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| ==य== | | ===प्रेम के मार्ग में चतुराई बुरी है=== |
| ===यदि प्रेम स्वप्न है तो श्रद्धा जागरण=== | | * प्रेम के मार्ग में चतुराई बहुत बुरी चीज़ है। ~ मौलाना रूम |
| * मनुष्य श्रद्धा से संसार प्रवाह को पार कर जाता है। ~ सुत्तनिपात | | * प्रवीणता और आत्मविश्वास अविजित सेनाएं हैं। ~ जॉर्ज हरबर्ट |
| * हमारी श्रद्धा अखंड बत्ती जैसी होनी चाहिए जो स्वयं ही नहीं अपने आसपास को भी प्रकाशित करती है। ~ महात्मा गांधी
| | * हितकारी और मनोरम बात दुर्लभ होती है। ~ भारवि |
| * सब लोग हृदय के दृढ़ संकल्प से श्रद्धा की उपासना करते हैं, क्योंकि श्रद्धा से ही ऐश्वर्य प्राप्त होता है। ~ ऋगवेद
| | * कुल के कारण कोई बड़ा नहीं होता, विद्या ही उसे पूजनीय बनाती है। ~ चाणक्य |
| * यदि प्रेम स्वप्न है तो श्रद्धा जागरण। ~ रामचंद्र शुक्ल
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| * श्रद्धा या आस्था के बिना जीवन-दृष्टि तो नहीं होती, जीने का ढर्रा या नक्शा-भर बन सकता है। ~ अज्ञेय
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| * चाहे गुरु पर हो या ईश्वर पर, श्रद्धा अवश्य रखनी चाहिए, क्योंकि बिना श्रद्धा के सब बातें व्यर्थ होती हैं। ~ समर्थ रामदास | |
| * अश्रद्धा की अपेक्षा श्रद्धा अच्छी है। लेकिन बेवकूफी की अपेक्षा तो अश्रद्धा ही अच्छी है। ~ काका कालेलकर
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| ===योग्यता और व्यक्तित्व===
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| * न कोई किसी का मित्र है, न कोई किसी का शत्रु। संसार में व्यवहार से ही लोग मित्र और शत्रु होते हैं। ~ नारायण पंडित | |
| * किसी मनुष्य का स्वभाव उसे विश्वसनीय बनाता है, न कि उसकी संपत्ति। ~ अरस्तू
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| * योग्यता एक चौथाई व्यक्तित्व का निर्माण करती है। शेष की पूर्ति प्रतिष्ठा के द्वारा होती है। ~ मोहन राकेश
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| * दीपक के नीचे का अंधकार दूर करने के लिए दूसरा दीपक जलाने का प्रयत्न करना चाहिए। ~ संस्कृत लोकोक्ति | |
| * किसी भी मूल्य पर शांति सदा अच्छी नहीं होती। वास्तविक वस्तु जीवन है, न कि शांति और नीरवता। ~ लाला लाजपतराय
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| * दार्शनिक विवाद में अधिकतम लाभ उसे होता है, जो हारता है। क्योंकि वह अधिकतम सीखता है। ~ एपिक्युरस
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| ===योग्यता एक चौथाई व्यक्तित्व का निर्माण करती है===
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| * व्यक्ति की पूजा की बजाय गुण-पूजा करनी चाहिए। व्यक्ति तो गलत साबित हो सकता है और उसका नाश तो होगा ही, गुणों का नाश नहीं होता। ~ महात्मा गांधी
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| * योग्यता एक चौथाई व्यक्तित्व का निर्माण करती है। शेष पूर्ति प्रतिष्ठा द्वारा होती है। ~ मोहन राकेश
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| * पृथ्वी पर ये तीनों व्यर्थ हैं- प्रतिभाशून्य की विद्या, कृपण का धन और डरपोक का बाहुबल। ~ बल्लाल
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| * अपात्र को दिया गया दान व्यर्थ है। अफल बुद्धि वाले और अज्ञानी के प्रति की गई भलाई व्यर्थ है। गुण को न समझ सकने वाले के लिए गुण व्यर्थ है। कृतघ्न के लिए उदारता व्यर्थ है। ~ अज्ञात
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| ===ये तीन दुर्लभ हैं===
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| * संसार में दो वस्तुएं बहुत ही कम पाई जाती हैं। एक तो शुद्ध कमाई का धन, दूसरे, सत्य- शिक्षक मित्र। ~ अबुल जवायज
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| * ये तीन दुर्लभ हैं और ईश्वर के अनुग्रह से ही प्राप्त होते हैं- मनुष्य जन्म, मोक्ष की इच्छा और महापुरुषों की संगति। ~ शंकराचार्य
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| * जिनकी विद्या विवाद के लिए, धन अभिमान के लिए, बुद्धि का प्रकर्ष ठगने के लिए तथा उन्नति संसार के तिरस्कार के लिए है, उनके लिए प्रकाश भी निश्चय ही अंधकार है। ~ क्षेमेंद्र
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| * स्वभावत : कुटिल पुरुष द्वारा किया गया विद्या का अभ्यास दुष्टता को बढ़ाने वाला ही होता है। ~ मुरारि
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| ===ये तो पहिए के घेरे के समान हैं===
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| * दुख या सुख किसी पर सदा ही नहीं रहते। ये तो पहिए के घेरे के समान कभी नीचे, कभी ऊपर यों ही होते रहते हैं। ~ कालिदास
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| * इस संसार में दुख अनंत हैं तथा सुख अत्यल्प हैं। इसलिए दुखों से घिरे सुखों पर दृष्टि नहीं लगानी चाहिए। ~ योगवासिष्ठ
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| * बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि सुख या दुख, प्रिय अथवा अप्रिय, जो प्राप्त हो जाए, उसका हृदय से स्वागत करे, कभी हिम्मत न हारे। ~ वेदव्यास
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| * जैसा सुख-दुख दूसरे को दिया जाता है, वैसा ही सुख-दुख स्वयं को भी प्राप्त होता है। ~ अज्ञात
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| ==र==
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| ===रुपया वापस दिया जा सकता है, लेकिन===
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| * जब हम अपने पैर की धूल से भी अधिक अपने को नम्र समझते हैं तो ईश्वर हमारी सहायता करता है। ~ महात्मा गांधी
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| * किसी का रुपया वापस दिया जा सकता है, परंतु सहानुभूति के दो शब्द वह ऋण है जिसे चुकाना मनुष्य के सार्मथ्य के बाहर है। ~ सुदर्शन
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| * दुखियारों को हमदर्दी के आंसू भी कम प्यारे नहीं होते। ~ प्रेमचंद
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| * सम्मान सच्चे परिश्रम में है। ~ जी. क्लीवलैंड
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| ===राज्य का अस्तित्व===
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| * राज्य का अस्तित्व अच्छे जीवन के लिए होता है, केवल जीवन के लिए नहीं। ~ अरस्तू
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| * विश्राम करने का समय वही होता है, जब तुम्हारे पास उसके लिए समय न हो। ~ अज्ञात
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| * जैसे शरीर बिना कहे ही अपने अधीन होता है, उसी प्रकार सज्जन लोग भी प्रेमी जनों के वश में रहते हैं। ~ बाणभट्ट
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| * अपनी डिगनिटी को बनाए रखने के लिए मैं सदा संतोष की धूप में खड़ा रहता हूं और स्वयं को इच्छाओं की छाया से दूर रखता हूं। ~ ब्रह्माकुमार
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| ===राज्य छाते के समान होता है===
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| * भयंकर युद्ध में सैकड़ों दुर्जय शत्रुओं को जीतने की अपेक्षा अपने आप को जीत लेना ही सबसे बड़ी विजय है। ~ उत्तराध्ययन
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| * पहले विद्वता लोगों के क्लेश को दूर करने के लिए थी। कालांतर में वह विषयी लोगों के विषय सुख की प्राप्ति के लिए हो गई। ~ भर्त्तृहरि
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| * विपत्ति में पड़े मनुष्यों का हित देखने वाले दुर्लभ होते हैं। ~ शूद्रक
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| * युवकों की उमंगों की वृद्धों से आशा मत करो। क्योंकि नदी का प्रवाहित जल दुबारा नहीं आता। ~ शेख सादी
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| * बुढ़ापा तृष्णा रोग का अंतिम समय है, जब संपूर्ण इच्छाएं एक ही केंद्र पर आ लगती हैं। ~ प्रेमचंद
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| * राज्य छाते के समान होता है, जिसका अपने हाथ में पकड़ा हुआ दंड थकान को उतना दूर नहीं करता, जितना कि थकान उत्पन्न करता है। ~ कालिदास | | * राज्य छाते के समान होता है, जिसका अपने हाथ में पकड़ा हुआ दंड थकान को उतना दूर नहीं करता, जितना कि थकान उत्पन्न करता है। ~ कालिदास |
| * विनय के बिना संपत्ति क्या? चंद्रमा के बिना रात क्या? ~ भामह | | * किसी कार्य के लिए कला और विज्ञान ही पर्याप्त नहीं हैं, उसमें धैर्य की आवश्यकता भी पड़ती है। ~ गेटे |
| * वह विजय महान होती है जो बिना रक्तपात के मिलती है। ~ स्पेनी लोकोक्ति
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| ===राजलक्ष्मी तो चंचल होती है===
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| * प्रजा के सुख में ही राजा का सुख और प्रजाओं के हित में ही राजा को अपना हित समझना चाहिए। आत्मप्रियता में राजा का अपना हित नहीं है, प्रजाओं की प्रियता में ही राजा का हित है। ~ चाणक्य
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| * राजलक्ष्मी तो सर्प की जिह्वा के समान चंचल होती है। ~ भास
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| * राज्य का अस्तित्व अच्छे जीवन के लिए होता है, केवल जीने के लिए नहीं। ~ अरस्तू
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| * वही वास्तव में राजा है जो अनाथों का नाथ, निरुपायों का अवलंब, दुष्टों को दंड देनेवाला, डरों हुओं को अभय देनेवाला और सभी का उपकारक, मित्र, बंधु, स्वामी, आश्रयस्थल, श्रेष्ठ गुरु, पिता, माता तथा भाई है। ~ अज्ञात
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| ===रूखे वचन को भी सज्जन रूखा नहीं समझता===
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| * गूंगा कौन है? जो समयानुसार प्रिय वाणी बोलना नहीं जानता। ~ अमोघवर्ष
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| * दूसरे का अप्रिय वचन सुन कर भी उत्तम व्यक्ति सदा प्रिय वाणी ही बोलता है। ~ अज्ञात
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| * भली प्रकार प्रयुक्त की गई वाणी को विद्वानों ने कामनापूर्ण करनेवाली कामधेनु कहा है। ~ दण्डी
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| * प्रियजन द्वारा कही गई प्रिय बातें प्रियतर होती हैं। ~ भास
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| * शुद्ध आशय हो तो रूखे वचन को भी सज्जन रूखा नहीं समझता है। ~ अश्वघोष
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| ===रंगना है तो प्रेम-रंग में रंगो===
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| * अगर अपने आपको किसी रंग में रंगना है तो प्रेम-रंग में रंग, क्योंकि इस रंग में रंगा हुआ मनुष्य मृत्यु के बंधनों से छूट जाता है। ~ सनाई
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| * प्रेम बोला नहीं जा सकता, बताया नहीं जा सकता, दिखाया नहीं जा सकता। प्रेम चित्त से चित्त का अनुभव है। ~ तुकाराम
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| * प्रेम के कारण कड़ुवी वस्तुएं मीठी हो जाती हैं। प्रेम के स्वभाव के कारण तांबा सोना बन जाता है। ~ मौलाना रूम
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| * जहां प्रीति होती है, वहां नीति नहीं ठहरती और जहां नीति होती है, वहां प्रीति नहीं रहती। ~ दयाराम
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| ===रुपया और भय सगे भाई हैं===
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| * अपने उपायों से ही उपकारी का उपकार करना चाहिए। उपकार बड़ा है या छोटा- इस प्रकार का विद्वानों का विशेष आग्रह नहीं होता। ~ श्रीहर्ष
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| * धन अधिक होने पर नम्रता धारण करो, वह जरा कम पड़ने पर अपना सिर ऊंचा बनाए रखो। ~ तिरुवल्लुवर
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| * पूर्णतया निंदित या पूर्णतया प्रशंसित पुरुष न था, न होगा, न आजकल है। ~ धम्मपद
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| * मनुष्य में जो स्वाभाविक बल है, उसकी अभिव्यक्ति धर्म है। ~ विवेकानंद
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| * रुपया और भय संसार में साथ ही आते हैं और साथ ही चले जाते हैं। ऐसा ज्ञात होता है मानो वे दोनों सगे भाई हैं। ~ सनाई
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| * धन खोकर अगर हम अपनी आत्मा को पा सकें तो यह कोई महंगा सौदा नहीं है। ~ प्रेमचंद
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| * तुम्हारी जेब में एक पैसा है, वह कहां से और कैसे आया है, वह अपने से पूछो। उस कहानी से बहुत सीखेगे। ~ महात्मा गांधी
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| * धन की कमी होने पर कोमलता रहती है, पर उसके बढ़ते ही उसकी जगह कठोरता लेने लगती है। ~ अज्ञात
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| ==ल==
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| ===लाभ से लोभ निरंतर बढ़ता है===
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| * मधुर शब्दों में कही हुई बात अनेक प्रकार से कल्याण करती है, किंतु यही यदि कटु शब्दों में कही जाए तो महान अनर्थ का कारण बन जाती है। ~ वेदव्यास
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| * आज का अंडा आने वाले कल की मुर्गी से अधिक अच्छा होता है। ~ तुर्की लोकोक्ति
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| * वर्तमान को असाधारण संकट से ग्रस्त बताना एक फैशन ही है। ~ डिजरायली
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| * ज्यों-ज्यों लाभ होता है त्यों-त्यों लोभ होता है। इस प्रकार लाभ से लोभ निरंतर बढ़ता जाता है। ~ उत्तराध्ययन
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| * जो भविष्य का भय नहीं करता वही वर्तमान का आनंद ले सकता है। ~ टॉमस फुलर
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| * वर्तमान तो कर्म चाहता है, स्वप्न नहीं, यथार्थ के दर्शन चाहता है। ~ हरिकृष्ण प्रेमी
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| * हर स्थिति नहीं, हर क्षण अनंत मूल्य का है, क्योंकि यह संपूर्ण अनंतता का प्रतिनिधि है। ~ गेटे
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| * 'आज' निश्चित है, जो 'कल' है, वह अनिश्चित है। ~ शतपथ
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| ===लक्ष्मी का निवास===
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| * उत्साही, आलस्यहीन, बहादुर और पक्की मित्रता निभाने वाले मनुष्य के पास लक्ष्मी निवास करने के लिए स्वयं चली आती है। ~ नारायण पंडित
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| * परिस्थितियां ही मनुष्य में साहस का संचार करती हैं। ~ हरिकृष्ण प्रेमी
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| * दूसरों के धन का अपहरण करना सबसे बड़ा पाप है। ~ अज्ञात
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| * जो मारता है वह सबल है, जो भय करता है वह निर्बल है। ~ यशपाल
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| * कायरता की भांति वीरता भी संक्रामक होती है। ~ प्रेमचंद
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| ===लोभ कभी बूढ़ा नहीं होता===
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| * इंसान अगर लालच को ठुकरा दे, तो बादशाह से भी ऊंचा दर्जा हासिल कर सकता है, क्योंकि संतोष ही इंसान का माथा ऊंचा रख सकता है। ~ सादी
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| * गहरे जल से भरी हुई नदियां समुद्र में मिल जाती हैं परंतु जैसे उनके जल से समुद्र तृप्त नहीं होता, उस प्रकार चाहे जितना धन प्राप्त हो जाए, पर लोभी तृप्त नहीं होता। ~ वेदव्यास
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| * जिसमें लोभ है, उसे दूसरे अवगुण की क्या आवश्यकता? ~ भर्तृहरि
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| * मनुष्य बूढ़ा हो जाता है परंतु लोभ बूढ़ा नहीं होता। ~ सुदर्शन
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| ===लोभ ही पाप की जन्मस्थली है===
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| * लोभ पाप का घर है, लोभ ही पाप की जन्मस्थली है और यही दोष, क्रोध आदि को उत्पन्न करनेवाली है। ~ बल्लाल कवि
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| * जैसे नमक के बिना अन्न स्वादरहित और फीका लगता है, वैसे ही वाचाल के कथन निस्सार होते हैं और किसी को रुचिकर नहीं लगते। ~ तुकाराम
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| * प्रिय होने पर भी जो हितकर न हो, उसे न कहें। हितकर कहना ही अच्छा है, चाहे वह अत्यंत अप्रिय हो। ~ विष्णुपुराण
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| * शांतिमय लड़ाई लड़नेवाला जीत से कभी फूल नहीं उठता और न मर्यादा ही छोड़ता है। ~ महात्मा गांधी
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| ===लोकनिंदा का भय क्यों होना चाहिए और क्यों नहीं===
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| * लघुता में प्रभुता का निवास है और प्रभुता, लघुता का भवन है। दूब लघु है तो उसे विनायक के मस्तक पर चढ़ाते हैं और ताड़ के बड़े वृक्ष की कोई खड़ाऊं भी नहीं पहनता। ~ दयाराम
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| * लोकनिंदा का भय इसलिए है कि वह हमें बुरे कामों से बचाती है। अगर वह कर्त्तव्य मार्ग में बाधक हो तो उससे डरना कायरता है। ~ प्रेमचंद
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| * ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों-त्यों लोभ होता है। इस तरह से लाभ से लोभ निरंतर बढ़ता जाता है। ~ उत्तराध्ययन
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| * प्रकृति-पुरुष के संयोग से ब्रह्मांड की रचना ही रासलीला है। इस रासलीला में परमात्मा की सहचरी माया या प्रकृति ही राधा है। ~ गंगेश्वरानंद
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| * काम करने का इच्छुक किंतु काम पाने में असमर्थ व्यक्ति संभवत: इस विश्व में भाग्य की असमानता द्वारा प्रदर्शित करुणतम दृश्य है। ~ कार्लाइल
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| ===लज्जा और संकोच करने पर ही शील===
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| * ऐसा विनय प्रवंचकों का आवरण है, जिसमें शील न हो। शील तो परस्पर सम्मान की घोषणा करता है। ~ जयशंकर प्रसाद
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| * वास्तव में शुभ और अशुभ दोनों एक ही हैं और हमारे मन पर अवलंबित हैं। मन जब स्थिर और शांत रहता है, तब शुभाशुभ कुछ भी उसे स्पर्श नहीं कर पाता। ~ विवेकानंद
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| * जल से शरीर शुद्ध होता है, मन सत्य से शुद्ध होता है, विद्या और तप से भूतात्मा तथा ज्ञान से बुद्धि शुद्ध होती है। ~ मनुस्मृति
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| * शील अपरिमित बल है। शील सर्वोत्तम शस्त्र है। शील श्रेष्ठ आभूषण है और रक्षा करनेवाला अद्भुत कवच है। ~ थेर गाथा
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| * लज्जा और संकोच करने पर ही शील उत्पन्न होता है और ठहरता है। ~ विसुद्ध्मिग्ग
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| ==व==
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| ===विरोध हर सरकार के लिए जरूरी है===
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| * विरोध हर सरकार के लिए जरूरी है। कोई भी सरकार प्रबल विरोध के बिना अधिक दिन टिक नहीं सकती। ~ डिजरायली
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| * जो हमसे कुश्ती लड़ता है, हमारे अंगों को मजबूत करता है। वह हमारे गुणों को तेज करता है। एक तरह से हमारा विरोधी हमारी मदद ही करता है। ~ बर्क
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| * विकास के लिए यूं तो कई चीजें जरूरी होती हैं, लेकिन कठिनाई और विरोध वह देसी मिट्टी है जिसमें पराक्रम और आत्मविश्वास का विकास होता है। ~ जॉन नेल
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| * विरोध बहुत रचनात्मक होता है। वह उत्साहियों को सदैव उत्तेजित करता है, उन्हें बदलता नहीं। ~ शिलर
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| * विपत्ति ही ऐसी तुला है जिस पर हम मित्रों को तोल सकते हैं। सुदिन अच्छी तुला नहीं है। ~ प्लूटार्क
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| ===विरोध अनिवार्य है===
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| * हर सुधार का कुछ न कुछ विरोध अनिवार्य है। परंतु विरोध और आंदोलन, एक सीमा तक, समाज में स्वास्थ्य के लक्षण होते हैं। ~ महात्मा गांधी
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| * दुखियों की दशा वही जानता है, जो अपनी परिस्थितियों से दुखी हो गया हो। ~ शेख सादी
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| * मृत्यु देह के लिए अनमोल वरदान है। ~ स्वामी हरिहर चैतन्य
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| * यदि तुम छोटे बालकों के समान नहीं बनोगे, तो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं कर पाओगे। ~ नवविधान
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| * समृद्धियां पराक्रमी मनुष्य के साथ रहती हैं, अनुत्साही मनुष्य के साथ नहीं। ~ भारवि
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| ===वासना का क्षय ही मोक्ष है===
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| * संसार में ऐसा कोई भी नहीं है, जो नीति का जानकार न हो, परंतु उसके प्रयोग से लोग विहीन होते हैं। ~ कल्हण
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| * कुल के कारण कोई बड़ा नहीं होता, विद्या ही उसे पूजनीय बनाती है। ~ चाणक्य
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| * जो वासना से बंधा है, वही 'बद्ध' है और वासना का क्षय ही मोक्ष है। ~ मुक्तिकोपनिषद्
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| * जिसने कभी कोई शत्रु नहीं बनाया, उसका कोई मित्र भी नहीं बनता है। ~ टेनिसन
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| * जो मनुष्य इसी जन्म में मुक्ति प्राप्त करना चाहता है, उसे एक ही जन्म में हजारों वर्ष का काम करना पड़ता है। ~ विवेकानंद
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| ===विश्राम करने का सही समय===
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| * प्रेम करने वाला पड़ोसी दूर रहने वाले भाई से कहीं उत्तम है। ~ चाणक्य
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| * साधु स्वाद के लिए भोजन न करे, जीवन यात्रा के निर्वाह के लिए करे। ~ उत्तराध्ययन
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| * जैसे शरीर बिना कहे ही अपने अधीन होता है, उसी प्रकार सज्जन लोग भी प्रेमी जनों के वश में रहते हैं। ~ बाणभट्ट
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| * विश्राम करने का समय वही होता है, जब तुम्हारे पास उसके लिए समय न हो। ~ अज्ञात
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| * प्रवीणता और आत्मविश्वास अविजित सेनाएं हैं। ~ जॉर्ज हरबर्ट
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| ===विश्राम की बात कैसे===
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| * जैसे-जैसे हम बाह्य रूपों की विविधता में उलझते जाते हैं, वैसे-वैसे उनके मूलगत जीवन को भूलते जाते हैं। ~ महादेवी वर्मा
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| * विवेकी पुरुष को अपने मन में यह विचार करना चाहिए कि मैं कहां हूं, कहां जाऊंगा, मैं कौन हूं, यहां किसलिए आया हूं और किसलिए किसका शोक करूं। ~ वेदव्यास
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| * सभी सच्चे काम आराम हैं। ~ रामतीर्थ
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| * इस समय विश्राम की बात तुम कैसे कर सकते हो? जब हम लोग शरीर त्यागेंगे, तभी विश्राम करेंगे। ~ विवेकानंद
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| * विवेकहीन बल काल के समुद्र में ढोंगी की भांति डूब जाता है। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र
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| ===विचार ही कार्य का मूल है===
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| * हम देवों की शुभ मति के अधीन रहें। ~ ऋग्वेद
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| * मर्यादा का उल्लंघन कभी मत करो। ~ चाणक्य
