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'''गुरु भक्तसिंह भक्त''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Guru Bhakt Singh Bhakt'' जन्म- [[7 अगस्त]], सन [[1893]], [[गाजीपुर]]; मृत्यु- [[17 मई]], [[1983]]) एक प्रसिद्ध साहित्यकार थे। भक्तसिंह ने द्विवेदीयुगीन इतिवृत्तात्मकता को सरस वर्णन सौन्दर्य, आर्शनवाद को मानवीय यथार्थ की मनोदृष्टि, प्रकृति संकोचको नूतन विस्तार एवं भाषा की गद्यात्मक रुक्षता को तरल प्रवाह एवं मुहाविरों को जीवंत मधुरिता प्रदान की है। भक्तसिंह कई रियासतों में [[दीवान]] रहने के बाद [[आजमगढ़]] नगरपालिका के कार्याधिकारी हुए।
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'''गुरु भक्तसिंह भक्त''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Guru Bhakt Singh Bhakt'' जन्म- [[7 अगस्त]], [[1893]], [[गाजीपुर]]; मृत्यु- [[17 मई]], [[1983]]) एक प्रसिद्ध साहित्यकार थे। भक्तसिंह ने द्विवेदीयुगीन इतिवृत्तात्मकता को सरस वर्णन सौन्दर्य, आर्शनवाद को मानवीय यथार्थ की मनोदृष्टि, प्रकृति संकोचको नूतन विस्तार एवं भाषा की गद्यात्मक रुक्षता को तरल प्रवाह एवं मुहाविरों को जीवंत मधुरिता प्रदान की है। भक्तसिंह कई रियासतों में [[दीवान]] रहने के बाद [[आजमगढ़]] नगरपालिका के कार्याधिकारी हुए।
 
=== परिचय ===
 
=== परिचय ===
गुरु भक्तसिंह 'भक्त' का जन्म [[7 अगस्त]], सन [[1893]] को [[गाजीपुर]] जमानियाँ तहसील के शासकीय औषधालय में हुआ। [[पिता]] ठाकुर कालिका प्रसाद सिंह [[पृथ्वीराज चौहान]] के वंशज, सहायक सर्जन एवं सुशिक्षित अरबी-फारसी-प्रेमी परिवार के काव्यानुरागी सहृदय व्यक्ति थे। ये बलिया में ही बस गये।
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गुरु भक्तसिंह 'भक्त' का जन्म [[7 अगस्त]], सन [[1893]] को [[गाजीपुर]] जमानियाँ तहसील के शासकीय औषधालय में हुआ। [[पिता]] ठाकुर कालिका प्रसाद सिंह [[पृथ्वीराज चौहान]] के वंशज, सहायक सर्जन एवं सुशिक्षित अरबी-फारसी-प्रेमी परिवार के काव्यानुरागी सहृदय व्यक्ति थे। ये बलिया में ही बस गये थे।
 
=== साहित्य-साधना===  
 
=== साहित्य-साधना===  
 
भक्तसिंह जी ने बी.ए तथा एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त की थी। कई रियासतों में दीवान रहने के बाद [[आजमगढ़]] नगरपालिका के कार्याधिकारी हुए। भक्तसिंह जी ने नगरपालिका के कार्याधिकारी के पद से अवकाश लेकर साहित्य-साधना करते हुए सन [[1983]] ई. को अपने प्राण त्यागे थे।
 
भक्तसिंह जी ने बी.ए तथा एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त की थी। कई रियासतों में दीवान रहने के बाद [[आजमगढ़]] नगरपालिका के कार्याधिकारी हुए। भक्तसिंह जी ने नगरपालिका के कार्याधिकारी के पद से अवकाश लेकर साहित्य-साधना करते हुए सन [[1983]] ई. को अपने प्राण त्यागे थे।
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;उपन्यास
 
