"आदित्य चौधरी -फ़ेसबुक पोस्ट" के अवतरणों में अंतर

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यह प्रेरणाप्रद प्रसंग श्री आलोक प्रकाश ने वॉट्स ऍप से भेजा।
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बीना शर्मा किसी स्त्री का नहीं बल्कि एक मिशन का नाम है। आगरा निवासी बीना जी एक स्कूल चलाती हैं। जो बच्चे स्कूल की फ़ीस नहीं दे पाते और जिन्हें अपने परिवार की रोज़ी-रोटी कमाने में भी हाथ बंटाना होता है, उनके लिए…। इन्हें, कहीं से कोई सरकारी सहायता प्राप्त नहीं और ख़ुद को भी सुबह से शाम तक की नौकरी करनी पड़ती है। बावजूद इसके उनके स्कूल में 80 से अधिक बच्चे हैं। कॉलेज के छात्र अति साधारण मानदेय लेकर या वॉलेन्टियर की तरह सुबह 6:30 से 10 बजे तक इन बच्चों को पढ़ाते हैं।
  
जापान में हमेशा से ही मछलियाँ खाने का एक ज़रूरी हिस्सा रही हैं और ये जितनी ताज़ी होतीं हैं, लोग उसे उतना ही पसंद करते हैं। लेकिन जापान के तटों के आस-पास इतनी मछलियाँ नहीं होतीं की उनसे लोगोँ की डिमांड पूरी की जा सके। नतीजतन मछुआरों को दूर समुद्र में जाकर मछलियाँ पकड़नी पड़ती हैं। जब इस तरह से मछलियाँ पकड़ने की शुरुआत हुई तो मछुआरों के सामने एक गंभीर समस्या सामने आई।
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बीना जी ने अत्यंत व्यावहारिक, रोचक और प्रभावशाली पाठ्यक्रम भी स्वयं तैयार किए हैं। जिससे गली-मुहल्लों के बच्चे जल्दी ही शिक्षित हो जाते हैं। साथ ही बच्चों में अच्छे संस्कार डालने के पाठ भी पढ़ाए जाते हैं।
  
वे जितनी दूर मछली पक़डने जाते उन्हें लौटने में उतना ही अधिक समय लगता और मछलियाँ बाज़ार तक पहुँचते-पहुँचते बासी हो जातीं और फिर कोई उन्हें ख़रीदना नहीं चाहता था। इस समस्या से निपटने के लिए मछुआरों ने अपनी बोट्स पर फ़्रीज़र लगवा लिये। वे मछलियाँ पकड़ते और उन्हें फ़्रीज़र में डाल देते।
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जब बीना जी अपने सीमित आर्थिक साधनों से आगरा में यह करिश्मा कर सकती हैं तो फिर यह मथुरा-वृन्दावन में भी किया जा सकता है। जो मित्र दिलचस्पी रखते हों वे कमेंट बॉक्स में सहमति जताएँ। जिससे बात आगे बढ़े...
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| 23 दिसम्बर, 2015
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सामान्य, बात-चीत में मैं अक्सर कह देता हूँ कि मैं भगवान को नहीं मानता लेकिन मेरे साथ जो घटता है वह बड़ा ही विलक्षण अनुभव रहता है।
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मैं कुछ समय पहले गोरखपुर गया था। वहाँ गोरखनाथ जी के मंदिर में गया तो वहाँ बैठे-बैठे मेरे मन में गोरखनाथ जी का मंत्र ‘हँसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्’ चलने लगा और मेरी आँखें भर आईं, कुछ समय के लिए सुध-बुध खो बैठा। वहाँ से उठा तो उसी परिसर में हनुमान जी का मंदिर था। हनुमान जी के सामने बैठकर हनुमान चालीसा पढ़ा। पढ़ते-पढ़ते फिर वही हाल हो गया जो गोरखनाथ मंदिर में हुआ था। इसके बाद हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के गीता भवन गया वहाँ मंदिर में दर्शन किए उसके बाद जब बाहर आया तो कृष्ण भजन चल रहे थे खड़ा-खड़ा आँख बन्द की तो फिर भावुक हो गया।
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जब मुझे भारत सरकार ने विश्व हिन्दी सम्मान दिया तो इस कार्यक्रम के लिए मैं भोपाल गया। वहाँ एक पुरानी विशालकाय मस्जिद में जा पहुँचा। यह मस्जिद पर्यटकों के लिए भी उपलब्ध है। मस्जिद में कुछ देर आँखें बंद किए बैठा रहा। जैसे ही मैंने मन में कहा कि हे ईश्वर… अल्लाह ! सबका भला कर, सबके काम बना तो फिर आखों में आंसू आ गए। वहाँ बैठे मुस्लिम, आश्चर्य से मुझे देखने लगे क्योंकि मेरे माथे पर तिलक लगा था और कलाई पर कलावा बँधा था और साथ ही, मैं बैठा भी हाथ जोड़कर था। वहाँ बैठे एक बुज़ुर्ग मौलवी ने मुझे देखा तो करुणा के भाव के साथ मुस्कुरा दिए।
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मनुष्य का जीवन ईश्वर की आस्था-अनास्था में व्यतीत होता है। ईश्वर के प्रति अास्था होने का अर्थ किसी धर्म के प्रति आस्था होना है या नहीं यह निश्चित नहीं है। हो सकता किसी धर्म विशेष में पैदा हुआ व्यक्ति अपने धर्म की परिभाषा ऐसी बना ले जिसमें दूसरे धर्मावलम्बियों के लिए नफ़रत हो। वह आतंक के द्वारा अपने धर्म को फैलाना चाहे या अपने धर्म का प्रयोग राजनीति और व्यवसाय के लिए करे। ऐसे लोग नास्तिक ही होते हैं और यह नास्तिकता ईश्वर के प्रति है। इस प्रकार के नास्तिकों की संख्या असंख्य है।
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हम आस्तिक हैं यह तो ठीक है किंतु किसके प्रति है यह आस्तिकता। ईश्वर के प्रति, मानव-धर्म के प्रति या संप्रदाय के प्रति। यह ज़रूरी नहीं है कि कोई व्यक्ति किसी संप्रदाय-मज़हब के प्रति आस्था रखता हो तो ईश्वर में भी उसकी आस्था हो। ईश्वर में आस्था का अर्थ ईश्वर की स्तुति नहीं है बल्कि सत्य, करुणा, विवेक और प्रेम के मार्ग पर चलना है और यही ईश्वर-प्रदत्त मार्ग है। अब सोचने वाली बात यह है कि कितने लोग इस मार्ग पर चलते हैं? संभवत: कम ही हैं तो बस हिसाब लगा सकते हैं कि आस्तिकों की संख्या अधिक है या नास्तिकों की।
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| 22 दिसम्बर, 2015
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रजभाषा में लिखी इन पंक्तियों का अनुवाद हिन्दी में करें। सही अनुवाद करने वाले को ‘ब्रजरत्न’ से सम्मानित किया जाएगा…
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बलाय उलाइतौ, भूमरें उठि गौ। धौंतांएँ कलेऊ करिकें धौपरी तक आरकस से में डर्यो रौ। पहल तौ एक जने को पैंड़ौ देख्यो… जब बु न आयौ तो पतौ परी कि बाते कोई बनउआ बनिगौ। सांझि कूँ चहा पी कें घूमबे निकर्यो तो बगदबे में अबेर है गई। जैसें-तैसें घर ल्यौट्यौ, तौ लौटतखैमई बत्ती पै बीजुरी परि गई। अंधेरे में टटोल-टलालिकें भीतर घुस्यौ तौ पाम रपटि कें सैंचित्त गिर्यो। गिर्त खैंम झमा सौ आइ गौ। आंख खुली तो असपताल में म्हौं पै मुछीका सौ बांध कें एक नस्स दिखी।
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खैरि अब तौ सब ठीकै।
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| 22 दिसम्बर, 2015
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मैं यहाँ किसी धर्म-संप्रदाय-मज़हब के पक्ष-विपक्ष में नहीं लिख रहा हूँ। इसलिए किसी धर्म-संप्रदाय या मज़हब के अति उत्साही समर्थक निम्न पंक्तियों को सामान्य अर्थों में ही लें। कारण यह है कि मैं स्वयं को विद्वान न मानते हुए मात्र एक जिज्ञासु के समान ही लिखता हूँ। मेरे लिखे पर जो टिप्पणी आती हैं उससे मेरी जानकारी बढ़ती है। कभी-कभी कुछ लोग मेरी पोस्ट पर मुझे किसी एक पक्ष का मानते हुए टिप्पणी कर देते हैं जिसका कोई अर्थ नहीं है। मैं भारतकोश (www.bharatkosh.org) चला रहा हूँ और भारत की परंपरा, संस्कृति और इतिहास आदि की खोज में लगा रहता हूँ। मुझे जब भी जो भी जानने को मिलता है, लिखने का प्रयास करता हूँ। मैं किसी विषय पर कोई अथॉरिटी नहीं हूँ और एक साधारण रूप से पढ़ा-लिखा व्यक्ति हूँ।
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अज़ीज़ के राय मेरे फ़ेसबुक मित्र हैं। विद्वान हैं और साथ ही मेरी लेखनी के प्रशंसक भी हैं। उनकी एक पोस्ट आई,
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Aziz K. Rai
  
इस तरह से वे और भी देर तक मछलियाँ पकड़ सकते थे और उसे बाज़ार तक पहुंचा सकते थे, पर इसमें भी एक समस्या आ गयी। जापानी फ़्रोज़न फ़िश ओर फ़्रेश फ़िश में आसानी से अंतर कर लेते और फ़्रोज़न मछलियों को खरीदने से कतराते, उन्हें तो किसी भी क़ीमत पर ताज़ी मछलियाँ ही चाहिए होतीं। एक बार फिर मछुआरों ने इस समस्या से निपटने की सोची और इस बार एक शानदार तरीक़ा निकाला, उन्होंने अपनी बड़े-बड़े जहाज़ों पर फ़िश टैंक्स बनवा लिए, और अब वे मछलियाँ पकड़ते और उन्हें पानी से भरे टैंकों में डाल देते।
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"निरपेक्ष, निष्पक्ष, नास्तिक, निडर, निराकार और निस्वार्थ” मुझे ये शब्द ही बेईमान (कपटी) लगते हैं। जो इनके पक्षधर होते हैं उनकी बातें निराधार होती हैं।"
  
टैंक में डालने के बाद कुछ देर तो मछलियाँ इधर उधर भागती पर जगह कम होने के कारण वे जल्द ही एक जगह स्थिर हो जातीं, और जब ये मछलियाँ बाज़ार पहुँचती तो भले वे ही सांस ले रही होतीं लेकिन उनमें वो बात नहीं होती जो आज़ाद घूम रही ताज़ी मछलियों मे होती, और जापानी चखकर इन मछलियों में भी अंतर कर लेते।
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मैंने पोस्ट देखी तो सोचा इस पर अपनी राय ज़ाहिर कर दूँ।
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यहाँ मैं ‘निरपेक्ष' पर लिख रहा हूँ:-
  
