''' की रचना की थी।
[[उदयन]] के समय में गौतम बुद्ध कौशांबी में अक्सर आते-जाते रहते थे। उनके सम्बन्ध के कारण कौशांबी के अनेक स्थान सैकड़ों वर्षों तक प्रसिद्ध रहे। [[बुद्धचरित]] 21,33 के अनुसार कौशांबी में, बुद्ध ने धनवान, घोषिल, कुब्जोत्तरा तथा अन्य महिलाओं तथा पुरुषों को दीक्षित किया था। [[चित्र:Kushinagar-1.jpg|thumb|250px|left|बौद्ध भिक्षु ध्यान स्थली, [[कुशीनगर]]]] यहाँ के विख्यात श्रेष्ठी घोषित (सम्भवतः बुद्धचरित का घोषिल) ने '[[घोषिताराम]]' नाम का एक सुन्दर उद्यान बुद्ध के निवास के लिए बनवाया था। घोषित का भवन नगर के दक्षिण-पूर्वी कोने में था। घोषिताराम के निकट ही [[अशोक]] का बनवाया हुआ 150 हाथ ऊँचा स्तूप था। इसी विहारवन के दक्षिण-पूर्व में एक भवन था जिसके एक भाग में आचार्य वसुबंधु रहते थे। इन्होंने '''विज्ञप्ति मात्रता सिद्धि''' नामक ग्रंथ की रचना की थी। इसी वन के पूर्व में वह मकान था जहाँ [[आर्य]] असंग ने अपने ग्रंथ '''योगाचारभूमि''' की रचना की थी।
 
====वैरंजा====
====वैरंजा====
{{मुख्य|वैरंजा}}
{{मुख्य|वैरंजा}}
[[बुद्धचरित]] 21, 27 में [[बुद्ध]] का इस अनभिज्ञात नगर में पहुँचकर 'विरिंच' नामक व्यक्ति को [[धर्म]] की दीक्षा देने का उल्लेख है। यहाँ के [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]] का [[बौद्ध]] साहित्य में उल्लेख है। गौतम बुद्ध यहाँ पर ठहरे थे और उन्होंने इस नगर के निवासियों के समक्ष प्रवचन भी किया था।
[[बुद्धचरित]] 21, 27 में [[बुद्ध]] का इस अनभिज्ञात नगर में पहुँचकर 'विरिंच' नामक व्यक्ति को [[धर्म]] की दीक्षा देने का उल्लेख है। यहाँ के [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]] का [[बौद्ध]] साहित्य में उल्लेख है। गौतम बुद्ध यहाँ पर ठहरे थे और उन्होंने इस नगर के निवासियों के समक्ष प्रवचन भी किया था। भगवान गौतम बुद्ध के असंख्य अनुयायी बन चुके थे, लेकिन इन अनुयायियों में ब्राह्मणों की एक बहुत बड़ी संख्या थी। इस प्रकार बुद्ध के प्रवचनों तथा उनकी शिक्षाओं का ब्राह्मणों पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा था।
====कान्यकुब्ज====
====कान्यकुब्ज====
{{मुख्य|कान्यकुब्ज}}
{{मुख्य|कान्यकुब्ज}}
[[युवानच्वांग]] लिखता है कि कान्यकुब्ज के पश्चिमोत्तर में [[अशोक]] का बनवाया हुआ एक [[स्तूप]] था, जहाँ पर पूर्वकथा के अनुसार [[गौतम बुद्ध]] ने सात दिन ठहकर प्रवचन किया था। इस विशाल स्तूप के पास ही अन्य छोटे स्तूप भी थे, और एक विहार में बुद्ध का दाँत भी सुरक्षित था, जिसके दर्शन के लिए सैकड़ों यात्री आते थे। युवानच्वांग ने कान्यकुब्ज के दक्षिणपूर्व में अशोक द्वारा निर्मित एक अन्य [[स्तूप]] का भी वर्णन किया है जो कि दो सौ फुट ऊँचा था। किंवदन्ती है कि गौतम बुद्ध इस स्थान पर छः मास तक ठहरे थे।
[[युवानच्वांग]] लिखता है कि कान्यकुब्ज के पश्चिमोत्तर में [[अशोक]] का बनवाया हुआ एक [[स्तूप]] था, जहाँ पर पूर्वकथा के अनुसार [[गौतम बुद्ध]] ने सात दिन ठहकर प्रवचन किया था। इस विशाल स्तूप के पास ही अन्य छोटे स्तूप भी थे, और एक विहार में बुद्ध का दाँत भी सुरक्षित था, जिसके दर्शन के लिए सैकड़ों यात्री आते थे। युवानच्वांग ने कान्यकुब्ज के दक्षिणपूर्व में अशोक द्वारा निर्मित एक अन्य [[स्तूप]] का भी वर्णन किया है जो कि दो सौ फुट ऊँचा था। किंवदन्ती है कि गौतम बुद्ध इस स्थान पर छह मास तक ठहरे थे।
[[चित्र:Kashi-Map.jpg|thumb|150px|[[काशी महाजनपद]]]]
====वाराणसी====
====वाराणसी====
[[चित्र:Kashi-Map.jpg|thumb|200px|[[काशी महाजनपद]]]]
{{मुख्य|वाराणसी}}
{{मुख्य|वाराणसी}}
[[बौद्ध साहित्य]] से पता चलता है कि बुद्ध [[वाराणसी]] में कई बार ठहरे थे। बौद्ध ग्रंथों में वाराणसी का उल्लेख [[काशी]] जनपद की राजधानी के रूप में हुआ है।<ref>सुमंगलविलासिनी, जिल्द 2, पृष्ठ 383</ref> बुद्ध पूर्व काल में काशी एक समृद्ध एवं स्वतंत्र राज्य था। इसका साक्ष्य देते हुए स्वयं बुद्ध ने इसकी प्रशंसा की है।<ref>‘‘भूतपुब्बं भिक्खवे ब्रह्मदत्ते नाम काशिराजा अहोसि अड्ढो महद्धनो महब्बलो, महाबाहनो, महाविजितो, परिपुण्णकोसकोट्ठामारो।’’<br />महाबग्गो (विनयपिटक), दुतियो भागो, पृष्ठ 262</ref>
[[बौद्ध साहित्य]] से पता चलता है कि बुद्ध [[वाराणसी]] में कई बार ठहरे थे। बौद्ध ग्रंथों में वाराणसी का उल्लेख [[काशी]] जनपद की राजधानी के रूप में हुआ है।<ref>सुमंगलविलासिनी, जिल्द 2, पृष्ठ 383</ref> बुद्ध पूर्व काल में काशी एक समृद्ध एवं स्वतंत्र राज्य था। इसका साक्ष्य देते हुए स्वयं बुद्ध ने इसकी प्रशंसा की है।<ref>‘‘भूतपुब्बं भिक्खवे ब्रह्मदत्ते नाम काशिराजा अहोसि अड्ढो महद्धनो महब्बलो, महाबाहनो, महाविजितो, परिपुण्णकोसकोट्ठामारो।’’<br />महाबग्गो (विनयपिटक), दुतियो भागो, पृष्ठ 262</ref>
 
