हिन्दी का विकासशील स्वरूप -डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित
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- लेखक- डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित
विकासशीलता भाषा का प्रकृत गुण हैण् उसकी जीवंतता का लक्षण है। जीवन के नानाविष व्यापारों की अभिव्यक्ति के लिए व्यवहृत होने वाली वह प्रत्येक भाषा जो अपना संसर्ग दूसरी भाषाओं से बनाए रखती है और ज्ञान के नित नूतन संदर्भों से जुड़ती रहती है, अपनी जीवंतता बनाए रखती है और विकसित होती रहती है। दूसरे शब्दों में, व्यवहारधर्मिता और गतिमयता भाषा की विकासशीलता को सूचित करने वाली दो प्रमुख विशेषताएं है।
पदार्थ अथवा विकास की दो गतियां अथवा दिशाएं हैं:
- प्रौढ़ अथवा शसक्त होते जाना और
- प्रकृति द्वारा निर्धारित ऊँचाई तक बढ़ना। चूंकि मनुष्य बुद्धि सम्पन्न चेतन प्राणी है, उसकी प्रौढ़ता और विकास का पता उसके बुद्धि कौशल, विवेक, चितन, आचार व्यवहार और उसकी सभ्यता से लगता है और दूसरी ओर उसके अंगों की माप से उसके शारीरिक विकास का निश्चय होता है। दोनों का समुचित विकास ही सच्चा व्यक्तित्व निर्माता है।
भाषा का विकास भी इसी प्रकार की दो दिशाओं में होता है। एक ओर वह प्रौढ़ होती चलती है और दूसरी ओर उसका प्रसार होता जाता है। पहली स्थिति उसकी अर्थगर्भिता की सूचक है और दूसरी उसकी व्यापक स्वीकृति की। पहली से यदि उसके अंतरंग विकास का द्योतन होता है तो दूसरी से बहिरंग का। दोनों के सम्मिलन से भाषा समृद्ध और विशेष प्रभावशालिनी बनती है।
हिन्दी के विकासशील होने का अर्थ भी यही है कि वह एक ओर अपने अंतरंग का विकास करती चले और दूसरी ओर व्यापक स्वीकृति पाती जाए। यों सामान्यतः यह आशा किसी भी भाषा से की जानी चाहिए, किंतु हिन्दी पर इसका विशेष दायित्व इसलिए है कि भारतीय संविधान के अनुसार उसे संघ की राजभाषा और विभिन्न प्रदेशों के बीच सम्पर्क भाषा की भूमिका भी निभानी है। स्वाभाविक है कि ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठे कि हिन्दी किन दिशाओं में और कितनी विकसित है या कि उससे विकास के लिए क्या अपेक्षाएं हो सकती हैं। हिन्दी इन अपेक्षाओं को कहां तक पूरा कर पा रही है, या उसके लिए कौन से साधक या बाधक तत्व हैं और उनसे कैसे निपटा जाए।
भाषा के विकास की जिन दो स्थितियों की ऊपर चर्चा की गई है, उन्हें हम क्रमशः गुणात्मक विकास तथा संख्यात्मक विकास भी कह सकते हैं। निसंदेह संख्यात्मक विकास भी किसी भाषा के इतिहास में, उसके अधिकार का निश्चायक होता है, किंतु उसकी स्थिति एक ऐसे उपकारक तत्व की सी है जिसकी सत्ता किसी दूसरे तत्व की तुलना में गौण महत्व की होती है। भाषा के संदर्भ में गुणात्मक ही प्रधान रूप से महत्वपूर्ण है। इसके बिना कोई भाषा अधिकारिक प्रयोक्ताओं को सहयोग प्राप्त नहीं कर सकती। हिन्दी के पक्ष में संख्यात्मकता का बड़ा बल रहा है, और आज भी वह है, किंतु न तो सदैव उसी को एकमात्र आधार मानकर उस पर निर्भर रहा जा सकता है और न इसे भुलाया जा सकता है कि उसके संख्यात्मक विकास में पहले भी उसका गुणात्मक विकास ही कारण था। आज की स्थिति में उस दिशा में उसका विकास और भी अधिक वांछित है।
गुणात्क विकास की दो विशेषताएं हो सकती हैं,
- ललित साहित्य के रूप में उसकी प्रौढ़ता का विकास और