इतना कुछ करने के बाद भी समस्या जस की तस बनी हुई थी। अब मछुवारे क्या करते ? वे कौन सा उपाय लगाते कि ताज़ी मछलियाँ लोगों तक पहुँच पाती? नहीं, उन्होंने कुछ नया नहीं किया, वे अभी भी मछलियाँ टैंक्स में ही रखते, पर इस बार वो हर एक टैंक में एक छोटी सी शार्क मछली भी डाल देते।
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धर्म को धारण करने वाला याने धार्मिक व्यक्ति सत्य के मार्ग पर ही चलने का प्रयास करता है और सत्य का मार्ग किसी एक के लिए ही सापेक्ष हो यह संभव नहीं है। इसलिए धार्मिक व्यक्ति, किसी धर्म-संप्रदाय के लिए नहीं बल्कि सत्य-मार्ग के लिए प्रतिबद्ध होता है।
  
शार्क कुछ मछलियों को ज़रूर खा जाती पर ज्यादातर मछलियाँ बिलकुल ताज़ी पहुंचती। ऐसा क्यों होता था? क्योंकि शार्क बाकी मछलियों के लिए एक चैलेंज की तरह थी। उसकी मौजूदगी, बाक़ी मछलियों को हमेशा चौकन्ना रखती ओर अपनी जान बचाने के लिए वे हमेशा सतर्क रहतीं।
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‘सत्यनिष्ठा’ सदैव निरपेक्ष और निष्पक्ष ही होती है। सत्य का मार्ग निरपेक्ष और निष्पक्ष ही होता है। 'सापेक्ष सत्य’ जैसी कोई चीज़ नहीं होती। प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपना-अपना सच तो हो सकता है किन्तु सत्य तो सभी के लिए एक ही है। जब सत्य निरपेक्ष है तो हम मूलत: निरपेक्ष ही तो हुए।
  
इसीलिए कई दिनों तक टैंक में रहने के बावज़ूद उनमें स्फूर्ति और ताज़ापन बना रहता।
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निरपेक्षता का अर्थ यदि आज की परिस्थितियों की तरह ऊँट-पटाँग न निकाल कर सामान्य ढंग से लिया जाए तो हम सभी निरपेक्ष ही होते हैं। यदि यहाँ निरपेक्षता का अर्थ धर्म-निरपेक्षता से है तो भी मेरा विचार यही है। किसी धर्म के बारे में हमारा अपना पक्ष कोई नहीं होता। हम मात्र अनुसरण ही करते हैं। अनुसरण, संस्कारों का और विरासत में मिली आस्था का।
  
आज बहुत से लोगों की ज़िन्दगी टैंक में पड़ी उन मछलियों की तरह हो गयी है जिन्हें जगाने की लिए कोई शार्क मौज़ूद नहीं है। और अगर दुर्भाग्यवश आपके साथ भी ऐसा ही है तो आपको भी आपनी ज़िन्दगी में नयी चुनौती स्वीकार करनी होंगी। आप जिस रुटीन के आदी हो चुके हैं उससे कुछ अलग करना होगा, आपको अपना दायरा बढ़ाना होगा और एक बार फिर ज़िन्दगी में रोमांच और नयापन लाना होगा।
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यदि कोई व्यक्ति बचपन में ही किसी वीरान टापू पर छूट जाए और वहीं अकेला पले-बढ़े… तो सोचिए कि उसका धर्म क्या होगा?
  
नहीं तो बासी मछलियों की तरह आपका भी मोल कम हो जायेगा और लोग आपसे मिलने-जुलने की बजाय बचते नजर आएंगे और दूसरी तरफ अगर आपकी ज़िन्दगी में चुनौतियाँ हैं, बाधाएं हैं तो उन्हें कोसते मत रहिये, कहीं ना कहीं ये आपको ताज़ा और जीवंत बनाये रखती हैं, इन्हें स्वीकार करिये, इन्हें जीतिए और अपना तेज बनाये रखिये।
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असल में प्रचलित ‘धर्म’ एक सामाजिक विषय है, व्यक्तिगत विषय नहीं है। किसी भी व्यक्ति के परम एकांत में कोई धर्म या जाति नहीं होती यह तो समाज की उपस्थिति जनित लक्षण या विषय है। हम समाज की उपस्थिति में ही धर्म को अपनाते अथवा नकारते हैं।
 
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| 30 मई, 2015
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| 21 दिसम्बर, 2015
 
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कितना बेदर्द और तन्हा है मुहब्बत का सफ़र
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महिष या महिषी शब्द का अर्थ संस्कृत में, भैंसा, भैंस, रानी और वैश्या के लिए है। गाय के लिए नहीं। मैंने लिखा है कि सामान्य भोजन में गाय को खाना कहीं उद्दृत नहीं है। डी एन झा, डी डी कोसंबी, रोमिला थापर, राजवाड़े, भगवतशरण उपाध्याय आदि क्या यह प्रमाणित करते हैं कि वैदिक काल में 'मनुष्य का प्रिय भोजन गौमांस था'? मैंने इन सभी को पढ़ा है। मुझे ऐसा कहीं नहीं मिला। कई अंग्रेज़ इतिहासकारों ने वैदिक कालीन शब्द 'अन्न' को गाय मानकर लिखा है। जो सही प्रतीत नहीं होता।
जिससे पूछो वही एक दर्द लिए बैठा है
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इन इतिहासकारों ने जो उदाहरण दिए हैं वे विशेष अवसरों के हैं। ऐसे अवसर 'बलि चढ़ाना', श्राद्ध, मधुपर्क, विशाल यज्ञ आदि। इन उदाहरणों में भी स्पष्ट रूप से प्रत्येक अवसर पर गाय का ज़िक्र हो ऐसा नहीं है।
  
एक इज़हार-ए-मुहब्बत ही न कर पाने को
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बहुत से शब्दों के अर्थ भी दूसरे ही निकाले गए हैं। जैसे गैंड़े का मांस खाने का ज़िक्र है। गैंड़े शब्द का प्रयोग एक प्रकार के पक्षी के लिए भी होता था। जिसका ज़िक्र वामन काणे ने किया है। अनेक ऋषि मुनियों का मांस खाने का ज़िक्र है। जिनमें अगस्त्य और शुक्राचार्य प्रमुख हैं। किन्तु यह कहीं नहीं लिखा कि किसी ऋषि-मुनि का प्रिय भोजन गाय थी। किसी विशाल यज्ञ जैसे कि 'अश्वमेध' में ब्राह्मणों को गाय का मांस परोसा गया हो, ऐसा उल्लेख नहीं है। भोजन प्रेमी ऋषियों में दुर्वासा भी हुए हैं, उनको किसी ने गौमांस परोसा हो यह कहीं नहीं मिलता।
किसी कोने में वो अफ़सोस किए बैठा है
 
  
मेरा महबूब, किसी रोज़ पलट कर आए
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भीम, हनुमान, जरासंध, दुर्योधन आदि जैसे वीर योद्धा भी गौमांस नहीं खाते थे। उससे पहले वैदिक काल में जाएँ तो सुदास और शशबिन्दु का कहीं गौमांस खाने का उल्लेख नहीं है। रावण, कंस, वाणासुर, आदि की कहीं गौमांस खाने की बात नहीं है। देवताओं को तो छोड़िये राक्षसों तक का गौमांस खाने का उल्लेख नहीं है।
दिल को मासूम दिलासा सा दिए बैठा है
 
  
उसको आती हो मेरी याद कभी फ़ुर्सत में
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अंग्रज़ों ने भारतीय संस्कृति को मिटाने के लिए ऊटपटांग लिखा और हमने मान लिया?
ऐसी हसरत से दिल के घाव सिए बैठा है
 
  
कैसा बेज़ार है, तन्हा है, बेख़बर भी है
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एक बार फिर गंभीरता से विचार कीजिए भाई साब! हमारे किसी रीतिरिवाज में गौमांस भक्षण का प्रतीक नहीं है। भारत में गाय तो कामधेनु का स्वरूप लिए हुए रही है। इसके भक्षण का तो कोई प्रश्न ही नहीं।
इसकी पहचान बनाने को पिए बैठा है
 
 
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| [[चित्र:Kitna-bedard-aur-tanha-Aditya-Chaurdhay.jpg|250px|center]]
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| 24 मई, 2015
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| 15 दिसम्बर, 2015
 
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इतनी तो बीत भी गई उतनी भी बीत जाएगी
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पिछले दिनों, गौवध और गौमांस भक्षण पर काफ़ी बहस चली थी। अनेक तर्क रखे गए। यहाँ मैं ऋग्वेद के हवाले से कहना चाहता हूँ कि गाय को ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर अघ्न्या कहा गया है। जिसका अर्थ है ‘अवध्य’ जिसका वध न किया जाता हो। संस्कृत भाषा के ज्ञानी जानते हैं कि ‘घ’ अक्षर संस्कृत में प्रहार के लिए भी प्रयुक्त होता है। जिससे ‘घन’ शब्द भी बना है जिसका अर्थ एक गदा जैसा शस्त्र भी है। घन काले बादलों के लिए भी है जो कि बिजली की कड़क और प्रहार उत्पन्न करते हैं।
जिस ज़िन्दगी की चाह थी वो जाने कब आ पाएगी
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ऋग्वेद में अघ्न्या शब्द का प्रयोग बार-बार गाय के लिए प्रयुक्त होना हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि वेदों में गाय को मात्र दूध के सेवन के लिए पाला जाता था न कि उसे रोज़ाना के भोजन के लिए मार कर और पका कर खाने के लिए। जहाँ तक बलि चढ़ाने का प्रश्न है तो मेरे विचार से बलि चढ़ाना एक उत्सव के रूप में होता रहा है। जो किसी देवता विशेष के क्रोध को शांत करने के लिए या फिर उसे प्रसन्न करने के लिए होता था। कहीं-कहीं आज भी होता है। जिसमें भैंसे की या पड्डे की बलि चढ़ाने का रिवाज रहा है।
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यह भी कहा जाता है कि किसी विशेष अवसर के लिए गाय या उसके बछड़े की बलि चढ़ाई जाती थी परन्तु जहाँ तक मेरी जानकारी है, इसका कोई वैदिक उल्लेख मिलता नहीं। व्यक्तिगत रूप से मुझे नहीं लगता कि गाय वैदिक काल में प्रतिदिन के भोजन का हिस्सा रही होगी। डॉ. रामविलास शर्मा जी ने विस्तार से इस संबंध में लिखा है… पठनीय है।
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यहाँ एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी है- वैज्ञानिक मानते हैं कि मनुष्य की मित्रता की ‘बॉन्डिग’ सबसे अधिक कुत्ते के साथ हुई। इसी क्रम में घोड़ा और गाय भी आते हैं। यह भी माना गया है कि जिन जानवरों से मनुष्य की ‘बॉन्डिग’ हुई उनको भोजन की तरह खाने में मनुष्य को हिचक हुई और ऐसे जानवरों को मनुष्य ने नहीं खाया।
  
बच्चों को पाल भी लिया, घर को संभाल भी लिया
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कुछ भी कहें गाय को देखकर भी तो ऐसा नहीं लगता कि इसको मारकर खाया जाना चाहिए। हमारे समाज में सीधे-सरल व्यक्ति के लिए कहा जाता है कि बिल्कुल गाय की तहर सीधा/सीधी है। गाय का दूध भी मनुष्य के लिए सर्वश्रेष्ठ भोजन माना गया है। गौमूत्र और गोबर से लेकर गाय हमारे लिए अपने पूरे अस्तित्व सहित महत्वपूर्ण है तो फिर इसे खाएँ क्यों...
वो फ़ुर्सतों चाय तेरे संग कब पी जाएगी
 
