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[[चित्र:Shri Krishna.jpg|thumb|200px|[[कृष्ण|भगवान श्रीकृष्ण]]]]
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'''अनन्त''' [[हिन्दू]] मान्यताओं और पौराणिक [[महाकाव्य]] [[महाभारत]] के उल्लेखानुसार [[श्रीकृष्ण|भगवान श्रीकृष्ण]] के कई नामों में से एक है।
{{शब्द संदर्भ नया
*कृष्ण [[हिन्दू धर्म]] में [[विष्णु]] के अवतार माने जाते हैं।
|अर्थ=जिसका अन्त न हो, जो कभी समाप्त न हो, अन्त-रहित, नित्य, शाश्वत।
*श्रीकृष्ण साधारण व्यक्ति न होकर युग पुरुष थे। उनके व्यक्तित्व में [[भारत]] को एक प्रतिभा सम्पन्न राजनीतिवेत्ता ही नही, एक महान कर्मयोगी और दार्शनिक प्राप्त हुआ, जिसका '[[गीता]]' ज्ञान समस्त मानव-जाति एवं सभी देश-काल के लिए पथ-प्रदर्शक है।
|व्याकरण=[[विशेषण]], [[पुल्लिंग]]- परमात्मा, आकाश, [[शेषनाग|शेषनाग या शेषनाग का अवतार]]- [[लक्ष्मण]]/[[बलराम]], भाद्र शुक्ल चतुर्दशी को दाहिनी भुजा में धारण की जाने वाली विशेष प्रकार के रेशमी/सूती धागों की एक रचना,उक्त रचना। 
*भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति लगभग सारे भारत में किसी न किसी रूप में की जाती है।
|उदाहरण=अनन्त काल, अनन्त आकाश, अनन्त सागर, राजा ने कवि को अनन्त धन दिया।
|विशेष=गणित में 'अनन्त श्रेढ़ी/श्रेणी' का अर्थ है वह श्रेढ़ी/श्रेणी जिसमें पदों की संख्या अनन्त हो। जैसे- 1+1/2+1/4+1/8+........∞
|विलोम=सान्त
|पर्यायवाची=
|संस्कृत=अन्+अन्त
|अन्य ग्रंथ=
|संबंधित शब्द=
|संबंधित लेख=
|सभी लेख=
}}
'''अनंत''' शब्द का अंग्रेजी पर्याय 'इनफिनिटी' लैटिन भाषा के अन्‌ (अन्‌) और फिनिस (अंत) की [[संधि]] है। यह शब्द उन राशियों के लिए प्रयुक्त किया जाता है जिनकी माप अथवा गणना उनके परिमित न रहने के कारण असंभव है। अपरिमित सरल रेखा की लंबाई सीमाविहीन और अनंत होती है।


{{लेख प्रगति|आधार= |प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध=}}
* गणितीय विश्लेषण में प्रचलित 'अनंत', जिसे ¥ द्वारा निरूपित करते हैं।
 
* यदि य कोई चर है और फ (य) कोई य का फलन है, और यदि अब चर य किसी संख्या क की ओर अग्रसर होता है तब फ (य) इस प्रकार बढ़ता ही चला जाता है कि वह प्रत्येक दी हुई संख्या ण से बड़ा हो जाता है और बड़ा ही बना रहता है चाहे कितना भी बड़ा हो, तो कहा जाता है कि य=क के लिए फ (य) की सीमा अनंत है।
 
* भिन्नों की परिभाषा से<ref>(द्र. संख्या)</ref> स्पष्ट है कि भिन्न व/स वह संख्या है जो स से गुणा करने पर गुणनफल व देती है। यदि व, स में से कोई भी शून्य न हो तो व/स एक '''अद्वितीय [[राशि]]''' का निरूपण करता है। फिर स्पष्ट है कि ०/स सदैव समान रहता है, चाहे स कोई भी सांत संख्या हो। इसे परिमेय (रैशनल) संख्याओं को [[शून्य]] कहा जाता है और गणनात्मक (कार्डिनल) संख्या ० के समान है। विपरीतत:, व/० एक अर्थहीन [[पद]] है। इसे अनंत समझना भूल है। यदि क/य में क अचर रहता है, और य घटता जाता है, और क,य दोनों धनात्मक हैं, तो क/य का मान बढ़ता जाएगा। यदि य शून्य की ओर अग्रसर होता है तो अंततोगत्वा क/य किसी बड़ी से बड़ी संख्या से भी बड़ा हो जाएगा। हम इस बात को निम्नलिखित प्रकार से व्यक्त करते हैं ।
 
