"द्रौपदी चीरहरण": अवतरणों में अंतर

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==द्रौपदी चीरहरण / Draupadi Chirharan==
[[चित्र:Draupadi-Chirharan.jpg|thumb|350px|द्रौपदी चीरहरण]]
==दुर्योधन का अपमान==
[[दुर्योधन]] द्वारा [[विदुर]] को आज्ञा दी गई वह [[द्रौपदी]] को ले आये। इस पर विदुर ने कहा कि- "अपने-अपको दाँव पर हारने के बाद [[युधिष्ठिर]] द्रौपदी को दाँव पर लगाने के अधिकारी नहीं रह जाते।" किंतु [[धृतराष्ट्र]] ने प्रतिकामी नामक सेवक को द्रौपदी को वहाँ ले आने के लिए भेजा। द्रौपदी ने उससे प्रश्न किया कि- "धर्मपुत्र ने पहले कौन-सा दाँव हारा है, स्वयं अपना अथवा द्रौपदी का।" दुर्योंधन ने क्रुद्ध होकर [[दु:शासन]] से कहा कि वह द्रौपदी को सभाभवन में लेकर आये। युधिष्ठिर ने गुप्त रूप से एक विश्वस्त सेवक को द्रौपदी के पास भेजा कि यद्यपि वह रजस्वला है तथा एक वस्त्र में है, वह वैसी ही उठ कर चली आये। सभा में पूज्य वर्ग के सामने उसका उस दशा में कलपते हुए पहुँचना दुर्योधन आदि के पापों को व्यक्त करने के लिए पर्याप्त होगा।
मयनिर्मित सभाभवन में अनेक वैचित्र्य थे। [[दुर्योधन]] जब वहां घूम रहा था तब उसको अनेक बार स्थल पर जल की, जल पर स्थल की, दीवार में दरवाजे की और दरवाजे में दीवार की भ्रांति हुई। कहीं वह सीढ़ी में समतल की भ्रांति होने के कारण गिर गया और कहीं पानी को स्थल समझ पानी में भीग गया। ऐसे ही एक बावली में उसके गिर जाने पर [[युधिष्ठिर]] के अतिरिक्त शेष चारों [[पांडव]] हंसने लगे। दुर्योधन परिहासप्रिय नहीं था। अत: ईर्ष्या, लज्जा आदि से जल उठा। [[राजसूय यज्ञ]] में राजा अनेक प्रकार की भेंट लेकर आये थे। द्विजों में प्रधान कुणिंद ने धर्मराज को भेंट में एक शंख दिया, जो अन्नदान करने पर स्वयं बज उठता था। उसकी ध्वनि से वहां उपस्थित सभी राजा तेजोहीन तथा मूर्च्छित हो गये, मात्र [[धृष्टद्युम्न]], पांडव, सात्यकि तथा आठवें श्री[[कृष्ण]] धैर्यपूर्वक खड़े रहे। दुर्योधन आदि के मूर्च्छित होने पर पांडव आदि जोर-जोर से हंसने लगे तथा [[अर्जुन]] ने अत्यंत प्रसन्न होकर एक ब्राह्मण को पांच सौ बैल समर्पित किये। युधिष्ठिर ने वह शंख अर्जुन को भेंटस्वरूप दे दिया।
 