 
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| 23 मई, 2015
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| 14 दिसम्बर, 2015
 
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कालान्तर में शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं। महाभारत, रामायण अथवा बुद्ध के काल में प्रयुक्त होने वाले शब्दों के अर्थ आज भी वही हों ऐसा नहीं है।
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एक मंदिर की बहुत मान्यता थी। मंदिर के चारों ओर दूर-दूर तक रेगिस्तान था। एक टीले नुमा पहाड़ पर यह मंदिर बना हुआ था। जहाँ से मंदिर की चढ़ाई शुरू होती थी वहाँ एक दुकान थी।
इस कारण आज के समय में भ्रांतियाँ पैदा हो जाना सहज ही है। ‘संग्राम’ और ‘गविष्टि’ शब्दों का अर्थ आज के संदर्भ में ‘संघर्ष’ या ‘युद्ध’ है। संग्राम तो अब भी प्रचलित है लेकिन गविष्टि उतना नहीं।
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एक यात्री ने दुकानदार से मंदिर के रास्ते के बारे में पूछा तो दुकानदार ने इशारे से बता दिया। यात्री चढ़ाई चढ़कर मंदिर तक पहुँचा तो उसे मंदिर में भीतर जाने से रोक दिया गया। पूछने पर पता चला कि मंदिर में वही प्रवेश कर सकता है जो विशेष प्रकार की टोपी पहने हो। यात्री निराश होकर वापस लौटा तो दुकानदार ने बताया कि वैसी टोपी तो वह बेचता है।
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क़ीमत पूछने पर बताई ‘एक हज़ार रुपए’
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यात्री ने आश्चर्य से पूछा- “जब ये टोपी तुम्हारे पास बिकती है तो तुमने पहले क्यों नहीं बताया ? मैं मंदिर तक पहुँचा और वापस लौटा… अब तुम बता रहे हो कि टोपी तुम्हारे पास है… इसका क्या मतलब है?
  
क़बीलों की संस्कृति जब ग्रामों, पुरों और उरों (दक्षिण भारत) में स्थापित हो रही थी तब ग्रामों के सम्मेलन या पंचायत को ‘संग्राम’ कहा जाता था। यदि सामान्य रूप से संधि विच्छेद करें तो संग्राम का अर्थ ‘गाँवों का मिलना’ ही निकलता है। इन ‘संग्रामों’ में कभी-कभी झगड़ा और उपद्रव हो जाता था जो युद्ध का रूप भी धारण कर लेता था। कालान्तर में संग्राम शब्द का अर्थ ही बदल गया। - प्रसिद्ध विद्वान श्री डी डी कोसम्बी ने इसे विस्तार से समझाया है।
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दुकानदार ने समझाया- “अगर मैं तुमसे पहले ही कहता कि टोपी ले लो और हज़ार रुपए क़ीमत बताता तो तुम नहीं ख़रीदते। मंदिर जाने की परेशानी उठाकर तुमको टोपी की ज़रूरत समझ में आ गई है। अब तुम हज़ार रुपए की टोपी आराम से ख़रीद लोगे।”
  
‘गविष्टि’ शब्द का प्रयोग प्राचीन काल में गायों को ढूंढने के लिए होता था। इसका शाब्दिक अर्थ यही है।
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ये उदाहरण बाज़ार की सप्लाई-डिमांड समीकरण को समझाने के लिए दिया है। बाज़ार, भावनाओं से नहीं बल्कि भावनाओं को भुनाने से चलता है।  
गायें चरते-चरते दूर निकल जाती थीं जिन्हें ढूंढने जाना पड़ता था। इन गायों को तलाश करने में उन लोगों से झगड़ा होता था जो गायों को बलपूर्वक रोक लेते थे। कालान्तर में गविष्टि शब्द भी युद्ध के संदर्भ में प्रयुक्त होने लगा। - प्रसिद्ध इतिहासकार सुश्री रोमिला थापर ने इसे विस्तार से समझाया है।
 
 
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| 12 मई, 2015
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| 12 दिसम्बर, 2015
 
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श्री [[रामविलास शर्मा]] जी की पुस्तक 'भारतीय संस्कृति एवं हिन्दी प्रदेश' का एक महत्वपूर्ण अंश
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भारतकोश संपादकीय का अंश
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दुनिया में जिन खोजों का विशेष महत्व है उनमें पहिया, शून्य, दशमलव, π (पाई), पुस्तक छपाई, गुरुत्वाकर्षण, बैटरी, मोटर, डायनमो आदि हैं। इनमें डायनमो ने जो प्रभाव डाला है वो तो ग़ज़ब है। बिजली का बनने और आम जन के लिए सुलभ हो जाने से जैसे दुनिया ही बदल गई। कह सकते हैं कि दुनिया दो हैं, एक बिजली से पहले की दुनिया और दूसरी बिजली के बाद की दुनिया।
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बिजली आई तो कुटीर उद्योग, कल कारख़ानों में बदल गए। लोग अपना गाँव अपना शहर और यहाँ तक कि अपना देश छोड़कर रोज़गार की तलाश में घर से दूर घर बसाने लगे। शुरुआत में पुरुष ही बाहर जाते थे फिर परिवार सहित जाने लगे। संयुक्त परिवार की भव्य व्यवस्था दरक़ने लगी।
  
[[शंकराचार्य]] से पहले और उनके बाद बहुत-से लोगों ने संसार को दु:ख का मूल कारण मानकर घर-बार छोड़कर संन्यासी हो जाना उचित समझा। संन्यास [[भारतीय संस्कृति]] की मूल धारा नहीं है। भारतीय जनता के चरित्र-निर्माण में रामायण और [[महाभारत]] की अद्वितीय भूमिका है। इन महाकाव्यों में कोई भी पात्र संन्यासी नहीं है। महाभारत में स्वयं [[व्यास]] ने अपने पुत्र [[शुकदेव]] से कहा-
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गृहणी को संयुक्त परिवार में अपनी स्वतंत्रता का हनन होता प्रतीत होने लगा। मेरा पति, मेरे बच्चे और मेरा घर ही वरीयता हो गई। रिश्तेदारियों का आनंद अब मात्र रिश्तेदारी निबाहने तक सीमित रह गया। धीरे-धीरे लोग ‘हम’ से ‘मैं’ में बदलने लगे। बच्चों को बोर्डिंग स्कूलों में पढ़ाया जाने लगा। वैसे तो बच्चों को प्राचीनकाल से ही, अभिभावकों से दूर रखकर गुरुकुलों में पढ़ाने की परंपरा रही है लेकिन उस समय की गुरुकुल परंपरा में और अब की बोर्डिंग व्यवस्था में कोई तालमेल नहीं है।
  
गृहस्थस्त्वेष धर्माणां सर्वेषां मूलमुच्यते, “यह गृहस्थ आश्रम सब धर्मों का मूल कहा जाता है।” ([[शांतिपर्व महाभारत|शांतिपर्व]], 234, 6) और [[मनुस्मृति]] में कहा गया है, गृहस्थ उच्यते श्रेष्ठ:, सभी आश्रमों में गृहस्थ श्रेष्ठ है। (6, 89) शरीर नश्वर है, आत्मा अमर है, इस धारणा से प्रेरित होकर अनेक युगों में बहुत-से लोगों ने शरीर को तरह-तरह के कष्ट दिए, जिससे मिट्टी से मुक्त होकर शीघ्र उन्हें शुद्ध ज्योति के दर्शन हो सकें। इस भावना का प्रचार भी किया गया कि जो शरीर को जितना ही अधिक कष्ट देगा, उसे उतना ही शीघ्र शुद्ध ज्योति के दर्शन होंगे।
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बिजली आने के बाद टीवी, कंप्यूटर, मोबाइल फ़ोन आदि की बहुत बड़ी भूमिका संयुक्त परिवार की व्यवस्था को समाप्त करने में रही।
  
[[भारत]] में जो भी ज्ञान-विज्ञान में उन्नति हुई है, वह सापेक्ष रूप में संसार और मानव शरीर को सत्य मानकर ही हुई है। विभिन्न क्षेत्रों में विज्ञान की उन्नति से दर्शन का गहरा सम्बन्ध है। भाषा-विज्ञान में [[पाणिनी]], शरीर-विज्ञान में [[चरक]] या उनके पूर्ववर्ती आचार्य अग्निवेश, [[आत्रेय]], पुनर्वसु आदि और अर्थशास्त्र में [[चाणक्य|कौटिल्य]] अथवा उनके पूर्ववर्ती [[बृहस्पति ऋषि|बृहस्पति]], उशना आदि आचार्य सब संसार को सत्य मानकर ही भाषा, शरीर और समाज का विश्लेषण कर सके थे।
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ज़रा यह भी सोचना चाहिए कि यह परिवर्तन सही था या ग़लत ? संयुक्त परिवार, हमारी सभ्यता-संस्कृति, विकास और स्वतंत्रता के लिए उचित थे या अनुचित ?
  
भौतिक पदार्थ परिवर्तनशील हैं, अनित्य हैं, इनमें व्याप्त ऊर्जा, प्राणशक्ति ही विभिन्न पदार्थों के रूप में व्यंजित होती है, यह धारणा भारत में बहुत पुरानी है। यह दृष्टिकोण अपनाकर मनुष्य वैज्ञानिक अनुसंधान में निरंतर प्रगति कर सकता है। पाणिनी ने अपने दर्शन का उल्लेख नहीं किया, पर उनकी पद्धति वही है जो वैशेषिक दर्शन की है। चरक संहिता में इस दर्शन का उल्लेख है और कौटिल्य ने अर्थशास्त्र के आरम्भ में लोकायत, सांख्य और योग का स्पष्ट रूप से नाम लिया है। दार्शनिक यथार्थवाद की धारा लोककल्याण की धारणा से जुड़ी हुई है। प्राचीन दर्शन की कोई भी धारा लोकहित को छोड़कर नहीं चलती। लोक होगा तो लोकहित कहाँ से होगा? ब्रह्म और आत्मा की सर्वाधिक चर्चा करने वाला वेदान्त भी लोकहित का तिरस्कार नहीं करता। लोकहित की यह धारणा उपनिषदों से धर्मशास्त्र तक चली आई है।
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जहाँ तक नारी विमर्श की बात है तो निश्चित रूप से गृहस्थ जीवन में संयुक्त परिवार एक गृहणी के लिए बंधनों से भरे रहे होंगे। नारी स्वतंत्रता जैसी स्थिति इन परिवारों में कितनी संभावना लेकर जीवित रहती होगी यह कहना कोई कठिन काम नहीं है। संयुक्त परिवार की व्यवस्था भारत के एक-आध राज्य को छोड़कर सामान्यत: पुरुष प्रधान थी। संयुक्त परिवार, एक परिवार होकर एक कुटुंब होता था। जिसका मुखिया अपने या परंपराओं द्वारा निष्पादित नियमों को कुटुंब के सभी सदस्यों पर लागू करता था।
  
