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रांगेय राघव (जन्म: [[17 जनवरी]], 1923; मृत्यु: [[12 सितंबर]], 1962) असाधारण प्रतिभा के धनी रचनाकार थे। [[हिन्दी]] के विशिष्ट और बहुमुखी प्रतिभावालों में से एक थे। इनका मूल नाम टी.एन.बी.आचार्य (तिरूमल्लै नंबकम् वीरराघव आचार्य) था। [[हिन्दी साहित्य]] का सभंवत: ऐसा कोई अंग नहीं है, जहाँ हिन्दी साहित्य के साधक डॉ. रांगेय राघव ने अपनी साधना का प्रयोग न किया हो। ये गौर वर्ण, उन्नत ललाट, लम्बी नासिका और चेहरे पर गंभीरतामयी मुस्कान बिखेरे हुए हिन्दी साहित्य के अनन्य उपासक थे। वे [[रामानुजाचार्य]] परम्परा के तमिल देशीय आयंगर ब्राह्मण थे।  
==जन्म==  
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==जीवन परिचय==  
रांगेय राघव का जन्म 17 जनवरी, 1923 ई. में [[आगरा]] में हुआ था। पिता श्री रंगाचार्य के पूर्वज लगभग तीन सौ वर्ष पहले [[जयपुर]] और फिर [[भरतपुर]] के बयाना कस्बे में आकर रहने लगे थे। रांगेय राघव का जन्म हिन्दी प्रदेश में हुआ। उन्हें [[तमिल भाषा|तमिल]] और [[कन्नड़ भाषा]] का भी ज्ञान था।  
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रांगेय राघव का जन्म 17 जनवरी, 1923 ई. में [[आगरा]] में हुआ था। पिता श्री रंगाचार्य के पूर्वज लगभग तीन सौ वर्ष पहले [[जयपुर]] और फिर [[भरतपुर]] के बयाना कस्बे में आकर रहने लगे थे। रांगेय राघव का जन्म हिन्दी प्रदेश में हुआ। उन्हें [[तमिल भाषा|तमिल]] और [[कन्नड़ भाषा]] का भी ज्ञान था। रांगेय की शिक्षा आगरा में हुई थी। सेंट जॉन्स कॉलेज से 1944 में स्नातकोत्तर और 1949 में आगरा विश्वविद्यालय से गुरु गोरखनाथ पर शोध करके उन्होंने पी.एच.डी. की थी। रांगेय राघव का [[हिन्दी]], [[अंग्रेज़ी]], [[ब्रजभाषा|ब्रज]] और [[संस्कृत]] पर असाधारण अधिकार था।
==शिक्षा==
 
रांगेय की शिक्षा आगरा में हुई थी। सेंट जॉन्स कॉलेज से 1944 में स्नातकोत्तर और 1949 में आगरा विश्वविद्यालय से गुरु गोरखनाथ पर शोध करके उन्होंने पी.एच.डी. की थी। रांगेय राघव का हिन्दी, [[अंग्रेज़ी]], [[ब्रजभाषा|ब्रज]] और [[संस्कृत]] पर असाधारण अधिकार था।
 
 
==रचनाएँ==  
 
==रचनाएँ==  
 
रांगेय राघव हिन्दी के प्रगतिशील विचारों के लेखक थे, किन्तु मार्क्स के [[दर्शन]] को उन्होंने संशोधित रूप में ही स्वीकार किया। उन्होंने अल्प समय में ही कितने साहित्य का सृजन किया, इसका अनुमान इस विवरण से लगाया जा सकता है। उनके प्रकाशित ग्रन्थों में 42 उपन्यास, 11 कहानी, 12 आलोचनात्मक ग्रन्थ, 8 काव्य, 4 इतिहास, 6 समाजशास्त्र विषयक, 5 नाटक और लगभग 50 अनूदित पुस्तकें हैं। ये सब रचनाएँ उनके जीवन काल में प्रकाशित हो चुकी थीं। 39 वर्ष की कच्ची उम्र में इनका देहान्त हुआ, लगभग 20 पुस्तकें प्रकाशन की प्रतीक्षा में थीं। यद्यपि उन्होंने कुछ अंग्रेज़ी ग्रन्थों के भी अनुवाद किए, किन्तु उनके अधिकांश साहित्य का परिवेश भारतीय संस्कृति और ऐतिहासिक जीवन ही रहा है।  
 
