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हिन्दू चिन्तन की छ: प्रणालियाँ प्रचलित हैं। वे '[[दर्शन]]' कहलाती हैं, क्योंकि वे विश्व को देखने और समझने की दृष्टि या विचार प्रस्तुत करती हैं। उनके तीन युग्म हैं, क्योंकि प्रत्येक युग्म में कुछ विचारों का साम्य परिलक्षित होता है। पहला युग्म [[मीमांसा]] कहलाता है, जिसका सम्बन्ध [[वेद|वेदों]] से है। मीमांसा का अर्थ है कि खोह, छानबीन अथवा अनुसंधान।
'''उत्तर मीमांसा''' भारतीय [[दर्शन|दर्शनों]] में से एक है। इसे 'शारीरिक मीमांसा' और 'वेदांतदर्शन' भी कहते हैं। हिन्दू चिन्तन की छ: प्रणालियाँ प्रचलित हैं। वे '[[दर्शन]]' कहलाती हैं, क्योंकि वे विश्व को देखने और समझने की दृष्टि या विचार प्रस्तुत करती हैं। उनके तीन युग्म हैं, क्योंकि प्रत्येक युग्म में कुछ विचारों का साम्य परिलक्षित होता है। पहला युग्म [[मीमांसा]] कहलाता है, जिसका सम्बन्ध [[वेद|वेदों]] से है। ये नाम [[बादरायण]] के बनाए हुए 'ब्रह्मसूत्र' नामक ग्रंथ के हैं। 'मीमांसा' शब्द का अर्थ है- अनुसंधान, गंभीर, विचार, खोज। प्राचीन भारत में [[वेद|वेदों]] को परम प्रमाण माना जाता था। वेद वाङ्‌मय बहुत विस्तृत है और उसमें [[यज्ञ]], उपासना और ज्ञान संबंधी मंत्र पाए जाते हैं। वे मंत्र (संहिता), ब्रह्मण और [[आरण्यक]], [[उपनिषद]] नामक भागों में विभाजित किए गए हैं।<ref name="nn">{{cite web |url=http://bharatkhoj.org/india/%E0%A4%89%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A4%BE |title=उत्तरमीमांसा|accessmonthday=2 अगस्त|accessyear=2015|last= |first= |authorlink= |format= |publisher=भरतखोज|language=हिन्दी}}</ref>
*मीमांसायुग्म का पूर्व भाग, जिसे [[पूर्व मीमांसा]] कहते हैं, वेद के याज्ञिक रूप ([[कर्मकाण्ड]]) के विवेचन का शास्त्र है।  
====पूर्व मीमांसा====
*दूसरा भाग, जिसे उत्तर मीमांसा या [[वेदान्त]] भी कहते हैं, उपनिषदों से सम्बन्धित है तथा उनके ही दार्शनिक तत्त्वों की छानबीन करता है। ये दोनों सच्चे अर्थ में सम्पूर्ण हिन्दू दार्शनिक एवं धार्मिक प्रणाली का रूप खड़ा करते हैं।  
प्राचीन<ref>भारतीय विचार पद्धति के अनुसार अपौरुषेय</ref>होने के कारण वेद वाक्यों के अर्थ, प्रयोग और परस्पर संबंध समन्वय का ज्ञान लुप्त हो जाने से उनके संबंध में अनुसंधान करने की आवश्यकता पड़ी थी। मंत्र और ब्राह्मण भागों के अंतर्गत वाक्यों का समन्वय [[जैमिनि]] ने अपने ग्रंथ 'मीमांसासूत्र' (पूर्वमीमांसादर्शन) में किया था। मंत्र और ब्रह्मण वेद के पूर्वभाग होने के कारण उनके अर्थ और उपयोग की मीमांसा का नाम '[[पूर्वमीमांसा]]' पड़ा है। वेद के याज्ञिक रूप ([[कर्मकाण्ड]]) के विवेचन का शास्त्र है।<ref name="nn"/>
 