[[दर्शन|भारतीय दर्शन]] की बहुत बड़ी विशेषता यह है कि वह लोकव्यवहार से कभी पूरी तरह असंबद्ध नहीं हुआ। धर्मशास्त्रों में बार-बार कहा गया है, पूजा, उपासना, कर्मकाण्ड की तुलना में सदाचार बढ़कर है। सदाचार का, मनुष्य के नैतिक मूल्यों का, एक दार्शनिक आधार है। वह उपनिषदों में प्राप्त है। जो ब्रह्म एक मनुष्य के भीतर है, वही ब्रह्म दूसरे मनुष्य के भीतर है। इसलिए एक मनुष्य दूसरे से घृणा क्यों करे, अपने को बड़ा और दूसरे को छोटा क्यों समझे? जिस समाज व्यवस्था में शूद्र छोटे हैं, ब्राह्मण बड़े हैं, स्त्रियाँ शूद्रों के समान हैं, वह व्यवस्था पुरोहितों की रची हुई है; संस्कृति के मूल स्रोतों से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। यजुर्वेद में कहा गया है-
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संयुक्त परिवार सुरक्षा की दृष्टि को देखकर बने थे। प्राचीन काल में न तो आज जैसे मकान थे, न राज्य द्वारा दी गई सुरक्षा इतनी सुदृढ़ थी। जंगली जानवरों का भय, डाकुओं का भय, दूसरे परिवार, क़बीले या गाँव द्वारा हमला किए जाने का भय आदि अनेक असुरक्षित वातावरण का सामना करते जीना ही संयुक्त परिवार का कारण बने।
  
“(यथा इमां कल्याणी वाचम्) जिस प्रकार इस कल्याणकारी वाणी को हमने (ब्रह्मराजन्याभ्यां च शूद्राय च अर्याय स्वाय अरणाय च जनेभ्य: आवदानि) ब्राह्मण व क्षत्रियों के लिए और शूद्र के लिए तथा वैश्य के लिए, अपने प्रिय लगने व प्रिय न लगने वाले पराये एवं सम्पूर्ण जनों के लिए उपदेश किया है, वैसे हे मनुष्यो ! तुम लोग भी करो।“ (26, 2) (सातवलेकर, यजुर्वेद का सुबोध भाष्य, पृष्ठ 423)
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इसे समझने के लिए और थोड़ा आदिकाल की ओर चलें तो धरती पर 5 लाख वर्ष तक बने रहने वाली नीएंडरठल नस्ल के आज से 25 हज़ार साल पहले लुप्त हो जाने के कारणों में से एक संयुक्त परिवार की कमज़ोर संरचना भी था। नीएंडरठल शरीर के आकार और शक्ति में होमोसैपियन्स से अधिक थे किंतु भारी हथियारों का प्रयोग करते थे। जिन्हें वे हाथ में पकड़े-पकड़े ही इस्तेमाल करते थे अर्थात वे शस्त्रों का प्रयोग करते थे अस्त्रों का नहीं। अस्त्र को फेंककर चलाया जाता है। ये बलिष्ठ नस्ल अपने भारी-भरकम भालों का प्रयोग फेंककर नहीं कर पाती थी इसके विपरीत होमोसैपियन्स अपने हल्के भालों को फेंक भी सकते थे।
  
जब [[यजुर्वेद]] रचा गया था, तब समाज में चार वर्ण थे। यह [[वेद]] किसी एक वर्ण के लिए वरन् शूद्रों समेत चारों वर्णों के लिए है। शूद्र वेद न पढ़ें, पुरोहितों का यह कार्य वेदविरोधी था। शूद्रों के साथ स्त्रियों के लिए कहा गया- वे वेद न पढ़ें, लेकिन [[ऋग्वेद]] के अनेक सूक्त और मंत्र स्त्रियों के रचे हुए परम्परा से प्रसिद्ध हैं। 8वें मण्डल का एक पूरा सूक्त 91 आत्रेयी अपाला का रचा हुआ है। 10वें मण्डल के दो सूक्त 39, 80 काक्षीवती घोषा के रचे हुए प्रसिद्ध हैं। धर्मरक्षक पण्डित स्त्रियों के रचे हुए वेदमंत्र स्वयं पढ़ते हैं, परन्तु स्त्रियों को उन्हें पढ़ने का अधिकार देते थे।
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नीएंडरठल के क़बीले-परिवार छोटे थे और इसमें 20 से 30 सदस्य होते थे। होमोसैपियन्स के क़बीले 100 से अधिक सदस्यों के थे। धीरे-धीरे नीएंडरठल यूरोप से ग़ायब हो गए। जिसका कारण था दोनों नस्लों की भोजन को लेकर लड़ाई और आपस में वैवाहिक संबंध हो पाना। साथ ही संख्या बल से भी होमोसैपियन्स जीत गए।
  
[[राजा राममोहन राय]] परम वेदांती थे। उन्होंने [[सती प्रथा]] का विरोध किया। यह नहीं कहा- आत्मा के लिए शरीर बन्धन है, पति के साथ विधवा भी चिता पर भस्म हो जाए तो उसकी आत्मा मुक्त हो जाएगी। यहाँ व्यवहार में हम वेदांतियों को लोकहित के लिए संघर्ष करते हुए देखते हैं। राममोहन राय को विधवाओं की प्राणरक्षा के लिए संघर्ष करना पड़ा, इसी तरह विधवाओं के पुनर्विवाह के लिए [[स्वामी दयानन्द सरस्वती]] को संघर्ष करना पड़ा और साहित्यकारों में द्विज और शूद्र का भेद मिटाने के लिए [[सूर्यकांत त्रिपाठी निराला]] को संघर्ष करना पड़ा। भारतीय संस्कृति का इतिहास लोकविरोधी रूढ़ियों और प्रगतिशील विचारधाराओं के सतत संघर्ष का इतिहास है। 
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ऊपर दिया उदाहरण यह प्रमाणित करता है कि प्राचीन काल में बड़े संयुक्त परिवार अधिक सुरक्षित और व्यावहारिक थे। आज जबकि मनुष्य को सुरक्षा और भोजन के लिए प्राचीन काल जैसा संघर्ष नहीं करना पड़ता तो संयुक्त परिवार की अवधारणा समाप्त हो रही है।
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संयुक्त परिवारों का चलन समाप्त होने से पुरुष और स्त्री का भेद कम हुआ। नारी को स्वतंत्र-स्वच्छंद आकाश में विचरण करने का मौक़ा मिला। नई पहचान मिलने लगी। प्रतिभा निखारने का समय और मौक़ा मिलने लगा। यह सब कुछ हुआ लेकिन हम रिश्तों को जीना भूलते चले गए। रिश्तों का आनंद लेना भूलने लगे। दादी-नानी की कहानियाँ और लाढ़ जैसे कहीं छूट गया। कह नहीं सकते कि अच्छा हुआ या बुरा लेकिन इतना अवश्य है कि संयुक्त परिवार की यादें आजकल बुज़ुर्गों की गपशप का सबसे बड़ा हिस्सा बन गईं…
 
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| 11 मई, 2015
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| 6 अक्टूबर, 2015
 
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‘विद्युता’ पौराणिक धर्म ग्रंथों में वर्णित एक अप्सरा का नाम है। उसका सम्बन्ध अलकापुरी बताया गया है। इस अप्सरा ने 'अष्टावक्र' मुनि के स्वागत के अवसर पर कुबेर भवन में नृत्य किया था। इस नृत्य में नर्तकी एक के बाद एक अपने सभी वस्त्र उतार देती है और अंत में पूर्णत: नग्न होकर नृत्य करती है। यह नृत्य यूरोप में कॅबरे (cabaret) नाम से होता है।
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| 12 दिसम्बर, 2015
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प्रिय मित्रो! अर्से बाद कुछ पंक्तियाँ कहीं, तो आपके सामने हाज़िर हैं-
  
ऋषि अष्टावक्र के साथ और भी कई ऋषि-मुनि थे जो यह नृत्य देख रहे थे। जब विद्युता ने नृत्य करते हुए वस्त्र उतारना शुरू किया तो पहले वस्त्र पर ही एक ऋषि क्रोध से मुँह फेरकर वहाँ से उठकर चले गए। जब और वस्त्र उतारे तो एक और ऋषि उठ खड़े हुए और यह कहते हुए वहाँ से चले गए कि इस नग्न नृत्य से मन विचलित होता है। यह सुनकर अन्य ऋषि-मुनि भी उठकर चले गए। अष्टावक्र बिना विचलित हुए शान्त भाव से नृत्य देखते रहे। विद्युता पूरे वस्त्र उतार कर नाच रही थी। जब उसने अपना नृत्य समाप्त किया तो उसने अष्टावक्र को प्रणाम कर आशीर्वाद मांगा। अष्टावक्र ने कहा-
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इन मंजिलों को शायद
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कुछ रंजिशें हैं मुझसे
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जो रास्ते सफ़र के
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मुश्किल बता रही हैं
  
“तुमने अत्यन्त श्रेष्ठ नृत्य का प्रदर्शन किया विद्युता! किंतु नृत्य को बीच में ही रोक दिया, मैं तो समझ रहा था कि तुम नृत्य करते-करते वस्त्रों के बाद अपनी त्वचा भी उतार दोगी और उसके बाद हड्डियों को ढकने वाला मांस भी उतार फेंकोगी… ? किंतु तुमने ऐसा न करके मुझे निराश कर दिया, यदि फिर कभी नृत्य करते-करते त्वचा और मांस को भी उतारो तो मुझे निमंत्रण देना, मैं अवश्य आऊँगा।”
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जो मेरा आसमां है
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वो मेरा आसमां है
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फिर कौन सी ग़रज़ से,
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ये हक़ जता रही हैं
  
सन्त अपने वीतराग में कितने गहरे डूब जाते होंगे इसकी कोई सीमा नहीं है। नग्न नर्तकी को नाचते हुए देखकर भी अष्टावक्र, विद्युता के मादक यौवन से भरी देहयष्टि के प्रति कामवासना से वशीभूत होने की अपेक्षा उसकी चमड़ी, मांस और हड्डी के बारे में विचारमग्न थे।
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ये कौन से तिलिस्मी
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आलम की दास्तां है
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जो राहते जां होतीं,
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वो भी सता रही हैं
  
अष्टावक्र जन्म से ही शारीरिक रूप से अपूर्ण थे। उनके शरीर में हाथ-पैरों सहित कई हड्डियां टेड़ी-मेड़ी थीं। उनकी शारीरिक कुरूपता के कारण उनमें कोई आकर्षण नहीं था। मिथिला नरेष राजा जनक की राजसभा में जाने पर जनक के सभासदों ने हँसकर उनका उपहास किया। जनक की कोई प्रतिक्रिया न देखकर अष्टावक्र ने जनक को संबोधित करते हुए कहा-
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गुज़रे हुए ज़माने की
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कैसे कैफ़ीयत दूँ
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अब और क्या बताऊँ,
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क्या-क्या ख़ता रही हैं
  
“मैं समझता था कि तू विद्वान व्यक्ति है किंतु तेरी सभा में तो मात्र शरीर का और विशेषकर चमड़ी का मूल्यांकन करने वाले सभासद हैं। मैं तो चमड़ी के व्यापारियों की सभा में आ गया।”
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क्या ढूंढते हो?
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सूरज?
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वो यूँ नहीं मिलेगा
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सूरज की हर किरन ही,
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उसका पता रही हैं
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| 26 सितम्बर, 2015
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"सब कुछ
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तुम पर नहीं है निर्भर,
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भाई सूरज,
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यह रज भी एक चीज़ है
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सारी सज-धज,
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उसी में से अँकुरी है।”
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-भवानी प्रासाद मिश्र
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अज्ञेय लिखते हैं-
  
जनक शर्मिंदा हुए और अष्टावक्र से उपदेश के लिए प्रार्थना की, जो बाद में अष्टावक्र गीता के नाम से प्रसिद्ध है।
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जो पुल बनायेंगे
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वे अनिवार्यतः
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पीछे रह जायेंगे ।
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सेनाएँ हो जायेंगी पार
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मारे जायेंगे रावण
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जयी होंगे राम;
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जो निर्माता रहे
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इतिहास में
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बन्दर कहलायेंगे
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~ अज्ञेय
 
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| 26 सितम्बर, 2015
 
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मौसम है ये गुनाह का इक करके देख लो
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प्रिय मित्रो!
जी लो किसी के इश्क़ में या मर के देख लो
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दसवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में, माइक्रोसॉफ़्ट, ऍप्पल और गूगल जैसी विश्व बाज़ार पर छाए रहने वाली कम्पनियों के साथ भारतकोश को भी स्थान दिया गया। हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती थी कि इन अंतरराष्ट्रीय कम्पनियों के सामने भारतकोश के प्रदर्शन स्थल (स्टॉल) पर लोग आएँगे भी या नहीं?
 
