"अनमोल वचन 15": अवतरणों में अंतर
भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
गोविन्द राम (वार्ता | योगदान) No edit summary |
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* आपके पास पचास मित्र हैं, यह अधिक नहीं है। आपके पास एक शत्रु है, यह बहुत अधिक है। ~ एक कहावत | * आपके पास पचास मित्र हैं, यह अधिक नहीं है। आपके पास एक शत्रु है, यह बहुत अधिक है। ~ एक कहावत | ||
* ज्ञान अनुभव की बेटी है। ~ कहावत | * ज्ञान अनुभव की बेटी है। ~ कहावत | ||
==हाफिज== | ==हाफिज== | ||
* सिर मुंड़ाने या दाढ़ी रखने से ही कोई सन्न्यासी नहीं हो जाता। बाल के समान पतले इस मार्ग पर चलना बहुत कठिन है। ~ हाफिज | * सिर मुंड़ाने या दाढ़ी रखने से ही कोई सन्न्यासी नहीं हो जाता। बाल के समान पतले इस मार्ग पर चलना बहुत कठिन है। ~ हाफिज | ||
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* दुख में एक भी क्षण व्यतीत करना संसार के सारे सुखों से बढ़कर है। ~ हाफिज | * दुख में एक भी क्षण व्यतीत करना संसार के सारे सुखों से बढ़कर है। ~ हाफिज | ||
* शत्रु की कृपा से मित्र का अत्याचार अधिक अच्छा होता है। ~ हाफिज | * शत्रु की कृपा से मित्र का अत्याचार अधिक अच्छा होता है। ~ हाफिज | ||
==ऋग्वेद== | ==ऋग्वेद== | ||
* अविचारशील मनुष्य दुख को प्राप्त होते हैं। ~ ऋग्वेद | * अविचारशील मनुष्य दुख को प्राप्त होते हैं। ~ ऋग्वेद | ||
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* देवता श्रम करने वाले के अतिरिक्त किसी और से मित्रता नहीं करते हैं। ~ ऋग्वेद | * देवता श्रम करने वाले के अतिरिक्त किसी और से मित्रता नहीं करते हैं। ~ ऋग्वेद | ||
* जो श्रम नहीं करता, देवता उसके साथ मैत्री नहीं करते। ~ ऋग्वेद | * जो श्रम नहीं करता, देवता उसके साथ मैत्री नहीं करते। ~ ऋग्वेद | ||
==इल्लीस जातक== | ==इल्लीस जातक== | ||
* जिस प्रकार फूल के रंग या गंध को बिना हानि पहुंचाए भौंरा रस को लेकर चल देता है, उसकी प्रकार मुनि ग्राम में विचरण करे। ~ इल्लीस जातक | * जिस प्रकार फूल के रंग या गंध को बिना हानि पहुंचाए भौंरा रस को लेकर चल देता है, उसकी प्रकार मुनि ग्राम में विचरण करे। ~ इल्लीस जातक | ||
पंक्ति 89: | पंक्ति 86: | ||
* निस्संदेह दान की बहुत प्रशंसा हुई है, पर दान से धर्माचरण ही श्रेष्ठ है। ~ जातक | * निस्संदेह दान की बहुत प्रशंसा हुई है, पर दान से धर्माचरण ही श्रेष्ठ है। ~ जातक | ||
* वह विजय अच्छी विजय नहीं है, जिसमें फिर से पराजय हो। वही विजय अच्छी है, जिस विजय की फिर विजय न हो। ~ जातक | * वह विजय अच्छी विजय नहीं है, जिसमें फिर से पराजय हो। वही विजय अच्छी है, जिस विजय की फिर विजय न हो। ~ जातक | ||
==सुकरात== | ==सुकरात== | ||
* हमारी प्रार्थना सर्व-सामान्य की भलाई के लिए होनी चाहिए क्योंकि ईश्वर जानता है कि हमारे लिए क्या अच्छा है। ~ सुकरात | * हमारी प्रार्थना सर्व-सामान्य की भलाई के लिए होनी चाहिए क्योंकि ईश्वर जानता है कि हमारे लिए क्या अच्छा है। ~ सुकरात | ||
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* संतोष स्वाभाविक संपत्ति है, विकास कृत्रिम निर्धनता। ~ सुकरात | * संतोष स्वाभाविक संपत्ति है, विकास कृत्रिम निर्धनता। ~ सुकरात | ||
* जिस उद्देश्य के लिए जो वस्तु उपयोगी है, उसके लिए वह अच्छी और सुंदर है। पर जिसके लिए वह अनुपयोगी है, उसके लिए वह बुरी और कुरूप। ~ सुकरात | * जिस उद्देश्य के लिए जो वस्तु उपयोगी है, उसके लिए वह अच्छी और सुंदर है। पर जिसके लिए वह अनुपयोगी है, उसके लिए वह बुरी और कुरूप। ~ सुकरात | ||
==सत्य साईं बाबा== | ==सत्य साईं बाबा== | ||
* कामना सरलता से लोभ बन जाती है और लोभ वासना बन जाता है। ~ सत्य साईंबाबा | * कामना सरलता से लोभ बन जाती है और लोभ वासना बन जाता है। ~ सत्य साईंबाबा | ||
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* जल से शरीर शुद्ध होता है, मन से सत्य शुद्ध होता है, विद्या और तप से भूतात्मा तथा ज्ञान से बुद्धि शुद्ध होती है। ~ मनुस्मृति | * जल से शरीर शुद्ध होता है, मन से सत्य शुद्ध होता है, विद्या और तप से भूतात्मा तथा ज्ञान से बुद्धि शुद्ध होती है। ~ मनुस्मृति | ||
* सब कुछ दूसरे के वश में होना दुख है और सब कुछ अपने वश में होना सुख है। ~ मनुस्मृति | * सब कुछ दूसरे के वश में होना दुख है और सब कुछ अपने वश में होना सुख है। ~ मनुस्मृति | ||
==विदुर== | ==विदुर== | ||