==बौद्ध धर्म के अन्य अनुयायी==
====ह्वेन त्सांग====
[[चित्र:Xuanzang.jpg|thumb|[[ह्वेन त्सांग]]|x300px]]
{{Main|ह्वेन त्सांग}}
[[भारत]] में ह्वेन त्सांग ने बुद्ध के जीवन से जुड़े सभी पवित्र स्थलों का भ्रमण किया और उपमहाद्वीप के पूर्व एवं पश्चिम से लगे इलाक़ो की भी यात्रा की। उन्होंने अपना अधिकांश समय नालंदा मठ में बिताया, जो बौद्ध शिक्षा का प्रमुख केंद्र था, जहाँ उन्होंने [[संस्कृत]], [[बौद्ध दर्शन]] एवं भारतीय चिंतन में दक्षता हासिल की। इसके बाद ह्वेन त्सांग ने अपना जीवन बौद्ध धर्मग्रंथों के [[अनुवाद]] में लगा दिया जो 657 ग्रंथ थे और 520 पेटियों में भारत से लाए गए थे। इस विशाल खंड के केवल छोटे से हिस्से (1330 अध्यायों में क़रीब 73 ग्रंथ) के ही अनुवाद में महायान के कुछ अत्यधिक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ शामिल हैं।
====मिलिंद (मिनांडर)====
{{Main|मिलिंद (मिनांडर)}}
उत्तर-पश्चिम [[भारत]] का 'हिन्दी-यूनानी' राजा 'मनेन्दर' 165-130 ई. पू. लगभग (भारतीय उल्लेखों के अनुसार '[[मिलिंद (मिनांडर)|मिलिन्द]]') था। प्रथम पश्चिमी राजा जिसने [[बौद्ध धर्म]] अपनाया और [[मथुरा]] पर शासन किया। भारत में राज्य करते हुए वह [[बौद्ध]] श्रमणों के सम्पर्क में आया और आचार्य [[नागसेन]] से उसने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। [[चित्र:Menandros-Coin.jpg|thumb|150px|left|[[मिलिंद (मिनांडर)]] का सिक्का]] बौद्ध ग्रंथों में उसका नाम 'मिलिन्द' आया है। 'मिलिन्द पञ्हो' नाम के पालि ग्रंथ में उसके [[बौद्ध धर्म]] को स्वीकृत करने का विवरण दिया गया है। मिनान्डर के अनेक सिक्कों पर बौद्ध धर्म के 'धर्मचक्र' प्रवर्तन का चिह्न '[[धर्मचक्र]]' बना हुआ है, और उसने अपने नाम के साथ 'ध्रमिक' (धार्मिक) विशेषण दिया है।
====फ़ाह्यान====
{{Main|फ़ाह्यान}}
'''फ़ाह्यान''' का जन्म [[चीन]] के 'वु-वंग' नामक स्थान पर हुआ था। यह [[बौद्ध धर्म]] का अनुयायी था। उसने लगभग 399 ई. में अपने कुछ मित्रों 'हुई-चिंग', 'ताओंचेंग', 'हुई-मिंग', 'हुईवेई' के साथ [[भारत]] यात्रा प्रारम्भ की। फ़ाह्यान की भारत यात्रा का उदेश्य बौद्ध हस्तलिपियों एवं बौद्ध स्मृतियों को खोजना था। इसीलिए फ़ाह्यान ने उन्हीं स्थानों के भ्रमण को महत्त्व दिया, जो बौद्ध धर्म से सम्बन्धित थे।
====अशोक ====
[[चित्र:Ashoka.jpg|thumb|[[अशोक]]|100px]]
{{Main|अशोक}}
सम्राट अशोक को अपने विस्तृत साम्राज्य के बेहतर कुशल प्रशासन तथा [[बौद्ध धर्म]] के प्रचार के लिए जाना जाता है। जीवन के उत्तरार्ध में अशोक [[गौतम बुद्ध]] के भक्त हो गए और उन्हीं (महात्मा बुद्ध) की स्मृति में उन्होंने एक स्तम्भ खड़ा कर दिया जो आज भी [[नेपाल]] में उनके जन्मस्थल-[[लुम्बिनी]] में मायादेवी मन्दिर के पास [[अशोक स्‍तम्‍भ]] के रूप में देखा जा सकता है। उसने बौद्ध धर्म का प्रचार भारत के अलावा [[श्रीलंका]], [[अफ़ग़ानिस्तान]], पश्चिम एशिया, [[मिस्र]] तथा [[यूनान]] में भी करवाया। [[अशोक के अभिलेख|अशोक के अभिलेखों]] में प्रजा के प्रति कल्याणकारी द्रष्टिकोण की अभिव्यक्ति की गई है।
====कनिष्क ====
{{Main|कनिष्क}}
[[कुषाण]] राजा कनिष्क के विशाल साम्राज्य में विविध धर्मों के अनुयायी विभिन्न लोगों का निवास था, और उसने अपनी प्रजा को संतुष्ट करने के लिए सब धर्मों के देवताओं को अपने सिक्कों पर अंकित कराया था। पर इस बात में कोई सन्देह नहीं कि कनिष्क [[बौद्ध धर्म]] का अनुयायी था, और बौद्ध इतिहास में उसका नाम [[अशोक]] के समान ही महत्त्व रखता है। आचार्य [[अश्वघोष]] ने उसे बौद्ध धर्म में दीक्षित किया था। इस आचार्य को वह [[पाटलिपुत्र]] से अपने साथ लाया था, और इसी से उसने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी।
==बुद्ध प्रतिमाएँ==
==बुद्ध प्रतिमाएँ==
'''मथुरा के कुषाण शासक, जिनमें से अधिकांश ने''' [[बौद्ध धर्म]] को प्रोत्साहित किया, मूर्ति निर्माण के पक्षपाती थे। यद्यपि [[कुषाण|कुषाणों]] के पूर्व भी [[मथुरा]] में बौद्ध धर्म एवं अन्य धर्म से सम्बन्धित प्रतिमाओं का निर्माण किया गया था। विदित हुआ है कि कुषाण काल में मथुरा उत्तर [[भारत]] में सबसे बड़ा मूर्ति निर्माण का केन्द्र था और यहाँ विभिन्न धर्मों सम्बन्धित मूर्तियों का अच्छा भण्डार था। इस काल के पहले बुद्ध की स्वतंत्र मूर्ति नहीं मिलती है। बुद्ध का पूजन इस काल से पूर्व विविध प्रतीक चिन्हों के रूप में मिलता है। परन्तु कुषाण काल के प्रारम्भ से [[महायान]] भक्ति, पंथ भक्ति उत्पत्ति के साथ नागरिकों में बुद्ध की सैकड़ों मूर्तियों का निर्माण होने लगा। बुद्ध के पूर्व जन्म की जातक कथायें  भी पत्थरों पर उत्कीर्ण होने लगी। मथुरा से बौद्ध धर्म सम्बन्धी जो अवशेष मिले हैं, उनमें प्राचीन धार्मिक एवं लौकिक जीवन के अध्ययन की अपार सामग्री है। मथुरा कला के विकास के साथ–साथ बुद्ध एवं बौधित्सव की सुन्दर मूर्तियों का निर्माण हुआ। गुप्त कालीन बुद्ध प्रतिमाओं में अंग प्रत्यंग के कला पूर्ण विन्यास के साथ एक दिव्य सौन्दर्य एवं आध्यात्मिक गांभीर्य का समन्वय मिलता है।
[[चित्र:Lower-Part-Of-Buddha-Mathura-Museum-25.jpg|thumb|180px|बुद्ध प्रतिमा का निचला भाग, [[मथुरा]]]]
'''मथुरा के कुषाण शासक, जिनमें से अधिकांश ने''' [[बौद्ध धर्म]] को प्रोत्साहित किया, मूर्ति निर्माण के पक्षपाती थे। यद्यपि [[कुषाण|कुषाणों]] के पूर्व भी [[मथुरा]] में बौद्ध धर्म एवं अन्य धर्म से सम्बन्धित प्रतिमाओं का निर्माण किया गया था। विदित हुआ है कि कुषाण काल में मथुरा उत्तर [[भारत]] में सबसे बड़ा मूर्ति निर्माण का केन्द्र था और यहाँ विभिन्न धर्मों सम्बन्धित मूर्तियों का अच्छा भण्डार था। इस काल के पहले बुद्ध की स्वतंत्र मूर्ति नहीं मिलती है। बुद्ध का पूजन इस काल से पूर्व विविध प्रतीक चिह्नों के रूप में मिलता है। परन्तु कुषाण काल के प्रारम्भ से [[महायान]] भक्ति, पंथ भक्ति उत्पत्ति के साथ नागरिकों में बुद्ध की सैकड़ों मूर्तियों का निर्माण होने लगा। बुद्ध के पूर्व जन्म की जातक कथायें  भी पत्थरों पर उत्कीर्ण होने लगी। मथुरा से बौद्ध धर्म सम्बन्धी जो अवशेष मिले हैं, उनमें प्राचीन धार्मिक एवं लौकिक जीवन के अध्ययन की अपार सामग्री है। मथुरा कला के विकास के साथ–साथ बुद्ध एवं बौधित्सव की सुन्दर मूर्तियों का निर्माण हुआ। गुप्त कालीन बुद्ध प्रतिमाओं में अंग प्रत्यंग के कला पूर्ण विन्यास के साथ एक दिव्य सौन्दर्य एवं आध्यात्मिक गांभीर्य का समन्वय मिलता है।
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==अंतिम उपदेश एवं परिनिर्वाण==
==अंतिम उपदेश एवं परिनिर्वाण==
[[चित्र:Kushinagar.jpg|thumb|250px|बुद्ध, [[कुशीनगर]]]]
'''बौद्ध धर्म का प्रचार बुद्ध के जीवन काल में ही''' काफ़ी हो गया था, क्योंकि उन दिनों कर्मकांड का ज़ोर काफ़ी बढ़ चुका था और पशुओं की हत्या बड़ी संख्या में हो रही थी। इन्होंने इस निरर्थक हत्या को रोकने तथा जीव मात्र पर दया करने का उपदेश दिया। [[चित्र:Kushinagar.jpg|thumb|250px|left|बुद्ध, [[कुशीनगर]]]] प्राय: 44 वर्ष तक बिहार तथा काशी के निकटवर्त्ती प्रांतों में धर्म प्रचार करने के उपरांत अंत में [[कुशीनगर]] के निकट एक वन में शाल वृक्ष के नीचे वृद्धावस्था में इनका परिनिर्वाण अर्थात् शरीरांत हुआ। मृत्यु से पूर्व उन्होंने कुशीनारा के परिव्राजक सुभच्छ को अपना अन्तिम उपदेश दिया।
'''बौद्ध धर्म का प्रचार बुद्ध के जीवन काल में ही''' काफ़ी हो गया था, क्योंकि उन दिनों कर्मकांड का जोर काफ़ी बढ़ चुका था और पशुओं की हत्या बड़ी संख्या में हो रही थी। इन्होंने इस निरर्थक हत्या को रोकने तथा जीव मात्र पर दया करने का उपदेश दिया। प्राय: 44 वर्ष तक बिहार तथा काशी के निकटवर्त्ती प्रांतों में धर्म प्रचार करने के उपरांत अंत में [[कुशीनगर]] के निकट एक वन में शाल वृक्ष के नीचे वृद्धावस्था में इनका परिनिर्वाण अर्थात शरीरांत हुआ। मृत्यु से पूर्व उन्होंने कुशीनारा के परिव्राजक सुभच्छ को अपना अन्तिम उपदेश दिया।
====कुशीनगर====
====कुशीनगर====
{{Main|कुशीनगर}}
{{Main|कुशीनगर}}
कुशीनगर [[बुद्ध]] के महापरिनिर्वाण का स्थान है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर ज़िले से 51 किमी की दूरी पर स्थित है। बौद्ध ग्रंथ महावंश<ref>महावंश2,6</ref> में कुशीनगर का नाम इसी कारण कुशावती भी कहा गया है। [[बौद्ध]] काल में यही नाम कुशीनगर या [[पालि भाषा|पाली]] में कुसीनारा हो गया। एक अन्य बौद्ध किंवदंती के अनुसार [[तक्षशिला]] के [[इक्ष्वाकु]] वंशी राजा तालेश्वर का पुत्र तक्षशिला से अपनी राजधानी हटाकर कुशीनगर ले आया था। उसकी वंश परम्परा में बारहवें राजा सुदिन्न के समय तक यहाँ राजधानी रही। इनके बीच में कुश और महादर्शन नामक दो प्रतापी राजा हुए जिनका उल्लेख [[गौतम बुद्ध]] ने<ref>(महादर्शनसुत्त के अनुसार)</ref> किया था।
कुशीनगर [[बुद्ध]] के महापरिनिर्वाण का स्थान है। [[उत्तर प्रदेश]] के [[गोरखपुर ज़िला|गोरखपुर ज़िले]] से 51 किमी की दूरी पर स्थित है। बौद्ध ग्रंथ [[महावंश]]<ref>[[महावंश]] 2,6</ref> में कुशीनगर का नाम इसी कारण कुशावती भी कहा गया है। [[बौद्ध]] काल में यही नाम कुशीनगर या [[पालि भाषा|पाली]] में कुसीनारा हो गया। एक अन्य बौद्ध किंवदंती के अनुसार [[तक्षशिला]] के [[इक्ष्वाकु]] वंशी राजा तालेश्वर का पुत्र [[तक्षशिला]] से अपनी राजधानी हटाकर कुशीनगर ले आया था। उसकी वंश परम्परा में बारहवें राजा सुदिन्न के समय तक यहाँ राजधानी रही। इनके बीच में कुश और महादर्शन नामक दो प्रतापी राजा हुए जिनका उल्लेख [[गौतम बुद्ध]] ने<ref>महादर्शनसुत्त के अनुसार</ref> किया था।
====मुख से निकले अंतिम शब्द====
====मुख से निकले अंतिम शब्द====  
भगवान बुद्ध ने जो अंतिम शब्द अपने मुख से कहे थे, वे इस प्रकार थे-
भगवान बुद्ध ने जो अंतिम शब्द अपने मुख से कहे थे, वे इस प्रकार थे-
<blockquote>"हे भिक्षुओं, इस समय आज तुमसे इतना ही कहता हूँ कि जितने भी [[संस्कार]] हैं, सब नाश होने वाले हैं, प्रमाद रहित हो कर अपना कल्याण करो।" यह 483 ई. पू. की घटना है। वे अस्सी वर्ष के थे।<ref>हदं हानि भिक्खये, आमंतयामि वो, वयध्म्मा संखारा, अप्पमादेन सम्पादेया -महापरिनिब्वान सुत्त, 235</ref></blockquote>
<blockquote>"हे भिक्षुओं, इस समय आज तुमसे इतना ही कहता हूँ कि जितने भी [[संस्कार]] हैं, सब नाश होने वाले हैं, प्रमाद रहित हो कर अपना कल्याण करो।" यह 483 ई. पू. की घटना है। वे अस्सी वर्ष के थे।<ref>हदं हानि भिक्खये, आमंतयामि वो, वयध्म्मा संखारा, अप्पमादेन सम्पादेया -महापरिनिब्वान सुत्त, 235</ref></blockquote>
 
