परलोक का प्रतिषेध -चार्वाक
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- इस प्रकार चार्वाक दर्शन, मात्र शरीर केन्द्रित हो कर समस्त अलौकिक एवं पारलौकिक तत्त्वों से स्वयं को दूर कर नास्तिकता की पराकष्ठा का वरण कर लेता है। यही कारण है कि यह नितान्त निरंकुश हो कर वेद सम्मत सभी मान्यताओं का रोचक शब्दों में खण्डन करता है। ऐसा प्रतीत होता है कि चार्वाक वह विचार है जो जन सामान्य के दैनिक जीवन में सहज रूप में अनुस्यूत है। चार्वाक वह मत है जो हर व्यक्ति की सहज प्रवृत्ति को उजागर करता है। जिस प्रकार पारलौकिक तथ्यों को विशेष प्रयास के साथ विभिन्न दार्शनिकों ने सुव्यवस्थित कर विभिन्न ग्रन्थों के रूप में समाज के समक्ष रखा उसी प्रकार एक प्रयास जन सामान्य में व्याप्त सहज प्रवृत्ति को भी लिपि बद्ध करने के लिए चार्वाक द्वारा किया गया जो चार्वाक दर्शन के रूप में हमारे समक्ष है।
- परलोक की मान्यता को उपहासास्पद बताते हुए चार्वाक प्रत्यक्ष, 'मनुष्य लोक' को ही एक लोक मानता है। बाह्य इन्द्रियों के द्वारा ज्ञात पदार्थ ही इस संसार में माने जा सकते हैं। घ्राण, रसना, चक्षु, त्वचा एवं श्रोत्र ये पाँच इन्द्रियाँ ही प्रसिद्ध हैं, इनसे जिन पदार्थों का साक्षात्कार होता है वे पदार्थ ही चार्वाक को स्वीकार्य हैं। इन बाह्य इन्द्रियों से क्रमश: गन्ध, रस, रूप, स्पर्श एवं शब्द का अवबोध होता है। इस संसार में सुरभि असुरभि गन्ध का अनुभव कर लोगों को प्रफुल्लित होते हुए देखा गया हैं तिक्त, कटु, कषाय आदि छ: रसों के आस्वाद से आह्लादित होते जन-सामान्य को देखा जाता है। भूमि, भूधर, भुवन, भूरुह-वृक्ष, स्तम्भ, सरोरुह आदि का निरीक्षण कर पुलकित होते लोक को सुना गया हें वस्तु के मृदु, कठोर, शीत, उष्णा, एवं अनुष्णाशीत स्पर्श से रोमांचित जनों का प्रत्यक्ष किया गया है। विविध वेणु, वीणा, एवं मनुष्य पशु पक्षियों से सम्बद्ध मधुर वाणी को अविचल हो सुनते देखा गया है।
- यहाँ चार्वाक पूछता है कि क्या इन अनुभवों से अतिरिक्त भी काई अनुभव कहीं शेष बचता है? कथमपि नहीं। पृथ्वी जल तेज़ वायु से समुत्पन्न चैतन्य को छोड़ कर चैतन्य के हेतु के रूप में परलोक जाने वाले किसी जीव की कल्पना, जिसका किसी को आज तक साक्षात्कार नहीं हो सका है, कथमपि संगत नहीं माना जा सकता। इस प्रकार यदि जीव नहीं है तो इसके सुख दु:ख की सुव्यवस्था के लिए अदृष्ट या धर्म अधर्म की कल्पना करना तथा धर्म अधर्म के द्वारा प्रसूत फल के समुपभोग के लिए स्वर्ग एवं नरक के रूप में आधार भूमि की परिकल्पना, इसी प्रकार पुण्य एवं पाप दोनों के क्षय से समुत्पन्न मोक्ष सुख की वर्णना, क्या आकाश में विचित्र चित्र की रचना की तरह उपहासास्पद नहीं है?
- इतना सब कुछ होने पर भी यदि कोई अनाघात, अनास्वादित, अदृष्ट, अस्पृष्ट एवं अश्रुत जीव का समादर करता हुआ स्वर्ग एवं अपवर्ग आदि सुख की समीहा से विभ्रम वश सिर एवं दाढ़ी के केशों का मुण्डन करवाकर, अत्यन्त दुरूह व्रतों का धारण कर, कठिन तपश्चर्या कर, अत्यधिक दु:सह प्रखर सूर्य के ताप को सहन कर इस दुर्लभ मानव जन्म को नीरस बनाता है तो वह वास्तव में महामोह के दुष्चक्र में घिरा दया का ही पात्र कहा जा सकता है।[1] आवश्यक यह है कि हम इस प्रकार के दुष्चक्र से बाहर निकल कर वास्तविकता को स्वीकार करें। इस प्रकार की भूमिका का निर्माण ही चार्वाक दर्शन का मूल लक्ष्य है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तपांसि यातनाश्चित्रा: संयमो भोगवंचना। अग्निहोत्रादिकं कर्म बालक्रीडेव लक्ष्यते॥ यावज्जीवेत् सुखं जीवेत्तवद्वैषयिकं सुखम्। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुत:॥ -षड्दर्शनसमुच्चय- पृ0 453