"अनमोल वचन 3": अवतरणों में अंतर
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|''' | |'''अनमोल वचन''' | ||
==स== | |||
* '''संसार''' की चिंता में पढ़ना तुम्हारा काम नहीं है, बल्कि जो सम्मुख आये, उसे भगवद रूप मानकर उसके अनुरूप उसकी सेवा करो। | * '''संसार''' की चिंता में पढ़ना तुम्हारा काम नहीं है, बल्कि जो सम्मुख आये, उसे भगवद रूप मानकर उसके अनुरूप उसकी सेवा करो। | ||
* संसार के सारे दु:ख चित्त की मूर्खता के कारण होते हैं। जितनी मूर्खता ताकतवर उतना ही दुःख मज़बूत, जितनी मूर्खता कम उतना ही दुःख कम। मूर्खता हटी तो समझो दुःख छू-मंतर हो जायेगी। | * संसार के सारे दु:ख चित्त की मूर्खता के कारण होते हैं। जितनी मूर्खता ताकतवर उतना ही दुःख मज़बूत, जितनी मूर्खता कम उतना ही दुःख कम। मूर्खता हटी तो समझो दुःख छू-मंतर हो जायेगी। | ||
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* संसार में हर वस्तु में अच्छे और बुरे दो पहलू हैं, जो अच्छा पहलू देखते हैं वे अच्छाई और जिन्हें केवल बुरा पहलू देखना आता है वह बुराई संग्रह करते हैं। | * संसार में हर वस्तु में अच्छे और बुरे दो पहलू हैं, जो अच्छा पहलू देखते हैं वे अच्छाई और जिन्हें केवल बुरा पहलू देखना आता है वह बुराई संग्रह करते हैं। | ||
* संसार में सच्चा सुख ईश्वर और धर्म पर विश्वास रखते हुए पूर्ण परिश्रम के साथ अपना कत्र्तव्य पालन करने में है। | * संसार में सच्चा सुख ईश्वर और धर्म पर विश्वास रखते हुए पूर्ण परिश्रम के साथ अपना कत्र्तव्य पालन करने में है। | ||
* संसार में रहने का सच्चा तत्त्वज्ञान यही है कि प्रतिदिन एक बार खिलखिलाकर | * संसार में रहने का सच्चा तत्त्वज्ञान यही है कि प्रतिदिन एक बार खिलखिलाकर ज़रूर हँसना चाहिए। | ||
* संसार में केवल मित्रता ही एक ऐसी चीज़ है जिसकी उपयोगिता के सम्बन्ध में दो मत नहीं है। | |||
* सारा संसार ऐसा नहीं हो सकता, जैसा आप सोचते हैं, अतः समझौतावादी बनो। | * सारा संसार ऐसा नहीं हो सकता, जैसा आप सोचते हैं, अतः समझौतावादी बनो। | ||
* सात्त्विक स्वभाव सोने जैसा होता है, लेकिन सोने को आकृति देने के लिये थोड़ा - सा पीतल मिलाने कि जरुरत होती है। | * सात्त्विक स्वभाव सोने जैसा होता है, लेकिन सोने को आकृति देने के लिये थोड़ा - सा पीतल मिलाने कि जरुरत होती है। | ||
* | * संन्यासी स्वरूप बनाने से अहंकार बढ़ता है, कपडे मत रंगवाओ, मन को रंगों तथा भीतर से संन्यासी की तरह रहो। | ||
* | * सन्न्यास डरना नहीं सिखाता। | ||
* | * सन्न्यास का अर्थ है, मृत्यु के प्रति प्रेम। सांसारिक लोग जीवन से प्रेम करते हैं, परन्तु संन्यासी के लिए प्रेम करने को मृत्यु है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम आत्महत्या कर लें। आत्महत्या करने वालों को तो कभी मृत्यु प्यारी नहीं होती है। संन्यासी का धर्म है समस्त संसार के हित के लिए निरंतर आत्मत्याग करते हुए धीरे - धीरे मृत्यु को प्राप्त हो जाना। | ||
* सच्चा दान वही है, जिसका प्रचार न किया जाए। | |||
* सच्चा | |||
* सच्चा प्रेम दुर्लभ है, सच्ची मित्रता और भी दुर्लभ है। | * सच्चा प्रेम दुर्लभ है, सच्ची मित्रता और भी दुर्लभ है। | ||
* सच्चे नेता आध्यात्मिक सिद्धियों द्वारा आत्म विश्वास फैलाते हैं। वही फैलकर अपना प्रभाव मुहल्ला, ग्राम, शहर, प्रांत और देश भर में व्याप्त हो जाता है। | * सच्चे नेता आध्यात्मिक सिद्धियों द्वारा आत्म विश्वास फैलाते हैं। वही फैलकर अपना प्रभाव मुहल्ला, ग्राम, शहर, प्रांत और देश भर में व्याप्त हो जाता है। | ||
* सच्ची लगन तथा निर्मल उद्देश्य से किया हुआ प्रयत्न कभी निष्फल नहीं जाता। | |||
* सच्चाई, ईमानदारी, सज्जनता और सौजन्य जैसे गुणों के बिना कोई मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं हो सकता। | * सच्चाई, ईमानदारी, सज्जनता और सौजन्य जैसे गुणों के बिना कोई मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं हो सकता। | ||
* समाज में कुछ लोग ताकत इस्तेमाल कर दोषी व्यक्तियों को बचा लेते हैं, जिससे दोषी व्यक्ति तो दोष से बच निकलता है और निर्दोष व्यक्ति क़ानून की गिरफ्त में आ जाता है। इसे नैतिक पतन का तकाजा ही कहा जायेगा। | * समाज में कुछ लोग ताकत इस्तेमाल कर दोषी व्यक्तियों को बचा लेते हैं, जिससे दोषी व्यक्ति तो दोष से बच निकलता है और निर्दोष व्यक्ति क़ानून की गिरफ्त में आ जाता है। इसे नैतिक पतन का तकाजा ही कहा जायेगा। | ||
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* सामाजिक और धार्मिक शिक्षा व्यक्ति को नैतिकता एवं अनैतिकता का पाठ पढ़ाती है। | * सामाजिक और धार्मिक शिक्षा व्यक्ति को नैतिकता एवं अनैतिकता का पाठ पढ़ाती है। | ||
* सामाजिक, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में जो विकृतियाँ, विपन्नताएँ दृष्टिगोचर हो रही हैं, वे कहीं आकाश से नहीं टपकी हैं, वरन् हमारे अग्रणी, बुद्धिजीवी एवं प्रतिभा सम्पन्न लोगों की भावनात्मक विकृतियों ने उन्हें उत्पन्न किया है। | * सामाजिक, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में जो विकृतियाँ, विपन्नताएँ दृष्टिगोचर हो रही हैं, वे कहीं आकाश से नहीं टपकी हैं, वरन् हमारे अग्रणी, बुद्धिजीवी एवं प्रतिभा सम्पन्न लोगों की भावनात्मक विकृतियों ने उन्हें उत्पन्न किया है। | ||
* सैकड़ों गुण रहित और मूर्ख पुत्रों के बजाय एक गुणवान और | * सैकड़ों गुण रहित और मूर्ख पुत्रों के बजाय एक गुणवान और विद्वान् पुत्र होना अच्छा है; क्योंकि रात्रि के समय हज़ारों तारों की उपेक्षा एक चन्द्रमा से ही प्रकाश फैलता है। | ||
* सत्य भावना का सबसे बड़ा धर्म है। | * '''सत्य''' भावना का सबसे बड़ा धर्म है। | ||
* सत्य, प्रेम और न्याय को आचरण में प्रमुख स्थान देने वाला नर ही नारायण को अति प्रिय है। | * सत्य, प्रेम और न्याय को आचरण में प्रमुख स्थान देने वाला नर ही नारायण को अति प्रिय है। | ||
* सत्य बोलने तक सीमित नहीं, वह चिंतन और कर्म का प्रकार है, जिसके साथ ऊंचा उद्देश्य अनिवार्य जुड़ा होता है। | * सत्य बोलने तक सीमित नहीं, वह चिंतन और कर्म का प्रकार है, जिसके साथ ऊंचा उद्देश्य अनिवार्य जुड़ा होता है। | ||
* सत्य का पालन ही राजाओं का दया प्रधान सनातन अचार था। राज्य सत्य | * सत्य का पालन ही राजाओं का दया प्रधान सनातन अचार था। राज्य सत्य स्वरूप था और सत्य में लोक प्रतिष्ठित था। | ||
* सत्य के समान कोई धर्म नहीं है। सत्य से उत्तम कुछ भी नहीं हैं और जूठ से बढ़कर तीव्रतर पाप इस | * सत्य के समान कोई धर्म नहीं है। सत्य से उत्तम कुछ भी नहीं हैं और जूठ से बढ़कर तीव्रतर पाप इस जगत् में दूसरा नहीं है। | ||
* सत्य बोलते समय हमारे शरीर पर कोई दबाव नहीं पड़ता, लेकिन झूठ बोलने पर हमारे शरीर पर अनेक प्रकार का दबाव पड़ता है, इसलिए कहा जाता है कि सत्य के लिये एक हाँ और झूठ के लिये हज़ारों बहाने ढूँढने पड़ते हैं। | * सत्य बोलते समय हमारे शरीर पर कोई दबाव नहीं पड़ता, लेकिन झूठ बोलने पर हमारे शरीर पर अनेक प्रकार का दबाव पड़ता है, इसलिए कहा जाता है कि सत्य के लिये एक हाँ और झूठ के लिये हज़ारों बहाने ढूँढने पड़ते हैं। | ||
* सत्य परायण मनुष्य किसी से घृणा नहीं करता है। | * सत्य परायण मनुष्य किसी से घृणा नहीं करता है। | ||
* | * सत्य एक ऐसी आध्यात्मिक शक्ति है, जो देश, काल, पात्र अथवा परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होती। | ||
* सत्य ही वह सार्वकालिक और सार्वदेशिक तथ्य है, जो सूर्य के समान हर स्थान पर समान रूप से चमकता रहता है। | * सत्य ही वह सार्वकालिक और सार्वदेशिक तथ्य है, जो सूर्य के समान हर स्थान पर समान रूप से चमकता रहता है। | ||
* सुख-दुःख, हानि-लाभ, जय-पराजय, मान-अपमान, निंदा-स्तुति, ये द्वन्द निरंतर एक साथ | * सत्य का मतलब सच बोलना भर नहीं, वरन् विवेक, कत्र्तव्य, सदाचरण, परमार्थ जैसी सत्प्रवृत्तियों और सद्भावनाओं से भरा हुआ जीवन जीना है। | ||
* सुख-दुःख, हानि-लाभ, जय-पराजय, मान-अपमान, निंदा-स्तुति, ये द्वन्द निरंतर एक साथ जगत् में रहते हैं और ये हमारे जीवन का एक हिस्सा होते हैं, दोनों में भगवान को देखें। | |||
* सुख-दुःख जीवन के दो पहलू हैं, धूप व छांव की तरह। | * सुख-दुःख जीवन के दो पहलू हैं, धूप व छांव की तरह। | ||
* सुखी होना है तो प्रसन्न रहिए, निश्चिन्त रहिए, मस्त रहिए। | * सुखी होना है तो प्रसन्न रहिए, निश्चिन्त रहिए, मस्त रहिए। | ||