====[[वेदान्त]]====
वेद के उत्तर भाग 'आरण्यक' और 'उपनिषद' के वाक्यों का समन्वय बादरायण ने 'ब्रह्मसूत्र' नामक ग्रंथों में किया था। अत: उसका नाम 'उत्तरमीमांसा' पड़ा। उत्तर मीमांसा 'शारीरिक मीमांसा' भी इस कारण कहलाता है कि इसमें शरीरधारी [[आत्मा]] के लिए उन साधनों और उपासनाओं का संकेत है, जिनके द्वारा वह अपने ब्रह्मत्व का अनुभव कर सकता है। इसका नाम 'वेदांतदर्शन' इस कारण पड़ा कि इसमें वेद के अंतिम भाग के वाक्यों के विषयों का समन्वय किया गया है। इसका नाम 'ब्रह्ममीमांसा' अथवा 'ब्रह्मसूत्र' इस कारण पड़ा कि इसमें विशेष विषय ब्रह्म और उसके स्वरूप की मीमांसा है, जबकि पूर्वमीमांसा का विषय [[यज्ञ]] और धार्मिक कृत्य हैं।
==दार्शनिक इतिहास==
उत्तर मीमांसा का सम्बन्ध [[भारत]] के सम्पूर्ण दार्शनिक इतिहास से है। उत्तर मीमांसा के आधारभूत ग्रन्थ को '[[वेदान्तसूत्र]]', '[[ब्रह्मसूत्र]]' एवं '[[शारीरकसूत्र]]' भी कहते हैं। क्योंकि इसका विषय परब्रह्म ([[आत्मा]]=[[ब्रह्म]]) है।
उत्तर मीमांसा का सम्बन्ध [[भारत]] के सम्पूर्ण दार्शनिक इतिहास से है। उत्तर मीमांसा के आधारभूत ग्रन्थ को '[[वेदान्तसूत्र]]', '[[ब्रह्मसूत्र]]' एवं '[[शारीरकसूत्र]]' भी कहते हैं। क्योंकि इसका विषय परब्रह्म ([[आत्मा]]=[[ब्रह्म]]) है।
'वेदान्तसूत्र' [[वादरायण]] के रचे कहे गए हैं जो चार अध्यायों में विभक्त हैं। इस दर्शन का संक्षिप्त निम्नलिखित है-
'वेदान्तसूत्र' [[वादरायण]] के रचे कहे गए हैं जो चार अध्यायों में विभक्त हैं। इस दर्शन का संक्षिप्त निम्नलिखित है-