* कैंटर (1845-1918) ने अनंत की समस्या को दूसरे ढंग से व्यक्त किया है। कैंटरीय संख्याएँ, जो अनंत और सांत के विपरीत होने के कारण कभी-कभी अतीत (ट्रैंसफाइनाइट) संख्याएँ कही जाती हैं, [[ज्यामिति (वर्णनात्मक)|ज्यामिति]] और '''सीमासिद्धांत''' में प्रचलित अनंत की परिभाषा से भिन्न प्रकार की हैं। '''कैंटर''' ने लघुतम अतीत '''गणनात्मक संख्या''' (ट्रैंसफाइनाइट कार्डिनल नंबर) (एक, दो तीन इत्यादि कार्डिनल संख्याएँ हैं; प्रथम, द्वितीय, तृतीय इत्यादि आर्डिनल संख्याएँ हैं।) अ० (अकार शून्य, अलिफ-जीरो) की व्याख्या प्राकृतिक संख्याओं 1,2,3... के संघ (सेट) की गणनात्मक संख्या से की है। यह सिद्ध हो चुका है कि अ०+स =अ०, जिसमें स कोई सांत पूर्ण संख्या है। कैंटर ने केवल अकार शून्य संख्याओं अ०,अ1...के सिद्धांत को भी विकसित किया है। हार्डी ने गणनात्मक संख्या अ1 वाले बिंदुओं के संघ की रचना करने की विधि बताई है। संख्या सं (=2अ०)प्रतान (कंटिनुअम) की, अर्थात वास्तविक संख्याओं के संघ की, गणनात्मक संख्या है। एकैकी रूपांतर (वन टु वन ट्रैंसफॉर्मेशन) द्वारा यह सिद्ध किया जा सकता है कि अंतराज (इंटरवल) (०,1) में भी बिंदुओं के संघ की गणनात्मक संख्या सं होती है।
 
* वास्तविक संख्याओं '''1,2,3'''... संघ से संबंद्ध अतीत क्रमिक संख्या को औ (ऑमेगा,w) लिखते हैं और इसे प्रथम अतीत क्रमिक संख्या (ट्रैंसफाइनाइट आर्डिनल नंबर) कहते हैं। किसी दिए हुए अंतराल का खा में '''बा1, बा2, बा3''',... बिंदुओं के एक अनुक्रम पर, जो वृद्धिमय संख्याओं '''क1, क2, क3''',... के अनुक्रम को व्यक्त करता है, विचार करें। इस अनुक्रम का एक सीमाबिंदु (लिमिटिंग पॉइंट) होगा जो इन समस्त बिंदुओं के दाहिनी ओर होगा; इसे हम बा ी द्वारा निरूपित कर सकते हैं। अब कल्पना करें कि बिंदु ब के उपरांत अन्य बिंदु ऐसे भी हैं जिन्हें हम बा1,... बा2,... बास,... बाअ... वाले संघ से संबद्ध मानना चाहेंगे, तब इन बिंदुओं को हम '''बाअ +1,बाअ +2''',... द्वारा व्यक्त करेंगे। यदि बाअ , '''बा +1,बा +2=2''',... नामक बिंदुओं के संघ का काई अंतिम बिंदु न हो और ये सब का खा के अंतर्गत स्थित हों तो इस संघ का एक सीमाबिंदु होगा जिसे हम बाअ +अ  या बा  2,द्वारा व्यक्त कर सकते हैं; इत्यादि। अत: हमें क्रम संख्याएँ '''1,2,3''',..., '''औ, औ+1, औ+2क'''... '''औ.2, आ.2+1'''..., '''आ.3''',... '''औ2''',...प्राप्त होती हैं।
 
