- जीवन में कोई भी कार्य कठिन नहीं होता। मन से अभ्यास करने से हर कार्य संभव हो जाता है।
- जिसमें दया नहीं है, वह तो जीते जी ही मुर्दे के समान है। दूसरे का भला करने से ही अपना भला होता है।
- जीवन एक प्रयोगशाला के समान है जिसमें मनुष्य निरंतर प्रयोग करता रहता है।
- जीवन के युद्ध में चोटें और आघात बर्दाश्त करने से ही उसमें विजय प्राप्त होती है, उसमें आनंद आता है।
- जाति से कोई पतित नहीं है। पतित वह है जो चोरी, व्यभिचार, ब्रह्महत्या, भ्रूण-हत्या आदि दुष्ट कृत्यों को करता है और उनको गुप्त रखने के लिए झूठ बोलता है।
- जिसका मन संतुष्ट है, सभी संपत्तियां उसकी हैं।
- जैसा सुख-दुख दूसरे को दिया जाता है, वैसा ही सुख-दुख स्वयं को भी प्राप्त होता है।
- जिस तरह एक जवान स्त्री बूढ़े पुरुष का आलिंगन करना नहीं चाहती, उसी तरह लक्ष्मी भी आलसी, भाग्यवादी और साहसविहीन व्यक्ति को नहीं चाहती।
- जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं का त्याग कर निस्पृह हो जाता है और ममता तथा अहंकार को छोड़ देता है, वही शांति पाता है।
- जब मनुष्य स्वयं आत्मविश्वास खो बैठता है तो उसके पतन का सिरा खोजने से भी नहीं मिलता।
- जैसा चित्त में है, वैसी वाणी है। जैसा वाणी में है, वैसी ही क्रियाएं हैं। सज्जनों के चित्त, वाणी और क्रिया में एकरूपता होती है।
- जो गुणज्ञ न हो, उसके सामने गुण नष्ट हो जाता है और कृतघ्न के साथ की गई उदारता नष्ट हो जाती है।
- जैसा उद्योग होता है, उसी के अनुसार लक्ष्मी आती है, त्याग के अनुसार कीर्ति फैलती है, अभ्यास के अनुसार विद्या प्राप्त होती हे और कर्म के अनुसार बुद्धि बनती है। ~अज्ञात
- अपना केंद्र अपने से बाहर मत बनाओ, अन्यथा ठोकरें खाते रहोगे।
- आलस्य ही मनुष्य के शरीर में रहने वाला सबसे बड़ा शत्रु है। उद्यम के समान मनुष्य का कोई बंधु नहीं है जिसके करने से मनुष्य दुखी नहीं होता।
- आचरण के अभाव में ज्ञान नष्ट हो जाता है।
- आलसी आदमी ही चिंताग्रस्त रहा करता है। वह आलस्य चाहे शारीरिक कष्ट से बचने के लिए हो या मानसिक।
- आंखों में मनुष्य की आत्मा का प्रतिबिम्ब होता है।
- अपात्र को दिया गया दान व्यर्थ है। अफल बुद्धि वाले और अज्ञानी के प्रति की गई भलाई व्यर्थ है। गुण को न समझ सकने वाले के लिए गुण व्यर्थ है। कृतघ्न के लिए उदारता व्यर्थ है। ~ अज्ञात
- सफल मनुष्य वह है जो दूसरे लोगों द्वारा अपने पर फेंकी गई ईंटों से एक सुदृढ़ नींव डाल सकता है।
- सबसे सुखी समाज वह है जहां परस्पर सम्मान का भाव हो।
- सज्जनों की यह कोई बड़ी कठोर चित्तता है कि वे उपकार करके, प्रत्युपकार के भय से बहुत दूर हट जाते हैं।
- सदैव शुभ बोलना चाहिए। सदैव शुभ का ध्यान करना चाहिए और सदैव शुभ इच्छा करनी चाहिए।
- सज्जन लोग चाहे दूर भी रहें पर उनके गुण उनकी ख्याति के लिए स्वयं दूत का कार्य करते हैं। केवड़ा पुष्प की गंध सूंघकर भ्रमर स्वयं उसके पास चले जाते हैं।
- सुख-दुख को देनेवाला अन्य कोई नहीं है। इन्हें कोई अन्य देता है, यह कहना कुबुद्धि है। यह अपने ही कर्मों से मिलता है।