[[ब्रह्म]] निराकार है, वह चेतन है, वह श्रुतियों का उदगम है एवं सर्वज्ञ है तथा उसे केवल वेदों के द्वारा ही जाना जा सकता है। वह सृष्टि का मौलिक एवं अन्तिम कारण है। उसकी कोई इच्छा नहीं है। एतदर्थ वह अकर्मण्य है, दृश्य जगत उसकी लीला है। विश्व जो ब्रह्म द्वारा समय-समय पर उदभत होता है, उसका न आदि है और न अंत है। वेद भी अनंत हैं, देवता हैं, जो वेदविहित यज्ञों द्वारा पोषण प्राप्त करते हैं।
[[ब्रह्म]] निराकार है, वह चेतन है, वह श्रुतियों का उदगम है एवं सर्वज्ञ है तथा उसे केवल वेदों के द्वारा ही जाना जा सकता है। वह सृष्टि का मौलिक एवं अन्तिम कारण है। उसकी कोई इच्छा नहीं है। एतदर्थ वह अकर्मण्य है, दृश्य जगत् उसकी लीला है। विश्व जो ब्रह्म द्वारा समय-समय पर उदभत होता है, उसका न आदि है और न अंत है। वेद भी अनंत हैं, देवता हैं, जो वेदविहित यज्ञों द्वारा पोषण प्राप्त करते हैं।
जीव या व्यक्तिगत आत्मा आदि-अंतहीन है, चेतनायुक्त है, सर्वव्यापी है। यह ब्रह्म का ही अंश है; यह स्वयं ब्रह्म है। इसका व्यक्तिगत रूप केवल एक झलक है। अनुभव द्वारा मनुष्य ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर सकता है। ब्रह्म केवल 'ज्ञानमय' है, जो मनुष्य को मुक्ति दिलाने में समर्थ है। ब्रह्मचर्यपूर्वक ब्रह्म का चिन्तन, जैसा कि वेदों ([[उपनिषद|उपनिषदों]]) में बताया गया है, सच्चे ज्ञान का मार्ग है। कर्म से कार्य को फल प्राप्त होता है और इसके लिए [[पुनर्जन्म]] होता है। ज्ञान से मुक्ति की प्राप्ति होती है।
जीव या व्यक्तिगत आत्मा आदि-अंतहीन है, चेतनायुक्त है, सर्वव्यापी है। यह ब्रह्म का ही अंश है; यह स्वयं ब्रह्म है। इसका व्यक्तिगत रूप केवल एक झलक है। अनुभव द्वारा मनुष्य ब्रह्म ज्ञान प्राप्त कर सकता है। ब्रह्म केवल 'ज्ञानमय' है, जो मनुष्य को मुक्ति दिलाने में समर्थ है। ब्रह्मचर्य पूर्वक ब्रह्म का चिन्तन, जैसा कि वेदों ([[उपनिषद|उपनिषदों]]) में बताया गया है, सच्चे ज्ञान का मार्ग है। कर्म से कार्य को फल प्राप्त होता है और इसके लिए [[पुनर्जन्म]] होता है। ज्ञान से मुक्ति की प्राप्ति होती है।
====अर्थ निरूपण====
उत्तर मीमांसा में केवल वेद ([[आरण्यक|आरण्यकों]] और [[उपनिषद|उपनिषदों]] के) वाक्यों के अर्थ का निरूपण और समन्वय ही नहीं है, उसमें जीव, जगत् और ब्रह्म संबंधी दार्शनिक समस्याओं पर भी विचार किया गया है। एक सर्वांगीण दर्शन का निर्माण करके उसका युक्तियों द्वारा प्रतिपादन और उससे भिन्न मत वाले दर्शनों का खंडन भी किया गया है। दार्शनिक दृष्टि से यह भाग बहुत महत्वूपर्ण समझा जाता है। समस्त 'ब्रह्मसूत्र' में चार अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में चार पाद हैं। प्रथम अध्याय में प्रथम पाद के प्रथम चार सूत्र और दूसरे अध्याय के प्रथम और द्वितीय पादों में वेदांत दर्शन संबंधी प्राय: सभी बातें आ जाती हैं। इनमें ही वेदांत दर्शन के ऊपर जो आक्षेप किए जा सकते हैं, वे और [[वेदांत]] को दूसरे दर्शनों में- [[पूर्वमीमांसा]], [[बौद्ध]], जैन, वैशेषिक, पाशुपत दर्शनों में, जो उस समय प्रचलित थे, जो त्रुटियाँ दिखाई देती हैं, वे आ जाती हैं।<ref name="nn"/>
==भाष्य आवश्यकता==
समस्त ग्रंथ सूक्ष्म और दुरूह सूत्रों के रूप में होने के कारण इतना सरल नहीं है कि सब कोई उसका अर्थ और संगति समझ सकें। गुरु, इन सूत्रों के द्वारा अपने शिष्यों को [[उपनिषद|उपनिषदों]] के विचार समझाया करते थे। [[कालांतर]] में उनका पूरा ज्ञान लुप्त हो गया और उनके ऊपर भाष्य लिखने की आवश्यकता पड़ी। सबसे प्राचीन भाष्य, जो इस समय प्रचलित और प्राप्य है, [[शंकराचार्य]] का है। शंकर के पश्चात् और आचार्यों ने भी अपने-अपने संप्रदाय के मतों की पुष्टि करने के लिए और अपने मतों के अनुरूप 'ब्रह्मसूत्र' पर भाष्य लिखे थे। [[रामानुजाचार्य]], [[मध्वाचार्य]], [[निंबार्काचार्य]] और [[वल्लभाचार्य]] के भाष्य प्रख्यात हैं। इन सब आचार्यों के मत, कुछ अंशों में समान होते हुए भी, बहुत कुछ भिन्न हैं। स्वयं [[बादरायण]] के विचार क्या हैं, यह निश्चित करना और किस आचार्य का भाष्य बादरायण के विचारों का समर्थन करता है और उनके अनुकूल है, यह कहना बहुत कठिन है, क्योंकि सूत्र बहुत दुरूह हैं। इस समस्या के साथ यह समस्या भी संबद्ध है कि जिन उपनिषद वाक्यों का [[ब्रह्मसूत्र]] में समन्वय करने का प्रयत्न किया गया है, उनके दार्शनिक विचार क्या हैं। बादरायण ने उनको क्या समझा और भाष्यकारों ने उनको क्या समझा है?
==दार्शनिक सिद्धांत==
वही भाष्य अधिकतर ठीक समझा जाना चाहिए, जो [[उपनिषद|उपनिषदों]] और ब्रह्मसूत्र दोनों के अनुरूप हो। इस दृष्टि से [[शंकराचार्य]] का मत अधिक समीचीन जान पड़ता है। कुछ विद्वान् रामानुजाचार्य के मत को अधिक सुत्रानुकूल बतलाते हैं। उत्तरमीमांसा का सबसे विशेष दार्शनिक सिद्धांत यह है कि जड़ जगत् का उपादान और निमित्त कारण चेतन ब्रह्म है। जैसे मकड़ी अपने भीतर से ही जाल तानती है, वैसे ही ब्रह्म भी इस जगत् को अपनी ही शक्ति द्वारा उत्पन्न करता है। यही नहीं, वही इसका पालक है और वही इसका संहार भी करता है। जीव और ब्रह्म का तादात्म्य है और अनेक प्रकार के साधनों और उपासनाओं द्वारा वह ब्रह्म के साथ तादात्म्य का अनुभव करके जगत् के कर्म जंजाल से और बारंबार के जीवन और मरण से मुक्त हो जाता है। मुक्तावस्था में परम आनंद का अनुभव करता है।<ref name="nn"/>