* '''सुख''' बाहर से नहीं भीतर से आता है। | * '''सुख''' बाहर से नहीं भीतर से आता है। | ||
* सुखों का मानसिक त्याग करना ही सच्चा सुख है जब तक व्यक्ति लौकिक सुखों के आधीन रहता है, तब तक उसे अलौकिक सुख की प्राप्ति नहीं हों सकती, क्योंकि सुखों का शारीरिक त्याग तो आसान काम है, लेकिन मानसिक त्याग अति कठिन है। | * सुखों का मानसिक त्याग करना ही सच्चा सुख है जब तक व्यक्ति लौकिक सुखों के आधीन रहता है, तब तक उसे अलौकिक सुख की प्राप्ति नहीं हों सकती, क्योंकि सुखों का शारीरिक त्याग तो आसान काम है, लेकिन मानसिक त्याग अति कठिन है। | ||
* स्वर्ग व नरक कोई भौगोलिक स्थिति नहीं हैं, बल्कि एक मनोस्थिति है। जैसा सोचोगे, वैसा ही पाओगे। | * '''स्वर्ग''' व नरक कोई भौगोलिक स्थिति नहीं हैं, बल्कि एक मनोस्थिति है। जैसा सोचोगे, वैसा ही पाओगे। | ||
* स्वर्ग और मुक्ति का द्वार मनुष्य का हृदय ही है। | * स्वर्ग और मुक्ति का द्वार मनुष्य का हृदय ही है। | ||
* 'स्वर्ग' शब्द में जिन गुणों का बोध होता है, सफाई और शुचिता उनमें सर्वप्रमुख है। | * 'स्वर्ग' शब्द में जिन गुणों का बोध होता है, सफाई और शुचिता उनमें सर्वप्रमुख है। | ||
* स्वर्ग और नरक कोई स्थान नहीं, वरन् दृष्टिकोण है। | * स्वर्ग और नरक कोई स्थान नहीं, वरन् दृष्टिकोण है। | ||
* स्वर्ग में जाकर ग़ुलामी बनने की अपेक्षानरकमें जाकर राजा बनना बेहतर है। | |||
* सभ्यता एवं संस्कृति में जितना अंतर है, उतना ही अंतर उपासना और धर्म में है। | * सभ्यता एवं संस्कृति में जितना अंतर है, उतना ही अंतर उपासना और धर्म में है। | ||
* सदा, सहज व सरल रहने से आतंरिक खुशी मिलती है। | * सदा, सहज व सरल रहने से आतंरिक खुशी मिलती है। | ||
* सब कर्मों में आत्मज्ञान श्रेष्ठ समझना चाहिए; क्योंकि यह सबसे उत्तम विद्या है। यह अविद्या का नाश करती है और इससे मुक्ति प्राप्त होती है। | * सब कर्मों में आत्मज्ञान श्रेष्ठ समझना चाहिए; क्योंकि यह सबसे उत्तम विद्या है। यह अविद्या का नाश करती है और इससे मुक्ति प्राप्त होती है। | ||
* सब ने सही जाग्रत् आत्माओं में से जो जीवन्त हों, वे आपत्तिकालीन समय को समझें और व्यामोह के दायरे से निकलकर बाहर आएँ। उन्हीं के बिना प्रगति का रथ रुका पड़ा है। | |||
* सब जीवों के प्रति मंगल कामना धर्म का प्रमुख ध्येय है। | * सब जीवों के प्रति मंगल कामना धर्म का प्रमुख ध्येय है। | ||
* सब कुछ होने पर भी यदि मनुष्य के पास स्वास्थ्य नहीं, तो समझो उसके पास कुछ है ही नहीं। | * सब कुछ होने पर भी यदि मनुष्य के पास स्वास्थ्य नहीं, तो समझो उसके पास कुछ है ही नहीं। | ||
* सबसे बड़ा दीन दुर्बल वह है, जिसका अपने ऊपर नियंत्रण नहीं। | |||
* सबसे धनी वह नहीं है जिसके पास सब कुछ है, बल्कि वह है जिसकी आवश्यकताएं न्यूनतम हैं। | |||
* सारे काम अपने आप होते रहेंगे, फिर भी आप कार्य करते रहें। निरंतर कार्य करते रहें, पर उसमें ज़रा भी आसक्त न हों। आप बस कार्य करते रहें, यह सोचकर कि अब हम जा रहें हैं बस, अब जा रहे हैं। | * सारे काम अपने आप होते रहेंगे, फिर भी आप कार्य करते रहें। निरंतर कार्य करते रहें, पर उसमें ज़रा भी आसक्त न हों। आप बस कार्य करते रहें, यह सोचकर कि अब हम जा रहें हैं बस, अब जा रहे हैं। | ||
* समय मूल्यवान है, इसे व्यर्थ नष्ट न करो। आप समय देकर धन पैदा कर रखते हैं और संसार की सभी वस्तुएं प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन स्मरण रहे - सब कुछ देकर भी समय प्राप्त नहीं कर सकते अथवा गए समय को वापिस नहीं ला सकते। | * '''समय''' मूल्यवान है, इसे व्यर्थ नष्ट न करो। आप समय देकर धन पैदा कर रखते हैं और संसार की सभी वस्तुएं प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन स्मरण रहे - सब कुछ देकर भी समय प्राप्त नहीं कर सकते अथवा गए समय को वापिस नहीं ला सकते। | ||
* समय को नियमितता के बंधनों में बाँधा जाना चाहिए। | * समय को नियमितता के बंधनों में बाँधा जाना चाहिए। | ||
* समय उस मनुष्य का विनाश कर देता है, जो उसे नष्ट करता रहता है। | * समय उस मनुष्य का विनाश कर देता है, जो उसे नष्ट करता रहता है। | ||
* | * समय महान् चिकित्सक है। | ||
* समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। | * समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। | ||
* समय की कद्र करो। प्रत्येक दिवस एक जीवन है। एक मिनट भी फिजूल मत गँवाओ। | * समय की कद्र करो। प्रत्येक दिवस एक जीवन है। एक मिनट भी फिजूल मत गँवाओ। ज़िन्दगी की सच्ची कीमत हमारे वक़्त का एक-एक क्षण ठीक उपयोग करने में है। | ||
* समय का सुदपयोग ही उन्नति का मूलमंत्र है। | * समय का सुदपयोग ही उन्नति का मूलमंत्र है। | ||
* संघर्ष ही जीवन है। संघर्ष से बचे रह सकना किसी के लिए भी संभव नहीं। | * संघर्ष ही जीवन है। संघर्ष से बचे रह सकना किसी के लिए भी संभव नहीं। | ||
* सेवा का मार्ग ज्ञान, तप, योग आदि के मार्ग से भी ऊँचा है। | * सेवा का मार्ग ज्ञान, तप, योग आदि के मार्ग से भी ऊँचा है। | ||
* स्वार्थ, अहंकार और लापरवाही की मात्रा बढ़ जाना ही किसी व्यक्ति के पतन का कारण होता है। | * स्वार्थ, अहंकार और लापरवाही की मात्रा बढ़ जाना ही किसी व्यक्ति के पतन का कारण होता है। | ||
* स्वार्थ और अभिमान का त्याग करने से साधुता आती है। | |||
* सत्कर्म की प्रेरणा देने से बढ़कर और कोई पुण्य हो ही नहीं सकता। | * सत्कर्म की प्रेरणा देने से बढ़कर और कोई पुण्य हो ही नहीं सकता। | ||
* सद्गुणों के विकास में किया हुआ कोई भी त्याग कभी व्यर्थ नहीं जाता। | * सद्गुणों के विकास में किया हुआ कोई भी त्याग कभी व्यर्थ नहीं जाता। | ||
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* सारी शक्तियाँ लोभ, मोह और अहंता के लिए वासना, तृष्णा और प्रदर्शन के लिए नहीं खपनी चाहिए। | * सारी शक्तियाँ लोभ, मोह और अहंता के लिए वासना, तृष्णा और प्रदर्शन के लिए नहीं खपनी चाहिए। | ||
* समान भाव से आत्मीयता पूर्वक कर्तव्य -कर्मों का पालन किया जाना मनुष्य का धर्म है। | * समान भाव से आत्मीयता पूर्वक कर्तव्य -कर्मों का पालन किया जाना मनुष्य का धर्म है। | ||
* सत्कर्मों का आत्मसात होना ही उपासना, साधना और आराधना का सारभूत तत्व है। | * सत्कर्मों का आत्मसात होना ही उपासना, साधना और आराधना का सारभूत तत्व है। | ||
* सद्विचार तब तक मधुर कल्पना भर बने रहते हैं, जब तक उन्हें कार्य रूप में परिणत नहीं किया जाय। | * सद्विचार तब तक मधुर कल्पना भर बने रहते हैं, जब तक उन्हें कार्य रूप में परिणत नहीं किया जाय। | ||
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* सफल नेतृत्व के लिए मिलनसारी, सहानुभूति और कृतज्ञता जैसे दिव्य गुणों की अतीव आवश्यकता है। | * सफल नेतृत्व के लिए मिलनसारी, सहानुभूति और कृतज्ञता जैसे दिव्य गुणों की अतीव आवश्यकता है। | ||
* सफल नेता की शिवत्व भावना-सबका भला 'बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय' से प्रेरित होती है। | * सफल नेता की शिवत्व भावना-सबका भला 'बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय' से प्रेरित होती है। | ||
* सफलता अत्यधिक परिश्रम चाहती है। | |||
* सफलता प्राप्त करने की प्रक्रिया कभी समाप्त नहीं होती और असफलता कभी अंतिम नहीं होती। | |||
* सफलता का एक दरवाज़ा बंद होता है तो दूसरा खुल जाता हैं लेकिन अक्सर हम बंद दरवाज़े की ओर देखते हैं और उस दरवाज़े को देखते ही नहीं जो हमारे लिए खुला रहता है। | |||
* सफलता-असफलता का विचार कभी मत सोचे, निष्काम भाव से अपने कर्मयुद्ध में डटे रहें अर्जुन की तरह आप सफल प्रतियोगी अवश्य बनेंगे। | |||
* स्वाधीन मन मनुष्य का सच्चा सहायक होता है। | * स्वाधीन मन मनुष्य का सच्चा सहायक होता है। | ||
* संकल्प जीवन की उत्कृष्टता का मंत्र है, उसका प्रयोग मनुष्य जीवन के गुण विकास के लिए होना चाहिए। | * संकल्प जीवन की उत्कृष्टता का मंत्र है, उसका प्रयोग मनुष्य जीवन के गुण विकास के लिए होना चाहिए। | ||
* संकल्प ही मनुष्य का बल है। | * संकल्प ही मनुष्य का बल है। | ||
* सदा चेहरे पर प्रसन्नता व मुस्कान रखो। दूसरों को प्रसन्नता दो, तुम्हें प्रसन्नता मिलेगी। | * सदा चेहरे पर प्रसन्नता व मुस्कान रखो। दूसरों को प्रसन्नता दो, तुम्हें प्रसन्नता मिलेगी। | ||
* स्वधर्म में अवस्थित रहकर स्वकर्म से परमात्मा की पूजा करते हुए तुम्हें समाधि व सिद्धि मिलेगी। | * स्वधर्म में अवस्थित रहकर स्वकर्म से परमात्मा की पूजा करते हुए तुम्हें समाधि व सिद्धि मिलेगी। | ||
