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कोई भी सफलता ऐसी नहीं जिसका कि सुख क्षणिक न होता हो लेकिन बहुत सी असफलताएँ ज़रूर ऐसी हैं जिनका आनंद शाश्वत है।
आप सोचते होंगे कि असफलता में कौनसा आनंद ?
ज़रा सोचिए जो लोग अपने बच्चों का करियर बनाने में अपने सपनों को भुला देते हैं और वे लोग जो मां-बाप के सपनों को ही अपनी इच्छा बना लेते हैं।
उन्होंने अपने लिए बज सकने वाली न जाने कितनी तालियों की गड़गड़ाहट को नहीं सुना होगा, न जाने कितनी बार अच्छे होटल को छोड़कर धर्मशाला या सराय में रुके होंगे, प्रसिद्धि के न जाने कितने अवसर अनदेखे किए होंगे...
इस असफलता का एक आनंद है... लेकिन इस आनंद को सब ले पाते हों ऐसा नहीं है, कुछ लोग इसे अपनी कुंठा भी बना लेते हैं।

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24 जून, 2014

एक पुरानी कहावत है-
जीत के लिए कोई भी क़ीमत चुकानी पड़े
जीत हमेशा सस्ती ही होती है।

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24 जून, 2014

हम गर्व करें ?
उससे लाख गुना बेहतर है कि
हम किसी का गर्व बन सकें...

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24 जून, 2014

          दिल की सुनना, दिल की कहना और दिल की करना तीनों ही बातों ऐसी हैं जो लिखने, पढ़ने, सुनने और कहने में ही अच्छी लगती हैं। इनकी सामाजिक जीवन में कोई भूमिका नहीं है।
          यदि कोई ऐसा करने की कोशिश भी करता है तो समाज उसे प्रोत्साहित करने की बजाय पत्थर मार-मार कर जान से मार देना ज़्यादा पसंद करता है।

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24 जून, 2014

          एहसान और दान का महत्व उसी क्षण समाप्त हो जाता हैं जिस क्षण हम उसका उल्लेख स्वयं करते हैं और सबसे बुरा तो तब होता है जब हम इसका उलाहना भी दे देते हैं।
          इसमें एक बात और भी है जिसे हमको समझना चाहिए कि कुछ लोग दान, एहसान और सहायता करते ही इसलिए हैं कि उसका उल्लेख कर सकें और समय-समय पर उलाहना भी दे सकें।

