"देवनागरी -देवीशंकर द्विवेदी": अवतरणों में अंतर
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चूंकि देवनागरी मूलतः [[संस्कृत]] के संदर्भ में थी, इसलिए हम उसके पुराने रूप की ही चर्चा करेंगे क्योंकि उसकी वैज्ञानिकता अवैज्ञानिकता का उचित विवेचन उसके मूल संदर्भ में ही किया जा सकता है। उपयुक्त बात तो यह होगी कि तथाकथित सुधारों के बाद प्राप्त होने वाली उसकी विचित्र अवस्थाओं का द्योतक भिन्न भिन्न नामों से नहीं तो देवनागरी-1, देवनागरी-2, आदि शीर्षकों से कराया जाए। | चूंकि देवनागरी मूलतः [[संस्कृत]] के संदर्भ में थी, इसलिए हम उसके पुराने रूप की ही चर्चा करेंगे क्योंकि उसकी वैज्ञानिकता अवैज्ञानिकता का उचित विवेचन उसके मूल संदर्भ में ही किया जा सकता है। उपयुक्त बात तो यह होगी कि तथाकथित सुधारों के बाद प्राप्त होने वाली उसकी विचित्र अवस्थाओं का द्योतक भिन्न भिन्न नामों से नहीं तो देवनागरी-1, देवनागरी-2, आदि शीर्षकों से कराया जाए। | ||
देवनागरी अक्षरों की तालिका को [[वर्णमाला (व्याकरण)|वर्णमाला]] कहा गया है क्योंकि सस्कृत के लिए अपनाई गई इस लिप्युक्ति का प्रत्येक अक्षर वस्तुतः एक वर्ण (सिलेबिल) होता है। [[स्वर (व्याकरण)|स्वर]] तो वार्णिक होते ही हैं, प्रत्येक व्यंजनाक्षर में देवनागरी शुद्ध रूप से (केवल) एक वर्णमूलक लिपि है। ‘केवल’ वर्णमूलक लिपि में प्रत्येक वर्ण के लिए एक स्वतंत्र अक्षर अपेक्षित होगा, वर्णों के घटकों का साम्य खोजकर किसी एक अक्षरांश, अक्षर का चिन्ह का प्रयोग उसके घटकों के लिए नहीं किया जाएगा। उदाहरणार्थ, ‘क’ तथा ‘का’ दो भिन्न भिन्न वर्ण हैं, इसके लिए ೦ तथा ០ सरीखे चिन्हों का निर्धारण करना ‘शुद्ध वर्णमूलकता’ होगी क्योंकि इनमें समान रूप से विद्यमान ‘क’ स्वनिम के लिए कोई एक अक्षरांश प्रयुक्त नहीं हुआ है। ऐसी वर्णमूलक लिपि में अक्षरों की संख्या बहुत अधिक हो जएगी। | देवनागरी अक्षरों की तालिका को [[वर्णमाला (व्याकरण)|वर्णमाला]] कहा गया है क्योंकि सस्कृत के लिए अपनाई गई इस लिप्युक्ति का प्रत्येक अक्षर वस्तुतः एक वर्ण (सिलेबिल) होता है। [[स्वर (व्याकरण)|स्वर]] तो वार्णिक होते ही हैं, प्रत्येक व्यंजनाक्षर में देवनागरी शुद्ध रूप से (केवल) एक वर्णमूलक लिपि है। ‘केवल’ वर्णमूलक लिपि में प्रत्येक वर्ण के लिए एक स्वतंत्र अक्षर अपेक्षित होगा, वर्णों के घटकों का साम्य खोजकर किसी एक अक्षरांश, अक्षर का चिन्ह का प्रयोग उसके घटकों के लिए नहीं किया जाएगा। उदाहरणार्थ, ‘क’ तथा ‘का’ दो भिन्न भिन्न वर्ण हैं, इसके लिए ೦ तथा ០ सरीखे चिन्हों का निर्धारण करना ‘शुद्ध वर्णमूलकता’ होगी क्योंकि इनमें समान रूप से विद्यमान ‘क’ स्वनिम के लिए कोई एक अक्षरांश प्रयुक्त नहीं हुआ है। ऐसी वर्णमूलक लिपि में अक्षरों की संख्या बहुत अधिक हो जएगी। | ||
देवनागरी ‘प्रधानता’ एक वर्णमूलक लिपि है क्योंकि उसमें आधार वर्ण को बनाया गया है यद्यपि उसके घटक स्वनिमों के साम्य वैषम्य का भी लाभ उठाया गया है। इस साम्य वैषम्य की उपेक्षा करना एक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक तथ्य की उपेक्षा करना होगा। स्वनिम की सत्ता स्वीकार करके अर्थ भेदकता के स्तर पर लघुतम | देवनागरी ‘प्रधानता’ एक वर्णमूलक लिपि है क्योंकि उसमें आधार वर्ण को बनाया गया है यद्यपि उसके घटक स्वनिमों के साम्य वैषम्य का भी लाभ उठाया गया है। इस साम्य वैषम्य की उपेक्षा करना एक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक तथ्य की उपेक्षा करना होगा। स्वनिम की सत्ता स्वीकार करके अर्थ भेदकता के स्तर पर लघुतम व्यावहारिक इकाई को पहचाना गया है। यह एक वैज्ञानिक सत्य की उपलब्धि रही है और लिपि निर्माण में उसकी वांछित उपादेयता भी रही है। दूसरी ओर भाषा की स्वतः उच्चारण योग्य लघुतम इकाई ‘वर्ण’ होती है। इसलिए लिपि को वर्ण मूलक आधार देना भी एक वैज्ञानिक सत्य को अंगीकार करना है। इस दृष्टि से हम देवनागरी की आक्षरिकी को ‘स्वनिमात्मक वर्णमाला’ (फोनेमिक सिलेबरी) कह सकते हैं। तीसरी उल्लेखनीय बात यह है देवनागरी के व्यंजनाक्षरों में अनिवार्य रूप से निहित मानने के लिए ‘अ’ माना है। आधुनिक स्वनझ इसमें इ, उ, आदि की अपेक्षा कोई अन्य ‘मूलता’ नहीं खोज पाते रहे हैं। एक्स-रे फिल्मों से यह रहस्योद्घाटन हुआ है कि उच्चारण से पूर्व वक्ता की जीह्वा वाक् के प्रारंभ की अनिवार्य मूल स्थिति से उत्पन्न होने वाले स्वर को ‘मूल’ स्वर मानना भी वैज्ञानिक और स्वनिक तथ्य है तथा व्यंजनाक्षरों मे निहित मानने के लिए उसका चयन भी स्वाभाविक और वैज्ञानिक है। देवनागरी की वैज्ञानिकता अवैज्ञानिकता का विवेचन करने के पूर्व हमे उस लिपि का वैज्ञानिक धरातल ठीक ठाक समझ लेना चाहिए। | ||
जो लोग कहते है। कि ‘आ’ को कहीं ‘आ’ तो कहीं ‘अ’ लिखना अवैज्ञानिक है, वे देवनागरी की वैज्ञानिकता का स्वरूप नहीं समझ पाए हैं और जाने अनजाने रोमन लिपि के सिद्धांत से प्रभावित हो गये हैं। देवनागरी के अतिरिक्त और कोई लिपि ऐसी नहीं है (उससे संबंद्ध लिपियों को छोड़कर) जो स्वनिमों के निर्देश के साथ साथ वर्णों की संख्या और उनकी सीमाओं का भी निर्देश करती चलें। ‘आ’ के प्रयोग से हमें ज्ञात हो जाता है कि इस वर्ण न्यष्टि पर कोई पूर्ववर्ती व्यंजन या व्यंजनानुक्रम आश्रित नहीं है, ‘अ’ के प्रयोग से हमें यह सूचना मिल जाती है कि वर्ण न्यष्टि पर कोई पूर्ववर्ती व्यंजन या व्यंजनुक्रम आश्रित है। [[संस्कृत]] में व्यंजन वर्ण विरल है, इसलिए उनके निर्देश के हेतु ‘अ’ युक्त अन्तिम व्यंजनाक्षर में ‘अ’ के लोप के लिए हलंत चिन्ह लगाने से कोई झंझट नहीं बढ़ता और [[हलंत का महत्त्व|हलंत चिन्ह]] से यह व्यक्त हो जाता है कि व्यंजन अपने पूर्ववर्ता वाणिक पर आश्रित है। यह कहना भी नासमझी है कि देवनागरी में मात्राओं का दाएं बाएं ऊपर नीचे लगाना ‘अवैज्ञानिक’ है। ‘वैज्ञानिकता’ और ‘एकरूपता’ समानार्थी शब्द नहीं हैं। एक द्रव के जो लक्षण होते हैं उससे मिलते जुलते सारे द्रवों के वही लक्षण नहीं होते। एक मात्रा जिस स्थान पर लगती है दूसरी मात्रा का भी उसी स्थान पर लगना आवश्यक नहीं है। संयुक्त व्यंजनों में तथा मात्राएं व अन्य चिह्न लगाने में मुख्य ध्येय होता है वर्ण का सीमांकन। साथ साथ इस बात का निर्देश दिया जाता है कि वर्ण न्यष्टि कौन सा स्वर है। इस निर्देश के लिए मात्रा कहां लगाई जाए, यह बात गौण है। जो लोग कहते हैं कि व्यंजनानुगामी स्वरों का निर्देश करने वाली मात्राएं अनिवार्यतः व्यंजनाक्षरों के बाद सीधी रेखा में लिखी जानी चाहिए, वे स्वनिमात्मक विचारों से प्रभावित होते हैं। ‘वर्ण मूलकता’ के कारण मात्राओं का स्थान उतना महत्वपूर्ण नहीं रह जाता। | जो लोग कहते है। कि ‘आ’ को कहीं ‘आ’ तो कहीं ‘अ’ लिखना अवैज्ञानिक है, वे देवनागरी की वैज्ञानिकता का स्वरूप नहीं समझ पाए हैं और जाने अनजाने रोमन लिपि के सिद्धांत से प्रभावित हो गये हैं। देवनागरी के अतिरिक्त और कोई लिपि ऐसी नहीं है (उससे संबंद्ध लिपियों को छोड़कर) जो स्वनिमों के निर्देश के साथ साथ वर्णों की संख्या और उनकी सीमाओं का भी निर्देश करती चलें। ‘आ’ के प्रयोग से हमें ज्ञात हो जाता है कि इस वर्ण न्यष्टि पर कोई पूर्ववर्ती व्यंजन या व्यंजनानुक्रम आश्रित नहीं है, ‘अ’ के प्रयोग से हमें यह सूचना मिल जाती है कि वर्ण न्यष्टि पर कोई पूर्ववर्ती व्यंजन या व्यंजनुक्रम आश्रित है। [[संस्कृत]] में व्यंजन वर्ण विरल है, इसलिए उनके निर्देश के हेतु ‘अ’ युक्त अन्तिम व्यंजनाक्षर में ‘अ’ के लोप के लिए हलंत चिन्ह लगाने से कोई झंझट नहीं बढ़ता और [[हलंत का महत्त्व|हलंत चिन्ह]] से यह व्यक्त हो जाता है कि व्यंजन अपने