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* सज्जनता और मधुर व्यवहार मनुष्यता की पहली शर्ता है। | * सज्जनता और मधुर व्यवहार मनुष्यता की पहली शर्ता है। | ||
* सत्संग और प्रवचनों का - स्वाध्याय और सुदपदेशों का तभी कुछ मूल्य है, जब उनके अनुसार कार्य करने की प्रेरणा मिले। अन्यथा यह सब भी कोरी बुद्धिमत्ता मात्र है। | * सत्संग और प्रवचनों का - स्वाध्याय और सुदपदेशों का तभी कुछ मूल्य है, जब उनके अनुसार कार्य करने की प्रेरणा मिले। अन्यथा यह सब भी कोरी बुद्धिमत्ता मात्र है। | ||
* साधना एक पराक्रम है, संघर्ष है, जो अपनी ही दुष्प्रवृत्तियों से करना होता है। | * साधना एक पराक्रम है, संघर्ष है, जो अपनी ही दुष्प्रवृत्तियों से करना होता है। | ||
* | * समर्पण का अर्थ है - पूर्णरूपेण प्रभु को हृदय में स्वीकार करना, उनकी इच्छा, प्रेरणाओं के प्रति सदैव जागरूक रहना और जीवन के प्रतयेक क्षण में उसे परिणत करते रहना। | ||
* सबसे | * समर्पण का अर्थ है - मन अपना विचार इष्ट के, [[हृदय]] अपना भावनाएँ इष्ट की और आपा अपना किन्तु कर्तव्य समग्र रूप से इष्ट का। | ||
* सम्भव की सीमा जानने का केवल एक ही तरीका है। असम्भव से भी आगे निकल जाना। | |||
* सत्कार्य करके मिलने वाली खुशी से बढ़कर और कोई खुशी नहीं होती। | |||
* सीखना दो प्रकार से होता है, पहला अध्ययन करके और दूसरा बुद्धिमानों से संगत करके। | |||
* सबसे महान् धर्म है, अपनी आत्मा के प्रति सच्चा बनना। | |||
* सद्व्यवहार में शक्ति है। जो सोचता है कि मैं दूसरों के काम आ सकने के लिए कुछ करूँ, वही आत्मोन्नति का सच्चा पथिक है। | * सद्व्यवहार में शक्ति है। जो सोचता है कि मैं दूसरों के काम आ सकने के लिए कुछ करूँ, वही आत्मोन्नति का सच्चा पथिक है। | ||
* सलाह सबकी सुनो पर करो वह जिसके लिए तुम्हारा साहस और विवेक समर्थन करे। | * सलाह सबकी सुनो पर करो वह जिसके लिए तुम्हारा साहस और विवेक समर्थन करे। | ||
* सलाह सबकी सुनो, पर करो वह जिसके लिए तुम्हारा साहस और विवेक समर्थन करे। | * सलाह सबकी सुनो, पर करो वह जिसके लिए तुम्हारा साहस और विवेक समर्थन करे। | ||
* सत्प्रयत्न कभी निरर्थक नहीं होते। | * सत्प्रयत्न कभी निरर्थक नहीं होते। | ||
* सादगी सबसे बड़ा फैशन है। | * सादगी सबसे बड़ा फैशन है। | ||
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* सबके सुख में ही हमारा सुख सन्निहित है। | * सबके सुख में ही हमारा सुख सन्निहित है। | ||
* सेवा से बढ़कर पुण्य-परमार्थ इस संसार में और कुछ नहीं हो सकता। | * सेवा से बढ़कर पुण्य-परमार्थ इस संसार में और कुछ नहीं हो सकता। | ||
* सेवा में बड़ी शक्ति है। उससे भगवान भी वश में हो सकते हैं। | |||
* स्वयं उत्कृष्ट बनने और दूसरों को उत्कृष्ट बनाने का कार्य आत्म कल्याण का एकमात्र उपाय है। | * स्वयं उत्कृष्ट बनने और दूसरों को उत्कृष्ट बनाने का कार्य आत्म कल्याण का एकमात्र उपाय है। | ||
* स्वयं प्रकाशित दीप को भी प्रकाश के लिए तेल और बत्ती का जतन करना पड़ता है बुद्धिमान भी अपने विकास के लिए निरंतर यत्न करते हैं। | |||
* सतोगुणी भोजन से ही मन की सात्विकता स्थिर रहती है। | * सतोगुणी भोजन से ही मन की सात्विकता स्थिर रहती है। | ||
* समस्त हिंसा, द्वेष, बैर और विरोध की भीषण लपटें दया का संस्पर्श पाकर शान्त हो जाती हैं। | * समस्त हिंसा, द्वेष, बैर और विरोध की भीषण लपटें दया का संस्पर्श पाकर शान्त हो जाती हैं। | ||
पंक्ति 119: | पंक्ति 131: | ||
* सुख बाँटने की वस्तु है और दु:खे बँटा लेने की। इसी आधार पर आंतरिक उल्लास और अन्यान्यों का सद्भाव प्राप्त होता है। महानता इसी आधार पर उपलब्ध होती है। | * सुख बाँटने की वस्तु है और दु:खे बँटा लेने की। इसी आधार पर आंतरिक उल्लास और अन्यान्यों का सद्भाव प्राप्त होता है। महानता इसी आधार पर उपलब्ध होती है। | ||
* सहानुभूति मनुष्य के [[हृदय]] में निवास करने वाली वह कोमलता है, जिसका निर्माण संवेदना, दया, प्रेम तथा करुणा के सम्मिश्रण से होता है। | * सहानुभूति मनुष्य के [[हृदय]] में निवास करने वाली वह कोमलता है, जिसका निर्माण संवेदना, दया, प्रेम तथा करुणा के सम्मिश्रण से होता है। | ||
* सन्मार्ग का राजपथ कभी भी न छोड़े। | * सन्मार्ग का राजपथ कभी भी न छोड़े। | ||
* स्वच्छता सभ्यता का प्रथम सोपान है। | * स्वच्छता सभ्यता का प्रथम सोपान है। | ||
* स्वाधीन मन मनुष्य का सच्चा सहायक होता है। | * स्वाधीन मन मनुष्य का सच्चा सहायक होता है। | ||
* साधना का अर्थ है - कठिनाइयों से संघर्ष करते हुए भी सत्प्रयास जारी रखना। | * साधना का अर्थ है - कठिनाइयों से संघर्ष करते हुए भी सत्प्रयास जारी रखना। | ||
* | * सर्दी-गर्मी, भय-अनुराग, सम्पती अथवा दरिद्रता ये जिसके कार्यो मे बाधा नहीं डालते वही ज्ञानवान (विवेकशील) कहलाता है। | ||
* सभी मन्त्रों से महामंत्र है - कर्म मंत्र, कर्म करते हुए भजन करते रहना ही प्रभु की सच्ची भक्ति है। | |||
* संयम की शक्ति जीवं में सुरभि व सुगंध भर देती है। | |||
* | |||
* | |||
''' | ==म== | ||
* '''मनुष्य''' को उत्तम शिक्षा अच्चा स्वभाव, धर्म, योगाभ्यास और विज्ञान का सार्थक ग्रहण करके जीवन में सफलता प्राप्त करनी चाहिए। | |||
* मनुष्य का मन कछुए की भाँति होना चाहिए, जो बाहर की चोटें सहते हुए भी अपने लक्ष्य को नहीं छोड़ता और धीरे-धीरे | * मनुष्य का मन कछुए की भाँति होना चाहिए, जो बाहर की चोटें सहते हुए भी अपने लक्ष्य को नहीं छोड़ता और धीरे-धीरे मंज़िल पर पहुँच जाता है। | ||
* मनुष्य की सफलता के पीछे मुख्यता उसकी सोच, शैली एवं जीने का नज़रिया होता है। | * मनुष्य की सफलता के पीछे मुख्यता उसकी सोच, शैली एवं जीने का नज़रिया होता है। | ||
* मनुष्य अपने अंदर की बुराई पर ध्यान नहीं देता और दूसरों की उतनी ही बुराई की आलोचना करता है, अपने पाप का तो बड़ा नगर बसाता है और दूसरे का छोटा गाँव भी ज़रा-सा सहन नहीं कर सकता है। | * मनुष्य अपने अंदर की बुराई पर ध्यान नहीं देता और दूसरों की उतनी ही बुराई की आलोचना करता है, अपने पाप का तो बड़ा नगर बसाता है और दूसरे का छोटा गाँव भी ज़रा-सा सहन नहीं कर सकता है। | ||
पंक्ति 246: | पंक्ति 148: | ||
* मनुष्य के भावों में प्रबल रचना शक्ति है, वे अपनी दुनिया आप बसा लेते हैं। | * मनुष्य के भावों में प्रबल रचना शक्ति है, वे अपनी दुनिया आप बसा लेते हैं। | ||
* मनुष्य बुद्धिमानी का गर्व करता है, पर किस काम की वह बुद्धिमानी-जिससे जीवन की साधारण कला हँस-खेल कर जीने की प्रक्रिया भी हाथ न आए। | * मनुष्य बुद्धिमानी का गर्व करता है, पर किस काम की वह बुद्धिमानी-जिससे जीवन की साधारण कला हँस-खेल कर जीने की प्रक्रिया भी हाथ न आए। | ||
* | * मनुष्य परिस्थितियों का दास नहीं, वह उनका निर्माता, नियंत्रणकर्ता और स्वामी है। | ||
* मनुष्य को आध्यात्मिक ज्ञान और आत्म-विज्ञान की जानकारी हुए बिना यह संभव नहीं है कि मनुष्य दुष्कर्मों का परित्याग करे। | * मनुष्य को आध्यात्मिक ज्ञान और आत्म-विज्ञान की जानकारी हुए बिना यह संभव नहीं है कि मनुष्य दुष्कर्मों का परित्याग करे। | ||
* मनुष्य की संकल्प शक्ति संसार का सबसे बड़ा चमत्कार है। | * मनुष्य की संकल्प शक्ति संसार का सबसे बड़ा चमत्कार है। | ||
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* मनुष्य को एक ही प्रकार की उन्नति से संतुष्ट न होकर जीवन की सभी दिशाओं में उन्नति करनी चाहिए। केवल एक ही दिशा में उन्नति के लिए अत्यधिक प्रयत्न करना और अन्य दिशाओं की उपेक्षा करना और उनकी ओर से उदासीन रहना उचित नहीं है। | * मनुष्य को एक ही प्रकार की उन्नति से संतुष्ट न होकर जीवन की सभी दिशाओं में उन्नति करनी चाहिए। केवल एक ही दिशा में उन्नति के लिए अत्यधिक प्रयत्न करना और अन्य दिशाओं की उपेक्षा करना और उनकी ओर से उदासीन रहना उचित नहीं है। | ||
* मनुष्यता सबसे अधिक मूल्यवान है। उसकी रक्षा करना प्रत्येक जागरूक व्यक्ति का परम कर्तव्य है। | * मनुष्यता सबसे अधिक मूल्यवान है। उसकी रक्षा करना प्रत्येक जागरूक व्यक्ति का परम कर्तव्य है। | ||
* '''मां''' है मोहब्बत का नाम, | * '''मां''' है मोहब्बत का नाम, माँ से बिछुड़कर चैन कहाँ। | ||