- ज्ञानात्मक साहित्य की रचना और उसकी अभिव्यक्ति की क्षमता का विकास।
आज जिस संदर्भ में हिन्दी का विचार किया जा रहा है, उसमें ललित साहित्य के रूप में उसकी प्रौढ़ता का दर्शन उतना महत्वपूर्ण नहीं है। यह बात इस संदर्भ में बहुत प्रासंगिक नहीं है कि हिन्दी राष्ट्र की इस या उस भाषा की तुलना में कम सशक्त और प्रौढ़ है। राष्ट्र के सामने जो चुनौती है वह ललित साहित्य को लेकर नहीं है, व्यावहारिक धरातल पर भाषिक संपर्क और उसके माध्यम से पारस्परिक सहयोग की भूमि तैयार करने की है।
ललित साहित्य हो अथवा ज्ञानात्मक, दोनों ही संदर्भों में, किसी भाषा को दो स्तरों पर विकसित होना ओर अपनी क्षमता का परिचय देना पड़ता है। एक के अंतर्गत साहित्य की नाना प्रकार की विधाएं रखी जा सकती हैं और देखा जा सकता है कि उसमें अधिकाधिक कितनी विधाओं में रचना हो रही है, दूसरा है विशेष विधाओं के लिए उपयुक्त भाषा और शब्दावली का विधान। हिन्दी के विकास के प्रसंग में भी इन दोनों बातों का समान महत्व है।
मनुष्य की बुद्धि ने जीवन और जगत के रहस्य को जानने और और उसकी अंतर्निहित शक्तियों का उपयोग करने का सदियों पहले से जो उपक्रम किया है उसके परिणाम स्वरूप अनेकविष ज्ञान शाखाओं के द्वार उन्मुक्त हुए हैं। दर्शन, गणित, ज्योतिष आयुर्वेद, कला शिल्प तथा खगोल विद्या आदि अनेक विद्या शाखाओं तक मनुष्य की पहुंच बहुत पहले ही हो चुकी थी। कालापसरण के साथ ज्यों ज्यों मनुष्य के रागात्मक संबंध बनते बिगड़ते गये उसके जीवन की संकुलता बढ़ती गई और प्रकृति तथा मानव जीवन को लेकर स्वयं मनुष्य नए रहस्यों में उलझता और नए आविष्कार करता चला गया। यंत्र युग ने मनुष्य की अनेक पुरानी अवधारणाओं को बदला और उनकी जगह नई विधाओं तथा नई तकनीक ने ले ली। परिणामतः न केवल अनेक नई शाखाओं का विकास हुआ, या किसी एक विद्याशाखा के अन्तर्गत गृहीत विचारों में से कुछ स्वतुत्र विद्या शाखा के रूप में अधिकाधिक बढ़ता गया। तात्पर्य यह है कि आज ज्ञान के अनंत विस्तार को वाणी देने का काम सरल नहीं रह गया है। आज की विकासशील भाषा को इन सबको समेटते चलना है। पूछा जा सकता है कि क्या हिन्दी ऐसा कर पाई है?
आश्चर्यजनक नहीं होगा, यदि इस प्रश्न का उत्तर हिन्दी के पक्ष से नकारात्मक रूप में दिया जाये। जिस भाषा को सदियों विदेशी भाषाओं के शासन ने दबोच कर रखा और शिक्षा तथा कार्य व्यवहार मे माध्यम के रूप में उभरने नहीं दिया है, उससे यह आशा की ही कैसे जा सकती है? यांत्रिक युग का यह एक बड़ा दूषण है कि मनुष्य पूंजी और व्यवसायिकता की दृष्टि से अपने कार्य कलाप को नियमित या नियंत्रित करता है। अतएव आधुनिक युग में जब यांत्रिकता के कारण यह संभव था कि हिन्दी का विकास हो तब भी शिक्षा तथा कार्य व्यवहार में माध्यम के रूप में उस स्थान न मिलने के कारण व्यवसायिक जगत में उसकी अर्थोपयोगिता सिद्ध नहीं हो पाई और इसलिए वांछित दिशाओं में बढ़ने का अवसर नहीं मिला। स्वतंत्रता पाने के बाद कुल 35 वर्षाें के काल में जिन विषयों से वह शिक्षण माध्यम से जुड़ी उनमें उसका पर्याप्त विकस हुआ है। ‘पर्याप्त’ से तात्पर्य यह है कि स्नातक कक्षाओं तक विषय को समझने समझाने के लिए समाजशास्त्रीय और कुछ वैज्ञानिक विषयों में भी पुस्तकें अब उपलब्ध हैं और हिन्दी माध्यम से कला, वाणिज्य और विज्ञान में शिक्षा दी जा सकती है। दी जा रही है, यह कहना अधिक ठीक होगा। यह शिक्षा मात्र हिन्दी प्रवेश तक सीमित हो ऐसा नहीं है। आंध्र प्रदेश में उसकी राजधानी हैदराबाद नगर में तीनों संकायों का हिन्दी माध्यम महाविद्यालय वर्षाें से सफलतापूर्वक चल रहा है। फिर भी यह स्वीकार कर लेने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि इन विषयों में भी हिन्दी अभी पूर्णतयः स्वाबलंबिनी नहीं बन सकी है। साथ ही तकनीकि और विधि या आयुर्विज्ञान जैसे क्षेत्र प्रायः अछूते पड़े हैं।