पूर्ववर्ता वाणिक पर आश्रित है। यह कहना भी नासमझी है कि देवनागरी में मात्राओं का दाएं बाएं ऊपर नीचे लगाना ‘अवैज्ञानिक’ है। ‘वैज्ञानिकता’ और ‘एकरूपता’ समानार्थी शब्द नहीं हैं। एक द्रव के जो लक्षण होते हैं उससे मिलते जुलते सारे द्रवों के वही लक्षण नहीं होते। एक मात्रा जिस स्थान पर लगती है दूसरी मात्रा का भी उसी स्थान पर लगना आवश्यक नहीं है। संयुक्त व्यंजनों में तथा मात्राएं व अन्य चिह्न लगाने में मुख्य ध्येय होता है वर्ण का सीमांकन। साथ साथ इस बात का निर्देश दिया जाता है कि वर्ण न्यष्टि कौन सा स्वर है। इस निर्देश के लिए मात्रा कहां लगाई जाए, यह बात गौण है। जो लोग कहते हैं कि व्यंजनानुगामी स्वरों का निर्देश करने वाली मात्राएं अनिवार्यतः व्यंजनाक्षरों के बाद सीधी रेखा में लिखी जानी चाहिए, वे स्वनिमात्मक विचारों से प्रभावित होते हैं। ‘वर्ण मूलकता’ के कारण मात्राओं का स्थान उतना महत्वपूर्ण नहीं रह जाता। | ||
ऊपर कहा गया है कि देवनागरी लिपि की कुछ वैज्ञानिकता उसके स्वनिक ‘यथार्थ’ की है। मूल स्वर ‘अ’ की चर्चा में इसका उदाहरण विद्यमान है। मात्राओं का निर्देश यदि स्वनिक यथार्थ की भी रक्षा करे और अनुक्रम पर ध्यान देते हुए एक सीधी रेखा में प्राप्ति हो तो यह बात वैज्ञानिक होगी। लेकिन सीधी रेखा मे अनुक्रमिक रूप में इनका प्राप्त होना लिपि के वर्णमूलक आधार क कारण ‘अवैज्ञानिक’ नहीं होने पाता, वैज्ञानिकता के धरातल की संख्या अवश्य ही एक रह जाती है। वैज्ञानिकता का यही धरातल उसका मूल धरातल है। यह आवश्यक है कि मात्राओं के भिन्न भिन्न स्थानों पर उनके होने का वैसा कोई वैज्ञानिक उद्देश्य नहीं है जैसा ‘अ’’ की आकृति भिन्नता का। | ऊपर कहा गया है कि देवनागरी लिपि की कुछ वैज्ञानिकता उसके स्वनिक ‘यथार्थ’ की है। मूल स्वर ‘अ’ की चर्चा में इसका उदाहरण विद्यमान है। मात्राओं का निर्देश यदि स्वनिक यथार्थ की भी रक्षा करे और अनुक्रम पर ध्यान देते हुए एक सीधी रेखा में प्राप्ति हो तो यह बात वैज्ञानिक होगी। लेकिन सीधी रेखा मे अनुक्रमिक रूप में इनका प्राप्त होना लिपि के वर्णमूलक आधार क कारण ‘अवैज्ञानिक’ नहीं होने पाता, वैज्ञानिकता के धरातल की संख्या अवश्य ही एक रह जाती है। वैज्ञानिकता का यही धरातल उसका मूल धरातल है। यह आवश्यक है कि मात्राओं के भिन्न भिन्न स्थानों पर उनके होने का वैसा कोई वैज्ञानिक उद्देश्य नहीं है जैसा ‘अ’’ की आकृति भिन्नता का। |
13:59, 6 जुलाई 2017 के समय का अवतरण
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- लेखक- श्री देवीशंकर द्विवेदी
किसी समाज में किसी विशेष भाषा को अपनाने के परिणाम वे नहीं होते जो किसी विशेष लिपि को अपनाने के होते हैं। भाषा और लिपि अलग अलग वस्तुएं हैं। भाषा केवल मौखिक परंपरा से भी चलती रह सकती है, उसके लिए लिपि अपनाने तक की आवश्यकता नहीं है, दूसरी ओर लिपि किसी विशेष भाषा से ही बंधी मानी जाए, यह आवश्यक नहीं है, एक ही लिपि का अनेक भिन्न भिन्न भाषाओं के लिए उपयोग संभव है, यह अनिवार्य नहीं है कि हिन्दी भाषा देवनागरी लिपि में ही सीखी जाए, यह किसी अन्य लिपि में भी सीखी जा सकती है और बिना लिपि के भी सीखी जा सकती है। देवनागरी का प्रयोग केवल हिन्दी के लिए नहीं किया जाता, मराठी के लिए भी किया जाता है, अन्य भाषाओ के लिए भी देवनागरी का प्रयोग किया जा सकता है। गुजराती, उड़िया आदि की लिपियां देवनागरी का ही कुछ परिवर्तित रूप है। वास्तव में सारी आर्य भाषाएं देवनागरी में सहज ही लिखी जा सकती हैं। देवनागरी के अक्षरों कुछ सामान्यतः परिवर्तन परिवर्द्धन के द्वारा संसार की भाषाओं को अलग अलग प्रयोग के लिए सहज ही लिपि प्रदान की जा सकती है। इसी परिवर्तन परिवर्द्धन के द्वारा संसार की भाषाओं को अलग अलग प्रयोग के लिए सहज ही लिपि प्रदान की जा सकती है। इसी परिवर्तन परिवर्द्धन का एक आयाम यह भी होगा कि वर्तमान अक्षरों को भिन्न भिन्न भाषाओं में मिलती जुलती लेकिन भिन्न ध्वनियो के लिए काम मे लाया सकता है।