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24 जून, 2014

लगता है नेताओं को समझ में आने लगा है कि व्यक्तिगत लाभ देकर वोट नहीं मिल सकते। जनता को सार्वजनिक रूप से लाभ देना ही एक सफल सरकार का मंत्र है। तुष्टिकरण का असर क्षणिक होता है और विकास का सार्वकालिक। ताज़ा उदाहरण के लिए- जाटों को आरक्षण दिलाकर यह माना गया कि जाट वोट पक्के हो गए पर ऐसा हुआ नहीं।
सितम्बर 2013 के मेरे एक संपादकीय का अंश-
          देश में, बिजली, पानी, सड़क, सुरक्षा, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे मुद्दे राजनीतिक मुद्दे हुआ करते थे। इन्हीं मुद्दों का बोलबाला चुनावों में भी होता था। धीरे-धीरे नेता (और शायद जनता भी) इन मुद्दों से 'बोर' हो गयी। मुद्दे बदलते चले गए और जनता भी अपनी मुख्य ज़रूरत को भूल कर टीवी, लॅपटॉप, इंटरनेट जैसे आकर्षक मुद्दों के प्रति अधिक गंभीर हो गई। कारण था कि ये सार्वजनिक न होकर व्यक्तिगत मुद्दे थे। राजनीतिक दल भी मनुष्य की इस कमज़ोरी का फ़ायदा उठाना सीख गए। नेताओं को समझ में आने लगा कि भाषणों में, सड़क बनवाने की बात करने से ज़्यादा लाभकारी है कर्ज़ा माफ़ करने की बात करना। जनता को भी लगने लगा कि सड़क तो 'सबके' लिए बनेगी लेकिन कर्ज़ा तो 'मेरा' माफ़ होगा। यहीं से व्यक्तिगत लाभ देने की राजनीति शुरू हो गई और सार्वजनिक समस्याएँ पिछड़ती चली गईं।
          अनेक योजनाओं के चलते गांवों में पानी की टंकियां बनीं लेकिन जनता का सारा ध्यान अपने घर के दरवाज़े पर हैण्ड पम्प लगवाने में रहा। टंकियों की हालत ख़राब होने लगी और ज़्यादातर टंकियां अब बेकार पड़ी हैं। ग्राम पंचायत, ज़िला पंचायत और विधायकों को मिलने वाले वोटों के पीछे जनता की व्यक्तिगत मांगों का दवाब बना रहता है। जन प्रतिनिधि होने का अर्थ, काफ़ी हद तक यह हो चुका है कि प्रतिनिधि हर समय, जनता की व्यक्तिगत आवश्यकता के लिए भागदौड़ करे। थाने, तहसील, डी.ऍम., ऍस.पी. के पास सच्चे झूठे मुद्दे और मुक़दमों की सिफ़ारिश करे। इस प्रक्रिया में जन प्रतिनिधि में अपना-पराया की भावना बहुत प्रबल हो जाती है। किसने वोट दिया और किसने नहीं, इस बात को लेकर जनता के कार्यों की वरीयता निश्चित की जाती है।
          हमको यह सोचना और जानना ही होगा कि इन सारी असमानता बढ़ाने वाली नीतियों के पीछे कौन सी सोच काम कर रही है। क्यों सभी राजनीतिक दल, सार्वजनिक समस्याओं को हाशिए पर रखकर, जनता की व्यक्तिगत आवश्यकताओं को पूरा करने की सोचते रहते हैं।

पूरा सम्पादकीय पढ़ने के लिए क्लिक करें
21 जून, 2014

अक्सर लोग कहते हैं-
"लोग अच्छे-बुरे नहीं होते, वक़्त अच्छा बुरा होता है।"
दूसरा पहलू भी है जिसमें कहा जाता है-
"धीरज धर्म मित्र और नारी
आपतकाल परखिये चारी"
असली रिश्ते, वक़्त तो क्या भगवान के रूठ जाने पर भी नहीं बदलते क्योंकि उन्हें असली लोग जीते हैं और निबाहते हैं।
मुझे लगता है कि वक़्त अच्छा या बुरा नहीं होता बल्कि लोग ही अच्छे-बुरे होते हैं। कहीं हम, अपनी या किसी अपने की बुराई को ढकने लिए ही तो बुराई का कारण वक़्त के सिर नहीं मढ़ देते ?
बहुत वर्ष पहले मैं मानता था कि सभी मनुष्य एक जैसे होते हैं। अब मेरी धारणा बदल गई है। मेरे विचार बदलते रहते हैं। कभी-कभी तो सुबह कुछ और शाम को कुछ और... और तो और किसी-किसी दिन तो कई बार ऐसा हो जाता है।
हो सकता है कि किसी सशक्त तर्क या उदाहरण से ये विचार फिर बदल जाएँ।
एक उदाहरण अपनी ही बात को काटने के लिए देता हूँ-
एक चित्रकार सबसे ख़ूँख़्वार व्यक्ति का चित्र बनाने एक जेल में जा पहुँचा। जिस व्यक्ति का उसने चित्र बनाया वह व्यक्ति अपना चित्र देखकर बोला-
"आपने बीस वर्ष पहले भी मेरा चित्र बनाया था। उस चित्र में और इस चित्र में कोई समानता नहीं दिखाई देती।" चित्रकार को बहुत आश्चर्य हुआ और उसने पूछा-
"बीस साल पहले मैंने तुम्हारा चित्र क्यों बनाया था? मुझे कुछ याद नहीं आ रहा ?"
ख़ूँख़्वार दिखने वाले क़ैदी ने कहा-
"उस समय आप सबसे मासूम दिखने वाले युवा का चित्र बनाना चाहते थे।"
जब चित्रकार ने यह सुना तो उसने क़ैदी की दाढ़ी-मूँछ साफ़ करवाई और उसे नहलवाया, जब चेहरा सामने आया तो उसने पहचान लिया कि यह तो वही मासूम चेहरा है...