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| * सच्चे संन्यासी तो अपनी मुक्ति की भी उपेक्षा करते हैं -जगत के मंगल के लिए ही उनका जन्म होता है। ~ विवेकानंद
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| * अपने भीतर शांति प्राप्त हो जाने पर सारा संसार ही शांत दिखाई देने लगता है। ~ योगवासिष्ठ
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| * विचार ही कार्य का मूल है। विचार गया तो कार्य गया ही समझो। ~ महात्मा गांधी
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| ===विचार और व्यवहार में सामंजस्य न होना ही धूर्तता है===
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| * श्रेष्ठ व्यक्ति का सम्मान करके उन्हें अपना बना लेना दुर्लभ पदार्थ से भी अधिक दुर्लभ है। ~ तिरुवल्लुवर
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| * हर व्यक्ति को जो चीज हृदयंगम हो गई है, वह उसके लिए धर्म है। धर्म बुद्धिगम्य वस्तु नहीं, हृदयगम्य है। इसलिए धर्म मूर्ख लोगों के लिए भी है। ~ महात्मा गांधी
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| * विचार और व्यवहार में सामंजस्य न होना ही धूर्तता है, मक्कारी है। ~ प्रेमचंद
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| * हम संसार को गलत पढ़ते हैं और कहते हैं कि वह हमें धोखा दे रहा है। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर
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| ===विजय सदा ही भव्य होती है===
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| * अक्रोध से क्रोध को जीतें, दुष्ट को भलाई से जीतें, कृपण को दान से जीतें और झूठ बोलने वाले को सत्य से जीतें। ~ धम्मपद
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| * विजय सदा ही भव्य होती है, चाहे वह संयोग से प्राप्त हो या दक्षता से। ~ एरिओस्टो
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| * विजय की इच्छा रखने वाले शूरवीर अपने बल और पराक्रम से वैसी विजय नहीं पाते, जैसी कि सत्य, सज्जनता, धर्म तथा उत्साह से प्राप्त कर लेते हैं। ~ वेदव्यास
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| * जो बल से विजय प्राप्त करता है, वह शत्रु पर आधी विजय ही प्राप्त करता है। ~ मिल्ट
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| * विजय सदा ही भव्य होती है, चाहे वह संयोग से प्राप्त हो या भव्यता से। ~ एरिओस्टो
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| * उच्च या नीच कुल में जन्म होना भाग्य के अधीन है। मेरे अधीन तो पुरुषार्थ है। ~ भट्टनारायण
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| * वह विजय अच्छी विजय नहीं है, जिसमें फिर से पराजय हो। वही विजय अच्छी है, जिस विजय की फिर विजय न हो। ~ जातक
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| * प्रयत्न न करने पर भी विद्वान लोग जिसे आदर दें, वही सम्मानित है। इसलिए दूसरों से सम्मान पाकर भी अभिमान न करे। ~ वेद व्यास
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| * मृत्यु सुनने में जितनी भयावह लगती है, पर देखने में उतनी ही निरीह और स्वाभाविक है। ~ शिवानी
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| ===विवेकहीन बल===
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| * जैसे-जैसे हम बाह्य रूपों की विविधता में उलझते जाते हैं, वैसे-वैसे उनके मूलगत जीवन को भूलते जाते हैं। ~ महादेवी वर्मा
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| * विवेकी पुरुष को अपने मन में यह विचार करना चाहिए कि मैं कहां हूं, कहां जाऊंगा, मैं कौन हूं, यहां किसलिए आया हूं और किसलिए किसका शोक करूं। ~ वेदव्यास
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| * सभी सच्चे काम आराम हैं। रामतीर्थ
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| * इस समय विश्राम की बात तुम कैसे कर सकते हो? जब हम लोग शरीर त्यागेंगे, तभी विश्राम करेंगे। ~ विवेकानंद
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| * विवेकहीन बल काल के समुद्र में ढोंगी की भांति डूब जाता है। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र
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| ===विनाश काल आने पर बुद्धि विपरीत===
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| * आपदा ही एक ऐसी वस्तु है, जो हमें अपने जीवन को गहराइयों में अंतर्दृष्टि प्रदान करती है। ~ विवेकानंद
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| * न पहले कभी हुआ और न किसी ने देखा, सोने के मृग की कभी बात भी नहीं हुई, फिर भी राम को सुवर्ण मृग का लोभ हुआ। विनाश काल आने पर बुद्धि विपरीत हो जाती है। ~ चाणक्य नीति
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| * भ्रम में पड़े हुए व्यक्ति को विवेक कहां? ~ माघ
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| * मैंने सत्य को पा लिया, ऐसा मत कहो, बल्कि कहो, मैंने अपने मार्ग पर चलते हुए आत्मा के दर्शन किए हैं। ~ खलील जिब्रान
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| * अनिष्ट से यदि इष्ट सिद्धि हो भी जाए, तो भी उसका परिणाम अच्छा नहीं होता। ~ नारायण पंडित
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| * संपन्नता महान शिक्षक है पर विपत्ति महानतर शिक्षक है। संपत्ति मन को लाड़ से बिगाड़ देती है, किंतु अभाव उसे प्रशिक्षित कर शक्तिशाली बनाता है। ~ हैजलिट
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| * विपत्ति में पड़े हुए मनुष्यों का प्रिय करनेवाले दुर्लभ होते हैं। ~ शूद्रक
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| ===विशेष भाव से प्रेम करना बंधन है===
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| * प्राणों में छिपा हुआ प्रेम पवित्र होता है। हृदय के अंधकार में वह माणिक्य के समान जलता है, किंतु प्रकाश में वह काले कलंक के समान दिखाई देता है। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर
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| * जिसका मन जिससे लग गया, वह उसी में रूप-गुण सब कुछ देखता है। प्रेम स्वाधीन को पराधीन कर सकता है। उसके अतिरिक्त यह सामर्थ्य किसमें है? ~ दयाराम
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| * प्रेम बोला नहीं जा सकता, बताया नहीं जा सकता, दिखाया नहीं जा सकता। प्रेम चित्त से चित्त का अनुभव है। ~ तुकाराम
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| * किसी व्यक्ति से विशेष भाव से प्रेम करना बंधन है। सभी से समान रूप से प्रेम करो, तब तुम्हारी सभी वासनाएं विलीन हो जाएंगी। ~ विवेकानंद
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| * पुष्प से भी मृदुल होता है प्रेम। बिरले ही उसकी वास्तविकता को समझ कर उससे लाभान्वित होते हैं। ~ तिरुवल्लुवर
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| ===वीर संसार को हिला सकते हैं===
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| * शूर जन जल हीन बादल के समान व्यर्थ गर्जना नहीं किया करते। ~ वाल्मीकि
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| * वीर तो अपने अंदर ही 'मार्च' करते हैं, क्योंकि हृदयाकाश के केंद्र में खड़े होकर वे कुल संसार को हिला सकते हैं। ~ सरदार पूर्णसिंह
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| * वरात्माएं सत्कार्य में विरोध की परवा नहीं करतीं और अंत में उस पर विजय ही पाती हैं। ~ प्रेमचंद्र
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| * जो महान है वह महान पर ही वीरता दिखाता है। ~ नारायण पंडित
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| * बिना विवेक की वीरता महासमुद्र की लहर में डोंगी-सी डूब जाती है। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र
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| ===विद्या ही पूजनीय बनाती है===
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| * प्राप्त हुए धन का उपयोग करने में दो भूलें हुआ करती हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए। अपात्र को धन देना और सुपात्र को धन न देना। ~ वेद व्यास | | * प्राप्त हुए धन का उपयोग करने में दो भूलें हुआ करती हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए। अपात्र को धन देना और सुपात्र को धन न देना। ~ वेद व्यास |
| * दरिद्र कौन है? भारी तृष्णा वाला। और धनवान कौन है? जिसे पूर्ण संतोष है। ~ शंकराचार्य | | * वैरी भी अद्भुत कार्य करने पर प्रशंसा के पात्र बन जाते हैं। ~ सोमेश्वर |
| * संसार में ऐसा कोई भी नहीं है जो नीति का जानकार न हो, परंतु उसके प्रयोग से लोग विहीन होते हैं। ~ कल्हण
| | * जंगली पशु क्रीड़ा के लिए कभी किसी की हत्या नहीं करते। मानव ही वह प्राणी है जिसके लिए अपने साथी प्राणियों की यंत्रणा तथा मृत्यु मनोरंजक होती है। - जेम्स ऐंथनी फ्राउड |
| * कुल के कारण कोई बड़ा नहीं होता, विद्या ही उसे पूजनीय बनाती है। ~ चाणक्य
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| * जिसके पास बुद्धि है, उसी के पास बल है, बुद्धिहीन में बल कहां। ~ विष्णु शर्मा
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| * वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो पराये को भी अपना बना ले। ~ विमल मित्र
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| * जब तक तुम्हारे पास कुछ कथनीय न हो, तब तक किसी भी प्रकार से किसी से भी कुछ न कहो। ~ कार्लाइल
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| ===विद्या कामधेनु के गुणों से संपन्न होती है===
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| * जो विद्या केवल पुस्तकों में रहती है और जो धन दूसरे के हाथों में रहता है, समय पड़ने पर न वह विद्या है और न वह धन। ~ लघुचाणक्य
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| * विद्या कामधेनु के गुणों से संपन्न होती है। वह सदा फल देनेवाली है। परदेश में वह माता के समान है। विद्या को इसीलिए गुप्त धन कहा जाता है। ~ वृद्धचाणक्य
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| * जिसने विद्या पढ़ी और आचरण नहीं किया, वह उसके समान है जिसने बैल जोता पर बीज नहीं बिखेरे। ~ शेख सादी
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| * विद्या शील के अभाव में शोचनीय और द्वेष से अपवित्र हो जाती है। ~ क्षेमेंद्र
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| * जो जिस विद्या से युक्त है, वही उसके लिए परम देवता है। वह पूज्य और अर्चनीय है और वही उसके लिए उपकारिका है। ~ विष्णुपुराण
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| * केवल पढ़-लिख लेने से कोई विद्वान नहीं होता। जो सत्य, तप, ज्ञान, अहिंसा, विद्वानों के प्रति श्रद्धा और सुशीलता को धारण करता है, वही सच्चा विद्वान है। ~ अज्ञात
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| * धर्म की रक्षक विद्या ही है क्योंकि विद्या से ही धर्म और अधर्म का बोध होता है। ~ दयानंद
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| ===विद्या मनुष्य की अतुल कीर्ति है===
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| * विद्या शील के अभाव में शोचनीय हो जाती है और द्वेष से अपवित्र हो जाती है। ~ क्षेमेंद्र
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| * जो जिस विद्या से युक्त है, वही उसके लिए परम देवता है। वह पूज्य और अर्चनीय है और वही उसके लिए उपकारिका है। ~ विष्णु पुराण
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| * विद्या कामधेनु के गुणों से संपन्न है, वह सदा फल देने वाली है। परदेश में माता के समान है। विद्या को गुप्त धन कहा गया है। ~ वृद्ध चाणक्य
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| * विद्या मनुष्य की अतुल कीर्ति है। भाग्य का नाश होने के बावजूद यह मनुष्य का आश्रय बनी रहती है। ~ अज्ञात
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| * जिसने विद्या पढ़ी और आचरण नहीं किया- वह उसके समान है जिसने बैल जोता है और बीज नहीं बिखेरा। ~ शेख सादी
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| ===विद्या, तप और कीर्ति अतिधन है===
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| * धन का अर्जन, वर्धन और रक्षण करना चाहिए। बिना कमाये खाया जाता हुआ धन सुमेरु पर्वत के समान होने पर भी नष्ट हो जाता है। ~ शांड़्धर-पद्धति
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| * अधन ही जीव का धन है, धन आधा धन है, धान्य महद् धन है और विद्या, तप और कीर्ति अतिधन है। ~ भगदत्त जल्हण
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| * मनस्विता धन की गरमी से लता के समान झुलस जाती है। ~ बाणभट्ट
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| * मोहांध और अविवेकी के समीप लक्ष्मी अधिक समय नहीं रहती। ~ सोमदेव
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| ===वाणी न होती तो धर्म-अधर्म का ज्ञान भी न होता===
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| * वाणी न होती तो धर्म-अधर्म का ज्ञान भी न होता। सत्य, असत्य, साधु, असाधु ये सब वाणी की वजह से ही हमें ज्ञात हैं। ~ छन्दोग्योपनिषद
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| * बाणों से बिंधा हुआ तथा फरसे से कटा हुआ वन भी अंकुरित हो जाता है, किंतु कटु वचन कहकर वाणी से किया हुआ भयानक घाव नहीं भरता। ~ वेदव्यास
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| * शुद्ध आशय हो तो रूखे वचन को भी सज्जन रूखा नहीं समझते हैं। ~ अश्वघोष
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| * उचित अवसर पर कही गई असुंदर वाणी भी उसी तरह सुशोभित होती जिस तरह भूख में नितांत अस्वादु भोजन भी सुस्वादु हो जाता है। ~ वल्लभदेव
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| ===वह विजय महान होती है जो बिना रक्तपात के मिलती है===
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| * मनुष्य में जो स्वाभाविक बल है, उसकी अभिव्यक्ति धर्म है। ~ विवेकानंद
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| * वह विजय महान होती है जो बिना रक्तपात के मिलती है। ~ स्पेनी लोकोक्ति
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| * अमृत और मृत्यु- दोनों ही इस शरीर में स्थित हैं। मनुष्य मोह से मृत्यु को और सत्य से अमृत को प्राप्त होता है। ~ वेदव्यास
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| * वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो पराये को भी अपना बना ले। ~ विमल मित्र
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| ===वह पशुओं से भी गया-बीता है===
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| * मेघ वर्षा करते समय यह नहीं देखता कि भूमि उपजाऊ है या ऊसर। वह दोनों को समान रूप से सींचता है। गंगा का पवित्र जल उत्तम और अधम का विचार किए बिना सबकी प्यास बुझाता है। ~ तुकाराम
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| * जो बलवान होकर निर्बल की रक्षा करता है, वही मनुष्य कहलाता है और जो स्वार्थवश परहानि करता है, वह पशुओं से भी गया-बीता है। ~ दयानंद
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| * बल तथा कोश से संपन्न महान व्यक्तियों का महत्व ही क्या यदि उन्होंने दूसरों के कष्ट का उसी क्षण विनाश नहीं किया। ~ सोमदेव
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| * उपकार करने का साहसी स्वभाव होने के कारण गुणी लोग अपनी हानि की भी चिंता नहीं करते। दीपक की लौ अपना अंग जलाकर ही प्रकाश उत्पन्न करती है। ~ अज्ञात
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| ===वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो पराये को भी अपना बना ले===
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| * जिसके पास बुद्धि है, उसी के पास बल है, बुद्धिहीन में बल कहां। ~ विष्णु शर्मा
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| * वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो पराये को भी अपना बना ले। ~ विमल मित्र
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| * जब तक तुम्हारे पास कुछ कथनीय न हो, तब तक किसी भी प्रकार से किसी से भी कुछ न कहो। ~ कार्लाइल
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| * संसार में ऐसा कोई भी नहीं है जो नीति का जानकार न हो, परन्तु उसके प्रयोग से लोग विहीन होते हैं। ~ कल्हण
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| * कुल के कारण कोई बड़ा नहीं होता, विद्या ही उसे पूजनीय बनाती है। ~ चाणक्य
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| ===वही मंगल है जिससे मन प्रसन्न हो===
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| * वही मंगल है जिससे मन प्रसन्न हो। वही जीवन है जो परसेवा में बीते। वही अर्जित है जिसका भोग स्वजन करें। ~ गरुड़पुराण
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| * गलती से जिनको तुम 'पतित' कहते हो, वे वे हैं जो 'अभी उठे नहीं' हैं। ~ रामतीर्थ
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| * जंग लग कर नष्ट होने की अपेक्षा जीर्ण होकर नष्ट होना अधिक अच्छा है। ~ रिचर्ड कंबरलैंड
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| * परिश्रमी धीर व्यक्ति को इस जगत में कोई वस्तु अप्राप्य नहीं है। ~ सोमदेव
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| * निरंतर और अथक परिश्रम करनेवाले भाग्य को भी परास्त कर देंगे। ~ तिरुवल्लुवर
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| ===विष पीकर शिव सुख से जागते हैं===
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| * विष पीकर शिव सुख से जागते हैं, जबकि लक्ष्मी का स्पर्श पाकर विष्णु निद्रा से मूर्च्छाग्रस्त हो जाते हैं। ~ अज्ञात
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| * कामना सरलता से लोभ बन जाती है और लोभ वासना बन जाता है। ~ सत्य साईं बाबा
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| * लोभी मनुष्य किसी कार्य के दोषों को नहीं समझता, वह लोभ और मोह से प्रवृत्त हो जाता है। ~ वेदव्यास | |
| * तू छोटा बन, बस छोटा बन। गागर में आएगा सागर। ~ सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
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| * मनुष्य वस्त्रों के बिना तो शोभित हो सकता है, किंतु लज्जा व धैर्य से रहित होने पर नहीं। ~ श्रीहर्ष
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| * जैसा तुम्हारा लक्ष्य होगा, वैसा ही तुम्हारा जीवन भी होगा। ~ श्रीमां
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| ===वाचाल के कथन रुचिकर नहीं लगते===
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| * जैसे नमक के बिना अन्न स्वादरहित और फीका लगता है, वैसे ही वाचाल के कथन निस्सार होते हैं और किसी को रुचिकर नहीं लगते। ~ तुकाराम
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| * गूंगा कौन है? जो समयानुकूल प्रिय वाणी बोलना नहीं जानता है। ~ अमोघवर्ष
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| * जो बल से विजय प्राप्त करता है, वह शत्रु पर आधी विजय ही प्राप्त करता है। ~ मिल्टन
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| * असंयमी विद्वान अंधा मशालदार है। ~ शेख सादी
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| * कटा हुआ वृक्ष भी बढ़ता है। क्षीण हुआ चंद्रमा भी पुन: बढ़कर पूरा हो जाता है। इस बात को समझकर संत पुरुष अपनी विपत्ति में नहीं घबराते हैं। ~ भर्तृहरि
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| ===विनयी जनों को क्रोध कहां===
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| * आपत्तिकाल में प्रकृति बदल देना अच्छा, परंतु अपने आश्रय के प्रतिकूल चेष्टा अच्छी नहीं। ~ अभिनंद
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| * विनयी जनों को क्रोध कहां? और निर्मल अंत:करण में लज्जा का प्रवेश कहां? ~ भास
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| * जो जमीन पर बैठता है, उसे कौन नीचे बिठा सकता है, जो सबका दास है, उसे कौन दास बना सकता है? ~ महात्मा गांधी
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| * विद्वान तो बहुत होते हैं, लेकिन विद्या के साथ जीवन का आचरण करने वाले कम होते हैं। ~ सरदार पटेल
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| * मनुष्य की जिह्वा छोटी होती है, परंतु वह बड़े-बड़े दोष कर बैठती है। ~ इस्माइल इब्न अबीबकर
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| ===विद्वानों की संगति से ज्ञान मिलता है===
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| * प्रेम से शोक उत्पन्न होता है, प्रेम से भय उत्पन होता है, प्रेम से मुक्त को शोक नहीं, फिर भय कहां से? ~ धम्मपद
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| * विद्वानों की संगति से ज्ञान मिलता है, ज्ञान से विनय, विनय से लोगों का प्रेम और लोगों के प्रेम से क्या नहीं प्राप्त होता? ~ अज्ञात
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| * पदार्थों का कोई आंतरिक हेतु ही मिलाता है। प्रेम बाहरी उपाधियों पर आश्रित नहीं होता। ~ भवभूति
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| * जिसका घर है, उसके लिए वह मथुरापुरी जैसा है। जिसका वर है, उसके लिए तो वह श्रीकृष्ण जैसा है। ~ उडि़या लोकोक्ति
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| ===विद्वानों की संगति से मूर्ख भी विद्वान बन जाता है===
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| * उदात्त चित्त वाले लोगों में दूसरों के प्रकट हुए दोषों को भी चिरकाल तक छिपाने की निपुणता होती है और अपने गुण को प्रकट करने में उन्हें अतिशय अकौशल होता है। ~ माघ
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| * जिस प्रकार बादल एकत्र होकर फिर अलग हो जाते हैं , उसी प्रकार प्राणियों का संयोग और वियोग है। ~ अश्वघोष
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| * जिसके मन में राग-द्वेष नहीं है और जो तृष्णा को त्याग कर शील तथा संतोष को ग्रहण किए हुए है, वह संत पुरुष जगत के लिए जहाज है। ~ तुलसीदास
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| * विद्वानों की संगति से मूर्ख भी विद्वान बन जाता है जैसे निर्मली के बीज से मटमैला पानी स्वच्छ हो जाता है। ~ कालिदास
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| ===विकास कृत्रिम निर्धनता है===
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| * मन में संतोष होना स्वर्ग की प्राप्ति से भी बढ़कर है, संतोष ही सबसे बड़ा सुख है। संतोष यदि मन में भली-भांति प्रतिष्ठित हो जाए तो उससे बड़कर संसार में कुछ भी नहीं है। ~ वेदव्यास
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| * जो अप्राप्त वस्तु के लिए चिंता नहीं करता और प्राप्त वस्तु के लिए सम रहता है, जिसने न दुख देखा है, न सुख- वह संतुष्ट कहा जाता है। ~ महोपनिषद
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| * जिसका मन संतुष्ट है, सभी संपत्तियां उसकी हैं। ~ अज्ञात
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| * संतोष स्वाभाविक संपत्ति है, विकास कृत्रिम निर्धनता। ~ सुकरात
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| ===वर्तमान ही सब कुछ है===
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| * वर्तमान ही सब कुछ है। भविष्य की चिंता हमें कायर बना देती है और भूत का भार हमारी कमर तोड़ देता है। ~ प्रेमचंद
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| * दु:ख, सुख के साथ ही निरंतर घूमता रहता है। ~ वीणावासवदत्ता
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| * शेष ऋण, शेष अग्नि तथा शेष रोग पुन: बढ़ते हैं, अत: इन्हें शेष नहीं छोड़ना चाहिए। ~ शौनकीयनीतिसार
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| * धीरज होने से दरिद्रता भी शोभा देती है। धुले हुए होने से जीर्ण वस्त्र भी अच्छे लगते हैं। घटिया भोजन भी गर्म होने से सुस्वादु लगता है और सुंदर स्वभाव के कारण कुरूपता भी शोभा देती है। ~ चाणक्य नीति
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| * जो व्यक्ति मूर्ख के सामने विद्वान दिखने की कामना करते हैं, वे विद्वानों के सामने मूर्ख लगते हैं। ~ क्विन्टिलियन
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| ===विनम्रता शरीर की अंतरात्मा है===
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| * अनुभव बीस वर्ष में जो सिखाता है, विद्वता एक वर्ष में उससे अधिक सिखा देती है। ~ रोगर ऐस्कम