* गणितीय विश्लेषण में हम बहुधा अनंत की ओर अग्रसर होनेवाले अनुक्रमों (या फलनों) की वृद्धि की तुलना करते हैं। लांडाऊ ने '''o, o,~''' नामक संकेतलिपि प्रचलित की है, जिसकी व्याख्या इस प्रकार है: यदि फ(य) और फा (य) अऋणात्मक हों और यदि समस्त य>य० के लिए फ (य)/फा(य)<एक [[अचल]] [[राशि]] त हो, तो य के अनंत की ओर अग्रसर होने पर फ (य)=० {फा (य)} होता हे। यदि समस्त के य>य० लिए फा (य)/फा (य)<ट हो, जिसमें ट कोई इच्छानुसार छोटी संख्या है, तो य के अनंत की ओर अग्रसर होने पर फ (य)=० {फा (य)} होता है, और यदि य के अनंत की ओर अग्रसर होने पर फा (य)/फा (य)®1अथवा कोई अन्य सांत संख्या, तो हम य®¥ पर फ (य)~ फा (य) लिखते हैं। अत: जब स®¥ तो स2+20स+1000~ स2। सामान्यतया दोनों अनुक्रम अनंत की ओर अग्रसर होते हैं और उनकी वृद्धि लगभग समान रहती हे। पॉल दू बोइस-रैमों और जी.एच. हार्डी ने फलनों के अनुक्रमों की वृद्धि में तुलना करने के लिए 'अनंत मापनियों' (स्केल्स ऑव इनफिनिटी) की व्याख्या की है।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1|लेखक= |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक= नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी|संकलन= भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=103,104 |url=}}</ref>
 
 
 
'''अनन्त''' ([[विशेषण]]) [नास्ति अन्तो यस्य न. ब.]
 
*अन्तरहित, अपरिमित, निस्सीम, अक्षय,-°रत्नप्रभवस्य यस्य-कु. 1/3,-'''तः''' 1. [[विष्णु]] की शय्या [[शेषनाग]], [[कृष्ण]], [[बलराम]], [[शिव]], नागों का पति [[वासुकि]] 2. बादल 3. [[कहानी]], 4. चौदह ग्रंथियों से युक्त रेश्मी डोरा जो [[अनंत चतुर्दशी]] के दिन दक्षिण भुजा पर बांधा जाता है;-'''ता''' 1. पृथ्वी (अन्तहीन) 2. एक की संख्या 3. [[पार्वती]] 4. शारिवा, अनंतमूल, [[दूर्वा]] आदि पौधे-'''तम्''' 1. आकाश, वातावरण 2. असीमता 3. मोक्ष 4. परब्रह्म।<ref>{{पुस्तक संदर्भ|पुस्तक का नाम=संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश|लेखक=वामन शिवराम आप्टे|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=कमल प्रकाशन, नई दिल्ली-110002|संकलन= |संपादन= |पृष्ठ संख्या=35|url=|ISBN=}}</ref>
 
 
सम.-'''तृतीया''' [[वैशाख]], [[भाद्रपद]] और [[मार्गशीर्ष]] मास की [[शुक्ल पक्ष]] की तीज-'''दष्टिः''' [[शिव]], [[इन्द्र]],-'''देवः''' 1. शेषनाग 2. नारायण जो शेषनाग के ऊपर सोता है,-पार ([[विशेषण]]) असीम विस्तारयुक्त, निस्सीम,-°रंकिल शब्दशास्त्रम्-पंच. 1,-'''रूप''' (विशेषण) अगणित रूपवाला, विष्णु,-'''विजयः''' [[युधिष्ठिर]] का [[शंख]]-भग. 1/26
 
 
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम= महाभारत शब्दकोश|लेखक= एस. पी. परमहंस|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक= दिल्ली पुस्तक सदन, दिल्ली|संकलन= भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या= 12|url=}}
<references/>
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==संबंधित लेख==
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09:31, 7 सितम्बर 2023 के समय का अवतरण

अनन्त एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- अनन्त (बहुविकल्पी)


