भारत की राजभाषा नीति -कृष्णकुमार श्रीवास्तव
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- लेखक- कृष्णकुमार श्रीवास्तव
किसी भी स्वाधीन सार्वभौम देश अथवा राष्ट्र का अपना एक व्यक्तित्व होता है। इसी व्यक्तित्व के आधार पर उसका विश्व समाज में स्थान होता है और उसकी भूमिका होती है। यही व्यक्तित्व देश के गौरव का भी आधार होता है। किसी भी देश का व्यक्तित्व उसकी संस्कृति, वेशभूषा, भाषा, कार्यकलाप अथवा आर्थिक विकास पर निर्भर होता है। हमारा देश एक विशाल देश है। इसके एक छोर से दूसरे छोर तक अनेक भिन्नताएँ हैं- संस्कृति में, वेशभूषा में, भाषा में तथा अन्य क्षेत्रों में। परंतु इन भिन्नताओं के होते हुए भी एक स्पष्ट एकता है, जिसके आधार पर हम विश्व समाज में अपना स्थान ग्रहण करते हैं। हमारा राष्ट्रीय व्यक्तित्व इसी एकता के आधार पर उभरता है और इसीलिए राष्ट्रीय व्यक्तित्व का विशेष महत्त्व है। इसी दृष्टिकोण से राष्ट्रीय स्तर पर एक अपनी भाषा की आवश्यकता है।
इस प्रसंग में भी हिन्दी को राजभाषा बनाए जाने के संबंध में भारत के विभिन्न राज्यों के मनीषियों द्वारा किये गए प्रयासों का उल्लेख करना चाहूँगा, क्योंकि इस बात का महत्त्व तब तक हृदयंगम नहीं किया जा सकता, जब तक इस दिशा में किए गए अनवरत परिश्रम, उद्योग और निष्ठा पर विचार न किया जाए। स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों से ही भारत के राष्ट्रीय नेताओं और कर्णधारों ने यह अनुभव कर लिया था कि स्वतंत्रता प्राप्ति का तब तक कोई महत्त्व नहीं होगा, जब तक देश की अपनी कोई भाषा राष्ट्रभाषा न हो। प्रश्न यह था कि इस विशाल देश में जहाँ अनेक समृद्ध और प्राचीन भाषाएँ प्रचलित हों, वहाँ किस भाषा को राष्ट्रभाषा या राजभाषा का दर्जा दिया जाये। ऊपर से यह समस्या भले ही जटिल मालूम होती हो, किंतु सारे भारतवर्ष को एक सूत्र में पिरोने की कामना करने वाले और भारतीय स्तर पर समस्याओं का समाधान खोजने वाले सभी राष्ट्र नेता, चाहे वे किसी भी प्रदेश अथवा क्षेत्र के रहे हों, हृदय से इस तथ्य को स्वीकार करते थे कि हिन्दी ही ऐसी भाषा है, जिसे देश की राष्ट्रभाषा अथवा राजभाषा का गौरव प्रदान किया जा सकता है। भारत में अनेक प्राचीन भाषाएँ हैं। हर एक अपने आप में बहुत समृद्ध और देश का गौरव है। परंतु हिन्दी एक ऐसी भाषा है, जिसका देश के अधिकांश भागों में प्रचलन है। हिन्दी भाषी क्षेत्र तथा इसके निकटवर्ती भागों में तो इसका प्रयोग आसानी से किया ही जाता है, पर इसके अतिरिक्त अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में भी यह भाषा आसानी से समझी और बोली जा सकती है। हिन्दी की इस व्यापकता और सरलता को देखते हुए सभी मनीषियों का ध्यान इसी की ओर आकृष्ट होता रहा और इसे राजभाषा बनाए जाने के लिए विचार व्यक्त किये जाते रहे।
