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सआदत हसन मंटो (जन्म- [[11 मई]], [[1912]], समराला, [[पंजाब]]; मृत्यु- [[18 जनवरी]], [[1955]], [[लाहौर]] कहानीकार और लेखक थे। मंटो फ़िल्म और रेडियो पटकथा लेखक और पत्रकार भी थे।
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|मुख्य रचनाएँ=तमाशा, बू, ठंडा गोश्त,  टोबा टेक सिंह, खोल दो, घाटे का सौदा,  हलाल और झटका, ख़बरदार, करामात, बेख़बरी का फ़ायदा, पेशकश आदि।
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|विषय=[[कहानी]], फ़िल्म और रेडियो पटकथा लेखक, पत्रकार
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|अन्य जानकारी=सआदत हसन मंटो की गिनती ऐसे साहित्यकारों में की जाती है जिनकी कलम ने अपने वक़्त से आगे की ऐसी रचनाएँ लिख डालीं जिनकी गहराई को समझने की दुनिया आज भी कोशिश कर रही है।
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'''सआदत हसन मंटो''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Saadat Hasan Manto'', जन्म:[[11 मई]], [[1912]], समराला, [[पंजाब]]; मृत्यु: [[18 जनवरी]], [[1955]], [[लाहौर]]) [[कहानीकार]] और लेखक थे। मंटो फ़िल्म और रेडियो पटकथा लेखक और पत्रकार भी थे। मंटो की कहानियों की बीते दशक में जितनी चर्चा हुई है, उतनी शायद [[उर्दू]] और [[हिन्दी]] और शायद दुनिया के दूसरी [[भाषा|भाषाओं]] के कहानीकारों की कम ही हुई है। आंतोन चेखव के बाद मंटो ही थे, जिन्होंने अपनी कहानियों के दम पर अपनी जगह बना ली।
 
==जीवन परिचय==
 
==जीवन परिचय==
सआदत हसन मंटो की गिनती ऐसे साहित्यकारों में की जाती है जिनकी कलम ने अपने वक्त से आगे की ऐसी घटनाएँ लिख डालीं जिनकी गहराई को समझने की दुनिया आज भी कोशिश कर रही है।<ref name="वेबदुनिया">{{cite web |url=http://hindi.webdunia.com/%E0%A4%B8%E0%A4%86%E0%A4%A6%E0%A4%A4-%E0%A4%B9%E0%A4%B8%E0%A4%A8-%E0%A4%AE%E0%A4%82%E0%A4%9F%E0%A5%8B/%E0%A4%B8%E0%A4%86%E0%A4%A6%E0%A4%A4-%E0%A4%B9%E0%A4%B8%E0%A4%A8-%E0%A4%AE%E0%A4%82%E0%A4%9F%E0%A5%8B-%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%9D-%E0%A4%A8%E0%A4%B9%E0%A5%80%E0%A4%82-%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%88-%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE-1100610051_1.htm |title=सआदत हसन मंटो |accessmonthday=[[10 मई]] |accessyear=[[2011]] |last= |first= |authorlink= |format=एच टी एम |publisher=वेबदुनिया |language=[[हिन्दी]] }}</ref> प्रसिद्ध कहानीकार मंटो का जन्म 11 मई 1912 को पुश्तैनी बैरिस्टरों के परिवार में हुआ था। उनके पिता गुलाम हसन नामी बैरिस्टर और सेशंस जज थे। उनकी माता का नाम सरदार बेगम था, और मंटो उन्हें बीबीजान कहते थे। मंटो बचपन से ही बहुत होशियार और शरारती थे। मंटो ने एंट्रेंस इम्तहान दो बार फेल होने के बाद पास किया। इसकी एक वजह उनका उर्दू में कमज़ोर होना था। मंटो का विवाह सफ़िया से हुआ था। मंटो की तीन पुत्री हुई।  
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सआदत हसन मंटो की गिनती ऐसे साहित्यकारों में की जाती है जिनकी कलम ने अपने वक़्त से आगे की ऐसी रचनाएँ लिख डालीं जिनकी गहराई को समझने की दुनिया आज भी कोशिश कर रही है।<ref name="वेबदुनिया">{{cite web |url=http://hindi.webdunia.com/%E0%A4%B8%E0%A4%86%E0%A4%A6%E0%A4%A4-%E0%A4%B9%E0%A4%B8%E0%A4%A8-%E0%A4%AE%E0%A4%82%E0%A4%9F%E0%A5%8B/%E0%A4%B8%E0%A4%86%E0%A4%A6%E0%A4%A4-%E0%A4%B9%E0%A4%B8%E0%A4%A8-%E0%A4%AE%E0%A4%82%E0%A4%9F%E0%A5%8B-%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%9D-%E0%A4%A8%E0%A4%B9%E0%A5%80%E0%A4%82-%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%88-%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE-1100610051_1.htm |title=सआदत हसन मंटो |accessmonthday=[[10 मई]] |accessyear=[[2011]] |last= |first= |authorlink= |format=एच टी एम |publisher=वेबदुनिया |language=[[हिन्दी]] }}</ref> प्रसिद्ध कहानीकार मंटो का जन्म 11 मई 1912 को पुश्तैनी बैरिस्टरों के परिवार में हुआ था। उनके पिता ग़ुलाम हसन नामी बैरिस्टर और सेशन जज थे। उनकी माता का नाम सरदार बेगम था, और मंटो उन्हें बीबीजान कहते थे। मंटो बचपन से ही बहुत होशियार और शरारती थे। मंटो ने एंट्रेंस इम्तहान दो बार फेल होने के बाद पास किया। इसकी एक वजह उनका [[उर्दू]] में कमज़ोर होना था। मंटो का [[विवाह]] सफ़िया से हुआ था। जिनसे मंटो की तीन पुत्री हुई।  
 