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| * अपनी विद्वता को पॉकिट घड़ी की तरह अपनी जेब में रखो, और उसे केवल यह दिखाने के लिए कि तुम्हारे पास भी है, न बाहर निकालो और न पटको। ~ लॉर्ड चेस्टरफील्ड
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| * विनम्रता शरीर की अंतरात्मा है। ~ ऐडिसन
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| * जो मनुष्य विनम्र है, उसे सदैव ईश्वर अपने मार्गदर्शक के रूप में प्राप्त रहेगा। ~ जॉन बनयन
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| * यदि कोई बड़ा होना चाहे, तो सबसे छोटा और सबका सेवक बने। ~ नवविधान
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| ===विलास सच्चे सुख की छाया मात्र है===
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| * मेरा लक्ष्य संसार से मैत्री है और मैं अन्याय का प्रबलतम विरोध करते हुए भी दुनिया को अधिक से अधिक स्नेह दे सकता हूं। ~ महात्मा गांधी
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| * जब तक तुम स्वयं में विश्वास नहीं करते, परमात्मा में तुम विश्वास नहीं कर सकते। ~ विवेकानंद
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| * वीरता कभी-कभी हृदय की कोमलता का भी दर्शन कराती है। ऐसी कोमलता देखकर सारी प्रकृति कोमल हो जाती है, ऐसी सुंदरता देख लोग माहित हो जाते हैं। ~ सरदार पूर्णसिंह
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| * विलास सच्चे सुख की छाया मात्र है। ~ प्रेमचंद
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| ===वृद्ध मनुष्य अपवादों को जानता है===
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| * युवक नियमों को जानता है, परंतु वृद्ध मनुष्य अपवादों को जानता है। ~ ओलिवर वेंडेल होल्मेस
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| * मर्यादा का उल्लंघन कभी मत करो। ~ चाणक्य
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| * जिसमें उन्नति कर सकने की क्षमता है, उसी पर विपत्तियां भी आती हैं। ~ वल्लभदेव | | * जिसमें उन्नति कर सकने की क्षमता है, उसी पर विपत्तियां भी आती हैं। ~ वल्लभदेव |
| * श्रद्धा में निराशा का कोई स्थान नहीं है। ~ गांधी | | * जहां स्थूल जीवन का स्वार्थ समाप्त होता है, वहीं मनुष्यता प्रारंभ होती है। ~ हजारी प्रसाद द्विवेदी |
| * आत्मवान संयमी पुरुषों को न तो विषयों में आसक्ति होती है और न वे विषयों के लिए युक्ति ही करते हैं। ~ अश्वघोष | | * जो मनुष्य इसी जन्म में मुक्ति प्राप्त करना चाहता है, उसे एक ही जन्म में हजारों वर्ष का काम करना पड़ता है। ~ विवेकानंद |
| | * जिसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है, वह मनुष्य सदा पाप ही करता रहता है। केवल पुन: किया हुआ पुण्य ही बुद्धि को बढ़ाता है। ~ वेदव्यास |
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| ==श== | | ===प्रेम में स्मृति का ही सुख है=== |
| ===शास्त्र पढ़कर भी लोग मूर्ख होते हैं=== | | * प्रेम से भरा हृदय अपने प्रेम पात्र की भूल पर दया करता है और खुद घायल हो जाने पर भी उससे प्यार करता है। ~ महात्मा गांधी |
| * शास्त्र पढ़कर भी लोग मूर्ख होते हैं, किंतु जो उसके अनुसार आचरण करता है, वस्तुत: वही विद्वान है। ~ हितोपदेश | | * जिससे प्रेम हो गया, उससे द्वेष नहीं हो सकता, चाहे वह हमारे साथ कितना ही अन्याय क्यों न करे। ~ प्रेमचंद |
| * निर्मल अंत:करण को जिस समय जो प्रतीत हो वही सत्य है। उस पर दृढ़ रहने से शुद्ध सत्य की प्राप्ति हो जाती है। ~ महात्मा गांधी | | * प्रेम में स्मृति का ही सुख है। एक टीस उठती है, वही तो प्रेम का प्राण है। ~ जयशंकर प्रसाद |
| * अविश्वास से अर्थ की प्राप्ति नहीं हो सकती। और जो विश्वासपात्र नहीं है, उससे कुछ लेने को जी भी नहीं चाहता। अविश्वास के कारण सदा भय लगा रहता है और भय से जीवित मनुष्य मृतक के समान हो जाता है। ~ वेद व्यास | | * प्रेम को व्याधि के रूप में देखने की अपेक्षा हम संजीवनी शक्ति के रूप में देखना अधिक पसंद करते हैं। ~ रामचंद्र शुक्ल |
| * जब कोई व्यक्ति अहिंसा की कसौटी पर खरा उतर जाता है तो दूसरे व्यक्ति स्वयं ही उसके पास आकर वैरभाव भूल जाते हैं। ~ पतंजलि | | * प्रेम कभी अपने को नहीं पहचानता। दूसरे के लिए सदा उन्मत्त रहता है। स्वार्थ और प्रेम परस्पर विरोधी हैं। जहां स्वार्थ है, वहां प्रेम नहीं है। ~ अश्विनीकुमार दत्त |
| * मनुष्य जिस समय पशु तुल्य आचरण करता है उस समय वह पशुओं से भी नीचे गिर जाता है। ~ रवींद्रनाथ | | * प्रेम में द्वेष की गुंजाइश ही नहीं, प्रेम में अहम-भाव नहीं, प्रेम सब कुछ सहन करता और मान लेता है। ~ महात्मा गांधी |
| | * प्रेम एक बीज है जो एक बार जम कर बड़ी मुश्किल से उखड़ता है। ~ प्रेमचंद |
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| ===शस्त्र जहां हार जाते हैं, वहीं बुद्धि जीतती है=== | | ===प्रेम चतुर मनुष्य के लिए नहीं है=== |
| * पराई बुद्धि से राजा होने से कहीं बेहतर है अपनी बुद्धि से पथिक होना। ~ लोकोक्ति | | * हम प्रेम से जिसके दास होते हैं, वह हमारा भी दास हो जाता है। प्रेम से दास होना मानो एक प्रकार से मुक्त होना है। ~ साने गुरु जी |
| * बुद्धि बिना शक्ति के छल और कलपना मात्र है और शक्ति के बिना बुद्धि मूर्खता और उन्माद है। ~ शेख सादी | | * जिससे प्रेम हो गया, उससे द्वेष नहीं हो सकता, चाहे वह हमारे साथ कितना ही अन्याय क्यों न करे। ~ प्रेमचंद |
| * मेघ-संकुल आकाश की तरह जिसका भविष्य घिरा हो, उसकी बुद्धि को तो बिजली के समान चमकना ही चाहिए। ~ जयशंकर प्रसाद | | * प्रेम कभी अपने को नहीं पहचानता। दूसरे के लिए सदा उन्मत्त रहता है। स्वार्थपरता और प्रेम परस्पर विरोधी हैं। जहां स्वार्थपरता है वहां प्रेम नहीं है। ~ अश्विनीकुमार दत्त |
| * ब्रह्मांड कितना बड़ा है, यह सवाल नहीं है, मनुष्य की बुद्धि कितनी बड़ी है, यही सवाल है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी | | * प्रेम चतुर मनुष्य के लिए नहीं, वह तो शिशु से सरल हृदयों की वस्तु है। ~ जयशंकर प्रसाद |
| * शस्त्र जहां हार जाते हैं, वहीं बुद्धि जीतती है। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र | | * श्रद्धावान को कोई परास्त नहीं कर सकता। बुद्धिमान को हमेशा पराजय का डर लगा रहता है। ~ महात्मा गांधी |
| | * संत मलिन चित्त वाले मनुष्यों को भी निर्मल कर देते हैं। ~ अचित्यानंद वर्णी |
| | * यद्यपि संतोष कड़वा वृक्ष है, तथापि इसका फल बड़ा ही मीठा और लाभदायक है। ~ रूमी |
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| ===शांति और सुख बाह्य वस्तुएं नहीं हैं=== | | ===प्रेम से दास होना, मानो मुक्त होना=== |
| * अपनी प्रभुता के लिए चाहे जितने उपाय किए जाएं परंतु शील के बिना संसार में सब फीका है। ~ वेदव्यास | | * हम प्रेम से जिसके दास होते हैं, वह हमारा भी दास हो जाता है। प्रेम से दास होना मानो एक प्रकार से मुक्त होना है। ~ साने गुरुजी |
| * शरीर आत्मा के रहने की जगह होने के कारण तीर्थ जैसा पवित्र है। ~ गांधी
| | * जिसका मन जिससे लग गया, वह उसी में रूप-गुण सब कुछ देखता है। प्रेम स्वाधीन को पराधीन कर सकता है। स्नेह के अतिरिक्त यह सामर्थ्य किसमें है? ~ दयाराम |
| * शांति और सुख बाह्य वस्तुएं नहीं हैं, वह तुम्हारे अंदर ही निवास करती हैं। ~ सत्य साईं बाबा | | * स्वयं डरा हुआ व्यक्ति दूसरों को भी डरा देता है। ~ प्रश्नव्याकरणसूत्र |
| * अपने भीतर ही यदि शांति मिल गई तो सारा संसार शांतिमय प्रतीत होता है। ~ योगवाशिष्ठ | |
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| ===शांति की अपनी विजयें होती हैं=== | | ===प्रेम की परीक्षा प्रेम से ही होनी चाहिए=== |
| * शांति की अपनी विजयें होती हैं, जो युद्ध की अपेक्षा कम कीर्तिमयी नहीं होतीं। ~ मिल्टन | | * जितना दिखाते हो उससे अधिक तुम्हारे पास होना चाहिए, जितना जानते हो उससे कम तुम्हें बोलना चाहिए। ~ शेक्सपियर |
| * कर्म, विद्या, धर्म, शील और उत्तम जीवन- इनसे ही मनुष्य शुद्ध होते हैं, गोत्र और धन से नहीं। ~ मज्झिम निकाय | | * बंधन बहुत तरह के हैं, पर प्रेम की डोर से बंध जाना तो कुछ और ही है। ~ अज्ञात |
| * जब बोलते समय वक्ता श्रोता की अवहेलना करके दूसरे के लिए अपनी बात कहता है, तब वह वाक्य श्रोता के हृदय में प्रवेश नहीं करता है। ~ वेदव्यास | | * संसार में स्नेह के बंधनपाश लोहे से भी बढ़कर कठोर होते हैं। ~ बाणभट्ट |
| * किसी के धन का लालच मत करो। ~ ईशावास्योपनिषद् | | * अतिशय प्रेम अनेक बार परिचित वस्तु को भी नया-नया कर देता है। ~ माघ |
| * सुखी के प्रति मित्रता, दुखी के प्रति करुणा, पुण्यात्मा के प्रति हर्ष और पापी के प्रति उपेक्षा की भावना करने से चित्त प्रसन्न व निर्मल होता है। ~ पतंजलि | | * प्रेम की परीक्षा प्रेम से ही होनी चाहिए। ~ कालिदास |
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| ===शांति से क्रोध को जीतें=== | | ===प्रेम का एक कण संसार पर भारी=== |
| * अपने सम्मान, सत्य और वास्तविकता के लिए प्राण देनेवाला ही वास्तविक विजेता होता है। ~ हरिकृष्ण प्रेमी | | * नीच व्यक्ति किसी प्रशंसनीय पद पर पहुंचने के बाद सबसे पहले अपने स्वामी को ही मारने को उद्धत होता है। ~ नारायण पंडित |
| * जो बल से विजय प्राप्त करता है, वह शत्रु पर आधी विजय ही प्राप्त करता है। ~ मिल्टन | | * जो वासना से बंधा है, वही 'बद्ध' है और वासना का क्षय ही मोक्ष है। ~ मुक्तिकोपनिषद् |
| * वाकपटु, निरालस्य व निर्भीक व्यक्ति से विरोध करके कोई नहीं जीत सकता। ~ तिरुवल्लुर | | * प्रेम का एक कण भी सारे संसार से बढ़कर मूल्य रखता है। ~ फरीदुद्दीन अत्तार |
| * जीतता वह है जिसमें शौर्य होता है, धैर्य होता है, साहस होता है, सत्व होता है, धर्म हाता है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी | | * सबसे पहले आत्मविश्वास करना सीखो। आत्मविश्वास सरीखा दूसरा कोई मित्र नहीं। आत्मविश्वास ही भावी उन्नति की सीढ़ी है। ~ स्वामी विवेकानंद |
| * शांति से क्रोध को जीतें, मृदुता से अभिमान को जीतें, सरलता से माया को जीतें तथा संतोष से लाभ को जीतें। ~ दशवैकालिक
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| ===शांति सदा अच्छी नहीं होती=== | | ===प्रेम आंखों से नहीं, मन से देखता है=== |
| * जीवन का सुख दूसरों को सुखी करने में है, उनको लूटने में नहीं। ~ प्रेमचंद | | * सच्ची बड़ाई उसी की है जिसकी शत्रु भी सराहना करें। ~ रहीम |
| * दुखियों की दशा वही जानता है, जो अपनी परिस्थितियों से दुखी हो गया हो। ~ शेख सादी | | * प्रेम चंद्रमा के समान है। अगर वह बढ़ेगा नहीं तो घटना शुरू हो जाएगा। ~ सीगर |
| * यदि तुम छोटे बालकों के समान नहीं बनोगे, तो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं कर पाओगे। ~ नवविधान | | * जहां प्रेम और भक्ति नहीं, वहां परमात्मा नहीं। ~ गुरु रामदास |
| * समृद्धियां पराक्रमी मनुष्य के साथ रहती हैं, अनुत्साही मनुष्य के साथ नहीं। ~ भारवि | | * प्रेम आंखों से नहीं, मन से देखता है। ~ शेक्सपियर |
| * किसी भी मूल्य पर शांति सदा अच्छी नहीं होती। वास्तविक वस्तु जीवन है, न कि शांति और नीरवता। ~ लाला लाजपत राय | | * प्रेम वही है जो अपनी शक्ति से अरूप में रूप भर दे। ~ अमृतलाल नागर |
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| ===शांति ईश्वर प्रदत्त नहीं होती=== | | ===प्रेम की शक्ति=== |
| * लोगों को यह याद रखना चाहिए कि शांति ईश्वर प्रदत्त नहीं होती। यह वह भेंट है, जिसे मनुष्य एक-दूसरे को देते हैं। ~ एली वाइजेला | | * जगत् में जो भी उन्नति वह प्रेम की शक्ति से ही हुई है। दोष बता बताकर कभी भी अच्छा काम नहीं किया जा सकता। ~ विवेकानंद |
| * अपने कल्याण के इच्छुक व्यक्ति को स्वेच्छाचारी नहीं होना चाहिए। ~ सोमदेव
| | * प्रेम बोला नहीं जा सकता, बताया नहीं जा सकता। प्रेम चित्त से चित्त का अनुभव है। ~ तुकाराम |
| * सच्चे संन्यासी तो अपनी मुक्ति की भी उपेक्षा करते हैं- जगत के मंगल के लिए ही उनका जन्म होता है। ~ विवेकानंद
| | * प्रेम कर्कश को मधुर बना देता है, असत को सत बनाता है, पापी को पुण्यवान बनाता है और अंधकार को प्रकाशमय। ~ बंकिमचंद्र |
| * हे राजन, क्षण भर का समय है ही क्या, यह समझने वाला मनुष्य मूर्ख होता है। और एक कौड़ी है ही क्या, यह सोचने वाला दरिद्र हो जाता है। ~ नारायण पंडित | |
| * कामना सरलता से लोभ बन जाती है और लोभ वासना बन जाता है। ~ सत्य साईंबाबा | |
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| ===शोक का भागी होता है=== | | ===प्रेम के बिना पृथ्वी क़ब्र है=== |
| * जो फल को जाने बिना ही कर्म की ओर दौड़ता है, वह फल-प्राप्ति के अवसर पर केवल शोक का भागी होता है- जैसे कि पलाश को सींचनेवाला पुरुष उसका फल न खाने पर खिन्न होता है। ~ वाल्मीकि | | * बिना प्रेम किए मर जाने से ज़्यादा दुखद कुछ कोई और नहीं हो सकता। लेकिन इससे भी ज़्यादा तकलीफ की बात यह है कि जिसे आप प्रेम करते हों, उसे बिना यह बताए ही दुनिया से विदा हो जाएं, कि आप उससे प्रेम करते थे। ~ अज्ञात |
| * जब तक तकलीफ सहने की तैयारी नहीं होती तब तक फायदा दिखाई दे ही नहीं सकता। फायदे की इमारत नुकसान की धूप में बनी है। ~ विनोबा | | * प्रेम निकाल दो तो यह पृथ्वी क़ब्र है। ~ रॉबर्ट ब्राउनिंग |
| * समय गंवाना सभी खर्चों से कीमती और व्यर्थ होता है। ~ अज्ञात | | * जितनी गहराई, ऊंचाई और विस्तार तक मेरी आत्मा जा सकती है, वहां तक मैं तुमसे प्रेम करती हूं। ~ एलिजाबेथ बैरेट ब्राउनिंग |
| * प्रेम द्वेष को परास्त करता है। ~ गांधी | | * जे दिन गए तुम्हइं बिनु देखे, से बिरंचि मम गिनइ न लेखे। (जो दिन तुम्हें देखे बिना गए, विधाता उन्हें मेरे भाग्य में न गिने।) ~ तुलसी |
| | * हाउ सैड ऐंड बैड ऐंड मैड इट वाज़ बट स्टिल हाउ इट वाज़ स्वीट (कितना बुरा, उदास और पागल नुमाफिर भी कितना मीठा वह एहसास) ~ कोलरिज |
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| ===शंका का अंत शांति का प्रारंभ है=== | | ===प्रेम से शांत होता है वैर=== |
| * शंका के मूल में श्रद्धा का अभाव रहता है। ~ महात्मा गांधी | | * संसार में वैर से वैर कभी शांत नहीं होते। प्रेम से ही वैर शांत होता है। ~ धम्मपद |
| * दही में जितना भी दूध डालिए, दही होता जाएगा। शंकाशील हृदयों में प्रेम की वाणी भी शंका उत्पन्न करती है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी | | * तृण वृत्ति वाले मृग, जल वृत्ति वाले मीन और संतोष वृत्ति वाले सज्जनों के भी इस संसार में शिकारी, मछुवा और चुगलखोर बिना कारण के ही वैरी रहते हैं। ~ भर्तृहरि |
| * अपने दोषों के कारण ही मनुष्य शंकित होता है। ~ शूद्रक
| | * व्यंग्य वचन दूसरों का हृदय छेदने में तीर का काम करते हैं। ~ अज्ञात |
| * गंभीरता से शंका करने वाला मन सजीव मन है। ~ सिस्टर निवेदिता | |
| * शंका का अंत शांति का प्रारंभ है। ~ पेट्रार्क
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| ===शक्ति भय के अभाव में रहती है=== | | ===प्रेम कभी दावा नहीं करता। वह तो हमेशा देता है=== |
| * अपने खजाने में वृद्धि करने के लिए दूसरे के हिस्से को हड़प लेने वाला व्यक्ति निकृष्ट है। ~ तिरुवल्लुवर | | * प्रिय कठिनाई से प्राप्त होता है। फिर कठिनाई से वश में होता है। फिर जैसा हृदय है, वैसा नहीं होता तो वह प्राप्त होकर भी अप्राप्त है। ~ हालसातवाहन |
| * धन्य वह है जो किसी बात की आशा नहीं करता, क्योंकि उसे कभी निराश नहीं होना है। ~ अलेक्जेंडर पोप | | * सुरूप हो या कुरूप, जिसकी जिसमें मनोगति है, वही उसके लिए उर्वशी है। ~ अतिरात्रयाजी |
| * शक्ति भय के अभाव में रहती है, न कि मांस या पुट्ठों के गुणों में, जो कि हमारे शरीर में होते हैं। ~ महात्मा गांधी | | * परस्पर न मिलते हुए, दूरस्थित प्राणियों में भी स्नेह देखा जाता है, जैसे सूर्य गगन तल में रहता है, परंतु नीचे पृथ्वी पर कमलिनी विकसित होती है। ~ नयनंदी |
| * जिनके भीतर आचरण की दृढ़ता रहती है, वे ही विचार में निर्भीक और स्पष्ट हुआ करते हैं। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी
| | * प्रेम कभी दावा नहीं करता। वह तो हमेशा देता है। ~ महात्मा गांधी |
| * केवल शरीर के मैल उतार देने से ही मनुष्य निर्मल नहीं हो जाता। मानसिक मैल का परित्याग करने पर ही वह भीतर से उत्पन्न होता है। ~ स्कंदपुराण | |
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| ===शील के लिए सात्विक हृदय=== | | ===प्रेमपूर्वक श्रम करते हो तो=== |
| * केवल नाम की इच्छा रखनेवाला पाखंडी भी नियम का पालन कर सकता है और पूरी तरह कर सकता है, पर शील के लिए सात्विक हृदय चाहिए। ~ रामचंद्र शुक्ल | | * जब तुम प्रेमपूर्वक श्रम करते हो, तब तुम अपने आप से, एक दूसरे से और ईश्वर से संयोग की गांठ बांधते हो। ~ खलील जिब्रान |
| * अपार संपन्नता पाकर भी अहंकार से मुक्त सज्जन किसी को तनिक भी नहीं भूलता। ~ माघ | | * सीखे गए को भूल जाने पर भी जो कुछ बच रहता है, वही शिक्षा है। ~ स्किनर |
| * साधु जन दुर्लभ वस्तु प्राप्त करके भी स्वार्थ-साधन में प्रवृत्त नहीं होते। ~ सोमदेव | | * सब कुछ अपने संकल्प द्वारा ही छोटा या बड़ा बन जाता है। ~ योग वसिष्ठ |
| * सज्जनों का हृदय समृद्धि में कोमल और विपत्ति के समय कठोर हो जाता है। ~ क्षेमेन्द्र | | * दूध का आश्रय लेने वाला पानी दूध हो जाता है। ~ विष्णु शर्मा |
| | * वह वैभव, जिसका कभी पतन संभव न हो, साधुओं और फ़कीरों का ही है। ~ हाफिज |
| | * समृद्धि शक्ति भर दुर्गुणों को खोज निकालती है। परंतु विपत्ति शक्ति भर गुणों को खोज निकालती है। ~ बेकन |
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| ===शूरवीर व्यक्ति व्यर्थ गर्जना नहीं करते=== | | ===प्रेमी हृदय उदार होता है=== |
| * दूसरे के उपकार का विस्मरण उचित नहीं होता, पर दूसरे पर उपकार को उसी दम भूल जाना ही उचित है। ~ तिरुवल्लुवर | | * प्रेमी हृदय उदार होता है, वह दया और क्षमा का सागर है, ईर्ष्या और दंभ के नाले उसमें मिल कर उसे विशाल बना देते हैं। ~ प्रेमचंद |
| * जब तक तुम स्वयं में विश्वास नहीं करते, परमात्मा में तुम विश्वास नहीं कर सकते। ~ विवेकानंद | | * जो कर्म छोड़ता है, वह गिरता है। कर्म करते हुए भी जो उसका फल छोड़ता है, वह चढ़ता है। ~ गांधी |
| * विषयों की खोज में दुख है। उनकी प्राप्ति होने पर तृप्ति नहीं होती। उनका वियोग होने पर शोक होना निश्चित है। ~ अश्वघोष | | * जो फल को जाने बिना ही कर्म की ओर दौड़ता है, वह फल प्राप्ति के अवसर पर केवल शोक का भागी होता है- जैसे कि पलाश को सींचनेवाला पुरुष उसका फल न पाने पर खिन्न होता है। ~ वाल्मीकि |
| * शूरवीर व्यक्ति जलहीन बादल के समान व्यर्थ गर्जना नहीं करते। ~ वाल्मीकि
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| * मेरा लक्ष्य संसार से मैत्री है और मैं अन्याय का प्रबलतम विरोध करते हुए भी दुनिया को अधिक से अधिक स्नेह दे सकता हूं। ~ महात्मा गांधी
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| ===शाश्वत तो हमारे हित हैं=== | | ===प्रिय बोलना सज्जनों की कुल विद्या है=== |
| * बोल वह है जो कि सुनने वाले को वाशीभूत कर ले, और न सुनने वालों में भी सुनने की इच्छा उत्पन्न कर दे। ~ तिरुवल्लुवर | | * प्रिय बोलना सज्जनों की कुल विद्या है। ~ बाणभट्ट |
| * व्यक्ति की पूजा की बजाए गुण-पूजा करनी चाहिए। व्यक्ति तो गलत साबित हो सकता है और उसका नाश तो होगा ही, गुणों का नाश नहीं होता। ~ महात्मा गांधी | | * अतिशय संपन्नता को पाकर भी गर्वरहित लोग किसी को तनिक नहीं भूलते। ~ माघ |
| * हमारे न तो कोई शाश्वत मित्र है और न कोई स्थायी शत्रु। शाश्वत तो हमारे हित हैं और उन हितों का अनुसरण करना हमारा कर्त्तव्य है। ~ पार्मस्टन | | * यह स्त्री है, यह पुरुष है- यह निरर्थक बात है। वास्तव में तो सत्पुरुषों का चरित्र ही पूजा योग्य होता है। ~ कालिदास |
| * हर स्थिति नहीं, हर क्षण अमूल्य है, क्योंकि यह संपूर्ण अनंतता का प्रतीक है। ~ गेटे | | * सज्जन लोग रत्न पाकर उतने प्रसन्न नहीं होते, जितने प्रसन्न उस रत्न को किसी निर्लोभ पात्र को देकर होते हैं। ~ भास |
| | * जो धर्माचरण करता है, जीव मात्र के प्रति तितिक्षा रखता है, जो अन्यों से तप्त किए जाने पर भी तप्त नहीं होता, वही मनुष्य श्रेय का पात्र है। ~ मत्स्यपुराण |
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| ===शिक्षा का लक्ष्य चरित्र है=== | | ===प्रिय व्यक्ति की मृत्यु होती है, प्रेम की नहीं=== |
| * धूर्तता और भोलेपन के बीच विवेक का स्वर रुद्ध हो जाता है। ~ एडमंड वर्क | | * भोग ही प्रेम का प्रधान लक्षण नहीं है। उसका एक प्रधान लक्षण है कि वह आनंद से दु:ख को स्वीकार कर लेता है क्योंकि दु:ख और त्याग से ही प्रेम की सार्थकता है। ~ विमल मित्र |
| * बड़प्पन सिर्फ उम्र में ही नहीं, उम्र के कारण मिले हुए ज्ञान, अनुभव और चतुराई में भी है। ~ महात्मा गांधी | | * प्रिय व्यक्ति की मृत्यु होती है, प्रेम की नहीं। वह अ-मृत है। ~ [[उमाशंकर जोशी]] |
| * लोभियों को उपहार देना उनके आकर्षण की एक मात्र औषध है। ~ सोमदेव | | * प्रेम किसी को अपने सिवा न कुछ देता है, न किसी से अपने-आपके सिवा कुछ लेता है। ~ खलील जिब्रान |
| * बुद्धिमत्ता का लक्ष्य स्वतंत्रता है। संस्कृति का लक्ष्य पूर्णता है। ज्ञान का लक्ष्य प्रेम है। शिक्षा का लक्ष्य चरित्र है। ~ सत्य साईं बाबा | | * प्रेम कर्कश को मधुर बना देता है, असत को सत बनाता है, पापी को पुण्यवान बनाता है और अंधकार को प्रकाशमय बनाता है। ~ बंकिमचंद्र |
| | * प्रेम मन की सबसे अच्छी दुर्बलता है। ~ ड्राइडेन |
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| ===शिक्षा आत्मनिर्भर बनाती है=== | | ===प्रिय कठिनाई से प्राप्त होता है=== |
| * आकाश, पृथ्वी, दिशाएं, जल, तेज तथा काल- ये जिनके रूप हैं, उस महेश्वर को नमस्कार है। ~ शिवपुराण | | * चंद्रमा की किरणों से खिल उठने वाला कुमुद पुष्प सूर्य की किरणों से नहीं खिला रहता। ~ कालिदास |
| * अमृत और मृत्यु दोनों ही इस शरीर में स्थित हैं। मनुष्य मोह से मृत्यु को और सत्य से अमृत को प्राप्त होता है। ~ वेदव्यास | | * प्रिय कठिनाई से प्राप्त होता है। फिर कठिनाई से वश में होता है। फिर जैसा हृदय है, वैसा नहीं होता तो वह प्राप्त होकर भी अप्राप्त है। ~ हालसातवाहन |
| * शिक्षा का सबसे बड़ा उद्देश्य आत्मनिर्भर बनाना है। ~ सैमुअल स्माइल्स | | * प्रार्थना या भजन जीभ से नहीं हृदय से होता है। इसी से गूंगे, तोतले और मूढ़ भी प्रार्थना कर सकते हैं। ~ महात्मा गांधी |
| * अच्छी संतान इस लोक और परलोक, दोनों में सुख देती है। ~ कालिदास | | * जो मेरे साथ भलाई करता है, वह मुझे भला होना सिखा देता है। ~ टामस फुलर |
| * मेरे मन के संकल्प पूर्ण हों। मेरी वाणी सत्य व्यवहार वाली हो। ~ यजुर्वेद | | * साधु स्वाद के लिए भोजन न करे, जीवन यात्रा के निर्वाह के लिए करे। ~ उत्तराध्ययन |
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| ===शिक्षा का सबसे बड़ा उद्देश्य आत्मनिर्भर बनाना है=== | | ===पहले हर अच्छी बात का मजाक बनता है=== |
| * वृद्धावस्था विचार करती है और यौवन साहस करता है। ~ राउपाख | | * दूसरों पर दोषारोपण नहीं करोगे तो तुम पर भी दोषारोपण नहीं किया जाएगा। दूसरों पर क्रोध नहीं करोगे तो तुम पर भी क्रोध नहीं किया जाएगा। और दूसरों को क्षमा करोगे तो तुम्हें भी क्षमा किया जाएगा। ~ नवविधान |
| * शिक्षा का सबसे बड़ा उद्देश्य आत्मनिर्भर बनाना है। ~ सैमुअल स्माइल्स | | * यदि किसी को दूध नहीं दे सकते, तो मत दो। मगर छाछ देने में क्या हर्ज़ है? यदि किसी भूखे को अन्न देने में समर्थ नहीं हो तो कोई बात नहीं, पर प्यासे को पानी तो पिला सकते हो। ~ तुकाराम |
| * मैं जितने दीपक जलाता हूं, उनमें से केवल लपट और कालिमा ही प्रकट होती है। ~ रवीन्द्रनाथ ठाकुर | | * पहले हर अच्छी बात का मजाक बनता है, फिर उसका विरोध होता है और अंत में उसको स्वीकार कर लिया जाता है। ~ स्वामी विवेकानंद |
| * परमेश्वर विद्वानों की संगति से प्राप्त होता है। ~ ऋग्वेद | | * असंयमी विद्वान् अंधा मशालदार है। ~ शेख सादी |
| * प्रिय वचन बोलने से सब प्राणी संतुष्ट हो जाते हैं, अत: प्रिय वचन ही बोलना चाहिए। वचन में दरिद्रता क्या? ~ अज्ञात | | * यदि तुम स्वतंत्र नहीं हो सकते, तो जितने हो सकते हो, उतने ही हो जाओ। ~ एमर्सन |
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| ===शरीर आत्मा का सितार है=== | | ===पहले जैसी स्थिति=== |
| * तुम्हारा शरीर तुम्हारी आत्मा का सितार है। यह तुम्हारे हाथ की बात है कि तुम उससे मधुर स्वर झंकृत करो या बेसुरी आवाजें निकालो। ~ खलील जिब्रान | | * हर मन एक माणिक्य है, उसे दुखाना किसी भी तरह अच्छा नहीं। ~ शेख फरीद |
| * 'निष्ठा से शहीद बनते हैं' कहने की अपेक्षा 'शहीदों से निष्ठा बनती है' कहना अधिक सत्य है। ~ मिगेल डि यूनामुनो | | * पढ़ना सुलभ है, पर उसका पालन करना दुर्लभ है। ~ लल्लेश्वरी |
| * शांति की अपनी विजयें होती हैं जो युद्ध की अपेक्षा कम कीतिर्मयी नहीं होतीं। ~ मिल्टन | | * कांच का कटोरा, नेत्रों का जल, मोती और मन: ये एक बार टूटने पर पहले जैसी स्थिति को प्राप्त नहीं कर सकते। ~ लोकोक्ति |
