"अनमोल वचन 3": अवतरणों में अंतर
भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
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'''व''' | '''व''' | ||
* व्रतों से सत्य सर्वोपरि है। | |||
* विधा, बुद्धि और ज्ञान को जितना खर्च करो, उतना ही बढ़ते हैं। | |||
* वह सत्य नहीं जिसमें हिंसा भरी हो। यदि दया युक्त हो तो असत्य भी सत्य ही कहा जाता है। जिसमें मनुष्य का हित होता हो, वही सत्य है। | |||
* वह स्थान मंदिर है, जहाँ पुस्तकों के रूप में मूक; किन्तु ज्ञान की चेतनायुक्त देवता निवास करते हैं। | |||
* वही उन्नति कर सकता है, जो स्वयं को उपदेश देता है। | |||
* वही जीवति है, जिसका [[मस्तिष्क]] ठण्डा, रक्त गरम, हृदय कोमल और पुरुषार्थ प्रखर है। | |||
* वे माता-पिता धन्य हैं, जो अपनी संतान के लिए उत्तम पुस्तकों का एक संग्रह छोड़ जाते हैं। | |||
* व्यक्ति का चिंतन और चरित्र इतना ढीला हो गया है कि स्वार्थ के लिए अनर्थ करने में व्यक्ति चूकता नहीं। | |||
* विवेकशील व्यक्ति उचित अनुचित पर विचार करता है और अनुचित को किसी भी मूल्य पर स्वीकार नहीं करता। | |||
* व्यक्तित्व की अपनी वाणी है, जो जीभ या कलम का इस्तेमाल किये बिना भी लोगों के अंतराल को छूती है। | |||
* वह मनुष्य विवेकवान् है, जो भविष्य से न तो आशा रखता है और न भयभीत ही होता है। | |||
* विपरीत प्रतिकूलताएँ नेता के आत्म विश्वास को चमका देती हैं। | |||
* विपरीत दिशा में कभी न घबराएं, बल्कि पक्की ईंट की तरह मज़बूत बनना चाहिय और जीवन की हर चुनौती को परीक्षा एवं तपस्या समझकर निरंतर आगे बढना चाहिए। | |||
* विवेक बहादुरी का उत्तम अंश है। | |||
* विवेक और पुरुषार्थ जिसके साथी हैं, वही प्रकाश प्राप्त करेंगे। | |||
* विश्वास से आश्चर्य-जनक प्रोत्साहन मिलता है। | |||
* वही सबसे तेज़ चलता है, जो अकेला चलता है। | |||
* विचार शहादत, कुर्बानी, शक्ति, शौर्य, साहस व स्वाभिमान है। विचार आग व तूफ़ान है, साथ ही शान्ति व सन्तुष्टी का पैगाम है। | |||
* विचार ही सम्पूर्ण खुशियों का आधार हैं। | |||
* विचारों की अपवित्रता ही हिंसा, अपराध, क्रूरता, शोषण, अन्याय, अधर्म और भ्रष्टाचार का कारण है। | |||
* विचारों की पवित्रता ही नैतिकता है। | |||
* विचारों की पवित्रता स्वयं एक स्वास्थ्यवर्धक रसायन है। | |||
* विचारों का ही परिणाम है - हमारा सम्पूर्ण जीवन। विचार ही बीज है, जीवनरुपी इस व्रक्ष का। | |||
* विचारवान व संस्कारवान ही अमीर व महान है तथा विचारहीन ही कंगाल व दरिद्र है। | |||
* विचारशीलता ही मनुष्यता और विचारहीनता ही पशुता है। | |||
* वैचारिक दरिद्रता ही देश के दुःख, अभाव पीड़ा व अवनति का कारण है। वैचारिक दृढ़ता ही देश की सुख-समृद्धि व विकास का मूल मंत्र है। | |||
* विद्या की आकांक्षा यदि सच्ची हो, गहरी हो तो उसके रह्ते कोई व्यक्ति कदापि मूर्ख, अशिक्षित नहीं रह सकता। - वाङ्गमय | |||
* वास्तविक सौन्दर्य के आधर हैं - स्वस्थ शरीर, निर्विकार मन और पवित्र आचरण। | |||