इस सदी के दूसरे दशक में मराठी साहित्य परिषद ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित किया था और लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, डाक्टर भंडारकर, राय बहादुर चिंतामणि विधायक वैद्य आदि मराठी चिंतकों ने हिन्दी को प्रबल समर्थन प्रदान किया था। हिन्दी की व्यापकता तथा लोकप्रियता को देखते हुए महर्षि दयानंद सरस्वती ने 'सत्यार्थ प्रकाश' को हिन्दी में ही लिखा तथा अपने भाषण भी वे हिन्दी में ही दिया करते थे। हिन्दी के क्षेत्र में बापू का अंशदान तो सर्वविदित ही है। 'दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा' गांधी जी के हिन्दी प्रेम और विश्वास का जीवंत उदाहरण है। इसके गठन के लिए उन्होंने अपने पुत्र श्री देवदास गांधी को मद्रास भेजा था। बंगाल के मनीषियों ने हिन्दी के सर्वव्यापक तथा देशव्यापी स्वरूप को परखा और समझा था। राजा राममोहन राय ने 1826 में प्रकाशित 'बंगदूत' में हिन्दी को स्थान दिया था। इसी प्रकार आचार्य केशवचंद्र सेन, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, जस्टिस शारदाचरण मित्र, सर गुरुदास चटर्जी, श्री रमेश चंद्र दत्त आदि प्रमुख चिंतकों ने हिन्दी के सर्वव्यापी स्वरूप को पहचान कर उसकी हिमायत की थी।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने देश की स्वतंत्रता और उत्थान के लिए जहाँ अनेक रचनात्मक कार्यक्रम प्रारंभ किए वहीं उन्होंने हिन्दी के प्रचार-प्रसार और प्रयोग को भी अपने रचनात्मक कार्यक्रमों का अंग बनाया। इसके लिए उन्होंने तत्कालीन हिन्दी की संस्थाओं को सबल और सुदृढ़ बनाने का कार्य तो किया ही, दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा, मद्रास और राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा जैसी संस्थाओं की भी स्थापना कराई और इनके माध्यम से अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में व्यापक रूप से हिन्दी के प्रचार का अभियान चलाया। उन्होंने देश में अनेक हिन्दी प्रचारक तैयार किये और उन्हें यह मंत्र दिया कि वे राष्ट्र की एकता और समृद्धि के लिए हिन्दी के शिक्षण, प्रचार और प्रसार का कार्य देश सेवा का कार्य समझ कर करें।
हिन्दी के संबंध में अपने विचार व्यक्त करते हुए महात्मा जी ने कहा था-
'मैं अपने देश के बच्चों के लिए ज़रूरी नहीं समझता कि वे अपनी बुद्धि के विकास के लिए एक विदेशी भाषा का बोझ अपने सिर पर ढोएँ और अपनी उगती हुई शक्तियों का ह्रास होने दें।........
उन्होंने कहा-
दुनिया में और कहीं ऐसा नहीं होता। इसके कारण देश को जो नुकसान हुआ है, उसकी तो हम कल्पना तक नहीं कर सकते, क्योंकि हम खुद उस सर्वनाश से घिरे हुए हैं। मैं उसकी भयंकरता का अंदाजा लगा सकता हूँ, क्योंकि मैं निरंतर करोड़ों मूक, दलित और पीड़ित लोगों के संपर्क में आता रहता हूँ।
- गांधी जी ने यह भी कहा था-
'अगर हमारे देश का स्वराज्य अंग्रेज़ी बोलने वाले भारतीयों का और उन्हीं के लिए... है तो निस्संदेह अंग्रेज़ी ही राज्यभाषा हो ........ लेकिन अगर हमारे देश के करोड़ों भूखे मरने वालों, करोड़ों निरक्षर बहनों और दलित अंत्यजों का है और इन सबके लिए... है तो हमारे देश में हिन्दी ही एकमात्र राजभाषा है।'
बापू जी की धारणा थी कि किसी भाषा को राष्ट्रभाषा अथवा राजभाषा तभी बनाया जा सकता है, जब उसमें निम्नलिखित गुण विद्यमान हों-
1-उस भाषा को देश के अधिकांश निवासी बोलते हों।
2-वह भाषा राष्ट्र के लिए सरल हो।
3-वह भाषा क्षणिक या अल्प स्थायी हितों के ऊपर निर्भर न हो।
4-उस भाषा के द्वारा देश के परस्पर धार्मिक और आर्थिक व्यवहार निभ सकें।
5-वह भाषा राज्य कर्मचारियों के लिए सरल हो।