* जिस भांति भौंरा फूलों की रक्षा करता हुआ मधु को ग्रहण करता है, उसी प्रकार मनुष्य को हिंसा न करते हुए अर्थों को ग्रहण करना चाहिए। ~ विदुर | * जिस भांति भौंरा फूलों की रक्षा करता हुआ मधु को ग्रहण करता है, उसी प्रकार मनुष्य को हिंसा न करते हुए अर्थों को ग्रहण करना चाहिए। ~ विदुर | ||
* धन उत्तम कर्मों से उत्पन्न होता है। साहस, योग्यता, कीर्ति, वेग, दृढ़ निश्चय से बढ़ता है। चतुराई से फलता-फूलता है और संयम से सुरक्षित रहता है। ~ विदुर | * धन उत्तम कर्मों से उत्पन्न होता है। साहस, योग्यता, कीर्ति, वेग, दृढ़ निश्चय से बढ़ता है। चतुराई से फलता-फूलता है और संयम से सुरक्षित रहता है। ~ विदुर | ||
* दुष्टों का बल हिंसा है। राजाओं का बल दंड विधि है। स्त्रियों का बल सेवा है। लेकिन गुण वालों का बल क्षमा है। ~ विदुर | * दुष्टों का बल हिंसा है। राजाओं का बल दंड विधि है। स्त्रियों का बल सेवा है। लेकिन गुण वालों का बल क्षमा है। ~ विदुर | ||
==विमल मित्र== | ==विमल मित्र== | ||
* वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो पराये को भी अपना बना ले। ~ विमल मित्र | * वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो पराये को भी अपना बना ले। ~ विमल मित्र | ||
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* जो सचमुच मनुष्य है, वह विदोह करेगा, अन्याय के प्रति विदोह। ~ विमल मित्र | * जो सचमुच मनुष्य है, वह विदोह करेगा, अन्याय के प्रति विदोह। ~ विमल मित्र | ||
* प्रीति की अपेक्षा प्रयोजन ने ही आज मनुष्य को सबसे अधिक ग्रस लिया है। ~ विमल मित्र | * प्रीति की अपेक्षा प्रयोजन ने ही आज मनुष्य को सबसे अधिक ग्रस लिया है। ~ विमल मित्र | ||
==पंचतंत्र== | ==पंचतंत्र== | ||
* मनुष्य का अंत:करण उसके आकार, संकेत, गति, चेहरे की बनावट, बोलचाल तथा आंख और मुख के विकारों से मालूम पड़ जाता है। ~ पंचतंत्र | * मनुष्य का अंत:करण उसके आकार, संकेत, गति, चेहरे की बनावट, बोलचाल तथा आंख और मुख के विकारों से मालूम पड़ जाता है। ~ पंचतंत्र | ||
* अपनी शक्ति को प्रकट न करने से शक्तिशाली पुरुष भी अपमान सहन करता है। काठ के भीतर रहने वाली आग को लोग आसानी से लांघ जाते हैं, किंतु जलती हुई अग्नि को नहीं। ~ पंचतंत्र | * अपनी शक्ति को प्रकट न करने से शक्तिशाली पुरुष भी अपमान सहन करता है। काठ के भीतर रहने वाली आग को लोग आसानी से लांघ जाते हैं, किंतु जलती हुई अग्नि को नहीं। ~ पंचतंत्र | ||
* सज्जन लोग चाहे दूर भी रहें पर उनके गुण उनकी ख्याति के लिए स्वयं दूत का कार्य करते हैं। केवड़ा पुष्प की गंध सूंघकर भ्रमर स्वयं उसके पास चले आते हैं। ~ पंचतंत्र | * सज्जन लोग चाहे दूर भी रहें पर उनके गुण उनकी ख्याति के लिए स्वयं दूत का कार्य करते हैं। केवड़ा पुष्प की गंध सूंघकर भ्रमर स्वयं उसके पास चले आते हैं। ~ पंचतंत्र | ||
==कल्हण== | ==कल्हण== | ||
* संसार में ऐसा कोई भी नहीं है जो नीति का जानकार न हो, परन्तु ज़्यादातर लोग उसके प्रयोग से विहीन ही होते हैं। ~ कल्हण | * संसार में ऐसा कोई भी नहीं है जो नीति का जानकार न हो, परन्तु ज़्यादातर लोग उसके प्रयोग से विहीन ही होते हैं। ~ कल्हण | ||
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* मूर्ख राजा अपनी प्रजा पर शासन करता है, चतुर राजा उसकी शक्ति और सार्मथ्य का लाभ उठाता है और ज्ञानी राजा उसे संतान की तरह प्रेम करता है। ~ कल्हण | * मूर्ख राजा अपनी प्रजा पर शासन करता है, चतुर राजा उसकी शक्ति और सार्मथ्य का लाभ उठाता है और ज्ञानी राजा उसे संतान की तरह प्रेम करता है। ~ कल्हण | ||
* अधन ही जीव का धन है, धन आधा धन है, धान्य महज धन है तथा हे सुंदरी! विद्या तप और कीर्ति अतिधन है। ~ भगदत्त कल्हण | * अधन ही जीव का धन है, धन आधा धन है, धान्य महज धन है तथा हे सुंदरी! विद्या तप और कीर्ति अतिधन है। ~ भगदत्त कल्हण | ||
==वृंद== | ==वृंद== | ||
* अभ्यास करते करते जड़मति भी सुजान हो जाता है। रस्सी पर बार बार आने-जाने से पत्थर पर भी निशान बन जाता है। ~ वृंद | * अभ्यास करते करते जड़मति भी सुजान हो जाता है। रस्सी पर बार बार आने-जाने से पत्थर पर भी निशान बन जाता है। ~ वृंद | ||
पंक्ति 169: | पंक्ति 159: | ||
* देखादेखी करत सब, नाहिंन तत्व बिचारि। याकौ यह अनुमान है, भेड़ चाल संसार।। ~ वृन्द | * देखादेखी करत सब, नाहिंन तत्व बिचारि। याकौ यह अनुमान है, भेड़ चाल संसार।। ~ वृन्द | ||
* अपने शत्रु को कभी छोटा मत समझो। देखो, तिनको के बड़े ढेर को आग की छोटी सी चिंगारी भस्म कर देती है। ~ वृंद | * अपने शत्रु को कभी छोटा मत समझो। देखो, तिनको के बड़े ढेर को आग की छोटी सी चिंगारी भस्म कर देती है। ~ वृंद | ||