==द्यूत-क्रीड़ा==
द्रौपदी सभा में पहुँची तो दु:शासन ने उसे स्त्री वर्ग की ओर नहीं जाने दिया तथा उसके बाल खींचकर कहा- "हमने तुझे जुए में जीता है। अत: तुझे अपनी दासियों में रखेंगे।" द्रौपदी ने समस्त कुरुवंशियों के शौर्य, धर्म तथा नीति को ललकारा और [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] को मन-ही-मन स्मरण कर अपनी लज्जा की रक्षा के लिए प्रार्थना की। सब मौन रहे, किंतु दुर्योधन के छोटे भाई विकर्ण ने द्रौपदी का पक्ष लेते हुए कहा कि- "हारा हुआ युधिष्ठिर उसे दाँव पर नहीं रख सकता था।" किंतु किसी ने उसकी बात नहीं सुनी। [[कर्ण]] के उकसाने से दु:शासन ने द्रौपदी को निर्वस्त्र करने की चेष्टा की। उधर विलाप करती हुई द्रौपदी ने [[पांडव|पांडवों]] की ओर देखा तो [[भीम (पांडव)|भीम]] ने युधिष्ठिर से कहा कि- "वह उनके हाथ जला देना चाहता है, जिनसे उन्होंने जुआ खेला था।" [[अर्जुन]] ने उसे शांत किया। भीम ने शपथ ली कि वह दु:शासन की छाती का ख़ून पियेगा तथा [[दुर्योधन]] की जंघा को अपनी [[गदा]] से नष्ट कर डालेगा।<ref name="aa">{{cite web |url= http://freegita.in/mahabharat5/|title=महाभारत कथा- भाग 5|accessmonthday=24 अगस्त |accessyear=2015 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=freegita |language= हिन्दी}}</ref>
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अनेक घटनाओं से दुर्योधन चिढ़ गया थां अत: [[हस्तिनापुर]] जाते हुए उसने मामा [[शकुनि]] के साथ पांडवों को हराकर उनका वैभव हस्तगत करने की एक युक्ति सोचीं शकुनि द्यूतक्रीड़ा में निपुण था- युधिष्ठिर को शौक अवश्य था किंतु खेलना नहीं आता था। अत उन सबने मिलकर [[धृतराष्ट्र]] को मना लिया। [[विदुर]] के विरोध करने पर भी धृतराष्ट्र ने उसी को [[इन्द्रप्रस्थ]] जाकर युधिष्ठिर को आमन्त्रित करने के लिए कहा, साथ ही यह भी कहा कि वह पांडवों को उनकी योजना के विषय में कुछ न बताये। विदुर उनका संदेश लेकर पांडवों को आमन्त्रित कर आये। पांडवों के हस्तिनापुर में पहुंचने पर विदुर ने उनको एकांत में संपूर्ण योजना से अवगत कर दिया तथापि युधिष्ठिर ने चुनौती स्वीकार कर ली तथा द्यूतक्रीड़ा में वे व्यक्तिगत समस्त दाव हारने के बाद भाइयों को, स्वयं अपने को तथा अंत में [[द्रौपदी]] को भी हार बैठे। विदुर ने कहा कि अपने-अपको दांव पर हारने के बाद युधिष्ठिर द्रौपदी को दांव पर लगाने के अधिकारी नहीं रह जाते, किंतु धृतराष्ट्र ने प्रतिकामी नामक सेवक को द्रौपदी को वहां ले आने के लिए भेजा। द्रौपदी ने उससे यही प्रश्न किया कि धर्मपुत्र ने पहले कौन सा दांव हारा है- स्वयं अपना अथवा द्रौपदी का।  
[[द्रौपदी]] ने इस विकट विपत्ति में [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] का स्मरण किया। श्रीकृष्ण की कृपा से अनेक वस्त्र वहाँ प्रकट हुए, जिनसे द्रौपदी आच्छादित रही, फलत: उसके वस्त्र खींचकर उतारते हुए भी दु:शासन उसे नग्न नहीं कर पाया। सभा में बार-बार कार्य के अनौचित्य अथवा औचित्य पर विवाद छिड़ जाता था। दुर्योधन ने पांडवों को मौन देखकर 'द्रौपदी को दाँव में हारे जाने की बात', उचित है अथवा अनुचित, इसका निर्णय [[भीम]], [[अर्जुन]], [[नकुल]] तथा [[सहदेव]] पर छोड़ दिया। अर्जुन तथा भीम ने कहा कि- "जो व्यक्ति स्वयं को दांव में हार चुका है, वह किसी अन्य वस्तु को दाँव पर रख ही नहीं सकता था।"
==चीर हरण==
 