* विषयों, व्यसनों और विलासों में सुख खोजना और पाने की आशा करना एक भयानक दुराशा है। | |||
* वत मत करो, जिसके लिए पीछे पछताना पड़े। | |||
* व्यसनों के वश में होकर अपनी महत्ता को खो बैठे वह मूर्ख है। | |||
* '''वृद्धावस्था''' बीमारी नहीं, विधि का विधान है, इस दौरान सक्रिय रहें। | |||
* वाणी नहीं, आचरण एवं व्यक्तित्व ही प्रभावशाली उपदेश है | |||
* व्यक्तिगत स्वार्थों का उत्सर्ग सामाजिक प्रगति के लिए करने की परम्परा जब तक प्रचलित न होगी, तब तक कोई राष्ट्र सच्चे अर्थों में सामथ्र्यवान् नहीं बन सकता है। -वाङ्गमय | |||
* वासना और तृष्णा की कीचड़ से जिन्होंने अपना उद्धार कर लिया और आदर्शों के लिए जीवित रहने का जिन्होंने व्रत धारण कर लिया वही जीवन मुक्त है। | |||
* व्यक्तिवाद के प्रति उपेक्षा और समूहवाद के प्रति निष्ठा रखने वाले व्यक्तियों का समाज ही समुन्नत होता है। | |||
* विपत्ति से असली हानि उसकी उपस्थिति से नहीं होती, जब मन:स्थिति उससे लोहा लेने में असमर्थता प्रकट करती है तभी व्यक्ति टूटता है और हानि सहता है। | |||
* विपन्नता की स्थिति में धैर्य न छोड़ना मानसिक संतुलन नष्ट न होने देना, आशा पुरुषार्थ को न छोड़ना, आस्तिकता अर्थात् ईश्वर विश्वास का प्रथम चिन्ह है। | |||
'''य''' | '''य''' | ||
* यदि तुम फूल चाहते हो तो जल से पौधों को सींचना भी सीखो। | |||
* यदि कोई दूसरों की जिन्दगी को खुशहाल बनाता है तो उसकी जिन्दगी अपने आप खुशहाल बन जाती है। | |||
* यदि व्यक्ति के संस्कार प्रबल होते हैं तो वह नैतिकता से भटकता नहीं है। | |||
* यदि पुत्र विद्वान और माता-पिता की सेवा करने वाला न हो तो उसका धरती पर जन्म लेना व्यर्थ है। | |||
* यदि ज़्यादा पैसा कमाना हाथ की बात नहीं तो कम खर्च करना तो हाथ की बात है; क्योंकि खर्चीला जीवन बनाना अपनी स्वतन्त्रता को खोना है। | |||
* यदि आपको मरने का डर है, तो इसका यही अर्थ है, की आप जीवन के महत्त्व को ही नहीं समझते। | |||
* यदि बचपन व माँ की कोख की याद रहे, तो हम कभी भी माँ-बाप के कृतघ्न नहीं हो सकते। अपमान की ऊचाईयाँ छूने के बाद भी अतीत की याद व्यक्ति के ज़मीन से पैर नहीं उखड़ने देती। | |||
* यदि मनुष्य कुछ सीखना चाहे, तो उसकी प्रत्येक भूल कुछ न कुछ सिखा देती है। | |||
* यदि मनुष्य सीखना चाहे, तो उसकी प्रत्येक भूल उसे कुछ न कुछ सिखा देती है। | |||
* यह सच है कि सच्चाई को अपनाना बहुत अच्छी बात है, लेकिन किसी सच से दूसरे का नुकसान होता हो तो, ऐसा सच बोलते समय सौ बार सोच लेना चाहिए। | |||
* यह संसार कर्म की कसौटी है। यहाँ मनुष्य की पहचान उसके कर्मों से होती है। | |||
* यह आपत्तिकालीन समय है। आपत्ति [[धर्म]] का अर्थ है-सामान्य सुख-सुविधाओं की बात ताक पर रख देना और वह करने में जुट जाना जिसके लिए मनुष्य की गरिमा भरी अंतरात्मा पुकारती है। | |||
* युग निर्माण योजना का लक्ष्य है - शुचिता, पवित्रता, सच्चरित्रता, समता, उदारता, सहकारिता उत्पन्न करना। - वाङ्गमय | |||