- सब शुद्धियों में दिल की शुद्धि श्रेष्ठ है। जो धन के बारे में पवित्रता रखता है, वही वस्तुत: पवित्र है। मिट्टी-पानी द्वारा प्राप्त पवित्रता वास्तविक पवित्रता नहीं है।
- सच्चा सौहार्द वह होता है जब पीठ- पीछे प्रशंसा की जाए।
- सुदिन सबके लिए आते हैं, किंतु टिकते उसी के पास हैं जो उनको पहचान कर आदर देता है।
- सुंदर वस्तु सर्वदा आनंद देने वाली होती है। उसका आकर्षण निरंतर बढ़ता जाता है। उसका कभी ह्रास नहीं होने पाता।
- संसार रूपी विष - वृक्ष के दो फल अमृततुल्य हैं - काव्यामृत के रस का आस्वादन और सज्जनों की संगति।
- सबसे निकृष्ट मित्र वह है जो अच्छे दिनो मे पास आता है और मुसीबत के दिनो मे त्याग देता है।
- समय गंवाना सभी खर्चों से कीमती और व्यर्थ होता है।
- स्थान प्रधान है, बल नहीं। स्थान पर स्थित कायर पुरुष भी शूर हो जाता है।
- मनुष्य की सबसे बड़ी महानता विपत्तियों को सह लेने में है।
- मनुष्य के संपूर्ण कार्य उसकी इच्छा के प्रतिबिंब होते हैं।
- मन से किया गया कर्म ही यथार्थ होता है, शरीर से किया गया नहीं। जिस शरीर से पत्नी को गले लगाया जाता है उसी शरीर से पुत्री को भी गले लगाते हैं, पर मन का भाव भी भिन्न होने के कारण दोनों में अंतर रहता है।
- माया सबको मोहित करती है, परंतु भगवान के भक्त से वह हारी हुई है।
- मानव जाति को यूं तो अनेक उपहार मिले हैं, लेकिन हंसी उसे दिए गए सर्वोत्तम दिव्य उपहारों में से एक है।
- मनुष्यों की गुणों से रहित वाणी भी यदि उचित अवसर पर कही गई हो, तो शोभा देती है।
- कला की कसौटी सौंदर्य है। जो सुंदर है, वही कला है।
- क्रांति का उदय सदा पीड़ितों के हृदय और त्रस्त अंत:करण में हुआ करता है। उसके पीछे कोई निहित स्वार्थ नहीं होता।
- कपट से धर्म नष्ट हो जाता है, क्रोध से तप नष्ट हो जाता है और प्रमाद करने से पढ़ा- सुना नष्ट हो जाता है।
- कुपठित विद्या विष है। असाध्य रोग विष है। दरिद्रता का रोग विष है और वृद्ध पुरुष के लिए तरुणी विष है।
- कभी-कभी आलोचना अपने मित्र को भी शत्रु के शिविर में भेज देती है।
- क्रोध बुरे विचारों की खिचड़ी है। उसमें द्वेष भी है दु:ख भी, भय भी है तिरस्कार भी, घमंड भी है और अविवेकता भी।
- कभी न लौटने वाला समय जा रहा है।
- केवल पढ़-लिख लेने से कोई विद्वान् नहीं होता। जो सत्य, तप, ज्ञान, अहिंसा, विद्वानों के प्रति श्रद्धा और सुशीलता को धारण करता है, वही सच्चा विद्वान् है।
- किसी जगह पर विनोदी इंसान के आने से ऐसा लगता है जैसे दूसरा दीपक जला दिया गया हो।
- हम अपने बारे में जो दृढ़ चिंतन करते हैं, जिन विचारों में संलग्न रहते हैं क्रमश: वैसे ही बनते जाते हैं।
- हमारी शिक्षा तब तक अधूरी रहेगी जब तक उसमें धार्मिक विचारों का समावेश नहीं किया जाता।
- पर्वतों को उखाड़ने में यदि हाथी के दांत टूट भी जाएं, तो भी वे प्रशंसा के योग्य हैं।
- पुण्यवान लोग जिसको स्वीकृत कर लेते हैं, उसका पालन करते हैं।
- प्रिय वचन बोलने से सब प्राणी संतुष्ट हो जाते हैं, अत: प्रिय वचन ही बोलना चाहिए। वचन में दरिद्रता क्या?
