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'''बौद्ध संगीति''' का तात्पर्य उस 'संगोष्ठी' या 'सम्मेलन' या 'महासभा' से है, जो [[महात्मा बुद्ध]] के परिनिर्वाण के अल्प समय के पश्चात से ही उनके उपदेशों को संगृहीत करने, उनका पाठ (वाचन) करने आदि के उद्देश्य से सम्बन्धित थी। इन संगीतियों को प्राय: 'धम्म संगीति' (धर्म संगीति) कहा जाता था। संगीति का अर्थ होता है कि 'साथ-साथ गाना'।
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'''बौद्ध संगीति''' का तात्पर्य उस 'संगोष्ठी' या 'सम्मेलन' या 'महासभा' से है, जो [[महात्मा बुद्ध]] के परिनिर्वाण के अल्प समय के पश्चात से ही उनके उपदेशों को संगृहीत करने, उनका पाठ (वाचन) करने आदि के उद्देश्य से सम्बन्धित थी। इन संगीतियों को प्राय: 'धम्म संगीति' (धर्म संगीति) कहा जाता था। संगीति का अर्थ होता है कि 'साथ-साथ गाना'। इतिहास में चार बौद्ध संगीतियों का उल्लेख हुआ है।
 
==प्रथम संगीति==
 
==प्रथम संगीति==
बौद्ध संगीति का आयोजन कुल चार बार हुआ है। पहली संगीति (महासभा) गौतम बुद्ध के निर्वाण के बाद ही [[राजगृह]] (आधुनिक राजगिरि) में हुई। इसमें [[बौद्ध]] स्थविरों (थेरों) ने भाग लिया और बुद्ध के प्रमुख शिष्य 'महाकस्यप' (महाकश्यप) ने उसकी अध्यक्षता की। चूँकि बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं को लिपिबद्ध नहीं किया था, इसीलिए संगीति में उनके तीन शिष्यों-'महापण्डित महाकाश्यप', सबसे वयोवृद्ध 'उपालि' तथा सबसे प्रिय शिष्य 'आनन्द' ने उनकी शिक्षाओं का संगायन किया। तत्पश्चात् उनकी ये शिक्षाएँ गुरु-शिष्य परम्परा से मौखिक चलती रहीं, उन्हें लिपिबद्ध बहुत बाद में किया गया।
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पहली संगीति गौतम बुद्ध के निर्वाण के बाद ही [[राजगृह]] (आधुनिक राजगिरि) में हुई। इसमें [[बौद्ध]] स्थविरों (थेरों) ने भाग लिया और बुद्ध के प्रमुख शिष्य 'महाकस्यप' (महाकश्यप) ने उसकी अध्यक्षता की। चूँकि बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं को लिपिबद्ध नहीं किया था, इसीलिए संगीति में उनके तीन शिष्यों-'महापण्डित महाकाश्यप', सबसे वयोवृद्ध 'उपालि' तथा सबसे प्रिय शिष्य 'आनन्द' ने उनकी शिक्षाओं का संगायन किया। तत्पश्चात् उनकी ये शिक्षाएँ गुरु-शिष्य परम्परा से मौखिक चलती रहीं, उन्हें लिपिबद्ध बहुत बाद में किया गया।
 
==द्वितीय संगीति==
 
==द्वितीय संगीति==
 
एक शताब्दी बाद बुद्धोपदिष्ट कुछ विनय-नियमों के सम्बन्ध में भिक्षुओं में विवाद उत्पन्न हो जाने पर [[वैशाली]] में दूसरी संगीति हुई। इस संगीति में विनय-नियमों को कठोर बनाया गया और जो बुद्धोपदिष्ट शिक्षाएँ अलिखित रूप में प्रचलित थीं, उनमें संशोधन किया गया।
 
एक शताब्दी बाद बुद्धोपदिष्ट कुछ विनय-नियमों के सम्बन्ध में भिक्षुओं में विवाद उत्पन्न हो जाने पर [[वैशाली]] में दूसरी संगीति हुई। इस संगीति में विनय-नियमों को कठोर बनाया गया और जो बुद्धोपदिष्ट शिक्षाएँ अलिखित रूप में प्रचलित थीं, उनमें संशोधन किया गया।
 
==तृतीय संगीति==
 
==तृतीय संगीति==
बौद्ध अनुश्रुतियों के अनुसार बुद्ध के परिनिर्वाण के 236 वर्ष बाद सम्राट [[अशोक]] के संरक्षण में तीसरी संगीति हुई, जिसकी अध्यक्षता प्रसिद्ध बौद्ध ग्रन्थ ‘कथावत्थु’ के रचयिता [[तिस्स|तिस्स मोग्गलीपुत्र]] ने की थी। विश्वास किया जाता है कि इस संगीति में [[त्रिपिटक]] को अन्तिम रूप प्रदान किया गया। यदि इसे सही मान लिया जाए कि अशोक ने अपना सारनाथ वाला स्तम्भ लेख इस संगीति के बाद उत्कीर्ण कराया, तब यह मानना उचित होगा कि इस संगीति के निर्णयों को इतने अधिक बौद्ध भिक्षु-भिक्षुणियों ने स्वीकार नहीं किया कि अशोक को धमकी देनी पड़ी कि संघ में फूट डालने वालों को कड़ा दण्ड दिया जायेगा।
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बौद्ध अनुश्रुतियों के अनुसार बुद्ध के परिनिर्वाण के 236 वर्ष बाद सम्राट [[अशोक]] के संरक्षण में तीसरी संगीति हुई, जिसकी अध्यक्षता प्रसिद्ध बौद्ध ग्रन्थ ‘कथावत्थु’ के रचयिता [[तिस्स|तिस्स मोग्गलीपुत्र]] ने की थी। विश्वास किया जाता है कि इस संगीति में [[त्रिपिटक]] को अन्तिम रूप प्रदान किया गया। यदि इसे सही मान लिया जाए कि अशोक ने अपना [[सारनाथ]] वाला स्तम्भ लेख इस संगीति के बाद उत्कीर्ण कराया था, तब यह मानना उचित होगा, कि इस संगीति के निर्णयों को इतने अधिक [[बौद्ध]] भिक्षु-भिक्षुणियों ने स्वीकार नहीं किया कि अशोक को धमकी देनी पड़ी कि संघ में फूट डालने वालों को कड़ा दण्ड दिया जायेगा।
 