;उपन्यास
 
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;काव्य संग्रह  
'सरस सुमन', 'कुसुम कुंज', 'वंशी-ध्वनि' एवं 'वन श्री' स्फुर कविताओं के संग्रह हैं। ये कविताएँ ग्रामीण प्रकृति, ग्राम्य जीवन एवं वन, पुष्प और पक्षियों से सम्बद्ध अपने समय में काव्य के व्यापक वस्तु-विषय तथा शेष सृष्टि के प्रति नवीन राग-विस्तार का संकेत हैं। प्रकृति के प्रति आत्मीयता ग्राम्य-जीवन-रूपों के आत्म-स्पर्श और अपरिचित, उपेक्षित निसर्ग-पक्षों के सरस विवरणों से युक्त इन रचना के कारण इन्हें '[[हिन्दी]] का वर्ड्सवर्थ' कहा गया है। 'नूरजहाँ' इतिहास प्रसिद्ध व्यक्ति [[नूरजहाँ]] पर लिखित [[महाकाव्य]] के रूप में विख्यात ललित प्रबन्ध है। 'विक्रमादित्य' भारतीय इतिहास के स्वर्ण-काल से सम्बद्ध छठी शती के संस्कृत नाटककार विशाखदत्त के 'देवी चन्द्रगुप्त' नाटक के सुप्रसिद्ध अंश पर आधृत उनका द्वितीय महाकाव्य है। 'भक्त जी' ने शोध, अध्यवसाय एवं विधायक कल्पना द्वारा इस प्रबन्ध को 'नूरजहाँ' से ही आगे ले जाकर जीवन की गहनतर विशालता में फैला दिया है। तत्कालीन इतिहास इस प्रबन्ध में पुनरूज्जीवित होकर अंतर्बाह्य चित्रण की विविधता, जीवन प्रश्नों की गम्भीर सूक्ष्मता, चरित्राकन की यथार्थता एवं भाषा प्रांजलता की विशेषताओं के साथ नाटकीय संघर्ष की गति पाकर मूर्तिमान हो उठा है।
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'सरस सुमन', 'कुसुम कुंज', 'वंशी-ध्वनि' एवं 'वन श्री' स्फुर कविताओं के संग्रह हैं। ये कविताएँ ग्रामीण प्रकृति, ग्राम्य जीवन एवं वन, पुष्प और पक्षियों से सम्बद्ध अपने समय में काव्य के व्यापक वस्तु-विषय तथा शेष सृष्टि के प्रति नवीन राग-विस्तार का संकेत हैं। प्रकृति के प्रति आत्मीयता ग्राम्य-जीवन-रूपों के आत्म-स्पर्श और अपरिचित, उपेक्षित निसर्ग-पक्षों के सरस विवरणों से युक्त इन रचना के कारण इन्हें '[[हिन्दी]] का वर्ड्सवर्थ' कहा गया है। 'नूरजहाँ' इतिहास प्रसिद्ध व्यक्ति [[नूरजहाँ]] पर लिखित [[महाकाव्य]] के रूप में विख्यात ललित प्रबन्ध है। 'विक्रमादित्य' [[भारतीय इतिहास]] के स्वर्ण-काल से सम्बद्ध छठी शती के संस्कृत नाटककार विशाखदत्त के 'देवी चन्द्रगुप्त' नाटक के सुप्रसिद्ध अंश पर आधृत उनका द्वितीय महाकाव्य है। 'भक्त जी' ने शोध, अध्यवसाय एवं विधायक कल्पना द्वारा इस प्रबन्ध को 'नूरजहाँ' से ही आगे ले जाकर जीवन की गहनतर विशालता में फैला दिया है। तत्कालीन इतिहास इस प्रबन्ध में पुनरूज्जीवित होकर अंतर्बाह्य चित्रण की विविधता, जीवन प्रश्नों की गम्भीर सूक्ष्मता, चरित्राकन की यथार्थता एवं भाषा प्रांजलता की विशेषताओं के साथ नाटकीय संघर्ष की गति पाकर मूर्तिमान हो उठा है।
 