उनकी दृष्टि में उपर्युक्त पाँचों गुण हिन्दी में विद्यमान रहे हैं। अत: उन्होंने हिन्दी को देश की राष्ट्रभाषा बनाए जाने का सतत प्रयास किया। वास्तव में स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में हिन्दी बोलना और हिन्दी का प्रयोग करना एक गौरव और प्रतिष्ठा की बात समझी जाती थी और यह राष्ट्रीय एकता की प्रतीक थी।
महात्मा गांधी तथा अन्य मनीषियों ने विदेशी भाषा के स्थान पर भारतीय भाषा की जो संकल्पना की थी वह संविधान निर्माताओं के मन को सदैव आंदोलित करती रही। संविधान सभा में इस विषय पर बहसें हुई और अंत में 14 सितम्बर, 1949 को यह फैसला हुआ कि राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी को ही राजभाषा बनाया जाए और यह भी व्यवस्था की गई कि राज्यों की विधान सभाएँ अपने-अपने राज्य की एक या अधिक क्षेत्रीय भाषाओं को अथवा हिन्दी को अपनी राजभाषा बना सकती हैं। किंतु संविधान निर्माताओं ने उन लोगों की कठिनाइयों को दृष्टि में रखते हुए, जिन्हें पहले से हिन्दी का अच्छा ज्ञान नहीं था, यह भी व्यवस्था की कि संविधान के लागू होने के बाद 15 वर्षों की अवधि तक अंग्रेज़ी का प्रयोग होता रहेगा, ताकि इस बीच हिन्दी को प्रशासनिक कार्य के लिए पूरी तरह सक्षम बनाया जा सके और धीरे-धीरे इसका प्रयोग बढ़ाया जा सके।
राष्ट्रपति जी के विभिन्न आदेशों के अनुसार हिन्दी का प्रयोग विभिन्न क्षेत्रों में धीरे-धीरे बढ़ने लगा। राष्ट्रपति जी ने 1956 में एक राजभाषा आयोग का गठन भी किया, जो राजभाषा के प्रगामी प्रयोग के विषय में सिफारिश कर सके। 30 सदस्यों की एक संसदीय समिति ने आयोग की सिफारिशों पर विचार किया और राष्ट्रपति के समक्ष अपनी राय प्रस्तुत की। इसके आधार पर राष्ट्रपति जी ने अप्रैल 1960 में हिन्दी के विकास तथा प्रगामी प्रयोग के लिए विस्तृत निदेश जारी किए। उसके बाद सघन रूप से राजभाषा के विषय में कार्रवाई बढ़ी। तब से प्रशासनिक, वैज्ञानिक, तकनीकि विषयों की लगभग 4 लाख हिन्दी शब्दावली तैयार की गई हैं। इसके अतिरिक्त 35 हज़ार शब्दों के भी हिन्दी पर्याय तैयार किये गए हैं। विभिन्न मंत्रालयों ने तथा उपक्रमों ने भी अपनी-अपनी विशेष शब्दावली बनाई है। अनुवाद का भी कार्य तेजी से शुरू हुआ। परिणामस्वरूप अब हिन्दी में पर्याप्त मात्रा में कार्य विधि साहित्य सुलभ हो गया है, जिसमें मैनुअल, संविदा तथा फ़ार्म आदि शामिल हैं। हिन्दी भाषा में जिनको ज्ञान नहीं था, उनको भी प्रशिक्षित करने का क्रम प्रारंभ किया गया। अब तक साढ़े चार लाख अहिन्दी भाषी कर्मचारियों ने हिन्दी की विभिन्न परीक्षाएँ पास की हैं। केंद्रीय सरकार के लगभग 50 मंत्रालयों और विभागों में 80 प्रतिशत से अधिक कर्मचारियों को हिन्दी का कार्य साधक ज्ञान प्राप्त हो गया है। इनमें से बहुत से अपने सरकारी कामकाज में हिन्दी का प्रयोग करने लगे हैं। इसी प्रकार आशु लिपिकों और टाइपिस्टों को भी हिन्दी में काम का प्रशिक्षण दिया गया और लगभग 35 हज़ार कर्मचारियों ने हिन्दी आशुलिपि एवं हिन्दी टाइपिंग की परीक्षाएँ पास कर ली हैं। इसके अलावा बहुत से ऐसे लोग भी हैं, जो पहले ही से इस कला को जानते हैं। ये लोग भी हिन्दी में काम कर रहे हैं। इस प्रकार केंद्रीय सरकार के कार्यालयों में हिन्दी का प्रयोग करने के लिए आवश्यक आधार भूमि तैयार हो गई है और हिन्दी का प्रयोग भी उत्तरोत्तर किया जा रहा है।