देवनागरी को प्रायः संसार की अन्यतम वैज्ञानिक लिपि, एकमात्र वैज्ञानिक लिपि या पूर्णतः वैज्ञानिक लिपि कहा जा सकता है। इस कथन की समीक्षा करनी हो तो हमारे लिये यह जान लेना आवश्यक होगा कि संसार की सारी लिपियों में वैज्ञानिकता के कौन कौन से लक्षण किस किस मात्रा में हैं। वस्तुतः हम इस कथन की परीक्षा इस प्रकार करते नहीं हैं।
लिपि क्या है ? क्या वह कुछ अक्षरों (अर्थात् आकृतियों) का पुंज मात्र है या उसमें उन अक्षरों का भाषागत मूल्य अर्थात् उच्चारण या (चित्रलिपि में) अर्थ भी सम्मिलित है ? उदाहरण लेकर कहें तो यदि हम ‘कर्म’ लिखें और उसे वैध रूप से ‘लिंक’ पढ़ें तो क्या इसे देवनागरी लिपि कहा जाएगा ? मैं निश्चित रूप से नहीं कह सकता कि भिन्न लोग इस प्रश्न का क्या उत्तर देंगें। पता नहीं किसी ने यह प्रश्न कभी इस आत्यन्तिक रूप में अपने समक्ष रखा भी है या नहीं। मुझे लगता है कि अधितर लोग इसे देवनागरी ही कहेंगे यद्यपि साथ में शायद यह भी जोड़ देंगे कि इसमें अक्षरों का ध्वनिगत मूल्य बदल गया है या बदल दिया गया है। प्रचलित उदाहरणों की समीक्षा करके देंखें। अंग्रेज़ी का ‘हैम’ शब्द रोमन में लिखा हो तो रूसी भाषी उसे ‘नात’ पढ़ेंगे। रूसी नाम ‘नताशा’ रूसी लिपि में लिखा हो तो अंग्रेजी भाषाभाषी उसे ‘हमावा’ पढ़ेंगे (इस उच्चारण में डब्ल्यू के अन्त में ऊपर घुंडी नहीं होगी, रेखा उतरकर नीचे आएगी, लेकिन इस भेद पर शायद अंग्रेजी समाज का ध्यान तक नहीं जाएगा) अर्थात् दोनों भाषाओं में प्रचलित लिपि में इन अक्षरों में परस्पर आकृति साम्य है। अंग्रेजी की लिपि रोमन है, रूसी की लिपि का नाम सिरिलिक है। दूसरी ओर अंग्रेजी और फ्रांसीसी का उदाहरण लें तो एक ही प्रकार लिखा हुआ शब्द अंग्रेजी में ‘ट्रेन’ पढ़ा जाता है, ‘फ्रांसीसी’ में त्रैं पढ़ा जाता है। यहां भी दोनों भाषाओं में प्रचलित लिपि के अक्षरों में आकृति साम्य नहीं है। नामकरण की स्थिति यहां भिन्न है। अंग्रेजी और फ्रांसीसी इन दोनों ही भाषाओं की लिपि का नाम रोमन है। मराठी और हिन्दी में ‘रेफ’ की आकृति में भेद होता है, कुछ अक्षरों के ध्वनिगत मूल्य में भी कुछ स्थलों पर भेद मिलता है, लेकिन दोनों की लिपि का नाम देवनागरी है। अंग्रेजी-फ्रांसीसी और मराठी-हिन्दी में लिपि के नामकरण की जो प्रवृत्ति मिलती है, उससे रूसी अंग्रेजी की प्रवृत्ति भिन्न है। एक अन्तर यह भी है कि समान आकृति वाले अक्षरों के ध्वनिगत मूल्य में परस्पर जितना अंतर अंग्रेजी और रूसी के बीच है, अन्य उदाहृत भाषाओं में उतना अधिक अंतर नहीं मिलता। दूसरे अंग्रेजी और रूसी की लिपियों में भिन्न आकृति वाले अक्षरों की संख्या अनल्प है। लेकिन इन दोनों लिपियों के नामकरण का भेद इन दोनों कारणों से है, ऐसा नहीं समझना चाहिए। रूसी भाषा के लिए रोमन को अनुकूलित करने वाले व्यक्ति सिरिल के नाम पर उसका नामकरण कर दिया गया, यह संयोग की बात है। उतने ही यादृच्छिक रूप से उसे रोमन ही कहते रहा जा सकता था, अंतर करना होता तो उसे ‘रूसी रोमन’ कहा जा सकता था।
इसका अर्थ यह हुआ कि हमें संबोधों को समझ लेना चाहिए, प्रचलित नामकरण से इस प्रक्रिया में कोई सहायता नहीं लेनी चाहिए। उपर्युक्त चर्चा के परिप्रेक्ष्य में हम अपने उपयोग के लिए निम्नलिखित शब्दावली निर्धारित कर सकते हैं।
- 1- आक्षरिकी का ककहरा-
अक्षरों (लेटर्स) तथा चिन्हों (डायक्रिटिक्स) की तालिका
- 2- लिपि-
अक्षरों तथा चिन्हों के संयोजन की प्रणाली
- 3- लिप्युक्ति-
लिपि का भाषायी इकाइयो (उच्चारण या अर्थ लिपि) से संवाद। ध्यान रहे कि साधारतः इस अर्थ में भी ‘लिपि शब्द का प्रयोग प्रचलित है।
- 4- वर्तनी-