==क्षेमेंद्र== | ==क्षेमेंद्र== | ||
* गुणी पुरुषों के संपर्क से छोटा व्यक्ति भी गुरुता प्राप्त कर लेता है। ~ क्षेमेंद्र | * गुणी पुरुषों के संपर्क से छोटा व्यक्ति भी गुरुता प्राप्त कर लेता है। ~ क्षेमेंद्र | ||
पंक्ति 176: | पंक्ति 165: | ||
* सज्जनों का हृदय समृद्धि में कोमल और विपत्ति के समय कठोर हो जाता है। ~ क्षेमेन्द्र | * सज्जनों का हृदय समृद्धि में कोमल और विपत्ति के समय कठोर हो जाता है। ~ क्षेमेन्द्र | ||
* शांति, क्षमा, दान और दया का आश्रय लेने वाले लोगों के लिए शील ही विशाल कुल है, ऐसा विद्वानों का मत है। ~ क्षेमेंद्र | * शांति, क्षमा, दान और दया का आश्रय लेने वाले लोगों के लिए शील ही विशाल कुल है, ऐसा विद्वानों का मत है। ~ क्षेमेंद्र | ||
==शूद्रक== | ==शूद्रक== | ||
* विपत्ति में पड़े हुए मनुष्यों का प्रिय करने वाले दुर्लभ होते हैं। ~ शूदक | * विपत्ति में पड़े हुए मनुष्यों का प्रिय करने वाले दुर्लभ होते हैं। ~ शूदक | ||
पंक्ति 182: | पंक्ति 170: | ||
* जड़ कट जाने पर वृक्ष का पालन भला कैसे हो सकता है। ~ शूद्रक | * जड़ कट जाने पर वृक्ष का पालन भला कैसे हो सकता है। ~ शूद्रक | ||
* अपने दोषों के कारण ही मनुष्य शंकित होता है। ~ शूद्रक | * अपने दोषों के कारण ही मनुष्य शंकित होता है। ~ शूद्रक | ||
==योगवशिष्ठ== | ==योगवशिष्ठ== | ||
* मनुष्य जैसा नित्य यत्न करता है, जिसमें तन्मय होकर जैसी भावना करता है और जैसा होना चाहता है, वैसा ही हो जाता है, अन्य प्रकार का नहीं। ~ योगवशिष्ठ | * मनुष्य जैसा नित्य यत्न करता है, जिसमें तन्मय होकर जैसी भावना करता है और जैसा होना चाहता है, वैसा ही हो जाता है, अन्य प्रकार का नहीं। ~ योगवशिष्ठ | ||
पंक्ति 192: | पंक्ति 179: | ||
* सबकुछ अपने संकल्प द्वारा ही छोटा या बड़ा बन जाता है। ~ योगवासिष्ठ | * सबकुछ अपने संकल्प द्वारा ही छोटा या बड़ा बन जाता है। ~ योगवासिष्ठ | ||
* जिनका शम-दम आदि गुणों के विषय में संतोष नहीं है, जिनका ज्ञान के प्रति अनुराग है तथा जिनको सत्य के आचरण का ही व्यसन है, वे ही वास्तव में मनुष्य हैं, दूसरे पशु हैं। ~ योगवासिष्ठ | * जिनका शम-दम आदि गुणों के विषय में संतोष नहीं है, जिनका ज्ञान के प्रति अनुराग है तथा जिनको सत्य के आचरण का ही व्यसन है, वे ही वास्तव में मनुष्य हैं, दूसरे पशु हैं। ~ योगवासिष्ठ | ||
==एकनाथ== | ==एकनाथ== | ||
* यदि मनुष्य रामनाम स्मरण करता है परंतु उसके आचरण सदोष हैं तो उसकी भक्ति, श्रवण व मनन वृथा हैं। ~ एकनाथ | * यदि मनुष्य रामनाम स्मरण करता है परंतु उसके आचरण सदोष हैं तो उसकी भक्ति, श्रवण व मनन वृथा हैं। ~ एकनाथ | ||
पंक्ति 198: | पंक्ति 184: | ||
* मनुष्य जिस संगति में रहता है, उसकी छाप उस पर पड़ती है। उसका निज का गुण छिप जाता है और वह संगति का गुण प्राप्त कर लेता है। ~ एकनाथ | * मनुष्य जिस संगति में रहता है, उसकी छाप उस पर पड़ती है। उसका निज का गुण छिप जाता है और वह संगति का गुण प्राप्त कर लेता है। ~ एकनाथ | ||
* पराई स्त्री और पराया धन जिसके मन को अपवित्र नहीं करते, गंगादि तीर्थ उसके चरण-स्पर्श करने की अभिलाषा करते हैं। ~ एकनाथ | * पराई स्त्री और पराया धन जिसके मन को अपवित्र नहीं करते, गंगादि तीर्थ उसके चरण-स्पर्श करने की अभिलाषा करते हैं। ~ एकनाथ | ||
==दयाराम सतसई== | ==दयाराम सतसई== | ||
* दूब लघु है, तो उसे देवता के मस्तक पर चढ़ाते हैं और ताड़ के बड़े वृक्ष की कोई खड़ाऊं बनाकर भी नहीं पहनता। ~ दयाराम सतसई | * दूब लघु है, तो उसे देवता के मस्तक पर चढ़ाते हैं और ताड़ के बड़े वृक्ष की कोई खड़ाऊं बनाकर भी नहीं पहनता। ~ दयाराम सतसई | ||
पंक्ति 205: | पंक्ति 190: | ||
* जहां प्रीति होती है, वहां नीति नहीं ठहरती और जहां नीति होती है, वहां प्रीति नहीं रहती। ~ दयाराम | * जहां प्रीति होती है, वहां नीति नहीं ठहरती और जहां नीति होती है, वहां प्रीति नहीं रहती। ~ दयाराम | ||
* संगत से चरित्र में परिवर्तन नहीं होता। ढाल और तलवार सदा एक साथ रहती है, पर फिर भी एक घातक है और दूसरी रक्षक। दोनों का स्वभाव भिन्न है। ~ दयाराम | * संगत से चरित्र में परिवर्तन नहीं होता। ढाल और तलवार सदा एक साथ रहती है, पर फिर भी एक घातक है और दूसरी रक्षक। दोनों का स्वभाव भिन्न है। ~ दयाराम | ||
==गुरुनानक== | ==गुरुनानक== | ||
* ईश्वर के सामने सिर झुकाने से क्या होगा, जब हृदय ही अशुद्ध हो। ~ गुरुनानक | * ईश्वर के सामने सिर झुकाने से क्या होगा, जब हृदय ही अशुद्ध हो। ~ गुरुनानक | ||