{{seealso|महात्मा बुद्ध के प्रेरक प्रसंग}}
==बुद्ध के अन्य नाम==
==बुद्ध के अन्य नाम==
[[चित्र:Buddha-Statue-Bodhgaya-Bihar-2.jpg|thumb|250px|बुद्ध प्रतिमा, बोधगया, [[बिहार]]]]
[[चित्र:Buddha-National-Museum-Delhi-4.jpg|thumb|बुद्ध प्रतिमा, [[राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली|राष्ट्रीय संग्रहालय]], [[दिल्ली]]]]
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|+ भगवान बुद्ध के अन्य नाम
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==वीथिका==
==वीथिका==
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चित्र:Buddha-Statue-Bodhgaya-Bihar-2.jpg|बुद्ध प्रतिमा, [[बोधगया]], [[बिहार]]
चित्र:Buddha-In-Meditation-Mathura-Museum-2.jpg|ध्यानावस्थित बुद्ध
चित्र:Buddha-In-Meditation-Mathura-Museum-2.jpg|ध्यानावस्थित बुद्ध
चित्र:Buddha-Mathura-Museum-46.jpg|बुद्ध
चित्र:Buddha-Mathura-Museum-46.jpg|बुद्ध
चित्र:Lower-Part-Of-Buddha-Mathura-Museum-25.jpg|बुद्ध प्रतिमा का निचला भाग
चित्र:First-Bath-Of-Baby-Buddha-Mathura-Museum-4.jpg|शिशु बुद्ध का प्रथम स्नान
चित्र:Kushinagar-1.jpg|बौद्ध भिक्षु ध्यान स्थली, [[कुशीनगर]]
चित्र:Relief-Showing-Buddha's-Descent-From-Trayastrimsa-Heaven-Mathura-Museum-47.jpg|बुद्ध
चित्र:Relief-Showing-Buddha's-Descent-From-Trayastrimsa-Heaven-Mathura-Museum-47.jpg|बुद्ध
चित्र:Standing-Buddha-in-Abhaya-Mathura-Museum-6.jpg|अभय मुद्रा में खड़े भगवान बुद्ध
चित्र:Standing-Buddha-in-Abhaya-Mathura-Museum-6.jpg|अभय मुद्रा में खड़े भगवान बुद्ध
चित्र:Slab-Showing-Scenes-of-Buddhas-Life-Mathura-Museum-39.jpg|बुद्ध
चित्र:Slab-Showing-Scenes-of-Buddhas-Life-Mathura-Museum-39.jpg|बुद्ध
चित्र:Buddhist-Centers-Map.jpg|[[उत्तर प्रदेश]] के प्रमुख बौद्ध केंद्र
चित्र:Buddhist-Centers-Map.jpg|[[उत्तर प्रदेश]] के प्रमुख बौद्ध केंद्र
चित्र:Buddha-National-Museum-Delhi-2.jpg|बुद्ध प्रतिमा, [[राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली|राष्ट्रीय संग्रहालय]], [[दिल्ली]]
चित्र:Buddha-National-Museum-Delhi-3.jpg|बुद्ध प्रतिमा, [[राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली|राष्ट्रीय संग्रहालय]], [[दिल्ली]]
चित्र:Buddha-Ashes.jpg|बुद्ध के अवशेष, [[राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली|राष्ट्रीय संग्रहालय]], [[दिल्ली]]
चित्र:Buddha's-Ashes-Stupa.jpg|बुद्ध के परिनिर्वाण के पश्चात् [[लिच्छवी]] द्वारा [[वैशाली]] में बनवाया गया अस्थि स्तूप
चित्र:Chinese-Buddhist-Temple-1.jpg|[[सारनाथ]] में स्थित चीनी बौद्ध मंदिर, [[उत्तर प्रदेश]]
चित्र:Buddha-Sarnath.jpg|बुद्ध प्रतिमा, [[सारनाथ]]
चित्र:Buddha-Kushinagar.jpg|बुद्ध, [[राजकीय संग्रहालय मथुरा|संग्रहालय मथुरा]] में उपलब्ध भिक्षु यशदिन्न द्वारा निर्मित स्थापित बुद्ध प्रतिमा की अनुकृति
चित्र:Buddha-Head-Kushinagar.jpg|बुद्ध मस्तक, [[कुशीनगर]]
चित्र:Buddha-2.jpg|बुद्ध, [[राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली|राष्ट्रीय संग्रहालय]], [[दिल्ली]]
चित्र:Buddha-1.jpg|बुद्ध, [[राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली|राष्ट्रीय संग्रहालय]], [[दिल्ली]]
चित्र:Buddhist-Golden-Temple.jpg|बौद्ध स्वर्ण मंदिर में बुद्ध की प्रतिमा, [[कर्नाटक]]
चित्र:Buddha-Footprints-Bodhgaya.jpg|बुद्ध के पैरों के निशान, [[बोधगया]]
चित्र:Buddha-Ajanta Caves.jpg|[[बुद्ध|भगवान बुद्ध की प्रतिमा]], [[अजंता की गुफ़ाएं|अजंता गुफ़ा]]
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{{संदर्भ ग्रंथ}}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
<references/>
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
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बुद्ध विषय सूची
संक्षिप्त परिचय
बुद्ध
पारदर्शी चीवर धारण किए हुए बुद्ध
पारदर्शी चीवर धारण किए हुए बुद्ध
अन्य नाम सिद्धार्थ, गौतम बुद्ध, महात्मा बुद्ध, शाक्य मुनि
अवतार भगवान विष्णु के दस अवतारों में नौवें अवतार
पिता राजा शुद्धोदन
माता रानी महामाया
जन्म विवरण 563 ईसा पूर्व, लुम्बिनी (कपिलवस्तु)
धर्म-संप्रदाय बौद्ध धर्म- 'थेरवाद', 'महायान', 'वज्रयान'
विवाह यशोधरा
संतान राहुल
शासन-राज्य शाक्य गणराज्य
अन्य विवरण बौद्ध धर्म को पैंतीस करोड़ से अधिक लोग मानते हैं और यह दुनिया का चौथा सबसे बड़ा धर्म है।
मृत्यु 483 ईसा पूर्व, कुशीनगर (आयु- 80 वर्ष)
संबंधित लेख सारनाथ, सांकाश्य, कौशांबी, वैरंजा, कान्यकुब्ज
जयंती वैशाख की पूर्णिमा (बुद्ध पूर्णिमा)
अंतिम शब्द "हे भिक्षुओं, इस समय आज तुमसे इतना ही कहता हूँ कि जितने भी संस्कार हैं, सब नाश होने वाले हैं, प्रमाद रहित हो कर अपना कल्याण करो।"[1]
अन्य जानकारी मथुरा में अनेक बौद्ध कालीन मूर्तियाँ मिली हैं। जो मौर्य काल और कुषाण काल में मथुरा की अति उन्नत मूर्ति कला की अमूल्य धरोहर हैं।