अनंत शब्द का अंग्रेजी पर्याय 'इनफिनिटी' लैटिन भाषा के अन्‌ (अन्‌) और फिनिस (अंत) की संधि है। यह शब्द उन राशियों के लिए प्रयुक्त किया जाता है जिनकी माप अथवा गणना उनके परिमित न रहने के कारण असंभव है। अपरिमित सरल रेखा की लंबाई सीमाविहीन और अनंत होती है।

  • गणितीय विश्लेषण में प्रचलित 'अनंत', जिसे ¥ द्वारा निरूपित करते हैं।
  • यदि य कोई चर है और फ (य) कोई य का फलन है, और यदि अब चर य किसी संख्या क की ओर अग्रसर होता है तब फ (य) इस प्रकार बढ़ता ही चला जाता है कि वह प्रत्येक दी हुई संख्या ण से बड़ा हो जाता है और बड़ा ही बना रहता है चाहे कितना भी बड़ा हो, तो कहा जाता है कि य=क के लिए फ (य) की सीमा अनंत है।
  • भिन्नों की परिभाषा से[1] स्पष्ट है कि भिन्न व/स वह संख्या है जो स से गुणा करने पर गुणनफल व देती है। यदि व, स में से कोई भी शून्य न हो तो व/स एक अद्वितीय राशि का निरूपण करता है। फिर स्पष्ट है कि ०/स सदैव समान रहता है, चाहे स कोई भी सांत संख्या हो। इसे परिमेय (रैशनल) संख्याओं को शून्य कहा जाता है और गणनात्मक (कार्डिनल) संख्या ० के समान है। विपरीतत:, व/० एक अर्थहीन पद है। इसे अनंत समझना भूल है। यदि क/य में क अचर रहता है, और य घटता जाता है, और क,य दोनों धनात्मक हैं, तो क/य का मान बढ़ता जाएगा। यदि य शून्य की ओर अग्रसर होता है तो अंततोगत्वा क/य किसी बड़ी से बड़ी संख्या से भी बड़ा हो जाएगा। हम इस बात को निम्नलिखित प्रकार से व्यक्त करते हैं ।
  • कैंटर (1845-1918) ने अनंत की समस्या को दूसरे ढंग से व्यक्त किया है। कैंटरीय संख्याएँ, जो अनंत और सांत के विपरीत होने के कारण कभी-कभी अतीत (ट्रैंसफाइनाइट) संख्याएँ कही जाती हैं, ज्यामिति और सीमासिद्धांत में प्रचलित अनंत की परिभाषा से भिन्न प्रकार की हैं। कैंटर ने लघुतम अतीत गणनात्मक संख्या (ट्रैंसफाइनाइट कार्डिनल नंबर) (एक, दो तीन इत्यादि कार्डिनल संख्याएँ हैं; प्रथम, द्वितीय, तृतीय इत्यादि आर्डिनल संख्याएँ हैं।) अ० (अकार शून्य, अलिफ-जीरो) की व्याख्या प्राकृतिक संख्याओं 1,2,3... के संघ (सेट) की गणनात्मक संख्या से की है। यह सिद्ध हो चुका है कि अ०+स =अ०, जिसमें स कोई सांत पूर्ण संख्या है। कैंटर ने केवल अकार शून्य संख्याओं अ०,अ1...के सिद्धांत को भी विकसित किया है। हार्डी ने गणनात्मक संख्या अ1 वाले बिंदुओं के संघ की रचना करने की विधि बताई है। संख्या सं (=2अ०)प्रतान (कंटिनुअम) की, अर्थात वास्तविक संख्याओं के संघ की, गणनात्मक संख्या है। एकैकी रूपांतर (वन टु वन ट्रैंसफॉर्मेशन) द्वारा यह सिद्ध किया जा सकता है कि अंतराज (इंटरवल) (०,1) में भी बिंदुओं के संघ की गणनात्मक संख्या सं होती है।