संविधान में यह भी व्यवस्था की गई थी कि संसद यदि चाहे तो अधिनियम बनाकर 1965 के बाद भी अंग्रेज़ी के प्रयोग की व्यवस्था कर सकती है। तदनुसार संसद ने 1963 में राजभाषा अधिनियम पारित किया, जिसके अनुसार संसद तथा संघ सरकार के सभी कामों के लिए हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेज़ी के भी चलते रहने की व्यवस्था की गई है। बाद में इस अधिनियम में कुछ और भी संशोधन किए गए और सरकार ने नियमावली भी बनाई। उनके अनुसार केंद्र के कुछ कार्यों में द्विभाषिकता की स्थिति शुरू हुई। यह ज़रूरी हो गया कि केंद्रीय कार्यालयों के कुछ प्रमुख दस्तावेज़ जैसे संकल्प, सामान्य आदेश, नियम, अधिसूचना, प्रेस विज्ञप्तियाँ, प्रशासनिक रिपोर्ट, करार, टेंडर आदि को हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों में जारी किया जाए। कई और कामों में भी द्विभाषिकता अनिवार्य हो गई। केंद्र तथा हिन्दी भाषी राज्यों के बीच परस्पर हिन्दी में ही पत्र व्यवहार करने की व्यवस्था की गई है तथा जिन राज्यों ने हिन्दी को अपनी राजभाषा के रूप में नहीं अपनाया है, उनके साथ अंग्रेज़ी में पत्र व्यवहार करने की भी व्यवस्था की गई है।
मेरे विचार से यह स्थिति जहाँ एक ओर गंभीर चुनौती है, वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय स्तर पर राजभाषा के सभी प्रेमियों को हिन्दी की सेवा के लिए पर्याप्त अवसर प्रदान करती है। क्योंकि एक तरफ़ तो अंग्रेज़ी के अनिश्चित काल तक चलते रहने की व्यवस्था है तो दूसरी ओर अनेक कामों के लिए हिन्दी का प्रयोग अनिवार्य कर दिया गया है तथा इसके प्रगामी प्रयोग की व्यवस्था है। फिर भी यह समझना भूल है कि केवल क़ानून द्वारा हिन्दी को राजभाषा घोषित कर देने से हिन्दी वास्तविक रूप से राजभाषा बन गई है और हमें अब और कुछ नहीं करना है। यह दूसरी भ्राँति होगी यदि हम समझते रहें कि इस संबंध में सभी उत्तरदायित्व केवल सरकार पर ही हैं। इसमें से प्रत्येक नागरिक को ऐसे उपाय करने हैं, जिससे अंग्रेज़ी अनिश्चित काल तक हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के मार्ग में अवरोध बनकर न रहने पाए। साथ ही हम सभी को दृढ़ संकल्प होकर समर्पण की भावना से हिन्दी के व्यापक प्रचार-प्रसार के कार्य में जुट जाना चाहिए।
भाषा सरकार और जनता के बीच एक महत्त्वपूर्ण कड़ी होती है। सरकार की नीतियों को जनता तक पहुँचाने का यह एकमात्र माध्यम है और इन नीतियों को निष्ठापूर्वक प्रतिबिंबित करना ही उसका विशिष्ट दायित्व है। देश में गणतंत्र की जड़ें जितनी गहरी होती जा रही हैं, उतना ही प्रशासन साधारण जनता के निकट होता जा रहा है। अत: साधारण जनता में प्रशासन के प्रति आस्था उत्पन्न करने के लिए यह आवश्यक है कि प्रशासन का सारा कामकाज जनता की भाषा में हो, जिससे प्रशासन और जनता के बीच की खाई को प्रभावी ढंग से पाटा जा सके।