   
 
   
उन्हीं दिनों के आसपास मंटो ने तीन-चार दोस्तों के साथ मिलकर एक ड्रामेटिक क्लब खोला था और आग़ा हश्र का एक ड्रामा स्टेज करने का इरादा किया था। "यह क्लब सिर्फ़ 15-20 दिन रहा था, इसलिए कि मंटो के पिता ने एक दिन धावा बोलकर हारमोनियम और तबले सब तोड़-फोड़ दिए थे और कह दिया  था, कि ऐसे वाहियात शग़ल उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं।"<ref name="गद्य कोश">{{cite web |url=http://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A4%86%E0%A4%A6%E0%A4%A4_%E0%A4%B9%E0%A4%B8%E0%A4%A8_%E0%A4%AE%E0%A4%82%E0%A4%9F%E0%A5%8B_/_%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%AF |title=सआदत हसन मंटो / परिचय  |accessmonthday=[[10 मई]] |accessyear=[[2011]] |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=गद्य कोश |language=[[हिन्दी]] }}</ref>
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उन्हीं दिनों के आसपास मंटो ने तीन-चार दोस्तों के साथ मिलकर एक ड्रामेटिक क्लब खोला था और आग़ा हश्र का एक नाटक प्रस्तुत करने का इरादा किया था। "यह क्लब सिर्फ़ 15-20 दिन रहा था, इसलिए कि मंटो के पिता ने एक दिन धावा बोलकर [[हारमोनियम]] और [[तबला|तबले]] सब तोड़-फोड़ दिए थे और कह दिया  था, कि ऐसे वाहियात काम उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं।"<ref name="गद्य कोश">{{cite web |url=http://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A4%86%E0%A4%A6%E0%A4%A4_%E0%A4%B9%E0%A4%B8%E0%A4%A8_%E0%A4%AE%E0%A4%82%E0%A4%9F%E0%A5%8B_/_%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%AF |title=सआदत हसन मंटो / परिचय  |accessmonthday=[[10 मई]] |accessyear=[[2011]] |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=गद्य कोश |language=[[हिन्दी]] }}</ref>
  
मंटो की कहानियों की बीते दशक में जितनी चर्चा हुई है उतनी शायद उर्दू और हिंदी और शायद दुनिया के दूसरी भाषाओं के कहानीकारों की कम ही हुई है। चेख़व के बाद मंटो ही थे जिन्होंने अपनी कहानियों के दम पर अपनी जगह बना ली यानी उन्होंने कोई उपन्यास नहीं लिखा।<ref>{{cite web |url=http://www.brandbihar.com/hindi/literature/manto/manto.html |title=सआदत हसन मंटो |accessmonthday=[[10 मई]] |accessyear=[[2011]] |last= |first= |authorlink= |format=एच टी एम एल |publisher=ब्रांड बिहार |language=[[हिन्दी]] }}</ref>
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मंटो की कहानियों की बीते दशक में जितनी चर्चा हुई है उतनी शायद उर्दू और [[हिन्दी]] और शायद दुनिया के दूसरी [[भाषा|भाषाओं]] के कहानीकारों की कम ही हुई है। आंतोन चेखव के बाद मंटो ही थे जिन्होंने अपनी कहानियों के दम पर अपनी जगह बना ली।  उन्होंने जीवन में कोई उपन्यास नहीं लिखा।<ref>{{cite web |url=http://www.brandbihar.com/hindi/literature/manto/manto.html |title=सआदत हसन मंटो |accessmonthday=[[10 मई]] |accessyear=[[2011]] |last= |first= |authorlink= |format=एच टी एम एल |publisher=ब्रांड बिहार |language=[[हिन्दी]] }}</ref>
 
==शिक्षा==
 
==शिक्षा==
मंटो ने एंट्रेंस तक की पढ़ाई [[अमृतसर]]  के मुस्लिम हाईस्कूल में की थी। 1931 में उन्होंने हिंदू सभा कॉलेज में दाख़िला लिया। उन दिनों पूरे देश में और ख़ासतौर पर अमृतसर में आज़ादी का आंदोलन पूरे उभार पर था। जलियांवाला बाग़ का नरसंहार 1919 में हो चुका था जब मंटो की उम्र कुल सात साल की थी, लेकिन उनके बाल मन पर उसकी गहरी छाप थी।<ref name="गद्य कोश" />
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मंटो ने एंट्रेंस तक की पढ़ाई [[अमृतसर]]  के मुस्लिम हाईस्कूल में की थी। [[1931]] में उन्होंने हिंदू सभा कॉलेज में दाख़िला लिया। उन दिनों पूरे देश में और ख़ासतौर पर अमृतसर में आज़ादी का आंदोलन पूरे उभार पर था। [[जलियाँवाला बाग़]] का नरसंहार [[1919]] में हो चुका था जब मंटो की उम्र कुल सात साल की थी, लेकिन उनके बाल मन पर उसकी गहरी छाप थी।<ref name="गद्य कोश" />
 