  • वास्तविक संख्याओं 1,2,3... संघ से संबंद्ध अतीत क्रमिक संख्या को औ (ऑमेगा,w) लिखते हैं और इसे प्रथम अतीत क्रमिक संख्या (ट्रैंसफाइनाइट आर्डिनल नंबर) कहते हैं। किसी दिए हुए अंतराल का खा में बा1, बा2, बा3,... बिंदुओं के एक अनुक्रम पर, जो वृद्धिमय संख्याओं क1, क2, क3,... के अनुक्रम को व्यक्त करता है, विचार करें। इस अनुक्रम का एक सीमाबिंदु (लिमिटिंग पॉइंट) होगा जो इन समस्त बिंदुओं के दाहिनी ओर होगा; इसे हम बा ी द्वारा निरूपित कर सकते हैं। अब कल्पना करें कि बिंदु ब के उपरांत अन्य बिंदु ऐसे भी हैं जिन्हें हम बा1,... बा2,... बास,... बाअ... वाले संघ से संबद्ध मानना चाहेंगे, तब इन बिंदुओं को हम बाअ +1,बाअ +2,... द्वारा व्यक्त करेंगे। यदि बाअ , बा +1,बा +2=2,... नामक बिंदुओं के संघ का काई अंतिम बिंदु न हो और ये सब का खा के अंतर्गत स्थित हों तो इस संघ का एक सीमाबिंदु होगा जिसे हम बाअ +अ या बा 2,द्वारा व्यक्त कर सकते हैं; इत्यादि। अत: हमें क्रम संख्याएँ 1,2,3,..., औ, औ+1, औ+2क... औ.2, आ.2+1..., आ.3,... औ2,...प्राप्त होती हैं।
  • गणितीय विश्लेषण में हम बहुधा अनंत की ओर अग्रसर होनेवाले अनुक्रमों (या फलनों) की वृद्धि की तुलना करते हैं। लांडाऊ ने o, o,~ नामक संकेतलिपि प्रचलित की है, जिसकी व्याख्या इस प्रकार है: यदि फ(य) और फा (य) अऋणात्मक हों और यदि समस्त य>य० के लिए फ (य)/फा(य)<एक अचल राशि त हो, तो य के अनंत की ओर अग्रसर होने पर फ (य)=० {फा (य)} होता हे। यदि समस्त के य>य० लिए फा (य)/फा (य)<ट हो, जिसमें ट कोई इच्छानुसार छोटी संख्या है, तो य के अनंत की ओर अग्रसर होने पर फ (य)=० {फा (य)} होता है, और यदि य के अनंत की ओर अग्रसर होने पर फा (य)/फा (य)®1अथवा कोई अन्य सांत संख्या, तो हम य®¥ पर फ (य)~ फा (य) लिखते हैं। अत: जब स®¥ तो स2+20स+1000~ स2। सामान्यतया दोनों अनुक्रम अनंत की ओर अग्रसर होते हैं और उनकी वृद्धि लगभग समान रहती हे। पॉल दू बोइस-रैमों और जी.एच. हार्डी ने फलनों के अनुक्रमों की वृद्धि में तुलना करने के लिए 'अनंत मापनियों' (स्केल्स ऑव इनफिनिटी) की व्याख्या की है।[2]