* युग निर्माण योजना का आरम्भ दूसरों को उपदेश देने से नहीं, वरन् अपने मन को समझाने से शुरू होगा। | |||
* यज्ञ, दान और तप से त्याग करने योग्य कर्म ही नहीं, अपितु अनिवार्य कर्त्तव्य कर्म भी हैं; क्योंकि यज्ञ, दान व तप बुद्धिमान लोगों को पवित्र करने वाले हैं। | |||
* यथार्थ को समझना ही सत्य है। इसी को विवेक कहते हैं। | |||
* योग के दृष्टिकोण से तुम जो करते हो वह नहीं, बल्कि तुम कैसे करते हो, वह बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण है। | |||
'''ब''' | '''ब''' | ||
* बुद्धिमान बनने का तरीका यह है कि आज हम जितना जानते हैं, भविष्य में उससे अधिक जानने के लिए प्रयत्नशील रहें। | |||
* बुद्धिमान वह है, जो किसी को ग़लतियों से हानि होते देखकर अपनी ग़लतियाँ सुधार लेता है। | |||
* बड़प्पन बड़े आदमियों के संपर्क से नहीं, अपने गुण, कर्म और स्वभाव की निर्मलता से मिला करता है। | |||
* बड़प्पन सुविधा संवर्धन में नहीं, सद्गुण संवर्धन का नाम है। | |||
* बड़प्पन सादगी और शालीनता में है। | |||
* बाहर मैं, मेरा और अंदर तू, तेरा, तेरी के भाव के साथ जीने का आभास जिसे हो गया, वह उसके जीवन की एक महान व उत्तम प्राप्ति है। | |||
* बिना गुरु के ज्ञान नहीं होता। | |||
* बिना सेवा के चित्त शुद्धि नहीं होती और चित्तशुद्धि के बिना परमात्मतत्व की अनुभूति नहीं होती। | |||
* बिना अनुभव के कोरा शाब्दिक ज्ञान अंधा है। | |||
* बहुमूल्य समय का सदुपयोग करने की कला जिसे आ गई उसने सफलता का रहस्य समझ लिया। | |||
* बहुमूल्य वर्तमान का सदुपयोग कीजिए। | |||
* बच्चे की प्रथम पाठशाला उसकी माता की गोद में होती है। | |||
* ब्रह्म विद्या मनुष्य को ब्रह्म - परमात्मा के चरणों में बिठा देती है और चित्त की मूर्खता छुडवा देती है। | |||
* बुरी मंत्रणा से राजा, विषयों की आसक्ति से योगी, स्वाध्याय न करने से विद्वान, अधिक प्यार से पुत्र, दुष्टों की संगती से चरित्र, प्रदेश में रहने से प्रेम, अन्याय से ऐश्वर्य, प्रेम न होने से मित्रता तथा प्रमोद से धन नष्ट हो जाता है; अतः बुद्धिमान अपना सभी प्रकार का धन संभालकर रखता है, बुरे समय का हमें हमेशा ध्यान रहता है। | |||
* बुराई मनुष्य के बुरे कर्मों की नहीं, वरन् बुरे विचारों की देन होती है। | |||
* बहुमत की आवाज़ न्याय का द्योतक नहीं है। | |||
* बाह्य जगत में प्रसिद्धि की तीव्र लालसा का अर्थ है-तुम्हें आन्तरिक सम्रध्द व शान्ति उपलब्ध नहीं हो पाई है। | |||
* बुढ़ापा आयु नहीं, विचारों का परिणाम है। | |||
* बलिदान वही कर सकता है, जो शुद्ध है, निर्भय है और योग्य है। | |||
'''श''' | '''श''' | ||
* शुभ कार्यों को कल के लिए मत टालिए, क्योंकि कल कभी आता नहीं। | |||
* शुभ कार्यों के लिए हर दिन शुभ और अशुभ कार्यों के लिए हर दिना अशुभ है। | |||
* शक्ति उनमें होती है, जिनकी कथनी और करनी एक हो, जो प्रतिपादन करें, उनके पीछे मन, वचन और कर्म का त्रिविध समावेश हो। | |||
