* हाथ की शोभा दान से है। सिर की शोभा अपने से बड़ों को प्रणाम करने से है। मुख की शोभा सच बोलने से है। दोनों भुजाओं की शोभा युद्ध में वीरता दिखाने से है। हृदय की शोभा स्वच्छता से है। कान की शोभा शास्त्र के सुनने से है। यही ठाट बाट न होने पर भी सज्जनों के भूषण हैं।
* हाथ की शोभा दान से है। सिर की शोभा अपने से बड़ों को प्रणाम करने से है। मुख की शोभा सच बोलने से है। दोनों भुजाओं की शोभा युद्ध में वीरता दिखाने से है। हृदय की शोभा स्वच्छता से है। कान की शोभा शास्त्र के सुनने से है। यही ठाट बाट न होने पर भी सज्जनों के भूषण हैं।
[[चित्र:Chanakya.jpg|thumb|right|[[चाणक्य]]]]
* प्रेम करने वाला पड़ोसी दूर रहने वाले भाई से कहीं उत्तम है।
* प्रेम करने वाला पड़ोसी दूर रहने वाले भाई से कहीं उत्तम है।
* [[समुद्र|समुद्रों]] में वृष्टि निरर्थक है, तृप्तों को भोजन देना वृथा है, धनाढ्यों को धन देना तथा दिन के समय दिए का जला लेना निरर्थक है।
* [[समुद्र|समुद्रों]] में वृष्टि निरर्थक है, तृप्तों को भोजन देना वृथा है, धनाढ्यों को धन देना तथा दिन के समय दिए का जला लेना निरर्थक है।
हाथ की शोभा दान से है। सिर की शोभा अपने से बड़ों को प्रणाम करने से है। मुख की शोभा सच बोलने से है। दोनों भुजाओं की शोभा युद्ध में वीरता दिखाने से है। हृदय की शोभा स्वच्छता से है। कान की शोभा शास्त्र के सुनने से है। यही ठाट बाट न होने पर भी सज्जनों के भूषण हैं।
धीरज होने से दरिद्रता भी शोभा देती है, धुले हुए होने से जीर्ण वस्त्र भी अच्छे लगते हैं, घटिया भोजन भी गर्म होने से सुस्वादु लगता है और सुंदर स्वाभाव के कारण कुरूपता भी शोभा देती है।
तीर्थों के सेवन का फल समय आने पर मिलता है, किंतु सज्जनों की संगति का फल तुरंत मिलता है।
यदि तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारे गुणों की प्रशंसा करें तो दूसरे के गुणों को मान्यता दो।
मेहनत वह चाबी है जो किस्मत का दरवाज़ा खोल देती है।
जो प्रकृति से ही महान हैं उनके स्वाभाविक तेज को किसी (शारीरिक) ओज-प्रकाश की अपेक्षा नहीं रहती।
प्रजा के सुख में ही राजा का सुख और प्रजाओं के हित में ही राजा को अपना हित समझना चाहिए। आत्मप्रियता में राजा का अपना हित नहीं है, प्रजाओं की प्रियता में ही राजा का हित है।
कुल के कारण कोई बड़ा नहीं होता, विद्या ही उसे पूजनीय बनाती है।
जहां मूर्खों की पूजा नहीं होती, जहां धान्य भविष्य के लिए संग्रहीत किया हुआ है, जहां स्त्री-पुरुष में कलह नहीं होती- वहां मानो लक्ष्मी स्वयमेव आई हुई है।
मर्यादा का उल्लंघन कभी मत करो।
शांति के समान दूसरा तप नहीं है, न संतोष से परे सुख है, तृष्णा से बढ़कर दूसरी व्याधि नहीं है, न दया से अधिक धर्म है।
सज्जनों का सत्संग ही स्वर्ग में निवास के समान है।
समृद्धि व्यक्तित्व की देन है, भाग्य की नहीं।
अपमानपूर्वक जीने से अच्छा है प्राण त्याग देना। प्राण त्यागने में कुछ समय का दुख होता है, लेकिन अपमानपूर्वक जीने में तो प्रतिदिन का दुख सहना होता है।
सुख चाहने वाले को विद्या और विद्या चाहने वाले को सुख कहां? सुख चाहने वाले को विद्या और विद्यार्थी को सुख की कामना छोड़ देनी चाहिए।
शांति जैसा तप नहीं है, संतोष से बढ़कर सुख नहीं है, तृष्णा से बढ़कर रोग नहीं है और दया से बढ़कर धर्मा नहीं है।