अनन्त (विशेषण) [नास्ति अन्तो यस्य न. ब.]


सम.-तृतीया वैशाख, भाद्रपद और मार्गशीर्ष मास की शुक्ल पक्ष की तीज-दष्टिः शिव, इन्द्र,-देवः 1. शेषनाग 2. नारायण जो शेषनाग के ऊपर सोता है,-पार (विशेषण) असीम विस्तारयुक्त, निस्सीम,-°रंकिल शब्दशास्त्रम्-पंच. 1,-रूप (विशेषण) अगणित रूपवाला, विष्णु,-विजयः युधिष्ठिर का शंख-भग. 1/26


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (द्र. संख्या)
  2. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 103,104 |
  3. संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश |लेखक: वामन शिवराम आप्टे |प्रकाशक: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली-110002 |पृष्ठ संख्या: 35 |

संबंधित लेख

शब्द संदर्भ कोश
काश्तकार अंतरराष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय कल्पसिद्धि गाथा उपाख्यान आख्यान शताब्दी सुई न्यग्रोध महाप्राण व्यंजन अन्तःस्थ व्यंजन ओष्ठ्य व्यंजन दन्त्य व्यंजन मूर्धन्य व्यंजन तालव्य व्यंजन कण्ठ्य व्यंजन अव्यय वत्स कुमार किम्पुरुष सत्य वाह संवर्त्तक (हल) स्थावर जरा मोहनास्त्र ऐषीक शस्त्र रात सनातन अनन्त अद्भुत वराह दण्ड विमुख कुकुर वृषध्वज (बहुविकल्पी) यायावर सत्र कुलपति चरु शूर्प यूथनाथ द्वारपाल कलाबत्तू धत्ता कड़वक क्लीब भृंग पतोहू अट्टगत्तर अट्टगम अचल प्रवृत्ति अबोहन अंत-अयम् बराबर क्षेत्र हिरण्य हरणीपर्यंत हल्लि हल्लिकार हलिक हैमन शस्य श्रणी स्ववीर्योपजीविन सुनु सूना स्थान स्थान मान्य स्थल स्थल वृत्ति स्त्रोत चतुर्थ पंचभागिकम गुणपत्र खेत्तसामिक बलिदान कृप्यगृह कुमारगदियानक कुल्यवाप कर्मान्तिक सीमा एकपुरुषिकम उत्पाद्यमानविष्टि आवात आसिहार आलि आघाट आधवाय आदाणक स्कंधावार सीत्य सिद्ध सेवा सेतुबंध सेनाभक्त सर्वमान्य सर्व-आभ्यांतर-सिद्धि सन्निधाता संग्रहत संक्रांत संकर कुल संकर ग्राम साध्य अयनांगल अट्टपतिभाग अस्वयंकृत कृषि अर्धसीतिका अक्षयनीवी अक्षपटलाध्यक्ष अक्षपटल अकृत अकृष्ट अकरदायिन अकरद अग्रहार अग्रहारिक अदेवमातृक अध्यिय-मनुस्सनम नियोग समाहर्ता सालि सकारुकर सद्भाग साचित्त सभा-माध्यम शुल्क शौल्किक शासन रूधमारोधि रोपण रज्जु राजकीय क्षेत्र योगक्षेम यव मेय मासु मूलवाप मंडपिका महात्राण भूतवातप्रत्यय भूमिच्छिद्रन्याय भूमास्क भुक्ति भुज्यमान भोगायक भोगपति भोगगाम भोग भिक्षु हल भिख्खुहलपरिहार भाण्डागारिक ब्रह्मदेय बीत्तुवत्त भद्रभोग भागदुध भैक्षक बीजगण बरज फेणाघात पुस्तपाल पूर्ववाप पुर प्रतिकर प्रदेश पथक पतित पिण्डक पौतवम् पट्टला पार्श्व पर्रु पातक पल्लिका पारिहारिक परिहार पादोनलक्ष पण्यसंस्था परिभोग पंचकुल न्याय कर्णिक निवर्तन व्यामिश्र-भूमि ब्रीहि विविता वित्तोलकर विषामत्ता विलोप वत्थुपति वातक वासेत-कुटम्बिक वार्ता वर्षिकाशस्य वरत्रा वरज विपर्यस्त विपर्यय वापी वापातिरिक्तम् वाप