* शालीनता बिना मूल्य मिलती है, पर उससे सब कुछ ख़रीदा जा सकता है। | |||
* शत्रु की घात विफल हो सकती है, किन्तु आस्तीन के साँप बने मित्र की घात विफल नहीं होती। | |||
* शरीर स्वस्थ और निरोग हो, तो ही व्यक्ति दिनचर्या का पालन विधिवत कर सकता है, दैनिक कार्य और श्रम कर सकता है। | |||
* शरीर और मन की प्रसन्नता के लिए जिसने आत्म-प्रयोजन का बलिदान कर दिया, उससे बढ़कर अभागा एवं दुबुद्धि और कौन हो सकता है? | |||
* शिक्षा का स्थान स्कूल हो सकते हैं, पर दीक्षा का स्थान तो घर ही है। | |||
* शिक्षक राष्ट्र मंदिर के कुशल शिल्पी हैं। | |||
* शिक्षक नई पीढ़ी के निर्माता होत हैं। | |||
* शूरता है सभी परिस्थितियों में परम सत्य के लिए डटे रह सकना, विरोध में भी उसकी घोषण करना और जब कभी आवश्यकता हो तो उसके लिए युद्ध करना। | |||
'''च''' | '''च''' | ||
* चरित्र का अर्थ है - अपने महान मानवीय उत्तरदायित्वों का महत्त्व समझना और उसका हर कीमत पर निर्वाह करना। | |||
* चरित्र ही मनुष्य की श्रेष्ठता का उत्तम मापदण्ड है। | |||
* चरित्रवान् व्यक्ति ही किसी राष्ट्र की वास्तविक सम्पदा है। - वाङ्गमय | |||
* चरित्रवान व्यक्ति ही सच्चे अर्थों में भगवद् भक्त हैं। | |||
* चरित्रनिष्ठ व्यक्ति ईश्वर के समान है। | |||
* चिंतन और मनन बिना पुस्तक बिना साथी का स्वाध्याय-सत्संग ही है। | |||
* चिता मरे को जलाती है, पर चिन्ता तो जीवित को ही जला डालती है। | |||
* चोर, उचक्के, व्यसनी, जुआरी भी अपनी बिरादरी निरंतर बढ़ाते रहते हैं । इसका एक ही कारण है कि उनका चरित्र और चिंतन एक होता है। दोनों के मिलन पर ही प्रभावोत्पादक शक्ति का उद्भव होता है। किंतु आदर्शों के क्षेत्र में यही सबसे बड़ी कमी है। | |||
* चेतना के भावपक्ष को उच्चस्तरीय उत्कृष्टता के साथ एकात्म कर देने को 'योग' कहते हैं। | |||
'''ज्ञ''' | '''ज्ञ''' | ||
* ज्ञान मूर्खता छुडवाता है और परमात्मा का सुख देता है। यही आत्मसाक्षात्कार का मार्ग है। | |||
* ज्ञान अक्षय है। उसकी प्राप्ति मनुष्य शय्या तक बन पड़े तो भी उस अवसर को हाथ से न जाने देना चाहिए। | |||
* ज्ञान ही धन और ज्ञान ही जीवन है। उसके लिए किया गया कोई भी बलिदान व्यर्थ नहीं जाता। | |||
* ज्ञान और आचरण में बोध और विवेक में जो सामञ्जस्य पैदा कर सके उसे ही विद्या कहते हैं। | |||
* ज्ञान के नेत्र हमें अपनी दुर्बलता से परिचित कराने आते हैं। जब तक इंद्रियों में सुख दीखता है, तब तक आँखों पर पर्दा हुआ मानना चाहिए। | |||
* ज्ञान से एकता पैदा होती है और अज्ञान से संकट। | |||
* ज्ञान का अर्थ मात्र जानना नहीं, वैसा हो जाना है। | |||
* '''ज्ञान''' का अर्थ है - जानने की शक्ति। सच को झूठ को सच से पृथक् करने वाली जो विवेक बुद्धि है- उसी का नाम ज्ञान है। | |||
* ज्ञान अक्षय है, उसकी प्राप्ति शैय्या तक बन पड़े तो भी उस अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाहिए। | |||