इस स्थिति के प्रति असंतोष व्यक्त करते समय यदि इस बात को ध्यान में रखा जाए कि एक तो जिन विषयों में अंग्रेज़ी तथा दूसरी विदेशी भाषाओें में विपुल साहित्य प्रकाशित हो चुका है, जिनमें नित नूतन आविष्कार और परिष्करण हो रहा है, जिनमें प्रचार प्रसार के लिए पत्र पत्रिकाओं की अच्छी सुविधा उपलब्ध है और जिन विषयों की अभिव्यक्ति की एक बंधी सधी सिद्ध भाषा न केवल बन चुकी है, बल्कि उन विषयों में शिक्षित प्रयोक्ता जिनका अभ्यस्त बन चुका है और विदेशी भाषा का अभ्यास करते करते जिसे अपनी भाषा पर अधिकार नहीं रह गया है और इसलिए यह अनजानी और अटपटी लगने लगी है, उनके विषय में यह आशा करना कि तीस पैंतीस वर्ष के अन्तराल में किसी भाषा में उनकी नींव भी पड़ जायेगी और स्रोत भाषा जैसा समृद्ध साहित्य भी तैयार हो जायेगा, दुराशा मात्र ही होगा। अनुवाद का ही सहारा लिया जाए तो भी वैसा होना संभव नहीं है। भारत जैसे विशाल देश में जहां बहुसंख्यक प्रादेशिक भाषाओं को भी विकसित होना है और जिसे तकनीकी, औद्योगिक, और वैज्ञानिक विकास में यंत्र-युग की एक नई शक्ति बनने का चाव हैै। जहाँ दरिद्रता और अशिक्षता के दबाव में एक तो यों ही मनुष्य अनुपयोग या अपव्यय हो रहा हो और दूसरे अन्य सारे विकास की तुलना में शिक्षा का विकास एक गौण विषय बन गया हो, इस प्रकार के विकास में त्वरित सिद्धि की संभावना कम ही है। ऐसी स्थिति में संपूर्ण साहित्य को अपने में समेट कर चलने की अपेक्षा उचित यह होगा कि लक्ष्य भाषा की ऐसी आधारभूत सामग्री तैयार की जाए जिससे उसमें वांछित विषय की अभिव्यक्ति सुकर हो सके और आगे के लिए मौलिक चिंतन और लेखन की नींव पड़ सके। तैयारी इस बात की करनी है कि अब से अपनी बात अपने देश की भाषा में कहनी है इस बात की नही कि सबसे नाता तोड़ कर अपने आप मे सिमट और सिकुड़ जाना है। अपने से अधिक सम्पन्न, समृद्ध और विकसित देशों की होड़ में खड़े होने के लिए न केवल यंत्रों की उपलब्धि काफ़ी है, बल्कि उस साहित्य की जानकारी भी ज़रूरी है जिसमें उनकी उपयोगिता और संभावनाएँ भी वर्णित हैं। स्पष्ट है कि ऐसी अवस्था में स्रोत भाषा से जी नहीं चुराया जा सकता। आज का युग अंतराबलंबन का है और विकसित देशों में भी अपनी समृद्ध भाषा में लिखे गये साहित्य के अतिरिक्त इतर देशीय भाषाओं में लिखित साहित्य से लाभ उठाया जाता है। फिर यह समझना कि हिन्दी में अपना कार्यव्यवहार आरंभ कर देने पर उसे छोड़ कर कोई दूसरी भाषा सामने रह ही नहीं जायेगी बड़ी भारी भूल है। हिन्दी के प्रतिष्ठित हो जाने पर भी उससे उससे अधिक समृद्ध और विकसित भाषा या भाषाओं का उपयोग बना रहेगा और विचारों के आदान प्रदान के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसकी आवश्यकता भी बनी रह सकती हैै, किंतु उस स्थिति में आज की तरह हमारा सारा बल उस विदेशी भाषा को उसकी सारी सूक्ष्मताओं में पकड़ने और उसका हर दृष्टि से अधिकारी बनने पर नहीं होगा, बल्कि परकीय और दूसरी भाषा की तरह उसे जानने और उससे सार ग्रहण कर लेने पर होगा। हिन्दी को इसी धर्म में विकासशील बने रहना है, सर्वथा किसी द्वार को चंद करके अपना अधिराज कायम कर लेना उसका अभीष्ट नहीं है, क्योंकि वैसा करने से स्वयं उसके विकास को ठेस पहुंचती है।