दुर्योंधन ने क्रुद्ध होकर [[दु:शासन]] (भाई) से कहा कि वह द्रौपदी को सभाभवन में लेकर आये। युधिष्ठिर ने गुप्त रूप से एक विश्वस्त सेवक को द्रौपदी के पास भेजा कि यद्यपि वह रजस्वला है तथा एक वस्त्र में है, वह वैसी ही उठ कर चली आये, सभा में पूज्य वर्ग के सामने उसका उस दशा में कलपते हुए पहुंचना दुर्योधन आदि के पापों को व्यक्त करने के लिए पर्याप्त होगा। द्रौपदी सभा में पहुंची तो दु:शासन ने उसे स्त्री वर्ग की ओर नहीं जाने दिया तथा उसके बाल खींचकर कहा- 'हमने तुझे जुए में जीता है। अत: तुझे अपनी दासियों में रखेंगे।' द्रौपदी ने समस्त कुरुवंशियों के शौर्य, धर्म तथा नीति को ललकारा और श्रीकृष्ण को मन-ही-मन स्मरण कर अपनी लज्जा की रक्षा के लिए प्रार्थना की। सब मौन रहे किंतु दुर्योधन के छोटे भाई विकर्ण ने द्रौपदी का पक्ष लेते हुए कहा कि हारा हुआ युधिष्ठिर उसे दांव पर नहीं रख सकता था किंतु किसी ने उसकी बात नहीं सुनी। [[कर्ण]] के उकसाने से दु:शासन ने द्रौपदी को निर्वस्त्रा करने की चेष्टा की। उधर विलाप करती हुई द्रौपदी ने पांडवों की ओर देखा तो [[भीम]] ने युधिष्ठिर से कहा कि वह उसके हाथ जला देना चाहता है, जिनसे उसने जुआ खेला था। अर्जुन ने उसे शांत किया। भीम ने शपथ ली कि वह दु:शासन की छाती का खून पियेगा तथा दुर्योधन की जांघ को अपनी गदा से नष्ट कर डालेगा। द्रौपदी ने विकट विपत्ति में श्री[[कृष्ण]] का स्मरण किया। श्रीकृष्ण की कृपा से अनेक वस्त्र वहां प्रकट हुए जिनसे द्रौपदी आच्छादित रही फलत: उसके वस्त्र खींचकर उतारते हुए भी दु:शासन उसे नग्न नहीं कर पाया। सभा में बार-बार कार्य के अनौचित्य अथवा औचित्य पर विवाद छिड़ जाता था। दुर्योधन ने पांडवों को मौन देख 'द्रौपदी की, दांव में हारे जाने' की बात ठीक है या गलत, इसका निर्णय भीम, अर्जुन, [[नकुल]] तथा [[सहदेव]] पर छोड़ दिया। अर्जुन तथा भीम ने कहा कि जो व्यक्ति स्वयं को दांव में हरा चुका है, वह किसी अन्य वस्तु को दांव पर रख ही नहीं सकता।
[[धृतराष्ट्र]] ने सभा की रग पहचानकर दुर्योधन को फटकारा तथा द्रौपदी से तीन वर मांगने के लिए कहा। द्रौपदी ने पहले वर से [[युधिष्ठिर]] की दासभाव से मुक्ति मांगी ताकि भविष्य में उसका पुत्र प्रतिविंध्य दास पुत्र न कहलाए। दूसरे वर से भीम, अर्जुन, नकुल तथा सहदेव की, शस्त्रों तथा रथ सहित दासभाव से मुक्ति मांगी। तीसरा वर मांगने के लिए वह तैयार ही नहीं हुई, क्योंकि उसके अनुसार [[क्षत्रिय]] स्त्रियाँ दो वर मांगने की ही अधिकारिणी होती हैं। धृतराष्ट्र ने उनसे संपूर्ण विगत को भूलकर अपना स्नेह बनाए रखने के लिए कहा। साथ ही उन्हें खांडव वन में जाकर अपना राज्य भोगने की अनुमति दी। धृतराष्ट्र ने उनके खांडव वन जाने से पूर्व, दुर्योधन की प्रेरणा से, उन्हें एक बार फिर से जुआ खेलने की आज्ञा दी। यह तय हुआ कि एक ही दाँव रखा जायेगा। [[पांडव]] अथवा धृतराष्ट्र पुत्रों में से जो भी हार जायेंगे, वे मृगचर्म धारण कर बारह वर्ष वनवास करेंगे और एक वर्ष [[अज्ञातवास]] में रहेंगे। उस एक वर्ष में यदि उन्हें पहचान लिया गया तो फिर से बारह वर्ष का वनवास ग्रहण करेंगे।<ref name="aa"/>
==द्रौपदी को प्राप्त वर==
 