शब्दों, वाक्यों आदि के लिए अपनाई जाने वाली लिप्युक्ति
चूंकि देवनागरी मूलतः संस्कृत के संदर्भ में थी, इसलिए हम उसके पुराने रूप की ही चर्चा करेंगे क्योंकि उसकी वैज्ञानिकता अवैज्ञानिकता का उचित विवेचन उसके मूल संदर्भ में ही किया जा सकता है। उपयुक्त बात तो यह होगी कि तथाकथित सुधारों के बाद प्राप्त होने वाली उसकी विचित्र अवस्थाओं का द्योतक भिन्न भिन्न नामों से नहीं तो देवनागरी-1, देवनागरी-2, आदि शीर्षकों से कराया जाए।
देवनागरी अक्षरों की तालिका को वर्णमाला कहा गया है क्योंकि सस्कृत के लिए अपनाई गई इस लिप्युक्ति का प्रत्येक अक्षर वस्तुतः एक वर्ण (सिलेबिल) होता है। स्वर तो वार्णिक होते ही हैं, प्रत्येक व्यंजनाक्षर में देवनागरी शुद्ध रूप से (केवल) एक वर्णमूलक लिपि है। ‘केवल’ वर्णमूलक लिपि में प्रत्येक वर्ण के लिए एक स्वतंत्र अक्षर अपेक्षित होगा, वर्णों के घटकों का साम्य खोजकर किसी एक अक्षरांश, अक्षर का चिन्ह का प्रयोग उसके घटकों के लिए नहीं किया जाएगा। उदाहरणार्थ, ‘क’ तथा ‘का’ दो भिन्न भिन्न वर्ण हैं, इसके लिए ೦ तथा ០ सरीखे चिन्हों का निर्धारण करना ‘शुद्ध वर्णमूलकता’ होगी क्योंकि इनमें समान रूप से विद्यमान ‘क’ स्वनिम के लिए कोई एक अक्षरांश प्रयुक्त नहीं हुआ है। ऐसी वर्णमूलक लिपि में अक्षरों की संख्या बहुत अधिक हो जएगी।
देवनागरी ‘प्रधानता’ एक वर्णमूलक लिपि है क्योंकि उसमें आधार वर्ण को बनाया गया है यद्यपि उसके घटक स्वनिमों के साम्य वैषम्य का भी लाभ उठाया गया है। इस साम्य वैषम्य की उपेक्षा करना एक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक तथ्य की उपेक्षा करना होगा। स्वनिम की सत्ता स्वीकार करके अर्थ भेदकता के स्तर पर लघुतम व्यावहारिक इकाई को पहचाना गया है। यह एक वैज्ञानिक सत्य की उपलब्धि रही है और लिपि निर्माण में उसकी वांछित उपादेयता भी रही है। दूसरी ओर भाषा की स्वतः उच्चारण योग्य लघुतम इकाई ‘वर्ण’ होती है। इसलिए लिपि को वर्ण मूलक आधार देना भी एक वैज्ञानिक सत्य को अंगीकार करना है। इस दृष्टि से हम देवनागरी की आक्षरिकी को ‘स्वनिमात्मक वर्णमाला’ (फोनेमिक सिलेबरी) कह सकते हैं। तीसरी उल्लेखनीय बात यह है देवनागरी के व्यंजनाक्षरों में अनिवार्य रूप से निहित मानने के लिए ‘अ’ माना है। आधुनिक स्वनझ इसमें इ, उ, आदि की अपेक्षा कोई अन्य ‘मूलता’ नहीं खोज पाते रहे हैं। एक्स-रे फिल्मों से यह रहस्योद्घाटन हुआ है कि उच्चारण से पूर्व वक्ता की जीह्वा वाक् के प्रारंभ की अनिवार्य मूल स्थिति से उत्पन्न होने वाले स्वर को ‘मूल’ स्वर मानना भी वैज्ञानिक और स्वनिक तथ्य है तथा व्यंजनाक्षरों मे निहित मानने के लिए उसका चयन भी स्वाभाविक और वैज्ञानिक है। देवनागरी की वैज्ञानिकता अवैज्ञानिकता का विवेचन करने के पूर्व हमे उस लिपि का वैज्ञानिक धरातल ठीक ठाक समझ लेना चाहिए।
जो लोग कहते है। कि ‘आ’ को कहीं ‘आ’ तो कहीं ‘अ’ लिखना अवैज्ञानिक है, वे देवनागरी की वैज्ञानिकता का स्वरूप नहीं समझ पाए हैं और जाने अनजाने रोमन लिपि के सिद्धांत से प्रभावित हो गये हैं। देवनागरी के अतिरिक्त और कोई लिपि ऐसी नहीं है (उससे संबंद्ध लिपियों को छोड़कर) जो स्वनिमों के निर्देश के साथ साथ वर्णों की संख्या और उनकी सीमाओं का भी निर्देश करती चलें। ‘आ’ के प्रयोग से हमें ज्ञात हो जाता है कि इस वर्ण न्यष्टि पर कोई पूर्ववर्ती व्यंजन या व्यंजनानुक्रम आश्रित नहीं है, ‘अ’ के प्रयोग से हमें यह सूचना मिल जाती है कि वर्ण न्यष्टि पर कोई पूर्ववर्ती व्यंजन या व्यंजनुक्रम आश्रित है। संस्कृत में व्यंजन वर्ण विरल है, इसलिए उनके निर्देश के हेतु ‘अ’ युक्त अन्तिम व्यंजनाक्षर में ‘अ’ के लोप के लिए हलंत चिन्ह लगाने से कोई झंझट नहीं बढ़ता और हलंत चिन्ह से यह व्यक्त हो जाता है कि व्यंजन अपने पूर्ववर्ता वाणिक पर