विधागत विशेष ज्ञान के प्रस्तुतीकरण के साथ साथ हिन्दी को अंतर्देशीय व्यवहार की भाषा के रूप में भी पनपना और विकसित होना है। यहां भी उसका संबंध विभिन्न विषयों से रहेगा, किन्तु विधा या विषय की गहन सूक्ष्म विवेचवना को अभिव्यक्ति देने की अपेक्षा यहां पारस्परिक व्यवहार के अपने तकाजे होते हैं। भाषा के संदर्भ में ये तकाजे उसकी रूप रचना से संबंध रखते हैं। रूप रचना से हमारा तात्पर्य भाषा की शब्द सम्पत्ति, परिभाषिक शब्दावली का गठन, अभिव्यक्ति की सरलता या बोधगम्यता, पथ्यपरकता, लाघव और विषय सम्बद्धता से है। व्यावहारिक धरातल पर विकसित होने वाली किसी भी भाषा को इन या ऐसे ही अनेक तत्वों को अपने में समाहित करना पड़ता है। ध्यान रखना चाहिए कि व्यावहारिकता का अर्थ भाषा में कोई अंतर्विरोध है। इस प्रकार की स्वतंत्रता बोली रूप की सीमा से आगे नहीं बढ़ती। अपएव व्यवहार दृष्टि से किसी भाषा की तैयारी का अर्थ है उसके मानक रूप का सर्व सुलभ और सहज बोधगम्य रूप में तैयार होना। इसी संदर्भ में हिन्दी की स्थिति भी विचारणीय है।
व्यवहार्य भाषा के रूप में हिन्दी की सिद्धता का सबसे पहला आधार उसकी शब्दावली और शब्द संपति ही हो सकता है। यहां हमारा सामना 4 मुख्य प्रश्नों से होता है।
- क्या हिन्दी के पास सब प्रकार की अभिव्यक्ति के लिए शब्दावली है?
- क्या वह शब्दावली इतनी व्यापक है कि जिना भाषाभाषियों के बीच उसे श्यवहुत होना है उन्हें भी उसमें कुछ परिचित सा लगे और यथाप्रसंग अपनी भाषा के शब्दों को उसमें प्रयुक्त देखकर वे न केवल इस बात का आत्मतोषलाभ कर सकें कि उनका सहयोग भी उस भाषा को प्राप्त है, बल्कि यह भी अनुभव करें कि उसका प्रयोग उनके लिए एकदम सहज न भी हो तो भी वह कठिन नहीं है।
- क्या उसमें नए नए शब्दों की रचना की क्षमता है और
- क्या उसमें विविध ज्ञानशाखाओं के लिए परिभाषिक शब्दावली है? प्रश्न और भी हो सकते हैं।
इन प्रश्नों पर क्रमशः विचार करें। जहां तक सब प्रकार की अभिव्यक्ति का प्रश्न है, मोटे तौर पर किसी भी भाषा से यह अपेक्षा की जा सकती है कि उसमें सूक्ष्म, जटिल और गहन भावों और विचारों को अभिव्यक्त करने और उन्हे सुबोध बनाने के लिए अनुकूल शब्दावली हो, साथ ही उसमें उक्त लाघव भी हो। यों तो विद्वानों की राय में सभी भाषाएं विकसित होती रहती हैं, आवश्यकता अनुसार उनमें नए शब्दों का आदान या उनकी रचना में रूपांतरण होता रहता है। किेंतु विकासशील भाषाओं की यह समस्या कुछ अधिक गम्भीर होती है। जिस व्यवहार से होकर वे गुजरी हीं नही उसकी भरपूर अभिव्यक्ति की शक्ति भी उनमें नहीं हो सकती। फिर यदि उन भाषाओं को केवल शाब्दिक अनुवाद की भाषा का रूप दे दिया जाये तो वे न केवल अप्रकृत हो उठेंगीं, अपितु उनकी सहज संभावनाएं भी कुंठित हो जांएगी। आरंभिक संक्रमण कालीन स्थिति में उसका उपयोग इसी शाब्दिक ज़रूरी नहीं है। हिन्दी का यह दुर्भाग्य रहा है कि प्रशासनिक व्यवहार में उसका उपयोग इसी शाब्दिक अनुवाद के लिए किया गया है अपने प्रकृत स्वभाव को