==रचनाएँ==
 
==रचनाएँ==
 
==== 'तमाशा'====
 
==== 'तमाशा'====
सआदत हसन के क्राँतिकारी दिमाग़ और अतिसंवेदनशील हृदय ने उन्हें मंटो बना दिया और तब जलियाँवाला बाग़ की घटना से निकल कर कहानी 'तमाशा' आई। यह मंटो की पहली कहानी थी। क्रांतिकारी गतिविधियां बराबर जल रही थीं और गली-गली में “इंक़लाब ज़िदाबाद” के नारे सुनाई पड़ते थे। दूसरे नौजवानों की तरह मंटो भी चाहता था कि जुलूसों और जलसों में बढ़ चढ़कर हिस्सा ले और नारे लगाए, लेकिन वालिद की सख़्तीगीरी के सामने वह मन मसोसकर रह जाता। आख़िरकार उसका यह रुझान अदब से मुख़ातिब हो गया। उसने पहली रचना लिखी “तमाशा”, जिसमें जलियाँवाला नरसंहार को एक सात साल के बच्चे की नज़र से देखा गया है। इसके बाद कुछ और रचनाएँ भी उन्होंने क्रांतिकारी गतिविधियों के असर में लिखी।  
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सआदत हसन के क्राँतिकारी दिमाग़ और अतिसंवेदनशील हृदय ने उन्हें मंटो बना दिया और तब जलियाँवाला बाग़ की घटना से निकल कर कहानी 'तमाशा' आई। यह मंटो की पहली कहानी थी। क्रांतिकारी गतिविधियाँ बराबर चल रही थीं और गली-गली में “इंक़लाब ज़िदाबाद” के नारे सुनाई पड़ते थे। दूसरे नौजवानों की तरह मंटो भी चाहता था कि जुलूसों और जलसों में बढ़ चढ़कर हिस्सा ले और नारे लगाए, लेकिन पिता की सख़्ती के सामने वह मन मसोसकर रह जाता। आख़िरकार उनका यह रुझान अदब से मुख़ातिब हो गया। उन्होंने पहली रचना लिखी “तमाशा”, जिसमें जलियाँवाला नरसंहार को एक सात साल के बच्चे की नज़र से देखा गया है। इसके बाद कुछ और रचनाएँ भी उन्होंने क्रांतिकारी गतिविधियों के असर में लिखी।  
  
1932 में मंटो के पिता का देहांत हो गया। [[भगत सिंह]] को उससे पहले फाँसी दी जा चुकी मंटो ने अपने कमरे में पिता के फ़ोटो के नीचे भगत सिंह की मूर्ति रखी और कमरे के बाहर एक तख़्ती पर लिखा-“लाल कमरा।”<ref name="गद्य कोश" />
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[[1932]] में मंटो के पिता का देहांत हो गया। [[भगत सिंह]] को उससे पहले फाँसी दी जा चुकी थी। मंटो ने अपने कमरे में पिता के फ़ोटो के नीचे भगत सिंह की मूर्ति रखी और कमरे के बाहर एक तख़्ती पर लिखा-“लाल कमरा।”<ref name="गद्य कोश" />
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====अन्य कृतियाँ====
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; कुछ लेख
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*मैं क्या लिखता हूँ?
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*मैं अफ़साना क्यों कर लिखता हूँ?
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;कुछ कहानियाँ
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टोबा टेक सिंह, खोल दो, घाटे का सौदा, हलाल और झटका, ख़बरदार, करामात, बेख़बरी का फ़ायदा, पेशकश, कम्युनिज़्म, तमाशा, बू, ठंडा गोश्त, घाटे का सौदा,  हलाल और झटका, ख़बरदार, करामात, बेख़बरी का फ़ायदा, पेशकश, काली शलवार
 
====रूस के साम्यवादी साहित्य से प्रभावित====
 
====रूस के साम्यवादी साहित्य से प्रभावित====
मंटो का रूझान धीरे-धीरे रूसी साहित्य की ओर बढ़ने लगा। जिसका प्रभाव हमें उनके रचनाकर्म में दिखाई देता है। रूसी साम्यवादी साहित्य में उनकी दिलचस्पी बढ़ रही थी। मंटो की मुलाक़ात इन्हीं दिनों अब्दुल बारी नाम के एक पत्रकार से हुई, जिसने उन्हें रूसी साहित्य के साथ-साथ फ्रांसीसी साहित्य भी पढ़ने के लिए प्रेरित किया। इसके बाद मंटो ने विक्टर ह्यूगो, लॉर्ड लिटन, गोर्की, चेखव, पुश्किन, ऑस्कर वाइल्ड, मोपासां आदि का अध्ययन किया।
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मंटो का रुझान धीरे-धीरे रूसी साहित्य की ओर बढ़ने लगा। जिसका प्रभाव हमें उनके रचनाकर्म में दिखाई देता है। रूसी साम्यवादी साहित्य में उनकी दिलचस्पी बढ़ रही थी। मंटो की मुलाक़ात इन्हीं दिनों अब्दुल बारी नाम के एक पत्रकार से हुई, जिसने उन्हें रूसी साहित्य के साथ-साथ [[फ़्रांसीसी]] साहित्य भी पढ़ने के लिए प्रेरित किया। इसके बाद मंटो ने '''विक्टर ह्यूगो, लॉर्ड लिटन, गोर्की, आंतोन चेखव, पुश्किन, ऑस्कर वाइल्ड, मोपासां''' आदि का अध्ययन किया।
  