आश्रित है। यह कहना भी नासमझी है कि देवनागरी में मात्राओं का दाएं बाएं ऊपर नीचे लगाना ‘अवैज्ञानिक’ है। ‘वैज्ञानिकता’ और ‘एकरूपता’ समानार्थी शब्द नहीं हैं। एक द्रव के जो लक्षण होते हैं उससे मिलते जुलते सारे द्रवों के वही लक्षण नहीं होते। एक मात्रा जिस स्थान पर लगती है दूसरी मात्रा का भी उसी स्थान पर लगना आवश्यक नहीं है। संयुक्त व्यंजनों में तथा मात्राएं व अन्य चिह्न लगाने में मुख्य ध्येय होता है वर्ण का सीमांकन। साथ साथ इस बात का निर्देश दिया जाता है कि वर्ण न्यष्टि कौन सा स्वर है। इस निर्देश के लिए मात्रा कहां लगाई जाए, यह बात गौण है। जो लोग कहते हैं कि व्यंजनानुगामी स्वरों का निर्देश करने वाली मात्राएं अनिवार्यतः व्यंजनाक्षरों के बाद सीधी रेखा में लिखी जानी चाहिए, वे स्वनिमात्मक विचारों से प्रभावित होते हैं। ‘वर्ण मूलकता’ के कारण मात्राओं का स्थान उतना महत्वपूर्ण नहीं रह जाता।
ऊपर कहा गया है कि देवनागरी लिपि की कुछ वैज्ञानिकता उसके स्वनिक ‘यथार्थ’ की है। मूल स्वर ‘अ’ की चर्चा में इसका उदाहरण विद्यमान है। मात्राओं का निर्देश यदि स्वनिक यथार्थ की भी रक्षा करे और अनुक्रम पर ध्यान देते हुए एक सीधी रेखा में प्राप्ति हो तो यह बात वैज्ञानिक होगी। लेकिन सीधी रेखा मे अनुक्रमिक रूप में इनका प्राप्त होना लिपि के वर्णमूलक आधार क कारण ‘अवैज्ञानिक’ नहीं होने पाता, वैज्ञानिकता के धरातल की संख्या अवश्य ही एक रह जाती है। वैज्ञानिकता का यही धरातल उसका मूल धरातल है। यह आवश्यक है कि मात्राओं के भिन्न भिन्न स्थानों पर उनके होने का वैसा कोई वैज्ञानिक उद्देश्य नहीं है जैसा ‘अ’’ की आकृति भिन्नता का।
मात्राओं के संदर्भ में एक और बात भी उल्लेखनीय है। वर्ण में सर्वाधिक शक्तिशाली तत्व होता है उसकी न्यष्टि। वर्ण न्यष्टि के लिए मात्रा का प्रयोग होने पर उसका स्थान गौण सा हो जाता है। एक तो उसकी आकृति अपेक्षाकृत महत्वहीन दिखती है, दूसरे व्यंजनाक्षरों के इर्द गिर्द उसे अपना कोई और ढूंढना पड़ता है। यह बात अकारण नहीं है कि विद्यार्थी मात्राओं के निर्देश में जितनी त्रुटियां करते हैं उनकी तुलना में अक्षरों की तुलना नगण्य सी होती हैं। प्रश्न यह उठता है कि शक्तिशाली तत्वों की लिपि में गौण स्थान देना और व्यजंनाक्षरों को प्रमुख स्थान देना कहां तक तर्कसंगत है। इसका एक उत्तर तो यह है कि लिपि में इस प्रमुखता या गौणता के प्रदर्शन की कोई तात्र्विक आवश्यकता नहीं है, क्योंकि सम्पूर्ण वर्ण को महत्व देने के बाद इस बात का कोई मूल्य नहीं रह जाता। दूसरा सैद्धांतिक उत्तर यह है कि जिस प्रकार प्रदर्शन में नींव का महत्व नहीं होता, उस प्रकार वर्ण न्यष्टि का भी प्रमुख प्रदर्शन मे नींव का महत्व नहीं होता और उसी प्रकार वर्ण नयष्टि का भी प्रमुख महत्व न होना स्वाभावकि है। तीसरा व्यावहारिक उत्तर यह है कि मात्राएं व्यंजनों का निर्द्रश करती तो कई गुनी मात्राओं की आवश्यकता पड़ती। जब कुछ मात्राओं की आवश्यकता पड़ने पर दाएं बाएं ऊपर नीचे सभी स्थानों का उपयोग करना पड़ता है, तब कई गुनी मात्राओं के लिए स्थान खोजना कितना कठिन होता, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है।
देवनागरी आक्षरिकी की आकृति मात्र की चर्चा की जाए तो वैज्ञानिकता अवैज्ञानिकता का प्रश्न ही नहीं उठता। सरलता और कठिनता की बात अवश्य की जा सकती है, लेकिन यह बात भी सापेक्षता की है। देवनागरी के कुछ अक्षर इसके कुछ अन्य अक्षरों की अपेक्षा सरल कठिन है। इसी प्रकार, देवनागरी, के अक्षरों की अपेक्षा सरल कठिन अक्षर संभव हैं।
