जातकों में वर्णित श्रावस्ती

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गंधकुटी जेतवन विहार, श्रावस्ती

श्रावस्ती से भगवान बुद्ध के जीवन और कार्यों का विशेष संबंध था। उल्लेखनीय है कि बुद्ध ने अपने जीवन के अंतिम पच्चीस वर्षों के वर्षावास श्रावस्ती में ही व्यतीत किए थे। बौद्ध धर्म के प्रचार की दृष्टि से भी श्रावस्ती का महत्त्वपूर्ण स्थान था। भगवान बुद्ध ने प्रथम निकायों के 871 सुत्तों का उपदेश श्रावस्ती में दिया था, जिनमें 844 जेतवन में, 23 पुब्बाराम में और 4 श्रावस्ती के आस-पास के अन्य स्थानों में उपदिष्ट किए गए। बौद्ध धर्म प्रचार केंद्र के रूप में श्रावस्ती की ख्याति का ज्ञान यहाँ उपदिष्ट सूत्रों के आधार पर निश्चित हो जाता है।

जातकों में वर्णन

  • जातकों में श्रावस्ती का विशद वर्णन मिलता है। इनके अनुसार श्रावस्ती का धार्मिक वायुमंडल बौद्ध धर्म से अधिक प्रभावित था। इस नगर में गौतम बुद्ध के अनेक व्याख्यान हुए थे, जिनसे प्रभावित होकर समस्त वर्गों के अनेक व्यक्तियों ने इस धर्म को अपना लिया था।
  • नगर-श्रेष्ठी अनाथपिंडक बुद्ध का परम भक्त था। उसके घर में पाँच सौ भिक्षुओं के निमित्त प्रतिदिन भोजन तैयार कराया जाता था।[1] कहा जाता है कि अनाथपिंडक ने अपने द्वारा बनवाए हुए सभी भवनों को बौद्ध संघ को समर्पित कर दिया था। समर्पण की यह क्रिया बड़े समारोह के साथ संपादित हुई थी। इसमें उसने 18 करोड़ मुद्राएँ व्यय की थीं।[2] इन निवास गृहों में 'गंधकुटी', 'करेरिकुटी' तथा 'कोसंबकुटी' उल्लेखनीय हैं।
  • कोसंबकुटी एवं करेरिकुटी का नामकरण उसके समीप करेरि और कोसंब वृक्षों के नाम के आधार पर हुआ-

करेरिमंडपो तस्सा कुटिकाय द्वारेथितो तस्मा करेरिकुटिकाय द्वारेथितो तस्म करेरिकुटिका ति वुच्चति। कोसंबरुक्खस्स द्वारे थित्तता कोसंबकुटिका ति।[3]

  • गंधकुटी जेतवन के मध्य बनी हुई थी।[4]

सो मज्झे गंधकुटीं कारेसि।

  • पाटिकाराम नामक एक अन्य विहार भी श्रावस्ती के ही समीप था। जब सुनक्षत्र लिच्छवि पुत्र भिक्षु संघ को छोड़कर गया, तब भगवान बुद्ध इस विहार में ही निवास कर रहे थे।[5]
  • एक अन्य विहार राजकाराम था, जो पसेनादि (प्रसेनजित) द्वारा बनवाया गया था। यह नगर के दक्षिण-पश्चिम में स्थित था।[6] यहीं पर आम्रवनों के बीच एक बड़ा तालाब था, जिसे 'जेतवन पोक्खरणि' के नाम से जाना जाता था। इसके चारों तरफ़ उपवन इतने घने थे कि यह एक जंगल के समान प्रतीत होता था।[7] श्रावस्तीवासियों ने बुद्ध प्रमुख भिक्षु संघ को आतिथ्य सत्कार की इच्छा से दान दिया। उन्होंने विहार में एक धर्मघोष[8] नामक भिक्षु को नियुक्त किया।[9]
  • श्रावस्ती से व्यापार का भी उल्लेख जातकों में आया है। व्यापारियों द्वारा एक पुराने जलाशय को खोदने से लोहा, जस्ता, शीशा, रत्न, सोना, मुक्ता और बिल्लौर आदि धातुएँ प्राप्त हुई थीं।[10]

जरुदपानं खणमाना, वाणिजा उदकत्थका अजझगंसू अयोलोहं, तिपुसीसन्ची वाणिजा। रतनं जातरूपंच मुक्ता बेकुरिया बाहु॥

  • कुंभ जातक में श्रावस्ती में सामूहिक सुरा-उत्सव मनाने का उल्लेख मिलता है।[11]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जातक, भाग 4, पृष्ठ 91 (भदंत आनंद कौसल्यायन संस्करण
  2. तत्रैव, भाग 1, पृष्ठ 92
  3. सुगंलबिलासिनी, भाग 2, पृष्ठ 407
  4. तत्रैव, भाग 1, पृष्ठ 92
  5. तत्रैव, भाग 1, पृष्ठ 389
  6. तत्रैव, भाग 2, पृष्ठ 15
  7. जातक, भाग 4, पृष्ठ 228
  8. वह भिक्षु जो धर्मोपदेश की घोषणा किया करता था।
  9. जातक, (भदंत आनंद कौसल्यायन संस्करण), खंड तृतीय, पृष्ठ 15
  10. तत्रैव, पृष्ठ 24
  11. तत्रैव, भाग 5, पृष्ठ 98
  • ऐतिहासिक स्थानावली | विजयेन्द्र कुमार माथुर | वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग | मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार

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