| * हर व्यक्ति में दिव्यता का कुछ अंश है, कुछ विशेषता है- शिक्षा का यही कार्य है कि वह इसको खोज निकाले। ~ अरविंद | | * राम नाम के बल पर अधर्म मत करो। राम नाम स्मरण के साथ-साथ शुद्ध कर्म भी करना आवश्यक है। ~ एकनाथ |
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| ===शत्रु कृपा से मित्र का अत्याचार अच्छा=== | | ===प्रतिभा धैर्य की महान् क्षमता मात्र है=== |
| * जहां बड़े-बड़े विद्वानों की बुद्धि काम नहीं करती, वहां एक श्रद्धालु की श्रद्धा काम कर जाती है। ~ महात्मा गांधी | | * असाधारण प्रतिभा को चमत्कारिक वरदान की आवश्यकता नहीं होती और साधारण को अपनी त्रुटियों की इतनी पहचान नहीं होती कि वह किसी पूर्णता के वरदान के लिए साधना करे। ~ महादेवी वर्मा |
| * धीरज होने से दरिद्रता भी शोभा देती है, धुले हुए होने से जीर्ण वस्त्र भी अच्छे लगते हैं, घटिया भोजन भी गर्म होने से स्वाद लगता है और अच्छे स्वभाव के कारण कुरूपता भी शोभा देती है। ~ चाणक्यनीति | | * जब प्रकृति को कोई महान् कार्य संपन्न कराना होता है तो वह उसको करने के लिए एक प्रतिभा का निर्माण करती है। ~ एमर्सन |
| * पृथ्वी में कुआं जितना ही गहरा खुदेगा, उतना ही अधिक जल निकलेगा। वैसे ही मानव की जितनी शिक्षा होगी, उतनी ही तीव्र बुद्धि बनेगी। ~ तिरुवल्लुवर | | * प्रतिभा जाति पर निर्भर नहीं है। जो परिश्रमी है, वही प्राप्त करता है। ~ शाह अब्दुल लतीफ |
| * शत्रु की कृपा से मित्र का अत्याचार अधिक अच्छा होता है। ~ हाफिज | | * प्रतिभा धैर्य की महान् क्षमता मात्र है। ~ बफां |
| | | * प्रतिभा स्वतंत्रता के वातावरण में ही मुक्त सांस ले सकती है। ~ जॉन स्टुअर्ट मिल्स |
| ===शिष्टाचार का मूल सिद्धांत===
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| * पक्षपात, गुणों को दोष और दोष को गुण बना देता है। ~ राजशेखर
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| * धर्म, सत्य, सदाचार, बल और लक्ष्मी सब शील के ही आश्रय पर रहते हैं। शील ही सबकी नींव है। ~ वेदव्यास | |
| * शिष्टाचार का मूल सिद्धांत है दूसरे को अपने प्रेम और आदर का परिचय देना और किसी को असुविधा और कष्ट न पहुंचाना। ~ अज्ञात
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| * योग्य शिष्य को जो शिक्षा दी जाती है, वह अवश्य फलती है। ~ कालिदास
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| ==स== | | ===प्रतिभा, जिसका अर्थ है सबसे पहले कष्ट उठाने की अलौकिक क्षमता=== |
| ===सुंदर दिखना===
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| * यदि सुंदर दिखाई देना है तो तुम्हें भड़कीले कपड़े नहीं पहनना चाहिए। बल्कि अपने सदगुणों को बढ़ाना चाहिए। ~ महात्मा गांधी
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| * सुंदरता चलती है तो साथ ही देखने वाली आंख, सुनने वाले कान और अनुभव करने वाले ह्रदय चलते हैं। ~ सुदर्शन
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| * जो अहित करने वाली चीज है, वह थोड़ी देर के लिए सुंदर बनाने पर भी असुंदर है, क्योंकि वह अकल्याणकारी है। सुंदर वही हो सकता है जो कल्याणकारी हो। ~ भगवतीचरण वर्मा
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| * सुंदर वस्तु सर्वदा आनंद देने वाली होती है। उसका आकर्षण निरंतर बढ़ता जाता है। उसका कभी ह्रास नहीं होने पाता। ~ अज्ञात
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| ===सौंदर्य देखने वाले की आंख में होता है===
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| * सौंदर्य पवित्रता में रहता है और गुणों में चमकता है। ~ शिवानंद
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| * सच्चे सौंदर्य का रहस्य सच्ची सरलता है। ~ साधु वासवानी
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| * सौंदर्य संसार की सभी संस्तुतियों से बढ़कर है। ~ अरस्तु
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| * जरूरी नहीं कि जो रूप में ठीक हो, वह सद्गुण संपन्न भी हो। ~ शेख सादी
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| * सौंदर्य देखने वाले की आंख में होता है। ~ शेक्सपियर
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| ===सौंदर्य पवित्रता में रहता है===
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| * सौंदर्य पवित्रता में रहता है और गुणों में चमकता है। ~ शिवानंद
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| * सच्चे सौंदर्य का रहस्य सच्ची सरलता है। ~ साधु वासवानी
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| * सौंदर्य संसार की सभी संस्तुतियों से बढ़कर है। ~ अरस्तु
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| * जरूरी नहीं कि जो रूप में ठीक हो, वह सद्गुण संपन्न भी हो। ~ शेख सादी
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| * सौंदर्य देखने वाले की आंख में होता है। ~ शेक्सपियर
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| * प्रतिभा जाति पर निर्भर नहीं है। जो परिश्रमी है, वही प्राप्त करता है। ~ शाह अब्दुल लतीफ | | * प्रतिभा जाति पर निर्भर नहीं है। जो परिश्रमी है, वही प्राप्त करता है। ~ शाह अब्दुल लतीफ |
| * सत्य हजार ढंग से कहा जा सकता है और फिर भी हर ढंग सत्य हो सकता है। ~ स्वामी विवेकानंद | | * उत्कृष्ट मनुष्यों को उनका असाधारण चरित्र प्रतिष्ठा देता है, उनका कुल नहीं। ~ अज्ञात |
| * अधिक कहने से रस नहीं रह जाता, जैसे गूलर के फल को फोड़ने पर रस नहीं निकलता। ~ तुलसीदास | | * असाधारण प्रतिभा को चमत्कारिक वरदान की आवश्यकता नहीं होती और साधारण को अपनी त्रुटियों की इतनी पहचान नहीं होती कि वह किसी पूर्णता के वरदान के लिए साधना करे। ~ महादेवी वर्मा |
| * जैसे ही कहीं पर भगवान का मंदिर बनकर तैयार होता है, शैतान उसके पास ही अपना प्रार्थना गृह बना लेता है। ~ जॉर्ज हरबर्ट | | * प्रतिभा, जिसका अर्थ है सबसे पहले कष्ट उठाने की अलौकिक क्षमता। ~ कार्लाइल |
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| ===सत्याग्रह की तलवार=== | | ===प्रतिभा जाति पर निर्भर नहीं करती=== |
| * सत्याग्रह एक ऐसी तलवार है जिसके सब ओर धार है। उसे काम में लाने वाला और जिस पर वह काम में लाई जाती है, दोनों सुखी होते हैं। खून न बहाकर भी वह बड़ी कारगर होती है। उस पर न तो कभी जंग ही लगता है आर न कोई चुरा ही सकता है। ~ महात्मा गांधी | | * उत्कृष्ट मनुष्यों को उनका असाधारण चरित्र प्रतिष्ठा देता है, उनका कुल नहीं। ~ वल्लभदेव |
| * सत्य का मुंह स्वर्ण पात्र से ढका हुआ है। हे ईश्वर, उस स्वर्ण पात्र को तू उठा दे जिससे सत्य धर्म का दर्शन हो सके। ~ ईशावास्योपनिषद | | * प्रतिभा जाति पर निर्भर नहीं करती। जो परिश्रमी है, वही सब कुछ प्राप्त करता है। ~ महादेवी वर्मा |
| * प्रत्येक प्राणी में सत्य की एक चिंगारी है। उसके बिना कोई जीवित नहीं रह सकता। ~ सत्य साईं बाबा | | * वैरी भी अद्भुत कार्य करने पर स्तुति के पात्र बन जाते हैं। ~ सोमेश्वर |
| * सत्य से ही सूर्य तप रहा है। सत्य पर ही पृथ्वी टिकी हुई है। सत्य भाषण सबसे बड़ा धर्म है। सत्य पर ही स्वर्ग प्रतिष्ठित है। ~ विश्वामित्र | | * सच्चा सौहार्द वह होता है जब पीठ पीछे प्रशंसा की जाए। ~ अज्ञात |
| | * जो केवल खड़े रहते हैं तथा प्रतीक्षा करते हैं, वे भी सेवा करते हैं। ~ मिल्टन |
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| ===सच पर विश्वास रखो=== | | ===प्रीति नहीं प्रयोजन ने किया बेड़ा गर्क=== |
| * वह सत्य नहीं हे जिसमें हिंसा भरी हो। यदि दया-युक्त हो तो असत्य भी सत्य ही कहा जाता है। जिससे मनुष्यों का हित होता हो, वही सत्य है। ~ देवीभागवत | | * आप दूसरों को तभी ऊपर उठा सकते हैं, जब आप स्वयं भी ऊपर उठ चुके हों। ~ शिवानंद |
| * सच पर विश्वास रखो, सच ही बोलो, सच ही करो। असत्य जीतता क्यों न लगे, सत्य का मुकाबला नहीं कर सकता। ~ महात्मा गांधी | | * दुनिया बड़ी भुलक्कड़ है। केवल उतना ही याद रखती है जितने से उसका स्वार्थ सधता है। बाकी फेंक कर आगे बढ़ जाती है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी |
| * प्रत्येक सत्य, चाहे वह किसी के मुख से क्यों न निकला हो, ईश्वरीय सत्य है। ~ संत एम्ब्रोज | | * प्रीति की अपेक्षा प्रयोजन ने ही आज मनुष्य को सबसे अधिक ग्रस लिया है। ~ विमल मित्र |
| * सत्य ही धर्म, तप और योग है। सत्य ही सनातन ब्रह्मा है, सत्य को ही परम यज्ञ कहा गया है तथा सब कुछ सत्य पर ही टिका है। ~ वेदव्यास | | * मानव स्वभाव है, वह अपने सुख को विस्तृत करना चाहता है। और भी, केवल अपने सुख से ही सुखी नहीं होता, कभी-कभी दूसरों को दुखी करके, अपमानित करके, अपने मान को, सुख को प्रतिष्ठित करता है। ~ जयशंकर प्रसाद |
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| ===सच्चा प्रेम स्तुति से प्रकट नहीं होता=== | | ==='प्राय:' का अर्थ 'तप' है और चित्त का अर्थ 'निश्चय'=== |
| * सच्चा प्रेम स्तुति से प्रकट नहीं होता, सेवा से प्रकट होता है। ~ गांधी | | * इंद्रिय-जय से विनय प्राप्त होती है, विनय से प्रकृष्ट गुण प्राप्त होते हैं, प्रकृष्ट गुणों से लोकप्रियता प्राप्त होती है और लोकप्रियता से मनुष्य संपत्ति प्राप्त करता है। ~ अलंकारसर्वस्व |
| * प्रेम हृदय के समस्त सद्भावों का शांत, स्थिर, उद्गारहीन समावेश है। ~ प्रेमचंद | | * आयु, श्री, कीर्ति, ऐश्वर्य आदि मनुष्य को उसी प्रकार प्राप्त होते हैं, जैसे इनके विपरीत वस्तुएं न चाहने पर भी प्राप्त होती हैं। ~ भागवत |
| * प्रेम दुख और वेदना का बंधु है। इस संसार में जहां दुख और वेदना का अथाह सागर है, वहां प्रेम की अधिक आवश्यकता है। ~ डॉ. रामकुमार वर्मा | | * 'प्राय:' का अर्थ 'तप' है और चित्त का अर्थ 'निश्चय' है। तप और निश्चय के संयोग से 'प्रायश्चित' होता है। ~ आंगिरसस्मृति |
| * पारस्परिक प्रेम हमारे सभी आनंदों का शिरोमणि है। ~ मिल्टन | | * आरंभ न करना अच्छा है, पर आरंभ करके छोड़ना ठीक नहीं। ~ बोधिचर्यावतार |
| * प्रेम बिना तर्क का तर्क है। ~ शेक्सपियर
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| ===सच्ची शिक्षा=== | | ===परोपकार संतों का सहज स्वभाव=== |
| * सदाचार और निर्मल जीवन सच्ची शिक्षा का आधार है। ~ महात्मा गांधी | | * दु:ख या सुख किसी पर सदा ही नहीं रहते हैं। ये तो पहिए के घेरे के समान कभी नीचे, कभी ऊपर होते रहते हैं। ~ कालिदास |
| * संसार में जितने प्रकार की प्राप्तियां हैं, शिक्षा सबसे बढ़कर है। ~ निराला | | * सत्य वह नहीं है जो मुख से बोलते हैं। सत्य वह है जो मनुष्य के आत्यंतिक कल्याण के लिए किया जाता है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी |
| * शिक्षा केवल ज्ञान-दान नहीं करती, वह संस्कार और सुरुचि के अंकुरों का पालन भी करती है। ~ अज्ञात | | * परोपकार संतों का सहज स्वभाव है। वे वृक्ष के समान हैं जो अपने पत्तों, फूल-फल, छाल, जड़ और छाया से सबका उपकार करते हैं। ~ एकनाथ |
| | * दूध से जला हुआ बालक दही को भी फूंक-फूंककर खाता है। ~ अज्ञात |
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| ===सच्चे ईश्वरभक्त की भक्ति=== | | ===परोपकार से पुण्य होता है=== |
| * बैर के कारण उत्पन होने वाली आग एक पक्ष को स्वाहा किए बिना कभी शांत नहीं होती। ~ वेदव्यास | | * जिनका मन कपटरहित है, वे ही प्राणिमात्र पर दया करते हैं। ~ क्षेमेंद्र |
| * ब्रह्मा ज्ञान मूक ज्ञान है, स्वयं प्रकाश है। सूर्य को अपना प्रकाश मुंह से नहीं बताना पड़ता। वह है, यह हमें दिखाई देता है। यही बात ब्रह्मा-ज्ञान के बारे में भी है। ~ महात्मा गांधी | | * दयालु लोगों का शरीर परोपकार से सुशोभित होता है, चंदन से नहीं। ~ भर्तृहरि |
| * सच्चे ईश्वरभक्त की भक्ति किसी भी लोक-परलोक की कामना के लिए नहीं होती, वह तो अहैतुकी हुआ करती है। ~ राबिया | | * परोपकार से पुण्य होता है और परपीड़न से पाप। ~ पंचतंत्र |
| * ईश्वर के प्रति संपूर्ण अनुराग ही भक्ति है। ~ भक्तिदर्शन | | * वृक्ष अपने सिर पर सूर्य की प्रचंड धूप सहता है, किंतु अपने आश्रितों की गर्मी अपनी छाया से दूर करता है। ~ कालिदास |
| | * त्याग ही एकमात्र प्रशंसायोग्य गुण है। अन्य गुणों के समुदाय से क्या प्रयोजन। ~ आचार्य नारायण राम |
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| ===सच्चे सौंदर्य का रहस्य सच्ची सरलता है=== | | ===परोपकार का आचरण मत त्यागो=== |
| * सौंदर्य पवित्रता में रहता है और गुणों में चमकता है। ~ शिवानंद | | * मनुष्य इस संसार में अकेला ही जन्मता है और अकेला ही मर जाता है। एक धर्म ही उसके साथ-साथ चलता है, न तो मित्र चलते हैं और न बांधव। कार्यों में सफलता, सौभाग्य और सौंदर्य सब कुछ धर्म से ही प्राप्त होते हैं। ~ मत्स्य पुराण |
| * सच्चे सौंदर्य का रहस्य सच्ची सरलता है। ~ साधु वासवानी
| | * विचार और व्यवहार में सामंजस्य न होना ही धूर्तता है, मक्कारी है। ~ प्रेमचंद |
| * सौंदर्य संसार की सभी संस्तुतियों से बढ़कर है। ~ अरस्तु | | * किसी कार्य के लिए कला एवं विज्ञान ही पर्याप्त नहीं है, उसमें धैर्य की भी आवश्यकता पड़ती है। ~ गेटे |
| * जरूरी नहीं कि जो रूप में ठीक हो, वह सद्गुण संपन्न भी हो। ~ शेख सादी | | * परोपकार का आचरण मत त्यागो। संसार क्षणिक है। जब चंद्रमा और सूर्य भी अस्त हो जाते हैं, तब अन्य कौन स्थिर है? ~ सुप्रभाचार्य |
| * सौंदर्य देखने वाले की आंख में होता है। ~ शेक्सपियर | | * तुम्हारा मन शुद्ध है, तो तुम्हारे लिए जगत् शुद्ध है। ~ शिव |
| | | * मनुष्य सुख और दु:ख सहने के लिए बनाया गया है, किसी एक से मुंह मोड़ लेना कायरता है। ~ भगवतीचरण वर्मा |
| ===सत्य बहुधा लोक में अप्रिय होता है===
| | * अधिक धनसंपन्न होने पर भी जो असंतुष्ट रहता है, वह सदा निर्धन है। धन से रहित रहने पर भी जो संतुष्ट है, वह सदा धनी है। ~ अश्वघोष |
| * सत्य बहुधा लोक में अप्रिय होता है। ~ एडलाइ स्टीवेन्स
| | * संगीत गले से ही निकलता है, ऐसा नहीं है। मन का संगीत है, इंद्रियों का है, हृदय का है। ~ महात्मा गांधी |
| * दुख, प्रेम के साथ ही निरन्तर घूमता रहता है। ~ वीणावासवदत्ता | | * शंका के मूल में श्रद्धा का अभाव रहता है। ~ अज्ञात |
| * भिक्षु हो या राजा, जो निष्काम है, वही शोभित होता है। ~ अष्टावक्र गीता | |
| * परोपकार में लगे हुए सज्जनों की प्रवृत्ति पीड़ा के समय भी कल्याणमयी होती है। ~ बाण भट्ट | |
| * बुद्धिमान व्यक्ति अपने शत्रुओं से भी बहुत सी बातें सीखते हैं। ~ एरिस्टोफेनिज
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| ===सत्य वह नहीं है जो मुख से बोलते हैं===
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| * सत्य वह नहीं है जो मुख से बोलते हैं। सत्य वह है जो मनुष्य के आत्यंतिक कल्याण के लिए किया जाता है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी
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| * जब हम सत्य को पाते हैं तब वह अपने सारे अभाव और अपूर्णता के बावजूद हमारी आत्मा को तृप्त करता है। ~ रवीन्द्रनाथ ठाकुर | |
| * सत्य सर्वदा स्वाबलंबी होता है और बल तो उसके स्वभाव में ही होता है। ~ महात्मा गांधी
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| * सब रसों में सत्य का रस ही अधिक स्वादिष्ट है। ~ सुत्तनिपात | |
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| ===सत्य सदा का है=== | | ===परोपकार ही धर्म है=== |
| * सत्य सदा का है, सत्य का अतीत और वर्तमान नहीं होता। ~ विमल मित्र | | * परोपकार ही धर्म है, परपीड़न ही पाप। ~ विवेकानंद |
| * प्रत्येक सत्य, चाहे वह किसी के मुख से क्यों निकला हो, ईश्वरीय सत्य है। ~ सेंट एम्ब्रोज | | * छिपाने के द्वारा पाप का पोषण किया जाता है और उसे जीवित रखा जाता है। ~ वर्जिल |
| * सत्य की सरिता अपने भूलों की वाहिकाओं से होकर बहती है। ~ रवीन्द्रनाथ ठाकुर | | * भय और दंड से पाप कभी बंद नहीं होते। ~ रामतीर्थ |
| * अंतनिर्हित सत्य असत्य का मुकुट है और एक भटका हुआ सत्य उसका सबसे मूल्यवान रत्न हे। ~ अरविंद | | * दूसरों के पाप गिनाने से पहले अपने पाप गिनो। ~ क़ाज़ीनजरुल इस्लाम |
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| ===सत्य का सबसे बड़ा मित्र समय है=== | | ===परंपरा और विद्रोह=== |
| * सत्य वह नहीं हें जो मुख से बोलते हैं। सत्य वह है जो मनुष्य के आंतरिक कल्याण के लिए किया जाता है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी | | * अपनी बुद्धि से साधु होना अच्छा, परायी बुद्धि से राजा होना अच्छा नहीं है। ~ उड़िया लोकोक्ति |
| * सभी दीपक नहीं हैं। बुद्धिमानों के लिए सत्य वचन रूपी दीपक ही दीपक है। ~ तिरुवल्लुवर
| | * जो भलाई करना चाहता है, वह द्वार खटखटाता है। और जो प्रेम करता है, उसे द्वार खुला मिलता है। ~ रवींद्रनाथ टैगोर |
| * अंतर्निहित सत्य असत्य का मुकुट है और एक भटकरा हुआ सत्य उसका सबसे अधिक मूल्यवान रत्न है। ~ अरविंद | | * जो दिन हमें प्रसन्नता प्रदान करते हैं, वे हमें बुद्धिमान बनाते हैं। ~ जॉन मेसफील्ड |
| * मैंने सत्य को पा लिया, ऐसा मत कहो, बल्कि कहो, मैंने अपने मार्ग पर चलते हुए आत्मा के दर्शन किए हैं। ~ खलील जिब्रान | | * परंपरा और विद्रोह, जीवन में दोनों का स्थान है। परंपरा घेरा डालकर पानी को गहरा बनाती है। विद्रोह घेरों को तोड़कर पानी को चौड़ाई में ले जाता है। ~ रामधारी सिंह दिनकर |
| * सत्य का सबसे बड़ा मित्र समय है। उसका सबसे बड़ा शत्रु पूर्वग्रह है और उसका स्थायी साथी विनम्रता है। ~ चार्ल्स कैलब काल्टन | | * किसी कार्य के लिए कला और विज्ञान ही पर्याप्त नहीं है, उसमें धैर्य की भी ज़रूरत पड़ती है। ~ गेटे |
| * मनुष्य श्रद्धा से इस संसार-प्रवाह को आसानी से पार कर जाता है। ~ सुत्तनिपात
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| * दुनिया में रहते हुए भी सेवा-भाव से और सेवा के लिए ही जो जीता है, वह संन्यासी है। ~ महात्मा गांधी | |
| * अनिष्ट से यदि इष्ट सिद्धि हो भी जाए तो भी उसका परिणाम अच्छा नहीं होता। ~ नारायण पंडित
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| ===सत्य का पालन करो, सज्जन बनो=== | | ===परंपरा अतीत की स्मृति नहीं है=== |
| * सत्पुरुष दूसरों के उपकारों को ही याद रखते हैं, उनके द्वारा किए हुए बैर को नहीं। ~ वेदव्यास | | * परंपरा रोकती है, विद्रोह आगे बढ़ना चाहता है। इस संघर्ष के बाद जो प्रगति होती है, वही असली प्रगति है। ~ दिनकर |
| * सज्जनों के मन थोड़े से गुणों के कारण फूलों की भांति ग्रहण करने योग्य हो जाते हैं। ~ बाणभट्ट | | * परंपरा अतीत की स्मृति नहीं है, बल्कि जीवंत आत्मा का सतत आवास है। ~ राधाकृष्णन |
| * प्रत्येक पर्वत पर जिस तरह माणिक्य नहीं होते और जिस तरह चंदन हर जगह नहीं पाया जाता, सज्जन लोग भी सब जगह नहीं होते। ~ अज्ञात | | * परंपरा बंधन नहीं है, वह मनुष्य की मुक्ति (अपने लिए ही नहीं, सबके लिए मुक्ति) की निरंतर तलाश है। ~ विद्यानिवास मिश्र |
| * जो सत्य का पालन करता है, वही सज्जन है। ~ तुकाराम | | * आरोग्य परम लाभ है, संतोष परम धन है, विश्वास परम बंधु है, निर्वाण परम सुख है। ~ धम्मपद |
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| ===सत्य ही सबका मूल है=== | | ===पत्नी और पति=== |
| * सब प्राणियों के प्रति स्वयं को संयत रखना ही अहिंसा की पूर्ण दृष्टि है। ~ दशवैकालिक | | * पति होने की तुलना में प्रेमी होना कहीं आसान है। इसकी सीधी सी वजह यह है कि हर दिन अक्लमंदी की बात कहना समय-समय पर कुछ प्यारी-प्यारी बातें कहते रहने की तुलना में कहीं ज़्यादा मुश्किल होता है। ~ बाल्जाक |
| * वह सत्य नहीं है, जिसमें हिंसा भरी हो। यदि दयायुक्त हो तो असत्य भी सत्य ही कहा जाता है। जिससे मनुष्यों का हित होता हो, वही सत्य है। ~ देवीभागवत | | * हर किसी को देखकर मुस्कराओ। अपनी पत्नी को देखकर, बच्चे को देखकर, एक-दूसरे को देखकर मुस्कराओ, चाहे सामने कोई भी क्यों न हो। इससे आप सभी में एक-दूसरे के प्रति प्यार बढ़ेगा। ~ मदर टेरेसा |
| * सत्य ही सबका मूल है। सत्य से बढ़कर अन्य कोई परम पद नहीं है। ~ वाल्मीकि | | * अपनी सर्वोच्च स्थिति में यदि हमें अपनी पत्नी या पति को खोना पड़ता है तो इसमें एक अप्रसन्न विवाह के सिवाय खोने को और कुछ भी नहीं होता। उसे खोकर हम स्वयं को प्राप्त करते हैं। लेकिन कोई विवाह यदि दो ऐसे लोगों के बीच होता है, जो खुद को खोज चुके हैं तो यहां से एक प्यारे से एडवेंचर की शुरुआत होती है, जिसमें हरीकेन वगैरह भी शामिल होते हैं। ~ रिचर्ड बाख |
| * जैसा चित्त में है, वैसी वाणी है। जैसा वाणी में है, वैसी ही क्रियाएं हैं। सज्जनों के चित्त, वाणी और क्रिया में एकरूपता होती है। ~ अज्ञात | | * जब एक स्त्री दूसरा विवाह करती है तो ऐसा वह अपने पहले पति से नफरत की वजह से करती है। जब एक पुरुष दूसरा विवाह करता है तो ऐसा वह अपनी पहली पत्नी को दिलोजान से चाहने की वजह से करता है। स्त्रियां अपनी किस्मत आजमाती हैं, पुरुष अपनी किस्मत दांव पर लगाते हैं। ~ ऑस्कर वाइल्ड |
| | * पति वह है जो प्रेमी के सारे स्नायु निचुड़ जाने के बाद बचा रह जाता है। ~ हेलन रौलां |
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| ===सत्य सदैव निराला होता है=== | | ===परिवर्तन ही सृष्टि है=== |
| * जो अप्राप्त वस्तु के लिए चिंता नहीं करता और प्राप्त वस्तु के लिए सम रहता है, जिसने न दुख देखा है, न सुख-वह संतुष्ट कहा जाता है। ~ महोपनिषद | | * परिवर्तन ही सृष्टि है, जीवन है। स्थिर होना मृत्यु है। ~ जयशंकर प्रसाद |
| * सच्चा मूल्य तो उस श्रद्धा का है, जो कड़ी-से-कड़ी कसौटी के समय भी टिकी रहती है। ~ महात्मा गांधी | | * पुरुषार्थ परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाने में है। ~ महात्मा गांधी |
| * झूठा नाता जगत का, झूठा है घरवास। यह तन झूठा देखकर सहजो भई उदास। ~ सहजोबाई | | * परोपकार के लिए कुछ जाल भी करना पड़े तो वह आत्मा की हत्या नहीं है। ~ प्रेमचंद |
| * जैसे शरीर बिना कहे ही अपने अधीन होता है, उसी प्रकार सज्जन लोग भी प्रेमी जनों के वश में रहते हैं। ~ बाणभट्ट
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| * सत्य सदैव निराला होता है, कल्पना से भी अधिक निराला। ~ बायरन
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| ===साहस और धैर्य=== | | ===पानी में तैरनेवाले ही डूबते हैं=== |
| * साहस और धैर्य ऐसे गुण हैं, जिनकी कठिन परिस्थितियों में बहुत आवश्यकता होती है। ~ महात्मा गांधी | | * इस संसार को व्यापार समझो। यहां सभी आदमी व्यापारी है। जो जैसा व्यापार करता है, वैसा फल पाता हैं। ~ विद्यापति |
| * साफ पैर में कीचड़ लपेटकर धोने की अपेक्षा उसे न लगने देना ही अच्छा है। ~ नारायण पंडित | | * सज्जन लोग स्वाभाव से ही स्वार्थसिद्धि में आलसी और परोपकार में दक्ष होते हैं। ~ बाणभट्ट |
| * यह मेरा बंधु है और यह नहीं है, यह क्षुद चित्त वालों की बात होती है। उदार चरित्र वालों के लिए तो सारा संसार ही अपना कुटुंब होता है। ~ महोपनिषद | | * मेरी भक्तिपूर्ण खोज ने मुझे 'ईश्वर सत्य है' के प्रचलित मंत्र की बजाय 'सत्य ही ईश्वर है' का अधिक गहरा मंत्र दिया है। ~ महात्मा गांधी |
| * संसार में रहो, परंतु संसार को अपने अंदर मत रहने दो। यही विवेक का लक्षण है। ~ सत्य साईं बाबा | | * यह सच है कि पानी में तैरनेवाले ही डूबते हैं, किनारे पर खड़े रहनेवाले नहीं। मगर ऐसे लोग तैरना भी नहीं सीखते। ~ सरदार पटेल |
| * योग्यता एक चौथाई व्यक्तित्व का निर्माण करती है। शेष की पूतिर् प्रतिष्ठा के द्वारा होती है। ~ मोहन राकेश
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| ===साहस के मुताबिक संकल्प=== | | ===पढ़ना सीखने का एक तरीका है=== |
| * जिस मनुष्य में जितना साहस होता है, उसी के अनुसार उसके संकल्प भी होते हैं। ~ मुतनब्बी | | * आयु की चिन्ता विद्या नहीं करती। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र |
| * यदि बात तुम्हारे हृदय से उत्पन्न नहीं हुई है तो तुम दूसरों के हृदय को कदापि प्रसन्न नहीं कर सकते। ~ गेटे | | * पढ़ना सीखने का एक तरीका है, लेकिन व्यवहार करना भी सीखने का एक तरीका है और यह कहीं ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है। ~ माओ त्से तुंग |
| * हमारी बुद्धियां विविध प्रकार की हैं। मनुष्य के कर्म भी विविध प्रकार के हैं। ~ ऋग्वेद | | * जो कायर है, जिसमें पराक्रम का नाम नहीं है, वही दैव का भरोसा करता है। ~ वाल्मीकि |
| * निष्काम होकर नित्य पराक्रम करने वाले की गोद में उत्सुक होकर सफलता आती ही है। ~ भारवि | | * झूठ से जो पाऊंगा, वह पाना नहीं खोना है और सत्य से जो खोता है, वह खोना नहीं पाना है। ~ विमल मित्र |
| * सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अंत:करण के अनुरूप होती है। ~ जॉनसन
| | * यह सच है कि पानी में तैरने वाले ही डूबते हैं, किनारे पर रहने वाले नहीं। मगर यह भी सच है कि किनारे पर रहने वाले कभी तैरना नहीं सीख पाते। ~ वल्लभभाई पटेल |