* माँ का जीवन बलिदान का, त्याग का जीवन है। उसका बदला कोई भी पुत्र नहीं चुका सकता चाहे वह भूमंडल का स्वामी ही क्यों न हो। | * माँ का जीवन बलिदान का, त्याग का जीवन है। उसका बदला कोई भी पुत्र नहीं चुका सकता चाहे वह भूमंडल का स्वामी ही क्यों न हो। | ||
* माँ-बेटी का रिश्ता इतना अनूठा, इतना अलग होता है कि उसकी व्याख्या करना मुश्किल है, इस रिश्ते से सदैव पहली बारिश की फुहारों-सी ताजगी रहती है, तभी तो माँ के साथ बिताया हर क्षण होता है अमिट, अलग उनके साथ गुज़ारा हर पल शानदार होता है। | * माँ-बेटी का रिश्ता इतना अनूठा, इतना अलग होता है कि उसकी व्याख्या करना मुश्किल है, इस रिश्ते से सदैव पहली बारिश की फुहारों-सी ताजगी रहती है, तभी तो माँ के साथ बिताया हर क्षण होता है अमिट, अलग उनके साथ गुज़ारा हर पल शानदार होता है। | ||
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* 'मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्यदेवो भव, अतिथिदेवो भव' की संस्कृति अपनाओ! | * 'मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्यदेवो भव, अतिथिदेवो भव' की संस्कृति अपनाओ! | ||
* मृत्यु दो बार नहीं आती और जब आने को होती है, उससे पहले भी नहीं आती है। | * मृत्यु दो बार नहीं आती और जब आने को होती है, उससे पहले भी नहीं आती है। | ||
* | * महान् प्यार और महान् उपलब्धियों के खतरे भी महान् होते हैं। | ||
* | * महान् उद्देश्य की प्राप्ति के लिये बहुत कष्ट सहना पड़ता है, जो तप के समान होता है; क्योंकि ऊंचाई पर स्थिर रह पाना आसान काम नहीं है। | ||
* मानसिक शांति के लिये मन-शुद्धी, श्वास-शुद्धी एवं इन्द्रिय-शुद्धी का होना अति आवश्यक है। | * मानसिक शांति के लिये मन-शुद्धी, श्वास-शुद्धी एवं इन्द्रिय-शुद्धी का होना अति आवश्यक है। | ||
* मन की शांति के लिये अंदरूनी संघर्ष को बंद करना ज़रूरी है, जब तक अंदरूनी युद्ध चलता रहेगा, शांति नहीं मिल सकती। | * मन की शांति के लिये अंदरूनी संघर्ष को बंद करना ज़रूरी है, जब तक अंदरूनी युद्ध चलता रहेगा, शांति नहीं मिल सकती। | ||
* मन का नियन्त्रण मनुष्य का एक आवश्यक कत्र्तव्य है। | * मन का नियन्त्रण मनुष्य का एक आवश्यक कत्र्तव्य है। | ||
* मन-बुद्धि की भाषा है - मैं, मेरी, इसके बिना बाहर के | * मन-बुद्धि की भाषा है - मैं, मेरी, इसके बिना बाहर के जगत् का कोई व्यवहार नहीं चलेगा, अगर अंदर स्वयं को जगा लिया तो भीतर तेरा-तेरा शुरू होने से व्यक्ति परम शांति प्राप्त कर लेता है। | ||
* मरते वे हैं, जो शरीर के सुख और इन्द्रीय वासनाओं की तृप्ति के लिए रात-दिन खपते रहते हैं। | * मरते वे हैं, जो शरीर के सुख और इन्द्रीय वासनाओं की तृप्ति के लिए रात-दिन खपते रहते हैं। | ||
* मस्तिष्क में जिस प्रकार के विचार भरे रहते हैं वस्तुत: उसका संग्रह ही सच्ची परिस्थिति है। उसी के प्रभाव से जीवन की दिशाएँ बनती और मुड़ती रहती हैं। | * मस्तिष्क में जिस प्रकार के विचार भरे रहते हैं वस्तुत: उसका संग्रह ही सच्ची परिस्थिति है। उसी के प्रभाव से जीवन की दिशाएँ बनती और मुड़ती रहती हैं। | ||
पंक्ति 282: | पंक्ति 184: | ||
* मैं परमात्मा का प्रतिनिधि हूँ। | * मैं परमात्मा का प्रतिनिधि हूँ। | ||
* मैं माँ भारती का अमृतपुत्र हूँ, 'माता भूमि: पुत्रोहं प्रथिव्या:'। | * मैं माँ भारती का अमृतपुत्र हूँ, 'माता भूमि: पुत्रोहं प्रथिव्या:'। | ||
* मैं पहले माँ भारती का पुत्र हूँ, बाद में | * मैं पहले माँ भारती का पुत्र हूँ, बाद में संन्यासी, ग्रहस्थ, नेता, अभिनेता, कर्मचारी, अधिकारी या व्यापारी हूँ। | ||
* मैं सदा प्रभु में हूँ, मेरा प्रभु सदा मुझमें है। | * मैं सदा प्रभु में हूँ, मेरा प्रभु सदा मुझमें है। | ||
* मैं सौभाग्यशाली हूँ कि मैंने इस पवित्र भूमि व देश में जन्म लिया है। | * मैं सौभाग्यशाली हूँ कि मैंने इस पवित्र भूमि व देश में जन्म लिया है। | ||
पंक्ति 297: | पंक्ति 199: | ||
* महापुरुषों का ग्रंथ सबसे बड़ा सत्संग है। | * महापुरुषों का ग्रंथ सबसे बड़ा सत्संग है। | ||
* मात्र हवन, धूपबत्ती और जप की संख्या के नाम पर प्रसन्न होकर आदमी की मनोकामना पूरी कर दिया करे, ऐसी देवी दुनिया मेंं कहीं नहीं है। | * मात्र हवन, धूपबत्ती और जप की संख्या के नाम पर प्रसन्न होकर आदमी की मनोकामना पूरी कर दिया करे, ऐसी देवी दुनिया मेंं कहीं नहीं है। | ||
* मज़दूर के दो हाथ जो अर्जित कर सकते हैं वह मालिक अपनी पूरी संपत्ति द्वारा भी प्राप्त नहीं कर सकता। | |||
* मेरा निराशावाद इतना सघन है कि मुझे निराशावादियों की मंशा पर भी संदेह होता है। | |||
* मूर्ख व्यक्ति दूसरे को मूर्ख बनाने की चेष्टा करके आसानी से अपनी मूर्खता सिद्ध कर देते हैं। | |||
==द== | |||
* दुनिया में आलस्य को पोषण देने जैसा दूसरा भयंकर पाप नहीं है। | * दुनिया में आलस्य को पोषण देने जैसा दूसरा भयंकर पाप नहीं है। | ||
* दुनिया में भलमनसाहत का व्यवहार करने वाला एक चमकता हुआ हीरा है। | * दुनिया में भलमनसाहत का व्यवहार करने वाला एक चमकता हुआ हीरा है। | ||
पंक्ति 351: | पंक्ति 217: | ||
* दूसरों पर भरोसा लादे मत बैठे रहो। अपनी ही हिम्मत पर खड़ा रह सकना और आगे बढ़् सकना संभव हो सकता है। सलाह सबकी सुनो, पर करो वह जिसके लिए तुम्हारा साहस और विवेक समर्थन करे। | * दूसरों पर भरोसा लादे मत बैठे रहो। अपनी ही हिम्मत पर खड़ा रह सकना और आगे बढ़् सकना संभव हो सकता है। सलाह सबकी सुनो, पर करो वह जिसके लिए तुम्हारा साहस और विवेक समर्थन करे। | ||
* दूसरे के लिए पाप की बात सोचने में पहले स्वयं को ही पाप का भागी बनना पड़ता है। | * दूसरे के लिए पाप की बात सोचने में पहले स्वयं को ही पाप का भागी बनना पड़ता है। | ||
* दुष्कर्मों के बढ़ जाने पर सच्चाई निष्क्रिय हो जाती है, जिसके परिणाम | * दुष्कर्मों के बढ़ जाने पर सच्चाई निष्क्रिय हो जाती है, जिसके परिणाम स्वरूप वह राहत के बदले प्रतिक्रया करना शुरू कर देती है। | ||
* दुष्कर्म स्वत: ही एक अभिशाप है, जो कर्ता को भस्म किये बिना नहीं रहता। | * दुष्कर्म स्वत: ही एक अभिशाप है, जो कर्ता को भस्म किये बिना नहीं रहता। | ||
* दण्ड देने की शक्ति होने पर भी दण्ड न देना सच्चे क्षमा है। | * दण्ड देने की शक्ति होने पर भी दण्ड न देना सच्चे क्षमा है। | ||
पंक्ति 373: | पंक्ति 239: | ||
* दृढ़ आत्मविश्वास ही सफलता की एकमात्र कुंजी है। | * दृढ़ आत्मविश्वास ही सफलता की एकमात्र कुंजी है। | ||
==प== | |||
* परमात्मा वास्तविक | * परमात्मा वास्तविक स्वरूप को न मानकर उसकी कथित पूजा करना अथवा अपात्र को दान देना, ऐसे कर्म क्रमश: कोई कर्म-फल प्राप्त नहीं कराते, बल्कि पाप का भागी बनाते हैं। | ||
* परमात्मा के गुण, कर्म और स्वभाव के समान अपने स्वयं के गुण, कर्म व स्वभावों को समयानुसार धारण करना ही परमात्मा की सच्ची पूजा है। | * परमात्मा के गुण, कर्म और स्वभाव के समान अपने स्वयं के गुण, कर्म व स्वभावों को समयानुसार धारण करना ही परमात्मा की सच्ची पूजा है। | ||
* परमात्मा की सृष्टि का हर व्यक्ति समान है। चाहे उसका रंग वर्ण, कुल और गोत्र कुछ भी क्यों न हो। | * परमात्मा की सृष्टि का हर व्यक्ति समान है। चाहे उसका रंग वर्ण, कुल और गोत्र कुछ भी क्यों न हो। | ||
* परमात्मा जिसे जीवन में कोई विशेष अभ्युदय-अनुग्रह करना चाहता है, उसकी बहुत-सी सुविधाओं को समाप्त कर दिया करता है। | * परमात्मा जिसे जीवन में कोई विशेष अभ्युदय-अनुग्रह करना चाहता है, उसकी बहुत-सी सुविधाओं को समाप्त कर दिया करता है। | ||
* परमात्मा की सच्ची पूजा सद्व्यवहार है। | * परमात्मा की सच्ची पूजा सद्व्यवहार है। | ||
* पिता सिखाते हैं पैरों पर संतुलन बनाकर व ऊंगली थाम कर चलना, पर माँ सिखाती है सभी के साथ संतुलन बनाकर दुनिया के साथ चलना, तभी वह अलग है, | * पिता सिखाते हैं पैरों पर संतुलन बनाकर व ऊंगली थाम कर चलना, पर माँ सिखाती है सभी के साथ संतुलन बनाकर दुनिया के साथ चलना, तभी वह अलग है, महान् है। | ||
* पाप आत्मा का शत्रु है और सद्गुण आत्मा का मित्र। | * पाप आत्मा का शत्रु है और सद्गुण आत्मा का मित्र। | ||
* '''पाप''' अपने साथ रोग, शोक, पतन और संकट भी लेकर आता है। | * '''पाप''' अपने साथ रोग, शोक, पतन और संकट भी लेकर आता है। | ||
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* प्रकृति के सब काम धीरे-धीरे होते हैं। | * प्रकृति के सब काम धीरे-धीरे होते हैं। | ||
* प्रकृति के अनुकूल चलें, स्वस्थ रहें। | * प्रकृति के अनुकूल चलें, स्वस्थ रहें। | ||