* ज्ञानदान से बढ़कर आज की परिस्थितियों में और कोई दान नहीं। | |||
* ज्ञान की आराधना से ही मनुष्य तुच्छ से महान बनता है। | |||
* ज्ञान की सार्थकता तभी है, जब वह आचरण में आए। | |||
* ज्ञान का जितना भाग व्यवहार में लाया जा सके वही सार्थक है, अन्यथा वह गधे पर लदे बोझ के समान है। | |||
* ज्ञान का अंतिम लक्ष्य चरित्र निर्माण ही है। | |||
* ज्ञान और आचरण में जो सामंजस्य पैदा कर सके, उसे ही विद्या कहते हैं। | |||
* ज्ञानयोगी की तरह सोचें, कर्मयोगी की तरह पुरुषार्थ करें और भक्तियोगी की तरह सहृदयता उभारें। | |||
'''न''' | '''न''' | ||
* न तो दरिद्रता में मोक्ष है और न सम्पन्नता में, बंधन धनी हो या निर्धन दोनों ही स्थितियों में ज्ञान से मोक्ष मिलता है। | |||
* न तो किसी तरह का कर्म करने से नष्ट हुई वस्तु मिल सकती है, न चिंता से। कोई ऐसा दाता भी नहीं है, जो मनुष्य को विनष्ट वस्तु दे दे, विधाता के विधान के अनुसार मनुष्य बारी-बारी से समय पर सब कुछ पा लेता है। | |||
* नेतृत्व पहले विशुद्ध रूप से सेवा का मार्ग था। एक कष्ट साध्य कार्य जिसे थोड़े से सक्षम व्यक्ति ही कर पाते थे। | |||
* नेतृत्व ईश्वर का सबसे बड़ा वरदान है, क्योंकि वह प्रामाणिकता, उदारता और साहसिकता के बदले ख़रीदा जाता है। | |||
* नेतृत्व का अर्थ है वह वर्चस्व जिसके सहारे परिचितों और अपरिचितों को अंकुश में रखा जा सके, अनुशासन में चलाया जा सके। | |||
* निश्चित रूप से ध्वंस सरल होता है और निर्माण कठिन है। | |||
* नरक कोई स्थान नहीं, संकीर्ण स्वार्थपरता की और निकृष्ट दृष्टिकोण की प्रतिक्रिया मात्र है। | |||
* नेता शिक्षित और सुयोग्य ही नहीं, प्रखर संकल्प वाला भी होना चाहिए, जो अपनी कथनी और करनी को एकरूप में रख सके। | |||
* नास्तिकता ईश्वर की अस्वीकृति को नहीं, आदर्शों की अवहेलना को कहते हैं। | |||
* निरंकुश स्वतंत्रता जहाँ बच्चों के विकास में बाधा बनती है, वहीं कठोर अनुशासन भी उनकी प्रतिभा को कुंठित करता है। | |||
* निष्काम कर्म, कर्म का अभाव नहीं, कर्तृत्व के अहंकार का अभाव होता है। | |||
* 'न' के लिए अनुमति नहीं है। | |||
* निन्दक दूसरों के आर-पार देखना पसन्द करता है, परन्तु खुद अपने आर-पार देखना नहीं चाहता। | |||
* नित्य गायत्री जप, उदित होते स्वर्णिम सविता का ध्यान, नित्य यज्ञ, अखण्ड दीप का सान्निध्य, दिव्यनाद की अवधारणा, आत्मदेव की साधना की दिव्य संगम स्थली है- शांतिकुञ्ज गायत्री तीर्थ। | |||
* निरभिमानी धन्य है; क्योंकि उन्हीं के हृदय में ईश्वर का निवास होता है। | |||
* निकृष्ट चिंतन एवं घृणित कर्तृत्व हमारी गौरव गरिमा पर लगा हुआ कलंक है। - वाङ्गमय | |||
* नैतिकता, प्रतिष्ठाओं में सबसे अधिक मूल्यवान् है। | |||
* नर और नारी एक ही आत्मा के दो रूप है। | |||
* नारी का असली श्रृंगार, सादा जीवन उच्च विचार। | |||
* नाव स्वयं ही नदी पार नहीं करती। पीठ पर अनेकों को भी लाद कर उतारती है। सन्त अपनी सेवा भावना का उपयोग इसी प्रकार किया करते हैं। | |||