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| ===सरलता कुटिलों के प्रति नीति नहीं=== | | ===पलटने और पढ़ने में बड़ा फ़र्क़ है=== |
| * देवता श्रम करने वाले के अतिरिक्त किसी और से मित्रता नहीं करते हैं। ~ ऋग्वेद | | * पलटने और पढ़ने में बड़ा फ़र्क़ है। जो पाठक किताब को सचमुच पढ़ लेते हैं, वे सदा उसे अपने साथ महसूस कर सकते हैं। ~ राधाकृष्णन |
| * सरलता कुटिल व्यक्तियों के प्रति नीति नहीं है। ~ नैषिधीपंचारत | | * अच्छी पुस्तकों के पास होने से हमें अपने भले मित्रों के साथ न रहने की कमी नहीं खटकती। जितना ही मैं पुस्तकों का अध्ययन करता गया उतना ही अधिक मुझे उनकी विशेषताएं मालूम होती गईं। ~ महात्मा गांधी |
| * युक्तिपूर्वक कार्य करनेवाले मनुष्य के कार्य भी असावधान हो जाने से नष्ट हो जाते हैं। ~ शिशुपालवध | | * रोग की तकलीफ शांत करने के लिए चित्ताकर्षक और मनोरंजक पुस्तक से बढ़ कर दूसरा कोई अच्छा साधन नहीं है। ~ अज्ञात |
| * धन में आसक्त लोगों का न कोई गुरु होता है और न कोई बंधु। ~ नीतिशास्त्र
| | * पुस्तकें जाग्रत देवता हैं, उनकी सेवा कर के तत्काल वरदान पाया जा सकता है। ~ रामनरेश त्रिपाठी |
| * चींटी चलती रहे तो हजारों योजन पार कर जाती है। न चलता हुआ गरुण भी एक कदम आगे नहीं चलता। ~ मार्कण्डेय पुराण | |
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| ===सोच-विचार कर करो=== | | ===पूजा हमेशा गुण की होती है=== |
| * कोई भी काम सोच-विचार कर ही करना चाहिए। मनुष्य की बुराइयां उसके मरने के पीछे तक कलंकित रहती हैं। भलाइयों को लोग मरते ही भूल जाते हैं। ~ शेक्सपियर | | * गुण की पूजा सर्वत्र होती है, बड़ी संपत्ति की नहीं। ठीक वैसे ही जैसे पूर्ण चंद्रमा उतना वंदनीय नहीं है जितना निर्दोष द्वितीया का क्षीण चंद्रमा। ~ चाणक्य |
| * हम जो कुछ कर रहे हैं, उसमें अच्छा या बुरा क्या और कितना है, यह अवश्य सोच लेना चाहिए। बुराइयां गुप्त रह कर जीवित रहती हैं और अच्छी तरह पनपती हैं। ~ वर्जिल | | * जो अपनी ही आत्मा द्वारा अपनी आत्मा को जानकर राग और द्वेष में समभाव रखता है, वही पूज्य है। ~ भगवान महावीर |
| * अच्छी तरह सोचना बुद्धिमत्ता है। अच्छी योजना बनाना उत्तम है। और अच्छी तरह काम को पूरा करना सबसे अच्छी बुद्धिमत्ता है। ~ फारसी कहावत
| | * सज्जन लोग चाहे दूर भी रहें पर उनके गुण उनकी ख्याति के लिए स्वयं दूत का कार्य करते हैं। केवड़ा पुष्प की गंध सूंघकर भ्रमर स्वयं उसके पास चले जाते हैं। ~ अज्ञात |
| * बुद्बिमान बनने के लिए पहले मूल सुविधाएं जरूरी हैं। ख़ाली पेट कोई भी आदमी बुद्बिमान नहीं हो सकता। ~ जॉर्ज इलियट | |
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| ===सभी आभूषण भार हैं=== | | ===परमात्मा की प्रार्थना करने के=== |
| * सभी गीत विलाप हैं। सभी नृत्य विडंबना हैं। सभी आभूषण भार हैं और सभी काम दुखदायी हैं। ~ उत्तराध्ययन | | * परमात्मा की प्रार्थना करने के लिए एकत्र होने वाले लोग हृदय से एक हो जाते हैं। ~ विनोबा |
| * यह मेरा बंधु है और यह नहीं है, यह क्षुद चित्त वालों की बात होती है। उदार चरित्र वालों के लिए तो सारा संसार ही अपना कुटुंब होता है। ~ महोपनिषद | | * भजन का फल अनंत है, महान् है, उसे वाणी से व्यक्त नहीं किया जा सकता। ~ वेदव्यास |
| * संसार में रहो, परंतु संसार को अपने अंदर मत रहने दो। यही विवेक का लक्षण है। ~ सत्य साईं बाबा | | * संसार में छल, प्रवंचना और हत्यारों को देखकर कभी-कभी मान ही लेना पड़ता है कि यह जगत् ही नरक है। ~ जयशंकर प्रसाद |
| | * जनता जो कुछ सीखती है वह घटनाक्रम की पाठशाला में सीखती है और दुख-दर्द ही उसका शिक्षक है। ~ जवाहरलाल नेहरू |
| | * आत्मा को आत्मा की ही आवाज जगा सकती है। ~ प्रेमचंद |
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| ===संगत से चरित्र में परिवर्तन=== | | ===प्राप्त धन का उपयोग करने में दो भूलें=== |
| * मनुष्य जिस संगति में रहता है, उसकी छाप उस पर पड़ती है। उसका निज का गुण छिप जाता है और वह संगति का गुण प्राप्त कर लेता है। ~ एकनाथ | | * प्राप्त हुए धन का उपयोग करने में दो भूलें हुआ करती हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए। अपात्र को धन देना और सुपात्र को धन न देना। ~ वेद व्यास |
| * यदि तुम चाहते हो कि यह निश्चित रूप से जानो कि नरक क्या है तो जान लो कि अज्ञानी व्यक्ति की संगति ही नरक है। ~ उमर खैयाम | | * मनुष्य क्षमा कर सकता है, देवता नहीं कर सकता। मनुष्य हृदय से लाचार है, देवता नियम का कठोर प्रवर्त्तयिता। मनुष्य नियम से विचलित हो सकता है, पर देवता की कुटिल भृकुटि नियम की निरंतर रखवाली के लिए तनी ही रहती है। मनुष्य इसलिए बड़ा है, क्योंकि वह ग़लती कर सकता है। और देवता इसलिए बड़ा होता है क्योंकि वह नियम का नियंता है। ~ हजारी प्रसाद द्विवेदी |
| * मुझे बताओ कि तुम किनके साथ रहते हो और मैं तुम्हें बता दूंगा कि तुम कौन हो। ~ लॉर्ड चेस्टरफील्ड | | * मेरी सम्मति में इंसान तीन प्रकार के होते हैं। एक वे जो जीवन को कोसते हैं। दूसरे वे जो उसे आशीर्वाद देते हैं। और तीसरे वे जो इस पर सोच विचार करते हैं। मैं पहले प्रकार के इंसानों से उनकी दुखी अवस्था, दूसरे प्रकार के इंसानों से उनकी शुभ भावना और तीसरे प्रकार के इंसानों से उनकी बुद्धिमत्ता के कारण प्रेम करता हूं। ~ खलील जिब्रान |
| * संगत से चरित्र में परिवर्तन नहीं होता। ढाल और तलवार सदा एक साथ रहती है, पर फिर भी एक घातक है और दूसरी रक्षक। दोनों का स्वभाव भिन्न है। ~ दयाराम | | * जंगली पशु क्रीड़ा के लिए कभी किसी की हत्या नहीं करते। मानव ही वह प्राणी है जिसके लिए अपने साथी प्राणियों की यंत्रणा तथा मृत्यु मनोरंजक होती है। ~ जेम्स एंथनी फ्राउड |
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| ===संतोष में सर्वोत्तम सुख है=== | | ===पतित होकर भी बुद्धिमान पुरुष पुन: उठ जाता है=== |
| * अधिक धन-संपन्न होने पर भी जो असंतुष्ट रहता है, वह सदा निर्धन है। धन से रहित होने पर भी जो संतुष्ट है, वह सदा धनी है। ~ अश्वघोष | | * बच्चों का हृदय कोमल थाला है, चाहे इसमें कटीली झाड़ी लगा दो, चाहे फूलों के पौधे। ~ जयशंकर प्रसाद |
| * मन में संतोष होना स्वर्ग की प्राप्ति से भी बढ़कर है। संतोष ही सबसे बड़ा सुख है। संतोष यदि मन में भली-भांति प्रतिष्ठित हो जाए तो उससे बढ़कर संसार में कुछ नहीं। ~ वेदव्यास | | * सद्बुद्धि वाले पुरुष को अल्प सुख एवं अधिक क्लेश वाला कार्य नहीं करना चाहिए। ~ अचिन्त्यानन्द वर्णी |
| * जो अप्राप्त वस्तु के लिए चिंता नहीं करता और प्राप्त वस्तु के लिए सम रहता है, जिसने न दुख देखा है न सुख- वह संतुष्ट कहा जा सकता है। ~ महोपनिषद् | | * मरुस्थल की मरीचिका जैसी लक्ष्मी बुद्धिमान को मोहित नहीं कर पाती। ~ सोमदेव |
| * संतोष से सर्वोत्तम सुख प्राप्त होता है। ~ पतंजलि | | * बुद्धिमान वे हैं, जिनकी दृष्टि में कांच कांच है और मणि मणि। ~ भल्लट भट्ट |
| * जो कुछ तुझे मिल गया है, उसी पर संतोष कर और सदैव प्रसन्न रहने की चेष्टा करता रह। यहां पर 'मेरी' और 'तेरी' का अधिकार किसी को भी नहीं दिया गया है। ~ हाफिज | | * पतित अथवा पथभ्रष्ट होकर भी बुद्धिमान पुरुष पुन: उठ जाता है। ~ क्षेमेंद्र |
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| ===संतुष्ट मनवाला सदा सुखी रहता है=== | | ===प्रसन्न देवता सद्बुद्धि देते हैं=== |
| * मन में संतोष होना स्वर्ग की प्राप्ति से भी बढ़कर है। संतोष ही सबसे बड़ा सुख है। संतोष यदि मन में भली-भांति प्रतिष्ठित हो जाए तो उससे बढ़कर संसार में कुछ भी नहीं है। ~ वेदव्यास | | * जो कायर है, जिसमें पराक्रम का नाम नहीं है, वही दैव का भरोसा करता है। ~ वाल्मीकि |
| * अधिक धन-संपन्न होने पर भी जो असंतुष्ट रहता है, वह निर्धन है। धन से रहित होने पर भी जो संतुष्ट है, वह सदा धनी है। ~ अश्वघोष | | * कुल के कारण कोई बड़ा नहीं होता, कर्म ही उसे हेय या पूजनीय बनाता है। ~ चाणक्य |
| * जो अप्राप्त वस्तु के लिए चिंता नहीं करता और प्राप्त वस्तु के लिए सम रहता है, वह संतुष्ट कहा जा सकता है। ~ महोपनिषद् | | * राज्य का अस्तित्व अच्छे जीवन के लिए होता है, केवल जीवन के लिए नहीं। ~ अरस्तू |
| * संतुष्ट मन वाले के लिए सदा सभी दिशाएं सुखमयी हैं। ~ भागवत
| | * देवता प्रसन्न होने पर कुछ नहीं देते, केवल सद्बुद्धि ही प्रदान करते हैं। ~ श्री हर्ष |
| | * राज्य छाते के समान होता है, जिसका अपने हाथ में पकड़ा हुआ दंड थकान को उतना दूर नहीं करता, जितना कि थकान उत्पन्न करता है। ~ कालिदास |
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| ===संतुलन की कला=== | | ===पाना चाहते हो तो पहले तुम्हें देना चाहिए=== |
| * जीने का सबसे अच्छा और सर्वाधिक सुरक्षित तरीका जीवन में संतुलन रखना है। आपने आसपास और अपने भीतर की ताकत को पहचानना है। अगर आप ऐसा कर पाते हैं और इस तरह जीते हैं तो आप सचमुच एक बुद्धिमान व्यक्ति हैं। ~ यूरीपिडीज | | * ऐसे भी लोग हैं जो देते हैं, लेकिन देने में कष्ट अनुभव नहीं करते। न वे उल्लास की अभिलाषा करते हैं और न पुण्य समझ कर ही कुछ देते हैं। इन्हीं लोगों के हाथों ईश्वर बोलता है और इन्हीं की आंखों से वह पृथ्वी पर अपनी मुस्कान बिखेरता है। ~ खलील जिब्रान |
| * इस बारे में कोई दो राय नहीं कि किसी भी जीवन-स्थिति में संतुलित रहने की आशा हमारे भीतर से उपजती है। ~ फ्रांसिस जे. ब्रेसलैंड
| | * दानशीलता हृदय का गुण है, हाथों का नहीं। ~ एडिसन |
| * मैं जिस चीज का स्वप्न देखता हूं वह है संतुलन की कला। ~ हेनरी मातीस | | * यदि तुम पाना चाहते हो तो पहले तुम्हें देना चाहिए। ~ लाओ-त्से |
| * इस दुनिया की बनावट इतनी दैवीय है कि यहां हममें से हर कोई अपने स्थान और समय में अन्य दूसरी चीजों से एक विरल संतुलन में अवस्थित है। ~ गाइथे | | * दुखकातर व्यक्तियों को दान देना ही सच्चा गुण है। ~ तुकाराम |
| | * तुम्हें जो दिया था वह तो तुम्हारा ही दिया दान था। जितना ही तुमने ग्रहण किया है, उतना ही मुझे ऋणी बनाया है। ~ रवीन्द्रनाथ ठाकुर |
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| ===सफलता में अनंत सजीवता होती है=== | | ===पाना है, तो देना सीखो=== |
| * जो हानि हो चुकी है उसके लिए शोक करना, अधिक हानि को निमंत्रित करना है। ~ शेक्सपियर | | * जो मनुष्य जाति की सेवा करता है, वह ईश्वर की सेवा करता है। ~ महात्मा गांधी |
| * श्रद्धा या आस्था के बिना जीवन-दृष्टि तो नहीं होती, जीने का ढर्रा या नक्शा भर बन सकता है। ~ अज्ञेय | | * सच्चा दान दो प्रकार का होता है- एक वह जो श्रद्धावश दिया जाता है, दूसरा वह जो दयावश दिया जाता है। ~ रामचंद्र शुक्ल |
| * कोई असत्य से सत्य नहीं पा सकता। सत्य को पाने के लिए हमेशा सत्य का आचरण करना ही होगा। ~ महात्मा गांधी | | * यदि तुम पाना चाहते हो तो पहले तुम्हें देना चाहिए। ~ लाओ - त्से |
| * सफलता में अनंत सजीवता होती है, विफलता में असह्य अशक्ति। ~ प्रेमचंद
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| ===सफलता विश्वास पर ही निर्भर करती है=== | | ===पाले हुए शत्रु के समान धन=== |
| * सुमार्ग पर चलने, कुमार्ग से बचने और जगत के प्रबंध की उत्तमता के लिए विश्वास एकमात्र सहारा है। ~ बालकृष्ण भट्ट | | * यदि धन अपने पास इकट्ठा हो जाए तो वह पाले हुए शत्रु के समान है। उसको छोड़ना भी कठिन हो जाता है। ~ वेदव्यास |
| * जिसे धर्म की शक्ति पर, धर्मस्वरूप भगवान की अनंत करुणा पर पूर्ण विश्वास है, नैराश्य का दुख उसके पास नहीं फटक सकता। ~ रामचंद्र शुक्ल | | * जब धन ज़रूरत से ज्यादा हो जाता है तो अपने लिए निकास का मार्ग खोजता है। वह यों तो निकल न पाएगा, इसलिए जुए में जाएगा, घुड़दौड़ में जाएगा या ऐयाशी में जाएगा। ~ प्रेमचंद |
| * साधन की सफलता विश्वास पर ही निर्भर करती है। ~ अशोकानंद
| | * जो अधिक धनवान है, वही अधिक मोहताज है। ~ शंकराचार्य |
| * मनुष्य जिस बात के सत्य होने को वरीयता देता है, उसी में विश्वास को भी वरीयता देता है। ~ बेकन | | * यह धन का ही प्रभाव है कि अपूजनीय भी पूजनीय, अगमनीय भी गमनीय और अवंदनीय भी वंदनीय हो जाता है। ~ पंचतंत्र |
| * वे विजयी हो सकते हैं जिन्हें विश्वास है कि वे कर सकते हैं। ~ एमर्सन | |
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| ===सदाचार से धर्म उत्पन्न होता है=== | | ===प्रतीक्षा भी सेवा=== |
| * दो बैर करने वालों के बीच में बात ऐसे कह दे कि यदि वे मित्र बन जाएं, तो तू लज्जित न हो। ~ शेख सादी | | * जो केवल खड़े रहते हैं तथा प्रतीक्षा करते हैं, वे भी सेवा करते हैं। ~ मिल्टन |
| * हितकर, किंतु अप्रिय वचन को कहने और सुनने वाले, दोनों दुर्लभ हैं। ~ वाल्मीकि | | * काया के पिंजरे चाहे जितने रंगों के हों, पर मन का पंछी तो सबमें एक ही जैसा है। ~ अमृतलाल नागर |
| * संत कौन हैं? संपूर्ण संसार से जिनकी आसक्ति नष्ट हो गई है, जिनका अज्ञान नष्ट हो चुका है और जो कल्याणस्वरूप परमात्मा तत्व में स्थित हैं। ~ शंकराचार्य | | * यदि मन में प्रपंच हो तो मन में भगवान का वास नहीं हो सकता, और यदि मन में भगवान हों तो प्रपंच हो नहीं सकता। ~ दयाराम |
| * जिसके जीने से बहुत से लोग जीवित रहें, वही इस संसार में वास्तव में जीता है। ~ विष्णु शर्मा
| | * जब तक अन्त:करण दिव्य और उज्ज्वल न हो, वह प्रकाश का प्रतिबिंब दूसरों पर नहीं डाल सकता। ~ प्रेमचंद |
| * सदाचार से धर्म उत्पन्न होता है तथा धर्म से आयु बढ़ती है। ~ वेदव्यास
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| * ठीक वक्त पर किया हुआ थोड़ा सा काम भी बहुत उपकारी होता है और समय बीतने पर किया हुआ महान उपकार भी व्यर्थ हो जाता है। ~ योग वशिष्ठ
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| * समय पुन: वापस न आने के लिए उड़ा चला जा रहा है। ~ वर्जिल | |
| * जो समय चिंता में गया, समझो कूड़ेदान में गया। जो समय चिंतन में गया, समझो तिजोरी में जमा हो गया। ~ चिंग चाओ
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| ===सदाचार के आधार-अदम्यता, सुकर्म और पवित्रता=== | | ===पृथ्वी पर तीन चीज़ें व्यर्थ हैं=== |
| * वाणी का सर्वोत्तम गुण संक्षिप्तता है, चाहे वह सभासद में हो या वक्ता में। ~ सिसरो | | * सुमार्ग पर चलने, कुमार्ग से बचने और जगत् के प्रबंध की उत्तमता के लिए विश्वास एकमात्र सहारा है। ~ बालकृष्ण भट्ट |
| * विश्व एक विशाल ग्रंथ है और जो कभी घर के बाहर नहीं जाते, वे उसका केवल एक पृष्ठ ही पढ़ पाते हैं। ~ ऑगस्टीन | | * शूर जन जलहीन बादल के समान व्यर्थ गर्जना नहीं किया करते। ~ वाल्मीकि |
| * सभी दीपक दीपक नहीं हैं। बुद्धिमानों के लिए सत्य वचन रूपी दीपक ही दीपक है। ~ तिरुवल्लुवर | | * वैराग्य के बिना कोई भी अपने संपूर्ण अंत:करण को परोपकार के काम में नहीं लगा सकता। ~ विवेकानंद |
| * सदाचार के तीन आधार हैं- अदम्यता, सुकर्म और पवित्रता। ~ विद्यानंद 'विदेह' | | * पृथ्वी पर ये तीनों व्यर्थ हैं - प्रतिभाशून्य की विद्या, कृपण का धन और डरपोक का बाहुबल। ~ बल्लाल |
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| ===सुख दूसरों को सुखी करने में है=== | | ===पृथ्वी पर तीन रत्न हैं=== |
| * जीवन का सुख दूसरों को सुखी करने में है, उनको लूटने में नहीं। ~ प्रेमचंद | | * यह संपत्ति क्या है? केवल कुछ चीजें, जिन्हें तुम इस भय से कि इनकी कल तुम्हें ज़रूरत पड़ सकती है, संचित करते हो और जिनकी रखवाली करते हो। ~ खलील जिब्रान |
| * पर्वतों को उखाड़ने में यदि हाथी के दांत टूट भी जाएं, तो भी वे प्रशंसा के योग्य हैं। ~ अज्ञात | | * मेरे विचार से जिस व्यक्ति के हृदय में संगीत का स्पंदन नहीं है, वह चिंतन और कर्म द्वारा कदापि महान् नहीं बन सकता। ~ सुभाषचंद बोस |
| * साहस और धैर्य ऐसे गुण हैं, जिनकी कठिन परिस्थितियों में आ पड़ने पर बड़ी आवश्यकता होती है। ~ महात्मा गांधी | | * छोटी वस्तुओं का समूह कार्यसाधक होता है। तिनकों से बनी रस्सी से मतवाले हाथी बांध लिए जाते हैं। ~ नारायण पंडित |
| * दूध पीने वाला शिशु जैसी निर्दोष हंसी हंसता है, वैसी ही हंसी, मस्ती बिखेरने वाली हंसी कष्टों को विदा करने की अचूक दवा है। ~ रामचरण महेंद्र | | * कितना भी पांडित्य हो, थोड़ी सी रसज्ञता की कमी से वह निरर्थक हो जाता है। ~ मारन वेंकटय्या |
| * साफ पैर में कीचड़ लपेटकर धोने की अपेक्षा उसे न लगने देना ही अच्छा है। ~ नारायण पंडित | | * पृथ्वी पर तीन रत्न हैं- जल, अन्न और सुभाषित। मूर्ख लोग ही पाषाण खंडों को रत्नों का नाम देते हैं। ~ चाणक्यनीति |
| * सहानुभूति एक ऐसी विश्वव्यापी भाषा है, जिसे सभी प्राणी समझते हैं। ~ जेम्स एलेन | | * जो मनुष्य जाति की सेवा करता है, वह ईश्वर की सेवा करता है। ~ महात्मा गांधी |
| | * कितना भी पांडित्य हो, थोड़ी सी रसज्ञता की कमी से वह निरर्थक हो जाता है। ~ मारन वेंकटय्या |
| | * सत्य को सूचक ही नहीं, प्रेरक भी होना चाहिए। ~ रवींद्रनाथ टैगोर |
| | * आए हुए उत्तरदायित्वों का निर्वाह करना सज्जनों का कुलव्रत है। ~ विशाखदत्त |
| | * अपनी निंदा और प्रशंसा, पराई निंदा और पराई स्तुति- यह चार प्रकार का आचरण श्रेष्ठ पुरुषों ने कभी नहीं किया। ~ वेदव्यास |
| | * पराजय, अपयश, कुटिल आचरण और द्वेष हमारे पास कभी न आएं। ~ अथर्ववेद |
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| ===सुख-दुख सबके साथ लगे हुए हैं=== | | ===पीड़ित होना कहीं श्रेष्ठ है=== |
| * शोक के मूल में प्रिय व्यक्ति या वस्तु होता है। ~ आचार्य नारायण राम | | * समय बीतने पर उपार्जित विद्या भी नष्ट हो जाती है, मज़बूत जड़ वाले वृक्ष भी गिर जाते हैं, जल भी सरोवर में जाकर (गर्मी आने पर) सूख जाता है। लेकिन सत्पात्र दिए दान का पुण्य ज्यों का त्यों बना रहता है। ~ भास |
| * किसे हमेश सुख मिला है और किसे हमेशा दुख मिला है। सुख-दुख सबके साथ लगे हुए हैं। ~ कालिदास | | * मेरे विचार में तो पीड़क होने से पीड़ित होना कहीं श्रेष्ठ है। धन खोकर अगर हम अपनी आत्मा को पा सकें, तो यह कोई महंगा सौदा नहीं है। ~ प्रेमचंद |
| * मन से दुखों का चिंतन न करना ही दुखों के निवारण की औषधि है। ~ वेदव्यास | | * दूसरों की प्राण रक्षा से बढ़कर संसार में कोई पुण्य नहीं है। ~ बाणभट्ट |
| * सब कुछ दूसरे के वश में होना दुख है और सब कुछ अपने वश में होना सुख है। ~ मनुस्मृति | | * पुण्य रूपी वृक्ष में तत्काल ही अचिंतनीय फल उत्पन्न होते हैं। ~ सोमदेव |
| * जो दुख अभी तक आया नहीं है, वह दूर किया जा सकता है। ~ योगसूत्रम | | * पीड़ा का सीमातीत हो जाना ही उसकी चिकित्सा है। जैसे बिंदु का समुद्र में विलीन होना ही उसका सुख व विश्राम पा जाना है। ~ ग़ालिब |
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| ===सेवा करके विज्ञापन मत करो=== | | ===पीड़ित हो कर भी गुरु की निंदा न करें=== |
| * जो स्वाभवत: सुंदर हैं, उनकी विकृति भी शोभादायक होती है। ~ भारवि | | * तुम में सर्वप्रिय बनने की इच्छा होनी चाहिए। ऐसा करो, जिससे सामान्य लोग तुम्हें पसंद करें। यदि तुम यह सोचते हो कि पीठ पीछे किसी मोमिन, यहूदी या ईसाई की बुराई करने से लोग तुम्हें भला मान लेंगे, तो तुम लोगों का मिज़ाज नहीं समझते। ~ उमर खैयाम |
| * सामने वाले आदमी में जिस गुण की कमी है, उस सद्गुण के प्रत्यक्ष दर्शन उसे अपने व्यवहार द्वारा करा देना ही उसकी बड़ी से बड़ी सेवा है। ~ अरुण्डेल
| | * तपस्या से लोगों को विस्मित न करें। यज्ञ करके असत्य न बोलें। पीड़ित हो कर भी गुरु की निंदा न करें। और दान दे कर उसकी चर्चा न करें। ~ मनुस्मृति |
| * सेवा करने वाले हाथ स्तुति करने वाले होठों की अपेक्षा अधिक पवित्र हैं। ~ सत्य साईं बाबा | | * युवक नियमों को जानता है, परंतु वृद्ध मनुष्य अपवादों को जानता है। ~ ओलिवर वेंडल होम्स |
| * सेवा करके विज्ञापन मत करो, जिसकी सेवा की है, उस पर बोझ मत बनो। ~ हनुमानप्रसाद पोद्दार | | * संसार में ऐसा कोई भी नहीं है जो नीति का जानकार न हो, परन्तु उसके प्रयोग से लोग विहीन होते हैं। ~ कल्हण |
| * सेवा छोटी है या बड़ी, इसकी कीमत नहीं है। किस भावना से, किस दृष्टि से वह की जा रही है, उसकी कीमत है। ~ विनोबा | | * कामना सरलता से लोभ बन जाती है और लोभ वासना बन जाता है। ~ सत्य साईं बाबा |
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| ===संगति बुद्धि के अंधकार को हरती=== | | ===पीड़ितों की सेवा=== |
| * अच्छी संगति बुद्धि के अंधकार को हरती है, वचनों को सत्य की धार से सींचती है, मान को बढ़ती है, पाप को दूर करती है, चित्त को प्रसन्न रखती है और चारों ओर यश फैलाकर मनुष्यों को क्या क्या लाभ नहीं पहुंचाती? ~ भर्तृहरि | | * जिसे मेरी सेवा करनी है वह पीड़ितों की सेवा करे। ~ गौतम बुद्ध |
| * मनुष्य के संकल्प के सम्मुख देव, दानव सभी पराजित हो जाते हैं। ~ एमर्सन | | * सेवा हृदय और आत्मा को पवित्र करती है। सेवा से ज्ञान प्राप्त होता है, और यही जीवन का लक्ष्य है। ~ स्वामी शिवानंद |
| * संकट का समय ही मनुष्य की आत्मा को परखता है। ~ टॉमस पेन
| | * सेवा उसकी करो जिसे सेवा की ज़रूरत है। जिसे सेवा की ज़रूरत नहीं उसकी सेवा करना ढोंग है, दंभ है। ~ महात्मा गांधी |
| * वास्तव में वे ही लोग श्रेष्ठ हैं जिनके हृदय में सर्वदा दया और धर्म बसता है, जो अमृत-वाणी बोलते हैं तथा जिनके नेत्र नम्रतावश सदा नीचे रहते हैं। ~ मलूकदास | | * निष्ठावंत और निष्काम सेवा ज़्यादा दिन एकाकी नहीं रहने पाती। ~ विनोबा |
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| ===सहानुभूति एक ऐसी विश्वव्यापी भाषा है=== | | ===परिचय के पीछे स्वार्थ न हो=== |
| * जीवन का सुख दूसरों को सुखी करने में है, उनको लूटने में नहीं। ~ प्रेमचंद | | * प्रियतम की स्मृति भक्तों का परम धन है जो ज्ञान उन्हें इस धन से वंचित करता हुआ रस शून्य बनाने की प्रेरणा देता है उनकी दृष्टि में वह सर्वथा घातक है। ~ राम किंकर उपाध्याय |
| * पर्वतों को उखाड़ने में यदि हाथी के दांत टूट भी जाएं, तो भी वे प्रशंसा के योग्य हैं। ~ अज्ञात | | * पराजय से सत्याग्रही और अहिंसक की आत्मा को निराशा नहीं होती। उससे तो कार्य-क्षमता और लगन बढ़ती है और सत्य से मनुष्य की बुद्धि परिष्कृत होकर उसका मार्ग-दर्शन करती है। ~ महात्मा गांधी |
| * साफ पैर में कीचड़ लपेटकर धोने की अपेक्षा उसे न लगने देना ही अच्छा है। ~ नारायण पंडित
| | * किसी को अपना परिचय देना बुरा नहीं है, बुरा तभी है जब वह किसी स्वार्थ या अहंकार से दिया जाता है। ~ अज्ञात |
| * सहानुभूति एक ऐसी विश्वव्यापी भाषा है, जिसे सभी प्राणी समझते हैं। ~ जेम्स एलेन | |
| * हितकर, किंतु अप्रिय वचन को कहने और सुनने वाले, दोनों दुर्लभ हैं। ~ वाल्मीकि
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| * अभीष्ट फल की प्राप्ति हो या न हो, विद्वान पुरुष उसके लिए शोक नहीं करता। ~ वेदव्यास
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| ===साधारण प्रतिभा को त्रुटियों की पहचान नहीं होती=== | | ===पापी का उपकार करो और पाप का प्रतिकार करो=== |
| * अज्ञानी होना उतनी शर्म की बात नहीं है, जितनी कि किसी काम को सही ढंग से सीखने की इच्छा न होना। ~ बेंजामिन फ्रैंकलिन | | * संगीत सिर्फ गले से ही निकलता हो, ऐसा नहीं है। मन का संगीत है, इंद्रियों का है, हृदय का है। ~ महात्मा गांधी |
| * असाधारण प्रतिभा को चमत्कारिक वरदान की आवश्यकता नहीं होती और साधारण को अपनी त्रुटियों की इतनी पहचान नहीं होती कि वह किसी पूर्णता के वरदान के लिए साधना करे। ~ महादेवी वर्मा | | * पापी का उपकार करो और पाप का प्रतिकार करो। ~ मैथिलीशरण गुप्त |
| * कठिन समय, विपत्ति और घेर संग्राम, और कुछ नहीं, केवल प्रकृति की काट-छांट हैं। ~ गणेश शंकर विद्यार्थी | | * एक बुराई दूसरी बुराई से उत्पन्न होती है। ~ टेरेंस |
| * प्रकृति हर एक व्यक्ति को सभी उपहार नहीं प्रदान करती, वरन हर एक को वह कुछ-कुछ देती है और इस प्रकार सभी को मिलाकर वह समस्त उपहार देती है। ~ लाला हरदयाल | | * कभी न लौटने वाला समय जा रहा है। ~ अज्ञात |
| | * जितने में पेट भर जाए उतना ही शरीरधारियों का अपना है। ~ भागवत |
| | * बुद्धिमान व्यक्ति कभी भी अपने वर्तमान दुखों के लिए रोया नहीं करते, अपितु वर्तमान में दु:ख के कारणों को रोका करते हैं। ~ शेक्सपियर |
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| ===समग्र विश्व एक ही परिवार है=== | | ===पापी कहना पाप है=== |
| * सुखी के प्रति मित्रता, दुखी के प्रति करुणा, पुण्यात्मा के प्रति हर्ष और पापी के प्रति उपेक्षा की भावना करने से चित्त प्रसन्न व निर्मल होता है। ~ पतंजलि | | * इंसान अगर लालच को ठुकरा दे, तो बादशाह से भी ऊंचा दर्जा हासिल कर लेता है क्योंकि संतोष ही हमेशा इंसान का माथा ऊंचा रख सकता है। ~ सादी |
| * यह मेरा बंधु है और यह नहीं है, यह क्षुद्र चित्त वालों की बात होती है। उदार चरित्र वालों के लिए तो सारा संसार ही अपना कुटुंब होता है। ~ महोपनिषद् | | * मनुष्य को पापी कहना ही पाप है, यह कथन मानव - स्वभाव पर एक लांछन है। ~ स्वामी विवेकानंद |
| * मेरा लक्ष्य संसार से मैत्री है ओर मैं अन्याय का प्रबलतम विरोध करते हुए भी दुनिया को अधिक से अधिक स्नेह दे सकता हूं। ~ महात्मा गांधी | | * विचारकों को जो चीज़ आज स्पष्ट दीखती है दुनिया उस पर कल अमल करती है। ~ विनोबा |