अब्दुल बारी की प्रेरणा पर ही उन्होंने विक्टर ह्यूगो के एक ड्रामे "द लास्ट डेज़ ऑफ़ ए कंडेम्ड" का उर्दू में अनुवाद किया, जो “सरगुज़श्त-ए-असीर” शीर्षक से लाहौर से प्रकाशित हुआ। यह ड्रामा ह्यूगो ने मृत्युदंड के विरोध में लिखा था, जिसका अनुवाद करते हुए मंटो ने महसूस किया कि इसमें जो बात कही गई है वह उसके दिल के बहुत क़रीब है। अगर मंटो के अफ़सानों को ध्यान से पढ़ा जाए, तो यह समझना मुश्किल नहीं होगा कि इस ड्रामे ने उसके रचनाकर्म को कितना प्रभावित किया था। विक्टर ह्यूगो के इस अनुवाद के बाद मंटो ने ऑस्कर वाइल्ड से ड्रामे “वेरा” का अनुवाद शुरू किया। दो ड्रामों का अनुवाद कर लेने के बाद मंटो ने अब्दुल बारी के ही कहने पर रूसी कहानियों का एक संकलन तैयार किया और उन्हें उर्दू में रूपांतरित करके “रूसी अफ़साने” शीर्षक से प्रकाशित करवाया।<ref name="गद्य कोश" />
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अब्दुल बारी की प्रेरणा पर ही उन्होंने विक्टर ह्यूगो के एक ड्रामे "द लास्ट डेज़ ऑफ़ ए कंडेम्ड" का उर्दू में अनुवाद किया, जो “सरगुज़श्त-ए-असीर” शीर्षक से [[लाहौर]] से प्रकाशित हुआ। यह ड्रामा ह्यूगो ने मृत्युदंड के विरोध में लिखा था, जिसका अनुवाद करते हुए मंटो ने महसूस किया कि इसमें जो बात कही गई है वह उसके दिल के बहुत क़रीब है। अगर मंटो के कहानियों को ध्यान से पढ़ा जाए, तो यह समझना मुश्किल नहीं होगा कि इस ड्रामे ने उसके रचनाकर्म को कितना प्रभावित किया था। विक्टर ह्यूगो के इस अनुवाद के बाद मंटो ने ऑस्कर वाइल्ड से ड्रामे “वेरा” का अनुवाद शुरू किया। दो ड्रामों का अनुवाद कर लेने के बाद मंटो ने अब्दुल बारी के ही कहने पर रूसी कहानियों का एक संकलन तैयार किया और उन्हें उर्दू में रूपांतरित करके “रूसी अफ़साने” शीर्षक से प्रकाशित करवाया।<ref name="गद्य कोश" />
 
====रचनात्मकता====  
 
====रचनात्मकता====  
एक तरफ मंटो की साहित्यिक गतिविधियाँ चल रही थीं और दूसरी तरफ उनके दिल में आगे पढ़ने की ख़्वाहिश पैदा हो गई। आख़िर फरवरी 1934 को 22 साल की उम्र में उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में दाख़िला लिया। यह यूनिवर्सिटी उन दिनों प्रगतिशील मुस्लिम नौजवानों का गढ़ बनी हुई थी। यहीं मंटो की मुलाक़ात अली सरदार जाफ़री से  हुई और यहाँ के माहौल ने उसके मन में कुलबुलाती रचनात्मकता को उकसाया। मंटो ने कहानियाँ लिखना शुरू कर दिया। “तमाशा” के बाद कहानी “इनक़िलाब पसंद” (1935) नाम से लिखी, जो अलीगढ़ मैगज़ीन में प्रकाशित हुई।<ref name="गद्य कोश" />
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एक तरफ मंटो की साहित्यिक गतिविधियाँ चल रही थीं और दूसरी तरफ उनके दिल में आगे पढ़ने की ख़्वाहिश पैदा हो गई। आख़िर [[फ़रवरी]], [[1934]] को 22 साल की उम्र में उन्होंने [[अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय|अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी]] में दाख़िला लिया। यह यूनिवर्सिटी उन दिनों प्रगतिशील मुस्लिम नौजवानों का गढ़ बनी हुई थी। यहीं मंटो की मुलाक़ात [[अली सरदार जाफ़री]] से  हुई और यहाँ के माहौल ने उसके मन में कुलबुलाती रचनात्मकता को उकसाया। मंटो ने कहानियाँ लिखना शुरू कर दिया। “तमाशा” के बाद कहानी “इनक़िलाब पसंद” ([[1935]]) नाम से लिखी, जो अलीगढ़ मैगज़ीन में प्रकाशित हुई।<ref name="गद्य कोश" />
 