रांगेय राघव हिन्दी के प्रगतिशील विचारों के लेखक थे, किन्तु मार्क्स के [[दर्शन]] को उन्होंने संशोधित रूप में ही स्वीकार किया। उन्होंने अल्प समय में ही कितने साहित्य का सृजन किया, इसका अनुमान इस विवरण से लगाया जा सकता है। उनके प्रकाशित ग्रन्थों में 42 उपन्यास, 11 कहानी, 12 आलोचनात्मक ग्रन्थ, 8 काव्य, 4 इतिहास, 6 समाजशास्त्र विषयक, 5 नाटक और लगभग 50 अनूदित पुस्तकें हैं। ये सब रचनाएँ उनके जीवन काल में प्रकाशित हो चुकी थीं। 39 वर्ष की कच्ची उम्र में इनका देहान्त हुआ, लगभग 20 पुस्तकें प्रकाशन की प्रतीक्षा में थीं। यद्यपि उन्होंने कुछ अंग्रेज़ी ग्रन्थों के भी अनुवाद किए, किन्तु उनके अधिकांश साहित्य का परिवेश भारतीय संस्कृति और ऐतिहासिक जीवन ही रहा है।  
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==हिंदी के शेक्सपीयर==
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शायद बहुत कम लोग यह जानते होंगे कि हिन्दी साहित्य का यह अनूठा व्यक्तित्व वस्तुत: [[तमिल भाषा|तमिल]] भाषी था, जिसने हिन्दी साहित्य और भाषा की सेवा करके अपने अलौकिक प्रतिभा से हिन्दी के 'शेक्सपीयर' की संज्ञा ग्रहण की। रांगेय राघव नाम के पीछे उनके व्यक्तित्व और साहित्य में दृष्टिगत होने वाली स्मन्वय की भावना परिलक्षित होती है। अपने पिता रंगाचार्य के नाम से उन्होंने रांगेय स्वीकार किया और अपने स्वयं के नाम राघवाचार्य से राघव शब्द लेकर अपना नाम रांगेय राघव रख लिया। उनके साहित्य में जैसे सादगी परिलक्षित होती है वैसे ही उनका जीवन सीधा-सधा और सादगीपूर्ण रहा है।<ref name="साहित्य कुञ्ज">{{cite web |url=http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/M/MCKatarpanch/Hindi_ke_Shekspear_Aalekh.htm |title=हिन्दी के शेक्सपीयर: तमिल भाषी हिन्दी साधक - रांगेय राघव |accessmonthday=22 जनवरी |accessyear=2013 |last=कटरपंच  |first=एम.सी. |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=साहित्य कुञ्ज |language=हिंदी }} </ref>
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====साहित्य की साधना====
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[[भरतपुर ज़िला|भरतपुर ज़िले]] में एक तहसील है वैर। शहर के कोलाहल से दूर प्राकृतिक वातावरण, ग्रामीण सादगी और संस्कृति तथा वहाँ के वातावरण की अद्‌भुत शक्ति ने रांगेय राघव को साहित्य की साधना में इस सीमा तक प्रयुक्त किया कि वह उस छोटी सी नगरी वैर में ही बस गये। वैर भरतपुर के जाट राजाओं के एक छोटे से क़िले के कारण तो प्रसिद्ध है ही, परन्तु वहाँ [[तमिलनाडु]] के स्वामी रंगाचार्य का दक्षिण शैली का सीतारामजी का मंदिर भी बहुत प्रसिद्ध है। इस मंदिर के महंत डॉ. रांगेय राघव के बड़े भाई रहे हैं। मंदिर की शाला में बिल्कुल तपस्वी जैसा जीवन व्यतीत करने वाले तमिल भाषी व्यक्ति ने हिन्दी साहित्य की देवी की पुजारी की तरह आराधना-अर्चना की। नारियल की जटाओं के गद्दे पर लेटे-लेटे और अपने पैर के अँगूठे में छत पर टंगे पंखे की डोरी को बाँधकर हिलाते हुए वह घंटों तक साहित्य की विभिन्न विधाओं