बुद्ध (अंग्रेज़ी: Buddha) को 'गौतम बुद्ध', 'महात्मा बुद्ध' आदि नामों से भी जाना जाता है। वे संसार प्रसिद्ध बौद्ध धर्म के संस्थापक माने जाते हैं। बौद्ध धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला धर्म और दर्शन है। आज बौद्ध धर्म सारे संसार के चार बड़े धर्मों में से एक है। इसके अनुयायियों की संख्या दिन-प्रतिदिन आज भी बढ़ रही है। इस धर्म के संस्थापक बुद्ध राजा शुद्धोदन के पुत्र थे और इनका जन्म स्थान लुम्बिनी नामक ग्राम था। वे छठवीं से पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व तक जीवित थे। उनके गुज़रने के बाद अगली पाँच शताब्दियों में, बौद्ध धर्म पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैल गया और अगले दो हज़ार सालों में मध्य, पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी जम्बू महाद्वीप में भी फैल गया। आज बौद्ध धर्म में तीन मुख्य सम्प्रदाय हैं- 'थेरवाद', 'महायान' और 'वज्रयान'। बौद्ध धर्म को पैंतीस करोड़ से अधिक लोग मानते हैं और यह दुनिया का चौथा सबसे बड़ा धर्म है।

बुद्ध का उल्लेख इन लेखों में भी है: बिम्बिसार, बोधगया, मधुवन, पिपरावा एवं पाटलिपुत्र

जीवन परिचय

जन्म

गौतम बुद्ध का मूल नाम 'सिद्धार्थ' था। सिंहली, अनुश्रुति, खारवेल के अभिलेख, अशोक के सिंहासनारोहण की तिथि, कैण्टन के अभिलेख आदि के आधार पर महात्मा बुद्ध की जन्म तिथि 563 ई.पूर्व स्वीकार की गयी है। इनका जन्म शाक्यवंश के राजा शुद्धोदन की रानी महामाया के गर्भ से लुम्बिनी में वैशाख पूर्णिमा के दिन हुआ था। शाक्य गणराज्य की राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी में उनका जन्म हुआ। सिद्धार्थ के पिता शाक्यों के राजा शुद्धोधन थे। बुद्ध को शाक्य मुनि भी कहते हैं। सिद्धार्थ की माता मायादेवी उनके जन्म के कुछ देर बाद मर गई थी। कहा जाता है कि फिर एक ऋषि ने कहा कि वे या तो एक महान् राजा बनेंगे, या फिर एक महान् साधु। लुम्बिनी में, जो दक्षिण मध्य नेपाल में है, सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में बुद्ध के जन्म की स्मृति में एक स्तम्भ बनवाया था। मथुरा में अनेक बौद्ध कालीन मूर्तियाँ मिली हैं। जो मौर्य काल और कुषाण काल में मथुरा की अति उन्नत मूर्ति कला की अमूल्य धरोहर हैं। बुद्ध की जीवन-कथाओं में वर्णित है कि सिद्धार्थ ने कपिलवस्तु को छोड़ने के पश्चात् अनोमा नदी को अपने घोड़े कंथक पर पार किया था और यहीं से अपने परिचारक छंदक को विदा कर दिया था।