* प्रकृति जानवरों तक को अपने मित्र पहचानने की सूझ-बूझ दे देती है। | |||
* प्रत्येक जीव की आत्मा में मेरा परमात्मा विराजमान है। | * प्रत्येक जीव की आत्मा में मेरा परमात्मा विराजमान है। | ||
* पराक्रमशीलता, राष्ट्रवादिता, पारदर्शिता, दूरदर्शिता, आध्यात्मिक, मानवता एवं विनयशीलता मेरी कार्यशैली के आदर्श हैं। | * पराक्रमशीलता, राष्ट्रवादिता, पारदर्शिता, दूरदर्शिता, आध्यात्मिक, मानवता एवं विनयशीलता मेरी कार्यशैली के आदर्श हैं। | ||
पंक्ति 428: | पंक्ति 295: | ||
* पेट और मस्तिष्क स्वास्थ्य की गाड़ी को ठीक प्रकार चलाने वाले दो पहिए हैं। इनमें से एक बिगड़ गया तो दूसरा भी बेकार ही बना रहेगा। | * पेट और मस्तिष्क स्वास्थ्य की गाड़ी को ठीक प्रकार चलाने वाले दो पहिए हैं। इनमें से एक बिगड़ गया तो दूसरा भी बेकार ही बना रहेगा। | ||
* पुण्य-परमार्थ का कोई अवसर टालना नहीं चाहिए; क्योंकि अगले क्षण यह देह रहे या न रहे क्या ठिकाना। | * पुण्य-परमार्थ का कोई अवसर टालना नहीं चाहिए; क्योंकि अगले क्षण यह देह रहे या न रहे क्या ठिकाना। | ||
* पराधीनता समाज के समस्त मौलिक निमयों के विरुद्ध है। | |||
* पति को कभी कभी अँधा और कभी कभी बहरा होना चाहिए। | |||
* प्रत्येक मनुष्य को जीवन में केवल अपने भाग्य की परिक्षा का अवसर मिलता हे। वही भविष्य का निर्णय कर देता है। | |||
* प्रत्येक अच्छा कार्य पहले असंभव नजर आता है। | |||
* पड़े पड़े तो अच्छे से अच्छे फ़ौलाद में भी जंग लग जाता है, निष्क्रिय हो जाने से, सारी दैवीय शक्तियां स्वत: मनुष्य का साथ छोड़ देतीं हैं। | |||
* प्रति पल का उपयोग करने वाले कभी भी पराजित नहीं हो सकते, समय का हर क्षण का उपयोग मनुष्य को विलक्षण और अदभुत बना देता है। | |||
* प्रवीण व्यक्ति वही होता हें जो हर प्रकार की परिस्थितियों में दक्षता से काम कर सके। | |||
==व== | |||
* व्रतों से सत्य सर्वोपरि है। | * व्रतों से सत्य सर्वोपरि है। | ||
* विधा, बुद्धि और ज्ञान को जितना खर्च करो, उतना ही बढ़ते हैं। | * विधा, बुद्धि और ज्ञान को जितना खर्च करो, उतना ही बढ़ते हैं। | ||
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* वह स्थान मंदिर है, जहाँ पुस्तकों के रूप में मूक; किन्तु ज्ञान की चेतनायुक्त देवता निवास करते हैं। | * वह स्थान मंदिर है, जहाँ पुस्तकों के रूप में मूक; किन्तु ज्ञान की चेतनायुक्त देवता निवास करते हैं। | ||
* वही उन्नति कर सकता है, जो स्वयं को उपदेश देता है। | * वही उन्नति कर सकता है, जो स्वयं को उपदेश देता है। | ||
* वही सबसे तेज़ चलता है, जो अकेला चलता है। | |||
* वही जीवति है, जिसका [[मस्तिष्क]] ठण्डा, रक्त गरम, हृदय कोमल और पुरुषार्थ प्रखर है। | * वही जीवति है, जिसका [[मस्तिष्क]] ठण्डा, रक्त गरम, हृदय कोमल और पुरुषार्थ प्रखर है। | ||
* वे माता-पिता धन्य हैं, जो अपनी संतान के लिए उत्तम पुस्तकों का एक संग्रह छोड़ जाते हैं। | * वे माता-पिता धन्य हैं, जो अपनी संतान के लिए उत्तम पुस्तकों का एक संग्रह छोड़ जाते हैं। | ||
* व्यक्ति का चिंतन और चरित्र इतना ढीला हो गया है कि स्वार्थ के लिए अनर्थ करने में व्यक्ति चूकता नहीं। | * व्यक्ति का चिंतन और चरित्र इतना ढीला हो गया है कि स्वार्थ के लिए अनर्थ करने में व्यक्ति चूकता नहीं। | ||
* व्यक्ति दौलत से नहीं, ज्ञान से अमीर होता है। | |||
* वर्ण, आश्रम आदि की जो विशेषता है, वह दूसरों की सेवा करने के लिए है, अभिमान करने के लिए नहीं। | |||
* विवेकशील व्यक्ति उचित अनुचित पर विचार करता है और अनुचित को किसी भी मूल्य पर स्वीकार नहीं करता। | * विवेकशील व्यक्ति उचित अनुचित पर विचार करता है और अनुचित को किसी भी मूल्य पर स्वीकार नहीं करता। | ||
* व्यक्तित्व की अपनी वाणी है, जो जीभ या कलम का इस्तेमाल किये बिना भी लोगों के अंतराल को छूती है। | * व्यक्तित्व की अपनी वाणी है, जो जीभ या कलम का इस्तेमाल किये बिना भी लोगों के अंतराल को छूती है। | ||
पंक्ति 446: | पंक्ति 323: | ||
* विवेक और पुरुषार्थ जिसके साथी हैं, वही प्रकाश प्राप्त करेंगे। | * विवेक और पुरुषार्थ जिसके साथी हैं, वही प्रकाश प्राप्त करेंगे। | ||
* विश्वास से आश्चर्य-जनक प्रोत्साहन मिलता है। | * विश्वास से आश्चर्य-जनक प्रोत्साहन मिलता है। | ||
* विचार शहादत, कुर्बानी, शक्ति, शौर्य, साहस व स्वाभिमान है। विचार आग व तूफ़ान है, साथ ही शान्ति व सन्तुष्टी का पैग़ाम है। | |||
* विचार शहादत, कुर्बानी, शक्ति, शौर्य, साहस व स्वाभिमान है। विचार आग व तूफ़ान है, साथ ही शान्ति व सन्तुष्टी का | |||
* विचार ही सम्पूर्ण खुशियों का आधार हैं। | * विचार ही सम्पूर्ण खुशियों का आधार हैं। | ||
* विचारों की अपवित्रता ही हिंसा, अपराध, क्रूरता, शोषण, अन्याय, अधर्म और भ्रष्टाचार का कारण है। | * विचारों की अपवित्रता ही हिंसा, अपराध, क्रूरता, शोषण, अन्याय, अधर्म और भ्रष्टाचार का कारण है। | ||
* विचारों की पवित्रता ही नैतिकता है। | * विचारों की पवित्रता ही नैतिकता है। | ||
* विचारों की पवित्रता स्वयं एक स्वास्थ्यवर्धक रसायन है। | * विचारों की पवित्रता स्वयं एक स्वास्थ्यवर्धक रसायन है। | ||
* विचारों का ही परिणाम है - हमारा सम्पूर्ण जीवन। विचार ही बीज है, | * विचारों का ही परिणाम है - हमारा सम्पूर्ण जीवन। विचार ही बीज है, जीवनरूपी इस व्रक्ष का। | ||
* विचारवान व संस्कारवान ही अमीर व | * विचारों को कार्यरूप देना ही सफलता का रहस्य है। | ||
* विचारवान व संस्कारवान ही अमीर व महान् है तथा विचारहीन ही कंगाल व दरिद्र है। | |||
* विचारशीलता ही मनुष्यता और विचारहीनता ही पशुता है। | * विचारशीलता ही मनुष्यता और विचारहीनता ही पशुता है। | ||
* वैचारिक दरिद्रता ही देश के दुःख, अभाव पीड़ा व अवनति का कारण है। वैचारिक दृढ़ता ही देश की सुख-समृद्धि व विकास का मूल मंत्र है। | * वैचारिक दरिद्रता ही देश के दुःख, अभाव पीड़ा व अवनति का कारण है। वैचारिक दृढ़ता ही देश की सुख-समृद्धि व विकास का मूल मंत्र है। | ||
* विद्या की आकांक्षा यदि सच्ची हो, गहरी हो तो उसके रह्ते कोई व्यक्ति कदापि मूर्ख, अशिक्षित नहीं रह सकता। - वाङ्गमय | * विद्या की आकांक्षा यदि सच्ची हो, गहरी हो तो उसके रह्ते कोई व्यक्ति कदापि मूर्ख, अशिक्षित नहीं रह सकता। - वाङ्गमय | ||
* विद्या वह अच्छी, जिसके पढ़ने से बैर द्वेष भूल जाएँ। जो विद्वान् बैर द्वेष रखता है, यह जैसा पढ़ा, वैसा न पढ़ा। | |||
* वास्तविक सौन्दर्य के आधर हैं - स्वस्थ शरीर, निर्विकार मन और पवित्र आचरण। | * वास्तविक सौन्दर्य के आधर हैं - स्वस्थ शरीर, निर्विकार मन और पवित्र आचरण। | ||
* विषयों, व्यसनों और विलासों में सुख खोजना और पाने की आशा करना एक भयानक दुराशा है। | * विषयों, व्यसनों और विलासों में सुख खोजना और पाने की आशा करना एक भयानक दुराशा है। | ||
पंक्ति 467: | पंक्ति 345: | ||
* व्यक्तिवाद के प्रति उपेक्षा और समूहवाद के प्रति निष्ठा रखने वाले व्यक्तियों का समाज ही समुन्नत होता है। | * व्यक्तिवाद के प्रति उपेक्षा और समूहवाद के प्रति निष्ठा रखने वाले व्यक्तियों का समाज ही समुन्नत होता है। | ||
* विपत्ति से असली हानि उसकी उपस्थिति से नहीं होती, जब मन:स्थिति उससे लोहा लेने में असमर्थता प्रकट करती है तभी व्यक्ति टूटता है और हानि सहता है। | * विपत्ति से असली हानि उसकी उपस्थिति से नहीं होती, जब मन:स्थिति उससे लोहा लेने में असमर्थता प्रकट करती है तभी व्यक्ति टूटता है और हानि सहता है। | ||
* विपन्नता की स्थिति में धैर्य न छोड़ना मानसिक संतुलन नष्ट न होने देना, आशा पुरुषार्थ को न छोड़ना, आस्तिकता अर्थात् ईश्वर विश्वास का प्रथम | * विपन्नता की स्थिति में धैर्य न छोड़ना मानसिक संतुलन नष्ट न होने देना, आशा पुरुषार्थ को न छोड़ना, आस्तिकता अर्थात् ईश्वर विश्वास का प्रथम चिह्न है। | ||
* वहाँ मत देखो जहाँ आप गिरे। वहाँ देखो जहाँ से आप फिसले। | |||
* विद्वत्ता युवकों को संयमी बनाती है। यह बुढ़ापे का सहारा है, निर्धनता में धन है, और धनवानों के लिए आभूषण है। | |||
==य== | |||
* यदि तुम फूल चाहते हो तो जल से पौधों को सींचना भी सीखो। | * यदि तुम फूल चाहते हो तो जल से पौधों को सींचना भी सीखो। | ||
* यदि कोई दूसरों की | * यदि कोई दूसरों की ज़िन्दगी को खुशहाल बनाता है तो उसकी ज़िन्दगी अपने आप खुशहाल बन जाती है। | ||
* यदि कोई तुम्हारे समीप अन्य किसी साथी की निन्दा करना चाहे, तो तुम उस ओर बिल्कुल ध्यान न दो। इन बातों को सुनना भी महान् पाप है, उससे भविष्य में विवाद का सूत्रपात होगा। | |||