धृतराष्ट्र ने सभा की नब्ज पहचानकर दुर्योधन को फटकारा तथा द्रौपदी से तीन वर मांगने के लिए कहा। द्रौपदी ने पहले वर से युधिष्ठिर की दासभाव से मुक्ति मांगी ताकि भविष्य में उसका पुत्र प्रतिविंध्य दास पुत्र न कहलाए। दूसरे वर से भीम, अर्जुन नकुल तथा सहदेव की, शस्त्रों तथा रथ सहित दासभाव से मुक्ति मांगी। तीसरा वर मांगने के लिए वह तैयार ही नहीं हुई, क्योंकि उसके अनुसार क्षत्रिय स्त्रियों दो वर मांगने की ही अधिकारिणी होती हैं। धृतराष्ट्र ने उनसे संपूर्ण विगत को भूलकर अपना स्नेह बनाए रखने के लिए कहा, साथ ही उन्हें [[खांडव वन]] में जाकर अपना राज्य भोगने की अनुमति दी।  
[[भीष्म]], [[विदुर]], [[द्रोणाचार्य]] आदि के रोकने पर भी द्यूतक्रीड़ा हुई, जिसमें पांडव हार गये। [[शकुनि]] द्वारा कपटपूर्वक खेलने से कौरव विजयी हुए। वनगमन से पूर्व पांडवों ने शपथ ली कि वे समस्त शत्रुओं का नाश करके ही चैन की सांस लेंगे। श्रीधौम्य<ref>पुरोहित</ref> के नेतृत्व में पांडवों ने द्रौपदी को साथ लेकर वन के लिए प्रस्थान किया। श्रीधौम्य साम मन्त्रों का गान करते हुए आगे की ओर बढ़े। वे कहकर गये थे कि युद्ध में कौरवों के मारे जाने पर उनके पुरोहित भी इसी प्रकार साम गान करेंगे। [[युधिष्ठिर]] ने अपना मुंह ढका हुआ था।<ref>वे अपने क्रुद्ध नेत्रों से देखकर किसी को भस्म नहीं करना चाहते थे।</ref> [[भीम]] अपने बाहु की ओर देख रहा था।<ref>अपने बाहुबल को स्मरण कर रहा था।</ref> [[अर्जुन]] रेत बिखेरता जा रहा था।<ref>ऐसे ही भावी संग्राम में वह वाणों की वर्षा करेगा।</ref> [[सहदेव]] ने मुंह पर मिट्टी मली हुई थी।<ref>दुर्दिन में कोई पहचान न ले।</ref> [[नकुल]] ने बदन पर मिट्टी मल रखी थी।<ref>कोई नारी उसके रूप पर आसक्त न हो।</ref> द्रौपदी ने बाल खोले हुए थे, उन्हीं से मुंह ढककर विलाप कर रही थी।<ref>जिस अन्याय से उसकी यह दशा हुई थी, चौदह वर्ष बाद उसके परिणाम स्वरूप शत्रु-नारियों की भी यही दशा होगी, वे अपने सगे-संबंधियों को तिलांजलि देंगी।</ref><ref>महाभारत, सभापर्व, अध्याय 47 से 77 तक</ref>
==पांडवों द्वारा शपथ==
 