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लेकिन सब कुछ सुखद और अविश्वसनीय हुआ। भारतकोश प्रेमी आए और ढेर के ढेर आए। दूसरे स्टॉलों के दसियों गुना अधिक आए।
क्या ज़िन्दगी मिली तुम्हें डरने के वास्ते?
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देशी-विदेशी विद्वान आए, साहित्यकार आए, केन्द्रीय मंत्री आए, छात्र आए और मज़े की बात कि पुलिस वाले भी आए।
जो भी लगे कमाल उसे करके देख लो
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मेरे तीन सत्र हुए जिनमें मैं कई विषयों पर बोला। क्या बोला वह भी आपको पढ़वाऊँगा…
 
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जो लोग तुमसे कह रहे जाना नहीं ‘उधर’
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इतना भी क्या है पूछना, जाकर के देख लो
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| 16 सितम्बर, 2015
 
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कब-कब हैं ये मंज़र ये नज़ारे हयात के
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इक बार ही देखो तो नज़र भर के देख लो
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हृदय विचलित हो गया। जिनसे बहुत कुछ सीखा वो नहीं रहे।
कुछ लोग रोज़ मर रहे, जीने की फ़िक्र में
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कलाम साहब से एक मिसाइल के निर्माण में कुछ कमी रह गई। इस मिसाइल का प्रक्षेपण असफल रहा। कलाम साहब के बॉस ने प्रेस के सामने इस असफल परीक्षण की पूरी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ली और कलाम साहब को साफ़ तौर पर बचा लिया। इसके बाद कलाम साहब को यह अनुभव मिला कि बॉस किसे कहते हैं और वह कैसा होना चाहिए…
जीना है अगर शान से तो मर के देख लो
 
 
 
जमती नहीं है रस्म-ओ-रिवायत की बंदिशें
 
परवाज़ नए ले, उड़ान भर के देख लो
 
 
 
‘आदित्य’ को रुसवा जो कर रहे हो शहर में
 
तो सारे गिरेबान इस शहर के देख लो
 
 
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| [[चित्र:Mausam-hai-Gunah-ka-Aditya-Chaudhary.jpg|250px|center]]
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| 6 मई, 2015
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| 27 जुलाई, 2015
 
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बुद्ध पूर्णिमा 4 मई 2015 को है। इस बार भगवान बुद्ध मुस्कुराएँगे नहीं। व्यथित हैं बुद्ध। नेपाल-भारत में आए भूकंप से। इतनी अधिक मात्रा में मृत्यु देखकर, वह भी निज जन्मस्थान लुंबिनी के निकट…
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एक सौ पच्चीस करोड़ की आबादी, 6 लाख 38 हज़ार से अधिक गाँवों और क़रीब 18 सौ नगर-क़स्बों वाले हमारे देश में क़रीब 35 करोड़ छात्राएँ-छात्र हैं। जो 16 लाख से अधिक शिक्षण संस्थानों और 700 विश्वविद्यालयों में समाते हैं। दु:खद यह है कि विश्व के मुख्य 100 शिक्षण संस्थानों में किसी भी भारतीय शिक्षण संस्थान का नाम-ओ-निशां नहीं है।
 
 
बुद्ध तो एक शव देखकर ही प्रवज्या को चले गए थे। फिर इतने शव? क्या फिर अवतार लेंगे? अाओ बुद्ध तुम्हारी ज़रूरत है अब विश्व को… या फिर कुपित हैं बुद्ध, नहीं लेंगे अवतार… क्या अब कभी नहीं?…
 
 
 
भारत के ईशान कोण पर हलचल है। विध्वंसकारी हलचल। चीन की कुदृष्टि से भी भयावह। 10 फ़ीट का विस्थापन झेल रहा है ईशान पर भारत। वास्तु के आधार पर तो ईशान को मंगलकारी वायु के प्रवाहन का द्योतक होना चाहिए लेकिन इस बार यह कैसा प्रवाह?
 
 
 
आइए बुद्ध का स्मरण करें और बुद्धम शरणम् गच्छामि, संघम् शरणम् गच्छामि और धम्मम् शरणम् गच्छामि का पाठ करें।
 
  
बुद्ध, बुद्ध क्यों बने? सिद्धार्थ का बुद्ध हो जाना कैसे घटा? क्यों हो जाते हैं सिद्धार्थ ‘बुद्ध' ? क्या है ये सन्न्यास, क्या है यह प्रवज्या। यह सन्न्यास किस चाह में, किस खोज में ? ईश्वर की खोज में या मोक्ष प्राप्ति के लिए या कुछ और…?
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इसके बावजूद भी स्कूल कॉलेजों में दाख़िले के लिए जो मारा-मारी होती है उससे हम सभी गुज़र चुके हैं। आइए इस विषय पर एक व्यंग्य पढ़ें जो मैंने 1993 के आस-पास लिखा था ( ऊपर लिखे अाँकड़ों को छोड़कर ) लेकिन लगता है जैसे आज ही लिखा हो…
  
सिद्धार्थ ने वृद्ध को देखा, रुग्ण को देखा और फिर शव को देखा और गृह त्यागकर सन्न्यस्त हो गए। क्या यही सब घटा? नहीं और भी कुछ घटा था।
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पुराने समय में, हमारे स्कूल, देश को मेधावी छात्राएँ-छात्र देते थे। आजकल स्कूल देश को मेधावी अभिभावक याने ‘पेरेन्ट्स’ देते हैं। पहले बच्चे को पहली बार स्कूल में एडमीशन के लिए ले जाते वक़्त नए-नए माता-पिता बड़ी ख़ुशी से हाथ में हाथ डालकर सीटी बजाते हुए स्कूल में घुसते हैं और जब वापस लौटते हैं तो बेचारे अभिभावक बन चुके होते हैं। बड़ा ही कारूणिक दृश्य होता है। पिता अभिभावक के बाल बिखरे होते हैं और कमीज़ एक तरफ़ से पैन्ट के बाहर निकली होती है। दोनों कान एल्सेशियनिज़्म से रिक्त देशी कुत्तों की तरह लटक जाते हैं। माता अभिभावक का पर्स पिता अभिभावक के मुँह की तरह खुला रह जाता है। साड़ी के पल्लू से सिर ढँक जाता है, चुटिया मरी साँपिन-सी लटक जाती है। दोनों अभिभावक अबला नारी और निर्बल नर के रूप में लौटते हैं और उनका सारा उत्साह ठण्डा हो जाता है। बच्चे को स्कूल भेजने की सारी ख़ुशी हवा हो जाती है। इसके बाद वे अपना शेष जीवन अभिभावकी में ही गुज़ारते हैं। क्या कमाल है, एक झटके में अच्छा ख़ासा इंसान अभिभावक बन कर रह जाता है।
  
सिद्धार्थ अनेक सुंदर दासियों और रणिकाओं के साथ रात्रि विश्राम में थे। वे रात को उठे तो देखा कि जिन नारियों के साथ वे सो रहे थे, वे सब जागते हुए तो बहुत सुंदर लगती हैं लेकिन सोते हुए उनका रूप ऐसा नहीं था कि जिसपर रीझा जा सके या उनके साथ रमण करने की वासना मन में उत्पन्न हो क्योंकि किसी के बाल बेतरतीब फैले हुए थे, किसी के वस्त्र अस्तव्यस्त होकर एक वितृष्णा पैदा कर रहे थे, कोई नग्नावस्था में विचित्र और कुरूप लग रही थी, कोई खर्राटे ले रही थी और इसी प्रकार के दृश्य सिद्धार्थ के समक्ष उपस्थित थे।
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एक अच्छे स्कूल में आप अपने बच्चे का एडमीशन करा चुके हैं और आपको “कुछ” नहीं हुआ है तो आप बधाई के पात्र हैं। एक से ज़्यादा बच्चों का एडमीशन करा चुके हैं तो आप सहज ही ‘पद्मश्री’ के दावेदार बन गए हैं। आज की दुनिया में शहर में रहने वाले इंसान का सबसे बड़ा सपना होता है, बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाना। आप चाहे जहाँ कहीं किसी को भी रास्ते में रोककर पूछ सकते हैं कि “आप के जीवन का उद्देश्य क्या है?” हमेशा एक ही उत्तर मिलेगा “बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाना।“ हाँ यह बात अलग है कि इस उत्तर को देने वाला व्यक्ति उत्तर देते वक़्त व्यवहार क्या करता है। मैंने भी यही सवाल एक दोस्त से किया। पहले तो उसने मेरी तरफ़ आश्चर्य से ऐसे देखा जैसे मैंने कोई बेहद निरर्थक क़िस्म का सवाल किया है, फिर सजल नेत्रों से भर्राए गले के साथ बोला-
  
सिद्धार्थ को बहुत क्षोभ हुआ और उन्होंने सोचा कि क्या इन्हीं के साथ मैं रमण करता हूँ। यह शारीरिक रूप-लावण्य तो अस्थाई भाव है, एक प्रपंच है जो मेरी वासना का कारण बनता है। सत्य का स्थाई भाव तो कहीं कुछ और ही है। यह सोचकर सिद्धार्थ ने मन बना लिया कि वे यह सब छोड़कर निकल जाएँगे। पुत्र मोहवश राहुल को भी साथ लेने के लिए गए लेकिन पत्नी के जाग जाने के संशय में उन्होंने राहुल को छोड़ दिया। सिद्धार्थ ने सोचा कि अपने पुत्र को भी बचाऊँ इस वासना के दलदल से लेकिन वे ऐसा कर न पाए।
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“जैसे तुम जानते नहीं हो इसका जवाब। एक ही तो उद्देश्य है हम सभी का, बच्चों को अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलवाना और इसमें हमारी जान ही क्यों न चली जाए।” इतना कहकर वो मुझसे लिपट कर रोने लगा। मैंने उसे ढाँढस बंधाया और पूछा-
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“इसमें रोने की क्या बात है?” वो सुबकते हुए बोला-
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“मुझे तुमसे ऐसी उम्मीद नहीं थी। क्या तुम जानते नहीं हो कि औरत की उम्र, मर्द की कमाई और एक अभिभावक से उसके जीवन का उद्देश्य कभी नहीं पूछना चाहिए। ये असभ्यता होती है।“
  