* यदि व्यक्ति के संस्कार प्रबल होते हैं तो वह नैतिकता से भटकता नहीं है। | * यदि व्यक्ति के संस्कार प्रबल होते हैं तो वह नैतिकता से भटकता नहीं है। | ||
* यदि पुत्र | * यदि पुत्र विद्वान् और माता-पिता की सेवा करने वाला न हो तो उसका धरती पर जन्म लेना व्यर्थ है। | ||
* यदि ज़्यादा पैसा कमाना हाथ की बात नहीं तो कम खर्च करना तो हाथ की बात है; क्योंकि खर्चीला जीवन बनाना अपनी स्वतन्त्रता को खोना है। | * यदि ज़्यादा पैसा कमाना हाथ की बात नहीं तो कम खर्च करना तो हाथ की बात है; क्योंकि खर्चीला जीवन बनाना अपनी स्वतन्त्रता को खोना है। | ||
* यदि सज्जनो के मार्ग पर पुरा नहीं चला जा सकता तो थोडा ही चले। सन्मार्ग पर चलने वाला पुरुष नष्ट नहीं होता। | |||
* यदि आपको मरने का डर है, तो इसका यही अर्थ है, की आप जीवन के महत्त्व को ही नहीं समझते। | * यदि आपको मरने का डर है, तो इसका यही अर्थ है, की आप जीवन के महत्त्व को ही नहीं समझते। | ||
* यदि आपको कोई कार्य कठिन लगता है तो इसका अर्थ है कि आप उस कार्य को ग़लत तरीके से कर रहे हैं। | |||
* यदि बचपन व माँ की कोख की याद रहे, तो हम कभी भी माँ-बाप के कृतघ्न नहीं हो सकते। अपमान की ऊचाईयाँ छूने के बाद भी अतीत की याद व्यक्ति के ज़मीन से पैर नहीं उखड़ने देती। | * यदि बचपन व माँ की कोख की याद रहे, तो हम कभी भी माँ-बाप के कृतघ्न नहीं हो सकते। अपमान की ऊचाईयाँ छूने के बाद भी अतीत की याद व्यक्ति के ज़मीन से पैर नहीं उखड़ने देती। | ||
* यदि मनुष्य कुछ सीखना चाहे, तो उसकी प्रत्येक भूल कुछ न कुछ सिखा देती है। | * यदि मनुष्य कुछ सीखना चाहे, तो उसकी प्रत्येक भूल कुछ न कुछ सिखा देती है। | ||
* यदि | * यदि उपयोगी और महत्वपूर्ण बन कर विश्व में सम्मानित रहना है तो सबके काम के बनो और सदा सक्रिय रहो। | ||
* यह सच है कि सच्चाई को अपनाना बहुत अच्छी बात है, लेकिन किसी सच से दूसरे का नुकसान होता हो तो, ऐसा सच बोलते समय सौ बार सोच लेना चाहिए। | * यह सच है कि सच्चाई को अपनाना बहुत अच्छी बात है, लेकिन किसी सच से दूसरे का नुकसान होता हो तो, ऐसा सच बोलते समय सौ बार सोच लेना चाहिए। | ||
* यह संसार कर्म की कसौटी है। यहाँ मनुष्य की पहचान उसके कर्मों से होती है। | * यह संसार कर्म की कसौटी है। यहाँ मनुष्य की पहचान उसके कर्मों से होती है। | ||
पंक्ति 487: | पंक्ति 370: | ||
* यथार्थ को समझना ही सत्य है। इसी को विवेक कहते हैं। | * यथार्थ को समझना ही सत्य है। इसी को विवेक कहते हैं। | ||
* योग के दृष्टिकोण से तुम जो करते हो वह नहीं, बल्कि तुम कैसे करते हो, वह बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण है। | * योग के दृष्टिकोण से तुम जो करते हो वह नहीं, बल्कि तुम कैसे करते हो, वह बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण है। | ||
* योग्यता आपको सफलता की ऊँचाई तक पहुँचा सकती है किन्तु चरित्र आपको उस ऊँचाई पर बनाये रखती है। | |||
* या तो हाथीवाले से मित्रता न करो, या फिर ऐसा मकान बनवाओ जहां उसका हाथी आकर खड़ा हो सके। | |||
==ब== | |||
* बुद्धिमान बनने का तरीका यह है कि आज हम जितना जानते हैं, भविष्य में उससे अधिक जानने के लिए प्रयत्नशील रहें। | * बुद्धिमान बनने का तरीका यह है कि आज हम जितना जानते हैं, भविष्य में उससे अधिक जानने के लिए प्रयत्नशील रहें। | ||
* बुद्धिमान वह है, जो किसी को ग़लतियों से हानि होते देखकर अपनी ग़लतियाँ सुधार लेता है। | * बुद्धिमान वह है, जो किसी को ग़लतियों से हानि होते देखकर अपनी ग़लतियाँ सुधार लेता है। | ||
पंक्ति 494: | पंक्ति 379: | ||
* बड़प्पन सुविधा संवर्धन में नहीं, सद्गुण संवर्धन का नाम है। | * बड़प्पन सुविधा संवर्धन में नहीं, सद्गुण संवर्धन का नाम है। | ||
* बड़प्पन सादगी और शालीनता में है। | * बड़प्पन सादगी और शालीनता में है। | ||
* बाहर मैं, मेरा और अंदर तू, तेरा, तेरी के भाव के साथ जीने का आभास जिसे हो गया, वह उसके जीवन की एक | * बाहर मैं, मेरा और अंदर तू, तेरा, तेरी के भाव के साथ जीने का आभास जिसे हो गया, वह उसके जीवन की एक महान् व उत्तम प्राप्ति है। | ||
* बिना गुरु के ज्ञान नहीं होता। | * बिना गुरु के ज्ञान नहीं होता। | ||
* बिना सेवा के चित्त शुद्धि नहीं होती और चित्तशुद्धि के बिना परमात्मतत्व की अनुभूति नहीं होती। | * बिना सेवा के चित्त शुद्धि नहीं होती और चित्तशुद्धि के बिना परमात्मतत्व की अनुभूति नहीं होती। | ||
पंक्ति 504: | पंक्ति 389: | ||
* बुरी मंत्रणा से राजा, विषयों की आसक्ति से योगी, स्वाध्याय न करने से विद्वान, अधिक प्यार से पुत्र, दुष्टों की संगती से चरित्र, प्रदेश में रहने से प्रेम, अन्याय से ऐश्वर्य, प्रेम न होने से मित्रता तथा प्रमोद से धन नष्ट हो जाता है; अतः बुद्धिमान अपना सभी प्रकार का धन संभालकर रखता है, बुरे समय का हमें हमेशा ध्यान रहता है। | * बुरी मंत्रणा से राजा, विषयों की आसक्ति से योगी, स्वाध्याय न करने से विद्वान, अधिक प्यार से पुत्र, दुष्टों की संगती से चरित्र, प्रदेश में रहने से प्रेम, अन्याय से ऐश्वर्य, प्रेम न होने से मित्रता तथा प्रमोद से धन नष्ट हो जाता है; अतः बुद्धिमान अपना सभी प्रकार का धन संभालकर रखता है, बुरे समय का हमें हमेशा ध्यान रहता है। | ||
* बुराई मनुष्य के बुरे कर्मों की नहीं, वरन् बुरे विचारों की देन होती है। | * बुराई मनुष्य के बुरे कर्मों की नहीं, वरन् बुरे विचारों की देन होती है। | ||
* बुराई के अवसर दिन में सौ बार आते हैं तो भलाई के साल में एकाध बार। | |||
* बहुमत की आवाज़ न्याय का द्योतक नहीं है। | * बहुमत की आवाज़ न्याय का द्योतक नहीं है। | ||
* बाह्य | * बाह्य जगत् में प्रसिद्धि की तीव्र लालसा का अर्थ है-तुम्हें आन्तरिक सम्रध्द व शान्ति उपलब्ध नहीं हो पाई है। | ||
* बुढ़ापा आयु नहीं, विचारों का परिणाम है। | * बुढ़ापा आयु नहीं, विचारों का परिणाम है। | ||
* बलिदान वही कर सकता है, जो शुद्ध है, निर्भय है और योग्य है। | * बलिदान वही कर सकता है, जो शुद्ध है, निर्भय है और योग्य है। | ||
* बातचीत का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू यह होता है कि ध्यानपूर्वक यह सुना जाए कि कहा क्या जा रहा है। | |||
==श== | |||
* शुभ कार्यों को कल के लिए मत टालिए, क्योंकि कल कभी आता नहीं। | * शुभ कार्यों को कल के लिए मत टालिए, क्योंकि कल कभी आता नहीं। | ||
* शुभ कार्यों के लिए हर दिन शुभ और अशुभ कार्यों के लिए हर दिना अशुभ है। | * शुभ कार्यों के लिए हर दिन शुभ और अशुभ कार्यों के लिए हर दिना अशुभ है। | ||
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* शालीनता बिना मूल्य मिलती है, पर उससे सब कुछ ख़रीदा जा सकता है। | * शालीनता बिना मूल्य मिलती है, पर उससे सब कुछ ख़रीदा जा सकता है। | ||
* शत्रु की घात विफल हो सकती है, किन्तु आस्तीन के साँप बने मित्र की घात विफल नहीं होती। | * शत्रु की घात विफल हो सकती है, किन्तु आस्तीन के साँप बने मित्र की घात विफल नहीं होती। | ||
* शत्रु को पराजित करने के लिए ढाल तथा तलवार की आवश्यकता होती है। इसलिए अंग्रेज़ी और संस्कृत का अध्ययन मन लगाकर करो। | |||
* शरीर स्वस्थ और निरोग हो, तो ही व्यक्ति दिनचर्या का पालन विधिवत कर सकता है, दैनिक कार्य और श्रम कर सकता है। | * शरीर स्वस्थ और निरोग हो, तो ही व्यक्ति दिनचर्या का पालन विधिवत कर सकता है, दैनिक कार्य और श्रम कर सकता है। | ||
* शरीर और मन की प्रसन्नता के लिए जिसने आत्म-प्रयोजन का बलिदान कर दिया, उससे बढ़कर अभागा एवं दुबुद्धि और कौन हो सकता है? | * शरीर और मन की प्रसन्नता के लिए जिसने आत्म-प्रयोजन का बलिदान कर दिया, उससे बढ़कर अभागा एवं दुबुद्धि और कौन हो सकता है? | ||
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* शूरता है सभी परिस्थितियों में परम सत्य के लिए डटे रह सकना, विरोध में भी उसकी घोषण करना और जब कभी आवश्यकता हो तो उसके लिए युद्ध करना। | * शूरता है सभी परिस्थितियों में परम सत्य के लिए डटे रह सकना, विरोध में भी उसकी घोषण करना और जब कभी आवश्यकता हो तो उसके लिए युद्ध करना। | ||
==ज्ञ== | |||
* ज्ञान मूर्खता छुडवाता है और परमात्मा का सुख देता है। यही आत्मसाक्षात्कार का मार्ग है। | * ज्ञान मूर्खता छुडवाता है और परमात्मा का सुख देता है। यही आत्मसाक्षात्कार का मार्ग है। | ||