देवनागरी लिप्युक्ति का विवेचन करें। चूंकि स्वनिम एक व्यतिरेकी इकाई है और उसका मूल्य उसकी कार्यकारिता में होता है। इसलिए उसके स्वनिक पक्ष का विवेचन तत्वतः आवश्यक नहीं है। इस दृष्टि में किसी भी स्वनिम के लिए कोई भी आकृति यादृच्छिक रूप से अपनाई जा सकती है। देवनागरी लिप्युक्ति इस दृष्टि से पूर्णतः वैज्ञानिक है। यदि हमारी आकांक्षा हो कि स्वनिक प़क्ष की गौणता के बावजूद उस धरातल पर वैज्ञानिकता का निर्वाह किया जाए तो देवनागरी में आमूलचूल परिवर्तन आवश्यक हो जाएगा। स्वन तत्वों का निर्देशन करने वाली लिपि के निर्माण की संभावना की व्यावहारिक कठिनाई का पहलू तो है ही, एक सैद्धांतिक आपत्ति यह है कि बोलकर पहचानी जाने वाली लघुतम इकाई स्वनिम होती है, स्वनतत्व नहीं। ऐसी लिपि हो तो लेखन श्रम की मात्रा में भी वृद्धि हो जाएगी। इन बातों का समाधान करते हुए ऐसा अवश्य किया जा सकता है कि अक्षरों की आकृति के निर्धारण में यादृच्छिकता बरतने के बजाए स्वन तत्वों की आकृति के निर्धारण में यादृच्छिकता बरती जाए और उनका नियमित संयोजन करके पूर्णाक्षर बनाए जाएं तथा उनके मूल्य निर्धारण का निर्वाह आद्योपांत किया जए। स्पष्ट है कि देवनागरी अक्षरों का निर्माण ऐसे सिद्धांतों पर नहीं हुआ है। प-फ की आकृति का जो अंतर महाप्राणत्व के अभाव भाव का निर्देश करता है, वह व-क में भी विद्यमान है, लेकिन ध्वनिगत अंतर का वह इसमें युग्म में नहीं है। भ-झ की आकृति में भी वही अंतर है लेकिन ध्वनिगत अंतर भिन्न प्रकार का है। र-व को निकट लाने से ख अक्षर बन जाता है किंतु ध्वन्यात्म धरातल पर इस तथ्य का कोई औचित्य नहीं है। ध-घ में शिरोरेखा खंडित अखंडित होने से कंठ्य-दंत्य का अंतर निर्दिष्ट हुआ है, म-भ में शिरोरेखा का अंतर वही है लेकिन ध्वनिगत अंतर भिन्न है। सारे कंठ दंत स्पर्शी का अंतर शिरोरेखा के अखंडित खंडित होने से नहीं निर्दिष्ट होता है। ड के बाद एक शून्य जोड़ने से ङ बन जाता है, लेकिन स्वनिक धरातल पर इस तथ्य का भी कोई औचित्य नहीं है। ट के अर्द्ध वृत्त को पूर्ण वृत्त बनाकर उसका महाप्राण रूप ठ प्राप्त किया जाता है लेकिन अन्य महाप्राण रूपों के लिए यह पद्धति अन्यत्र नहीं मिलती है। ट के नीचे एक घुडी की योग करने से उसका सघोष महाप्राण रूप ढ बन जाता है, घुडी का यह मूल्य और कहीं नहीं मिलता। ण में र की आकृति विद्यमान है लेकिन ध्वन्यात्मक धरातल पर इसका काई औचित्य नहीं है। एक खड़ी रेखा थोड़ा नीचे जाकर ढ को द कर देती है। थोड़ा ऊपर जाकर न को म बना देती है। रेखा का ध्वन्यात्मक मूल्य दोनों प्रसंगों में भिन्न भिन्न है और इनमें से कोई भी मूल्य किसी भी अन्य प्रसंग से नहीं मिलता। प के भीतर की विभाजक रेखा उसे ष बनाकर जो ध्वन्यात्मक मूल्य अर्जित करती है, वह मूल्य उसे व को ब बनाकर प्राप्त नहीं होता। और इन दो में से किसी मूल्य के लिए उसका प्रयोग अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। ड को ह बनाने वाला चिन्ह कोई व्यवस्थित ध्वन्यात्मक मूल्य नहीं ग्रहण करता और किसी भी ध्वन्यात्मक मूल्य के लिए कहीं अन्यत्र प्रयुक्त नहीं होता। रा को स करने वाली आडी रेखा भी इसी कोटि की है। मात्रा भेद के लिए अ और आ में जो भेद मिलता है, वह इ तथा ई तथा उ-ऊ में नहीं मिलता। अंतिम दोनों युग्मों के लिए भी मात्रा भेद के लिए भिन्न भिन्न चिन्ह प्रयुक्त हुए हैं। आ-ओ, ए-ऐ में ऐसा नहीं हुआ है। आकृति से ऐसा लगता है कि अ का निर्माण उ से और फ का निर्माण प से हुआ है, ध्वन्यात्मक वास्तविकता ऐसी नहीं है, इ से झ के निर्माण का आभास होता है, किंतु ध्वन्यात्मक धरातल पर इसकी भी कोई संगति नहीं है। ड में जो चिन्ह लगाकर इ बनाया जाता है, उसका ऐसा कोई संगत ध्वन्यात्मक मूल्य नहीं बन पाता, न वह अन्यत्र मिलता है। चिन्ह इ पर लगाकर मात्रा वृद्धि करता है, व्यंजनाक्षरों पर वही रेफ बन जाता है। प- फ में जो भेद महाप्राणत्व का समावेश करता है, उ-ऊ में वह मात्रा वृद्धि करता है। ऐ की मात्रा है लेकिन स्वयं ऐ में उसका स्वरूप है। लेकिन ये सारी असंगतियां असंगतियां नही रह जाती क्योंकि देवनागरी लिपि में अक्षरों के निर्माण का आधार ध्वनि तत्वों का संयोजन नहीं है।