लुंबिनी ग्राम

शिशु बुद्ध का प्रथम स्नान

कपिलवस्तु के पास ही लुम्बिनी ग्राम स्थित था, जहाँ पर गौतम बुद्ध का जन्म हुआ था। इसकी पहचान नेपाल की तराई में स्थित रूमिनदेई नामक ग्राम से की जाती है। बौद्ध धर्म का यह एक प्रमुख केन्द्र माना जाने लगा। अशोक अपने राज्य-काल के बीसवें वर्ष धर्मयात्रा करता हुआ लुम्बिनी पहुँचा था। उसने इस स्थान के चारों ओर पत्थर की दीवाल खड़ी कर दी। वहाँ उसने एक स्तंभ का निर्माण भी किया, जिस पर उसका एक लेख ख़ुदा हुआ है। यह स्तंभ अब भी अपनी जगह पर विद्यमान है। विद्वानों का ऐसा अनुमान है कि अशोक की यह लाट ठीक उसी जगह खड़ी है, जहाँ बुद्ध का जन्म हुआ था। अशोक ने वहाँ के निवासियों को कर में भारी छूट दे दी थी। जो तीर्थयात्री वहाँ आते थे, उन्हें अब यहाँ यात्रा-कर नहीं देना पड़ता था। वह कपिलवस्तु भी आया हुआ था। गौतम बुद्ध के जिस स्तूप का निर्माण शाक्यों ने किया था, उसे उसने आकार में दुगुना करा दिया था।

भविष्यवाणी

यह विधाता की लीला ही थी कि लुम्बिनी में जन्म लेने वाले बुद्ध को काशी में धर्म प्रवर्तन करना पड़ा। त्रिपिटक तथा जातकों से काशी के तत्कालीन राजनीतिक महत्त्व की सहज ही कल्पना हो जाती है। प्राचीन बौद्ध ग्रंथों में बुद्ध काल में (कम से कम पाँचवी शताब्दि ई.पूर्व) काशी की गणना चम्पा, राजगृह, श्रावस्ती, साकेत एवं कौशाम्बी जैसे प्रसिद्ध नगरों में होती थी। बुद्ध (सिद्धार्थ) के जन्म से पहले उनकी माता ने विचित्र सपने देखे थे। पिता शुद्धोदन ने 'आठ' भविष्य वक्ताओं से उनका अर्थ पूछा तो सभी ने कहा कि महामाया को अद्भुत पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी। यदि वह घर में रहा तो चक्रवर्ती सम्राट बनेगा और यदि उसने गृह त्याग किया तो संन्यासी बन जाएगा और अपने ज्ञान के प्रकाश से समस्त विश्व को आलोकित कर देगा। शुद्धोदन ने सिद्धार्थ को चक्रवर्ती सम्राट बनाना चाहा, उसमें क्षत्रियोचित गुण उत्पन्न करने के लिये समुचित शिक्षा का प्रबंध किया, किंतु सिद्धार्थ सदा किसी चिंता में डूबे दिखाई देते थे। अंत में पिता ने उन्हें विवाह बंधन में बांध दिया। एक दिन जब सिद्धार्थ रथ पर शहर भ्रमण के लिये निकले थे तो उन्होंने मार्ग में जो कुछ भी देखा उसने उनके जीवन की दिशा ही बदल डाली। एक बार एक दुर्बल वृद्ध व्यक्ति को, एक बार एक रोगी को और एक बार एक शव को देख कर वे संसार से और भी अधिक विरक्त तथा उदासीन हो गये। पर एक अन्य अवसर पर उन्होंने एक प्रसन्नचित्त संन्यासी को देखा। उसके चेहरे पर शांति और तेज़ की अपूर्व चमक विराजमान थी। सिद्धार्थ उस दृश्य को देख-कर अत्यधिक प्रभावित हुए।

गृहत्याग

बुद्ध प्रतिमा, राजकीय संग्रहालय, मथुरा

सिद्धार्थ के मन में निवृत्ति मार्ग के प्रति नि:सारता तथा निवृति मर्ण की ओर संतोष भावना उत्पन्न हो गयी। जीवन का यह सत्य सिद्धार्थ के जीवन का दर्शन बन गया। विवाह के दस वर्ष के उपरान्त उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। पुत्र जन्म का समाचार मिलते ही उनके मुँह से सहसा ही निकल पड़ा- 'राहु'- अर्थात् बंधन। उन्होंने पुत्र का नाम 'राहुल' रखा। इससे पहले कि सांसारिक बंधन उन्हें छिन्न-विच्छिन्न करें, उन्होंने सांसारिक बंधनों को छिन्न-भिन्न करना प्रारंभ कर दिया और गृहत्याग करने का निश्चय किया। एक महान् रात्रि को 29 वर्ष के युवक सिद्धार्थ ज्ञान प्रकाश की तृष्णा को तृप्त करने के लिये घर से बाहर निकल पड़े।

  • कुछ विद्वानों का मत है कि गौतम ने यज्ञों में हो रही हिंसा के कारण गृहत्याग किया।
  • कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार गौतम ने दूसरों के दु:ख को न सह सकने के कारण घर छोड़ा था।

ज्ञान की प्राप्ति

गृहत्याग करने के बाद सिद्धार्थ ज्ञान की खोज में भटकने लगे। बिंबिसार, उद्रक, आलार एवम् कालाम नामक सांख्योपदेशकों से मिलकर वे उरुवेला की रमणीय वनस्थली में जा पहुँचे। वहाँ उन्हें कौंडिल्य आदि पाँच साधक मिले। उन्होंने ज्ञान-प्राप्ति के लिये घोर साधना प्रारंभ कर दी। किंतु उसमें असफल होने पर वे गया के निकट एक पीपल के वृक्ष के नीचे आसन लगा कर बैठ गये और निश्चय कर लिया कि भले ही प्राण निकल जाए, मैं तब तक समाधिस्थ रहूँगा, जब तक ज्ञान न प्राप्त कर लूँ। सात दिन और सात रात्रि व्यतीत होने के बाद, आठवें दिन वैशाख पूर्णिमा को उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ और उसी दिन वे तथागत हो गये। जिस वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ वह आज भी 'बोधिवृक्ष' के नाम से विख्यात है। ज्ञान प्राप्ति के समय उनकी अवस्था 35 वर्ष थी। ज्ञान प्राप्ति के बाद 'तपस्सु' तथा 'काल्लिक' नामक दो शूद्र उनके पास आये। महात्मा बुद्ध नें उन्हें ज्ञान दिया और बौद्ध धर्म का प्रथम अनुयायी बनाया।

बुद्ध प्रतिमा, बोधगया, बिहार

बोधगया से चल कर वे सारनाथ पहुँचे तथा वहाँ अपने पूर्वकाल के पाँच साथियों को उपदेश देकर अपना शिष्य बना दिया। बौद्ध परंपरा में यह उपदेश 'धर्मचक्र प्रवर्तन' नाम से विख्यात है। महात्मा बुद्ध ने कहा कि इन दो अतियों से सदैव बचना चाहिये-

  • काम सुखों में अधिक लिप्त होना तथा
  • शरीर से कठोर साधना करना। उन्हें छोड़ कर जो मध्यम मार्ग मैंने खोजा है, उसका सेवन करना चाहिये।[2]

यही उपदेश इनका 'धर्मचक्र प्रवर्तन' के रूप में पहला उपदेश था। अपने पाँच अनुयाइयों के साथ वे वाराणसी पहुँचे। यहाँ उन्होंने एक श्रेष्ठि पुत्र को अपना अनुयायी बनाया तथा पूर्णरुप से 'धर्म प्रवर्त्तन' में जुट गये। अब तक उत्तर भारत में इनका काफ़ी नाम हो गया था और अनेक अनुयायी बन गये थे। कई वर्षों बाद महाराज शुद्धोदन ने इन्हें देखने के लिये कपिलवस्तु बुलवाना चाहा, लेकिन जो भी इन्हें बुलाने आता वह स्वयं इनके उपदेश सुन कर इनका अनुयायी बन जाता था। इनके शिष्य घूम-घूम कर इनका प्रचार करते थे। इन्हें भी देखें: बोधगया एवं सारनाथ