* जब तक मन नहीं मरता, माया नहीं मरती। ~ गुरु नानक | * जब तक मन नहीं मरता, माया नहीं मरती। ~ गुरु नानक | ||
* हम इस संसार को ठहरने का घर बनाकर बैठे हैं, किंतु यहां से तो नित्य चलने का धोखा बना रहता है। ठहरने का पक्का स्थान तो इसे तभी जाना जा सकता है, यदि यह लोक अचल हो। ~ गुरुनानक | * हम इस संसार को ठहरने का घर बनाकर बैठे हैं, किंतु यहां से तो नित्य चलने का धोखा बना रहता है। ठहरने का पक्का स्थान तो इसे तभी जाना जा सकता है, यदि यह लोक अचल हो। ~ गुरुनानक | ||
==शरतचंद्र== | ==शरतचंद्र== | ||
* अभाव पर विजय पाना ही जीवन की सफलता है। उसे स्वीकार करके उसकी ग़ुलामी करना कायरपन है। ~ शरतचंद्र | * अभाव पर विजय पाना ही जीवन की सफलता है। उसे स्वीकार करके उसकी ग़ुलामी करना कायरपन है। ~ शरतचंद्र | ||
पंक्ति 218: | पंक्ति 201: | ||
* समाज में रहकर समाज को हानि पहुंचाना और आत्महत्या कर लेना दोनों ही समान हैं। ~ शरतचंद्र | * समाज में रहकर समाज को हानि पहुंचाना और आत्महत्या कर लेना दोनों ही समान हैं। ~ शरतचंद्र | ||
* कर्तव्य कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसे नाप-जोख कर देखा जाए। ~ शरतचंद्र | * कर्तव्य कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसे नाप-जोख कर देखा जाए। ~ शरतचंद्र | ||
==भगवान महावीर== | ==भगवान महावीर== | ||
* गुणों से मनुष्य साधु होता है और अवगुणों से असाधु होता है। सद्गुणों को ग्रहण करो और दुर्गुणों को छोड़ो। जो अपनी ही आत्मा द्वारा अपनी आत्मा को जानकर राग और द्वेष में समभाव रखता है, वह पूज्य है। ~ भगवान महावीर | * गुणों से मनुष्य साधु होता है और अवगुणों से असाधु होता है। सद्गुणों को ग्रहण करो और दुर्गुणों को छोड़ो। जो अपनी ही आत्मा द्वारा अपनी आत्मा को जानकर राग और द्वेष में समभाव रखता है, वह पूज्य है। ~ भगवान महावीर | ||
* सभी प्राणियों को अपनी-अपनी आयु प्रिय है। सुख अनुकूल है, दुख प्रतिकूल है। वध अप्रिय है, जीना प्रिय है। सब जीव दीर्घायु होना चाहते हैं। ~ भगवान महावीर | * सभी प्राणियों को अपनी-अपनी आयु प्रिय है। सुख अनुकूल है, दुख प्रतिकूल है। वध अप्रिय है, जीना प्रिय है। सब जीव दीर्घायु होना चाहते हैं। ~ भगवान महावीर | ||
==महादेवी वर्मा== | ==महादेवी वर्मा== | ||
* अनुभूति अपनी सीमा में जितनी सबल है, उतनी बुद्धि नहीं। हमारे स्वयं जलने की हलकी अनुभूति भी दूसरे के राख हो जाने के ज्ञान से अधिक स्थायी रहती है। ~ महादेवी वर्मा | * अनुभूति अपनी सीमा में जितनी सबल है, उतनी बुद्धि नहीं। हमारे स्वयं जलने की हलकी अनुभूति भी दूसरे के राख हो जाने के ज्ञान से अधिक स्थायी रहती है। ~ महादेवी वर्मा | ||
पंक्ति 232: | पंक्ति 213: | ||
* मनुष्य का आचरण ही बताता है कि दरअसल वह कैसा है। ~ काका कालेलकर | * मनुष्य का आचरण ही बताता है कि दरअसल वह कैसा है। ~ काका कालेलकर | ||
* अश्रद्धा की अपेक्षा श्रद्धा अच्छी है। लेकिन बेवकूफी की अपेक्षा तो अश्रद्धा ही अच्छी है। ~ काका कालेलकर | * अश्रद्धा की अपेक्षा श्रद्धा अच्छी है। लेकिन बेवकूफी की अपेक्षा तो अश्रद्धा ही अच्छी है। ~ काका कालेलकर | ||
==रामदास== | ==रामदास== | ||
* चाहे गुरु पर हो और चाहे ईश्वर पर हो, श्रद्धा अवश्य रखनी चाहिए, क्योंकि बिना श्रद्धा के सब बातें व्यर्थ होती हैं। ~ समर्थ रामदास | * चाहे गुरु पर हो और चाहे ईश्वर पर हो, श्रद्धा अवश्य रखनी चाहिए, क्योंकि बिना श्रद्धा के सब बातें व्यर्थ होती हैं। ~ समर्थ रामदास | ||
* मनुष्य के अंतरंग का शृंगार है चातुर्य, वस्त्र तो केवल बाहरी सजावट है। ~ गुरु रामदास | * मनुष्य के अंतरंग का शृंगार है चातुर्य, वस्त्र तो केवल बाहरी सजावट है। ~ गुरु रामदास | ||
* अन्य व्यक्ति को तुम कम से कम एक मुस्कान तो दे ही सकते हो - प्रेम और आनंद से भरी मुस्कान। यह उसके मन पर लदा चिंताओं का बोझ हटा देगी। ~ स्वामी रामदास | * अन्य व्यक्ति को तुम कम से कम एक मुस्कान तो दे ही सकते हो - प्रेम और आनंद से भरी मुस्कान। यह उसके मन पर लदा चिंताओं का बोझ हटा देगी। ~ स्वामी रामदास | ||
==यशपाल== | ==यशपाल== | ||
* यदि पुरुष के जीवन-विकास में स्त्री का आकर्षण विनाशकारी होता तो प्रकृति यह आकर्षण पैदा ही क्यों करती। ~ यशपाल | * यदि पुरुष के जीवन-विकास में स्त्री का आकर्षण विनाशकारी होता तो प्रकृति यह आकर्षण पैदा ही क्यों करती। ~ यशपाल | ||
पंक्ति 245: | पंक्ति 224: | ||