और अयामों के बारे में सोचते रहते थे। जब डॉ. रांगेय राघव सोचते तो सोचते ही रहते थे - कई दिनों तक न वह कुछ लिखते और न पढ़ते। और जब उन्हें पढ़ने की धुन सवार होती तो वह लगातार कई दिनों तक पढ़ते ही रहते। सोचने और पढ़ने के बाद जब कभी उनका मूड बनता तो वह लिखने बैठ जाते और निरन्तर लिखते ही रहते। लिखने की उनकी कला अद्‌भुत थी। एक बार तो लिखने बैठे तो वह उस रचना को समाप्त करके ही छोड़ते थे। इसी कारण जितनी कृतियाँ उन्होंने लिखीं वह सब पूरी की पूरी लिखी गईं। उनका अंतिम उपन्यास 'आखिरी आवाज़' कुछ अर्थों में इस कारण अधूरा रह गया कि वह कई महीनों तक मौत से जूझते रहे। काश ऐसा होता कि वह मौत से जूझने के बाद जीवित रहे होते तो शायद एक और उपन्यास मौत के संघर्ष के बारे में हिन्दी साहित्य को मिल गया होता।<ref name="साहित्य कुञ्ज"/>
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====जानपील सिगरेट====
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सिगरेट पीने का उन्हें बेहद शौक था। वह सिगरेट पीते तो केवल जानपील ही, दूसरी सिगरेट को वह हाथ तक नहीं लगाते थे। एक दर्जन सिगरेट की डिब्बी उनकी लिखने की मेज पर रखी रहती थीं और ऐश-ट्रे के नाम पर रखा गया चीनी का प्याला दिन में तीन-चार बार साफ करना पड़ता। उनका कमरा था कि सिगरेट की गंध और धुएँ से भरा रहता था। किसी भी आँगन्तुक ने आकर उनके कमरे का दरवाजा खोला तो सिगरेट का एक भभका उसे लगता, परन्तु हिन्दी साहित्य के इस साधक के लिये सिगरेट पीना एक आवश्यकता बन गई थी। बिना सिगरेट पिये वह कुछ भी कर सकने में असमर्थ थे। परन्तु शायद सिगरेट पीने की यह आदत ही उनकी मृत्यु का कारण बनी, जिसने 1963 में [[हिन्दी]] के इस अनुपम योद्धा को हमसे हमेशा के लिये छीन लिया।<ref name="साहित्य कुञ्ज"/>
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====शेक्सपीयर के नाटकों का अनुवाद====
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विदेशी साहित्य को हिन्दी भाषा के माध्यम से हिन्दी भाषी जनता तक पहुँचाने का महान कार्य डॉ. रांगेय राघव ने किया। [[अंग्रेज़ी]] भाषा के माध्यम से कुछ फ्राँसिसी और जर्मन साहित्यकारों का अध्ययन करने के पश्चात्‌ उनके बारे में हिन्दी जगत को अवगत कराने का कार्य उन्होंने किया। विश्व प्रसिद्ध अंग्रेज़ी नाटककार शेक्सपीयर को तो उन्होंने पूरी तरह हिन्दी में उतार ही दिया। शेक्सपीयर की अनेक रचनाओं को हिन्दी में अनुवादित करके हिन्दी जगत को विश्व की महान कृतियों से धनी बनाया। शेक्सपीयर को दुखांत नाटकों में हेमलेट, ओथेलो और मैकबेथ को तो जिस खूबी से डॉ.-रांगेय राघव ने हिन्दी के पाँडाल में उतारा वह उनके जीवन की विशेष उपलब्धियों में गिनी जाती है। उनके अनुवाद की यह विशेषता थीं कि वह अनुवाद न लगकर मूल रचना ही प्रतीत होती है। शेक्सपीयर की लब्ध प्रतिष्ठित कृतियों को हिन्दी में प्रस्तुत कर उनकी भावनाओं के अनुरूप शेक्सपीयर को हिन्दी साहित्य में प्रकट करने का श्रेय डॉ. रांगेय राघव को ही जाता है और इसी कारण वह हिन्दी के शेक्सपीयर कहे जाते हैं।<ref name="साहित्य कुञ्ज"/>
 