* ज्ञान अक्षय है। उसकी प्राप्ति मनुष्य शय्या तक बन पड़े तो भी उस अवसर को हाथ से न जाने देना चाहिए। | * ज्ञान अक्षय है। उसकी प्राप्ति मनुष्य शय्या तक बन पड़े तो भी उस अवसर को हाथ से न जाने देना चाहिए। | ||
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* ज्ञान अक्षय है, उसकी प्राप्ति शैय्या तक बन पड़े तो भी उस अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाहिए। | * ज्ञान अक्षय है, उसकी प्राप्ति शैय्या तक बन पड़े तो भी उस अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाहिए। | ||
* ज्ञानदान से बढ़कर आज की परिस्थितियों में और कोई दान नहीं। | * ज्ञानदान से बढ़कर आज की परिस्थितियों में और कोई दान नहीं। | ||
* ज्ञान की आराधना से ही मनुष्य तुच्छ से | * ज्ञान की आराधना से ही मनुष्य तुच्छ से महान् बनता है। | ||
* ज्ञान की सार्थकता तभी है, जब वह आचरण में आए। | * ज्ञान की सार्थकता तभी है, जब वह आचरण में आए। | ||
* ज्ञान का जितना भाग व्यवहार में लाया जा सके वही सार्थक है, अन्यथा वह गधे पर लदे बोझ के समान है। | * ज्ञान का जितना भाग व्यवहार में लाया जा सके वही सार्थक है, अन्यथा वह गधे पर लदे बोझ के समान है। | ||
* ज्ञान का अंतिम लक्ष्य चरित्र निर्माण ही है। | * ज्ञान का अंतिम लक्ष्य चरित्र निर्माण ही है। | ||
* ज्ञान और आचरण में जो सामंजस्य पैदा कर सके, उसे ही विद्या कहते हैं। | * ज्ञान और आचरण में जो सामंजस्य पैदा कर सके, उसे ही विद्या कहते हैं। | ||
* ज्ञान मुक्त करता है, पर ज्ञान का अभिमान नरकों में ले जाता है। | |||
* ज्ञानयोगी की तरह सोचें, कर्मयोगी की तरह पुरुषार्थ करें और भक्तियोगी की तरह सहृदयता उभारें। | * ज्ञानयोगी की तरह सोचें, कर्मयोगी की तरह पुरुषार्थ करें और भक्तियोगी की तरह सहृदयता उभारें। | ||
* ज्ञानीजन विद्या विनय युक्त ब्राम्हण तथा गौ हाथी कुत्ते और चाण्डाल मे भी समदर्शी होते हैं। | |||
==न== | |||
* न तो दरिद्रता में मोक्ष है और न सम्पन्नता में, बंधन धनी हो या निर्धन दोनों ही स्थितियों में ज्ञान से मोक्ष मिलता है। | * न तो दरिद्रता में मोक्ष है और न सम्पन्नता में, बंधन धनी हो या निर्धन दोनों ही स्थितियों में ज्ञान से मोक्ष मिलता है। | ||
* न तो किसी तरह का कर्म करने से नष्ट हुई वस्तु मिल सकती है, न चिंता से। कोई ऐसा दाता भी नहीं है, जो मनुष्य को विनष्ट वस्तु दे दे, विधाता के विधान के अनुसार मनुष्य बारी-बारी से समय पर सब कुछ पा लेता है। | * न तो किसी तरह का कर्म करने से नष्ट हुई वस्तु मिल सकती है, न चिंता से। कोई ऐसा दाता भी नहीं है, जो मनुष्य को विनष्ट वस्तु दे दे, विधाता के विधान के अनुसार मनुष्य बारी-बारी से समय पर सब कुछ पा लेता है। | ||
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* नारी का असली श्रृंगार, सादा जीवन उच्च विचार। | * नारी का असली श्रृंगार, सादा जीवन उच्च विचार। | ||
* नाव स्वयं ही नदी पार नहीं करती। पीठ पर अनेकों को भी लाद कर उतारती है। सन्त अपनी सेवा भावना का उपयोग इसी प्रकार किया करते हैं। | * नाव स्वयं ही नदी पार नहीं करती। पीठ पर अनेकों को भी लाद कर उतारती है। सन्त अपनी सेवा भावना का उपयोग इसी प्रकार किया करते हैं। | ||
* नौकर रखना बुरा है लेकिन मालिक रखना और भी बुरा है। | |||
* निराशापूर्ण विचार ही आपकी अवनति के कारण है। | |||
* न्याय नहीं बल्कि त्याग और केवल त्याग ही मित्रता का नियम है। | |||
==ह== | |||
* हर शाम में एक जीवन का समापन हो रहा है और हर सवेरे में नए जीवन की शुरुआत होती है। | * हर शाम में एक जीवन का समापन हो रहा है और हर सवेरे में नए जीवन की शुरुआत होती है। | ||
* हर व्यक्ति संवेदनशील होता है, पत्थर कोई नहीं होता; लेकिन सज्जन व्यक्ति पर बाहरी प्रभाव पानी की लकीर की भाँति होता है। | * हर व्यक्ति संवेदनशील होता है, पत्थर कोई नहीं होता; लेकिन सज्जन व्यक्ति पर बाहरी प्रभाव पानी की लकीर की भाँति होता है। | ||
* हर व्यक्ति जाने या अनजाने में अपनी परिस्थितियों का निर्माण आप करता है। | * हर व्यक्ति जाने या अनजाने में अपनी परिस्थितियों का निर्माण आप करता है। | ||
* हर दिन वर्ष का सर्वोत्तम दिन है। | * हर दिन वर्ष का सर्वोत्तम दिन है। | ||
* हर चीज़ बदलती है, नष्ट कोई चीज़ नहीं होती। | |||
* हर मनुष्य का '''भाग्य''' उसकी मुट्ठी में है। | * हर मनुष्य का '''भाग्य''' उसकी मुट्ठी में है। | ||
* हर वक्त, हर स्थिति में मुस्कराते रहिये, निर्भय रहिये, कत्र्तव्य करते रहिये और प्रसन्न रहिये। | * हर वक्त, हर स्थिति में मुस्कराते रहिये, निर्भय रहिये, कत्र्तव्य करते रहिये और प्रसन्न रहिये। | ||
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* हमें अपने अभाव एवं स्वभाव दोनों को ही ठीक करना चाहिए; क्योंकि ये दोनों ही उन्नति के रास्ते में बाधक होते हैं। | * हमें अपने अभाव एवं स्वभाव दोनों को ही ठीक करना चाहिए; क्योंकि ये दोनों ही उन्नति के रास्ते में बाधक होते हैं। | ||
* हमारे शरीर को नियमितता भाती है, लेकिन मन सदैव परिवर्तन चाहता है। | * हमारे शरीर को नियमितता भाती है, लेकिन मन सदैव परिवर्तन चाहता है। | ||
* हमारे वचन चाहे कितने भी श्रेष्ठ क्यों न हों, परन्तु दुनिया हमें हमारे कर्मों के द्वारा पहचानती है। | * हमारे वचन चाहे कितने भी श्रेष्ठ क्यों न हों, परन्तु दुनिया हमें हमारे कर्मों के द्वारा पहचानती है। | ||
* हमारे सुख-दुःख का कारण दूसरे व्यक्ति या परिस्थितियाँ नहीं अपितु हमारे अच्छे या बूरे विचार होते हैं। | * हमारे सुख-दुःख का कारण दूसरे व्यक्ति या परिस्थितियाँ नहीं अपितु हमारे अच्छे या बूरे विचार होते हैं। | ||
* हमारा जीना व | * हमारा जीना व दुनिया से जाना ही गौरवपूर्ण होने चाहिए। | ||
* हँसती-हँसाती | * हँसती-हँसाती ज़िन्दगी ही सार्थक है। | ||
* हम क्या करते हैं, इसका महत्त्व कम है; किन्तु उसे हम किस भाव से करते हैं इसका बहुत महत्त्व है। | * हम क्या करते हैं, इसका महत्त्व कम है; किन्तु उसे हम किस भाव से करते हैं इसका बहुत महत्त्व है। | ||
* हम अपनी कमियों को पहचानें और इन्हें हटाने और उनके स्थान पर सत्प्रवृत्तियाँ स्थापित करने का उपाय सोचें इसी में अपना व मानव मात्र का कल्याण है। | * हम अपनी कमियों को पहचानें और इन्हें हटाने और उनके स्थान पर सत्प्रवृत्तियाँ स्थापित करने का उपाय सोचें इसी में अपना व मानव मात्र का कल्याण है। | ||
* हम कोई ऐसा काम न करें, जिसमें अपनी अंतरात्मा ही अपने को धिक्कारे। - वाङ्गमय | * हम कोई ऐसा काम न करें, जिसमें अपनी अंतरात्मा ही अपने को धिक्कारे। - वाङ्गमय | ||
* हम आमोद-प्रमोद मनाते चलें और आस-पास का समाज आँसुओं से भीगता रहे, ऐसी हमारी हँसी-खुशी को धिक्कार है। | |||
* हम मात्र प्रवचन से नहीं अपितु आचरण से परिवर्तन करने की संस्कृति में विश्वास रखते हैं। | |||
* हम किसी बड़ी खुशी के इन्तिजार में छोटी-छोटी खुशियों को नजरअंदाज़कर देते हैं किन्तु वास्तविकता यह है कि छोटी-छोटी खुशियाँ ही मिलकर एक बड़ी खुशी बनती है। इसलिए छोटी-छोटी खुशियों का आनन्द लीजिए, बाद में जब आप उन्हें याद करेंगे तो वही आपको बड़ी खुशियाँ लगेंगी। | |||
* हमारी कितने रातें सिसकते बीती हैं - कितनी बार हम फूट-फूट कर रोये हैं इसे कोई कहाँ जानता है? लोग हमें संत, सिद्ध, ज्ञानी मानते हैं, कोई लेखक, विद्वान, वक्ता, नेता, समझा हैं। कोई उसे देख सका होता तो उसे मानवीय व्यथा वेदना की अनुभूतियों से करुण कराह से हाहाकार करती एक उद्विग्न आत्मा भर इस हड्डियों के ढ़ाँचे में बैठी बिलखती दिखाई पड़ती है। | * हमारी कितने रातें सिसकते बीती हैं - कितनी बार हम फूट-फूट कर रोये हैं इसे कोई कहाँ जानता है? लोग हमें संत, सिद्ध, ज्ञानी मानते हैं, कोई लेखक, विद्वान, वक्ता, नेता, समझा हैं। कोई उसे देख सका होता तो उसे मानवीय व्यथा वेदना की अनुभूतियों से करुण कराह से हाहाकार करती एक उद्विग्न आत्मा भर इस हड्डियों के ढ़ाँचे में बैठी बिलखती दिखाई पड़ती है। | ||
* हम स्वयं ऐसे बनें, जैसा दूसरों को बनाना चाहते हैं। हमारे क्रियाकलाप अंदर और बाहर से उसी स्तर के बनें जैसा हम दूसरों द्वारा क्रियान्वित किये जाने की अपेक्षा करते हैं। | * हम स्वयं ऐसे बनें, जैसा दूसरों को बनाना चाहते हैं। हमारे क्रियाकलाप अंदर और बाहर से उसी स्तर के बनें जैसा हम दूसरों द्वारा क्रियान्वित किये जाने की अपेक्षा करते हैं। | ||