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12:22, 25 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण

उत्तर मीमांसा भारतीय दर्शनों में से एक है। इसे 'शारीरिक मीमांसा' और 'वेदांतदर्शन' भी कहते हैं। हिन्दू चिन्तन की छ: प्रणालियाँ प्रचलित हैं। वे 'दर्शन' कहलाती हैं, क्योंकि वे विश्व को देखने और समझने की दृष्टि या विचार प्रस्तुत करती हैं। उनके तीन युग्म हैं, क्योंकि प्रत्येक युग्म में कुछ विचारों का साम्य परिलक्षित होता है। पहला युग्म मीमांसा कहलाता है, जिसका सम्बन्ध वेदों से है। ये नाम बादरायण के बनाए हुए 'ब्रह्मसूत्र' नामक ग्रंथ के हैं। 'मीमांसा' शब्द का अर्थ है- अनुसंधान, गंभीर, विचार, खोज। प्राचीन भारत में वेदों को परम प्रमाण माना जाता था। वेद वाङ्‌मय बहुत विस्तृत है और उसमें यज्ञ, उपासना और ज्ञान संबंधी मंत्र पाए जाते हैं। वे मंत्र (संहिता), ब्रह्मण और आरण्यक, उपनिषद नामक भागों में विभाजित किए गए हैं।[1]

पूर्व मीमांसा

प्राचीन[2]होने के कारण वेद वाक्यों के अर्थ, प्रयोग और परस्पर संबंध समन्वय का ज्ञान लुप्त हो जाने से उनके संबंध में अनुसंधान करने की आवश्यकता पड़ी थी। मंत्र और ब्राह्मण भागों के अंतर्गत वाक्यों का समन्वय जैमिनि ने अपने ग्रंथ 'मीमांसासूत्र' (पूर्वमीमांसादर्शन) में किया था। मंत्र और ब्रह्मण वेद के पूर्वभाग होने के कारण उनके अर्थ और उपयोग की मीमांसा का नाम 'पूर्वमीमांसा' पड़ा है। वेद के याज्ञिक रूप (कर्मकाण्ड) के विवेचन का शास्त्र है।[1]