==पुरस्कार==  
 
==पुरस्कार==  
रांगेय राघव को हिंदुस्तानी अकादमी पुरस्कार (1947), डालमिया पुरस्कार (1954), उत्तर प्रदेश शासन पुरस्कार (1957 तथा 1959), राजस्थान साहित्य अकादमी पुरस्कार (1961) और इनके निधन के बाद महात्मा गाँधी पुरस्कार (1966) से सम्मानित किया। अनेक रचनाओं का हिंदीतर भारतीय और विदेशी भाषाओं में भी अनुवाद किया।
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* हिंदुस्तानी अकादमी पुरस्कार (1947)
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* डालमिया पुरस्कार (1954)
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* उत्तर प्रदेश शासन पुरस्कार (1957 तथा 1959)
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* राजस्थान साहित्य अकादमी पुरस्कार (1961)
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* महात्मा गाँधी पुरस्कार<ref>यह पुरस्कार इन्हें मरणोपरांत दिया गया था।</ref> (1966)  
 
==निधन==  
 
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रांगेय राघव का निधन मात्र 39 वर्ष की उम्र में [[मुंबई]] में सन् 1962 में हो गया था। इस अद्भुत रचनाकार को मृत्यु ने इतनी जल्दी न उठा लिया होता तो वे और भी नये मापदण्ड स्थापित करते।
 
रांगेय राघव का निधन मात्र 39 वर्ष की उम्र में [[मुंबई]] में सन् 1962 में हो गया था। इस अद्भुत रचनाकार को मृत्यु ने इतनी जल्दी न उठा लिया होता तो वे और भी नये मापदण्ड स्थापित करते।
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12:20, 22 जनवरी 2013 का अवतरण

रांगेय राघव
रांगेय राघव
पूरा नाम तिरूमल्लै नंबकम् वीरराघव आचार्य (टी.एन.बी.आचार्य)
जन्म 17 जनवरी, 1923
जन्म भूमि आगरा, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 12 सितंबर, 1962
मृत्यु स्थान मुंबई, महाराष्ट्र
पालक माता-पिता पिता- श्री रंगाचार्य
भाषा हिन्दी, अंग्रेज़ी, ब्रज और संस्कृत
विद्यालय सेंट जॉन्स कॉलेज, आगरा विश्वविद्यालय
शिक्षा स्नातकोत्तर, पी.एच.डी
पुरस्कार-उपाधि हिंदुस्तानी अकादमी पुरस्कार, डालमिया पुरस्कार, उत्तर प्रदेश शासन पुरस्कार, राजस्थान साहित्य अकादमी पुरस्कार
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी इनका मूल नाम टी.एन.बी.आचार्य (तिरूमल्लै नंबकम् वीरराघव आचार्य) था।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

रांगेय राघव (जन्म: 17 जनवरी, 1923; मृत्यु: 12 सितंबर, 1962) असाधारण प्रतिभा के धनी रचनाकार थे। हिन्दी के विशिष्ट और बहुमुखी प्रतिभावालों में से एक थे। इनका मूल नाम टी.एन.बी.आचार्य (तिरूमल्लै नंबकम् वीरराघव आचार्य) था। हिन्दी साहित्य का सभंवत: ऐसा कोई अंग नहीं है, जहाँ हिन्दी साहित्य के साधक डॉ. रांगेय राघव ने अपनी साधना का प्रयोग न किया हो। ये गौर वर्ण, उन्नत ललाट, लम्बी नासिका और चेहरे पर गंभीरतामयी मुस्कान बिखेरे हुए हिन्दी साहित्य के अनन्य उपासक थे। वे रामानुजाचार्य परम्परा के तमिल देशीय आयंगर ब्राह्मण थे।

जीवन परिचय

रांगेय राघव का जन्म 17 जनवरी, 1923 ई. में आगरा में हुआ था। पिता श्री रंगाचार्य के पूर्वज लगभग तीन सौ वर्ष पहले जयपुर और फिर भरतपुर के बयाना कस्बे में आकर रहने लगे थे। रांगेय राघव का जन्म हिन्दी प्रदेश में हुआ। उन्हें तमिल और कन्नड़ भाषा का भी ज्ञान था। रांगेय की शिक्षा आगरा में हुई थी। सेंट जॉन्स कॉलेज से 1944 में स्नातकोत्तर और 1949 में आगरा विश्वविद्यालय से गुरु गोरखनाथ पर शोध करके उन्होंने पी.एच.डी. की थी। रांगेय राघव का हिन्दी, अंग्रेज़ी, ब्रज और संस्कृत पर असाधारण अधिकार था।