=== भाषा शैली ===
 
=== भाषा शैली ===
 
'भक्तजी' ने द्विवेदीयुगीन इतिवृत्तात्मकता को सरस वर्णन सौन्दर्य, आर्शनवाद को मानवीय यथार्थ की मनोदृष्टि, प्रकृति संकोचको नूतन विस्तार एवं भाषा की गद्यात्मक रुक्षता को तरल प्रवाह एवं मुहाविरों को जीवंत मधुरिता प्रदान की है। ये छायावादी अमूर्तता एवं वैयक्तिकता से परे अपरोध अनुभूनितों के सहज प्रसारक एवं तत्कालीन काव्य-विषय को नूतन अर्थभूमि प्रदान करने वाले प्रकृत स्वच्छन्दतावादी कवि हैं। इनके प्रयास से छायावादी काव्य एक नवीन मोड़ लेता है।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी साहित्य कोश भाग-2|लेखक=डॉ. धीरेन्द्र वर्मा|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी|संकलन=भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|संपादन=|पृष्ठ संख्या=141|url=}}</ref>  
 
'भक्तजी' ने द्विवेदीयुगीन इतिवृत्तात्मकता को सरस वर्णन सौन्दर्य, आर्शनवाद को मानवीय यथार्थ की मनोदृष्टि, प्रकृति संकोचको नूतन विस्तार एवं भाषा की गद्यात्मक रुक्षता को तरल प्रवाह एवं मुहाविरों को जीवंत मधुरिता प्रदान की है। ये छायावादी अमूर्तता एवं वैयक्तिकता से परे अपरोध अनुभूनितों के सहज प्रसारक एवं तत्कालीन काव्य-विषय को नूतन अर्थभूमि प्रदान करने वाले प्रकृत स्वच्छन्दतावादी कवि हैं। इनके प्रयास से छायावादी काव्य एक नवीन मोड़ लेता है।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी साहित्य कोश भाग-2|लेखक=डॉ. धीरेन्द्र वर्मा|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी|संकलन=भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|संपादन=|पृष्ठ संख्या=141|url=}}</ref>  
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'''गिरिधर शर्मा नवरत्न''' (जन्म- [[6 जून]], [[1881]], [[झालरापाटन]], [[राजस्थान]]; मृत्यु- [[1 जुलाई]], [[1961]]) हिन्दी साहित्य में द्विवेदी युग के ऐसे स्वनामधन्य व्यक्तित्व थे। गिरिधर शर्मा जी साहित्यकार तथा सच्चे राष्ट्रभक्त भी थे। [[गांधी जी]] से इनकी मुलाकात हुई और उन्हें राष्ट्रभाषा हिन्दी का दीक्षा मंत्र दिया जिसके परिणाम स्वरूप अगले ही [[वर्ष]] [[लखनऊ]] के [[कांग्रेस अधिवेशन]] में देश की [[राष्ट्रभाषा]] [[हिन्दी]] घोषित कर दी गयी।
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=== परिचय ===
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गिरिधर शर्मा नवरत्न का जन्म [[6 जून]], [[1881]], [[रविवार]] को [[झालरापाटन]], [[राजस्थान]] में हुआ था। इनके पिता ब्रजेश्वर शर्मा तथा माता पन्ना देवी थी।
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;शिक्षा
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गिरिधर जी ने आरम्भिक में घर पर ही [[हिंदी]], [[अंग्रेज़ी]], [[संस्कृत]], [[प्राकृत]], [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] आदि [[भाषा|भाषाओं]] की शिक्षा के बाद [[जयपुर]] से प्रश्न वर श्री कान्ह जी व्यास तथा परम वेदज्ञ द्रविड़ श्री वीरेश्वर जी शास्त्री से संस्कृत पंज्च काव्य तथा संस्कृत व्याकरण का अध्ययन किया। [[काशी]] में पंडित गंगाधर शास्त्री से [[संस्कृत साहित्य]] तथा [[दर्शन शास्त्र|दर्शन]] का विशिष्ट अध्ययन किया।
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==== हिन्दी साहित्य सभा की स्थापना ====
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सन [[1912]] ई. में गिरिधर शर्मा जी ने [[झालरापाटन]] में श्री राजपूताना हिन्दी साहित्य सभा की स्थापना की जिसके संरक्षक झालावाड़ नरेश श्री भवानी सिंह जी बने। इस सभा का उद्देश्य '[[हिन्दी भाषा|हिन्दी-भाषा]]' की हर तरह से उन्नति करना और हिन्दी भाषा में [[वाणिज्य |व्यापार वाणिज्य]], कला कौशल, इतिहास विज्ञान वैद्यक, अर्थशास्त्र समाज,नीति राजनीति, पुरातत्व, साहित्य उपन्यास आदि विविध विषयों पर अच्छे [[ग्रंथ]] तैयार करना और सस्ते मूल्य पर बेचना था।'