* बाधाएं व्यक्ति की परीक्षा होती हैं। उनसे उत्साह बढ़ना चाहिए, मंद नहीं पड़ना चाहिए। ~ यशपाल | * बाधाएं व्यक्ति की परीक्षा होती हैं। उनसे उत्साह बढ़ना चाहिए, मंद नहीं पड़ना चाहिए। ~ यशपाल | ||
* वैराग्य भीरु की आत्म-प्रवंचना मात्र है। जीवन की प्रवृत्ति प्रबल और असंदिग्ध सत्य है। ~ यशपाल | * वैराग्य भीरु की आत्म-प्रवंचना मात्र है। जीवन की प्रवृत्ति प्रबल और असंदिग्ध सत्य है। ~ यशपाल | ||
==स्वामी अखंडानंद== | ==स्वामी अखंडानंद== | ||
* जीवन को नियम के अधीन कर देना आलस्य पर विजय पाना है। जीवन को नियम के अधीन कर देना प्रमाद को सदा के लिए विदा कर देना है। ~ स्वामी अखंडानंद | * जीवन को नियम के अधीन कर देना आलस्य पर विजय पाना है। जीवन को नियम के अधीन कर देना प्रमाद को सदा के लिए विदा कर देना है। ~ स्वामी अखंडानंद | ||
पंक्ति 256: | पंक्ति 234: | ||
* अपने उपायों से ही उपकारी का उपकार करना चाहिए। उपकार बड़ा है या छोटा- इस प्रकार का विद्वानों का विशेष आग्रह नहीं होता। ~ श्रीहर्ष | * अपने उपायों से ही उपकारी का उपकार करना चाहिए। उपकार बड़ा है या छोटा- इस प्रकार का विद्वानों का विशेष आग्रह नहीं होता। ~ श्रीहर्ष | ||
* सज्जनों को दूसरों की तुलना में से अधिक लज्जा आती है। ~ श्री हर्ष | * सज्जनों को दूसरों की तुलना में से अधिक लज्जा आती है। ~ श्री हर्ष | ||
==भास== | ==भास== | ||
* उपकार के बदले में उपकार चाहने वाले मनुष्य को विपत्ति के रूप में फल मिलता है। ~ भास | * उपकार के बदले में उपकार चाहने वाले मनुष्य को विपत्ति के रूप में फल मिलता है। ~ भास | ||
पंक्ति 264: | पंक्ति 241: | ||
* प्रियजन द्वारा कही गई प्रिय बातें प्रियतर होती हैं। ~ भास | * प्रियजन द्वारा कही गई प्रिय बातें प्रियतर होती हैं। ~ भास | ||
* विनयी जनों को क्रोध कहां? और निर्मल अंत:करण में लज्जा का प्रवेश कहां? ~ भास | * विनयी जनों को क्रोध कहां? और निर्मल अंत:करण में लज्जा का प्रवेश कहां? ~ भास | ||
==पतंजलि== | ==पतंजलि== | ||
* सुखी के प्रति मित्रता, दुखी के प्रति करुणा, पुण्यात्मा के प्रति हर्ष और पापी के प्रति उपेक्षा की भावना करने से चित्त प्रसन्न व निर्मल होता है। ~ पतंजलि | * सुखी के प्रति मित्रता, दुखी के प्रति करुणा, पुण्यात्मा के प्रति हर्ष और पापी के प्रति उपेक्षा की भावना करने से चित्त प्रसन्न व निर्मल होता है। ~ पतंजलि | ||
* जब कोई व्यक्ति अहिंसा की कसौटी पर खरा उतर जाता है तो दूसरे व्यक्ति स्वयं ही उसके पास आकर वैरभाव भूल जाते हैं। ~ पतंजलि | * जब कोई व्यक्ति अहिंसा की कसौटी पर खरा उतर जाता है तो दूसरे व्यक्ति स्वयं ही उसके पास आकर वैरभाव भूल जाते हैं। ~ पतंजलि | ||
* संतोष से सर्वोत्तम सुख प्राप्त होता है। ~ पतंजलि | * संतोष से सर्वोत्तम सुख प्राप्त होता है। ~ पतंजलि | ||
==जैनेन्द्र== | ==जैनेन्द्र== | ||
* अपना मान तभी बना रह सकता है जब हम दूसरों के सम्मान की चिंता करें। ~ जैनेंद्र कुमार | * अपना मान तभी बना रह सकता है जब हम दूसरों के सम्मान की चिंता करें। ~ जैनेंद्र कुमार | ||
* प्रेम में विश्वास से बढ़कर कुछ नहीं होता। ~ जैनेंद्र कुमार | * प्रेम में विश्वास से बढ़कर कुछ नहीं होता। ~ जैनेंद्र कुमार | ||
* प्रेरणा की हर अभिव्यक्ति में पुरुषार्थ और पराक्रम की आवश्यकता होती है। ~ जैनेन्द्र | * प्रेरणा की हर अभिव्यक्ति में पुरुषार्थ और पराक्रम की आवश्यकता होती है। ~ जैनेन्द्र | ||
==महोपनिषद्== | ==महोपनिषद्== | ||
* यह मेरा बंधु है और यह नहीं है, यह क्षुद्र चित्त वालों की बात होती है। उदार चरित्र वालों के लिए तो सारा संसार ही अपना कुटुंब होता है। ~ महोपनिषद् | * यह मेरा बंधु है और यह नहीं है, यह क्षुद्र चित्त वालों की बात होती है। उदार चरित्र वालों के लिए तो सारा संसार ही अपना कुटुंब होता है। ~ महोपनिषद् | ||
* हृदय की गांठों का खुल जाना ही ज्ञान है और ज्ञान होने पर ही मुक्ति होती है। ~ महोपनिषद् | * हृदय की गांठों का खुल जाना ही ज्ञान है और ज्ञान होने पर ही मुक्ति होती है। ~ महोपनिषद् | ||
* जो अप्राप्त वस्तु के लिए चिंता नहीं करता और प्राप्त वस्तु के लिए सम रहता है, वह संतुष्ट कहा जा सकता है। ~ महोपनिषद् | * जो अप्राप्त वस्तु के लिए चिंता नहीं करता और प्राप्त वस्तु के लिए सम रहता है, वह संतुष्ट कहा जा सकता है। ~ महोपनिषद् | ||
==गीता== | ==गीता== | ||