वेदान्त

वेद के उत्तर भाग 'आरण्यक' और 'उपनिषद' के वाक्यों का समन्वय बादरायण ने 'ब्रह्मसूत्र' नामक ग्रंथों में किया था। अत: उसका नाम 'उत्तरमीमांसा' पड़ा। उत्तर मीमांसा 'शारीरिक मीमांसा' भी इस कारण कहलाता है कि इसमें शरीरधारी आत्मा के लिए उन साधनों और उपासनाओं का संकेत है, जिनके द्वारा वह अपने ब्रह्मत्व का अनुभव कर सकता है। इसका नाम 'वेदांतदर्शन' इस कारण पड़ा कि इसमें वेद के अंतिम भाग के वाक्यों के विषयों का समन्वय किया गया है। इसका नाम 'ब्रह्ममीमांसा' अथवा 'ब्रह्मसूत्र' इस कारण पड़ा कि इसमें विशेष विषय ब्रह्म और उसके स्वरूप की मीमांसा है, जबकि पूर्वमीमांसा का विषय यज्ञ और धार्मिक कृत्य हैं।

दार्शनिक इतिहास

उत्तर मीमांसा का सम्बन्ध भारत के सम्पूर्ण दार्शनिक इतिहास से है। उत्तर मीमांसा के आधारभूत ग्रन्थ को 'वेदान्तसूत्र', 'ब्रह्मसूत्र' एवं 'शारीरकसूत्र' भी कहते हैं। क्योंकि इसका विषय परब्रह्म (आत्मा=ब्रह्म) है। 'वेदान्तसूत्र' वादरायण के रचे कहे गए हैं जो चार अध्यायों में विभक्त हैं। इस दर्शन का संक्षिप्त निम्नलिखित है-

ब्रह्म निराकार है, वह चेतन है, वह श्रुतियों का उदगम है एवं सर्वज्ञ है तथा उसे केवल वेदों के द्वारा ही जाना जा सकता है। वह सृष्टि का मौलिक एवं अन्तिम कारण है। उसकी कोई इच्छा नहीं है। एतदर्थ वह अकर्मण्य है, दृश्य जगत् उसकी लीला है। विश्व जो ब्रह्म द्वारा समय-समय पर उदभत होता है, उसका न आदि है और न अंत है। वेद भी अनंत हैं, देवता हैं, जो वेदविहित यज्ञों द्वारा पोषण प्राप्त करते हैं। जीव या व्यक्तिगत आत्मा आदि-अंतहीन है, चेतनायुक्त है, सर्वव्यापी है। यह ब्रह्म का ही अंश है; यह स्वयं ब्रह्म है। इसका व्यक्तिगत रूप केवल एक झलक है। अनुभव द्वारा मनुष्य ब्रह्म ज्ञान प्राप्त कर सकता है। ब्रह्म केवल 'ज्ञानमय' है, जो मनुष्य को मुक्ति दिलाने में समर्थ है। ब्रह्मचर्य पूर्वक ब्रह्म का चिन्तन, जैसा कि वेदों (उपनिषदों) में बताया गया है, सच्चे ज्ञान का मार्ग है। कर्म से कार्य को फल प्राप्त होता है और इसके लिए पुनर्जन्म होता है। ज्ञान से मुक्ति की प्राप्ति होती है।