| * समग्र विश्व एक ही परिवार है। वर्णभेद सब असत्य है। प्रेम बंधन अमूल्य है। ~ गुरजाडा अप्पाराव | | * मनुष्य की सबसे बड़ी विजय मन की दुर्बलताओं पर विजय पाना है। ~ अज्ञात |
| | * न तो कोई किसी का मित्र है और न कोई किसी का शत्रु। व्यवहार से मित्र तथा शत्रु बन जाते हैं। ~ हितोपदेश |
| | * दूसरों के साथ वैसा व्यवहार करो जैसा कि तुम चाहते हो कि दूसरे तुम्हारे साथ करें। ~ बाइबल |
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| ===संकल्प और भावना दो पलड़े हैं=== | | ===पापों की स्मृति पापों से भयानक होती है=== |
| * संकल्प और भावना जीवन-तखड़ी के दो पलड़े हैं। जिसको अधिक भार से लाद दीजिए वही नीचे चला जाएगा। संकल्प कर्त्तव्य है और भावना कला। दोनों के समान समन्वय की आवश्यकता है। ~ वृंदावनलाल वर्मा | | * मनुष्य जब एक बार पाप के नागपाश में फंसता है, तब वह उसी में और भी लिपटता जाता है, उसी के प्रगाढ़ आलिंगन में सुखी होने लगता है। पापों की श्रृंखला बन जाती है। उसी के नए-नए रूपों पर आसक्त होना पड़ता है। ~ जयशंकर प्रसाद |
| * मनुष्य में शक्ति की कमी नहीं होती, संकल्प की कमी होती है। ~ विक्टर ह्युगो | | * जहां किसी प्रलोभन से प्रेरित होकर तुम कोई पाप करने पर उतारू होते हो, वहीं ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव करो। ~ स्वामी रामतीर्थ |
| * संकट पहले अज्ञान और दुर्बलता से उत्पन्न होते हैं और फिर ज्ञान और शक्ति की प्राप्ति कराते हैं। ~ जेम्स एलेन | | * जिस कार्य में आत्मा का पतन हो, वही पाप है। ~ महात्मा गांधी |
| * खतरा हमारी छिपी हुई हिम्मतों की कुंजी है। खतरे में पड़कर हम भय की सीमाओं से आगे बढ़ जाते हैं। ~ प्रेमचंद | | * पापों की स्मृति पापों से भयानक होती है। ~ सुदर्शन |
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| ===संकल्प बनाए छोटा-बड़ा=== | | ===पाप और पुण्य=== |
| * संकट पहले अज्ञान और दुर्बलता से उत्पन्न होता है और फिर ज्ञान और शक्ति की प्राप्ति कराता है। ~ जेम्स एलेन | | * पाप-पुण्य सब मनोवृत्तियों के लक्षणों पर निर्भर है। यदि मनोवृत्ति शुद्ध हो और कोई व्यक्ति पाप कर बैठे तो पाप नहीं। यदि मनोवृत्ति दूषित हो और ऐसे समय में कोई पुण्य भी बन जाए तो उसका फल नहीं। ~ वृंदावनलाल वर्मा |
| * सबकुछ अपने संकल्प द्वारा ही छोटा या बड़ा बन जाता है। ~ योगवासिष्ठ
| | * मनुष्य के मस्तिष्क की तरह लचीली और कोई चीज़ नहीं है। बंद की हुई भाप की तरह जितना दबाव इस पर पड़ता है, उतनी ही शक्ति से यह दबाव के साथ लड़ती है। जितना अधिक काम इस पर आ पड़ता है, उतनी ही यह पूरा कर लेती है। ~ अज्ञात |
| * संकल्प और भावना जीवन के दो पलड़े हैं। जिसको अधिक भार से लाद दीजिए वही नीचे चला जाएगा। संकल्प कर्त्तव्य है और भावना कला। दोनों में समान समन्वय की आवश्यकता है। ~ वृंदावन लाल वर्मा | | * मनोवृत्ति सुगंध के समान है जो छिपाने से नहीं छिपती। ~ प्रेमचंद |
| * संकल्प शक्ति मानसिक शक्तियों का शिरोमणि है। ~ शिवानंद | | * मन का पूर्ण निरोध करने में विषयहीन मन ही समर्थ होता है। ~ उपनिषद् |
| * मनुष्य में शक्ति की कमी नहीं होती, संकल्प की कमी होती है। ~ मेरी विक्टर ह्यूगो | |
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| ===संकल्पित लोग इतिहास बदल सकते हैं=== | | ===पुरुषार्थी ही श्रेष्ठ आनंद पाते हैं=== |
| * दरिद्र कौन है? भारी तृष्णा वाला। और धनवान कौन है? जिसे पूर्ण संतोष है। ~ शंकराचार्य | | * पुरुषार्थी ही श्रेष्ठ आनंद पाते हैं। ~ अथर्ववेद |
| * कठिनाइयों का मुकाबला करो, चाहे सारी दुनिया दुश्मन ही क्यों न बन जाए। ~ मैजिनी | | * जहां पवित्र बुद्धि होती है, वहां सारी कामनाएं सिद्ध होती हैं। ~ ऋग्वेद |
| * मुट्ठी भर संकल्पवान लोग, जिनकी अपने लक्ष्य में दृढ़ आस्था है, इतिहास की धारा को बदल सकते हैं। ~ महात्मा गांधी | | * तपस्या से लोगों को विस्मित न करें, यज्ञ करके असत्य न बोलें। पीड़ित हो कर भी गुरु की निंदा न करें। और दान दे कर उसकी चर्चा न करें। ~ मनुस्मृति |
| * सुवासना और दुर्वासना- ये दोनों मोक्ष और बंधन के मूल कारण हैं। ~ माधवदेव
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| ===संवेदनशील बनो और निर्मल भी=== | | ===पुरुषार्थ का सहारा पाकर ही भाग्य बढ़ता है=== |
| * ईश्वर के सामने शीष नवाने से क्या बनता है, जब हृदय ही अशुद्ध हो। ~ गुरुनानक | | * भविष्यवाणी करने का एकमात्र मार्ग भविष्य को ढालने की शक्ति से संपन्न होना है। ~ ऐरिक हॉफर |
| * संवेदनशील बनो और निर्मल भी। प्रेमी बनो और पवित्र भी। ~ बायरन | | * उत्कृष्ट मनुष्यों को उनका असाधारण चरित्र प्रतिष्ठा देता है, उनका कुल नहीं। ~ अज्ञात |
| * अपनी पवित्रता के संबंध में सज्जनों का चित्त ही साक्षी है। ~ श्रीहर्ष | | * पुरुषार्थ का सहारा पाकर ही भाग्य भली भांति बढ़ता है। ~ वेदव्यास |
| * पराई स्त्री और पराया धन जिसके मन को अपवित्र नहीं करते, गंगादि तीर्थ उसके चरण-स्पर्श करने की अभिलाषा करते हैं। ~ एकनाथ | | * धन्य है वह जो किसी बात की आशा नहीं करता, क्योंकि उसे कभी निराश नहीं होना है। ~ अलेक्जेंडर पोप |
| * हम पवित्र विचार करें, पवित्र बोलें और पवित्र काम करें। ~ अवेस्ता
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| ===सुकर्म के बीज से ही महान फल=== | | ===पुरुषों को महिलाओं से बात करने का लहजा नहीं आता=== |
| * सही स्थान पर बोया गया सुकर्म का बीज ही महान फल देता है। ~ कथासरित्सागर | | * मुझे लगता है कि पुरुषों का एक तबका अभी भी नहीं जानता कि महिलाओं से बात करने का लहजा क्या होना चाहिए। इसलिए इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि इंसान निएंडरथल से आज के आधुनिक रूप में सामने आ गया हो। ~ सोनम कपूर, ऐक्ट्रेस |
| * प्रजा के सुख में ही राजा का सुख और प्रजाओं के हित में ही राजा को अपना हित समझना चाहिए। आत्मप्रियता में राजा का हित नहीं है। ~ चाणक्य
| | * लोग नंगा सच देखना पसंद नहीं करते, इसके बजाय उन्हें ढका हुआ झूठ ज्यादा पसंद आता है। ~ राम गोपाल वर्मा, डायरेक्टर |
| * द्वेष बुद्धि को हम द्वेष से नहीं मिटा सकते, प्रेम की शक्ति ही उसे मिटा सकती है। ~ विनोबा | | * रात के डर से सूरज अपनी रोशनी देना बंद नहीं करता, तो फिर नाकामयाबी के डर से क्यों हम अपना काम करना बंद कर दें। ~ भाग्यश्री, ऐक्ट्रेस |
| * बाधाएं व्यक्ति की परीक्षा होती हैं। उनसे उत्साह बढ़ना चाहिए, मंद नहीं पड़ना चाहिए। ~ यशपाल | |
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| ===संसार वीरों की चित्रशाला है=== | | ===[[प्रार्थना]]=== |
| * वीर कभी बड़े मौकों का इंतजार नहीं करते, छोटे मौकों को ही बड़ा बना देते हैं। ~ सरदार पूर्णसिंह | | * प्रार्थना तभी प्रार्थना है जब वह अपने आप हृदय से निकलती है। ~ महात्मा गांधी |
| * शूर जनों को अपने मुख से अपनी प्रशंसा करना सहन नहीं होता। वे वाणी के द्वारा प्रदर्शन न करके दुष्कर कर्म ही करते हैं। ~ वाल्मीकि
| | * दान तो वही श्रेष्ठ है जो किसी को दीन नहीं बनाता। दया या मेहरबानी से जो हम देते हैं उसके कारण दूसरे की गर्दन नीचे झुकाते हैं। ~ विनोबा |
| * संपूर्ण संसार कर्मण्य वीरों की चित्रशाला है। वीरता भी एक सुंदर कला है, उस पर मुग्ध होना आश्चर्य की बात नहीं। ~ जयशंकर प्रसाद
| | * क्रोध न करके क्रोध को, भलाई करके बुराई को, दान करके कृपण को और सत्य बोलकर असत्य को जीतना चाहिए। ~ वेदव्यास |
| * बिना विवेक के वीरता महासमुद में डोंगी-सी डूब जाती है। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र
| | * ग़लती कोई भी मनुष्य कर सकता है परंतु मूर्ख के सिवा कोई उसे जारी नहीं रख सकता। ~ सिसरो |
| * वीर वह है जो शक्ति होने पर भी दूसरों को डराता नहीं और निर्बल की रक्षा करता है। ~ महात्मा गांधी | | * जिन्हें कहीं से प्रशंसा नहीं मिलती, वे आत्म प्रशंसा करते हैं। ~ अज्ञात |
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| ===संसार को बाज़ार समझो===
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| * धीरज होने से दरिद्रता भी शोभा देती है, धुले हुए होने से जीर्ण वस्त्र भी अच्छे लगते हैं। ~ चाणक्यनीति
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| * परोपकार संतों का सहज स्वभाव होता है। वे वृक्ष के समान हैं, जो अपने पत्तों, फूल-फल, छाल, जड़ और छाया से सबका उपकार करते हैं। ~ एकनाथ | |
| * इस संसार को बाज़ार समझो। यहां सभी आदमी व्यापारी हैं। जो जैसा व्यापार करता है, वैसा फल पाता है। मूर्ख और गंवार व्यर्थ ही मर जाते हैं, लाभ नहीं पाते। ~ विद्यापति | |
| * समय आए बिना वज्रपात होने पर भी मृत्यु नहीं होती और समय आ जाने पर पुष्प भी प्राणी के प्राण ले लेता है। ~ कल्हण | |
| * जो साधक कामनाओं को पार कर गए हैं, वस्तुत: वे ही मुक्त पुरुष हैं। ~ आचारांग
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| ===संसार और स्वप्न=== | | ===प्रार्थना धर्म का निचोड़ है=== |
| * संसार स्वप्न की तरह है। जिस प्रकार जागने पर स्वप्न झूठा प्रतीत होता है, उसी प्रकार आत्मा का ज्ञान प्राप्त होने पर यह संसार मिथ्या प्रतीत होता है। ~ याज्ञवल्क्य | | * प्रार्थना धर्म का निचोड़ है। प्रार्थना याचना नहीं है, यह तो आत्मा की पुकार है। प्रार्थना दैनिक दुर्बलताओं की स्वीकृति है, यह हृदय के भीतर चलने वाले अनुसंधानों का नाम है। ~ महात्मा गांधी |
| * आवेश और क्रोध को वश में कर लेने पर शक्ति बढ़ती है और आवेश को आत्मबल के रूप में परिवर्तित कर दिया जा सकता है। ~ महात्मा गांधी
| | * मैं भगवान से अष्टसिद्धि या मोक्ष की कामना नहीं करता। मेरी यही एक प्रार्थना है कि समस्त प्राणियों के अंत:करण में स्थित होकर मैं ही उनके समस्त दुखों को सहूं। ~ श्रीमद्भागवत |
| * अमरत्व को प्राप्त करना अखिल विश्व का स्वामी बनना है। ~ स्वामी रामतीर्थ | | * बारिश का परिणाम शरीर पर और उसके द्वारा मन पर होता है तो प्रार्थना का परिणाम हृदय के द्वारा आत्मा पर होता है। ~ विनोबा |
| * जो मनुष्य दूसरों के व्यवहार से ऊबकर क्षण प्रतिक्षण अपने मन बदलते रहते हैं, वे दुर्बल हैं। उनमें आत्मबल नहीं है। ~ सुभाष चन्द्र बोस | |
| * आत्म-विजय अनेक आत्मोत्सर्गों से भी श्रेष्ठतर है। ~ स्वामी रामतीर्थ
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| ===संसार में रहो, संसार को अपने अंदर मत रखो=== | | ===प्रार्थना या भजन जीभ से नहीं हृदय से होता है=== |
| * दार्शनिक विवाद में अधिकतम लाभ उसे होता है, जो हारता है। क्योंकि वह अधिकतम सीखता है। ~ एपिक्युरस | | * सब जगह पुरुष ही पंडित (बुद्धिमान)नहीं होता। जिस-तिस विषय में विलक्षण स्त्रियां भी पंडित होती हैं। ~ जातक |
| * यह मेरा बंधु है और यह नहीं है, यह क्षुद्र चित्त वालों की बात होती है। उदार चरित्र वालों के लिए तो सारा संसार ही अपना कुटुंब होता है। ~ महोपनिषद | | * निरंतर परिश्रम करने वाले भाग्य को भी परास्त कर देते हैं। ~ तिरुवल्लुवर |
| * संसार में रहो, परंतु संसार को अपने अंदर मत रहने दो। यही विवेक का लक्षण है। ~ सत्य साईं बाबा | | * वृक्ष परोपकार के लिए फलते हैं, नदियां परोपकार के लिए बहती हैं, गायें परोपकार के लिए दूध देती हैं, यह शरीर परोपकार के लिए ही है। ~ अज्ञात |
| * जो श्रम नहीं करता, दूसरों के श्रम से जीवित रहता है, सबसे बड़ा हिंसक होता है। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र | | * जो दिन हमें प्रसन्नता प्रदान करते हैं, वे दिन हमें बुद्धिमान बनाते हैं। ~ जॉन मेसफील्ड |
| * उस मनुष्य पर विश्वास करो, जो बोलने में संकोच करता है, पर कार्य में परिश्रमी और तत्पर है, लेकिन लंबे तर्कों वालों से सावधान रहो। ~ जार्ज सांतायना | | * प्रार्थना या भजन जीभ से नहीं, हृदय से होता है। इसी से गूंगे, तोतले और मूढ़ भी प्रार्थना कर सकते हैं। ~ महात्मा गांधी |
| | * हमारे भीतर जो प्राण शक्ति है, उसी का नाम अमृत है। ~ वासुदेवशरण अग्रवाल |
| | * जैसा उद्योग होता है, उसी के अनुसार लक्ष्मी आती है, त्याग के अनुसार कीर्ति फैलती है, अभ्यास के अनुसार विद्या प्राप्त होती है और कर्म के अनुसार बुद्धि बनती है। ~ अज्ञात |
| | * वही अच्छी प्रार्थना है जो महान् और क्षुद्र सभी जीवों से सर्वोत्तम प्रेम करता है, क्योंकि हमसे प्रेम करनेवाले ईश्वर ने ही उन सबको बनाया है और वह उनसे प्रेम करता है। ~ कॉलरिज |
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| ===संसार एक यात्रा और मनुष्य यात्री=== | | ===प्राणों का मोह त्याग करना, वीरता का रहस्य है=== |
| * क्षीण हुआ चंद्रमा पुन: बढ़कर पूरा हो जाता है। इस बात को समझकर संत पुरुष अपनी विपत्ति में नहीं घबराते। ~ भर्तृहरि | | * मन को विषाद ग्रस्त नहीं बनाना चाहिए। विषाद में बहुत बड़ा दोष है। जैसे क्रोध में भरा हुआ सांप बालक को काट खाता है, उसी प्रकार विषाद व्यक्ति का नाश कर डालता है। ~ वाल्मीकि |
| * यद्यपि संतोष कड़वा वृक्ष है, तथापि इसका फल बड़ा ही मीठा और लाभदायक है। ~ मौलाना रूमी | | * वृक्ष अपने सिर पर गर्मी सह लेता है लेकिन अपनी छाया से औरों को गर्मी से बचाता है। ~ कालिदास |
| * संयम करने से वैर नहीं बढ़ता है। उदान | | * विपत्ति आती है और चली जाती है, वीर वही है जो धीर रहे और न्याय, सचाई का त्याग न करे। ~ सुदर्शन |
| * संसार एक यात्रा है और मनुष्य यात्री है। यहां पर किसी का विश्राम करना केवल एक धोखा है। ~ सनाई
| | * प्राणों का मोह त्याग करना, वीरता का रहस्य है। ~ जयशंकर प्रसाद |
| * आपत्ति काल में प्रकृति बदल देना अच्छा, परंतु अपने आश्रय के प्रतिकूल चेष्टा अच्छी नहीं। ~ अभिनंद | |
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| ===सारा संसार ही कुटुंब है=== | | ===प्रत्येक सत्य, ईश्वरीय सत्य है=== |
| * यह मेरा बंधु है और यह नहीं है, यह क्षुद्र चित्त वालों की बात होती है। उदार चरित्र वालों के लिए तो सारा संसार ही अपना कुटुंब होता है। ~ महोपनिषद | | * जितेंद्रिय पुरुष के मन में विघ्नकर वस्तुएं थोड़ा भी क्षोभ उत्पन्न नहीं कर सकती हैं। ~ कालिदास |
| * संसार में रहो, परंतु संसार को अपने अंदर मत रहने दो। यही विवेक का लक्षण है। ~ सत्य साईं बाबा | | * प्रत्येक सत्य, चाहे वह किसी के मुख से क्यों न निकला हो, ईश्वरीय सत्य है। ~ सेंट एम्ब्रोस |
| * उस मनुष्य पर विश्वास करो, जो बोलने में संकोच करता है, पर कार्य में परिश्रमी और तत्पर है, लेकिन लंबे तर्कों वालों से सावधान रहो। ~ जार्ज सांतायना | | * दुराग्रह से ग्रस्त चित्त वालों के लिए सुभाषित व्यर्थ हो जाते हैं। ~ माघ |
| * जो मनुष्य न किसी से द्वेष करता है, और न किसी चीज की अपेक्षा करता है, वह सदा ही संन्यासी समझने के योग्य है। ~ वेदव्यास | | * जो जाति जितनी ही अधिक सौंदर्य प्रेमी है, उसमें मनुष्यता भी उतनी ही अधिक होती है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी |
| * सच हजार ढंग से कहा जा सकता है, फिर भी उसका हर ढंग सच हो सकता है। ~ विवेकानंद
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| ===सावधानी से करें धन का उपयोग=== | | ===पड़ोसी भाई से कहीं उत्तम है=== |
| * किसी कार्य के लिए कला और विज्ञान ही पर्याप्त नहीं हैं, उसमें धैर्य की आवश्यकता भी पड़ती है। ~ गेटे | | * प्रेम करने वाला पड़ोसी दूर रहने वाले भाई से कहीं उत्तम है। ~ चाणक्य |
| * प्राप्त हुए धन का उपयोग करने में दो भूलें हुआ करती हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए। अपात्र को धन देना और सुपात्र को धन न देना। ~ वेद व्यास | | * प्राप्त हुए धन का उपयोग करने में दो भूलें हुआ करती हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए। अपात्र को धन देना और सुपात्र को धन न देना। ~ वेद व्यास |
| * वैरी भी अद्भुत कार्य करने पर प्रशंसा के पात्र बन जाते हैं। ~ सोमेश्वर | | * वैरी भी अद्भुत कार्य करने पर प्रशंसा के पात्र बन जाते हैं। ~ सोमेश्वर |
| * अपने भीतर शांति प्राप्त हो जाने पर सारा संसार भी शांत दिखाई देने लगता है। ~ योग वासिष्ठ | | * जीवन एक कहानी के सदृश है- वह कितनी लंबी है नहीं, वरन् कितनी अच्छी है, यह विचारणीय विषय है। ~ सेनेका |
| * श्रेष्ठ व्यक्तियों का सम्मान करके उन्हें अपना बना लेना दुर्लभ पदार्थों से भी अधिक दुर्लभ है। ~ तिरुवल्लुवर
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| ===सदाचार मनुष्य की रुचि से पैदा नहीं होता=== | | ===परिश्रमी भाग्य को भी कर देता है परास्त=== |
| * सदाचार मनुष्य की रुचि से पैदा नहीं होता। उसे तो पैदा करती है उसकी धरती जिस पर वह पैदा होता है। इसी धरती के गुण और स्वभाव के अनुसार हमारा स्वभाव बनता है। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र | | * शास्त्र को जानने वाला भी जो पुरुष लोक व्यवहार में पटु नहीं होता, वह मूर्ख के समान है। ~ चाणक्यसूत्राणि |
| * चंदन घिसे जाने पर पुन: पुन: अधिक गंध छोड़ता है। गन्ना चूसने पर पुन: पुन: स्वादिष्ट रहता है। सोना जलाने पर पुन: पुन: सुंदर वर्ण ही रहता है। प्राणांत होने पर भी उत्तम व्यक्तियों का स्वभाव विकृत नहीं होता। ~ अज्ञात | | * विद्वान् तो बहुत होते हैं, पर विद्या के साथ जीवन का आचरण करने वाले बहुत कम होते हैं। ~ सरदार वल्लभ भाई पटेल |
| * उपदेश से स्वभाव को बदला नहीं जा सकता, भली प्रकार गर्म किया हुआ पानी भी पुन: शीतल हो जाता है। ~ विष्णु शर्मा | | * संसार में दो ही व्यक्ति दुर्लभ हैं- उपकारी और कृतज्ञ। ~ अंगुत्तरनिकाय |
| * सब गुणों को दबाकर स्वभाव सबके सिर पर बैठ रहता है। ~ नारायण पंडित | | * निरंतर अथक परिश्रम करने वाले भाग्य को भी परास्त कर देंगे। ~ तिरुवल्लुवर |
| | * प्रतिशोध एक प्रकार का जंगली न्याय है। ~ बेकन |
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| ===साथियों से शत्रु जैसा व्यवहार न करें=== | | ===परिश्रम के स्वार्जित भोजन से सबसे मधुर=== |
| * कोई भी मनुष्य केवल अपने लिए ही गुलाब और करमकल्ला उत्पन्न नहीं करता। आनंद प्राप्ति के लिए तुम्हें उसे आपस में बांटना ही होगा। ~ चेस्टर चार्ल्स | | * चाहे सूखी रोटी ही क्यों न हो, परिश्रम के स्वार्जित भोजन से मधुर और कुछ नहीं होता। ~ तिरुवल्लुवर |
| * आपत्तियों से मूर्च्छित मनुष्य चुल्लू भर पानी से होश में आ जाता है। प्राणहीन मनुष्य पर हजारों घड़े पानी डालें तो भी क्या होगा? ~ मानु रामसिंह | | * करुणा करने वालों का शरीर परोपकारों से शोभा पाता है, चंदन से नहीं। ~ भतृहरि |
| * अपने साथियों के साथ शत्रु जैसा व्यवहार करने का अर्थ होगा शत्रु के दृष्टिकोण को अपना लेना। ~ माओ-त्से-तुंग | | * वृक्ष फल लगने पर झुक जाते हैं। मेघ नए जलों से भरने पर नीचे दूर तक लटक जाते हैं। सत्पुरुष समृद्धियां पाने पर विनम्र हो जाते हैं। परोपकारियों का यही स्वभाव है। ~ कालिदास |
| * शंका के मूल में श्रद्धा का अभाव होता है। ~ महात्मा गांधी | | * परोपकार में लगे हुए सज्जनों की प्रवृत्ति पीड़ा के समय भी कल्याणमयी होती है। ~ भारवि |
| | * मनुष्य परिस्थितियों के लिए सृष्टि नहीं है, बल्कि परिस्थितियां मनुष्य के लिए सृष्टि हैं। ~ डिजरायली |
| | * पागल बने बिना कोई महान् नहीं हो सकता। परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि प्रत्येक पागल व्यक्ति महान् होता है। ~ सुभाषचंद्र बोस |
| | * उद्यमी व्यक्ति योग्य न हो, तो भी सफलता प्राप्त कर लेता है। ~ अज्ञात |
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| ===सज्जन का क्रोध स्थायी नहीं होता=== | | ===पराक्रमी मनुष्य के साथ समृद्धियां=== |
| * योग्यता एक चौथाई व्यक्तित्व का निर्माण करती है। शेष पूर्ति प्रतिष्ठा द्वारा होती है। ~ मोहन राकेश | | * जीवन का सुख दूसरों को सुखी करने में है, उनको लूटने में नहीं। ~ प्रेमचंद |
| * जो भी घटित होता है उससे मैं संतुष्ट हूं क्योंकि मैं जानता हूं कि परमात्मा द्वारा चयन मेरे द्वारा चयन से अधिक श्रेष्ठ है। ~ एपिक्टेटस | | * दुखियों की दशा वही जानता है, जो अपनी परिस्थितियों से दुखी हो गया हो। ~ शेख सादी |
| * कभी-कभी हमें उन लोगों से शिक्षा मिलती है जिन्हें हम अभिमानवश अज्ञानी समझते हैं। ~ प्रेमचंद | | * यदि तुम छोटे बालकों के समान नहीं बनोगे, तो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं कर पाओगे। ~ नवविधान |
| * सज्जन अत्यंत क्रुद्ध होने पर भी मिलने-जुलने से मृदु हो जाते हैं, किंतु नीच नहीं। ~ अमृतवर्धन | | * समृद्धियां पराक्रमी मनुष्य के साथ रहती हैं, अनुत्साही मनुष्य के साथ नहीं। ~ भारवि |
| | * किसी भी मूल्य पर शांति सदा अच्छी नहीं होती। वास्तविक वस्तु जीवन है, न कि शांति और नीरवता। ~ लाला लाजपतराय |
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| ===सज्जन लोग अपना सहज स्वभाव नहीं छोड़ते=== | | ===पश्चाताप करने पर पाप मिट जाता है=== |
| * जैसे शरीर बिना कहे ही अपने अधीन होता है, उसी तरह सज्जन लोग भी प्रेमी जनों के वश में रहते हैं। ~ बाणभट्ट | | * पापकर्म हो जाने पर जो सच्चे हृदय से पश्चाताप करता है, वह मनुष्य उस पाप से छूट जाता है। क्योंकि वह उसे नहीं दोहराने का निश्चय कर लेता है। ~ वेदव्यास |
| * परिचित गुणों का स्मरण रखने वाले उत्तम लोग सारे दोषों को स्मरण रखने में कुशल नहीं होते। ~ माघ | | * मूर्ख किसान का भी बीज अच्छे खेत में पड़ जाए, तो उसे अच्छी फसल प्राप्त हो जाती है। ~ विशाखदत्त |
| * आए हुए उत्तरदायित्वों का निर्वाह करना सज्जनों का कुलव्रत है। ~ विशाखदत्त | | * तपस्या से लोगों को विस्मित न करे, यज्ञ करके असत्य न बोले। पीड़ित हो कर भी गुरु की निंदा न करे। और दान दे कर उसकी चर्चा न करे। ~ मनुस्मृति |
| * सज्जन पुरुष दुष्टों के संसर्ग से अपना सहज स्वभाव नहीं छोड़ते। ~ क्षेमेन्द्र | | * निस्संदेह दान की बहुत प्रशंसा हुई है, पर दान से धर्माचरण ही श्रेष्ठ है। ~ जातक |
| * सज्जनों को दूसरों की तुलना में से अधिक लज्जा आती है। ~ श्री हर्ष | | * नीच व्यक्ति किसी प्रशंसनीय पद पर पहुंचने के बाद सबसे पहले अपने स्वामी को ही मारने को उद्यत होता है। ~ नारायण पंडित |
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| ===सज्जनों का सत्संग=== | | ==फ== |
| * जब दूसरों के पांवों तले अपनी गर्दन दबी हुई हो, तो उन पांवों को सहलाने में ही कुशल है। ~ प्रेमचंद | | ===फल तो मनुष्य को भोगना ही पड़ेगा=== |
| * सज्जनों का सत्संग ही स्वर्ग में निवास के समान है। ~ चाणक्य | | * इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि पाप प्रारब्ध से होते हैं। पाप होते हैं मनुष्य की आसक्ति से। और उनका फल तो मनुष्य को भोगना ही पड़ेगा। ~ हनुमान प्रसाद पोद्दार |
| * विद्या शील के अभाव में शोचनीय हो जाती है और द्वेष से अपवित्र हो जाती है। ~ क्षेमेन्द्र | | * शरीर से तभी पाप होते हैं जब वे मन में होते हैं। छोटे बच्चे के मन में काम नहीं होता। वह युवतियों के वक्ष पर खेलता है, उसके शरीर में कोई विकार नहीं होता। ~ अज्ञात |
| * धर्मान्धो! सुनो, दूसरों के पाप गिनने से पहले अपने पापों को गिनो। ~ काजी नजरूल इस्लाम | | * संसार में प्राणी स्वतंत्र और स्वाभाविक जीवन व्यतीत करने के लिए आए हैं। उनको स्वार्थ के लिए कष्ट पहुंचाना महान् पाप है। ~ लोकमान्य तिलक |
| * योग्यता एक चौथाई व्यक्तित्व का निर्माण करती है। शेष पूर्ति प्रतिष्ठा द्वारा होती है। ~ मोहन राकेश
| | * मनुष्य जब एक बार पाप के नागपाश में फंस जाता है, तब वह उसी में और लिपटता जाता है। उसी के प्रगाढ़ आलिंगन में सुखी होने लगता है। पापों की एक श्रृंखला बन जाती है। फिर उसी के नए - नए रूपों पर आसक्त होना पड़ता है। ~ जयशंकर प्रसाद |
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| ===संपत्ति जल के बुलबुले के समान होती है=== | | ===फल मनुष्य के कर्म के अधीन है। बुद्धि=== |
| * संपत्ति जल के बुलबुले के समान होती है। वह विद्युत की भांति एकाएक उदय होती है और नष्ट हो जाती है। ~ दण्डी | | * फल मनुष्य के कर्म के अधीन है। बुद्धि कर्म के अनुसार आगे बढ़ने वाली है। फिर भी विद्वान् और महात्मा लोग अच्छी तरह से विचार कर ही कोई कर्म करते हैं। ~ चाणक्य |
| * पवित्रता वह संपत्ति है जो प्रेम के बाहुल्य से पैदा होती है। ~ रवीन्द्र | | * मन से किया गया कर्म ही यथार्थ होता है, शरीर से किया गया नहीं। जिस शरीर से पत्नी को गले लगाया जाता है उसी शरीर से पुत्री को भी गले लगाते हैं, पर मन का भाव भी भिन्न होने के कारण दोनो मे अंतर रहता है। ~ अज्ञात |
| * विपत्ति में पड़े हुए पुरुषों की पीड़ा हर लेना ही सत्पुरुषों की संपत्ति का सच्चा फल है। संपत्ति पाकर भी मनुष्य अगर विपत्ति-ग्रस्त लोगों के काम न आया तो वह संपत्ति किस काम की। ~ कालिदास | | * इस धरती पर कर्म करते सो साल तक जीने की इच्छा रखो क्योेंकि कर्म करने वाला ही जीने का अधिकारी है। जो कर्मनिष्ठा छोड़ कर भोग-वृत्ति रखता है वह मृत्यु का अधिकारी माना जाता है। ~ वेद |
| * बंईमानी से जमा की हुई संपत्ति ऐसे है जैसे मृग के लिए कस्तूरी। ~ अज्ञात | | * निष्काम कर्म ईश्वर को ऋणी बना देता है। ईश्वर उसे सूद सहित वापस करने के लिए बाध्य हो जाता है। ~ स्वामी रामतीर्थ |