21 जून, 2014
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21 जून, 2014

मैं सामान्यत: अपने व्यवहार में जातियों में भेद नहीं करता। हाँ कभी-कभी कुछ लिखता ज़रूर हूँ जिससे भारत की शक्ति को बढ़ावा मिले और हम विकास और समृद्धि की ओर तेज़ी से बढ़ें।
भारतीय सेना में अधिकारी तो किसी भी जाति का मिल सकता है लेकिन सिपाही तो बहुसंख्य पराक्रमी क़ौम के ही होते हैं जो सीमाओं पर सीना तान कर गोलियाँ तो क्या तोप के गोलों का भी सामना करना के लिए डटे रहते हैं।
भारतीय सेना के जो मुख्य आधार हैं उनमें हैं- जाट (हिन्दू, आर्यसमाजी और सिक्ख), राजपूत, यादव, गुर्जर, बघेल और गुरखा आदि हैं। इनमें से ज़्यादातर पिछड़े (Backword class) कहलाते हैं। सीमा-सरहदों पर सबसे अधिक अागे रहने वाले ज़िन्दगी और समाज में पिछड़ गए। बॉर्डर पर फ़ॉरवर्ड लेकिन देश के भीतर बॅकवर्ड?
इतने पर भी न जाने क्यों सबसे ज़्यादा इनको ही समाज में असामाजिक समझा जाता है। जाटों पर और सिक्खों (सरदार) पर तो तमाम चुटकुले बनाए जाते हैं। ठाकुर (राजपूत) को हमेशा से फ़िल्मों में एक अत्याचारी व्यक्ति के रूप में दिखाया जाता रहा है।
ज़रा पूछा जाय लोगों से कि यदि ये क़ौम सेना में युद्ध न करें तो बाक़ी भारतवासियों को बचाने वाला कौन होगा? भारत नाम का देश दुनिया के नक़्शे में न होकर सिर्फ़ इतिहास में रह जाएगा। इसलिए इन जातियों का मज़ाक़ बनाने से पहले हज़ार बार सोचिए...
हम सब भाई-भाई हैं और इन जातियों के लोगों और उनके परिवार को भी आपके प्यार और आशीर्वाद की बहुत ज़रूरत है।

20 जून, 2014

मुझे बचपन में मशहूर हस्तियों के लम्बे-लम्बे नाम याद करने का बड़ा शौक़ था जैसे कि-
सॅम होरमसजी फ़्रामजी जमशेदजी मानेक शॉ (फ़ील्ड मार्शल मानेक शॉ)
एलमकुलम मनक्कल संकरन नम्बूदरीपाद (केरल के पूर्व मुख्यमंत्री)
मोबोतू सेसे सेको कूकू नग्बेन्दू वा ज़ा बांगा (कोंगो के पूर्व शासक)
एक जो और नाम याद किया था वह था महान खिलाड़ी पेले का-
सर ऍडसन अरान्तिस दो नास्सिमेंटो पेले

हमारे लिए फ़ुटबॉल का मतलब होता था पेले...
आज हालात कुछ और हैं, FIFA ने वर्ल्ड कप ट्रॉफ़ी को पेले के बजाय सुपर मॉडल जिसेल बुद्चिन (Gisele Bundchen) से दिलवाना ज़्यादा पसंद आ रहा है।
यह हालात ब्राज़ील में ही नहीं बल्कि...