* जब मनुष्य मन में उठती हुई सभी कामनाओं का त्याग कर देता है और आत्मा द्वारा ही आत्मा में संतुष्ट रहता है, तब वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है। ~ गीता | * जब मनुष्य मन में उठती हुई सभी कामनाओं का त्याग कर देता है और आत्मा द्वारा ही आत्मा में संतुष्ट रहता है, तब वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है। ~ गीता | ||
पंक्ति 285: | पंक्ति 258: | ||
* कर्म में ही अधिकार है। उससे उत्पन्न होने वाले फलों में कदापि नहीं। कर्म का फल हेतु न हो। कर्म न करने का भी तुझे आग्रह न हो। ~ गीता | * कर्म में ही अधिकार है। उससे उत्पन्न होने वाले फलों में कदापि नहीं। कर्म का फल हेतु न हो। कर्म न करने का भी तुझे आग्रह न हो। ~ गीता | ||
* क्रोध से मूढ़ता उत्पन्न होती है, मूढ़ता से स्मृति भ्रांत हो जाती है, स्मृति भ्रांत होने से बुद्धि का नाश हो जाता है, और बुद्धि नष्ट होने पर प्राणी स्वयं नष्ट हो जाता है। ~ भागवत गीता | * क्रोध से मूढ़ता उत्पन्न होती है, मूढ़ता से स्मृति भ्रांत हो जाती है, स्मृति भ्रांत होने से बुद्धि का नाश हो जाता है, और बुद्धि नष्ट होने पर प्राणी स्वयं नष्ट हो जाता है। ~ भागवत गीता | ||
==उमर खैयाम== | ==उमर खैयाम== | ||
* यदि तुम चाहते हो कि यह निश्चित रूप से जानो कि नरक क्या है तो जान लो कि अज्ञानी व्यक्ति की संगति ही नरक है। ~ उमर खैयाम | * यदि तुम चाहते हो कि यह निश्चित रूप से जानो कि नरक क्या है तो जान लो कि अज्ञानी व्यक्ति की संगति ही नरक है। ~ उमर खैयाम | ||
* तुम में सर्वप्रिय बनने की इच्छा होनी चाहिए। ऐसा करो, जिससे सामान्य लोग तुम्हें पसंद करें। यदि तुम यह सोचते हो कि पीठे पीछे किसी मोमिन, यहूदी या ईसाई की बुराई करने से लोग तुम्हें भला मान लेंगे, तो तुम लोगों का मिज़ाज नहीं समझते। ~ उमर खैयाम | * तुम में सर्वप्रिय बनने की इच्छा होनी चाहिए। ऐसा करो, जिससे सामान्य लोग तुम्हें पसंद करें। यदि तुम यह सोचते हो कि पीठे पीछे किसी मोमिन, यहूदी या ईसाई की बुराई करने से लोग तुम्हें भला मान लेंगे, तो तुम लोगों का मिज़ाज नहीं समझते। ~ उमर खैयाम | ||
==हनुमानप्रसाद पोद्दार== | ==हनुमानप्रसाद पोद्दार== | ||
* जब तक तुम्हें अपने सम्मान और दूसरे का अपमान सुख देता है, तब तक तुम अपमानित ही होते रहोगे। ~ हनुमान प्रसाद पोद्दार | * जब तक तुम्हें अपने सम्मान और दूसरे का अपमान सुख देता है, तब तक तुम अपमानित ही होते रहोगे। ~ हनुमान प्रसाद पोद्दार | ||
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* रुपया और भय संसार में साथ ही आते हैं और साथ ही चले जाते हैं। ऐसा ज्ञात होता है मानो वे दोनों सगे भाई हैं। ~ सनाई | * रुपया और भय संसार में साथ ही आते हैं और साथ ही चले जाते हैं। ऐसा ज्ञात होता है मानो वे दोनों सगे भाई हैं। ~ सनाई | ||
* अगर अपने आपको किसी रंग में रंगना है तो प्रेम-रंग में रंग, क्योंकि इस रंग में रंगा हुआ मनुष्य मृत्यु के बंधनों से छूट जाता है। ~ सनाई | * अगर अपने आपको किसी रंग में रंगना है तो प्रेम-रंग में रंग, क्योंकि इस रंग में रंगा हुआ मनुष्य मृत्यु के बंधनों से छूट जाता है। ~ सनाई | ||
==उत्तराध्ययन== | ==उत्तराध्ययन== | ||
* ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों-त्यों लोभ होता है। इस तरह से लाभ से लोभ निरंतर बढ़ता जाता है। ~ उत्तराध्ययन | * ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों-त्यों लोभ होता है। इस तरह से लाभ से लोभ निरंतर बढ़ता जाता है। ~ उत्तराध्ययन | ||
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* साधु स्वाद के लिए भोजन न करे, जीवन यात्रा के निर्वाह के लिए करे। ~ उत्तराध्ययन | * साधु स्वाद के लिए भोजन न करे, जीवन यात्रा के निर्वाह के लिए करे। ~ उत्तराध्ययन | ||
* सभी गीत विलाप हैं। सभी नृत्य विडंबना हैं। सभी आभूषण भार हैं और सभी काम दुखदायी हैं। ~ उत्तराध्ययन | * सभी गीत विलाप हैं। सभी नृत्य विडंबना हैं। सभी आभूषण भार हैं और सभी काम दुखदायी हैं। ~ उत्तराध्ययन | ||
==विष्णुपुराण== | ==विष्णुपुराण== | ||
* प्रिय होने पर भी जो हितकर न हो, उसे न कहें। हितकर कहना ही अच्छा है, चाहे वह अत्यंत अप्रिय हो। ~ विष्णुपुराण | * प्रिय होने पर भी जो हितकर न हो, उसे न कहें। हितकर कहना ही अच्छा है, चाहे वह अत्यंत अप्रिय हो। ~ विष्णुपुराण | ||
* विद्वान झगड़े में न पड़ें। व्यर्थ के वैर से अलग रहें। थोड़ी हानि सह लें। वैर से धन की प्राप्ति हो, तो भी उसे छोड़ दें। ~ विष्णु पुराण | * विद्वान झगड़े में न पड़ें। व्यर्थ के वैर से अलग रहें। थोड़ी हानि सह लें। वैर से धन की प्राप्ति हो, तो भी उसे छोड़ दें। ~ विष्णु पुराण | ||