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| ===सर्वोत्तम मन सर्वोत्तम संतोष से युक्त होता है=== | | ===फुटबॉल की तरह धन का खेल=== |
| * जब तुम प्रेमपूर्वक श्रम करते हो तब तुम अपने-आप से, एक-दूसरे से और ईश्वर से संयोग की गांठ बांधते हो। ~ खलील जिब्रान | | * फुटबॉल की तरह धन का खेल होना चाहिए। फुटबॉल को कोई अपने पास नहीं रखता। वह जिसके पास पहुंचती है, वही उसे आगे फेंक देता है। धन को इस तरह फेंकते जाएंगे तो समाज का आरोग्य क़ायम रहेगा। ~ विनोबा |
| * प्रेरणा की हर अभिव्यक्ति में पुरुषार्थ और पराक्रम की आवश्यकता होती है। ~ जैनेन्द्र | | * पाप में पड़ना मानव-स्वभाव है। उसमें डूबे रहना शैतान-स्वभाव है। उस पर दुखी होना संत-स्वभाव है और सब पापों से मुक्त होना ईश्वर-स्वभाव है। ~ लांगफेलो |
| * यदि तुम चाहते हो कि यह निश्चित रूप से जानो कि नरक क्या है तो जान लो कि अज्ञानी व्यक्ति की संगति ही नरक है। ~ उमर खैयाम | | * दान का भाव एक बड़ा उत्तम भाव है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि समाज में दान-पात्रों का एक वर्ग पैदा कर दिया जाए। ~ संपूर्णानंद |
| * सर्वोत्तम मन सर्वोत्तम संतोष से युक्त होता है। ~ एडमंड स्पेंसर | | * जैसे जल के द्वारा अग्नि को शांत किया जाता है, वैसे ही ज्ञान से मन को शांत रखना चाहिए। ~ वेदव्यास |
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| ===सत्य और प्रकृति सदैव रहते हैं=== | | ==ब== |
| * साधारण सुधारक सदा उन लोगों से घृणा करते हैं जो उनसे आगे जाते हैं। ~ जेम्स एंथनी फ्राउड | | ===बड़प्पन सिर्फ उम्र में ही नहीं है=== |
| * पढ़ना सुलभ है पर उसका पालन करना अत्यंत दुर्लभ। ~ ललद्देश्वरी | | * बड़प्पन सिर्फ उम्र में ही नहीं, उम्र के कारण मिले हुए ज्ञान और चतुराई में भी है। ~ महात्मा गांधी |
| * संतोष स्वाभाविक संपत्ति है, विकास कृत्रिम निर्धनता। ~ सुकरात | | * बड़प्पन सूट-बूट और ठाट-बाट में नहीं है, जिसकी आत्मा पवित्र है वही बड़ा है। ~ प्रेमचंद |
| * संयम का अर्थ घुटना और सड़ना नहीं, स्वस्थ बहाव है। ~ रांगेय राघव | | * किसी आदमी की बुराई-भलाई उस समय तक मालूम नहीं होती जब तक कि वह बातचीत न करे। ~ बालकृष्ण भट्ट |
| * शब्द, मुहावरे और फैशन आते हैं और चले जाते हैं, लेकिन सत्य और प्रकृति सदैव रहते हैं। ~ बर्नार्ड बार्टन | | * जो मनुष्य तौल कर बात नहीं करता उसे कठोर बातें सुननी पड़ती हैं। ~ शेख सादी |
| | * पड़ोसी से प्रेम करने वाला विपत्ति में भी सुखी रहता है, जबकि पड़ोसी से वैर ठानने वाला संपत्ति पाकर भी दुखी रहता है। ~ रामप्रताप त्रिपाठी |
| | * अपना कर्तव्य करने से पहले दूसरे के कर्तव्य की आलोचना करना पाप होता है। ~ शरत्चंद्र |
| | * महान् ध्येय के प्रयत्न में ही आनंद और उल्लास है। ~ जवाहर लाल नेहरू |
| | * जब तक मन नहीं जीता, राग-द्वेष शांत नहीं होते। ~ विनोबा भावे |
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| ===संयम का अर्थ घुट-घुटकर जीना नहीं=== | | ===बुराई के बीज=== |
| * हम इस संसार को ठहरने का घर बनाकर बैठे हैं, किंतु यहां से तो नित्य चलने का धोखा बना रहता है। ठहरने का पक्का स्थान तो इसे तभी जाना जा सकता है, यदि यह लोक अचल हो। ~ गुरुनानक | | * बुराई के बीज चाहे गुप्त से गुप्त स्थान में बोओ, वह स्थान किले की तरह चाहे सुरक्षित ही क्यों न हो, पर प्रकृति के अत्यंत कठोर, निर्दय, अमोघ, अपरिहार्य क़ानून के अनुसार तुम्हें ब्याज सहित कर्मों का मूल्य चुकाना होगा। ~ स्वामी रामतीर्थ |
| * संत कौन हैं? संपूर्ण संसार से जिनकी आसक्ति नष्ट हो गई है, जिनका अज्ञान नष्ट हो चुका है और जो कल्याणस्वरूप परमात्मतत्व में स्थित हैं। ~ शंकराचार्य | | * सच्ची मित्रता में उत्तम से उत्तम वैद्य की सी निपुणता और परख होती है, अच्छी से अच्छी माता का सा धैर्य और कोमलता होती है। ~ रामचन्द्र शुक्ल |
| * जो मनुष्य न किसी से द्वेष करता है, और न किसी चीज की अपेक्षा करता है, वह सदा ही संन्यासी समझने के योग्य है। ~ वेदव्यास | | * मनुष्य को पापी कहना ही पाप है, यह कथन मानव समाज पर एक लांछन है। ~ विवेकानंद |
| * संयम का अर्थ घुट-घुटकर जीना नहीं है, स्वस्थ पवन की तरह बहना है। ~ रांगेय राघव | | * जिस आदमी का मान उसके अपने ख्याल से मर चुका है, वह जितनी हानि अपने को पहुंचा सकता है उतनी दूसरा कोई और नहीं पहुंचा सकता। ~ महात्मा गांधी |
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| ===संयम से वैर नहीं बढ़ता है=== | | ===बिना विनय के विजय नहीं टिकती=== |
| * जिसके मन में संशय भरा हुआ है, उसके लिए न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है। ~ वेदव्यास | | * अपने पिता और अपनी माता का आदर कर और अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम कर। ~ नवविधान |
| * सब प्राणियों के प्रति स्वयं को संयत रखना ही अहिंसा की पूर्ण दृष्टि है। ~ दशवैकालिक | | * बिना विनय के विजय नहीं टिकती। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र |
| * जिसने इंद्रियों पर विजय पा ली है उसके मन में विघन्कार वस्तुएं थोड़ा भी छोभ उत्पन्न नहीं कर सकतीं। ~ कालिदास | | * राज्य छाते के समान होता है, जिसका अपने हाथ में पकड़ा हुआ दंड थकान को उतना दूर नहीं करता, जितना कि थकान उत्पन्न करता है। ~ कालिदास |
| * संयम का अर्थ घुटना और सड़ना नहीं है, स्वस्थ बहाव है। ~ रांगेय राघव | | * मधुर वचन बोलने वालों के पास दारिद्रय कभी नहीं फटकता। ~ तिरुवल्लुवर |
| * संयम करने से वैर नहीं बढ़ता है। ~ उदान | | * विनय के बिना संपत्ति क्या? चंद्रमा के बिना रात क्या? ~ भामह |
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| ===सुदिन सबके लिए आते हैं=== | | ===बिना त्याग के धन की शोभा नहीं=== |
| * हर्ष के साथ शोक और भय इस प्रकार लगे हुए हैं जिस प्रकार प्रकाश के साथ छाया। सच्चा सुखी वही है जिसकी दृष्टि में दोनों समान हैं। ~ धम्मपद | | * बिना त्याग के धन की शोभा नहीं होती। ~ अग्नि पुराण |
| * लोभ के कारण पाप होते हैं, रस के कारण रोग होते हैं और स्नेह के कारण दुख होते हैं। अत: लोभ, रस और स्नेह का त्याग करके सुखी हो जाओ। ~ नारायण स्वामी | | * रक्षा का पहला साधन तो अपने हृदय में पड़ा है। वह है ईश्वर में सरल श्रद्धा, दूसरा है पड़ोसियों की सद्भावना। ~ महात्मा गांधी |
| * सुदिन सबके लिए आते हैं, किंतु टिकते उसी के पास हैं जो उनको पहचान कर आदर देता है। ~ अज्ञात | | * दुखती आंखों वाले को सामने रखी दीपशिखा अच्छी नहीं लगती है। ~ कालिदास |
| * सुधार आंतरिक होना चाहिए, बाह्य नहीं। तुम सद्गुणों के लिए नियम नहीं बना सकते। ~ गिबन | | * लोभी न परमार्थ को समझता है और न धर्म को। ~ इतिवुत्तक |
| | * राग मिलाने वाला वासना है और द्वेष अलग करने वाली। ~ रामचंद्र शुक्ल |
| | * मनुष्य वस्त्रों के बिना तो शोभित हो सकता है, परंतु लज्जा व धैर्य से रहित होने पर नहीं। ~ श्रीहर्ष |
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| ===सुरूप हो या कुरुप, जिसकी जिसमें मनोगति है, वही उसके लिए उर्वशी है=== | | ===बुद्धि ज्ञान से पवित्र होती है=== |
| * हे परमेश्वर! हमारे मन को शुभ संकल्प वाला बनाओ, हमें सुखदायी बल व कर्मशक्ति प्रदान करो। ~ ऋग्वेद | | * दु:ख को दूर करने की एक ही अमोघ औषधि है- मन से दुखों की चिंता न करना। ~ वेदव्यास |
| * प्रिय कठिनाई से प्राप्त होता है। फिर कठिनाई से वश में होता है। फिर जैसा हृदय है, वैसा नहीं होता, तो वह प्राप्त होकर भी अप्राप्त ही है। ~ हालसातवाहन | | * 99 फीसदी अवस्थाओं में कोई भी मनुष्य खुद को दोषी नहीं ठहराता, चाहे उसकी कितनी ही भयंकर भूल क्यों न हो। ~ डिजरायली |
| * प्रेरणा की हर अभिव्यक्ति में पुरुषार्थ और पराक्रम की आवश्यकता है। ~ जैनेंद्र | | * बुरा आदमी तब और भी बुरा है जब वह साधु बनने का स्वांग रचता है। ~ बेकन |
| * चंद्रमा की किरणों से खिल उठने वाला कुमुद पुष्प सूर्य की किरणों से नहीं खिला करता। ~ कालिदास | | * शरीर जल से पवित्र होता है, मन सत्य से, आत्मा धर्म से और बुद्धि ज्ञान से पवित्र होती है। ~ मनुस्मृति |
| * सुरूप हो या कुरुप, जिसकी जिसमें मनोगति है, वही उसके लिए उर्वशी है, रंभा है तथा वही तिलोत्तमा है। ~ अतिरात्रयाजी | | * परोपकार के लिए कुछ छल भी करना पड़े तो वह आत्मा की हत्या नहीं है। ~ प्रेमचंद |
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| ===समस्या का हल विधि नहीं करती, मनुष्य करता है=== | | ===बुद्धि से अपनी वाणी को परिष्कृत करें=== |
| * अच्छा आदमी सामान्यत: कोप करता ही नहीं। यदि कोप करता है तो बुरा नहीं सोचता। यदि बुरा सोचता है तो भी कहता नहीं। और यदि कह भी देता है तो लज्जित होता है। ~ सातवाहन | | * दो बैर करने वालों के बीच में बात ऐसे कहें कि यदि वे मित्र बन जाएं तो आपको लज्जित न होना पड़े। ~ शेख सादी |
| * वह सत्य सत्य नहीं है, जिसमें हिंसा भरी हो। यदि दया-युक्त हो तो असत्य भी सत्य ही कहा जाता है। जिससे मनुष्यों का हित होता हो, वही सत्य है। ~ देवीभागवत | | * कर्णि, नालीक और नाराच नामक बाणों को शरीर से निकाल सकते हैं, पर कटु वचन रूपी बाण नहीं निकाला जा सकता, क्योंकि वह हृदय के भीतर धंस जाता है। ~ वेदव्यास |
| * समस्या का हल विधि नहीं करती, मनुष्य करता है। ~ एच. मैशके | | * हितकर किंतु अप्रिय वचन को कहने और सुनने वाले, दोनों दुर्लभ हैं। ~ वाल्मीकि |
| * हमीं संसार के ऋणी हैं, संसार हमारा नहीं। यह तो हमारा सौभाग्य है कि हमें संसार में कुछ करने का अवसर मिला। ~ विवेकानंद | | * जैसे सत्तू को सूप से परिष्कृत करते हैं, वैसे ही मेधावी जन अपनी बुद्धि से अपनी वाणी को परिष्कृत कर प्रस्तुत करते हैं। ~ ऋग्वेद |
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| ===सहृदय भी थोड़े ही होते हैं=== | | ===बुद्धिमत्ता का लक्ष्य स्वतंत्रता है=== |
| * संपन्नता अनेक प्रकार के भय और रुचिकर बातों से रहित नहीं होती, और निर्धनता सांत्वनाओं और आशाओं से रहित नहीं होती। ~ बकेन | | * जहां मूर्खों की पूजा नहीं होती, जहां धान्य भविष्य के लिए संगृहित किया हुआ है, जहां स्त्री-पुरुष में कलह नहीं- वहां मानो लक्ष्मी स्वयंमेव आई हुई है। ~ चाणक्यनीति |
| * दुष्ट को, मूर्ख को और बहके हुए को समझा पाना बहुत कठिन है। ~ स्थानांग | | * बुद्धिमत्ता का लक्ष्य स्वतंत्रता है। संस्कृति का लक्ष्य पूर्णता है। ज्ञान का लक्ष्य प्रेम है। शिक्षा का लक्ष्य चरित्र है। ~ सत्य साईं बाबा |
| * सहृदय भी थोड़े ही होते हैं। जो होते हैं वे भी थोड़ी देर के लिए ही। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी | | * मनुष्य वस्त्रों के बिना तो शोभित हो सकता है परंतु लज्जा व धैर्य से रहित होने पर नहीं। ~ श्रीहर्ष |
| * आवश्यक समय पर पहुंचाई गई सहायता अल्प होने पर भी उपयुक्त होती है। ~ तिरुवल्लुवर | | * लोक-निंदा का भय इसलिए है कि वह हमें बुरे कामों से बचाती है। अगर वह कर्त्तव्य-मार्ग में बाधक है तो उससे डरना कायरता है। ~ प्रेमचंद |
| | * वचन का पालन करने वाला कंजूस की भांति तोल कर अपने मुख से शब्द निकालता है। ~ महात्मा गांधी |
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| ===स्त्री विश्वास चाहती है=== | | ===बुद्धिमान के पास ही बल है=== |
| * जब मनुष्य मन में उठती हुई सभी कामनाओं का त्याग कर देता है और आत्मा द्वारा ही आत्मा में संतुष्ट रहता है, तब वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है। ~ गीता | | * जिसके पास बुद्धि है, उसी के पास बल है, बुद्धिहीन में बल कहां। ~ विष्णु शर्मा |
| * स्वार्थ में मनुष्य बावला हो जाता है। ~ प्रेमचंद | | * वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो पराये को भी अपना बना ले। ~ विमल मित्र |
| * स्वार्थ की अनुकूलता और प्रतिकूलता से ही मित्र और शत्रु बना करते हैं। ~ वेदव्यास | | * जब तक तुम्हारे पास कुछ कथनीय न हो, तब तक किसी भी प्रकार से किसी से भी कुछ न कहो। ~ कार्लाइल |
| * संदेह का भार पुरुष ढोता है, स्त्री विश्वास चाहती है। ~ लक्ष्मीनारायण लाल | | * संसार में ऐसा कोई भी नहीं है जो नीति का जानकार न हो, परन्तु उसके प्रयोग से लोग विहीन होते हैं। ~ कल्हण |
| * प्रेम में विश्वास से बढ़कर कुछ नहीं होता। ~ जैनेंद्र कुमार | | * कुल के कारण कोई बड़ा नहीं होता, विद्या ही उसे पूजनीय बनाती है। ~ चाणक्य |
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| ===स्टूडंट को सुख की कामना नहीं करनी चाहिए=== | | ===बुद्धिमानों की ग़लतियां अधिक मार्गदर्शक=== |
| * घाव पर बार-बार चोट लगती है, अन्न की कमी होने पर भूख बढ़ जाती है, विपत्ति में बैर बढ़ जाते हैं- विपत्तियों में अनर्थ बहुलता होती है। ~ अज्ञात | | * मनुष्य को कभी अपना अनादर नहीं करना चाहिए। जो स्वयं अपना अनादर करता है, उसे उत्तम ऐश्वर्य प्राप्त नहीं होता। ~ वेदव्यास |
| * सुख चाहने वाले को विद्या और विद्या चाहने वाले को सुख कहां? सुख चाहने वाले को विद्या और विद्यार्थी को सुख की कामना छोड़ देनी चाहिए। ~ चाणक्यनीति | | * जिस प्रकार दीवाल पर फेंकी गेंद अपने ऊपर आ गिरती है उसी प्रकार दूसरे के लिए चाही हुई हानि अपने ऊपर आ पड़ती है। ~ सोमदेव |
| * विदेश में बंधु का मिलना मरुस्थल में अमृत के निर्झर की प्राप्ति के समान होता है। ~ सोमदेव | | * भीतर से कुटिल और बाहर से क्षमा-युक्त व्यक्ति निश्चय ही सर्व अनर्थकारी होता है। ~ नारायण पंडित |
| * मनुष्यों की गुणों से रहित वाणी भी यदि उचित अवसर पर कही गई हो, तो शोभा देती है। ~ अज्ञात | | * जल और अग्नि के समान धर्म और क्रोध का एक स्थान पर रहना स्वभाव-विरुद्ध है। ~ बाणभट्ट |
| | * प्रेम संयम और तप से उत्पन्न होता है। भक्ति साधना से प्राप्त होती है, श्रद्धा के लिए अभ्यास और निष्ठा की ज़रूरत होती है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी |
| | * मूर्ख की सफलताओं की अपेक्षा बुद्धिमानों की ग़लतियां अधिक मार्गदर्शक होती हैं। ~ विलियम ब्लेक |
| | * जैसे मनुष्यों की प्रार्थनाएं उनकी इच्छा का रोग हैं, वैसे ही उनके मतवाद उनकी बुद्धि के रोग हैं। ~ एमर्सन |
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| ===स्वस्थ शरीर आत्मा का अतिथि-भवन है=== | | ===बलवान का बल उसकी विनयशीलता=== |
| * स्वस्थ शरीर आत्मा का अतिथि-भवन है और अस्वस्थ शरीर इसका कारागार। ~ बेकन | | * बलवान का बल उसकी विनयशीलता में है। शत्रुओं को परिवतिर्त करने के लिए बुद्धिमान का शस्त्र यही है। ~ तिरुवल्लुवर |
| * शांति का सीधा संबंध हमारे हृदय से है, सहृदय होकर शांति की खोज करनी चाहिए। ~ चिदानंद सरस्वती | | * विपत्ति में पड़े हुए मनुष्यों का प्रिय करने वाले दुर्लभ होते हैं। ~ शूद्रक |
| * गुण का सच्चा मानदण्ड मन में स्थित है। जिनके सत विचार हैं, वे सत्पुरुष हैं। ~ आइजक बिकरस्टाफ | | * दयालुता से दयालुता का और विश्वास से विश्वास का जन्म होता है। ~ सैमुअल स्माइल्स |
| * मैंने सत्य को पा लिया, ऐसा मत कहो, बल्कि कहो, मैंने अपने मार्ग पर चलते हुए आत्मा के दर्शन किए हैं। ~ खलील जिब्रान | | * पृथ्वी पर ये तीनों व्यर्थ हैं- प्रतिभाशून्य की विद्या, कृपण का धन और डरपोक का बाहुबल। ~ बल्लाल |
| | * समुद्रों में वृष्टि निरर्थक है, तृप्तों को भोजन देना व्यर्थ है, धनाढ्यों को दान देना और दिन के समय दीये को जला देना निरर्थक है। ~ चाणक्यनीति |
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| | ===बेवकूफी से अश्रद्धा अच्छी=== |
| | * अश्रद्धा की अपेक्षा श्रद्धा अच्छी है। लेकिन बेवकूफी की अपेक्षा तो अश्रद्धा ही अच्छी है। ~ काका कालेकर |
| | * चाहे गुरु पर हो या ईश्वर पर, श्रद्धा अवश्य रखनी चाहिए, बिना श्रद्धा के सब बातें व्यर्थ हैं। ~ समर्थ रामदास |
| | * मनुष्य की श्रद्धा जितनी तीव्र होती है, उतनी ही अधिक वह मनुष्य की बुद्धि को पैनी और प्रखर बनाती है। जब श्रद्धा अंधी हो जाती है, तब वह मर जाती है। ~ महात्मा गांधी |
| | * मन में प्रसन्नता और बड़ी आकांक्षा पैदा कर देना श्रद्धा की पहचान है। ~ मिलिंदप्रश्न |
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| ===स्वाधीनता का अर्थ उत्तरदायित्व है=== | | ===बंधे बैल और छुटे सांड में अंतर=== |
| * हृदयों को अर्पित करो पर उसे एक-दूसरे के संरक्षण में मत रखो। ~ खलील जिब्रान | | * स्वाधीनता ही स्वाधीनता का अंत नहीं है। धर्म, शांति और काव्य - आनंद, यह सब और भी बड़े हैं। इनके विकास के लिए स्वाधीनता चाहिए, नहीं तो उसका मूल्य ही क्या है। ~ शरतचंद्र |
| * स्वाधीनता का अर्थ उत्तरदायित्व है। यही तो कारण है कि अधिकांश मनुष्य उससे डरते हैं। ~ जॉर्ज बर्नार्ड शा
| | * पराधीनता की विजय से स्वाधीनता की पराजय हज़ार गुना बेहतर है। ~ अज्ञात |
| * एक का कर्म देखकर दूसरा भी निंदनीय कर्म करता है। लोक गतानुगतिक होता है, वास्तविकता का विचार कर कार्य नहीं करता। ~ विष्णु शर्मा
| | * स्वाधीनता पा लेना आसान है, लेकिन उसे बनाए रखना आसान नहीं। ~ माखनलाल चतुर्वेदी |
| * प्रत्येक पदार्थ प्रति क्षण उत्पन्न भी होता है, नष्ट भी होता है और नित्य भी रहता है। ~ प्राकृत
| | * बंधे बैल और छुटे सांड में बड़ा अंतर है। एक रातिब पाकर भी दुर्बल है, दूसरा घास - पात खाकर ही मस्त हो रहा है। स्वाधीनता बड़ी पोषक वस्तु है। ~ प्रेमचंद |
| * इस संसार को बाज़ार समझो। यहां सभी आदमी व्यापारी हैं। जो जैसा व्यापार करता है, वैसा फल पाता है। ~ विद्यापति | |
| * आप दूसरों को तभी उठा सकते हैं, जब आप स्वयं ऊपर उठ चुके हों। ~ शिवानंद | |
| * दुख आ पड़ने पर मुस्कराओ। उसका सामना करके विजयी होने का साधन इसके समान और कोई नहीं है। ~ तिरुवल्लुवर | |
| * स्थान प्रधान है, बल नहीं। स्थान पर स्थित कायर पुरुष भी शूर हो जाता है। ~ अज्ञात
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| ===स्वार्थ बड़ा बलवान है=== | | ===बहुत से लोग शास्त्र पढ़कर भी मूर्ख होते हैं=== |
| * स्वार्थ बड़ा बलवान है। इसी कारण कभी-कभी मित्र शत्रु बन जाता है और शत्रु मित्र। ~ वेदव्यास | | * कामों में शीघ्रता नहीं करनी चाहिए, शीघ्रता कार्यविनाशिनी होती है। ~ अज्ञात |
| * दुनिया बड़ी भुलक्कड़ है। केवल उतना ही याद रखती है जितने से उसका स्वार्थ सधता है। बाकी को फेंक कर आगे बढ़ जाती है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी | | * शील की सदृशता पहले कभी न देखे हुए व्यक्ति को भी हृदय के समीप कर देती है। ~ बाणभट्ट |
| * प्रीति की अपेक्षा प्रयोजन ने ही आज मनुष्य को सबसे अधिक ग्रस लिया है। ~ विमल मित्र | | * दही में जितना भी दूध डालिए, दही होता जाएगा। शंकाशील हृदयों में प्रेम की वाणी भी शंका उत्पन्न करती है। ~ हजारीप्रसाद द्विवेदी |
| * मानव स्वभाव है, वह अपने सुख को विस्तृत करना चाहता है। और भी, केवल अपने सुख से ही सुखी नहीं होता, कभी-कभी दूसरों को दुखी करके, अपमानित करके, अपने मान को, सुख को प्रतिष्ठित करता है। ~ जयशंकर प्रसाद
| | * बहुत से लोग शास्त्र पढ़कर भी मूर्ख होते हैं। वास्तव में विद्वान् वही हैं जो क्रियावान हैं। ~ नारायण पंडित |
| * संसार में अपने पंखों को फैलाना सीखो क्योंकि दूसरों के पंखों के सहारे उड़ना संभव नहीं। ~ इकबाल
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| * तुम में सर्वप्रिय बनने की इच्छा होनी चाहिए। ऐसा करो, जिससे सामान्य लोग तुम्हें पसंद करें। यदि तुम यह सोचते हो कि पीठे पीछे किसी मोमिन, यहूदी या ईसाई की बुराई करने से लोग तुम्हें भला मान लेंगे, तो तुम लोगों का मिजाज नहीं समझते। ~ उमर खैयाम
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| * कभी-कभी समय के फेर से मित्र शत्रु बन जाता है और शत्रु भी मित्र हो जाता है, क्योंकि स्वार्थ बड़ा बलवान है। ~ वेदव्यास
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| * संसार में ऐसा कोई भी नहीं है जो नीति का जानकार न हो, परंतु उसके प्रयोग से लोग विहीन होते हैं। ~ कल्हण | |
| * जिसने कभी कोई शत्रु नहीं बनाया, उसका कोई मित्र भी नहीं बनता है। ~ टेनिसन
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| * विचार ही कार्य का मूल है। विचार गया तो कार्य गया ही समझो। ~ महात्मा गांधी
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| * मूर्ख सत्य का एक ही अंग देखता है और पंडित सत्य के सौ अंगों को देखता है। ~ थेरगाथा
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| * लोगों को यह याद रखना चाहिए कि शांति ईश्वर प्रदत्त नहीं होती। यह वह भेंट है, जिसे मनुष्य एक-दूसरे को देते हैं। ~ एली वाइजेला
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| * मनुष्य जब वस्त्र धारण कर लेता है तब ऐसा प्रतीत होता है मानो वह कभी नग्न रहा ही नहीं था। ~ जाबिर बिन सालब उत ताई
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| * हमारी बुद्धियां विविध प्रकार की हैं। मनुष्य के कर्म भी विविध प्रकार के हैं। ~ ऋग्वेद
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| ==ह== | | ==भ== |
| ===हमारी श्रद्धा अखंड ज्योति की तरह हो=== | | ===भलाई का जीवन=== |
| * एक कृष्ण वसुदेव का बेटा, एक कृष्ण घट-घट में लेटा। एक कृष्ण जो सकल पसारा, एक कृष्ण जो सबसे न्यारा।। ~ अज्ञात | | * दूसरे का बुरा चाहने वाला अपने अभीष्ट को प्राप्त नहीं कर सकता। ~ उमर खैयाम |
| * जितने से काम चल जाए उतना ही शरीरधारियों का अपना है। ~ भागवत | | * नेकी अगर करने वालों के दिल में रहे तो नेकी है, बाहर निकल जाए तो बदी है। ~ प्रेमचंद |
| * प्रेम का एक-एक कण भी सारे संसार से बढ़कर मूल्य रखता है। ~ फरीदुद्दीन अत्तार | | * भलाई से बढ़कर जीवन और बुराई से बढ़कर मृत्यु नहीं है। ~ आदिभट्टल नारायण दासु |
| * माया सबको मोहित करती है, परंतु भगवान के भक्त से वह हारी हुई है। ~ अज्ञात
| | * अगर तुम किसी की भलाई करते हो तो इह और पर दोनों लोकों में तुम्हारी भलाई होती है। ~ तिक्कना |
| * जब तुम प्रेमपूर्वक श्रम करते हो तब तुम अपने-आप से, एक-दूसरे से और ईश्वर से संयोग की गांठ बांधते हो। ~ खलील जिब्रान | | * जिससे बहुत लोग भयभीत रहते हैं, वह स्वयं भी बहुतों से भयभीत रहता है। ~ पब्लिलियस साइरस |
| * हमारी श्रद्धा अखंड ज्योति जैसी होनी चाहिए जो हमें प्रकाश देने के अलावा आसपास को भी रोशन करे। ~ महात्मा गांधी | |
| * चाहे गुरु पर हो और चाहे ईश्वर पर हो, श्रद्धा अवश्य रखनी चाहिए, क्योंकि बिना श्रद्धा के सब बातें व्यर्थ हो जाती हैं। ~ समर्थ रामदास
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| * शील अपरिमित बल है। शील सर्वोत्तम शस्त्र है। शील ही श्रेष्ठ आभूषण और रक्षा करनेवाला कवच है। ~ थेर गाथा
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| ===हमारा जीवन हमारे विचारों का ही प्रतिफल है=== | | ===भलाई करने वाला भलाई सिखाता है=== |
| * शांति जैसा तप नहीं है, संतोष से बढ़कर सुख नहीं है, तृष्णा से बढ़कर रोग नहीं है और दया से बढ़कर धर्मा नहीं है। ~ चाणक्यनीति | | * चंद्रमा की किरणों से खिल उठने वाला कुमुद पुष्प सूर्य की किरणों से नहीं खिला रहता। ~ कालिदास |
| * वीर तो अपने अंदर ही 'मार्च' करते हैं क्योंकि हृदयाकाश के केंद में खड़े होकर वे कुल संसार को हिला सकते हैं। ~ सरदार पूर्णसिंह | | * प्रिय कठिनाई से प्राप्त होता है। फिर कठिनाई से वश में होता है। फिर जैसा हृदय है, वैसा नहीं होता तो वह प्राप्त होकर भी अप्राप्त है। ~ हालसातवाहन |
| * आपत्तिकाल में प्रकृति बदल देना अच्छा परंतु अपने आश्रय के प्रतिकूल चेष्टा अच्छा नहीं। ~ अभिनंद | | * प्रार्थना या भजन जीभ से नहीं हृदय से होता है। इसी से गूंगे, तोतले और मूढ़ भी प्रार्थना कर सकते हैं। ~ महात्मा गांधी |
| * हमारा जीवन हमारे विचारों का ही प्रतिफल है। ~ मारकस आरेलियस | | * जो मेरे साथ भलाई करता है, वह मुझे भला होना सिखा देता है। ~ टामस फुलर |
| | * साधु स्वाद के लिए भोजन न करे, जीवन यात्रा के निर्वाह के लिए करे। ~ उत्तराध्ययन |
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| ===हृदय की पुस्तक=== | | ===भलाई करो इसी में कल्याण है=== |
| * संसार में धन पाकर जो लोग उसे मित्रों और धर्म में लगाते हैं, उनके धन सारवान हैं, नष्ट होने पर अन्त में वे धन ताप नहीं पैदा करते हैं। ~ अश्वघोष | | * भलाई से बढ़कर जीवन और बुराई से बढ़कर मृत्यु नहीं है। ~ आदिभट्ल नारायण दासु |
| * ईर्ष्या, लोभ, क्रोध एवं कठोर वचन-इन चारों से सदा बचते रहना ही वस्तुत: धर्म है। ~ तिरुवल्लुवर
| | * अगर तुम किसी की भलाई करते हो तो इह और पर दोनों लोकों में तुम्हारी भलाई होती है। ~ तिक्कना |
| * संसार के धर्म-ग्रन्थों को उसी भाव से ग्रहण करना चाहिए, जिस प्रकार रसायनशास्त्र का हम अध्ययन करते हैं और अपने अनुभव के अनुसार अन्तिम निश्चय पर पहुंचते हैं। ~ रामतीर्थ | | * नेकी अगर करने वालों के दिल में रहे तो नेकी है, बाहर निकल जाए तो बदी है। ~ प्रेमचंद |
| * मनुष्य की यह विशेषता है कि केवल उसी को अच्छे-बुरे का या उचित-अनुचित आदि का ज्ञान है और ऐसे ज्ञान से युक्त प्राणियों के साहचर्य से ही परिवार और समाज का निर्माण होता है। ~ अरस्तू | | * जो मेरे साथ भलाई करता हे वह मुझे भला होना सिखा देता है। ~ टामस फुलर |