'''ह''' | '''ह''' | ||
* हर शाम में एक जीवन का समापन हो रहा है और हर सवेरे में नए जीवन की शुरुआत होती है। | |||
* हर व्यक्ति संवेदनशील होता है, पत्थर कोई नहीं होता; लेकिन सज्जन व्यक्ति पर बाहरी प्रभाव पानी की लकीर की भाँति होता है। | |||
* हर व्यक्ति जाने या अनजाने में अपनी परिस्थितियों का निर्माण आप करता है। | |||
* हर दिन वर्ष का सर्वोत्तम दिन है। | |||
* हर मनुष्य का '''भाग्य''' उसकी मुट्ठी में है। | |||
* हर वक्त, हर स्थिति में मुस्कराते रहिये, निर्भय रहिये, कत्र्तव्य करते रहिये और प्रसन्न रहिये। | |||
* हमारा शरीर ईश्वर के मन्दिर के समान है, इसलिये इसे स्वस्थ रखना भी एक तरह की इश्वर - आराधना है। | |||
* हीन से हीन प्राणी में भी एकाध गुण होते हैं। उसी के आधार पर वह जीवन जी रहा है। | |||
* हमें अपने अभाव एवं स्वभाव दोनों को ही ठीक करना चाहिए; क्योंकि ये दोनों ही उन्नति के रास्ते में बाधक होते हैं। | |||
* हमारे शरीर को नियमितता भाती है, लेकिन मन सदैव परिवर्तन चाहता है। | |||
* हम आमोद-प्रमोद मनाते चलें और आस-पास का समाज आँसुओं से भीगता रहे, ऐसी हमारी हँसी-खुशी को धिक्कार है। | |||
* हमारे वचन चाहे कितने भी श्रेष्ठ क्यों न हों, परन्तु दुनिया हमें हमारे कर्मों के द्वारा पहचानती है। | |||
* हम मात्र प्रवचन से नहीं अपितु आचरण से परिवर्तन करने की संस्कृति में विश्वास रखते हैं। | |||
* हमारे सुख-दुःख का कारण दूसरे व्यक्ति या परिस्थितियाँ नहीं अपितु हमारे अच्छे या बूरे विचार होते हैं। | |||
* हमारा जीना व दुनियाँ से जाना ही गौरवपूर्ण होने चाहिए। | |||
* हँसती-हँसाती जिन्दगी ही सार्थक है। | |||
* हम क्या करते हैं, इसका महत्त्व कम है; किन्तु उसे हम किस भाव से करते हैं इसका बहुत महत्त्व है। | |||
* हम अपनी कमियों को पहचानें और इन्हें हटाने और उनके स्थान पर सत्प्रवृत्तियाँ स्थापित करने का उपाय सोचें इसी में अपना व मानव मात्र का कल्याण है। | |||
* हम कोई ऐसा काम न करें, जिसमें अपनी अंतरात्मा ही अपने को धिक्कारे। - वाङ्गमय | |||
* हमारी कितने रातें सिसकते बीती हैं - कितनी बार हम फूट-फूट कर रोये हैं इसे कोई कहाँ जानता है? लोग हमें संत, सिद्ध, ज्ञानी मानते हैं, कोई लेखक, विद्वान, वक्ता, नेता, समझा हैं। कोई उसे देख सका होता तो उसे मानवीय व्यथा वेदना की अनुभूतियों से करुण कराह से हाहाकार करती एक उद्विग्न आत्मा भर इस हड्डियों के ढ़ाँचे में बैठी बिलखती दिखाई पड़ती है। | |||
* हम स्वयं ऐसे बनें, जैसा दूसरों को बनाना चाहते हैं। हमारे क्रियाकलाप अंदर और बाहर से उसी स्तर के बनें जैसा हम दूसरों द्वारा क्रियान्वित किये जाने की अपेक्षा करते हैं। | |||
* हे मनुष्य! यश के पीछे मत भाग, कत्र्तव्य के पीछे भाग। लोग क्या कहते हैं यह न सुनकर विवेक के पीछे भाग। दुनिया चाहे कुछ भी कहे, सत्य का सहारा मत छोड़। | |||
'''ध''' | '''ध''' | ||