छोड़कर अंग्रेजी वाक्य विन्यास और शब्दावली के पीछे मक्खीमार रूप में भटकने के कारण उसका एक ऐसा कृत्रिम रूप उभरा है, जो सर्वजनबोध्य होना तो दूर स्वयं हिन्दी भाषियों के लिए भी दुर्बोध और कष्ट साध्य जान पड़ता है। उससे एक प्रकार की निरर्थक जटिलता उत्पन्न हुई है। यह निश्चय ही उसके विकासशीलता के लिए धातक है। साहित्यिक भाषा के रूप में हिन्दी ने सूक्ष्म, जटिल और गहन भावों की अभिव्यक्ति की पर्याप्त क्षमता अर्जित की है और उसका उपयोग व्यवहार भाषा के धरातल पर भी किया जा सकता है, किंतु यदि नए चिंतन, नए आविष्कार और नए अभिव्यक्ति कौशल के कारण वह कहीं कहीं अंग्रेजी की समकक्षता में नहीं खड़ी हो पाती, तो उसका अर्थ यह नहीं है कि उसकी संभावनाओं को भी अनदेखा कर दिया जाये। उसकी प्रकृति की रक्षा करते हुए उसके विकास और संवर्द्धन के दूसरे उपायों का सहारा लेना चाहिए।
दूसरे प्रश्न का उत्तर इन्हीं दो उपायों में समाहित है। भाषा भावों विचारों की वाहिका होती है। किंतु कोई भी भाषा संपूर्णतया आत्मनिर्भर नहीं होती। उसकी क्षमता ग्रहण से बढ़ती है। उसी से उसमें व्यापकता आती है। हिन्दी को अपनी क्षमता बढ़ाने और उक्त प्रकार की अभिव्यक्ति का लक्ष्य भेद करने के लिए इसी ग्रहण उपाय से काम लेना होगा। भाषा का व्यापार विचित्र प्रकार का होता है। वह दूसरों की ऋणी होकर ही धनी होती है और उदार कहलाती है। हिन्दी को जिन भाषाओं के सहचर्य में बढ़ना और बड़ा होना है, उनसे शब्द ग्रहण करना उसके हित में है। इन हितकारियों में सबसे ऊँचा स्थान अपने देश की सहचरी भाषाओं का होना चाहिए, उसके बाद अंग्रेजी का। तात्पर्य यह है कि जहां तक किसी अभिव्यक्ति के लिए अपने देश की भाषा मे शब्द मिल सकते हैं, उन्हें स्वीकार करते चलना चाहिए। कारण यह कि उससे परस्पर बंधुता बढ़ती है, पारस्परिक संवाद की भूमि तैयार होती है और हिन्दी में उन शब्दों की नई रचना की संभावनाएं बनी रहती है। लेकिन अंग्रेज़ी से शब्द ग्रहण करने और अपने देश की भाषाओं से शब्द ग्रहण करने में अभी इस बात का अंतर बना रहेगा कि चूंकि अंग्रेज़ी इस देश में भी शिक्षितों के बीच सार्वजनिक भाषा बनाकर रही है और अपने देश की भाषाओं के बीच इस प्रकार का संपर्क बहुत ही क्षीण रहा है, अतएव अंग्रेज़ी शब्दों को जितनी शीघ्रता से व्यापक स्वीकृति मिल सकती है उतनी शीघ्रता से वैसा एकमत्य प्रादेशिक भाषाओं के संबंध में, कम से कम आरंभ में, संभव न होगा। दूसरी अंग्रेज़ी शब्द सीधे हिन्दी में किए जा सकते है, किंतु भारतीय भाषाओं के बीच हुई आपसी दूरी के कारण यह काम सीधे हिन्दी भाषियों द्वारा नहीं किया जा सकता है। इसके लिए इन दूसरी भाषाओं को अपनी ओर से प्रदाता की भूमिका अपनानी पड़ेगी और यह तभी संभव है जब हिन्दीतर भाषाभाषियों द्वारा हिन्दी का व्यवहार हो। वे ही आवश्यकता होने पर अपनी भाषा के शब्दों को हिन्दी की बुनावट मेें ढाल सकेगें। यह काम और तीव्र गति से संभव हुआ होता यदि हिन्दी प्रदेशों में त्रिभाषा सूत्र को अपनाकर इतर भाषाओं को आत्मसात कर लिया होता।