| * जिसके हृदय की पुस्तक खुल चुकी है, उसे अन्य किसी पुस्तक की आवश्यकता नहीं रह जाती। पु्स्तकों का महत्व केवल इतना भर है कि वे हममें लालसा जगाती है। वे प्राय: अन्य व्यक्ति के अनुभव होती हैं। ~ विवेकानन्द | | * दूसरे का बुरा चाहने वाला अपने अभीष्ट को प्राप्त नहीं कर सकता। ~ उमर खैयाम |
| * प्राचीनता और भी अधिक प्राचीनता की प्रशंसा से परिपूर्ण मिलती है। ~ वाल्टेयर | |
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| ===हर मन एक माणिक्य है=== | | ===भक्ति अपने सुख के लिए हुआ करती है, दुनिया को दिखाने के लिए नहीं=== |
| * वैराग्य भीरु की आत्म-प्रवंचना मात्र है। जीवन की प्रवृत्ति प्रबल और असंदिग्ध सत्य है। ~ यशपाल | | * भक्ति अपने सुख के लिए हुआ करती है, दुनिया को दिखाने के लिए नहीं। ~ बाल्मीकि |
| * समाज में रहकर समाज को हानि पहुंचाना और आत्महत्या कर लेना दोनों ही समान हैं। ~ शरतचंद्र
| | * भक्ति अपने सुख के लिए हुआ करती है, दुनिया को दिखाने के लिए नहीं। जहां दिखावे का भाव हैं वहां कृत्रिमता है। ~ हनुमान प्रसाद |
| * शूर जन जलहीन बादल के समान व्यर्थ गर्जना नहीं किया करते। ~ वाल्मीकि | | * यदि तुम भूलों को रोकने के लिए दरवाज़ा ही बंद कर दोगे, तो सत्य भी बाहर रह जाएगा। ~ रवींद्रनाथ |
| * हर मन एक माणिक्य है, उसे दुखाना किसी भी तरह अच्छा नहीं। ~ शेख सादी
| | * जो आदर्श हमने सच्चे अंत:करण से बनाया है, मन वचन और काया एक करके जिस आदर्श की सृष्टि की है, वह अवश्य ही हमारे सामने सत्य के रूप में प्रकट होगा। ~ स्वेट मार्डेन |
| * जो मनुष्य जिसके साथ जैसा व्यवहार करे उसके साथ भी उसे वैसा व्यवहार करना चाहिए, यह धर्म है। ~ वेदव्यास
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| * उग्रता और मृदुता समय देखकर अपनानी चाहिए। अंधकार को मिटाए बिना ही सूर्य उग्र (अग्निवर्षा) नहीं हो जाता। ~ अज्ञात | |
| * कांच का कटोरा, नेत्रों का जल, मोती और मन, ये एक बार टूटने पर पहले जैसे नहीं रह जाते। अत: सावधानी बरतनी चाहिए। ~ लोकोक्ति | |
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| ===हर शरीर में सात ऋषि हैं=== | | ===भीतर शांति हो तो संसार शांत दिखाई देता है=== |
| * प्रत्येक शरीर में सात ऋषि हैं। ये सातों प्रमाद रहित हो कर उसका रक्षण करते हैं। जब ऋषि सोने जाते हैं, तब भी भीतर बैठे देव जागते हैं और इस यज्ञशाला की रक्षा करते हैं। ~ यजुर्वेद | | * अपने भीतर शांति प्राप्त हो जाने पर सारा संसार भी शांत दिखाई देने लगता है। ~ योगवाशिष्ट |
| * अपनी छाया से मार्ग के परिश्रम को दूर करने वाले, प्रचुर मात्रा में अत्यधिक मधुर फलों से युक्त, सुपुत्रों के समान आश्रम के वृक्षों पर उनके अतिथियों की पूजा का भार स्थिति है। ~ कालिदास | | * मनुष्य जिस संगति में रहता है, उसकी छाप उस पर पड़ती है। उसका निज गुण छिप जाता है और वह संगति का गुण प्राप्त कर लेता है। ~ एकनाथ |
| * जीवन को सुंदर बनाने वाला प्रत्येक विचार वेद ही है। ~ साने गुरु जी | | * संसर्ग से उत्पन्न होने वाले दोष एक के भी होने पर सभी साथियों के हो सकते हैं। ~ भागवत |
| * अलमारियों में बंद वेदान्त की पुस्तकों से काम न चलेगा, तुम्हें उसको आचरण में लाना होगा। ~ रामतीर्थ | | * जिनके मन में संशय भरा हुआ है, उसके लिए न यह लोक है, न परलोक है और न सुखी ही है। ~ वेदव्यास |
| * उच्च और निम्न की योग्यता का विचार वस्त्र देख कर भी होता है। समुद्र ने विष्णु को पीताम्बरधारी देख कर अपनी कन्या दे दी तथा शिव को दिगम्बर देख कर विष दिया। ~ अज्ञात
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| ===हर ढंग सच हो सकता है=== | | ===भूखा मनुष्य=== |
| * सच्ची संस्कृति मस्तिष्क, हृदय और हाथ का अनुशासन है। ~ शिवानंद | | * जो निषिद्ध कर्म का आचरण करते हैं, वे हीनतर होते जाते हैं। ~ तांड्य महाब्राह्मण |
| * सच हजार ढंग से कहा जा सकता है, फिर भी उसका हर ढंग सच हो सकता है। ~ विवेकानंद | | * केवल अपनी प्रशंसा करने से मूर्ख जगत् में ख्याति नहीं पा सकता। गुफा में छिपे रहने पर भी विद्वान् की सर्वत्र प्रसिद्धि होती है। ~ महाभारत |
| * अपनी बुद्धि से साधु होना कहीं अच्छा है, बजाय कि पराई बुद्धि से राजा बनना। ~ उड़िया लोकोक्ति | | * संपत्ति और विपत्ति में महापुरुषों का व्यवहार एक सा रहता है। सूर्य उदय के समय रक्त वर्ण का होता है और अस्त के समय भी रक्त वर्ण का ही होता है। ~ पंचतंत्र |
| * मन में संयमित शक्ति ही ऊपर उठकर बौद्धिक बल में परिणत होती है। ~ कर्त्तव्य दर्शन | | * अवस्था के अनुरूप ही वेष होना चाहिए। ~ चाणक्यनीति |
| | * भूखा मनुष्य कौन-सा पाप नहीं कर सकता? ~ हितोपदेश |
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| ===हर भूल कुछ न कुछ सिखा देती है=== | | ===भाग्य केवल कल्पना है=== |
| * यदि तुम भूलों को रोकने के लिए द्वार बंद कर दोगे तो सत्य भी बाहर रह जाएगा। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर | | * सफलता का पहला सिद्धांत है अनवरत काम। ~ रामतीर्थ |
| * सोई हुई आत्मा को जगाने के लिए भूलें एक प्रकार की दैविक यंत्रणाएं जो हमें सदा के लिए सतर्क कर देती हैं। ~ प्रेमचंद | | * भाग्य कुछ भी नहीं करता है, यह तो केवल कल्पना है। ~ योग वाशिष्ठ |
| * दूसरों की भूलों से बुद्धिमान लोग अपनी भूलें सुधारते हैं। ~ साइरस | | * जिस वृक्ष की छाया में बैठें अथवा लेटें, उसकी शाखा तक न तोडें। मित्र द्रोह पाप है। ~ जातक |
| * यदि मनुष्य सीखना चाहे तो उसकी प्रत्येक भूल कुछ न कुछ शिक्षा दे सकती है। ~ डिकेंस | | * भाग्य भी वीरों की ही सहायता करता है। ~ टैरेन्स |
| | * जब द्वार पर पूछताछ की मनाही होती है तो खिड़की पर शंका आ खड़ी होती है। ~ बेंजामिन जोवेट |
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| ===हिम्मत और हौसला से मुश्किल आसान=== | | ===भाग्य की कल्पना मूढ़ लोग करते हैं=== |
| * हिम्मत और हौसला मुश्किल को आसान कर सकते हैं, आंधी और तूफान से बचा सकते हैं, मगर चेहरे को खिला सकना उनके सार्मथ्य से बाहर है। ~ प्रेमचंद | | * भाग्य की कल्पना मूढ़ लोग करते हैं। बुद्धिमान तो पुरुषार्थ के द्वारा उत्तम पद को प्राप्त कर लेते हैं। ~ योगवासिष्ठ |
| * सब दुर्बलता और सब बंधन कल्पना है। उससे एक शब्द कहो और वह लापता हो जाएगी। ~ विवेकानंद | | * मेधावी पुरुष, थोड़ी सी भी आग को फूंक मार कर बढ़ा लेने की भांति, थोड़े से मूल धन से अपने को उन्नत कर लेता है। ~ जातक |
| * जो मनुष्य भीरु है, वह छोटे-छोटे कार्यों को भी बहुत बड़े कार्य समझता है। और जो साहसी होता है, वह बहुत बड़े कार्यों को भी छोटे छोटे कार्य ही समझता है। ~ मुतनब्बी | | * अपने उपाय से ही उपकारी का उपाय करना चाहिए। उपकार बड़ा है या छोटा- इस प्रकार का विद्वानों का विशेष आग्रह नहीं होता। ~ श्रीहर्ष |
| * वह सच्चा साहसी है जो मनुष्यों पर आने वाली भारी से भारी विपत्ति को बुद्धिमत्तापूर्वक सह सकता है। ~ शेक्सपियर | | * प्राणी अकेले जन्म लेता है और अकेले मरता है। वह अकेले ही पुण्य और पाप का फल भोगता है। ~ भागवत |
| | * ठीक समय पर प्रारंभ की गई नीतियां अवश्य ही फल प्रदान करती हैं। ~ कालिदास |
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| ===हम संसार को गलत पढ़ते हैं=== | | ===भाग्य साथ है तो थोड़ा पुरुषार्थ भी सफल=== |
| * हम संसार को गलत पढ़ते हैं और कहते हैं कि वह हमें धोखा देता है। ~ रवीन्द्रनाथ ठाकुर | | * भय से तब तक डरना चाहिए जब तक भय नहीं आया। भय उत्पन्न हो जाने पर निर्भीक के समान रहना चाहिए। ~ शौनकीयनीतिसार |
| * जो गुणज्ञ न हो, उसके सामने गुण नष्ट हो जाता है और कृतघ्न के साथ की गई उदारता नष्ट हो जाती है। ~ अज्ञात | | * भाग्य की कल्पना मूढ़ लो ही करते हैं और भाग्य पर आश्रित होकर वे अपना नाश कर लेते हैं। बुद्धिमान लोग तो पुरुषार्थ द्वारा ही उत्कृष्ट पद को प्राप्त करते हैं। ~ योगवशिष्ठ |
| * पूर्णतया निंदित या पूर्णतया प्रशंसित पुरुष न था, न होगा, न आजकल है। ~ धम्मपद | | * जैसे बीज खेत में बोए बिना निष्फल रहता है, उसी तरह पुरुषार्थ के बिना भाग्य भी सिद्ध नहीं होता। ~ वेदव्यास |
| * प्रत्येक व्यक्ति सब बातों में निपुण नहीं हो सकता, प्रत्येक व्यक्ति की विशिष्ट उत्कृष्टता होती है। ~ यूरोपिटीज़ | | * जब भाग्य अनुकूल रहता है, तब थोड़ा पुरुषार्थ भी सफल हो जाता है। ~ शुक्रनीति |
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| ===हम देवों की शुभ मति के अधीन रहें=== | | ===भविष्य को वर्तमान ही ख़रीदता है=== |
| * मेरा मुकुट मेरे हृदय में है, न कि सिर पर। मेरा मुकुट न तो हीरों से जटित है और न ही रत्न जटित। मेरा मुकुट दिखाई भी नहीं देता। मेरे मुकुट का नाम है संतोष, और राजा लोग कदाचित ही इसे धारण करते हैं। ~ शेक्सपियर | | * जीवित रहने को तो कीट-पतंगे भी रहते हैं, किंतु मनुष्य को कीट-पतंगों की भांति नहीं जीना चाहिए। ~ हरिकृष्ण प्रेमी |
| * अपने कल्याण के इच्छुक व्यक्ति को स्वेच्छाचारी नहीं होना चाहिए। ~ सोमदेव | | * हम ऐसा मानने की ग़लती कभी न करें कि गुनाह में कोई छोटा-बड़ा होता है। ~ महात्मा गांधी |
| * जितने से काम चल जाए उतना ही शरीरधारियों का अपना है। ~ भागवत | | * भविष्य को वर्तमान ही ख़रीदता है। ~ जॉनसन |
| * मनुष्य क्षमा कर सकता है, देवता नहीं कर सकता। मनुष्य हृदय से लाचार है, देवता नियम का कठोर प्रवर्त्तयिता। मनुष्य नियम से विचलित हो सकता है, पर देवता की कुटिल भृकुटि नियम की निरंतर रखवाली के लिए तनी ही रहती है। मनुष्य इसलिए बड़ा है, क्योंकि वह गलती कर सकता है और देवता इसलिए बड़ा होता है क्योंकि वह नियम का नियंता है। ~ हजारी प्रसाद द्विवेदी | | * दूसरे को चुप करने के लिए पहले खुद चुप हो जाओ। ~ सेनेका |
| * हम देवों की शुभ मति के अधीन रहें। ~ ऋग्वेद | | * प्रेम प्रतिदान नहीं चाहता, मोह प्रतिदान चाहता है। ~ अश्विनी कुमार दत्त |
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| ==क्ष== | | ===भ्रम में पड़े हुए व्यक्ति को विवेक कहां?=== |
| ===क्षमा धर्म है, क्षमा यज्ञ है=== | | * आपदा ही एक ऐसी वस्तु है, जो हमें अपने जीवन को गहराइयों में अंतर्दृष्टि प्रदान करती है। ~ विवेकानंद |
| * जो मनुष्य मन में उठे हुए क्रोध को दौड़ते हुए रथ के समान शीघ्र रोक लेता है, उसी को मैं सारथी समझता हूं, क्रोध के अनुसार चलने वाले को केवल लगाम रखने वाला कहा जा सकता है। ~ गौतम बुद्ध | | * भ्रम में पड़े हुए व्यक्ति को विवेक कहां? ~ माघ |
| * क्षमा धर्म है, क्षमा यज्ञ है, क्षमा वेद है और क्षमा शास्त्र है। जो इस प्रकार जानता है, वह सब कुछ क्षमा करने योग्य हो जाता है। ~ वेदव्यास | | * मैंने सत्य को पा लिया, ऐसा मत कहो, बल्कि कहो, मैंने अपने मार्ग पर चलते हुए आत्मा के दर्शन किए हैं। ~ खलील जिब्रान |
| * क्षमा पर मनुष्य का अधिकार है, वह पशु के पास नहीं मिलती। प्रतिहिंसा पाशव धर्म है। ~ जयशंकर प्रसाद
| | * अनिष्ट से यदि इष्ट सिद्धि हो भी जाए, तो भी उसका परिणाम अच्छा नहीं होता। ~ नारायण पंडित |
| * यदि कोई दुर्बल मनुष्य तुम्हारा अपमान करे तो उसे क्षमा कर दो, क्योंकि क्षमा करना ही वीरों का काम है, परंतु यदि अपमान करने वाला बलवान हो तो उसे अवश्य दंड दो। ~ गुरु गोविंद सिंह | | * न पहले कभी हुआ और न किसी ने देखा, सोने के मृग की कभी बात भी नहीं हुई, फिर भी राम को सुवर्ण मृग का लोभ हुआ। विनाश काल आने पर बुद्धि विपरीत हो जाती है। ~ चाणक्य नीति |
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| ==ज्ञ==
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| ===ज्ञान का लक्ष्य चरित्र-निर्माण===
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| * मनुष्य जितना ज्ञान में घुल गया हो, उतना ही वह कर्म के रंग में रंग जाता है। ~ विनोबा | |
| * अपने अज्ञान का आभाष होना ही ज्ञान की तरफ एक बड़ा कदम है। ~ डिजराइली
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| * ज्ञान का सार यह है कि ज्ञान रहते उसका प्रयोग करना चाहिए और उसके अभाव में अपनी अज्ञानता स्वीकार कर लेनी चाहिए। ~ कन्फ्यूशस
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| * ज्ञान अनुभव की बेटी है। ~ कहावत
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| * ज्ञान का अंतिम लक्ष्य चरित्र-निर्माण होना चाहिए। ~ महात्मा गांधी
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| ===ज्ञान से बुद्धि शुद्ध होती है=== | | ===भूतकाल स्वप्न और भविष्यकाल अनुमान=== |
| * कर्म, विद्या, धर्म, शील और उत्तम जीवन- इनसे ही मनुष्य शुद्ध होते हैं, गोत्र और धन से नहीं। ~ मज्झिमनिकाय | | * जो मनुष्य नाश होने वाले सब प्राणियों में समभाव से रहने वाले अविनाशी परमेश्वर को देखता है, वही सत्य को देखता है। ~ वेदव्यास |
| * जल से शरीर शुद्ध होता है, मन सत्य से शुद्ध होता है, विद्या और तप से भूतात्मा तथा ज्ञान से बुद्धि शुद्ध होती है। ~ मनुस्मृति | | * जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू शासित करना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है। ~ आचारांग |
| * लज्जा और संकोच होने पर ही शील उत्पन्न होता है और ठहरता है। ~ विसुद्धिमग्ग | | * भूतकाल स्वप्न है और भविष्य काल अनुमान है और वह समय जो वर्तमान है, उसे गनीमत समझ। ~ फारसी लोकोक्ति |
| * शील की सदृशता पहले कभी न देखे हुए व्यक्ति को भी हृदय के समीप कर देती है। ~ बाणभट्ट | | * सभ्यताओं का जन्म असाधारण रूप से कठिन परिवेशों में होता है, न कि असाधारण रूप से सरल परिवेशों में। ~ आर्नोल्ड टायनबी |
| * शांति, क्षमा, दान और दया का आश्रय लेने वाले लोगों के लिए शील ही विशाल कुल है, ऐसा विद्वानों का मत है। ~ क्षेमेंद्र | | * दुखी सुख की इच्छा करता है। सुखी और अधिक सुख चाहता है। वास्तव में दु:ख के प्रति उपेक्षा भाव रखना ही सुख है। ~ विसुद्धिमग्ग |
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| ===ज्ञान से मन शांत=== | | ===भगवान तुम्हारे सामने है=== |
| * जैसे जल द्वारा अग्नि को शांत किया जाता है वैसे ही ज्ञान के द्वारा मन को शांत रखना चाहिए। ~ वेदव्यास | | * मनुष्य के अंतर में शुभ और अशुभ दोनों तरह की वृत्तियां हैं। लेकिन अंतरतम में तो शुभ ही भरा है। प्रार्थना से उस अंतरतम में प्रवेश होता है। ~ विनोबा |
| * प्रत्येक बालक यह संदेश लेकर आता है कि ईश्वर अभी मनुष्यों से निराश नहीं हुआ है। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर
| | * भक्ति अपने सुख के लिए हुआ करती है, दुनिया को दिखाने के लिए नहीं। जहां दिखावे का भाव हैं वहां कृत्रिमता है। ~ हनुमान प्रसाद |
| * जो अपने ऊपर विजय प्राप्त करता है वही सबसे बड़ा विजयी हैं। ~ गौतम बुद्ध
| | * भगवान तुम्हारे सामने है। संसार से पीठ मोड़ो, वह तुम्हें अपने सामने खड़ा दिखाई देगा। ~ सत्य साईं बाबा |
| * जहां प्रकाश रहता है वहां अंधकार कभी नहीं रह सकता। ~ माघ
| | * यदि तुम भूलों को रोकने के लिए दरवाज़ा ही बंद कर दोगे, तो सत्य भी बाहर रह जाएगा। ~ रवींद्र |
| | | * जो भलाई से प्रेम करता है वह देवताओं की पूजा करता है। जो आदरणीयों का सम्मान करता है वह ईश्वर की नजदीक रहता है। ~ इमर्सन |
| ==श्र==
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| ===श्रद्धा में निराशा का कोई स्थान नहीं===
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| * विप्रों का आभूषण विद्या है, पृथ्वी का आभूषण राजा है, आकाश का आभूषण चंद्रमा है पर शील सबका आभूषण है। ~ बृहस्पतिनीतिसार
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| * वास्तव में शुभ और अशुभ दोनों एक ही हैं और हमारे मन पर अवलंबित हैं। मन जब स्थिर और शांत रहता है, तब शुभाशुभ कुछ भी उसे स्पर्श नहीं कर पाते। ~ विवेकानंद
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| * शोक करनेवाला मनुष्य न तो मरे हुए के साथ जाता है और न स्वयं ही मरता है। जब लोक की यही स्वाभाविक स्थिति है तब आप किस लिए बार-बार शोक कर रहे हैं। ~ वेदव्यास
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| * श्रद्धा में निराशा का कोई स्थान नहीं। ~ महात्मा गांधी
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| * जिसमें सत्य नहीं, वह धर्म नहीं और जो कपटपूर्ण हो, वह सत्य नहीं। ~ वेदव्यास
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| * सब रसों में सत्य का रस ही अधिक स्वादिष्ट है। ~ सुत्तनिपात
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| * ऐसा सत्य वचन बोलना चाहिए, जो हित, मित और ग्राह्य हो। ~ प्रश्नव्याकरण सूत्र
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| * गुण से रूप की, सदाचार से कुल की और सफलता से विद्या की शोभा होती है। ~ अज्ञात
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| * धीर पुरुषों का स्वभाव यह होता है कि वे आपत्ति के समय और भी दृढ़ हो जाते हैं। ~ सोमदेव
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| * उस मनुष्य पर विश्वास करो, जो बोलने में संकोच करता है, पर काम में परिश्रमी और तत्पर है, लेकिन लंबे तर्कों वालों से सावधान रहो। ~ जॉर्ज सांतायना
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| * हर प्रशंसा की तुलना में बुरा समाचार दूर तक जाता है। ~ बाल्टासार ग्राशियन
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| * घर सेवा की सीढ़ी का पहला डंडा है। इसे छोड़कर तुम ऊपर नहीं जा सकते। ~ प्रेमचंद
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| ===श्रद्धा से ही ऐश्वर्य प्राप्त होता है===
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| * थोड़े से निर्दोष शब्दों में कहना जो नहीं जानते, वे ही अनेक शब्दों को कहने के इच्छुक होंगे। ~ तिरुवल्लुवर
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| * अहंकार, क्रोध, प्रमाद, रोग और आलस्य- इन पांच कारणों से व्यक्ति शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता। ~ उत्तराध्ययन
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| * सब लोग हृदय के दृढ़ संकल्प से श्रद्धा की उपासना करते हैं, क्योंकि श्रद्धा से ही ऐश्वर्य प्राप्त होता है। ~ ऋग्वेद
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| * श्रम पूंजी से कहीं श्रेष्ठ है। मैं श्रम और पूंजी का विवाह करा देना चाहता हूं। वे दोनों मिलकर आश्चर्यजनक काम कर सकते हैं। ~ महात्मा गांधी | |
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| ===श्रद्धा में विवाद नहीं===
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| * श्रद्धा में विवाद का स्थान ही नहीं है। इसलिए कि एक की श्रद्धा दूसरे के काम नहीं आ सकती। ~ महात्मा गांधी
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| * अपढ़ भी संस्कारपूर्ण हो सकता है और विद्वान भी संस्कारहीन। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र
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| * यही साधुता है कि स्वयं समर्थ होने पर क्षमा-भाव रखें। ~ भागवत
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| * जैसे शरीर बिना कहे ही अपने अधीन होता है, उसी प्रकार से सज्जन लोग भी प्रेमी जनों के वश में रहते हैं। ~ बाणभट्ट
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| ===श्रद्धा के अनुसार ही बुद्धि सूझती है===
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| * धर्म, सत्य, सदाचार, बल और लक्ष्मी, ये सब मनुष्य के साथ शील के आधार पर रहते हैं। ~ वेदव्यास
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| * कर्म, विद्या, धर्म, शील और उत्तम जीवन - इनसे ही मनुष्य शुद्ध होते हैं, गोत्र और धन से नहीं। ~ मज्झिमनिकाय
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| * ऐश्वर्य का आभूषण सज्जनता है, शौर्य का वाक संयम, ज्ञान का शांति और विनय तथा सार्मथ्य का आभूषण क्षमा है। ~ भर्तृहरि
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| * श्रद्धा के अनुसार ही बुद्धि सूझती है। ~ महात्मा गांधी | |
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| ===श्रद्धा और सत्य के जोड़े से मनुष्य स्वर्ग लोक को भी जीत लेता है===
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| * अन्य व्यक्ति को तुम कम से कम एक मुस्कान तो दे ही सकते हो - प्रेम और आनंद से भरी मुस्कान। यह उसके मन पर लदा चिंताओं का बोझ हटा देगी। ~ स्वामी रामदास | |
| * वही प्रशंसनीय है जो विपत्ति में अपना स्वभाव नहीं छोड़ता। ~ प्रकाशवर्ष
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| * सदाचार मनुष्य की रुचि से पैदा नहीं होता। उसे तो पैदा करती है उसकी धरती जिस पर वह पैदा होता है। ~ लक्ष्मीनारायण मिश्र
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| * श्रद्धा और सत्य के जोड़े से मनुष्य स्वर्ग लोक को भी जीत लेता है। ~ ऐतरेय ब्राह्माण
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| ===श्रम से सब कार्य सिद्ध===
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| * जो श्रम नहीं करता, देवता उसके साथ मैत्री नहीं करते। ~ ऋग्वेद | |
| * श्रम करने से ही कार्य सिद्ध होते हैं, केवल मनोरथ करने से नहीं। ~ हितोपदेश
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| * श्रम आत्मा के लिए रसायन का काम करता है। श्रम ही मनुष्य की आत्मा है। ~ स्वामी कृष्णानंद
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| * श्रम की पूजा करो। उसकी पूजा करनेवाला त्रिकाल में भी कभी निराश नहीं होता। ~ राम प्रताप त्रिपाठी
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| ===श्रम पूंजी से कहीं श्रेष्ठ है===
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| * जब तुम प्रेमपूर्वक श्रम करते हो तब तुम अपने-आप से, एक-दूसरे से और ईश्वर से संयोग की गांठ बांधते हो। ~ खलील जिब्रान
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| * श्रम पूंजी से कहीं श्रेष्ठ है। मैं श्रम और पूंजी का विवाह करा देना चाहता हूं। वे दोनों मिलकर आश्चर्यजनक काम कर सकते हैं। ~ महात्मा गांधी
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| * उस मनुष्य पर विश्वास करो जो बोलने में संकोच करता है और कार्य में परिश्रमी व तत्पर है। ~ जॉर्ज सांतायना
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| * जो व्यक्ति अपना पक्ष छोड़कर दूसरे पक्ष से मिल जाता है, वह अपने पक्ष के नष्ट हो जाने पर स्वयं भी परपक्ष द्वारा नष्ट कर दिया जाता है। ~ वाल्मीकि
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| ===श्रेष्ठ दान विद्या दान है===
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| * सर्वोपरि श्रेष्ठ दान जो आप किसी मनुष्य को दे सकते हैं, विद्या व ज्ञान का दान है। ~ रामतीर्थ
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| * विचार और व्यवहार में सामंजस्य न होना ही धूर्तता है, मक्कारी है। ~ प्रेमचंद
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| * हम महान व्यक्तियों के निकट पहुंच जाते हैं जब हम नम्रता में महान होते हैं। ~ रवींद्रनाथ ठाकुर
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| * संसार के समस्त संबंध तथा पदार्थ क्षणिक हैं। केवल अपना कर्म ही शेष रहता है। ~ धनंजय
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| ===श्रेष्ठ वही है जो पराये को अपना ले===
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| * सत्यप्रतिज्ञ श्रेष्ठ व्यक्ति को कटु वचन कह कर भी कौन क्षुब्ध कर सकता है? (कोई नहीं)। ~ माघ
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| * मुक्ति चाहने वाले विरक्त लोगों को भी अच्छे लोगों के प्रति पक्षपात होता है। ~ भारवि
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| * जिनका शम-दम आदि गुणों के विषय में संतोष नहीं है, जिनका ज्ञान के प्रति अनुराग है तथा जिनको सत्य के आचरण का ही व्यसन है, वे ही वास्तव में मनुष्य हैं, दूसरे पशु हैं। ~ योगवासिष्ठ
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| * पूर्ण मनुष्य वही है जो पूर्ण होने पर और बड़ा होने पर भी नम्र रहता हो और सेवा में निमग्न रहता हो। ~ शब्सतरी
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| * वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो पराये को अपना बना ले। ~ विमल मित्र
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| | ===भोलेपन के बिना बनावटी है सौंदर्य=== |
| | * मैं हर बार हारा हूं, फिर भी मैं विजय के लिए जन्मा हूं। ~ एमर्सन |
| | * डूबते सूरज के प्रति लोग अपने द्वार बंद कर लेते हैं। ~ शेक्सपियर |
| | * जिस सौंदर्य में भोलेपन की झलक नहीं, वह बनावटी सौंदर्य है। ~ बालकृष्ण भट्ट |
| | * अनर्थ अवसर की ताक में रहते हैं। ~ कालिदास |
| | * मंगलमयी कोमल वाणी वाला मनुष्य प्राणियों को आनंदित करता है। ~ अज्ञात |
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| ==बाहरी कड़ियाँ==
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