सार्वकालिक, सार्वभौमिक, शाश्वत सत्य खोजने निकल पड़े सिद्धार्थ और आज हम उन्हें बुद्ध के रूप में जानते हैं।
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मेरी जिज्ञासा और बढ़ गई। “पिछली बार तुम मिले थे तो ठीक-ठाक थे। आज ये तुम्हें क्या हो गया है?”
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“दोस्त पहले की बात और थी। वो दिन अब कहाँ। अब तो मैं एक चलता-फिरता अभिभावक बन के रह गया हूँ। बस इससे ज़्यादा और कुछ नहीं”,
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“लेकिन तुम अभिभावक बने कब?” (शेष भारतकोश पर पढ़ें)
 
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</poem>
*[http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%AC%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%A7 बुद्ध (भारतकोश)]
 
 
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| 3 मई, 2015  
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| 10 जुलाई, 2015
 
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10:56, 26 जनवरी 2016 का अवतरण

आदित्य चौधरी फ़ेसबुक पोस्ट
पोस्ट संबंधित चित्र दिनांक

बीना शर्मा किसी स्त्री का नहीं बल्कि एक मिशन का नाम है। आगरा निवासी बीना जी एक स्कूल चलाती हैं। जो बच्चे स्कूल की फ़ीस नहीं दे पाते और जिन्हें अपने परिवार की रोज़ी-रोटी कमाने में भी हाथ बंटाना होता है, उनके लिए…। इन्हें, कहीं से कोई सरकारी सहायता प्राप्त नहीं और ख़ुद को भी सुबह से शाम तक की नौकरी करनी पड़ती है। बावजूद इसके उनके स्कूल में 80 से अधिक बच्चे हैं। कॉलेज के छात्र अति साधारण मानदेय लेकर या वॉलेन्टियर की तरह सुबह 6:30 से 10 बजे तक इन बच्चों को पढ़ाते हैं।

बीना जी ने अत्यंत व्यावहारिक, रोचक और प्रभावशाली पाठ्यक्रम भी स्वयं तैयार किए हैं। जिससे गली-मुहल्लों के बच्चे जल्दी ही शिक्षित हो जाते हैं। साथ ही बच्चों में अच्छे संस्कार डालने के पाठ भी पढ़ाए जाते हैं।

जब बीना जी अपने सीमित आर्थिक साधनों से आगरा में यह करिश्मा कर सकती हैं तो फिर यह मथुरा-वृन्दावन में भी किया जा सकता है। जो मित्र दिलचस्पी रखते हों वे कमेंट बॉक्स में सहमति जताएँ। जिससे बात आगे बढ़े...

23 दिसम्बर, 2015

सामान्य, बात-चीत में मैं अक्सर कह देता हूँ कि मैं भगवान को नहीं मानता लेकिन मेरे साथ जो घटता है वह बड़ा ही विलक्षण अनुभव रहता है।

मैं कुछ समय पहले गोरखपुर गया था। वहाँ गोरखनाथ जी के मंदिर में गया तो वहाँ बैठे-बैठे मेरे मन में गोरखनाथ जी का मंत्र ‘हँसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्’ चलने लगा और मेरी आँखें भर आईं, कुछ समय के लिए सुध-बुध खो बैठा। वहाँ से उठा तो उसी परिसर में हनुमान जी का मंदिर था। हनुमान जी के सामने बैठकर हनुमान चालीसा पढ़ा। पढ़ते-पढ़ते फिर वही हाल हो गया जो गोरखनाथ मंदिर में हुआ था। इसके बाद हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के गीता भवन गया वहाँ मंदिर में दर्शन किए उसके बाद जब बाहर आया तो कृष्ण भजन चल रहे थे खड़ा-खड़ा आँख बन्द की तो फिर भावुक हो गया।

जब मुझे भारत सरकार ने विश्व हिन्दी सम्मान दिया तो इस कार्यक्रम के लिए मैं भोपाल गया। वहाँ एक पुरानी विशालकाय मस्जिद में जा पहुँचा। यह मस्जिद पर्यटकों के लिए भी उपलब्ध है। मस्जिद में कुछ देर आँखें बंद किए बैठा रहा। जैसे ही मैंने मन में कहा कि हे ईश्वर… अल्लाह ! सबका भला कर, सबके काम बना तो फिर आखों में आंसू आ गए। वहाँ बैठे मुस्लिम, आश्चर्य से मुझे देखने लगे क्योंकि मेरे माथे पर तिलक लगा था और कलाई पर कलावा बँधा था और साथ ही, मैं बैठा भी हाथ जोड़कर था। वहाँ बैठे एक बुज़ुर्ग मौलवी ने मुझे देखा तो करुणा के भाव के साथ मुस्कुरा दिए।

मनुष्य का जीवन ईश्वर की आस्था-अनास्था में व्यतीत होता है। ईश्वर के प्रति अास्था होने का अर्थ किसी धर्म के प्रति आस्था होना है या नहीं यह निश्चित नहीं है। हो सकता किसी धर्म विशेष में पैदा हुआ व्यक्ति अपने धर्म की परिभाषा ऐसी बना ले जिसमें दूसरे धर्मावलम्बियों के लिए नफ़रत हो। वह आतंक के द्वारा अपने धर्म को फैलाना चाहे या अपने धर्म का प्रयोग राजनीति और व्यवसाय के लिए करे। ऐसे लोग नास्तिक ही होते हैं और यह नास्तिकता ईश्वर के प्रति है। इस प्रकार के नास्तिकों की संख्या असंख्य है।

हम आस्तिक हैं यह तो ठीक है किंतु किसके प्रति है यह आस्तिकता। ईश्वर के प्रति, मानव-धर्म के प्रति या संप्रदाय के प्रति। यह ज़रूरी नहीं है कि कोई व्यक्ति किसी संप्रदाय-मज़हब के प्रति आस्था रखता हो तो ईश्वर में भी उसकी आस्था हो। ईश्वर में आस्था का अर्थ ईश्वर की स्तुति नहीं है बल्कि सत्य, करुणा, विवेक और प्रेम के मार्ग पर चलना है और यही ईश्वर-प्रदत्त मार्ग है। अब सोचने वाली बात यह है कि कितने लोग इस मार्ग पर चलते हैं? संभवत: कम ही हैं तो बस हिसाब लगा सकते हैं कि आस्तिकों की संख्या अधिक है या नास्तिकों की।

22 दिसम्बर, 2015

रजभाषा में लिखी इन पंक्तियों का अनुवाद हिन्दी में करें। सही अनुवाद करने वाले को ‘ब्रजरत्न’ से सम्मानित किया जाएगा…

बलाय उलाइतौ, भूमरें उठि गौ। धौंतांएँ कलेऊ करिकें धौपरी तक आरकस से में डर्यो रौ। पहल तौ एक जने को पैंड़ौ देख्यो… जब बु न आयौ तो पतौ परी कि बाते कोई बनउआ बनिगौ। सांझि कूँ चहा पी कें घूमबे निकर्यो तो बगदबे में अबेर है गई। जैसें-तैसें घर ल्यौट्यौ, तौ लौटतखैमई बत्ती पै बीजुरी परि गई। अंधेरे में टटोल-टलालिकें भीतर घुस्यौ तौ पाम रपटि कें सैंचित्त गिर्यो। गिर्त खैंम झमा सौ आइ गौ। आंख खुली तो असपताल में म्हौं पै मुछीका सौ बांध कें एक नस्स दिखी।
खैरि अब तौ सब ठीकै।

22 दिसम्बर, 2015

मैं यहाँ किसी धर्म-संप्रदाय-मज़हब के पक्ष-विपक्ष में नहीं लिख रहा हूँ। इसलिए किसी धर्म-संप्रदाय या मज़हब के अति उत्साही समर्थक निम्न पंक्तियों को सामान्य अर्थों में ही लें। कारण यह है कि मैं स्वयं को विद्वान न मानते हुए मात्र एक जिज्ञासु के समान ही लिखता हूँ। मेरे लिखे पर जो टिप्पणी आती हैं उससे मेरी जानकारी बढ़ती है। कभी-कभी कुछ लोग मेरी पोस्ट पर मुझे किसी एक पक्ष का मानते हुए टिप्पणी कर देते हैं जिसका कोई अर्थ नहीं है। मैं भारतकोश (www.bharatkosh.org) चला रहा हूँ और भारत की परंपरा, संस्कृति और इतिहास आदि की खोज में लगा रहता हूँ। मुझे जब भी जो भी जानने को मिलता है, लिखने का प्रयास करता हूँ। मैं किसी विषय पर कोई अथॉरिटी नहीं हूँ और एक साधारण रूप से पढ़ा-लिखा व्यक्ति हूँ।

अज़ीज़ के राय मेरे फ़ेसबुक मित्र हैं। विद्वान हैं और साथ ही मेरी लेखनी के प्रशंसक भी हैं। उनकी एक पोस्ट आई,
Aziz K. Rai

"निरपेक्ष, निष्पक्ष, नास्तिक, निडर, निराकार और निस्वार्थ” मुझे ये शब्द ही बेईमान (कपटी) लगते हैं। जो इनके पक्षधर होते हैं उनकी बातें निराधार होती हैं।"

मैंने पोस्ट देखी तो सोचा इस पर अपनी राय ज़ाहिर कर दूँ।
यहाँ मैं ‘निरपेक्ष' पर लिख रहा हूँ:-

धर्म को धारण करने वाला याने धार्मिक व्यक्ति सत्य के मार्ग पर ही चलने का प्रयास करता है और सत्य का मार्ग किसी एक के लिए ही सापेक्ष हो यह संभव नहीं है। इसलिए धार्मिक व्यक्ति, किसी धर्म-संप्रदाय के लिए नहीं बल्कि सत्य-मार्ग के लिए प्रतिबद्ध होता है।

‘सत्यनिष्ठा’ सदैव निरपेक्ष और निष्पक्ष ही होती है। सत्य का मार्ग निरपेक्ष और निष्पक्ष ही होता है। 'सापेक्ष सत्य’ जैसी कोई चीज़ नहीं होती। प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपना-अपना सच तो हो सकता है किन्तु सत्य तो सभी के लिए एक ही है। जब सत्य निरपेक्ष है तो हम मूलत: निरपेक्ष ही तो हुए।

निरपेक्षता का अर्थ यदि आज की परिस्थितियों की तरह ऊँट-पटाँग न निकाल कर सामान्य ढंग से लिया जाए तो हम सभी निरपेक्ष ही होते हैं। यदि यहाँ निरपेक्षता का अर्थ धर्म-निरपेक्षता से है तो भी मेरा विचार यही है। किसी धर्म के बारे में हमारा अपना पक्ष कोई नहीं होता। हम मात्र अनुसरण ही करते हैं। अनुसरण, संस्कारों का और विरासत में मिली आस्था का।

यदि कोई व्यक्ति बचपन में ही किसी वीरान टापू पर छूट जाए और वहीं अकेला पले-बढ़े… तो सोचिए कि उसका धर्म क्या होगा?