==चतुर्थ संगीति==
 
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चौथी और अन्तिम संगीति [[कुषाण]] सम्राट [[कनिष्क]] के शासनकाल (लगभग 120-144 ई.) में हुई। इस संगीति में त्रिपिटक का प्रामाणिक भाष्य तैयार किया गया। जिसे ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण कराकर कुंडल वन-विहार में [[स्तूप]] का निर्माण कराकर उसी में सुरक्षित रख दिया गया। इन ताम्रपत्रों को अभी तक उपलब्ध नहीं किया जा सका है।
 
चौथी और अन्तिम संगीति [[कुषाण]] सम्राट [[कनिष्क]] के शासनकाल (लगभग 120-144 ई.) में हुई। इस संगीति में त्रिपिटक का प्रामाणिक भाष्य तैयार किया गया। जिसे ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण कराकर कुंडल वन-विहार में [[स्तूप]] का निर्माण कराकर उसी में सुरक्षित रख दिया गया। इन ताम्रपत्रों को अभी तक उपलब्ध नहीं किया जा सका है।
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

14:14, 15 दिसम्बर 2011 का अवतरण

बौद्ध संगीति का तात्पर्य उस 'संगोष्ठी' या 'सम्मेलन' या 'महासभा' से है, जो महात्मा बुद्ध के परिनिर्वाण के अल्प समय के पश्चात से ही उनके उपदेशों को संगृहीत करने, उनका पाठ (वाचन) करने आदि के उद्देश्य से सम्बन्धित थी। इन संगीतियों को प्राय: 'धम्म संगीति' (धर्म संगीति) कहा जाता था। संगीति का अर्थ होता है कि 'साथ-साथ गाना'। इतिहास में चार बौद्ध संगीतियों का उल्लेख हुआ है।

प्रथम संगीति

पहली संगीति गौतम बुद्ध के निर्वाण के बाद ही राजगृह (आधुनिक राजगिरि) में हुई। इसमें बौद्ध स्थविरों (थेरों) ने भाग लिया और बुद्ध के प्रमुख शिष्य 'महाकस्यप' (महाकश्यप) ने उसकी अध्यक्षता की। चूँकि बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं को लिपिबद्ध नहीं किया था, इसीलिए संगीति में उनके तीन शिष्यों-'महापण्डित महाकाश्यप', सबसे वयोवृद्ध 'उपालि' तथा सबसे प्रिय शिष्य 'आनन्द' ने उनकी शिक्षाओं का संगायन किया। तत्पश्चात् उनकी ये शिक्षाएँ गुरु-शिष्य परम्परा से मौखिक चलती रहीं, उन्हें लिपिबद्ध बहुत बाद में किया गया।

द्वितीय संगीति

एक शताब्दी बाद बुद्धोपदिष्ट कुछ विनय-नियमों के सम्बन्ध में भिक्षुओं में विवाद उत्पन्न हो जाने पर वैशाली में दूसरी संगीति हुई। इस संगीति में विनय-नियमों को कठोर बनाया गया और जो बुद्धोपदिष्ट शिक्षाएँ अलिखित रूप में प्रचलित थीं, उनमें संशोधन किया गया।

तृतीय संगीति

बौद्ध अनुश्रुतियों के अनुसार बुद्ध के परिनिर्वाण के 236 वर्ष बाद सम्राट अशोक के संरक्षण में तीसरी संगीति हुई, जिसकी अध्यक्षता प्रसिद्ध बौद्ध ग्रन्थ ‘कथावत्थु’ के रचयिता तिस्स मोग्गलीपुत्र ने की थी। विश्वास किया जाता है कि इस संगीति में त्रिपिटक को अन्तिम रूप प्रदान किया गया। यदि इसे सही मान लिया जाए कि अशोक ने अपना सारनाथ वाला स्तम्भ लेख इस संगीति के बाद उत्कीर्ण कराया था, तब यह मानना उचित होगा, कि इस संगीति के निर्णयों को इतने अधिक बौद्ध भिक्षु-भिक्षुणियों ने स्वीकार नहीं किया कि अशोक को धमकी देनी पड़ी कि संघ में फूट डालने वालों को कड़ा दण्ड दिया जायेगा।

चतुर्थ संगीति

चौथी और अन्तिम संगीति कुषाण सम्राट कनिष्क के शासनकाल (लगभग 120-144 ई.) में हुई। इस संगीति में त्रिपिटक का प्रामाणिक भाष्य तैयार किया गया। जिसे ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण कराकर कुंडल वन-विहार में स्तूप का निर्माण कराकर उसी में सुरक्षित रख दिया गया। इन ताम्रपत्रों को अभी तक उपलब्ध नहीं किया जा सका है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

भारतीय इतिहास कोश |लेखक: सच्चिदानन्द भट्टाचार्य |प्रकाशक: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |पृष्ठ संख्या: 302 |


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