बुद्ध की शिक्षा

बौद्ध भिक्षुओं को शिक्षा देते हुए भगवान बुद्ध

मनुष्य जिन दु:खों से पीड़ित है, उनमें बहुत बड़ा हिस्सा ऐसे दु:खों का है, जिन्हें मनुष्य ने अपने अज्ञान, ग़लत ज्ञान या मिथ्या दृष्टियों से पैदा कर लिया हैं उन दु:खों का प्रहाण अपने सही ज्ञान द्वारा ही सम्भव है, किसी के आशीर्वाद या वरदान से उन्हें दूर नहीं किया जा सकता। सत्य या यथार्थता का ज्ञान ही सम्यक ज्ञान है। अत: सत्य की खोज दु:ख मोक्ष के लिए परमावश्यक है। खोज अज्ञात सत्य की ही की जा सकती है। यदि सत्य किसी शास्त्र, आगम या उपदेशक द्वारा ज्ञात हो गया है तो उसकी खोज, खोज नहीं। अत: बुद्ध ने अपने पूर्ववर्ती लोगों द्वारा या परम्परा द्वारा बताए सत्य को नकार दिया और अपने लिए नए सिरे से उसकी खोज की। बुद्ध स्वयं कहीं प्रतिबद्ध नहीं हुए और न तो अपने शिष्यों को उन्होंने कहीं बांधा। उन्होंने कहा कि मेरी बात को भी इसलिए चुपचाप न मान लो कि उसे बुद्ध ने कही है। उस पर भी सन्देह करो और विविध परीक्षाओं द्वारा उसकी परीक्षा करो। जीवन की कसौटी पर उन्हें परखो, अपने अनुभवों से मिलान करो, यदि तुम्हें सही जान पड़े तो स्वीकार करो, अन्यथा छोड़ दो। यही कारण था कि उनका धर्म रहस्याडम्बरों से मुक्त, मानवीय संवेदनाओं से ओतप्रोत एवं हृदय को सीधे स्पर्श करता था।

त्रिविध धर्मचक्र प्रवर्तन

भगवान बुद्ध प्रज्ञा व करुणा की मूर्ति थे। ये दोनों गुण उनमें उत्कर्ष की पराकाष्ठा प्राप्त कर समरस होकर स्थित थे। इतना ही नहीं, भगवान बुद्ध अत्यन्त उपायकुशल भी थे। उपाय कौशल बुद्ध का एक विशिष्ट गुण है अर्थात् वे विविध प्रकार के विनेय जनों को विविध उपायों से सन्मार्ग पर आरूढ़ करने में अत्यन्त प्रवीण थे। वे यह भलीभाँति जानते थे कि किसे किस उपाय से सन्मार्ग पर आरूढ़ किया जा सकता है। फलत: वे विनेय जनों के विचार, रुचि, अध्याशय, स्वभाव, क्षमता और परिस्थिति के अनुरूप उपदेश दिया करते थे। भगवान बुद्ध की दूसरी विशेषता यह है कि वे सन्मार्ग के उपदेश द्वारा ही अपने जगत्कल्याण के कार्य का सम्पादन करते हैं, न कि वरदान या ऋद्धि के बल से, जैसे कि शिव या विष्णु आदि के बारे में अनेक कथाएँ पुराणों में प्रचलित हैं। उनका कहना है कि तथागत तो मात्र उपदेष्टा हैं, कृत्यसम्पादन तो स्वयं साधक व्यक्ति को ही करना है। वे जिसका कल्याण करना चाहते हैं, उसे धर्मों (पदार्थों) की यथार्थता का उपदेश देते थे। भगवान बुद्ध ने भिन्न-भिन्न समय और भिन्न-भिन्न स्थानों में विनेय जनों को अनन्त उपदेश दिये थे। सबके विषय, प्रयोजन और पात्र भिन्न-भिन्न थे। ऐसा होने पर भी समस्त उपदेशों का अन्तिम लक्ष्य एक ही था और वह था विनेय जनों को दु:खों से मुक्ति की ओर ले जाना। मोक्ष या निर्वाण ही उनके समस्त उपदेशों का एकमात्र रस है।

बौद्ध धर्म का प्रचार

बौद्ध धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला धर्म और दर्शन है। इसके संस्थापक महात्मा बुद्ध, शाक्यमुनि (गौतम बुद्ध) थे। वे छठवीं से पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व तक जीवित थे। उनके गुज़रने के बाद अगली पाँच शताब्दियों में, बौद्ध धर्म पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैला, और अगले दो हज़ार सालों में मध्य, पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी जम्बू महाद्वीप में भी फैल गया।

बौद्ध धर्म का प्रतीक

आज, बौद्ध धर्म में तीन मुख्य सम्प्रदाय हैं: थेरवाद, महायान और वज्रयान। बौद्ध धर्म को पैंतीस करोड़ से अधिक लोग मानते हैं और यह दुनिया का चौथा सबसे बड़ा धर्म है।

सारनाथ

सारनाथ काशी से सात मील पूर्वोत्तर में स्थित बौद्धों का प्राचीन तीर्थ है, ज्ञान प्राप्त करने के बाद भगवान बुद्ध ने प्रथम उपदेश यहाँ दिया था, यहाँ से ही उन्होंने "धर्म चक्र प्रवर्तन" प्रारम्भ किया, यहाँ पर सारंगनाथ महादेव का मन्दिर है, यहाँ सावन के महीने में हिन्दुओं का मेला लगता है। यह जैन तीर्थ है और जैन ग्रन्थों में इसे सिंहपुर बताया है। सारनाथ की दर्शनीय वस्तुयें-अशोक का चतुर्मुख सिंहस्तम्भ, भगवान बुद्ध का मन्दिर, धमेख स्तूप, चौखन्डी स्तूप, राजकीय संग्राहलय, जैन मन्दिर, चीनी मन्दिर, मूलंगधकुटी और नवीन विहार हैं, मुहम्मद गौरी ने इसे लगभग ख़त्म कर दिया था, सन् 1905 में पुरातत्त्व विभाग ने यहाँ खुदाई का काम किया, उस समय बौद्ध धर्म के अनुयायों और इतिहासवेत्ताओं का ध्यान इस पर गया।

ब्रज (मथुरा)

कायस्थ भट्टिप्रिय द्वारा स्थापित बुद्ध प्रतिमा, मथुरा संग्रहालय

मथुरा और बौद्ध धर्म का घनिष्ठ संबंध था। जो बुद्ध के जीवन-काल से कुषाण-काल तक अक्षु्ण रहा। 'अंगुत्तरनिकाय' के अनुसार भगवान बुद्ध एक बार मथुरा आये थे और यहाँ उपदेश भी दिया था।[3] 'वेरंजक-ब्राह्मण-सुत्त' में भगवान् बुद्ध के द्वारा मथुरा से वेरंजा तक यात्रा किए जाने का वर्णन मिलता है।[4] पालि विवरण से यह ज्ञात होता है कि बुद्धत्व प्राप्ति के बारहवें वर्ष में ही बुद्ध ने मथुरा नगर की यात्रा की थी। [5] मथुरा से लौटकर बुद्ध वेरंजा आये फिर उन्होंने श्रावस्ती की यात्रा की। [6] भगवान बुद्ध के शिष्य महाकाच्यायन मथुरा में बौद्ध धर्म का प्रचार करने आए थे। इस नगर में अशोक के गुरु उपगुप्त[7], ध्रुव (स्कंद पुराण, काशी खंड, अध्याय 20), एवं प्रख्यात गणिका वासवदत्ता[8] भी निवास करती थी। मथुरा राज्य का देश के दूसरे भागों से व्यापारिक संबंध था। मथुरा उत्तरापथ और दक्षिणापथ दोनों भागों से जुड़ा हुआ था।[9] राजगृह से तक्षशिला जाने वाले उस समय के व्यापारिक मार्ग में यह नगर स्थित था।[10]