* '''धर्म''' का मार्ग फूलों सेज नहीं, इसमें बड़े-बड़े कष्ट सहन करने पड़ते हैं। | |||
* धर्म अंत:करण को प्रभावित और प्रशासित करता है, उसमें उत्कृष्टता अपनाने, आदर्शों को कार्यान्वित करने की उमंग उत्पन्न करता है। - वाङ्गमय | |||
* धर्म की रक्षा और अधर्म का उन्मूलन करना ही अवतार और उसके अनुयायियों का कत्र्तव्य है। इसमें चाहे निजी हानि कितनी ही होती हो, कठिनाई कितनी ही उइानी पड़ती हो। | |||
* धर्म को आडम्बरयुक्त मत बनाओ, वरन् उसे अपने जीवन में धुला डालो। धर्मानुकूल ही सोचो और करो। शास्त्र की उक्ति है कि रक्षा किया हुआ धर्म अपनी रक्षा करता है और धर्म को जो मारता है, धर्म उसे मार डालता है, इस तथ्य को। | |||
* धर्मवान् बनने का विशुद्ध अर्थ बुद्धिमान, दूरदर्शी, विवेकशील एवं सुरुचि सम्पन्न बनना ही है। | |||
* धीरे बोल, जल्दी सोचों और छोटे-से विवाद पर पुरानी दोस्ती कुर्बान मत करो। | |||
* '''धन''' अच्छा सेवक भी है और बुरा मालिक भी। | |||
* ध्यान-उपासना के द्वारा जब तुम ईश्वरीय शक्तियों के संवाहक बन जाते हो, तब तुम्हें निमित्त बनाकर भागवत शक्ति कार्य कर रही होती है। | |||
* धन अपना पराया नहीं देखता। | |||
* धनवाद नहीं, चरित्रवान सुख पाते हैं। | |||
* धैर्य, अनुद्वेग, साहस, प्रसन्नता, दृढ़ता और समता की संतुलित स्थिति सदेव बनाये रखें। | |||
* धरती पर स्वर्ग अवतरित करने का प्रारम्भ सफाई और स्वच्छता से करें। | |||
* ध्यान में रखकर ही अपने जीवन का नीति निर्धारण किया जाना चाहिए। | |||
* धन्य है वे जिन्होंने करने के लिए अपना काम प्राप्त कर लिया है और वे उसमें लीन है। अब उन्हें किसी और वरदान की याचना नहीं करना चाहिए। | |||
'''भ''' | '''भ''' | ||
* भगवान से निराश कभी मत होना, संसार से आशा कभी मत करना; क्योंकि संसार स्वार्थी है। इसका नमूना तुम्हारा खुद शरीर है। | |||
* '''भगवान''' की दण्ड संहिता में असामाजिक प्रवृत्ति भी अपराध है। | |||
* भगवान को घट-घट वासी और न्यायकारी मानकर पापों से हर घड़ी बचते रहना ही सच्ची भक्ति है। | |||
* भगवान को अनुशासन एवं सुव्यवस्थितपना बहुत पसंद है। अतः उन्हें ऐसे लोग ही पसंद आते हैं, जो सुव्यवस्था व अनुशासन को अपनाते हैं। | |||
* '''भगवान''' प्रेम के भूखे हैं, पूजा के नहीं। | |||
* '''भगवान''' सदा हमें हमारी क्षमता, पात्रता व श्रम से अधिक ही प्रदान करते हैं। | |||
* '''भगवान''' जिसे सच्चे मन से प्यार करते हैं, उसे अग्नि परीक्षाओं में होकर गुजारते हैं। | |||
* '''भगवान''' के काम में लग जाने वाले कभी घाटे में नहीं रह सकते। | |||
* '''भगवान''' की सच्ची पूजा सत्कर्मों में ही हो सकती है। | |||
* भगवान आदर्शों, श्रेष्ठताओं के समूच्चय का नाम है। सिद्धान्तों के प्रति मनुष्य के जो त्याग और बलिदान है, वस्तुत: यही भगवान की भक्ति है। | |||
* भगवान भावना की उत्कृष्टता को ही प्यार करता है और सर्वोत्तम सद्भावना का एकमात्र प्रमाण जनकल्याण के कार्यों में बढ़-चढ़कर योगदान करना है। | |||