फिर भी यह ध्यान रखना होगा कि शब्द ग्रहण अनियंत्रित गति से नहीं होता। यह नहीं है कि मनमाने ढंग से चाहे जिस शब्द को प्रयुक्त कर दिया जाए। जिन शब्दों में जितनी ही अधिक अर्थव्यंजकता, संक्षिप्तता, उच्चारण सुकरता और सुखद नादमयता होगी वे उतने ही अधिक शीघ्रता से ग्रहण किये जा सकते हैं। किंतु एक तो इस प्रकार का ग्रहण तब तक नहीं होता जब तक कि मूल भाषा में योग्य शब्द मिलते रहते हैं; दूसरे जब कभी ग्रहण के प्रति खिन्नता बरती जाती है तो वह ऐसे स्थलों पर जहां दूसरी भाषा केवल व्यापक बनने के नाम पर किसी दूसरी भाषा के इतने अधिक शब्द नहीं ले सकती कि वह उनसे शक्ति पाते पाते स्वयं दुर्बल और अक्षम प्रमाणित होन लगे। हमारे अंग्रेजी जब-जब बात बात में अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करते हैं और क्रिया, सर्वनाम या अव्यय को छोड़कर जब पूरा वाक्य अंग्रेजी के शब्दों से लद जाता है तो वह हिन्दी का गौरव नहीं बढ़ाता न उसे विशेष अर्थमय बनाता है, बल्कि इसके विपरीत या तो उसकी या उसके प्रयोक्ता की अक्षमता की प्रमाणित करता है और दोनों को उपहास का विषय बनाता है। अतएव आदान की भी एक सीमा है और मूल भषाओं की सम्भावनाओं की खत्म करके वैसा नहीं किया जा सकता। आदान प्रवाह आपतित शब्दों का ही होता है, और वह भी उसकी व्यंजकता आदि को उपयोगी पाकर ही। हिन्दी में न तो ऐसे शब्दों का ग्रहण अनुचित होगा और न ही ऐसे शब्दों का होगा जो भारतीय अन्यान्य भाषाओं में एक ही अर्थ में प्रचलित हैं और थोड़े बहुत रूप भेद के रहते भी सबोधता की दृष्टि से उपयोगी हैं।
किसी भाषा की शक्ति और सम्पन्नता केवल इस बात पर ही निर्भर नहीं होती कि वह अपने शब्दकोष में कितने शब्द संभाले हुए है, बल्कि यह भी उसके लिए अनिवार्य है कि उसमें नवीन शब्दों की रचना की शक्ति हो। यह रचना शक्ति जहां प्रकृति प्रत्यय के योग से आती हैं, वहीं तत्सम, देशज और इतर शब्दों के तद्भवीकरण और रूपांतरीकरण से भी सिद्ध होती है। अनेक बार भाषा देशज शब्दों को ही उनके मूल रूप में अथवा उन्हें व्याकरण सिद्ध करके ऐसा रूप दे देती है कि वे उन्नत होकर तुल्यबल वाले और सम्मानीय बन जाते हैं। विकासशील भाषा के लिए यह गुण अमृत तुल्य है। हिन्दी में भी यह सद्गुण है, पर उसका झुकाव तत्समता की ओर है। मध्यकालीन कवियों में अरबी फारसी के कितने ही शब्दों को अपनी भाषा में न केवल ज्यों का त्यों खपा लिया था, बल्कि उनको अपने रूप में भी ढाल लिया था। वह क्रम चलते रहना चाहिए था, किंतु तत्समता के साथ साथ मूल उच्चारण की सुरक्षा का आधुनिक काल में ऐसा प्रवाह आया कि क्रम भंग हो गया। हम समझते हैं कि हिन्दी को अपनी उस शक्ति का उपयोग करने पर विशेष ध्यान देना चाहिए। केवल तत्समीकरण उपयोगी न होगा।
हिन्दी में इस समय दोनों प्रवृत्तियां चल रहीं है। एक पक्ष है जो तत्सम संस्कृत शब्दावली का प्रयोग करता है और दूसरा पक्ष समाजवादी या जनवादी है जो उर्दू शब्दों के मिश्रण से उभरती भाषा का अपने लेखन में प्रयोग कर रहा है। हिन्दी आलोचना में तो यह स्थिति है, किंतु अन्य विषयों में अभी दूसरी शैली का प्रयोग नहीं हो रहा है। वहां अभी चूंकि हिन्दी का प्रायः अनुवाद भाषा के रूप में प्रयोग हो रहा है और अर्थशास्त्र आदि के लेखक मूलतः या तो अभी भी अंग्रेजी में सोंचने के अभ्यस्थ हैं या अपने लेखन में आधारा ग्रंथों के रूप में उन्हें अंग्रेजी ग्रंथों से ही सहारा मिलता है, और हमारी पारिभाषिक शब्दावली भी संस्कृतनिष्ठ है, वे संस्कृतनिष्ठ शैली का प्रयोग कर रहे हैं। भविष्य में यदि हिन्दी का ऐसा रूप निखर सके जो संस्कृतनिष्ठ तो हो पर जिसमें हिन्दी की अपनी सरल अभिव्यक्ति को दबाकर कठिन संस्कृत पदावली का या इसी तरह अरबी फारसी के कठिन शब्दों का प्रयोग न हो और आवश्यकता होने पर इतर भारतीय भाषाओं के शब्दों का मेल हो, तो हितकर होगा।