- प्रत्येक पर्वत पर जिस तरह माणिक्य नहीं होते और जिस तरह चंदन हर जगह नहीं पाया जाता, सज्जन लोग भी सब जगह नहीं होते।
- पूरी तरह से समता आए बिना कोई भी सिद्ध योगी, सिद्ध भक्त या सिद्ध ज्ञानी नहीं समझा जा सकता।
- विश्राम करने का समय वही होता है, जब तुम्हारे पास उसके लिए समय न हो।
- व्यथा और वेदना की पाठशाला में जो पाठ सीखे जाते हैं, वे पुस्तकों तथा विश्वविद्यालयों में नहीं मिलते।
- विष पीकर शिव सुख से जागते हैं, जबकि लक्ष्मी का स्पर्श पाकर विष्णु निद्रा से मूर्च्छाग्रस्त हो जाते हैं।
- विपत्ति में ही लोगों की असल परीक्षा होती है, समृद्धि में नहीं।
- विपत्तियों में ही लोग अपनी शक्ति से परिचित होते हैं, समृद्धि में नहीं।
- विद्वानों की संगति से ज्ञान मिलता है, ज्ञान से विनय, विनय से लोगों का प्रेम और लोगों के प्रेम से क्या नहीं प्राप्त होता?
- विद्या मनुष्य की अतुल कीर्ति है। भाग्य का नाश होने के बावजूद यह मनुष्य का आश्रय बनी रहती है।
- विद्या के लिए मोमबत्ती की तरह पिघलना चाहिए।
- वही वास्तव में राजा है जो अनाथों का नाथ, निरुपायों का अवलंब, दुष्टों को दंड देनेवाला, डरों हुओं को अभय देनेवाला और सभी का उपकारक, मित्र, बंधु, स्वामी, आश्रयस्थल, श्रेष्ठ गुरु, पिता, माता तथा भाई है।
- दूसरों को दु:ख दिए बिना, दुष्टों की विनय किए बिना और सज्जनों के मार्ग का त्याग किए बिना अत्यल्प जो कुछ भी है, वही बहुत है।
- दूसरे का अप्रिय वचन सुन कर भी उत्तम व्यक्ति सदा प्रिय वाणी ही बोलता है।
- दूसरों के धन का अपहरण करना सबसे बड़ा पाप है।
- दुर्जन व्यक्ति बिना दूसरों की निंदा किए बिना प्रसन्न नहीं हो सकता।
- उड़ने की अपेक्षा जब हम झुकते हैं तब विवेक के अधिक निकट होते हैं।
- उद्धार वही कर सकते हैं जो उद्धार के अभिमान को हृदय में आने नहीं देते।
- उपकार मित्र होने का फल है तथा अपकार शत्रु होने का लक्षण।
- उपकार करने का साहसी स्वभाव होने के कारण गुणी लोग अपनी हानि की भी चिंता नहीं करते। दीपक की लौ अपना अंग जलाकर ही प्रकाश उत्पन्न करती है।
- उग्रता और मृदुता समय देखकर अपनानी चाहिए। अंधकार को मिटाए बिना ही सूर्य उग्र (अग्निवर्षा) नहीं हो जाता।
- उच्च और निम्न की योग्यता का विचार वस्त्र देख कर भी होता है। समुद्र ने विष्णु को पीताम्बरधारी देख कर अपनी कन्या दे दी तथा शिव को दिगम्बर देख कर विष दिया।
- गुण-रहित शरीर प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है। इसका एक ही महान् गुण है कि यह परोपकार का साधन है।
- गुण ही गुण को परखते हैं जैसे हीरे की परख जौहरी ही करते हैं।