अर्थ निरूपण

उत्तर मीमांसा में केवल वेद (आरण्यकों और उपनिषदों के) वाक्यों के अर्थ का निरूपण और समन्वय ही नहीं है, उसमें जीव, जगत् और ब्रह्म संबंधी दार्शनिक समस्याओं पर भी विचार किया गया है। एक सर्वांगीण दर्शन का निर्माण करके उसका युक्तियों द्वारा प्रतिपादन और उससे भिन्न मत वाले दर्शनों का खंडन भी किया गया है। दार्शनिक दृष्टि से यह भाग बहुत महत्वूपर्ण समझा जाता है। समस्त 'ब्रह्मसूत्र' में चार अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में चार पाद हैं। प्रथम अध्याय में प्रथम पाद के प्रथम चार सूत्र और दूसरे अध्याय के प्रथम और द्वितीय पादों में वेदांत दर्शन संबंधी प्राय: सभी बातें आ जाती हैं। इनमें ही वेदांत दर्शन के ऊपर जो आक्षेप किए जा सकते हैं, वे और वेदांत को दूसरे दर्शनों में- पूर्वमीमांसा, बौद्ध, जैन, वैशेषिक, पाशुपत दर्शनों में, जो उस समय प्रचलित थे, जो त्रुटियाँ दिखाई देती हैं, वे आ जाती हैं।[1]

भाष्य आवश्यकता

समस्त ग्रंथ सूक्ष्म और दुरूह सूत्रों के रूप में होने के कारण इतना सरल नहीं है कि सब कोई उसका अर्थ और संगति समझ सकें। गुरु, इन सूत्रों के द्वारा अपने शिष्यों को उपनिषदों के विचार समझाया करते थे। कालांतर में उनका पूरा ज्ञान लुप्त हो गया और उनके ऊपर भाष्य लिखने की आवश्यकता पड़ी। सबसे प्राचीन भाष्य, जो इस समय प्रचलित और प्राप्य है, शंकराचार्य का है। शंकर के पश्चात् और आचार्यों ने भी अपने-अपने संप्रदाय के मतों की पुष्टि करने के लिए और अपने मतों के अनुरूप 'ब्रह्मसूत्र' पर भाष्य लिखे थे। रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, निंबार्काचार्य और वल्लभाचार्य के भाष्य प्रख्यात हैं। इन सब आचार्यों के मत, कुछ अंशों में समान होते हुए भी, बहुत कुछ भिन्न हैं। स्वयं बादरायण के विचार क्या हैं, यह निश्चित करना और किस आचार्य का भाष्य बादरायण के विचारों का समर्थन करता है और उनके अनुकूल है, यह कहना बहुत कठिन है, क्योंकि सूत्र बहुत दुरूह हैं। इस समस्या के साथ यह समस्या भी संबद्ध है कि जिन उपनिषद वाक्यों का ब्रह्मसूत्र में समन्वय करने का प्रयत्न किया गया है, उनके दार्शनिक विचार क्या हैं। बादरायण ने उनको क्या समझा और भाष्यकारों ने उनको क्या समझा है?

दार्शनिक सिद्धांत

वही भाष्य अधिकतर ठीक समझा जाना चाहिए, जो उपनिषदों और ब्रह्मसूत्र दोनों के अनुरूप हो। इस दृष्टि से शंकराचार्य का मत अधिक समीचीन जान पड़ता है। कुछ विद्वान् रामानुजाचार्य के मत को अधिक सुत्रानुकूल बतलाते हैं। उत्तरमीमांसा का सबसे विशेष दार्शनिक सिद्धांत यह है कि जड़ जगत् का उपादान और निमित्त कारण चेतन ब्रह्म है। जैसे मकड़ी अपने भीतर से ही जाल तानती है, वैसे ही ब्रह्म भी इस जगत् को अपनी ही शक्ति द्वारा उत्पन्न करता है। यही नहीं, वही इसका पालक है और वही इसका संहार भी करता है। जीव और ब्रह्म का तादात्म्य है और अनेक प्रकार के साधनों और उपासनाओं द्वारा वह ब्रह्म के साथ तादात्म्य का अनुभव करके जगत् के कर्म जंजाल से और बारंबार के जीवन और मरण से मुक्त हो जाता है। मुक्तावस्था में परम आनंद का अनुभव करता है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 उत्तरमीमांसा (हिन्दी) भरतखोज। अभिगमन तिथि: 2 अगस्त, 2015।
  2. भारतीय विचार पद्धति के अनुसार अपौरुषेय

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