सांकाश्य

गौतम बुद्ध के जीवन काल में सांकाश्य ख्याति प्राप्त नगर था। पाली कथाओं के अनुसार यहीं बुद्ध त्रयस्त्रिंश स्वर्ग से अवतरित होकर आए थे। इस स्वर्ग में वे अपनी माता तथा तैंतीस देवताओं को अभिधम्म की शिक्षा देने गए थे। पाली दंतकथाओं के अनुसार बुद्ध तीन सीढ़ियों द्वारा स्वर्ग से उतरे थे और उनके साथ ब्रह्मा और शक भी थे। इस घटना से संबन्ध होने के कारण बौद्ध, सांकाश्य को पवित्र तीर्थ मानते थे और इसी कारण यहाँ अनेक स्तूप एवं विहार आदि का निर्माण हुआ था। यह उनके जीवन की चार आश्चर्यजनक घटनाओं में से एक मानी जाती है। सांकाश्य ही में बुद्ध ने अपने प्रमुख शिष्य आन्नद के कहने से स्त्रियों की प्रव्रज्या पर लगाई हुई रोक को तोड़ा था और भिक्षुणी उत्पलवर्णा को दीक्षा देकर स्त्रियों के लिए भी बौद्ध संघ का द्वार खोल दिया था। पालिग्रंथ अभिधानप्पदीपिका में संकस्स (सांकाश्य) की उत्तरी भारत के बीस प्रमुख नगरों में गणना की गई है। पाणिनी ने [11] में सांकाश्य की स्थिति इक्षुमती नदी पर कहीं है जो संकिसा के पास बहने वाली ईखन है।

कौशांबी

उदयन के समय में गौतम बुद्ध कौशांबी में अक्सर आते-जाते रहते थे। उनके सम्बन्ध के कारण कौशांबी के अनेक स्थान सैकड़ों वर्षों तक प्रसिद्ध रहे। बुद्धचरित 21,33 के अनुसार कौशांबी में, बुद्ध ने धनवान, घोषिल, कुब्जोत्तरा तथा अन्य महिलाओं तथा पुरुषों को दीक्षित किया था।

बौद्ध भिक्षु ध्यान स्थली, कुशीनगर

यहाँ के विख्यात श्रेष्ठी घोषित (सम्भवतः बुद्धचरित का घोषिल) ने 'घोषिताराम' नाम का एक सुन्दर उद्यान बुद्ध के निवास के लिए बनवाया था। घोषित का भवन नगर के दक्षिण-पूर्वी कोने में था। घोषिताराम के निकट ही अशोक का बनवाया हुआ 150 हाथ ऊँचा स्तूप था। इसी विहारवन के दक्षिण-पूर्व में एक भवन था जिसके एक भाग में आचार्य वसुबंधु रहते थे। इन्होंने विज्ञप्ति मात्रता सिद्धि नामक ग्रंथ की रचना की थी। इसी वन के पूर्व में वह मकान था जहाँ आर्य असंग ने अपने ग्रंथ योगाचारभूमि की रचना की थी।

वैरंजा

बुद्धचरित 21, 27 में बुद्ध का इस अनभिज्ञात नगर में पहुँचकर 'विरिंच' नामक व्यक्ति को धर्म की दीक्षा देने का उल्लेख है। यहाँ के ब्राह्मणों का बौद्ध साहित्य में उल्लेख है। गौतम बुद्ध यहाँ पर ठहरे थे और उन्होंने इस नगर के निवासियों के समक्ष प्रवचन भी किया था। भगवान गौतम बुद्ध के असंख्य अनुयायी बन चुके थे, लेकिन इन अनुयायियों में ब्राह्मणों की एक बहुत बड़ी संख्या थी। इस प्रकार बुद्ध के प्रवचनों तथा उनकी शिक्षाओं का ब्राह्मणों पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा था।

कान्यकुब्ज

युवानच्वांग लिखता है कि कान्यकुब्ज के पश्चिमोत्तर में अशोक का बनवाया हुआ एक स्तूप था, जहाँ पर पूर्वकथा के अनुसार गौतम बुद्ध ने सात दिन ठहकर प्रवचन किया था। इस विशाल स्तूप के पास ही अन्य छोटे स्तूप भी थे, और एक विहार में बुद्ध का दाँत भी सुरक्षित था, जिसके दर्शन के लिए सैकड़ों यात्री आते थे। युवानच्वांग ने कान्यकुब्ज के दक्षिणपूर्व में अशोक द्वारा निर्मित एक अन्य स्तूप का भी वर्णन किया है जो कि दो सौ फुट ऊँचा था। किंवदन्ती है कि गौतम बुद्ध इस स्थान पर छह मास तक ठहरे थे।

काशी महाजनपद

वाराणसी

बौद्ध साहित्य से पता चलता है कि बुद्ध वाराणसी में कई बार ठहरे थे। बौद्ध ग्रंथों में वाराणसी का उल्लेख काशी जनपद की राजधानी के रूप में हुआ है।[12] बुद्ध पूर्व काल में काशी एक समृद्ध एवं स्वतंत्र राज्य था। इसका साक्ष्य देते हुए स्वयं बुद्ध ने इसकी प्रशंसा की है।[13]

बौद्ध धर्म के अन्य अनुयायी

ह्वेन त्सांग

ह्वेन त्सांग

भारत में ह्वेन त्सांग ने बुद्ध के जीवन से जुड़े सभी पवित्र स्थलों का भ्रमण किया और उपमहाद्वीप के पूर्व एवं पश्चिम से लगे इलाक़ो की भी यात्रा की। उन्होंने अपना अधिकांश समय नालंदा मठ में बिताया, जो बौद्ध शिक्षा का प्रमुख केंद्र था, जहाँ उन्होंने संस्कृत, बौद्ध दर्शन एवं भारतीय चिंतन में दक्षता हासिल की। इसके बाद ह्वेन त्सांग ने अपना जीवन बौद्ध धर्मग्रंथों के अनुवाद में लगा दिया जो 657 ग्रंथ थे और 520 पेटियों में भारत से लाए गए थे। इस विशाल खंड के केवल छोटे से हिस्से (1330 अध्यायों में क़रीब 73 ग्रंथ) के ही अनुवाद में महायान के कुछ अत्यधिक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ शामिल हैं।

मिलिंद (मिनांडर)

उत्तर-पश्चिम भारत का 'हिन्दी-यूनानी' राजा 'मनेन्दर' 165-130 ई. पू. लगभग (भारतीय उल्लेखों के अनुसार 'मिलिन्द') था। प्रथम पश्चिमी राजा जिसने बौद्ध धर्म अपनाया और मथुरा पर शासन किया। भारत में राज्य करते हुए वह बौद्ध श्रमणों के सम्पर्क में आया और आचार्य नागसेन से उसने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली।

मिलिंद (मिनांडर) का सिक्का

बौद्ध ग्रंथों में उसका नाम 'मिलिन्द' आया है। 'मिलिन्द पञ्हो' नाम के पालि ग्रंथ में उसके बौद्ध धर्म को स्वीकृत करने का विवरण दिया गया है। मिनान्डर के अनेक सिक्कों पर बौद्ध धर्म के 'धर्मचक्र' प्रवर्तन का चिह्न 'धर्मचक्र' बना हुआ है, और उसने अपने नाम के साथ 'ध्रमिक' (धार्मिक) विशेषण दिया है।

फ़ाह्यान

फ़ाह्यान का जन्म चीन के 'वु-वंग' नामक स्थान पर हुआ था। यह बौद्ध धर्म का अनुयायी था। उसने लगभग 399 ई. में अपने कुछ मित्रों 'हुई-चिंग', 'ताओंचेंग', 'हुई-मिंग', 'हुईवेई' के साथ भारत यात्रा प्रारम्भ की। फ़ाह्यान की भारत यात्रा का उदेश्य बौद्ध हस्तलिपियों एवं बौद्ध स्मृतियों को खोजना था। इसीलिए फ़ाह्यान ने उन्हीं स्थानों के भ्रमण को महत्त्व दिया, जो बौद्ध धर्म से सम्बन्धित थे।

अशोक

अशोक

सम्राट अशोक को अपने विस्तृत साम्राज्य के बेहतर कुशल प्रशासन तथा बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए जाना जाता है। जीवन के उत्तरार्ध में अशोक गौतम बुद्ध के भक्त हो गए और उन्हीं (महात्मा बुद्ध) की स्मृति में उन्होंने एक स्तम्भ खड़ा कर दिया जो आज भी नेपाल में उनके जन्मस्थल-लुम्बिनी में मायादेवी मन्दिर के पास अशोक स्‍तम्‍भ के रूप में देखा जा सकता है। उसने बौद्ध धर्म का प्रचार भारत के अलावा श्रीलंका, अफ़ग़ानिस्तान, पश्चिम एशिया, मिस्र तथा यूनान में भी करवाया। अशोक के अभिलेखों में प्रजा के प्रति कल्याणकारी द्रष्टिकोण की अभिव्यक्ति की गई है।