देवनागरी वर्णमाला की एक उल्लेखनीय वैज्ञानिकता इसके अक्षरों की व्यवस्थित संयोजना है। सबसे पहले स्पर्श व्यंजन दिए गए हैं जो उच्चारण स्थान की दृष्टि से क्रमशः पीछे की ओर से आगे की ओर आते हैं। प्रत्येक वर्ग में घोष और प्राण की दृष्टि से व्यंजनों का स्थान निर्धारित है। वर्गों के अंत में वर्ग नासिक्य का स्थान है। स्पर्श व्यंजनों के बाद अंतस्थ और ऊष्म आते हैं। इन्हें भी पीछे की ओर से क्रमशः आगे बढ़ने के क्रम से व्यवस्थित किया गया है स्वरों में मूल स्वर अ (तथा दीर्घ रूप आ) के बाद आद्योपांत हृस्व दीर्घ के क्रम के क्रम से अग्र पश्च मूल स्वर, फिर पीछे से आगे की ओर का क्रम अपनाते हुए शेष दो मूल स्वर ऋ, लृ और अंत में अग्र पश्च द्विस्वर दिए गये हैं। ध्यान रहे कि यह वैज्ञानिकता देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता नहीं है, केवल उसके अक्षरों की क्रमव्यवस्था की वैज्ञानिकता है।
अक्षरों तथा चिन्हों के संयोजन की प्रणाली में प्रायः जटिलता मिलती है किंतु अवैज्ञानिकता नहीं मिलती है। ऊपर कहा जा चुका है कि अपने पूर्ववर्ती व्यंजन के बाद जुड़ने वाला वार्णिक उस व्यंजनाक्षर में मात्रा के रूप में जोड़ दिया जाता है। संयुक्त व्यंजन यदि सीधी रेखा में लिखे जाते हैं तो उसी क्रम में पढ़े जाते हैं जिस क्रम में वे लिखे गये हैं। यदि वे ऊपर नीचे लिखे गये है तो उन्हें पढ़ने के लिए क्रमशः ऊपर से नीचे उतारा जाता है। इस नियमितता के भीतर मिलने वाले विवरणों से असंगतियां मिलती हैं। सारे संयुक्त व्यंजनों के लिए आडे और खड़े अक्षरों का विकल्प (क्क क्क) नहीं है, कुछ विकल्प है, कुछ में कोई एक रूप ही प्रचलित है, व्यंजनाक्षरों मे से ‘अ’ का लोप करने के लिए विविध पद्धतियां हैं। एक विकल्प यह है कि अक्षर का उत्तरांश ना लिखा जाए, परंतु कुछ अक्षरों में (उदाहरणार्थ ङ, छ, ट, ठ, ड, ढ, द,) यह विकल्प नहीं है। रेफ जिस अक्षर पर लगता है, उसी निर्दिष्ट वर्ण के पहले उच्चारित होता है। लेकिन अनुस्वार जिस अक्षर पर लगता है, उससे द्योतित वर्ण के बाद उच्चारित होता है। यद्यपि रेफ और अनुस्वार दोनों शिरोरेखा के ऊपर लगने वाले चिन्ह हैं। कृ + ष, त + र् तथा ज् + ञ के लिए स्वतंत्र अक्षर है जबकि अन्य संयुक्त व्यंजनों के लिए नहीं है।
देवनागरी लिप्युक्ति स्वनिमाश्रित वर्णमाला है। लिपि का नियमित मूल्य ज्ञात हो जाने के बाद संस्कृत की वर्तनी पूर्ण वैज्ञानिक होती है, इसमें यदृच्छा के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। वर्तनी या तो उच्चारण पर आश्रित होती है या प्रसंगानुसार रूप वैज्ञानिक गठन (उदाहरणार्थ कायिक, भावुक) पर। यह बात कहने का भी कोई कारण नहीं दिखता कि संस्कृत में रूपवैज्ञानिक गठन पर आश्रित वर्तनी उच्चारण पर भी आश्रित नहीं थी।
हिन्दी के प्रसंग में देवनागरी लिप्युक्ति कुछ बदली है। हिन्दी में फारसी तथा अंग्रेजी से आई हुई या नवविकसित ध्वनियों के लिए देवनागरी में कुद चिन्ह लगाकर उसका अनुकूलन किया गया है। वर्तनी में वैज्ञानिकता बहुत अधिक है यद्यपि उसकी व्याख्या के नियम कहीं कहीं जटिल हैं।
ऐसा ही अनुकूलन प्रत्येक धरातल पर किसी भी भाषा के लिए देवनागरी में किया जा सकता है। एक उल्लेखनीय सुविधा यह है कि इसमें कम अक्षरों का प्रयोग करना पड़ता है। 'कमल' लिखने में देवनागरी तीन अक्षरों का प्रयोग करती है जबकि रोमन में इसके लिए पांच अक्षर बनाने पड़ते हैं। देवनागरी में एक स्पृहणीय अन्तर्राष्ट्रीय लिपि के गुण हैं। अखिल भारतीय लिपि के रूप में उसका प्रयोग थोड़ा बहुत होने भी लगा है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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