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गिरिधर शर्मा ने सन 1912 में ही [[भरतपुर]] में हिन्दी साहित्य समिति की स्थापना करके वहाँ के कार्यकर्ताओं को हिन्दी भाषा की श्री वृद्धि, प्रसार और साहित्य संवर्द्धन का कार्य सौंपा। सन [[1935]] में श्री भारतेन्दु समिति कोटा के अध्यक्ष बने। सन [[1906]] में राजपूताना से 'विद्या भास्कर' नामक मासिक पत्र निकाला। [[इन्दौर]] में सन [[1914]] में मध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति की स्थापना कर चुकने के बाद [[बम्बई]] गए।
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=== गांधी जी से भेट ===
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वहीं गांधी जी से गिरिधर शर्मा की मुलाकात हुई और उन्हें राष्ट्र-भाषा [[हिन्दी]] का दीक्षा मंत्र दिया जिसके परिणाम स्वरूप अगले ही वर्ष [[लखनऊ]] के [[कांग्रेस अधिवेशन]] में देश की [[राष्ट्रभाषा]] हिन्दी घोषित कर दी गयी।
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=== रचनाएँ ===
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गिरिधर जी की प्रकाशित रचनाएँ निम्नलिखित हैं- श्री भवानी सिंह कारक रत्नम्, 'अमरशक्ति सुधाकर श्री भवानी सिंह सद्वृत्त गुच्छ:' 'नवरत्न नीति: 'गिरिधर सप्तशती' 'प्रेम पयोधि' 'योगी' 'अभेद रस:' 'माय वाक्सुधा सौरमण्डलम्', 'जापान विजय आदि।'
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;हिन्दी में पद्यानुवाद
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'मातृवन्दना' आपकी प्रमुख मौलिक कविता पुस्तक है। अनुवाद के क्षेत्र में आपने पुष्कल कार्य किया है। 'आर्यशास्त्र', 'व्यापार-शिक्षा', 'शुश्रूषा', 'कठिनाई में विद्याभ्यास', 'आरोग्य दिग्दर्शन', 'जया जयंत', 'राइ का पर्वत', 'सरस्वती यश', 'सुकन्या', 'साविश्री', 'ऋतु-विनोद', 'शुद्धाद्वैत-कुसुम-रहस्य', 'चित्रांगदा', 'भीष्म-प्रतिभा', 'कविता-कुसुम', 'कल्याण-मन्दिर', 'बार-भावना', 'रत्न करण्ड' एवं 'निशापहार' आपकी प्रमुख रचनाएँ हैं। [[अंग्रेज़ी]] के  'हरमिट' काव्य के मूल एवं अनुवाद दोनों को आपने संस्कृत में ही पद्यबद्ध किया है। आपने सन् 1928 ई. में संस्कृत काव्य 'शिशुपाल वध' के दो सर्गों का हिन्दी में पद्यानुवाद किया। 'मेरो सब लगे प्रभो देश की भलाई में' जैसी पक्तियों से सम्पन्न 'मातृ-वन्दना' की रचना राष्ट्रीयता एवं स्वदेश-प्रेम की प्रेरणा से हुई है। उस समय तक स्वदेश प्रेम विषयक प्रकाशित हिन्दी रचनाओं में वह तृतीय थी।
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इस विषय पर गोपाल दास कृत 'भारत भजनावली' (सन् 1897 में प्रकाशित) एवं गुरुप्रसाद सिंह द्वारा रचित 'भारत संगीत'<ref>सन् 1901 में प्रकाशित</ref>दो पूर्ववर्ती रचनाएँ और प्राप्त हुई हैं। इनकी तुलना  में उक्त रचना पुष्टतर और सुन्दरतर हैं। इसमें राष्ट्रीयता के शुद्ध भाव का प्रसार हुआ है। 'मातृ-वन्दना' का जो पावन स्वर बंगकाव्य में मुखरित हुआ था, हिन्दी-क्षेत्र भी उससे अछूता नहीं रहा। जिस समय अधिकांश कवि मध्यकालीन वातावरण में ही साँस ले रहे थे और काव्य धारा ह्रासोन्मुखी हो रही थी, स्वदेश-भाव का यह जागरण देश-प्रेम का शंखनाद ही माना जायगा। आपने अतीत के प्रति निष्क्रिय मोह एवं प्रतिक्रियात्मक आसक्ति तथा राष्ट्रीयता में अंतर करते हुए जागरण का जो शंखनाद किया, उसे कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता। अनुवाद कार्य विषय-वस्तु की विस्तृत भूमि से सम्बद्ध है। [[आयुर्वेद]], [[दर्शन]], व्यवहारशास्त्र, समाजशास्र नीति एवं आचरण सभी विषयों पर आपकी लेखनी चली है। आपने 'विद्या भास्कर' का सम्पादन भी किया।
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=== निधन ===
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12:18, 5 जनवरी 2017 का अवतरण