धृतराष्ट्र ने उनके खांडववन जाने से पूर्व, दुर्योधन की प्रेरणा से, उन्हें एक बार फिर से जुआ खेलने की आज्ञा दी। यह तय हुआ कि एक ही दांव रखा जायेगा। पांडव अथवा धृतराष्ट्र पुत्रों में से जो भी हार जायेंगे, वे मृगचर्म धारण कर बारह वर्ष वनवास करेंगे और एक वर्ष अज्ञातवास में रहेंगे। उस एक वर्ष में यदि उन्हें पहचान लिया गया तो फिर से बारह वर्ष का वनवास भोगना होगा। [[भीष्म]], विदुर, [[द्रोण]] आदि के रोकने पर भी द्यूतक्रीड़ा हुई जिसमें पांडव हार गये, छली शकुनि जीत गया। वनगमन से पूर्व पांडवों ने शपथ ली कि वे समस्त शत्रुओं का नाश करके ही चैन की सांस लेंगे। श्रीधौम्य (पुरोहित) के नेतृत्व में पांडवों ने द्रौपदी को साथ ले वन के लिए प्रस्थान किया। श्रीधौम्य साम मन्त्रों का गान करते हुए आगे की ओर बढ़े। वे कहकर गये थे कि युद्ध में [[कौरव|कौरवों]] के मारे जाने पर उनके पुरोहित भी इसी प्रकार साम गान करेंगे। युधिष्ठिर ने अपना मुंह ढका हुआ था (वे अपने क्रुद्ध नेत्रों से देखकर किसी को भस्म नहीं करना चाहते थे), भीम अपने बाहु की ओर देख रहा था (अपने बाहुबल को स्मरण कर रहा था), अर्जुन रेत बिखेरता जा रहा था (ऐसे ही भावी संग्राम में वह वाणों की वर्षा करेगा), सहदेव ने मुंह पर मिट्टी मली हुई थी। (दुर्दिन में कोई पहचान न ले), नकुल ने बदन पर मिट्टी मल रखी थी (कोई नारी उसके रूप पर आसक्त न हो), द्रौपदी ने बाल खोले हुए थे, उन्हीं से मुंह ढककर विलाप कर रही थी (जिस अन्याय से उसकी वह दशा हुई थी, चौदह वर्ष बाद उसके परिणाम स्वरूप शत्रु-नारियों की भी वही दशा होगी, वे अपने सगे-संबंधियों को तिलांजलि देंगी)।<balloon title="महाभारत, सभापर्व, अध्याय 47 से 77 तक" style=color:blue>*</balloon>  
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08:21, 24 अगस्त 2015 के समय का अवतरण

द्रौपदी चीरहरण

दुर्योधन द्वारा विदुर को आज्ञा दी गई वह द्रौपदी को ले आये। इस पर विदुर ने कहा कि- "अपने-अपको दाँव पर हारने के बाद युधिष्ठिर द्रौपदी को दाँव पर लगाने के अधिकारी नहीं रह जाते।" किंतु धृतराष्ट्र ने प्रतिकामी नामक सेवक को द्रौपदी को वहाँ ले आने के लिए भेजा। द्रौपदी ने उससे प्रश्न किया कि- "धर्मपुत्र ने पहले कौन-सा दाँव हारा है, स्वयं अपना अथवा द्रौपदी का।" दुर्योंधन ने क्रुद्ध होकर दु:शासन से कहा कि वह द्रौपदी को सभाभवन में लेकर आये। युधिष्ठिर ने गुप्त रूप से एक विश्वस्त सेवक को द्रौपदी के पास भेजा कि यद्यपि वह रजस्वला है तथा एक वस्त्र में है, वह वैसी ही उठ कर चली आये। सभा में पूज्य वर्ग के सामने उसका उस दशा में कलपते हुए पहुँचना दुर्योधन आदि के पापों को व्यक्त करने के लिए पर्याप्त होगा।

द्रौपदी सभा में पहुँची तो दु:शासन ने उसे स्त्री वर्ग की ओर नहीं जाने दिया तथा उसके बाल खींचकर कहा- "हमने तुझे जुए में जीता है। अत: तुझे अपनी दासियों में रखेंगे।" द्रौपदी ने समस्त कुरुवंशियों के शौर्य, धर्म तथा नीति को ललकारा और श्रीकृष्ण को मन-ही-मन स्मरण कर अपनी लज्जा की रक्षा के लिए प्रार्थना की। सब मौन रहे, किंतु दुर्योधन के छोटे भाई विकर्ण ने द्रौपदी का पक्ष लेते हुए कहा कि- "हारा हुआ युधिष्ठिर उसे दाँव पर नहीं रख सकता था।" किंतु किसी ने उसकी बात नहीं सुनी। कर्ण के उकसाने से दु:शासन ने द्रौपदी को निर्वस्त्र करने की चेष्टा की। उधर विलाप करती हुई द्रौपदी ने पांडवों की ओर देखा तो भीम ने युधिष्ठिर से कहा कि- "वह उनके हाथ जला देना चाहता है, जिनसे उन्होंने जुआ खेला था।" अर्जुन ने उसे शांत किया। भीम ने शपथ ली कि वह दु:शासन की छाती का ख़ून पियेगा तथा दुर्योधन की जंघा को अपनी गदा से नष्ट कर डालेगा।[1]