20 जून, 2014

आज के युग के बारे में लोगों का नज़रिया है-
"अधीरता, वर्तमान युग का मूल वाक्य है। आज के लोगों को 'बेकार में, किसी से मिलना-जुलना पसंद नहीं है। जब बिना मतलब के मिलना पसंद नहीं है तो मित्रता का आनंद भी समाप्त है। प्रश्न भी कुछ नए हैं जैसे कि 'प्रेम क्या है?, दोस्ती क्या है आदि। पचास-सौ वर्ष पहले ये प्रश्न किताबों में अधिक थे और सामान्य समाज में कम। आज जिसे देखो वह प्रेम और दोस्ती का अर्थ समझना चाहता है। कारण भी बहुत सीधा-सादा है कि प्रेम और दोस्ती अब बहुत ही कम देखने में आते हैं। स्त्री-पुरुष के भी मिलने के कारण- कोई कार्य अथवा शारीरिक संतुष्टि अधिक हो गया है।"

क्या यह सही है? क्या ऐसा 'पहले' नहीं था? पहले भी ऐसा ही था बस इतना अंतर हुआ है कि आबादी बढ़ गई है। हाँ इतना ज़रूर है कि नई पीढ़ी के समझ में यह आ गया है कि पैसा बहुत-बहुत महत्वपूर्ण है और पैसे के सामने सारे भजन-प्रवचन बेकार हैं। यह बात पहले कुछ जाति विशेष का ही कॉपीराइट थी लेकिन अब ज़्यादातर जातियों के युवक-युवती इसे समझने लगे हैं।

20 जून, 2014

मित्रो ! बलात्कार की घटनाओं ने आप ही की तरह मुझे भी गहन पीड़ा दी है। सुबह अख़बार देखने को मन ही नहीं होता। बलात्कारी पिशाचों का चेहरा सोचते-सोचते अपने iPad पर यूँही उँगलियाँ चलाने लगा और जो रेखाचित्र उभरा वह आपके सामने है...

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12 जून, 2014

9 जून 1913 को चौधरी दिगम्बर सिंह जी का जन्म हुआ था। 1995 में उनका देहावसान हुआ। यह उनका 100 वाँ जन्मदिन है। स्वतंत्रता सेनानी थे और चार बार लोकसभा में चुने गए।
1952 (एटा), 1962 (मथुरा), 1969 (मथुरा उपचुनाव), 1980 (मथुरा)
इस भाषण के समय वे काँग्रस से सांसद थे और सरकार के ही ख़िलाफ़ बोले थे (जो कि वे अक्सर करते रहते थे और इसी कारण वे केन्द्रीय मंत्री नहीं बने)।
मुझे उनका बेटा होने पर उतना ही गर्व है जितना भारतीय होने पर...

भाषण का अंश-
"मैं किसानों की तरफ़ से आया हूँ और उनकी तरफ़ से बात कह रहा हूँ।
जो अन्न पैदा करते हैं, जो गेहूँ पैदा करते हैं लेकिन उन्हें खाने को नहीं मिलता।
जो ऊन और कपास पैदा करते हैं लेकिन उनको पहनने के लिए कपड़ा नहीं मिलता।
मैं ऐसे लोगों की बात कहने आया हूँ जो दूध, घी पैदा करते हैं लेकिन उन्हें भूखों मरना पड़ता है।
मैं उस किसान की बात कहता हूँ जिसने अपने बच्चे को सेना में भेजा है लेकिन उस किसान की रक्षा नहीं होती।
मैं उन लोगों की बात अाप से करना चाहता हूँ जो लोग अपने वोट देकर सरकार बनाते हैं लेकिन उस सरकार की ओर से उनके हितों की रक्षा नहीं होती।" -30 अप्रेल 1965 लोकसभा

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7 जून, 2014

      मरना तो सबका तय है, ये वक़्त कह रहा है
      पुरज़ोर एक कोशिश, जीने की बारहा है

                  कहने को सारी दुनिया है इश्क़ की दीवानी
                  हर एक शख़्स लेकिन, पैसे पे मर रहा है

      सारे सिकंदरों के, जाते हैं हाथ ख़ाली
      कोई मानता नहीं है, बस याद कर रहा है

                  हैवानियत के सारे, होते गुनाह माफ़ी
                  अब बेटियों का पल्लू ही क़फ़्न बन रहा है

      कोई खुदा नहीं है, अब आसमां में शायद
      इन्सां का ख़ौफ़ देखो, भगवान डर रहा है

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5 जून, 2014

      हर शाख पे बैठे उल्लू से,
      कोई प्यार से जाके ये पूछे
      है क्या अपराध गुलिस्तां का ?
      जो शाख पे आके तुम बैठे !