- ग़लती ज्ञान की शिक्षा है। जब तुम ग़लती करो तो उसे बहुत देर तक मत देखो, उसके कारण को ले लो और आगे की ओर देखो। भूत बदला नहीं जा सकता। भविष्य अब भी तुम्हारे हाथ में है।
- गुणी ही गुण जानता है, निर्गुणी नहीं। बलवान ही बल जानता है, निर्बल नहीं। कोयल ही वसंत के गुण जानती है, कौआ नहीं।
- गुणी ही गुण जानता है, निर्गुणी नहीं। कोयल ही वसंत जानती है, कौवा नहीं।
- गुण से रूप की, सदाचार से कुल की और सफलता से विद्या की शोभा होती है।
- यदि दूसरों से अपने प्रतिकूल नहीं चाहते हो तो अपने मन को दूसरों के प्रतिकूल कामों से हटा लो।
- याद पंख है, जो प्राण के परिंदे को जीवन के उच्चतर आकाश में उड़ने का पुरुषार्थ देती है।
- यौवन, जीवन, मन, शरीर की छाया, धन और स्वामित्व, ये चंचल हैं। ये स्थिर होकर नहीं रहते।
- धर्म का उपदेश सुनने से कोई धर्मात्मा नहीं हो जाता, किंतु उपदेशानुसार व्यवहार करने से मनुष्य धर्मात्मा हो सकता है।
- धन की कमी होने पर कोमलता रहती है, पर उसके बढ़ते ही उसकी जगह कठोरता लेने लगती है।
- ईश्वर प्रत्येक मस्तिष्क को सच और झूठ में एक को चुनने का अवसर देता है।
- इच्छाओं के सामने आते ही सभी प्रतिज्ञाएं ताक पर धरी रह जाती हैं।
- शक्ति का उपयोग परोपकार मेें करना चाहिए। शत्रु को पीडि़त कर देना मात्र ही शक्ति का सदुपयोग नहीं है।
- शिष्टाचार का मूल सिद्धांत है दूसरे को अपने प्रेम और आदर का परिचय देना और किसी को असुविधा और कष्ट न पहुंचाना।
- शिक्षा केवल ज्ञान-दान नहीं करती, वह संस्कार और सुरुचि के अंकुरों का पालन भी करती है।
- बंईमानी से जमा की हुई संपत्ति ऐसे है जैसे मृग के लिए कस्तूरी।
- बिना अभ्यास के विद्या विष समान है।
- भोले बनने का नाटक न करो। तुम्हारे मन का मैल तुम्हारे चेहरे पर चमक रहा है।
- घाव पर बार-बार चोट लगती है, अन्न की कमी होने पर भूख बढ़ जाती है, विपत्ति में बैर बढ़ जाते हैं- विपत्तियों में अनर्थ बहुलता होती है।
- एक कृष्ण वसुदेव का बेटा, एक कृष्ण घट-घट में लेटा। एक कृष्ण जो सकल पसारा, एक कृष्ण जो सबसे न्यारा।।
- निर्माण सदैव बलिदानों पर टिकता है। और जब तक निर्माण के लिए बलिदान की खाद नहीं दी जाती तब तक विकास अंकुरित नहीं होता।
- चंदन घिसे जाने पर पुन: पुन: अधिक गंध छोड़ता है। गन्ना चूसने पर पुन: पुन: स्वादिष्ट रहता है। सोना जलाने पर पुन: पुन: सुंदर वर्ण ही रहता है। प्राणांत होने पर भी उत्तम व्यक्तियों का स्वभाव विकृत नहीं होता।
- तू ने स्वर्ग और नर्क नहीं देखा। समझ ले कि उद्यम स्वर्ग है और आलस्य नरक है।
- श्रेष्ठ पुरुषों के मनोरथों को पूर्ण करने में श्रेष्ठ पुरुष ही समर्थ होते हैं।
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