इस दृष्टि से राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी तथा क्षेत्रीय स्तर पर हिन्दी अथवा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं का विशेष महत्त्व और उनकी भूमिका है। जहाँ तक केंद्र का संबंध है, इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रतिवर्ष वार्षिक कार्यक्रम बनाकर उसके माध्यम से केंद्र के कार्यालयों में राजभाषा हिन्दी का प्रयोग बढ़ाने के लिए प्रयास किये जा रहे हैं। जनता के अधिक संपर्क में आने वाले 27 मंत्रालयों में हिन्दी सलाहकार समितियाँ बनाई गई हैं, जिनके अध्यक्ष मंत्रीगण होते हैं। इनमें संसद सदस्य, हिन्दी के विशिष्ट विद्वान् तथा मंत्रालय के वरिष्ठतम अधिकारी शामिल होते हैं। यांत्रिक साधनों द्वारा भी हिन्दी का प्रयोग बढ़ाने के प्रबंध किए जा रहे हैं। देवनागरी के सामान्य टाइप राइटरों के उत्पादन में तो वृद्धि हो ही रही है, साथ ही इलैक्ट्रोनिक तथा इलैक्ट्रोनिक टाइपराइटरों, टेलीप्रिंटरों, कम्प्यूटरों आदि के उत्पादन पर भी जोर दिया जा रहा है। इन सभी व्यवस्थाओं के परिणामस्वरूप सरकारी कार्यालयों में हिन्दी के प्रयोग में काफ़ी वृद्धि हुई है।
यह प्रसन्नता की बात है कि विभिन्न मंत्रालयों और इसके कार्यालयों के अतिरिक्त सरकारी निगमों, निकायों तथा प्रतिष्ठानों आदि में हिन्दी का प्रयोग धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है। जनता से संपर्क रखने वाले, रेलवे, डाक-तार, रेडियो, दूरदर्शन, रक्षा जैसे बड़े-बड़े सरकारी विभागों एवं बैंकों तथा सरकारी उपक्रमों ने हिन्दी में कार्य करने में रुचि लेना प्रारंभ कर दिया है। इस संबंध में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा; नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी; दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा, मद्रास; हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग; केंद्रीय सचिवालय हिन्दी परिषद, नई दिल्ली एवं देश भर में फैली इसकी विभिन्न शाखाओं ने तथा ऐसी ही अन्य स्वैच्छिक संस्थाओं का प्रयास प्रशंसनीय है।
एक बात ध्यान देने योग्य है। प्रशासन के कामकाज में हिन्दी का प्रयोग प्रेम, प्रोत्साहन तथा प्रेरणा के आधार पर किया जाना चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अहिन्दी भाषी क्षेत्रों के अधिकांश लोगों की शिक्षा अपनी मातृभाषा अथवा अंग्रेज़ी के माध्यम से हुई है। अत: इस संबंध में किसी प्रकार का दबाव स्वयं हिन्दी के लिए अहितकर सिद्ध हो सकता है।
यह बात भी महत्त्व की है कि शासकीय कामकाज में प्रयुक्त हिन्दी सरल और समृद्ध होनी चाहिए। सरकारी परिपत्र, चिट्ठियों, टिप्पणी आदि की भाषा ऐसी होनी चाहिए, जिसे साधारण हिन्दी जानने वाला व्यक्ति भी सरलता से समझ सके। अंग्रेज़ी तथा विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं के बहुप्रचलित शब्दों का प्रयोग करने से कतराना नहीं चाहिए, क्योंकि इससे न केवल हिन्दी भाषा समृद्ध होगी, अपितु वह अन्य प्रादेशिक भाषाओं के अधिकाधिक समीप हो सकेगी, जो भावात्मक एकता की पुष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
समग्रता से देखा जाए तो यह कार्य बहुत बड़ा है और 36 वर्षों की आज़ादी के बाद भी हमारा लक्ष्य काफ़ी दूर है। परंतु निष्ठा, प्रेम व सदभावना के साथ आगे बढ़ने पर सफलता अवश्य मिलेगी। इसी में राष्ट्र का गौरव, सम्मान और व्यक्तित्व निहित है।
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