दीपिका1
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पूरा नाम गुरु भक्तसिंह भक्त
अन्य नाम 'भक्त'
जन्म 7 अगस्त, 1893 ई.
जन्म भूमि गाजीपुर
मृत्यु 17 मई, 1983
अभिभावक ठाकुर कालिका प्रसाद सिंह
मुख्य रचनाएँ 'कुसुम कुंज', 'रधिया', ' 'वंशी-ध्वनि' आदि।
भाषा हिन्दी
शिक्षा बी.ए तथा एल. एल.बी.
प्रसिद्धि लेखक, शिक्षाशास्त्री
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी गुरु भक्तसिंह छायावादी अमूर्तता एवं वैयक्तिकता से परे अपरोध अनुभूनितों के सहज प्रसारक एवं तत्कालीन काव्य-विषय को नूतन अर्थभूमि प्रदान करने वाले प्रकृत स्वच्छन्दतावादी कवि हैं।

गुरु भक्तसिंह भक्त (अंग्रेज़ी: Guru Bhakt Singh Bhakt जन्म- 7 अगस्त, 1893, गाजीपुर; मृत्यु- 17 मई, 1983) एक प्रसिद्ध साहित्यकार थे। भक्तसिंह ने द्विवेदीयुगीन इतिवृत्तात्मकता को सरस वर्णन सौन्दर्य, आर्शनवाद को मानवीय यथार्थ की मनोदृष्टि, प्रकृति संकोचको नूतन विस्तार एवं भाषा की गद्यात्मक रुक्षता को तरल प्रवाह एवं मुहाविरों को जीवंत मधुरिता प्रदान की है। भक्तसिंह कई रियासतों में दीवान रहने के बाद आजमगढ़ नगरपालिका के कार्याधिकारी हुए।

परिचय

गुरु भक्तसिंह 'भक्त' का जन्म 7 अगस्त, सन 1893 को गाजीपुर जमानियाँ तहसील के शासकीय औषधालय में हुआ। पिता ठाकुर कालिका प्रसाद सिंह पृथ्वीराज चौहान के वंशज, सहायक सर्जन एवं सुशिक्षित अरबी-फारसी-प्रेमी परिवार के काव्यानुरागी सहृदय व्यक्ति थे। ये बलिया में ही बस गये थे।

साहित्य-साधना

भक्तसिंह जी ने बी.ए तथा एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त की थी। कई रियासतों में दीवान रहने के बाद आजमगढ़ नगरपालिका के कार्याधिकारी हुए। भक्तसिंह जी ने नगरपालिका के कार्याधिकारी के पद से अवकाश लेकर साहित्य-साधना करते हुए सन 1983 ई. को अपने प्राण त्यागे थे।