रचनाएँ

रांगेय राघव हिन्दी के प्रगतिशील विचारों के लेखक थे, किन्तु मार्क्स के दर्शन को उन्होंने संशोधित रूप में ही स्वीकार किया। उन्होंने अल्प समय में ही कितने साहित्य का सृजन किया, इसका अनुमान इस विवरण से लगाया जा सकता है। उनके प्रकाशित ग्रन्थों में 42 उपन्यास, 11 कहानी, 12 आलोचनात्मक ग्रन्थ, 8 काव्य, 4 इतिहास, 6 समाजशास्त्र विषयक, 5 नाटक और लगभग 50 अनूदित पुस्तकें हैं। ये सब रचनाएँ उनके जीवन काल में प्रकाशित हो चुकी थीं। 39 वर्ष की कच्ची उम्र में इनका देहान्त हुआ, लगभग 20 पुस्तकें प्रकाशन की प्रतीक्षा में थीं। यद्यपि उन्होंने कुछ अंग्रेज़ी ग्रन्थों के भी अनुवाद किए, किन्तु उनके अधिकांश साहित्य का परिवेश भारतीय संस्कृति और ऐतिहासिक जीवन ही रहा है।

हिंदी के शेक्सपीयर

शायद बहुत कम लोग यह जानते होंगे कि हिन्दी साहित्य का यह अनूठा व्यक्तित्व वस्तुत: तमिल भाषी था, जिसने हिन्दी साहित्य और भाषा की सेवा करके अपने अलौकिक प्रतिभा से हिन्दी के 'शेक्सपीयर' की संज्ञा ग्रहण की। रांगेय राघव नाम के पीछे उनके व्यक्तित्व और साहित्य में दृष्टिगत होने वाली स्मन्वय की भावना परिलक्षित होती है। अपने पिता रंगाचार्य के नाम से उन्होंने रांगेय स्वीकार किया और अपने स्वयं के नाम राघवाचार्य से राघव शब्द लेकर अपना नाम रांगेय राघव रख लिया। उनके साहित्य में जैसे सादगी परिलक्षित होती है वैसे ही उनका जीवन सीधा-सधा और सादगीपूर्ण रहा है।[1]

साहित्य की साधना

भरतपुर ज़िले में एक तहसील है वैर। शहर के कोलाहल से दूर प्राकृतिक वातावरण, ग्रामीण सादगी और संस्कृति तथा वहाँ के वातावरण की अद्‌भुत शक्ति ने रांगेय राघव को साहित्य की साधना में इस सीमा तक प्रयुक्त किया कि वह उस छोटी सी नगरी वैर में ही बस गये। वैर भरतपुर के जाट राजाओं के एक छोटे से क़िले के कारण तो प्रसिद्ध है ही, परन्तु वहाँ तमिलनाडु के स्वामी रंगाचार्य का दक्षिण शैली का सीतारामजी का मंदिर भी बहुत प्रसिद्ध है। इस मंदिर के महंत डॉ. रांगेय राघव के बड़े भाई रहे हैं। मंदिर की शाला में बिल्कुल तपस्वी जैसा जीवन व्यतीत करने वाले तमिल भाषी व्यक्ति ने हिन्दी साहित्य की देवी की पुजारी की तरह आराधना-अर्चना की। नारियल की जटाओं के गद्दे पर लेटे-लेटे और अपने पैर के अँगूठे में छत पर टंगे पंखे की डोरी को बाँधकर हिलाते हुए वह घंटों तक साहित्य की विभिन्न विधाओं और अयामों के बारे में सोचते रहते थे। जब डॉ. रांगेय राघव सोचते तो सोचते ही रहते थे - कई दिनों तक न वह कुछ लिखते और न पढ़ते। और जब उन्हें पढ़ने की धुन सवार होती तो वह लगातार कई दिनों तक पढ़ते ही रहते। सोचने और पढ़ने के बाद जब कभी उनका मूड बनता तो वह लिखने बैठ जाते और निरन्तर लिखते ही रहते। लिखने की उनकी कला अद्‌भुत थी। एक बार तो लिखने बैठे तो वह उस रचना को समाप्त करके ही छोड़ते थे। इसी कारण जितनी कृतियाँ उन्होंने लिखीं वह सब पूरी की पूरी लिखी गईं। उनका अंतिम उपन्यास 'आखिरी आवाज़' कुछ अर्थों में इस कारण अधूरा रह गया कि वह कई महीनों तक मौत से जूझते रहे। काश ऐसा होता कि वह मौत से जूझने के बाद जीवित रहे होते तो शायद एक और उपन्यास मौत के संघर्ष के बारे में हिन्दी साहित्य को मिल गया होता।[1]