==कार्यक्षेत्र==
 
==कार्यक्षेत्र==
1936 में मंटो का पहला मौलिक उर्दू कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ, उसका शीर्षक था “आतिशपारे”। अलीगढ़ में मंटो अधिक नहीं ठहर सके और एक साल पूरा होने से पहले ही अमृतसर लौट गये। वहाँ से वह लाहौर चले गये, जहाँ उन्होंने कुछ दिन “पारस” नाम के एक अख़बार में काम किया और कुछ दिन के लिए “मुसव्विर” नामक साप्ताहिक का संपादन किया। जनवरी 1941 में दिल्ली आकर ऑल इंडिया रेडियो में काम करना शुरु किया। दिल्ली में मंटो सिर्फ़ 17 महीने रहे, लेकिन यह सफर उनकी रचनात्मकता का स्वर्णकाल था। यहाँ उनके रेडियो-नाटकों के चार संग्रह प्रकाशित हुए 'आओ', 'मंटो के ड्रामे', 'जनाज़े' तथा 'तीन औरतें'। उसके विवादास्पद  'धुआँ' और समसामियक विषयों पर लिखे गए लेखों का संग्रह 'मंटो के मज़ामीन' भी दिल्ली-प्रवास के दौरान ही प्रकाशित हुआ। मंटो जुलाई 1942 में लाहौर को अलविदा कहकर बंबई पहुँच गये। जनवरी 1948 तक बंबई में रहे और कुछ पत्रिकाओं का संपादन तथा फ़िल्मों के लिए लेखन का कार्य किया।<ref name="गद्य कोश" />  
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[[1936]] में मंटो का पहला मौलिक उर्दू कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ, उसका शीर्षक था “आतिशपारे”। [[अलीगढ़]] में मंटो अधिक नहीं ठहर सके और एक साल पूरा होने से पहले ही [[अमृतसर]] लौट गये। वहाँ से वह लाहौर चले गये, जहाँ उन्होंने कुछ दिन “पारस” नाम के एक अख़बार में काम किया और कुछ दिन के लिए “मुसव्विर” नामक साप्ताहिक का संपादन किया। [[जनवरी]], [[1941]] में [[दिल्ली]] आकर ऑल इंडिया रेडियो में काम करना शुरू किया। दिल्ली में मंटो सिर्फ़ 17 महीने रहे, लेकिन यह सफर उनकी रचनात्मकता का स्वर्णकाल था। यहाँ उनके रेडियो-नाटकों के चार संग्रह प्रकाशित हुए 'आओ', 'मंटो के ड्रामे', 'जनाज़े' तथा 'तीन औरतें'। उसके विवादास्पद  'धुआँ' और समसामियक विषयों पर लिखे गए लेखों का संग्रह 'मंटो के मज़ामीन' भी दिल्ली-प्रवास के दौरान ही प्रकाशित हुआ। मंटो [[जुलाई]], [[1942]] में लाहौर को अलविदा कहकर [[बंबई]] पहुँच गये। [[जनवरी]], [[1948]] तक बंबई में रहे और कुछ पत्रिकाओं का संपादन तथा फ़िल्मों के लिए लेखन का कार्य किया।<ref name="गद्य कोश" />
 
==पाकिस्तान यात्रा==
 
==पाकिस्तान यात्रा==
1948 के बाद मंटो पाकिस्तान चले गए। पाकिस्तान में उनके 14 कहानी संग्रह प्रकाशित हुए जिनमें 161 कहानियाँ संग्रहित हैं। इन कहानियों में सियाह हाशिए, नंगी आवाज़ें, लाइसेंस, खोल दो, टेटवाल का कुत्ता, मम्मी, टोबा टेक सिंह, फुंदने, बिजली पहलवान, बू, ठंडा गोश्त, काली शलवार और हतक जैसी चर्चित कहानियाँ शामिल हैं। जिनमें कहानी बू, काली शलवार, ऊपर-नीचे, दरमियाँ, ठंडा गोश्त, धुआँ पर लंबे मुकदमे चले। हालाँकि इन मुकदमों से मंटो मानसिक रूप से परेशान ज़रूर हुए लेकिन उनके तेवर ज्यों के त्यों थे।
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[[चित्र:Saadat hasan.gif|thumb|250px| [[पाकिस्तान]] में मंटो की स्मृति में जारी [[डाक टिकट]]]]
==मुशर्रफ आलम जौकी के अनुसार==
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[[1948]] के बाद मंटो [[पाकिस्तान]] चले गए। पाकिस्तान में उनके 14 कहानी संग्रह प्रकाशित हुए जिनमें 161 कहानियाँ संग्रहित हैं। इन कहानियों में सियाह हाशिए, नंगी आवाज़ें, लाइसेंस, खोल दो, टेटवाल का कुत्ता, मम्मी, टोबा टेक सिंह, फुंदने, बिजली पहलवान, बू, ठंडा गोश्त, काली शलवार और हतक जैसी चर्चित कहानियाँ शामिल हैं। जिनमें कहानी बू, काली शलवार, ऊपर-नीचे, दरमियाँ, ठंडा गोश्त, धुआँ पर लंबे मुक़दमे चले। हालाँकि इन मुक़दमों से मंटो मानसिक रूप से परेशान ज़रूर हुए लेकिन उनके तेवर ज्यों के त्यों थे।
उर्दू अफसानानिगार मुशर्रफ आलम जौकी के अनुसार दुनिया अब धीरे-धीरे मंटो को समझ रही है और उन पर भारत और पाकिस्तान में बहुत काम हो रहा है लेकिन ऐसा लगता है कि मंटो को पूरी तरह समझ पाने के लिये 100 साल भी कम हैं।
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====मुशर्रफ आलम जौकी के अनुसार====
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उर्दू अफ़सानानिगार मुशर्रफ़ आलम जौकी के अनुसार दुनिया अब धीरे-धीरे मंटो को समझ रही है और उन पर [[भारत]] और [[पाकिस्तान]] में बहुत काम हो रहा है लेकिन ऐसा लगता है कि मंटो को पूरी तरह समझ पाने के लिये 100 साल भी कम हैं। जौकी के मुताबिक़ शुरुआत में मंटो को दंगों, फ़िरकावाराना वारदात और वेश्याओं पर कहानियाँ लिखने वाला सामान्य सा साहित्यकार माना गया था लेकिन दरअसल मंटो की कहानियाँ अपने अंत के साथ खत्म नहीं होती हैं। वे अपने पीछे इंसान को झकझोर देने वाली सच्चाइयाँ छोड़ जाती हैं। उनकी सपाट बयानी वाली कहानियाँ फ़िक्र के आसमान को छू लेती हैं।<ref name="वेबदुनिया" />
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==मृत्यु==
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09:50, 11 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण

सआदत हसन मंटो
Saadat-Hasan-Manto.jpg
पूरा नाम सआदत हसन
अन्य नाम मंटो
जन्म 11 मई, 1912
जन्म भूमि समराला, पंजाब
मृत्यु 18 जनवरी, 1955
मृत्यु स्थान लाहौर, पंजाब
अभिभावक ग़ुलाम हसन, सरदार बेगम
पति/पत्नी सफ़िया
संतान तीन पुत्री
कर्म भूमि भारत
मुख्य रचनाएँ तमाशा, बू, ठंडा गोश्त, टोबा टेक सिंह, खोल दो, घाटे का सौदा, हलाल और झटका, ख़बरदार, करामात, बेख़बरी का फ़ायदा, पेशकश आदि।
विषय कहानी, फ़िल्म और रेडियो पटकथा लेखक, पत्रकार
भाषा हिन्दी, उर्दू
विद्यालय मुस्लिम हाईस्कूल, अमृतसर, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी सआदत हसन मंटो की गिनती ऐसे साहित्यकारों में की जाती है जिनकी कलम ने अपने वक़्त से आगे की ऐसी रचनाएँ लिख डालीं जिनकी गहराई को समझने की दुनिया आज भी कोशिश कर रही है।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

सआदत हसन मंटो (अंग्रेज़ी: Saadat Hasan Manto, जन्म:11 मई, 1912, समराला, पंजाब; मृत्यु: 18 जनवरी, 1955, लाहौर) कहानीकार और लेखक थे। मंटो फ़िल्म और रेडियो पटकथा लेखक और पत्रकार भी थे। मंटो की कहानियों की बीते दशक में जितनी चर्चा हुई है, उतनी शायद उर्दू और हिन्दी और शायद दुनिया के दूसरी भाषाओं के कहानीकारों की कम ही हुई है। आंतोन चेखव के बाद मंटो ही थे, जिन्होंने अपनी कहानियों के दम पर अपनी जगह बना ली।

जीवन परिचय

सआदत हसन मंटो की गिनती ऐसे साहित्यकारों में की जाती है जिनकी कलम ने अपने वक़्त से आगे की ऐसी रचनाएँ लिख डालीं जिनकी गहराई को समझने की दुनिया आज भी कोशिश कर रही है।[1] प्रसिद्ध कहानीकार मंटो का जन्म 11 मई 1912 को पुश्तैनी बैरिस्टरों के परिवार में हुआ था। उनके पिता ग़ुलाम हसन नामी बैरिस्टर और सेशन जज थे। उनकी माता का नाम सरदार बेगम था, और मंटो उन्हें बीबीजान कहते थे। मंटो बचपन से ही बहुत होशियार और शरारती थे। मंटो ने एंट्रेंस इम्तहान दो बार फेल होने के बाद पास किया। इसकी एक वजह उनका उर्दू में कमज़ोर होना था। मंटो का विवाह सफ़िया से हुआ था। जिनसे मंटो की तीन पुत्री हुई।

उन्हीं दिनों के आसपास मंटो ने तीन-चार दोस्तों के साथ मिलकर एक ड्रामेटिक क्लब खोला था और आग़ा हश्र का एक नाटक प्रस्तुत करने का इरादा किया था। "यह क्लब सिर्फ़ 15-20 दिन रहा था, इसलिए कि मंटो के पिता ने एक दिन धावा बोलकर हारमोनियम और तबले सब तोड़-फोड़ दिए थे और कह दिया था, कि ऐसे वाहियात काम उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं।"[2]

मंटो की कहानियों की बीते दशक में जितनी चर्चा हुई है उतनी शायद उर्दू और हिन्दी और शायद दुनिया के दूसरी भाषाओं के कहानीकारों की कम ही हुई है। आंतोन चेखव के बाद मंटो ही थे जिन्होंने अपनी कहानियों के दम पर अपनी जगह बना ली। उन्होंने जीवन में कोई उपन्यास नहीं लिखा।[3]