रचनाएँ

भक्तसिंह जी' ने सरस सुमन' [1], 'कुसुम कुंज' [2], 'वंशी-ध्वनि'[3], 'वन श्री'[4], 'नूरजहाँ'[5]एवं 'विक्रमादित्य' [6]उनकी प्रकाशित रचनाएँ हैं।

उपन्यास

'प्रेम पाश'[7], 'रधिया'[8], 'वे दोनों' [9], 'नूरजहाँ' [10] 'प्रसद वन' [11] एवं 'आत्मकथा' [12]जीवन की झाँकियाँ[13]कुसुमाकर[14] अप्रकाशित रचनाएँ हैं।

काव्य संग्रह

'सरस सुमन', 'कुसुम कुंज', 'वंशी-ध्वनि' एवं 'वन श्री' स्फुर कविताओं के संग्रह हैं। ये कविताएँ ग्रामीण प्रकृति, ग्राम्य जीवन एवं वन, पुष्प और पक्षियों से सम्बद्ध अपने समय में काव्य के व्यापक वस्तु-विषय तथा शेष सृष्टि के प्रति नवीन राग-विस्तार का संकेत हैं। प्रकृति के प्रति आत्मीयता ग्राम्य-जीवन-रूपों के आत्म-स्पर्श और अपरिचित, उपेक्षित निसर्ग-पक्षों के सरस विवरणों से युक्त इन रचना के कारण इन्हें 'हिन्दी का वर्ड्सवर्थ' कहा गया है। 'नूरजहाँ' इतिहास प्रसिद्ध व्यक्ति नूरजहाँ पर लिखित महाकाव्य के रूप में विख्यात ललित प्रबन्ध है। 'विक्रमादित्य' भारतीय इतिहास के स्वर्ण-काल से सम्बद्ध छठी शती के संस्कृत नाटककार विशाखदत्त के 'देवी चन्द्रगुप्त' नाटक के सुप्रसिद्ध अंश पर आधृत उनका द्वितीय महाकाव्य है। 'भक्त जी' ने शोध, अध्यवसाय एवं विधायक कल्पना द्वारा इस प्रबन्ध को 'नूरजहाँ' से ही आगे ले जाकर जीवन की गहनतर विशालता में फैला दिया है। तत्कालीन इतिहास इस प्रबन्ध में पुनरूज्जीवित होकर अंतर्बाह्य चित्रण की विविधता, जीवन प्रश्नों की गम्भीर सूक्ष्मता, चरित्राकन की यथार्थता एवं भाषा प्रांजलता की विशेषताओं के साथ नाटकीय संघर्ष की गति पाकर मूर्तिमान हो उठा है।

भाषा शैली

'भक्तजी' ने द्विवेदीयुगीन इतिवृत्तात्मकता को सरस वर्णन सौन्दर्य, आर्शनवाद को मानवीय यथार्थ की मनोदृष्टि, प्रकृति संकोचको नूतन विस्तार एवं भाषा की गद्यात्मक रुक्षता को तरल प्रवाह एवं मुहाविरों को जीवंत मधुरिता प्रदान की है। ये छायावादी अमूर्तता एवं वैयक्तिकता से परे अपरोध अनुभूनितों के सहज प्रसारक एवं तत्कालीन काव्य-विषय को नूतन अर्थभूमि प्रदान करने वाले प्रकृत स्वच्छन्दतावादी कवि हैं। इनके प्रयास से छायावादी काव्य एक नवीन मोड़ लेता है।[15]