* भगवान का अवतार तो होता है, परन्तु वह निराकार होता है। उनकी वास्तविक शक्ति जाग्रत् आत्मा होती है, जो भगवान का संदेश प्राप्त करके अपना रोल अदा करती है। | |||
* भाग्य को मनुष्य स्वयं बनाता है, ईश्वर नहीं। | |||
* भाग्य साहसी का साथ देता है। | |||
* भाग्य पर नहीं, चरित्र पर निर्भर रहो। | |||
* भाग्य भरोसे बैठे रहने वाले आलसी सदा दीन-हीन ही रहेंगे। | |||
* भाग्यशाली होते हैं वे, जो अपने जीवन के संघर्ष के बीच एक मात्र सहारा परमात्मा को मानते हुए आगे बढ़ते जाते हैं। | |||
* भले बनकर तुम दूसरों की भलाई का कारण भी बन जाते हो। | |||
* भीड़ में खोया हुआ इंसान खोज लिया जाता है, परन्तु विचारों की भीड़ के बीहड़ में भटकते हुए इंसान का पूरा जीवन अंधकारमय हो जाता है। | |||
* भलमनसाहत का व्यवहार करने वाला एक चमकता हुआ हीरा है। | |||
* भूत लौटने वाला नहीं, भविष्य का कोई निश्चय नहीं; सँभालने और बनाने योग्य तो वर्तमान है। | |||
'''ग''' | '''ग''' | ||
* गुण व कर्म से ही व्यक्ति स्वयं को ऊपर उठाता है। जैसे कमल कहाँ पैदा हुआ, इसमें विशेषता नहीं, बल्कि विशेषता इसमें है कि, कीचड़ में रहकर भी उसने स्वयं को ऊपर उठाया है। | |||
* गुण और दोष प्रत्येक व्यक्ति में होते हैं, योग से जुड़ने के बाद दोषों का शमन हो जाता है और गुणों में बढ़ोत्तरी होने लगती है। | |||
* गुण, कर्म और स्वभाव का परिष्कार ही अपनी सच्ची सेवा है। | |||
* गुण ही नारी का सच्चा आभूषण है। | |||
* गुणों की वृद्धि और क्षय तो अपने कर्मों से होता है। | |||
* गृहस्थ एक तपोवन है, जिसमें संयम, सेवा और सहिष्णुता की साधना करनी पड़ती है। | |||
* गायत्री उपासना का अधिकर हर किसी को है। मनुष्य मात्र बिना किसी भेदभाव के उसे कर सकता है। | |||
* ग़लती को ढूढना, मानना और सुधारना ही मनुष्य का बड़प्पन है। | |||
* गृहसि एक तपोवन है जिसमें संयम, सेवा, त्याग और सहिष्णुता की साधना करनी पड़ती है। | |||
* गंगा की गोद, हिमालय की छाया, ऋषि विश्वामित्र की तप:स्थली, अजस्त्र प्राण ऊर्जा का उद्भव स्रोत गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज जैसा जीवन्त स्थान उपासना के लिए दूसरा ढूँढ सकना कठिन है। | |||
* गाली-गलौज, कर्कश, कटु भाषण, अश्लील मजाक, कामोत्तेजक गीत, निन्दा, चुगली, व्यंग, क्रोध एवं आवेश भरा उच्चारण, वाणी की रुग्णता प्रकट करते हैं। ऐसे शब्द दूसरों के लिए ही मर्मभेदी नहीं होते वरन् अपने लिए भी घातक परिणाम उत्पन्न करते हैं। | |||
'''ख''' | '''ख''' | ||
* खुशामद बड़े-बड़ों को ले डूबती है। | |||
* खुद साफ रहो, सुरक्षित रहो और औरों को भी रोगों से बचाओं। | |||
* खरे बनिये, खरा काम कीजिए और खरी बात कहिए। इससे आपका हृदय हल्का रहेगा। | |||
'''ल''' | '''ल''' |
20:16, 24 सितम्बर 2011 का अवतरण
इन्हें भी देखें: अनमोल वचन, अनमोल वचन 2, अनमोल वचन 4, कहावत लोकोक्ति मुहावरे एवं सूक्ति और कहावत
अनमोल वचन |
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