कनिष्क

कुषाण राजा कनिष्क के विशाल साम्राज्य में विविध धर्मों के अनुयायी विभिन्न लोगों का निवास था, और उसने अपनी प्रजा को संतुष्ट करने के लिए सब धर्मों के देवताओं को अपने सिक्कों पर अंकित कराया था। पर इस बात में कोई सन्देह नहीं कि कनिष्क बौद्ध धर्म का अनुयायी था, और बौद्ध इतिहास में उसका नाम अशोक के समान ही महत्त्व रखता है। आचार्य अश्वघोष ने उसे बौद्ध धर्म में दीक्षित किया था। इस आचार्य को वह पाटलिपुत्र से अपने साथ लाया था, और इसी से उसने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी।

बुद्ध प्रतिमाएँ

बुद्ध प्रतिमा का निचला भाग, मथुरा

मथुरा के कुषाण शासक, जिनमें से अधिकांश ने बौद्ध धर्म को प्रोत्साहित किया, मूर्ति निर्माण के पक्षपाती थे। यद्यपि कुषाणों के पूर्व भी मथुरा में बौद्ध धर्म एवं अन्य धर्म से सम्बन्धित प्रतिमाओं का निर्माण किया गया था। विदित हुआ है कि कुषाण काल में मथुरा उत्तर भारत में सबसे बड़ा मूर्ति निर्माण का केन्द्र था और यहाँ विभिन्न धर्मों सम्बन्धित मूर्तियों का अच्छा भण्डार था। इस काल के पहले बुद्ध की स्वतंत्र मूर्ति नहीं मिलती है। बुद्ध का पूजन इस काल से पूर्व विविध प्रतीक चिह्नों के रूप में मिलता है। परन्तु कुषाण काल के प्रारम्भ से महायान भक्ति, पंथ भक्ति उत्पत्ति के साथ नागरिकों में बुद्ध की सैकड़ों मूर्तियों का निर्माण होने लगा। बुद्ध के पूर्व जन्म की जातक कथायें भी पत्थरों पर उत्कीर्ण होने लगी। मथुरा से बौद्ध धर्म सम्बन्धी जो अवशेष मिले हैं, उनमें प्राचीन धार्मिक एवं लौकिक जीवन के अध्ययन की अपार सामग्री है। मथुरा कला के विकास के साथ–साथ बुद्ध एवं बौधित्सव की सुन्दर मूर्तियों का निर्माण हुआ। गुप्त कालीन बुद्ध प्रतिमाओं में अंग प्रत्यंग के कला पूर्ण विन्यास के साथ एक दिव्य सौन्दर्य एवं आध्यात्मिक गांभीर्य का समन्वय मिलता है।

मथुरा और दिल्ली संग्रहालय से प्राप्त बुद्ध प्रतिमाएँ

अंतिम उपदेश एवं परिनिर्वाण

बौद्ध धर्म का प्रचार बुद्ध के जीवन काल में ही काफ़ी हो गया था, क्योंकि उन दिनों कर्मकांड का ज़ोर काफ़ी बढ़ चुका था और पशुओं की हत्या बड़ी संख्या में हो रही थी। इन्होंने इस निरर्थक हत्या को रोकने तथा जीव मात्र पर दया करने का उपदेश दिया।

बुद्ध, कुशीनगर

प्राय: 44 वर्ष तक बिहार तथा काशी के निकटवर्त्ती प्रांतों में धर्म प्रचार करने के उपरांत अंत में कुशीनगर के निकट एक वन में शाल वृक्ष के नीचे वृद्धावस्था में इनका परिनिर्वाण अर्थात् शरीरांत हुआ। मृत्यु से पूर्व उन्होंने कुशीनारा के परिव्राजक सुभच्छ को अपना अन्तिम उपदेश दिया।

कुशीनगर

कुशीनगर बुद्ध के महापरिनिर्वाण का स्थान है। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर ज़िले से 51 किमी की दूरी पर स्थित है। बौद्ध ग्रंथ महावंश[14] में कुशीनगर का नाम इसी कारण कुशावती भी कहा गया है। बौद्ध काल में यही नाम कुशीनगर या पाली में कुसीनारा हो गया। एक अन्य बौद्ध किंवदंती के अनुसार तक्षशिला के इक्ष्वाकु वंशी राजा तालेश्वर का पुत्र तक्षशिला से अपनी राजधानी हटाकर कुशीनगर ले आया था। उसकी वंश परम्परा में बारहवें राजा सुदिन्न के समय तक यहाँ राजधानी रही। इनके बीच में कुश और महादर्शन नामक दो प्रतापी राजा हुए जिनका उल्लेख गौतम बुद्ध ने[15] किया था।

मुख से निकले अंतिम शब्द

भगवान बुद्ध ने जो अंतिम शब्द अपने मुख से कहे थे, वे इस प्रकार थे-

"हे भिक्षुओं, इस समय आज तुमसे इतना ही कहता हूँ कि जितने भी संस्कार हैं, सब नाश होने वाले हैं, प्रमाद रहित हो कर अपना कल्याण करो।" यह 483 ई. पू. की घटना है। वे अस्सी वर्ष के थे।[16]

इन्हें भी देखें: महात्मा बुद्ध के प्रेरक प्रसंग

बुद्ध के अन्य नाम

बुद्ध प्रतिमा, राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्ली
भगवान बुद्ध के अन्य नाम

इन्हें भी देखें: साँची, वैशाली, सारनाथ, कपिलवस्तु, कुशीनगर, सांकाश्य, स्तूप एवं बौद्ध धर्म

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हदं हानि भिक्खये, आमंतयामि वो, वयध्म्मा संखारा, अप्पमादेन सम्पादेया -महापरिनिब्वान सुत्त, 235 (यह 483 ई. पू. की घटना है। वे अस्सी वर्ष के थे।)
  2. विनय पिटक 1, 10
  3. अंगुत्तनिकाय, भाग 2, पृ 57; तत्रैव, भाग 3,पृ 257
  4. भरत सिंह उपापध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृ 109
  5. दिव्यावदान, पृ 348 में उल्लिखित है कि भगवान बुद्ध ने अपने परिनिर्वाण काल से कुछ पहले ही मथुरा की यात्रा की थी। भगवान्...परिनिर्वाणकालसमये...मथुरामनुप्राप्त:। पालि परंपरा से इसका मेल बैठाना कठिन है।
  6. उल्लेखनीय है कि वेरंजा उत्तरापथ मार्ग पर पड़ने वाला बुद्धकाल में एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव था, जो मथुरा और सोरेय्य के मध्य स्थित था।
  7. वी ए स्मिथ, अर्ली हिस्ट्री ऑफ इंडिया (चतुर्थ संस्करण), पृ 199
  8. मथुरायां वासवदत्ता नाम गणिकां।' दिव्यावदान (कावेल एवं नीलवाला संस्करण), पृ 352
  9. आर सी शर्मा, बुद्धिस्ट् आर्ट आफ मथुरा, पृ 5
  10. भरत सिंह उपाध्याय, बुद्धिकालीन भारतीय भूगोल, पृ 440
  11. पाली कथाओं 4,2,80
  12. सुमंगलविलासिनी, जिल्द 2, पृष्ठ 383
  13. ‘‘भूतपुब्बं भिक्खवे ब्रह्मदत्ते नाम काशिराजा अहोसि अड्ढो महद्धनो महब्बलो, महाबाहनो, महाविजितो, परिपुण्णकोसकोट्ठामारो।’’
    महाबग्गो (विनयपिटक), दुतियो भागो, पृष्ठ 262
  14. महावंश 2,6
  15. महादर्शनसुत्त के अनुसार
  16. हदं हानि भिक्खये, आमंतयामि वो, वयध्म्मा संखारा, अप्पमादेन सम्पादेया -महापरिनिब्वान सुत्त, 235

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