निधन

गुरु भक्तसिंह जी ने नगरपालिका के कार्याधिकारी के पद से अवकाश लेकर साहित्य-साधना करते हुए सन 1983 ई. को अपने प्राण त्यागे थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रचना-काल 11920-25 ई., प्रकाशन-काल 1925 ई.
  2. प्रकाशन 1927
  3. रचना 1926-30, प्रका. 1932
  4. प्रकाशन 1940 ई.
  5. रचना 1932-33, प्रकाशन 1935
  6. रचना 1939-44, प्रकाशन 1944
  7. नाटक, रचना सन् 1919 ई.
  8. उपन्यास, रचना 1922
  9. उपन्यास, रच. 1924
  10. अंग्रेजी काव्यानुवाद, रच. 1948-60
  11. गीत, मुक्तक, हिन्दी-गजल, चतुष्पदियों का नवीन संग्रह, रच. 1944-60
  12. अद्यतन जीवनी
  13. रचना सन 1945 ई.
  14. रचना सन् 1968 से 1972 तक रचनाएँ
  15. हिन्दी साहित्य कोश भाग-2 |लेखक: डॉ. धीरेन्द्र वर्मा |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 141 |

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख

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गिरिधर शर्मा नवरत्न (जन्म- 6 जून, 1881, झालरापाटन, राजस्थान; मृत्यु- 1 जुलाई, 1961) हिन्दी साहित्य में द्विवेदी युग के ऐसे स्वनामधन्य व्यक्तित्व थे। गिरिधर शर्मा जी साहित्यकार तथा सच्चे राष्ट्रभक्त भी थे। गांधी जी से इनकी मुलाकात हुई और उन्हें राष्ट्रभाषा हिन्दी का दीक्षा मंत्र दिया जिसके परिणाम स्वरूप अगले ही वर्ष लखनऊ के कांग्रेस अधिवेशन में देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी घोषित कर दी गयी।

परिचय

गिरिधर शर्मा नवरत्न का जन्म 6 जून, 1881, रविवार को झालरापाटन, राजस्थान में हुआ था। इनके पिता ब्रजेश्वर शर्मा तथा माता पन्ना देवी थी।

शिक्षा

गिरिधर जी ने आरम्भिक में घर पर ही हिंदी, अंग्रेज़ी, संस्कृत, प्राकृत, फ़ारसी आदि भाषाओं की शिक्षा के बाद जयपुर से प्रश्न वर श्री कान्ह जी व्यास तथा परम वेदज्ञ द्रविड़ श्री वीरेश्वर जी शास्त्री से संस्कृत पंज्च काव्य तथा संस्कृत व्याकरण का अध्ययन किया। काशी में पंडित गंगाधर शास्त्री से संस्कृत साहित्य तथा दर्शन का विशिष्ट अध्ययन किया।

हिन्दी साहित्य सभा की स्थापना

सन 1912 ई. में गिरिधर शर्मा जी ने झालरापाटन में श्री राजपूताना हिन्दी साहित्य सभा की स्थापना की जिसके संरक्षक झालावाड़ नरेश श्री भवानी सिंह जी बने। इस सभा का उद्देश्य 'हिन्दी-भाषा' की हर तरह से उन्नति करना और हिन्दी भाषा में व्यापार वाणिज्य, कला कौशल, इतिहास विज्ञान वैद्यक, अर्थशास्त्र समाज,नीति राजनीति, पुरातत्व, साहित्य उपन्यास आदि विविध विषयों पर अच्छे ग्रंथ तैयार करना और सस्ते मूल्य पर बेचना था।'

गिरिधर शर्मा ने सन 1912 में ही भरतपुर में हिन्दी साहित्य समिति की स्थापना करके वहाँ के कार्यकर्ताओं को हिन्दी भाषा की श्री वृद्धि, प्रसार और साहित्य संवर्द्धन का कार्य सौंपा। सन 1935 में श्री भारतेन्दु समिति कोटा के अध्यक्ष बने। सन 1906 में राजपूताना से 'विद्या भास्कर' नामक मासिक पत्र निकाला। इन्दौर में सन 1914 में मध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति की स्थापना कर चुकने के बाद बम्बई गए।

गांधी जी से भेट

वहीं गांधी जी से गिरिधर शर्मा की मुलाकात हुई और उन्हें राष्ट्र-भाषा हिन्दी का दीक्षा मंत्र दिया जिसके परिणाम स्वरूप अगले ही वर्ष लखनऊ के कांग्रेस अधिवेशन में देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी घोषित कर दी गयी।