शिक्षा

मंटो ने एंट्रेंस तक की पढ़ाई अमृतसर के मुस्लिम हाईस्कूल में की थी। 1931 में उन्होंने हिंदू सभा कॉलेज में दाख़िला लिया। उन दिनों पूरे देश में और ख़ासतौर पर अमृतसर में आज़ादी का आंदोलन पूरे उभार पर था। जलियाँवाला बाग़ का नरसंहार 1919 में हो चुका था जब मंटो की उम्र कुल सात साल की थी, लेकिन उनके बाल मन पर उसकी गहरी छाप थी।[2]

रचनाएँ

'तमाशा'

सआदत हसन के क्राँतिकारी दिमाग़ और अतिसंवेदनशील हृदय ने उन्हें मंटो बना दिया और तब जलियाँवाला बाग़ की घटना से निकल कर कहानी 'तमाशा' आई। यह मंटो की पहली कहानी थी। क्रांतिकारी गतिविधियाँ बराबर चल रही थीं और गली-गली में “इंक़लाब ज़िदाबाद” के नारे सुनाई पड़ते थे। दूसरे नौजवानों की तरह मंटो भी चाहता था कि जुलूसों और जलसों में बढ़ चढ़कर हिस्सा ले और नारे लगाए, लेकिन पिता की सख़्ती के सामने वह मन मसोसकर रह जाता। आख़िरकार उनका यह रुझान अदब से मुख़ातिब हो गया। उन्होंने पहली रचना लिखी “तमाशा”, जिसमें जलियाँवाला नरसंहार को एक सात साल के बच्चे की नज़र से देखा गया है। इसके बाद कुछ और रचनाएँ भी उन्होंने क्रांतिकारी गतिविधियों के असर में लिखी।

1932 में मंटो के पिता का देहांत हो गया। भगत सिंह को उससे पहले फाँसी दी जा चुकी थी। मंटो ने अपने कमरे में पिता के फ़ोटो के नीचे भगत सिंह की मूर्ति रखी और कमरे के बाहर एक तख़्ती पर लिखा-“लाल कमरा।”[2]

अन्य कृतियाँ

कुछ लेख
  • मैं क्या लिखता हूँ?
  • मैं अफ़साना क्यों कर लिखता हूँ?
कुछ कहानियाँ

टोबा टेक सिंह, खोल दो, घाटे का सौदा, हलाल और झटका, ख़बरदार, करामात, बेख़बरी का फ़ायदा, पेशकश, कम्युनिज़्म, तमाशा, बू, ठंडा गोश्त, घाटे का सौदा, हलाल और झटका, ख़बरदार, करामात, बेख़बरी का फ़ायदा, पेशकश, काली शलवार

रूस के साम्यवादी साहित्य से प्रभावित

मंटो का रुझान धीरे-धीरे रूसी साहित्य की ओर बढ़ने लगा। जिसका प्रभाव हमें उनके रचनाकर्म में दिखाई देता है। रूसी साम्यवादी साहित्य में उनकी दिलचस्पी बढ़ रही थी। मंटो की मुलाक़ात इन्हीं दिनों अब्दुल बारी नाम के एक पत्रकार से हुई, जिसने उन्हें रूसी साहित्य के साथ-साथ फ़्रांसीसी साहित्य भी पढ़ने के लिए प्रेरित किया। इसके बाद मंटो ने विक्टर ह्यूगो, लॉर्ड लिटन, गोर्की, आंतोन चेखव, पुश्किन, ऑस्कर वाइल्ड, मोपासां आदि का अध्ययन किया।

अब्दुल बारी की प्रेरणा पर ही उन्होंने विक्टर ह्यूगो के एक ड्रामे "द लास्ट डेज़ ऑफ़ ए कंडेम्ड" का उर्दू में अनुवाद किया, जो “सरगुज़श्त-ए-असीर” शीर्षक से लाहौर से प्रकाशित हुआ। यह ड्रामा ह्यूगो ने मृत्युदंड के विरोध में लिखा था, जिसका अनुवाद करते हुए मंटो ने महसूस किया कि इसमें जो बात कही गई है वह उसके दिल के बहुत क़रीब है। अगर मंटो के कहानियों को ध्यान से पढ़ा जाए, तो यह समझना मुश्किल नहीं होगा कि इस ड्रामे ने उसके रचनाकर्म को कितना प्रभावित किया था। विक्टर ह्यूगो के इस अनुवाद के बाद मंटो ने ऑस्कर वाइल्ड से ड्रामे “वेरा” का अनुवाद शुरू किया। दो ड्रामों का अनुवाद कर लेने के बाद मंटो ने अब्दुल बारी के ही कहने पर रूसी कहानियों का एक संकलन तैयार किया और उन्हें उर्दू में रूपांतरित करके “रूसी अफ़साने” शीर्षक से प्रकाशित करवाया।[2]