असल में प्रचलित ‘धर्म’ एक सामाजिक विषय है, व्यक्तिगत विषय नहीं है। किसी भी व्यक्ति के परम एकांत में कोई धर्म या जाति नहीं होती यह तो समाज की उपस्थिति जनित लक्षण या विषय है। हम समाज की उपस्थिति में ही धर्म को अपनाते अथवा नकारते हैं।

21 दिसम्बर, 2015

महिष या महिषी शब्द का अर्थ संस्कृत में, भैंसा, भैंस, रानी और वैश्या के लिए है। गाय के लिए नहीं। मैंने लिखा है कि सामान्य भोजन में गाय को खाना कहीं उद्दृत नहीं है। डी एन झा, डी डी कोसंबी, रोमिला थापर, राजवाड़े, भगवतशरण उपाध्याय आदि क्या यह प्रमाणित करते हैं कि वैदिक काल में 'मनुष्य का प्रिय भोजन गौमांस था'? मैंने इन सभी को पढ़ा है। मुझे ऐसा कहीं नहीं मिला। कई अंग्रेज़ इतिहासकारों ने वैदिक कालीन शब्द 'अन्न' को गाय मानकर लिखा है। जो सही प्रतीत नहीं होता।

इन इतिहासकारों ने जो उदाहरण दिए हैं वे विशेष अवसरों के हैं। ऐसे अवसर 'बलि चढ़ाना', श्राद्ध, मधुपर्क, विशाल यज्ञ आदि। इन उदाहरणों में भी स्पष्ट रूप से प्रत्येक अवसर पर गाय का ज़िक्र हो ऐसा नहीं है।

बहुत से शब्दों के अर्थ भी दूसरे ही निकाले गए हैं। जैसे गैंड़े का मांस खाने का ज़िक्र है। गैंड़े शब्द का प्रयोग एक प्रकार के पक्षी के लिए भी होता था। जिसका ज़िक्र वामन काणे ने किया है। अनेक ऋषि मुनियों का मांस खाने का ज़िक्र है। जिनमें अगस्त्य और शुक्राचार्य प्रमुख हैं। किन्तु यह कहीं नहीं लिखा कि किसी ऋषि-मुनि का प्रिय भोजन गाय थी। किसी विशाल यज्ञ जैसे कि 'अश्वमेध' में ब्राह्मणों को गाय का मांस परोसा गया हो, ऐसा उल्लेख नहीं है। भोजन प्रेमी ऋषियों में दुर्वासा भी हुए हैं, उनको किसी ने गौमांस परोसा हो यह कहीं नहीं मिलता।

भीम, हनुमान, जरासंध, दुर्योधन आदि जैसे वीर योद्धा भी गौमांस नहीं खाते थे। उससे पहले वैदिक काल में जाएँ तो सुदास और शशबिन्दु का कहीं गौमांस खाने का उल्लेख नहीं है। रावण, कंस, वाणासुर, आदि की कहीं गौमांस खाने की बात नहीं है। देवताओं को तो छोड़िये राक्षसों तक का गौमांस खाने का उल्लेख नहीं है।

अंग्रज़ों ने भारतीय संस्कृति को मिटाने के लिए ऊटपटांग लिखा और हमने मान लिया?

एक बार फिर गंभीरता से विचार कीजिए भाई साब! हमारे किसी रीतिरिवाज में गौमांस भक्षण का प्रतीक नहीं है। भारत में गाय तो कामधेनु का स्वरूप लिए हुए रही है। इसके भक्षण का तो कोई प्रश्न ही नहीं।

15 दिसम्बर, 2015

पिछले दिनों, गौवध और गौमांस भक्षण पर काफ़ी बहस चली थी। अनेक तर्क रखे गए। यहाँ मैं ऋग्वेद के हवाले से कहना चाहता हूँ कि गाय को ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर अघ्न्या कहा गया है। जिसका अर्थ है ‘अवध्य’ जिसका वध न किया जाता हो। संस्कृत भाषा के ज्ञानी जानते हैं कि ‘घ’ अक्षर संस्कृत में प्रहार के लिए भी प्रयुक्त होता है। जिससे ‘घन’ शब्द भी बना है जिसका अर्थ एक गदा जैसा शस्त्र भी है। घन काले बादलों के लिए भी है जो कि बिजली की कड़क और प्रहार उत्पन्न करते हैं।

ऋग्वेद में अघ्न्या शब्द का प्रयोग बार-बार गाय के लिए प्रयुक्त होना हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि वेदों में गाय को मात्र दूध के सेवन के लिए पाला जाता था न कि उसे रोज़ाना के भोजन के लिए मार कर और पका कर खाने के लिए। जहाँ तक बलि चढ़ाने का प्रश्न है तो मेरे विचार से बलि चढ़ाना एक उत्सव के रूप में होता रहा है। जो किसी देवता विशेष के क्रोध को शांत करने के लिए या फिर उसे प्रसन्न करने के लिए होता था। कहीं-कहीं आज भी होता है। जिसमें भैंसे की या पड्डे की बलि चढ़ाने का रिवाज रहा है।

यह भी कहा जाता है कि किसी विशेष अवसर के लिए गाय या उसके बछड़े की बलि चढ़ाई जाती थी परन्तु जहाँ तक मेरी जानकारी है, इसका कोई वैदिक उल्लेख मिलता नहीं। व्यक्तिगत रूप से मुझे नहीं लगता कि गाय वैदिक काल में प्रतिदिन के भोजन का हिस्सा रही होगी। डॉ. रामविलास शर्मा जी ने विस्तार से इस संबंध में लिखा है… पठनीय है।

यहाँ एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी है- वैज्ञानिक मानते हैं कि मनुष्य की मित्रता की ‘बॉन्डिग’ सबसे अधिक कुत्ते के साथ हुई। इसी क्रम में घोड़ा और गाय भी आते हैं। यह भी माना गया है कि जिन जानवरों से मनुष्य की ‘बॉन्डिग’ हुई उनको भोजन की तरह खाने में मनुष्य को हिचक हुई और ऐसे जानवरों को मनुष्य ने नहीं खाया।

कुछ भी कहें गाय को देखकर भी तो ऐसा नहीं लगता कि इसको मारकर खाया जाना चाहिए। हमारे समाज में सीधे-सरल व्यक्ति के लिए कहा जाता है कि बिल्कुल गाय की तहर सीधा/सीधी है। गाय का दूध भी मनुष्य के लिए सर्वश्रेष्ठ भोजन माना गया है। गौमूत्र और गोबर से लेकर गाय हमारे लिए अपने पूरे अस्तित्व सहित महत्वपूर्ण है तो फिर इसे खाएँ क्यों...

14 दिसम्बर, 2015

एक मंदिर की बहुत मान्यता थी। मंदिर के चारों ओर दूर-दूर तक रेगिस्तान था। एक टीले नुमा पहाड़ पर यह मंदिर बना हुआ था। जहाँ से मंदिर की चढ़ाई शुरू होती थी वहाँ एक दुकान थी।

एक यात्री ने दुकानदार से मंदिर के रास्ते के बारे में पूछा तो दुकानदार ने इशारे से बता दिया। यात्री चढ़ाई चढ़कर मंदिर तक पहुँचा तो उसे मंदिर में भीतर जाने से रोक दिया गया। पूछने पर पता चला कि मंदिर में वही प्रवेश कर सकता है जो विशेष प्रकार की टोपी पहने हो। यात्री निराश होकर वापस लौटा तो दुकानदार ने बताया कि वैसी टोपी तो वह बेचता है।
क़ीमत पूछने पर बताई ‘एक हज़ार रुपए’

यात्री ने आश्चर्य से पूछा- “जब ये टोपी तुम्हारे पास बिकती है तो तुमने पहले क्यों नहीं बताया ? मैं मंदिर तक पहुँचा और वापस लौटा… अब तुम बता रहे हो कि टोपी तुम्हारे पास है… इसका क्या मतलब है?

दुकानदार ने समझाया- “अगर मैं तुमसे पहले ही कहता कि टोपी ले लो और हज़ार रुपए क़ीमत बताता तो तुम नहीं ख़रीदते। मंदिर जाने की परेशानी उठाकर तुमको टोपी की ज़रूरत समझ में आ गई है। अब तुम हज़ार रुपए की टोपी आराम से ख़रीद लोगे।”

ये उदाहरण बाज़ार की सप्लाई-डिमांड समीकरण को समझाने के लिए दिया है। बाज़ार, भावनाओं से नहीं बल्कि भावनाओं को भुनाने से चलता है।

12 दिसम्बर, 2015

भारतकोश संपादकीय का अंश

दुनिया में जिन खोजों का विशेष महत्व है उनमें पहिया, शून्य, दशमलव, π (पाई), पुस्तक छपाई, गुरुत्वाकर्षण, बैटरी, मोटर, डायनमो आदि हैं। इनमें डायनमो ने जो प्रभाव डाला है वो तो ग़ज़ब है। बिजली का बनने और आम जन के लिए सुलभ हो जाने से जैसे दुनिया ही बदल गई। कह सकते हैं कि दुनिया दो हैं, एक बिजली से पहले की दुनिया और दूसरी बिजली के बाद की दुनिया।

बिजली आई तो कुटीर उद्योग, कल कारख़ानों में बदल गए। लोग अपना गाँव अपना शहर और यहाँ तक कि अपना देश छोड़कर रोज़गार की तलाश में घर से दूर घर बसाने लगे। शुरुआत में पुरुष ही बाहर जाते थे फिर परिवार सहित जाने लगे। संयुक्त परिवार की भव्य व्यवस्था दरक़ने लगी।

गृहणी को संयुक्त परिवार में अपनी स्वतंत्रता का हनन होता प्रतीत होने लगा। मेरा पति, मेरे बच्चे और मेरा घर ही वरीयता हो गई। रिश्तेदारियों का आनंद अब मात्र रिश्तेदारी निबाहने तक सीमित रह गया। धीरे-धीरे लोग ‘हम’ से ‘मैं’ में बदलने लगे। बच्चों को बोर्डिंग स्कूलों में पढ़ाया जाने लगा। वैसे तो बच्चों को प्राचीनकाल से ही, अभिभावकों से दूर रखकर गुरुकुलों में पढ़ाने की परंपरा रही है लेकिन उस समय की गुरुकुल परंपरा में और अब की बोर्डिंग व्यवस्था में कोई तालमेल नहीं है।

बिजली आने के बाद टीवी, कंप्यूटर, मोबाइल फ़ोन आदि की बहुत बड़ी भूमिका संयुक्त परिवार की व्यवस्था को समाप्त करने में रही।

ज़रा यह भी सोचना चाहिए कि यह परिवर्तन सही था या ग़लत ? संयुक्त परिवार, हमारी सभ्यता-संस्कृति, विकास और स्वतंत्रता के लिए उचित थे या अनुचित ?