            कितने सपने कितने अरमां
            लेकर हम इनसे मिलते हैं
            बेदर्द ये पंजों से अपने
            सबकी किस्मत को खुरचते हैं

      उल्लू तो चुप ही रहते हैं
      वो बोलेंगे, इस कोशिश में
      हम चप्पल जूते घिसते हैं
      दिन-रात दर्द से पिसते हैं

      ना शाख कभी ये सूखेंगी
      ना पेड़ कभी ये कटना है
      जब भी कोई शाख नई होगी
      उल्लू ही उसमें बसना है

            इस जंगल में अब आग लगे
            और सारे उल्लू भस्म करे
            फिर नया एक सावन आए
            और नया सवेरा पहल करे

      तब नई कोंपलें फूटेंगी
      और नई शाख उग आएगी
      फिर नये गीत ही गूँजेंगे
      और नई ज़िन्दगी गाएगी

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4 जून, 2014

आज, पैसा और प्रतिष्ठा एक-दूसरे के पर्यायवाची हो चुके हैं। यहाँ तक कि वीतरागी संत होने का अर्थ भी बदल चुका है। संतों की प्रतिष्ठा त्याग के लिए हुआ करती थी लेकिन अब अथाह संपत्ति और सुविधा से घिरे तथाकथित संत अपनी दरियाई घोड़े जैसी तोंद पर हाथ फेरकर, मुग्ध होते मिलते हैं।

3 जून, 2014

अक्सर ये सवाल उठता रहता है कि भारत की जनता, नेताओं के भ्रष्ट आचरण को बहुत जल्दी भुला देती है। कभी सोचा है कि ऐसा क्यों है?
कारण स्पष्ट है- हम हमेशा यह सोचते हैं कि 'अरे भई अगर हम उस नेता की जगह होते तो हम भी तो उतने ही नहीं थोड़े बहुत कम भ्रष्ट होते...' क्योंकि हम जब भी जहाँ होते हैं अपनी क्षमता और स्तर के अनुपात में भ्रष्टाचार करने में नहीं चूकते।
इसीलिए हम अगले चुनाव में ही उस नेता को बहुत सहानुभूति पूर्वक क्षमा कर देते हैं। हाँ अगर अदालत ही उसे जेल में डाल दे तो बात अलग है। वैसे हम कोशिश तो उसे जेल से भी चुनाव जिताने की करते हैं।
नेताओं की ग़लतियों और निकृष्ट कारगुज़ारियों को जल्दी क्षमा करने का और ख़ूँख़्वार क़िस्म के नेताओं को पसंद करने का एक कारण और भी होता है-
पुराने ज़माने के डाकुओं वाला नियम- जैसे पुराने वक़्त के डाकू अपने पक्ष की जनता (जो अक्सर उन्हीं की जाति की होती थी) को प्रसन्न रखते थे और दूसरे इलाक़े में लूट-पाट मचाते थे। इसी तरह हम अपनी जाति या पक्ष के नेता की हर अनियमितता को अनदेखी करते हैं।

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3 जून, 2014

नेता, सरकारी कर्मचारी और पुलिस के भ्रष्ट और ग़ैर ज़िम्मेदार होने पर हम बहुत तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं लेकिन हमें यह भी सोचना चाहिए कि ये ऐसे क्यों है और आख़िर ये ऐसे हो क्यों जाते हैं ?

असल में ये सब हमारे समाज का ही आइना है, प्रतिबिंब हैं और यह हमें पूरी तरह ईमानदारी के साथ स्वीकार करना चाहिए। हमारे समाज का नियम ही कुछ ऐसा है जिसमें हम सिर्फ़ दूसरों को ईमानदारी का पाठ पढ़ाने से ही सरोकार रखते हैं, ख़ुद अपनी ईमानदारी के लिए कोई जवाबदेही नहीं बरतते।

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3 जून, 2014

शब्दार्थ

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