* जो जिस विद्या से युक्त है, वही उसके लिए परम देवता है। वह पूज्य और अर्चनीय है और वही उसके लिए उपकारिका है। ~ विष्णुपुराण | * जो जिस विद्या से युक्त है, वही उसके लिए परम देवता है। वह पूज्य और अर्चनीय है और वही उसके लिए उपकारिका है। ~ विष्णुपुराण | ||
==मज्झिमनिकाय== | ==मज्झिमनिकाय== | ||
* लोभ पाप का मूल है, द्वेष पाप का मूल है और मोह पाप का मूल है। ~ मज्झिम निकाय | * लोभ पाप का मूल है, द्वेष पाप का मूल है और मोह पाप का मूल है। ~ मज्झिम निकाय | ||
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* कर्म, विद्या, धर्म, शील और उत्तम जीवन- इनसे ही मनुष्य शुद्ध होते हैं, गोत्र और धन से नहीं। ~ मज्झिमनिकाय | * कर्म, विद्या, धर्म, शील और उत्तम जीवन- इनसे ही मनुष्य शुद्ध होते हैं, गोत्र और धन से नहीं। ~ मज्झिमनिकाय | ||
* भिक्षुओं! बेड़े की भांति पार जाने के लिए तुम्हें धर्म का उपदेश किया है, पकड़ कर रखने के लिए नहीं। ~ मज्झिमनिकाय | * भिक्षुओं! बेड़े की भांति पार जाने के लिए तुम्हें धर्म का उपदेश किया है, पकड़ कर रखने के लिए नहीं। ~ मज्झिमनिकाय | ||
==बृहस्पतिनीतिसार== | ==बृहस्पतिनीतिसार== | ||
* विप्रों का आभूषण विद्या है, पृथ्वी का आभूषण राजा है, आकाश का आभूषण चंद्रमा है, शील सबका आभूषण है। ~ बृहस्पतिनीतिसार | * विप्रों का आभूषण विद्या है, पृथ्वी का आभूषण राजा है, आकाश का आभूषण चंद्रमा है, शील सबका आभूषण है। ~ बृहस्पतिनीतिसार | ||
* किसके कुल में दोष नहीं है, कौन व्याधि से पीड़ित नहीं है, कौन कष्ट में नहीं पड़ता और लक्ष्मी निरंतर किसके पास रहती है? ~ बृहस्पति नीति सार | * किसके कुल में दोष नहीं है, कौन व्याधि से पीड़ित नहीं है, कौन कष्ट में नहीं पड़ता और लक्ष्मी निरंतर किसके पास रहती है? ~ बृहस्पति नीति सार | ||
==प्रश्नव्याकरणसूत्र== | ==प्रश्नव्याकरणसूत्र== | ||
* खुद डरा हुआ व्यक्ति दूसरों को भी डरा देता है। ~ प्रश्नव्याकरणसूत्र | * खुद डरा हुआ व्यक्ति दूसरों को भी डरा देता है। ~ प्रश्नव्याकरणसूत्र | ||
* स्वयं डरा हुआ व्यक्ति दूसरों को भी डरा देता है। ~ प्रश्नव्याकरणसूत्र | * स्वयं डरा हुआ व्यक्ति दूसरों को भी डरा देता है। ~ प्रश्नव्याकरणसूत्र | ||
* ऐसा सत्य वचन बोलना चाहिए, जो हित, मित और ग्राह्य हो। ~ प्रश्नव्याकरण सूत्र | * ऐसा सत्य वचन बोलना चाहिए, जो हित, मित और ग्राह्य हो। ~ प्रश्नव्याकरण सूत्र | ||
==दशवैकालिक== | ==दशवैकालिक== | ||
* व्यक्ति के अंतर्मन को परखना चाहिए। ~ दशवैकालिक | * व्यक्ति के अंतर्मन को परखना चाहिए। ~ दशवैकालिक | ||
* शंति से क्रोध को जीतें, मृदुता से अभिमान को जीतें, सरलता से माया को जीतें और संतोष से लाभ को जीतें। ~ दशवैकालिक | * शंति से क्रोध को जीतें, मृदुता से अभिमान को जीतें, सरलता से माया को जीतें और संतोष से लाभ को जीतें। ~ दशवैकालिक | ||
* सब प्राणियों के प्रति स्वयं को संयत रखना ही अहिंसा की पूर्ण दृष्टि है। ~ दशवैकालिक | * सब प्राणियों के प्रति स्वयं को संयत रखना ही अहिंसा की पूर्ण दृष्टि है। ~ दशवैकालिक | ||
==सूत्रकृतांग== | ==सूत्रकृतांग== | ||
* अभिमान करना अज्ञानी का लक्षण है। ~ सूत्रकृतांग | * अभिमान करना अज्ञानी का लक्षण है। ~ सूत्रकृतांग | ||
* अभयदान ही सर्वश्रेष्ठ दान है। ~ सूत्रकृतांग | * अभयदान ही सर्वश्रेष्ठ दान है। ~ सूत्रकृतांग | ||
* जो अपने मत की प्रशंसा, दूसरों के मत की निंदा करने में ही अपना पांडित्य दिखाते हैं, वे एकांतवादी संसार-चक्र में ही भटकते रहते हैं। ~ सूत्रकृतांग | * जो अपने मत की प्रशंसा, दूसरों के मत की निंदा करने में ही अपना पांडित्य दिखाते हैं, वे एकांतवादी संसार-चक्र में ही भटकते रहते हैं। ~ सूत्रकृतांग | ||
==नवविधान== | ==नवविधान== | ||
* यदि कोई बड़ा होना चाहे, तो सबसे छोटा और सबका सेवक बने। ~ नवविधान | * यदि कोई बड़ा होना चाहे, तो सबसे छोटा और सबका सेवक बने। ~ नवविधान | ||
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* अपने पिता और अपनी माता का आदर कर और अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम कर। ~ नवविधान | * अपने पिता और अपनी माता का आदर कर और अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम कर। ~ नवविधान | ||
* यदि तुम छोटे बालकों के समान नहीं बनोगे, तो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं कर पाओगे। ~ नवविधान | * यदि तुम छोटे बालकों के समान नहीं बनोगे, तो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं कर पाओगे। ~ नवविधान | ||