गत्या लांगुल रूपजीवा रूपदर्शक शास्त्रीय कला शास्त्र अस्त्र शस्त्र शास्त्रीय थाना सूत्र स्वभाव सव्यसाची पुण्य तिथि जयंती सैर रंगशाला तरणी तरणि जातक घोषणापत्र गोधूलि महामाया वितान मेहराब शर्करा गज़ यातना शिविर समन्वयवाद गोष्ठी कचहरी अनामिका (उँगली) मध्यमा तर्जनी अंगूठा नुक़्ता कूटस्थ स्मार्त कन्दरा ख़ाना ख़ानाबदोश कोष्ण उपभोग उपभोक्ता उत्पादन उत्पादक आखेटक नौगम्य अवस्थित और उपस्थित अभिज्ञ और अनभिज्ञ अफ़वाह और किंवदंती अधिकांश और अधिकतर अंतर्राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय अनुवाद अध्यास सहोदरा सहोदर दशलक्षण धर्म संयम जनश्रुति परास राजमहल सुदर्शन अनुष्ठान कठौती कठौता बारगीर बारगी बीजना जुगाड़ खरल नाल कश्कोल सदक़ा छिन्नक अरणी आप: वलय तरंग अवशेष साखी अभंग अबीर श्रृंग राका लोककथा अखाड़ा अंगहीन बावली खंडहर सफ़र सारिका अंतर्धान दैत्य विधि यम (संयम) निवेश नाम पुछत्तर बखार तत्थो-थंभो बेला गोरु आसरैत मुदा अलग्योझा द्विज अम्बु प्रव्रज्या ईहित ईहामृग ईहा ईहग ईसरी ईसर ईसन ईस ईष्म ईषु ईषिका ईषा ईषना ईषद ईषत्‌स्पृष्ट ईषत ईश्वरोपासना ईश्वरीय ईश्वरी ईश्वराधीन ईश्वरवादी ईश्वर-वाद ईश्वर-प्रणिधान ईशित्व ईशिता ईशा ईशता ईली ईलि ईल ईर्ष्यालु ईर्ष्या ईर्ष्यक ईर्ष्य ईर्षु ईर्षित ईर्षालु ईर्षा ईर्षणा ईरित ईरण ईरमद ईरखा ईर ईमानदारी ईमानदार ईमन-कल्यान ईमन ईप्सु ईप्सित ईप्सा ईडा त्रिगंभीर त्रिगंधक त्रिगंग त्रिखी त्रिखा त्रिख त्रिक्षुर त्रिक्षार त्रिकोण-मिति त्रिकोण-भवन त्रिकोण-फल त्रि-कूर्चक त्रिकूटा त्रिकूट गढ़ त्रिकुटी त्रिकुटा त्रिकुट त्रिकालदर्शी त्रिकालदर्शिता त्रिकाल-दर्शक त्रिकालज्ञता त्रिकालज्ञ त्रिकाल त्रिकार्षिक त्रिकाय त्रिका त्रिकांडीय ईदृश ईदी ईतर ईढ़ त्रिकांड ईड्य त्रिक-शूल ईडित त्रिकल ईडन ईठि त्रिकर्मा त्रिकर्मन त्रिकत्रय ईठना त्रिकटुक त्रिकटु त्रिकट ईजाद त्रिककुम ईजा त्रिककुद ईछा त्रि-कंट ज्ञानद ज्ञानचक्षु ज्ञानगोचर ज्ञानगम्य ज्ञान कृत ज्ञातृव्य ज्ञाति पुत्र ज्ञाति ज्ञाता ज्ञातव्य ज्ञात यौवना ज्ञात-नंदन ज्ञात ज्ञप्ति ज्ञापित ज्ञापन ज्ञप्त ज्ञपन ईछन ईखराज त्रिशांश त्रि ईख ईक्षित त्रिंशत्पत्र ईक्षा ईक्षिका त्रिशत ईक्षण त्रिशः ईक्षणिक ईक्षक ईकरांत त्राहि इंद्र सावर्णि इंद्र सभा इंद्र वारुणी इंद्र वधू इंद्र वंशा इंद्र यव इंद्र मंडल इंद्र नील इन्द्र ध्वज इंद्रधनुषी इंद्र जौ इंद्रजाली इंद्र जव इंद्रचाप इंद्र गोप ईकार इंद्र गिरि इंद्र कृष्ट ईढ इंद्रक ईंटा इंद्रियवाद ईंचा-तानी इंदिरालय इंदिरा-रमण इंदिरा ईंचना इंतहा इंतज़ार ईस्टर इंतज़ाम इंतक़ाल ईश मनोहरी इंतक़ाम इँटकोहरा ईश-गौड़ इँटाई इंगुर ईश-गिरी इंगुदी ईठ द्रव्य कफ़न अदृष्ट सदी ग्रंथ कालांतर दृश्य तटवर्ती गंतव्य सुपाच्य परिदृश्य 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