जानपील सिगरेट

सिगरेट पीने का उन्हें बेहद शौक था। वह सिगरेट पीते तो केवल जानपील ही, दूसरी सिगरेट को वह हाथ तक नहीं लगाते थे। एक दर्जन सिगरेट की डिब्बी उनकी लिखने की मेज पर रखी रहती थीं और ऐश-ट्रे के नाम पर रखा गया चीनी का प्याला दिन में तीन-चार बार साफ करना पड़ता। उनका कमरा था कि सिगरेट की गंध और धुएँ से भरा रहता था। किसी भी आँगन्तुक ने आकर उनके कमरे का दरवाजा खोला तो सिगरेट का एक भभका उसे लगता, परन्तु हिन्दी साहित्य के इस साधक के लिये सिगरेट पीना एक आवश्यकता बन गई थी। बिना सिगरेट पिये वह कुछ भी कर सकने में असमर्थ थे। परन्तु शायद सिगरेट पीने की यह आदत ही उनकी मृत्यु का कारण बनी, जिसने 1963 में हिन्दी के इस अनुपम योद्धा को हमसे हमेशा के लिये छीन लिया।[1]

शेक्सपीयर के नाटकों का अनुवाद

विदेशी साहित्य को हिन्दी भाषा के माध्यम से हिन्दी भाषी जनता तक पहुँचाने का महान कार्य डॉ. रांगेय राघव ने किया। अंग्रेज़ी भाषा के माध्यम से कुछ फ्राँसिसी और जर्मन साहित्यकारों का अध्ययन करने के पश्चात्‌ उनके बारे में हिन्दी जगत को अवगत कराने का कार्य उन्होंने किया। विश्व प्रसिद्ध अंग्रेज़ी नाटककार शेक्सपीयर को तो उन्होंने पूरी तरह हिन्दी में उतार ही दिया। शेक्सपीयर की अनेक रचनाओं को हिन्दी में अनुवादित करके हिन्दी जगत को विश्व की महान कृतियों से धनी बनाया। शेक्सपीयर को दुखांत नाटकों में हेमलेट, ओथेलो और मैकबेथ को तो जिस खूबी से डॉ.-रांगेय राघव ने हिन्दी के पाँडाल में उतारा वह उनके जीवन की विशेष उपलब्धियों में गिनी जाती है। उनके अनुवाद की यह विशेषता थीं कि वह अनुवाद न लगकर मूल रचना ही प्रतीत होती है। शेक्सपीयर की लब्ध प्रतिष्ठित कृतियों को हिन्दी में प्रस्तुत कर उनकी भावनाओं के अनुरूप शेक्सपीयर को हिन्दी साहित्य में प्रकट करने का श्रेय डॉ. रांगेय राघव को ही जाता है और इसी कारण वह हिन्दी के शेक्सपीयर कहे जाते हैं।[1]

पुरस्कार

  • हिंदुस्तानी अकादमी पुरस्कार (1947)
  • डालमिया पुरस्कार (1954)
  • उत्तर प्रदेश शासन पुरस्कार (1957 तथा 1959)
  • राजस्थान साहित्य अकादमी पुरस्कार (1961)
  • महात्मा गाँधी पुरस्कार[2] (1966)

निधन

रांगेय राघव का निधन मात्र 39 वर्ष की उम्र में मुंबई में सन् 1962 में हो गया था। इस अद्भुत रचनाकार को मृत्यु ने इतनी जल्दी न उठा लिया होता तो वे और भी नये मापदण्ड स्थापित करते।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 कटरपंच, एम.सी.। हिन्दी के शेक्सपीयर: तमिल भाषी हिन्दी साधक - रांगेय राघव (हिंदी) (एच.टी.एम.एल) साहित्य कुञ्ज। अभिगमन तिथि: 22 जनवरी, 2013।
  2. यह पुरस्कार इन्हें मरणोपरांत दिया गया था।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख

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