==देवीभागवत== | ==देवीभागवत== | ||
* महात्माओं का क्रोध क्षण में ही शांत हो जाता है। पापी जन ही ऐसे हैं, जिसका कोप कल्पों तक भी दूर नहीं होता। ~ देवीभागवत | * महात्माओं का क्रोध क्षण में ही शांत हो जाता है। पापी जन ही ऐसे हैं, जिसका कोप कल्पों तक भी दूर नहीं होता। ~ देवीभागवत | ||
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* संपत्ति तो जन्म, मृत्यु वृद्धावस्था, शोक और राग के बीज का उत्तम अंकुर है। इसके प्रभाव में अंधा हुआ मानव मुक्ति के मार्ग को नहीं देख सकता। ~ देवीभागवत | * संपत्ति तो जन्म, मृत्यु वृद्धावस्था, शोक और राग के बीज का उत्तम अंकुर है। इसके प्रभाव में अंधा हुआ मानव मुक्ति के मार्ग को नहीं देख सकता। ~ देवीभागवत | ||
* वह सत्य सत्य नहीं है, जिसमें हिंसा भरी हो। यदि दया-युक्त हो तो असत्य भी सत्य ही कहा जाता है। जिससे मनुष्यों का हित होता हो, वही सत्य है। ~ देवीभागवत | * वह सत्य सत्य नहीं है, जिसमें हिंसा भरी हो। यदि दया-युक्त हो तो असत्य भी सत्य ही कहा जाता है। जिससे मनुष्यों का हित होता हो, वही सत्य है। ~ देवीभागवत | ||
==भट्टनारायण== | ==भट्टनारायण== | ||
* बिना कहे हित-संपादन करने का भाव ही मन में स्थित स्वामीभक्ति को प्रकट करता है। ~ भट्टनारायण | * बिना कहे हित-संपादन करने का भाव ही मन में स्थित स्वामीभक्ति को प्रकट करता है। ~ भट्टनारायण | ||
पंक्ति 352: | पंक्ति 313: | ||
* गुप्त या प्रकट रूप से, बहुत या थोड़ा, स्वयं या दूसरे के द्वारा किया गया शत्रुओं का अपकार बहुत आनंद देता है। ~ भट्टनारायण | * गुप्त या प्रकट रूप से, बहुत या थोड़ा, स्वयं या दूसरे के द्वारा किया गया शत्रुओं का अपकार बहुत आनंद देता है। ~ भट्टनारायण | ||
* उच्च या नीच कुल में जन्म होना भाग्य के अधीन है, मेरे अधीन तो पुरुषार्थ है। ~ भट्टनारायण | * उच्च या नीच कुल में जन्म होना भाग्य के अधीन है, मेरे अधीन तो पुरुषार्थ है। ~ भट्टनारायण | ||
==सुत्तनिपात== | ==सुत्तनिपात== | ||
* सब रसों में सत्य का रस ही अधिक स्वादिष्ट है। ~ सुत्तनिपात | * सब रसों में सत्य का रस ही अधिक स्वादिष्ट है। ~ सुत्तनिपात | ||
* मनुष्य श्रद्धा से इस संसार-प्रवाह को आसानी से पार कर जाता है। ~ सुत्तनिपात | * मनुष्य श्रद्धा से इस संसार-प्रवाह को आसानी से पार कर जाता है। ~ सुत्तनिपात | ||
* मनुष्य पराक्रम के द्वारा दुखों से पार पाता है और प्रज्ञा से परिशुद्ध होता है। ~ सुत्तनिपात | * मनुष्य पराक्रम के द्वारा दुखों से पार पाता है और प्रज्ञा से परिशुद्ध होता है। ~ सुत्तनिपात | ||
==मौलाना रूम== | ==मौलाना रूम== | ||
* यद्यपि संतोष कड़वा वृक्ष है, तथापि इसका फल बड़ा ही मीठा और लाभदायक है। ~ मौलाना रूमी | * यद्यपि संतोष कड़वा वृक्ष है, तथापि इसका फल बड़ा ही मीठा और लाभदायक है। ~ मौलाना रूमी | ||
* प्रेम के मार्ग में चतुराई बहुत बुरी चीज़ है। ~ मौलाना रूम | * प्रेम के मार्ग में चतुराई बहुत बुरी चीज़ है। ~ मौलाना रूम | ||
* प्रेम के कारण कड़ुवी वस्तुएं मीठी हो जाती हैं। प्रेम के स्वभाव के कारण तांबा सोना बन जाता है। ~ मौलाना रूम | * प्रेम के कारण कड़ुवी वस्तुएं मीठी हो जाती हैं। प्रेम के स्वभाव के कारण तांबा सोना बन जाता है। ~ मौलाना रूम | ||
==आचारांग== | ==आचारांग== | ||
* आत्मज्ञानी साधक को ऊंची या नीची किसी भी स्थिति में न हर्षित होना चाहिए, न कुपित। ~ आचारांग | * आत्मज्ञानी साधक को ऊंची या नीची किसी भी स्थिति में न हर्षित होना चाहिए, न कुपित। ~ आचारांग | ||
पंक्ति 371: | पंक्ति 329: | ||
* प्रत्येक व्यक्ति का सुख-दुख अपना-अपना है। ~ आचारांग | * प्रत्येक व्यक्ति का सुख-दुख अपना-अपना है। ~ आचारांग | ||
* जो साधक कामनाओं को पार कर गए हैं, वस्तुत: वे ही मुक्त पुरुष हैं। ~ आचारांग | * जो साधक कामनाओं को पार कर गए हैं, वस्तुत: वे ही मुक्त पुरुष हैं। ~ आचारांग | ||
==दिनकर== | ==दिनकर== | ||
* परंपरा और विद्रोह, जीवन में दोनों का स्थान है। परंपरा घेरा डालकर पानी को गहरा बनाती है। विद्रोह घेरों को तोड़कर पानी को चौड़ाई में ले जाता है। ~ रामधारी सिंह दिनकर | * परंपरा और विद्रोह, जीवन में दोनों का स्थान है। परंपरा घेरा डालकर पानी को गहरा बनाती है। विद्रोह घेरों को तोड़कर पानी को चौड़ाई में ले जाता है। ~ रामधारी सिंह दिनकर |
07:56, 24 फ़रवरी 2017 का अवतरण
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अनमोल वचन |
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