रचनात्मकता

एक तरफ मंटो की साहित्यिक गतिविधियाँ चल रही थीं और दूसरी तरफ उनके दिल में आगे पढ़ने की ख़्वाहिश पैदा हो गई। आख़िर फ़रवरी, 1934 को 22 साल की उम्र में उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में दाख़िला लिया। यह यूनिवर्सिटी उन दिनों प्रगतिशील मुस्लिम नौजवानों का गढ़ बनी हुई थी। यहीं मंटो की मुलाक़ात अली सरदार जाफ़री से हुई और यहाँ के माहौल ने उसके मन में कुलबुलाती रचनात्मकता को उकसाया। मंटो ने कहानियाँ लिखना शुरू कर दिया। “तमाशा” के बाद कहानी “इनक़िलाब पसंद” (1935) नाम से लिखी, जो अलीगढ़ मैगज़ीन में प्रकाशित हुई।[2]

कार्यक्षेत्र

1936 में मंटो का पहला मौलिक उर्दू कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ, उसका शीर्षक था “आतिशपारे”। अलीगढ़ में मंटो अधिक नहीं ठहर सके और एक साल पूरा होने से पहले ही अमृतसर लौट गये। वहाँ से वह लाहौर चले गये, जहाँ उन्होंने कुछ दिन “पारस” नाम के एक अख़बार में काम किया और कुछ दिन के लिए “मुसव्विर” नामक साप्ताहिक का संपादन किया। जनवरी, 1941 में दिल्ली आकर ऑल इंडिया रेडियो में काम करना शुरू किया। दिल्ली में मंटो सिर्फ़ 17 महीने रहे, लेकिन यह सफर उनकी रचनात्मकता का स्वर्णकाल था। यहाँ उनके रेडियो-नाटकों के चार संग्रह प्रकाशित हुए 'आओ', 'मंटो के ड्रामे', 'जनाज़े' तथा 'तीन औरतें'। उसके विवादास्पद 'धुआँ' और समसामियक विषयों पर लिखे गए लेखों का संग्रह 'मंटो के मज़ामीन' भी दिल्ली-प्रवास के दौरान ही प्रकाशित हुआ। मंटो जुलाई, 1942 में लाहौर को अलविदा कहकर बंबई पहुँच गये। जनवरी, 1948 तक बंबई में रहे और कुछ पत्रिकाओं का संपादन तथा फ़िल्मों के लिए लेखन का कार्य किया।[2]

पाकिस्तान यात्रा

पाकिस्तान में मंटो की स्मृति में जारी डाक टिकट

1948 के बाद मंटो पाकिस्तान चले गए। पाकिस्तान में उनके 14 कहानी संग्रह प्रकाशित हुए जिनमें 161 कहानियाँ संग्रहित हैं। इन कहानियों में सियाह हाशिए, नंगी आवाज़ें, लाइसेंस, खोल दो, टेटवाल का कुत्ता, मम्मी, टोबा टेक सिंह, फुंदने, बिजली पहलवान, बू, ठंडा गोश्त, काली शलवार और हतक जैसी चर्चित कहानियाँ शामिल हैं। जिनमें कहानी बू, काली शलवार, ऊपर-नीचे, दरमियाँ, ठंडा गोश्त, धुआँ पर लंबे मुक़दमे चले। हालाँकि इन मुक़दमों से मंटो मानसिक रूप से परेशान ज़रूर हुए लेकिन उनके तेवर ज्यों के त्यों थे।

मुशर्रफ आलम जौकी के अनुसार

उर्दू अफ़सानानिगार मुशर्रफ़ आलम जौकी के अनुसार दुनिया अब धीरे-धीरे मंटो को समझ रही है और उन पर भारत और पाकिस्तान में बहुत काम हो रहा है लेकिन ऐसा लगता है कि मंटो को पूरी तरह समझ पाने के लिये 100 साल भी कम हैं। जौकी के मुताबिक़ शुरुआत में मंटो को दंगों, फ़िरकावाराना वारदात और वेश्याओं पर कहानियाँ लिखने वाला सामान्य सा साहित्यकार माना गया था लेकिन दरअसल मंटो की कहानियाँ अपने अंत के साथ खत्म नहीं होती हैं। वे अपने पीछे इंसान को झकझोर देने वाली सच्चाइयाँ छोड़ जाती हैं। उनकी सपाट बयानी वाली कहानियाँ फ़िक्र के आसमान को छू लेती हैं।[1]

मृत्यु

मंटो के 19 साल के साहित्यिक जीवन से 230 कहानियाँ, 67 रेडियो नाटक, 22 शब्द चित्र और 70 लेख मिले। तमाम ज़िल्लतें और परेशानियाँ उठाने के बाद 18 जनवरी, 1955 में मंटो ने अपने उन्हीं तेवरों के साथ, इस दुनिया को अलविदा कह दिया.[4]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 सआदत हसन मंटो (हिन्दी) (एच टी एम) वेबदुनिया। अभिगमन तिथि: 10 मई, 2011
  2. 2.0 2.1 2.2 2.3 2.4 2.5 सआदत हसन मंटो / परिचय (हिन्दी) गद्य कोश। अभिगमन तिथि: 10 मई, 2011
  3. सआदत हसन मंटो (हिन्दी) (एच टी एम एल) ब्रांड बिहार। अभिगमन तिथि: 10 मई, 2011
  4. सआदत हसन मंटो (हिन्दी) (एच टी एम एल) अपनी हिन्दी। अभिगमन तिथि: 10 मई, 2011

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