* हे मनुष्य! यश के पीछे मत भाग, कत्र्तव्य के पीछे भाग। लोग क्या कहते हैं यह न सुनकर विवेक के पीछे भाग। दुनिया चाहे कुछ भी कहे, सत्य का सहारा मत छोड़। | * हे मनुष्य! यश के पीछे मत भाग, कत्र्तव्य के पीछे भाग। लोग क्या कहते हैं यह न सुनकर विवेक के पीछे भाग। दुनिया चाहे कुछ भी कहे, सत्य का सहारा मत छोड़। | ||
* हाथी कभी भी अपने दाँत को ढोते हुए नहीं थकता। | |||
==ध== | |||
* '''धर्म''' का मार्ग फूलों सेज नहीं, इसमें बड़े-बड़े कष्ट सहन करने पड़ते हैं। | * '''धर्म''' का मार्ग फूलों सेज नहीं, इसमें बड़े-बड़े कष्ट सहन करने पड़ते हैं। | ||
* धर्म अंत:करण को प्रभावित और प्रशासित करता है, उसमें उत्कृष्टता अपनाने, आदर्शों को कार्यान्वित करने की उमंग उत्पन्न करता है। - वाङ्गमय | * धर्म अंत:करण को प्रभावित और प्रशासित करता है, उसमें उत्कृष्टता अपनाने, आदर्शों को कार्यान्वित करने की उमंग उत्पन्न करता है। - वाङ्गमय | ||
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* धन्य है वे जिन्होंने करने के लिए अपना काम प्राप्त कर लिया है और वे उसमें लीन है। अब उन्हें किसी और वरदान की याचना नहीं करना चाहिए। | * धन्य है वे जिन्होंने करने के लिए अपना काम प्राप्त कर लिया है और वे उसमें लीन है। अब उन्हें किसी और वरदान की याचना नहीं करना चाहिए। | ||
==भ== | |||
* '''भगवान''' से निराश कभी मत होना, संसार से आशा कभी मत करना; क्योंकि संसार स्वार्थी है। इसका नमूना तुम्हारा खुद शरीर है। | * '''भगवान''' से निराश कभी मत होना, संसार से आशा कभी मत करना; क्योंकि संसार स्वार्थी है। इसका नमूना तुम्हारा खुद शरीर है। | ||
* भगवान की दण्ड संहिता में असामाजिक प्रवृत्ति भी अपराध है। | * भगवान की दण्ड संहिता में असामाजिक प्रवृत्ति भी अपराध है। | ||
पंक्ति 632: | पंक्ति 517: | ||
* भाग्यशाली होते हैं वे, जो अपने जीवन के संघर्ष के बीच एक मात्र सहारा परमात्मा को मानते हुए आगे बढ़ते जाते हैं। | * भाग्यशाली होते हैं वे, जो अपने जीवन के संघर्ष के बीच एक मात्र सहारा परमात्मा को मानते हुए आगे बढ़ते जाते हैं। | ||
* भले बनकर तुम दूसरों की भलाई का कारण भी बन जाते हो। | * भले बनकर तुम दूसरों की भलाई का कारण भी बन जाते हो। | ||
* भले ही आपका जन्म सामान्य हो, आपकी मृत्यु इतिहास बन सकती है। | |||
* भीड़ में खोया हुआ इंसान खोज लिया जाता है, परन्तु विचारों की भीड़ के बीहड़ में भटकते हुए इंसान का पूरा जीवन अंधकारमय हो जाता है। | * भीड़ में खोया हुआ इंसान खोज लिया जाता है, परन्तु विचारों की भीड़ के बीहड़ में भटकते हुए इंसान का पूरा जीवन अंधकारमय हो जाता है। | ||
* भलमनसाहत का व्यवहार करने वाला एक चमकता हुआ हीरा है। | * भलमनसाहत का व्यवहार करने वाला एक चमकता हुआ हीरा है। | ||
* भूत लौटने वाला नहीं, भविष्य का कोई निश्चय नहीं; सँभालने और बनाने योग्य तो वर्तमान है। | * भूत लौटने वाला नहीं, भविष्य का कोई निश्चय नहीं; सँभालने और बनाने योग्य तो वर्तमान है। | ||
* भूत इतिहास होता है, भविष्य रहस्य होता है और वर्तमान ईश्वर का वरदान होता है। | |||
==ल== | |||
* लोगों को चाहिए कि इस जगत् में मनुष्यता धारण कर उत्तम शिक्षा, अच्छा स्वभाव, धर्म, योग्याभ्यास और विज्ञान का सम्यक ग्रहण करके सुख का प्रयत्न करें, यही जीवन की सफलता है। | |||
* लोग तुम्हारी स्तुति करें या निन्दा, लक्ष्मी तुम्हारे ऊपर कृपालु हो या न हो, तुम्हारा देहान्त आज हो या एक युग मे, तुम न्यायपथ से कभी भ्रष्ट न हो। | |||
* लोगों को चाहिए कि इस | |||
* | |||
* लोग क्या कहते हैं - इस पर ध्यान मत दो। सिर्फ़ यह देखो कि जो करने योग्य था, वह बनपड़ा या नहीं? | * लोग क्या कहते हैं - इस पर ध्यान मत दो। सिर्फ़ यह देखो कि जो करने योग्य था, वह बनपड़ा या नहीं? | ||
* लोकसेवी नया प्रजनन बंद कर सकें, जितना हो चुका उसी के निर्वाह की बात सोचें तो उतने भर से उन समस्याओं का आधा समाधान हो सकता है जो पर्वत की तरह भारी और विशालकाय दीखती है। | * लोकसेवी नया प्रजनन बंद कर सकें, जितना हो चुका उसी के निर्वाह की बात सोचें तो उतने भर से उन समस्याओं का आधा समाधान हो सकता है जो पर्वत की तरह भारी और विशालकाय दीखती है। | ||
* लोभ आपदा की खाई है संतोष आनन्द का कोष। | |||
* लज्जा से रहित व्यक्ति ही स्वार्थ के साधक होते हैं। | |||
* लकीर के फ़कीर बनने से अच्छा है कि आत्महत्या कर ली जाये, लीक लीक गाड़ी चले, लीक ही चलें कपूत । लीक छोड़ तीनों चलें शायर, सिंह, सपूत ।। | |||
==र== | |||
* '''रोग''' का सूत्रपान मानव मन में होता है। | * '''रोग''' का सूत्रपान मानव मन में होता है। | ||
* राष्ट्र निर्माण जागरूक बुद्धिजीवियों से ही संभव है। | * राष्ट्र निर्माण जागरूक बुद्धिजीवियों से ही संभव है। | ||
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* राग-द्वेष की भावना अगर प्रेम, सदाचार और कर्त्तव्य को महत्त्व दें तो, मन की सभी समस्याओं का समाधान हो सकता है। | * राग-द्वेष की भावना अगर प्रेम, सदाचार और कर्त्तव्य को महत्त्व दें तो, मन की सभी समस्याओं का समाधान हो सकता है। | ||
* राष्ट्र को बुराइयों से बचाये रखने का उत्तरदायित्व पुरोहितों का है। | * राष्ट्र को बुराइयों से बचाये रखने का उत्तरदायित्व पुरोहितों का है। | ||
* राजा यदि लोभी है तो दरिद्र से दरिद्र है और दरिद्र यदि दिल का उदार है तो राजा से भी सुखी है। | |||
==श्र== | |||
* श्रम और तितिक्षा से शरीर मज़बूत बनता है। | * श्रम और तितिक्षा से शरीर मज़बूत बनता है। | ||
* श्रेष्ठता रहना देवत्व के समीप रहना है। | * श्रेष्ठता रहना देवत्व के समीप रहना है। | ||
पंक्ति 678: | पंक्ति 551: | ||
* श्रेष्ठ मार्ग पर क़दम बढ़ाने के लिए ईश्वर विश्वास एक सुयोग्य साथी की तरह सहायक सिद्ध होता है। | * श्रेष्ठ मार्ग पर क़दम बढ़ाने के लिए ईश्वर विश्वास एक सुयोग्य साथी की तरह सहायक सिद्ध होता है। | ||
==त== | |||
* तुम सेवा करने के लिए आये हो, हुकूमत करने के लिए नहीं। जान लो कष्ट सहने और परिश्रम करने के लिए तुम बुलाये गये हो, आलसी और वार्तालाप में समय नष्ट करने के लिए नहीं। | * तुम सेवा करने के लिए आये हो, हुकूमत करने के लिए नहीं। जान लो कष्ट सहने और परिश्रम करने के लिए तुम बुलाये गये हो, आलसी और वार्तालाप में समय नष्ट करने के लिए नहीं। | ||
* तीनों लोकों में प्रत्येक व्यक्ति सुख के लिये दौड़ता फिरता है, दुखों के लिये बिल्कुल नहीं, किन्तु दुःख के दो स्रोत हैं-एक है देह के प्रति मैं का भाव और दूसरा संसार की वस्तुओं के प्रति मेरेपन का भाव। | * तीनों लोकों में प्रत्येक व्यक्ति सुख के लिये दौड़ता फिरता है, दुखों के लिये बिल्कुल नहीं, किन्तु दुःख के दो स्रोत हैं-एक है देह के प्रति मैं का भाव और दूसरा संसार की वस्तुओं के प्रति मेरेपन का भाव। | ||
* तुम्हारा प्रत्येक छल सत्य के उस स्वच्छ प्रकाश में एक बाधा है जिसे तुम्हारे द्वारा उसी प्रकार प्रकाशित होना चाहिए जैसे | * तुम्हारा प्रत्येक छल सत्य के उस स्वच्छ प्रकाश में एक बाधा है जिसे तुम्हारे द्वारा उसी प्रकार प्रकाशित होना चाहिए जैसे साफ़ शीशे के द्वारा सूर्य का प्रकाश प्रकाशित होता है। | ||
* तर्क से विज्ञान में वृद्धि होती है, कुतर्क से अज्ञान बढ़ता है और वितर्क से अध्यात्मिक ज्ञान बढ़ता है। | * तर्क से विज्ञान में वृद्धि होती है, कुतर्क से अज्ञान बढ़ता है और वितर्क से अध्यात्मिक ज्ञान बढ़ता है। | ||
==फ== | |||
* फूलों की तरह हँसते-मुस्कराते जीवन व्यतीत करो। | * फूलों की तरह हँसते-मुस्कराते जीवन व्यतीत करो। | ||
* फल की सुरक्षा के लिये छिलका जितना | * फल की सुरक्षा के लिये छिलका जितना ज़रूरी है, धर्म को जीवित रखने के लिये सम्प्रदाय भी उतना ही काम का है। | ||
* फल के लिए प्रयत्न करो, परन्तु दुविधा में खड़े न रह जाओ। कोई भी कार्य ऐसा नहीं जिसे खोज और प्रयत्न से पूर्ण न कर सको। | * फल के लिए प्रयत्न करो, परन्तु दुविधा में खड़े न रह जाओ। कोई भी कार्य ऐसा नहीं जिसे खोज और प्रयत्न से पूर्ण न कर सको। | ||
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10:52, 11 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
इन्हें भी देखें: अनमोल वचन 1, अनमोल वचन 2, अनमोल वचन 4, अनमोल वचन 5, अनमोल वचन 6, अनमोल वचन 7, कहावत लोकोक्ति मुहावरे एवं सूक्ति और कहावत
अनमोल वचन |
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