जहाँ तक नारी विमर्श की बात है तो निश्चित रूप से गृहस्थ जीवन में संयुक्त परिवार एक गृहणी के लिए बंधनों से भरे रहे होंगे। नारी स्वतंत्रता जैसी स्थिति इन परिवारों में कितनी संभावना लेकर जीवित रहती होगी यह कहना कोई कठिन काम नहीं है। संयुक्त परिवार की व्यवस्था भारत के एक-आध राज्य को छोड़कर सामान्यत: पुरुष प्रधान थी। संयुक्त परिवार, एक परिवार न होकर एक कुटुंब होता था। जिसका मुखिया अपने या परंपराओं द्वारा निष्पादित नियमों को कुटुंब के सभी सदस्यों पर लागू करता था।

संयुक्त परिवार सुरक्षा की दृष्टि को देखकर बने थे। प्राचीन काल में न तो आज जैसे मकान थे, न राज्य द्वारा दी गई सुरक्षा इतनी सुदृढ़ थी। जंगली जानवरों का भय, डाकुओं का भय, दूसरे परिवार, क़बीले या गाँव द्वारा हमला किए जाने का भय आदि अनेक असुरक्षित वातावरण का सामना करते जीना ही संयुक्त परिवार का कारण बने।

इसे समझने के लिए और थोड़ा आदिकाल की ओर चलें तो धरती पर 5 लाख वर्ष तक बने रहने वाली नीएंडरठल नस्ल के आज से 25 हज़ार साल पहले लुप्त हो जाने के कारणों में से एक संयुक्त परिवार की कमज़ोर संरचना भी था। नीएंडरठल शरीर के आकार और शक्ति में होमोसैपियन्स से अधिक थे किंतु भारी हथियारों का प्रयोग करते थे। जिन्हें वे हाथ में पकड़े-पकड़े ही इस्तेमाल करते थे अर्थात वे शस्त्रों का प्रयोग करते थे अस्त्रों का नहीं। अस्त्र को फेंककर चलाया जाता है। ये बलिष्ठ नस्ल अपने भारी-भरकम भालों का प्रयोग फेंककर नहीं कर पाती थी इसके विपरीत होमोसैपियन्स अपने हल्के भालों को फेंक भी सकते थे।

नीएंडरठल के क़बीले-परिवार छोटे थे और इसमें 20 से 30 सदस्य होते थे। होमोसैपियन्स के क़बीले 100 से अधिक सदस्यों के थे। धीरे-धीरे नीएंडरठल यूरोप से ग़ायब हो गए। जिसका कारण था दोनों नस्लों की भोजन को लेकर लड़ाई और आपस में वैवाहिक संबंध न हो पाना। साथ ही संख्या बल से भी होमोसैपियन्स जीत गए।

ऊपर दिया उदाहरण यह प्रमाणित करता है कि प्राचीन काल में बड़े संयुक्त परिवार अधिक सुरक्षित और व्यावहारिक थे। आज जबकि मनुष्य को सुरक्षा और भोजन के लिए प्राचीन काल जैसा संघर्ष नहीं करना पड़ता तो संयुक्त परिवार की अवधारणा समाप्त हो रही है।

संयुक्त परिवारों का चलन समाप्त होने से पुरुष और स्त्री का भेद कम हुआ। नारी को स्वतंत्र-स्वच्छंद आकाश में विचरण करने का मौक़ा मिला। नई पहचान मिलने लगी। प्रतिभा निखारने का समय और मौक़ा मिलने लगा। यह सब कुछ हुआ लेकिन हम रिश्तों को जीना भूलते चले गए। रिश्तों का आनंद लेना भूलने लगे। दादी-नानी की कहानियाँ और लाढ़ जैसे कहीं छूट गया। कह नहीं सकते कि अच्छा हुआ या बुरा लेकिन इतना अवश्य है कि संयुक्त परिवार की यादें आजकल बुज़ुर्गों की गपशप का सबसे बड़ा हिस्सा बन गईं…

6 अक्टूबर, 2015

 

12 दिसम्बर, 2015

प्रिय मित्रो! अर्से बाद कुछ पंक्तियाँ कहीं, तो आपके सामने हाज़िर हैं-

इन मंजिलों को शायद
कुछ रंजिशें हैं मुझसे
जो रास्ते सफ़र के
मुश्किल बता रही हैं

जो मेरा आसमां है
वो मेरा आसमां है
फिर कौन सी ग़रज़ से,
ये हक़ जता रही हैं

ये कौन से तिलिस्मी
आलम की दास्तां है
जो राहते जां होतीं,
वो भी सता रही हैं

गुज़रे हुए ज़माने की
कैसे कैफ़ीयत दूँ
अब और क्या बताऊँ,
क्या-क्या ख़ता रही हैं

क्या ढूंढते हो?
सूरज?
वो यूँ नहीं मिलेगा
सूरज की हर किरन ही,
उसका पता रही हैं

26 सितम्बर, 2015

"सब कुछ
तुम पर नहीं है निर्भर,
भाई सूरज,
यह रज भी एक चीज़ है
सारी सज-धज,
उसी में से अँकुरी है।”
-भवानी प्रासाद मिश्र

26 सितम्बर, 2015

अज्ञेय लिखते हैं-

जो पुल बनायेंगे
वे अनिवार्यतः
पीछे रह जायेंगे ।
सेनाएँ हो जायेंगी पार
मारे जायेंगे रावण
जयी होंगे राम;
जो निर्माता रहे
इतिहास में
बन्दर कहलायेंगे
~ अज्ञेय

26 सितम्बर, 2015

प्रिय मित्रो!
दसवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में, माइक्रोसॉफ़्ट, ऍप्पल और गूगल जैसी विश्व बाज़ार पर छाए रहने वाली कम्पनियों के साथ भारतकोश को भी स्थान दिया गया। हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती थी कि इन अंतरराष्ट्रीय कम्पनियों के सामने भारतकोश के प्रदर्शन स्थल (स्टॉल) पर लोग आएँगे भी या नहीं?
लेकिन सब कुछ सुखद और अविश्वसनीय हुआ। भारतकोश प्रेमी आए और ढेर के ढेर आए। दूसरे स्टॉलों के दसियों गुना अधिक आए।
देशी-विदेशी विद्वान आए, साहित्यकार आए, केन्द्रीय मंत्री आए, छात्र आए और मज़े की बात कि पुलिस वाले भी आए।
मेरे तीन सत्र हुए जिनमें मैं कई विषयों पर बोला। क्या बोला वह भी आपको पढ़वाऊँगा…

16 सितम्बर, 2015

हृदय विचलित हो गया। जिनसे बहुत कुछ सीखा वो नहीं रहे।
कलाम साहब से एक मिसाइल के निर्माण में कुछ कमी रह गई। इस मिसाइल का प्रक्षेपण असफल रहा। कलाम साहब के बॉस ने प्रेस के सामने इस असफल परीक्षण की पूरी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ली और कलाम साहब को साफ़ तौर पर बचा लिया। इसके बाद कलाम साहब को यह अनुभव मिला कि बॉस किसे कहते हैं और वह कैसा होना चाहिए…

27 जुलाई, 2015

एक सौ पच्चीस करोड़ की आबादी, 6 लाख 38 हज़ार से अधिक गाँवों और क़रीब 18 सौ नगर-क़स्बों वाले हमारे देश में क़रीब 35 करोड़ छात्राएँ-छात्र हैं। जो 16 लाख से अधिक शिक्षण संस्थानों और 700 विश्वविद्यालयों में समाते हैं। दु:खद यह है कि विश्व के मुख्य 100 शिक्षण संस्थानों में किसी भी भारतीय शिक्षण संस्थान का नाम-ओ-निशां नहीं है।

इसके बावजूद भी स्कूल कॉलेजों में दाख़िले के लिए जो मारा-मारी होती है उससे हम सभी गुज़र चुके हैं। आइए इस विषय पर एक व्यंग्य पढ़ें जो मैंने 1993 के आस-पास लिखा था ( ऊपर लिखे अाँकड़ों को छोड़कर ) लेकिन लगता है जैसे आज ही लिखा हो…

पुराने समय में, हमारे स्कूल, देश को मेधावी छात्राएँ-छात्र देते थे। आजकल स्कूल देश को मेधावी अभिभावक याने ‘पेरेन्ट्स’ देते हैं। पहले बच्चे को पहली बार स्कूल में एडमीशन के लिए ले जाते वक़्त नए-नए माता-पिता बड़ी ख़ुशी से हाथ में हाथ डालकर सीटी बजाते हुए स्कूल में घुसते हैं और जब वापस लौटते हैं तो बेचारे अभिभावक बन चुके होते हैं। बड़ा ही कारूणिक दृश्य होता है। पिता अभिभावक के बाल बिखरे होते हैं और कमीज़ एक तरफ़ से पैन्ट के बाहर निकली होती है। दोनों कान एल्सेशियनिज़्म से रिक्त देशी कुत्तों की तरह लटक जाते हैं। माता अभिभावक का पर्स पिता अभिभावक के मुँह की तरह खुला रह जाता है। साड़ी के पल्लू से सिर ढँक जाता है, चुटिया मरी साँपिन-सी लटक जाती है। दोनों अभिभावक अबला नारी और निर्बल नर के रूप में लौटते हैं और उनका सारा उत्साह ठण्डा हो जाता है। बच्चे को स्कूल भेजने की सारी ख़ुशी हवा हो जाती है। इसके बाद वे अपना शेष जीवन अभिभावकी में ही गुज़ारते हैं। क्या कमाल है, एक झटके में अच्छा ख़ासा इंसान अभिभावक बन कर रह जाता है।

एक अच्छे स्कूल में आप अपने बच्चे का एडमीशन करा चुके हैं और आपको “कुछ” नहीं हुआ है तो आप बधाई के पात्र हैं। एक से ज़्यादा बच्चों का एडमीशन करा चुके हैं तो आप सहज ही ‘पद्मश्री’ के दावेदार बन गए हैं। आज की दुनिया में शहर में रहने वाले इंसान का सबसे बड़ा सपना होता है, बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाना। आप चाहे जहाँ कहीं किसी को भी रास्ते में रोककर पूछ सकते हैं कि “आप के जीवन का उद्देश्य क्या है?” हमेशा एक ही उत्तर मिलेगा “बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाना।“ हाँ यह बात अलग है कि इस उत्तर को देने वाला व्यक्ति उत्तर देते वक़्त व्यवहार क्या करता है। मैंने भी यही सवाल एक दोस्त से किया। पहले तो उसने मेरी तरफ़ आश्चर्य से ऐसे देखा जैसे मैंने कोई बेहद निरर्थक क़िस्म का सवाल किया है, फिर सजल नेत्रों से भर्राए गले के साथ बोला-

“जैसे तुम जानते नहीं हो इसका जवाब। एक ही तो उद्देश्य है हम सभी का, बच्चों को अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलवाना और इसमें हमारी जान ही क्यों न चली जाए।” इतना कहकर वो मुझसे लिपट कर रोने लगा। मैंने उसे ढाँढस बंधाया और पूछा-
“इसमें रोने की क्या बात है?” वो सुबकते हुए बोला-
“मुझे तुमसे ऐसी उम्मीद नहीं थी। क्या तुम जानते नहीं हो कि औरत की उम्र, मर्द की कमाई और एक अभिभावक से उसके जीवन का उद्देश्य कभी नहीं पूछना चाहिए। ये असभ्यता होती है।“

मेरी जिज्ञासा और बढ़ गई। “पिछली बार तुम मिले थे तो ठीक-ठाक थे। आज ये तुम्हें क्या हो गया है?”
“दोस्त पहले की बात और थी। वो दिन अब कहाँ। अब तो मैं एक चलता-फिरता अभिभावक बन के रह गया हूँ। बस इससे ज़्यादा और कुछ नहीं”,
“लेकिन तुम अभिभावक बने कब?” (शेष भारतकोश पर पढ़ें)

10 जुलाई, 2015


शब्दार्थ

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