जीव एवं चैतन्य की अवधारणा -चार्वाक

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  • चार्वाक मत में कोई जीव शरीर से भिन्न नहीं है। शरीर ही जीव या आत्मा है। फलत: शरीर का विनाश जब मृत्यु के उपरान्त दाह संस्कार होने के बाद हो जाता है तब जीव या जीवात्मा भी विनष्ट हो जाता है। शरीर में जो चार या पाँच महाभूतों का समवधान है, यह समवधान ही चैतन्य का कारण है। यह जीव मृत्यु के अनन्तर परलोक जाता है यह मान्यता भी, शरीर को ही चेतन या आत्मा स्वीकार करने से निराधार ही सिद्ध होती है। शास्त्रों में परिभाषित मोक्ष रूप परम पुरुषार्थ भी चार्वाक नहीं स्वीकार करता है। चेतन शरीर का नाश ही इस मत में मोक्ष है। धर्म एवं अधर्म के न होने से चार्वाक सिद्धान्त में धर्म-अधर्म या पुण्य-पाप को, कोई अदृश्य स्वर्ग एवं नरक आदि फल भी नहीं है यह अनायास ही सिद्ध हो जाता है।[1] यहाँ यह प्रश्न सहज रूप में उत्पन्न होता है कि चार या पाँच भूतों के समवहित होने पर चैतन्य कैसे प्रादुर्भूत हो जाता है? समाधान में चार्वाक कहता है कि जैसे किण्व[2], मधु, शर्करा[3], चावल, यव, द्राक्षा, महुआ, सेब आदि पदार्थ पानी आदि के साथ कुछ दिन विशेष-विधि से रखने के बाद विकृत हो कर मद्य में परिवर्तित हो जाते हैं तथा अचेतन होने पर भी मादकता शक्ति को उत्पन्न कर देते हैं ठीक उसी प्रकार शरीर रूप में विकारयुक्त भूत-समूह भी चैतन्य का उत्पन्न करते हैं। इसी प्रकार ताम्बूल, सुपारी, तथा चूने के संयोग से जैसे लाल रंग उत्पन्न होता है वैसे ही भूत, शरीर में जब परस्पर संयुक्त होते हैं, तो जड़ के रूप में प्रसिद्ध भूतों से भी चैतन्य उत्पन्न हो जाता है।[4]
  • चार्वाक के मत में चेतन शरीर में विद्यमान चैतन्य ज्ञान नामक गुण ही है। यह शरीर में समवाय सम्बन्ध से रहता है। शरीर में समवाय सम्बन्ध से ज्ञान की उत्पत्ति में तादात्म्य सम्बन्ध से शरीर कारण है, ऐसा कार्यकारण भाव ज्ञान एवं शरीर के मध्य चार्वाक को अभिमत है। आस्तिक दर्शनों के अनुसार मुक्त आत्मा में जैसे ज्ञान नहीं होता है उसी तरह चार्वाक मत में भी मृत शरीर में ज्ञान के अभाव का उपपादन हो जाता है। ये लोग प्राण के अभाव से मृत शरीर में ज्ञान के अभाव को सिद्ध करते हैं।
  • तात्पर्य यह है, यदि यह कहा जाय कि जहाँ शरीर होता है वहाँ ज्ञान होता है। तो यह कार्य कारण भाव मृत शरीर में ज्ञान के कारण शरीर के होने के बाद भी कार्य ज्ञान के न होने से अन्वय व्यभिचार होने के कारण स्वीकार नहीं किया जा सकता। इस अन्वय व्यभिचार का समाधान करते हुए चार्वाक का कथन है कि ज्ञान को उत्पन्न करने के लिए केवल शरीर कारण नहीं, प्रत्युत प्राण से युक्त शरीर कारण है। फलत: मृत शरीर में ज्ञान का कारण प्राण से संयुक्त शरीर भी नहीं है और कार्य ज्ञान भी नहीं हे अत: अन्वय व्यभिचार का वारण चार्वाक मत में हो जाता है। इस प्रकार शरीर ही आत्मा है, यह चार्वाक दर्शन के अनुसार सिद्ध होता है। मैं मोटा हूँ। मैं दुबला हूँ। मैं करता हूँ। इस प्रकार के व्यवहार का आधार स्थूलता, कृषता एवं क्रिया को जन्म देने वाली कृति या प्रयत्न, शरीर में प्रत्यक्ष सिद्ध हैं। परिणामस्वरूप अहं पद का विषय शरीर से भिन्न कुछ भी नहीं है यह निराबाध सिद्ध हो जाता है।
  • कुछ चार्वाक चैतन्य का अर्थ चेतनता अर्थात् आत्मत्व करते हैं। इस प्रकार ज्ञान का मतलब ज्ञान की अधिकरणता ही है। इस तरह मृत शरीर में ज्ञान के न होने पर भी ज्ञान की अधिकरणता ठीक उसी प्रकार है जैसे आस्तिकों के सिद्धान्त में मुक्त आत्मा में ज्ञान के न होने पर भी ज्ञान की अधिकरणता अक्षुण्ण मानी जाती है। मृत शरीर के ज्ञान का अधिकरण होने पर भी ज्ञान की उत्पत्ति का आश्रय न होना शरीर में प्राण के न होने से सूपपन्न हो जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. लोकायता वदन्त्येवं नास्ति जीवो न निर्वृति:। धर्माधर्मौ न विद्येते न फलं पुण्यपापयो:॥ -षड्दर्शनसमुच्चय- पृ0 452
  2. सुराया: प्रकृतिभूतो वृक्षविशेषनिर्यास:, एक तरह की औषधि या बीज जिससे शराब का निर्माण किया जाता है।
  3. यद्वद्यथा सुरांगेभ्यो गुडधातक्यादिभ्यो मद्यांगेभ्यो मदशक्ति: उन्मादकत्वं भवति। -षड्दर्शनसमुच्चय- पृ0 458
  4. जडभूतविकारेषु चैतन्यं यत्तु दृश्यते। ताम्बूलपूगचूर्णानां योगाद्राग इवोत्थितम्॥ स0सि0सं0, 2/7

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