हिन्दी में पारिभाषिक शब्दाबली का बहुत कुछ निर्माण हो चुका है। फिर भी भाषा के विचार के साथ नई नई शब्दावली भी बनती रहती हैं, अतएव यह नहीं कहा जा सकता कि हिन्दी इस क्षेत्र में किसी अन्तिम सीमा पर पहुंच गई है। किंतु यह हिन्दी के ही क्यों, संसार की किसी भी भाषा के विषय में नहीं कहा जा सकता। एक बार पारिभाषिक शब्दावली की नींव पड़ जाने पर उस क्रम को आगे बढ़ाते जाना सहज और सरल हो जाता है, यदि विचार और अभिव्यक्ति भी उसी भाषा में हो। चूंकि इस प्रकार की शब्दावली की रचना में संक्षिप्तता को एक विशेष सद्गुण माना जाता है अतएव हिन्दी के लिए यही सबसे सुगम और सहज मार्ग माना गया कि उसकी शब्दावली को संस्कृत का आधार दिया जाये ताकि उसकी सामसिकता, संधि और और इतर विधियों का लाभ मिले। साथ ही यह भी माना गया है कि संस्कृत पर आधारित शब्दावली को अन्यान्य भाषाभाषी भी ग्रहण कर सकेंगें और वह शब्दावली सबके लिए सहज माध्यम हो सकेगी। सहज संपर्क के लिए देश में एक ही पारिभाषिक शब्दावली का होना आवश्यक है। किंतु इस विषय में भी मतभेद और आपत्तियों की कमी नहीं है। भिन्न प्रदेशों में संस्कृत के ही शब्दों से एक ही अंग्रेजी शब्द के लिए भिन्न शब्दों का निर्माण, प्रचलित अंग्रेजी शब्दों को ज्यों का त्यों अपनाने की आकांक्षा, नवनिर्मित शब्दों का अनभ्यस्त कानों को अटपटा लगना, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बोध और संप्रेषण के लिए उपयोगिता और अपनी अपनी भाषा में पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण के द्वारा उसकी समृद्धि की चिंता ने हिन्दी पारिभाषिक शब्दावली की स्वीकृति के विपक्ष में अनेक समस्याएं उत्पन्न की हैं, जिससे उसका विकास प्रभावित हुआ है। यहां तक कि तब तो रेडियो की तुलना में आकाशवाणी शब्द भी खीझ और उपेक्षा का विषय हो गया है।
हम यहां भाषा की राजनीति में न जाकर केवल यह मानकर चलते हैं कि हिन्दी को अपने ही हित के लिए दृढ़ता से उस नीति का अनुसरण करना है जिससे वह समृद्ध और सशक्त होती जाये और उसकी सर्वग्राह्यता बनी रहे। इसमें संदेह नहीं है कि पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण के विषय में संस्कृत का आधार ही लेना होगा, किंतु उसके साथ ही यह भी ध्यान रखा जाए कि मनुष्य को अतीत की स्मृति सताती तो बहुत है और वह उसे वर्तमान की अपेक्षा सुखद भी मान लिया करता है फिर भी कोई वर्तमान को छोड़कर वही जीवन नहीं जीना चाहता। अतीत तो उसे केवल शक्ति और संतोष देता है, उसके संस्कार बड़ी सूक्ष्मता से उसके वर्तमान में तार तार बिंधे रहते हैं लेकिन नए संदर्भ में अपनी उपयोगिता सिद्ध करते हुए। भाषा का व्यवहार भी कमोवेश वैसा ही होता है। वर्तमान में जो हमारे स्वभाव बन गया है और जिस भाषा का प्रयोग शिक्षितों के बीच होता आ रहा है, उसे सहसा त्यागकर संस्कृत की ओर लौटने की कल्पना सुखद तो हो सकती है, लेकिन उतनी ही दूर तक जहां तक वह हमारे वर्तमान और अभ्यास के मेल में रहे। अतएव हम समझते हैं कि पारिभाषिक शब्दों मे सबसे पहले सम्मानीय और स्वीकार्य तो वे हैं जो संस्कृत और अरबी फारसी से आकर आधुनिक भारतीय भाषाओं में भी खप गये हैं और जिनकी अलग से पहिचान