रचनाएँ

गिरिधर जी की प्रकाशित रचनाएँ निम्नलिखित हैं- श्री भवानी सिंह कारक रत्नम्, 'अमरशक्ति सुधाकर श्री भवानी सिंह सद्वृत्त गुच्छ:' 'नवरत्न नीति: 'गिरिधर सप्तशती' 'प्रेम पयोधि' 'योगी' 'अभेद रस:' 'माय वाक्सुधा सौरमण्डलम्', 'जापान विजय आदि।'

हिन्दी में पद्यानुवाद

'मातृवन्दना' आपकी प्रमुख मौलिक कविता पुस्तक है। अनुवाद के क्षेत्र में आपने पुष्कल कार्य किया है। 'आर्यशास्त्र', 'व्यापार-शिक्षा', 'शुश्रूषा', 'कठिनाई में विद्याभ्यास', 'आरोग्य दिग्दर्शन', 'जया जयंत', 'राइ का पर्वत', 'सरस्वती यश', 'सुकन्या', 'साविश्री', 'ऋतु-विनोद', 'शुद्धाद्वैत-कुसुम-रहस्य', 'चित्रांगदा', 'भीष्म-प्रतिभा', 'कविता-कुसुम', 'कल्याण-मन्दिर', 'बार-भावना', 'रत्न करण्ड' एवं 'निशापहार' आपकी प्रमुख रचनाएँ हैं। अंग्रेज़ी के 'हरमिट' काव्य के मूल एवं अनुवाद दोनों को आपने संस्कृत में ही पद्यबद्ध किया है। आपने सन् 1928 ई. में संस्कृत काव्य 'शिशुपाल वध' के दो सर्गों का हिन्दी में पद्यानुवाद किया। 'मेरो सब लगे प्रभो देश की भलाई में' जैसी पक्तियों से सम्पन्न 'मातृ-वन्दना' की रचना राष्ट्रीयता एवं स्वदेश-प्रेम की प्रेरणा से हुई है। उस समय तक स्वदेश प्रेम विषयक प्रकाशित हिन्दी रचनाओं में वह तृतीय थी।

इस विषय पर गोपाल दास कृत 'भारत भजनावली' (सन् 1897 में प्रकाशित) एवं गुरुप्रसाद सिंह द्वारा रचित 'भारत संगीत'[1]दो पूर्ववर्ती रचनाएँ और प्राप्त हुई हैं। इनकी तुलना में उक्त रचना पुष्टतर और सुन्दरतर हैं। इसमें राष्ट्रीयता के शुद्ध भाव का प्रसार हुआ है। 'मातृ-वन्दना' का जो पावन स्वर बंगकाव्य में मुखरित हुआ था, हिन्दी-क्षेत्र भी उससे अछूता नहीं रहा। जिस समय अधिकांश कवि मध्यकालीन वातावरण में ही साँस ले रहे थे और काव्य धारा ह्रासोन्मुखी हो रही थी, स्वदेश-भाव का यह जागरण देश-प्रेम का शंखनाद ही माना जायगा। आपने अतीत के प्रति निष्क्रिय मोह एवं प्रतिक्रियात्मक आसक्ति तथा राष्ट्रीयता में अंतर करते हुए जागरण का जो शंखनाद किया, उसे कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता। अनुवाद कार्य विषय-वस्तु की विस्तृत भूमि से सम्बद्ध है। आयुर्वेद, दर्शन, व्यवहारशास्त्र, समाजशास्र नीति एवं आचरण सभी विषयों पर आपकी लेखनी चली है। आपने 'विद्या भास्कर' का सम्पादन भी किया।

निधन

सन 1961 की एक जुलाई को आपका देहांत हुआ। [2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सन् 1901 में प्रकाशित
  2. हिन्दी साहित्य कोश भाग-2 |लेखक: डॉ. धीरेन्द्र वर्मा |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 131 |

बाहरी कड़ियाँ

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