कराने की किसी को आवश्यकता नहीं पड़ती। दूसरे वे हैं जो आधुनिक ज्ञान की सही अभिव्यक्ति के लिए हमारे यहां दर्शन, धर्म नीति और साहित्य आदि से अभी भी लिए जा सकते हैं और अपन उच्चारण सौंकर्य के कारण सहज ग्राह्य होने की सम्भावना रखते हैं। तीसरे वे हैं जो वर्तमान में अंग्रेजी के माध्यम से आये हैं और जिनको हम अपनी भाषा के उच्चारण में ढाल कर अपने लिए और वैसे ही दूसरों के लिए भी, सह्य और अर्थवान बनाए रह सकते हैं। चैथे वे हैं जिन्हें भिन्न पर्याय के रूप में भारतीय भाषाओं मे प्रचलित देखते हैं और जिनके बीच से अधिक प्रचलन और अधिक स्वीकृति या सहमति के आधार पर चयन किया जा सकता है। पांचवे जो कई शब्दों के योग के कारण उच्चारण में उत्पन्न असुविधा या विलम्ब से बचने के लिए संकेत शब्दावली के रूप में अंग्रेजी तथा अन्य विदेशी भाषाओं मेंसमान रूप से मान्य हैं। और छठे तथा अंतिम वे हैं जो न तो किसी रूप में ढाले जा सकते हैं, न जिनके लिए कोई सरल और अर्थवान पर्याय हम दे सकते हैं। उन्हे ज्यों का त्यों लेना ही पड़ेगा और उस दिन की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी जिस दिन वे धिस पिट कर या तो हमारे अनुकूल हो जाएंगे या उस ज्ञान शाखा में बढ़ते बढ़ते किसी दिन इस धरती का कोई नया शब्द सहसा जन्म ले लेगा।
भाषा की रूप रचना का संबंध पारिभाषिक अथवा अन्य प्रकार की शब्दावली के अतिरिक्त उसके व्याकरण, उसके लाघव और उसकी जटिलता या सरलता से भी है। सबसे अधिक महत्वपूर्ण है सूक्ष्म और सही अर्थाभिव्यक्ति। व्याकरण भाषा का नियामक है और उसे परिनिष्ठित बनाता है। भाषा में वह एक रूपता लाता है और उसे निरंकुशता से बचाता है। एकरूपता सरलता की वाहिका भी होती है। और सूक्ष्म अभिव्यक्ति की सहायिका भी। अन्यथा अनेक शब्द रूपों और संबंध तत्वों के एक ही बात के लिए प्रचलन से सुनिश्चित और अटपटापन बना रहता है और अर्थ की दुविधा बनी रहती है। अन्य भाषाभाषियों को किसी भी दूसरी भाषा के सीखने में व्याकरण की भिन्नता के कारण सामान्यतः कुछ कठिनाई का अनुभव होता ही है, पर उससे कोई भाषा इस तरह प्रभावित नहीं होती कि अपने मूल रूप को परिवर्तित कर दे। परिवर्तन आता है कुछ लोगों के विशिष्ट प्रयोगों के प्रचलन से। उन प्रयोंगों की भी अर्थ की दृष्टि से कोई न कोई सार्थकता होनी चाहिए अतः हिन्दी के व्याकरण को भी बदला जा सकता है तो इस प्रकार के सार्थक और विशिष्ट प्रयोगों से ही भाषा को सीखने में व्याकरण को बाधक मानकर उसे सहज गति से लेना चाहिए और उस के माध्यम से हिन्दी पर अधिकार प्राप्त करना चाहिए। हिन्दी के विकास के लिए उसमें अनावश्यक जोड़ तोड़ करने से भाषा की एकरूपता सिद्ध होगी न उस जोड़ तोड़ की कोई सीमा रहेगी। व्याकरण की सीमा में रहते हुए भाषा के संबंध तत्वों के ग्रहण त्याग, शब्द संगठन, सूक्ष्म भेद, पुनुरुक्ति अथवा विस्तार में से बचत और स्पष्ट किंतु पैने और एकदम लक्ष्यानुसारी हिन्दी के लेखन का प्रयत्न जितना उसके विकास में साधक हो सकता है, उतना दूसरा तत्व नहीं। हमारी समझ से विषय और रूप की उस सन्निधि की उपलब्धि में ही हिन्दी का विकास निहित है। यहां इस विषय में अधिक विस्तार के लिए अवकाश नहीं है, अन्यथा वास्तविकता यह है कि उक्त बातों को कुछ और अधिक स्पष्टता से प्रस्तुत करना उचित होता।
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