द्रौपदी ने इस विकट विपत्ति में श्रीकृष्ण का स्मरण किया। श्रीकृष्ण की कृपा से अनेक वस्त्र वहाँ प्रकट हुए, जिनसे द्रौपदी आच्छादित रही, फलत: उसके वस्त्र खींचकर उतारते हुए भी दु:शासन उसे नग्न नहीं कर पाया। सभा में बार-बार कार्य के अनौचित्य अथवा औचित्य पर विवाद छिड़ जाता था। दुर्योधन ने पांडवों को मौन देखकर 'द्रौपदी को दाँव में हारे जाने की बात', उचित है अथवा अनुचित, इसका निर्णय भीम, अर्जुन, नकुल तथा सहदेव पर छोड़ दिया। अर्जुन तथा भीम ने कहा कि- "जो व्यक्ति स्वयं को दांव में हार चुका है, वह किसी अन्य वस्तु को दाँव पर रख ही नहीं सकता था।"

धृतराष्ट्र ने सभा की रग पहचानकर दुर्योधन को फटकारा तथा द्रौपदी से तीन वर मांगने के लिए कहा। द्रौपदी ने पहले वर से युधिष्ठिर की दासभाव से मुक्ति मांगी ताकि भविष्य में उसका पुत्र प्रतिविंध्य दास पुत्र न कहलाए। दूसरे वर से भीम, अर्जुन, नकुल तथा सहदेव की, शस्त्रों तथा रथ सहित दासभाव से मुक्ति मांगी। तीसरा वर मांगने के लिए वह तैयार ही नहीं हुई, क्योंकि उसके अनुसार क्षत्रिय स्त्रियाँ दो वर मांगने की ही अधिकारिणी होती हैं। धृतराष्ट्र ने उनसे संपूर्ण विगत को भूलकर अपना स्नेह बनाए रखने के लिए कहा। साथ ही उन्हें खांडव वन में जाकर अपना राज्य भोगने की अनुमति दी। धृतराष्ट्र ने उनके खांडव वन जाने से पूर्व, दुर्योधन की प्रेरणा से, उन्हें एक बार फिर से जुआ खेलने की आज्ञा दी। यह तय हुआ कि एक ही दाँव रखा जायेगा। पांडव अथवा धृतराष्ट्र पुत्रों में से जो भी हार जायेंगे, वे मृगचर्म धारण कर बारह वर्ष वनवास करेंगे और एक वर्ष अज्ञातवास में रहेंगे। उस एक वर्ष में यदि उन्हें पहचान लिया गया तो फिर से बारह वर्ष का वनवास ग्रहण करेंगे।[1]

भीष्म, विदुर, द्रोणाचार्य आदि के रोकने पर भी द्यूतक्रीड़ा हुई, जिसमें पांडव हार गये। शकुनि द्वारा कपटपूर्वक खेलने से कौरव विजयी हुए। वनगमन से पूर्व पांडवों ने शपथ ली कि वे समस्त शत्रुओं का नाश करके ही चैन की सांस लेंगे। श्रीधौम्य[2] के नेतृत्व में पांडवों ने द्रौपदी को साथ लेकर वन के लिए प्रस्थान किया। श्रीधौम्य साम मन्त्रों का गान करते हुए आगे की ओर बढ़े। वे कहकर गये थे कि युद्ध में कौरवों के मारे जाने पर उनके पुरोहित भी इसी प्रकार साम गान करेंगे। युधिष्ठिर ने अपना मुंह ढका हुआ था।[3] भीम अपने बाहु की ओर देख रहा था।[4] अर्जुन रेत बिखेरता जा रहा था।[5] सहदेव ने मुंह पर मिट्टी मली हुई थी।[6] नकुल ने बदन पर मिट्टी मल रखी थी।[7] द्रौपदी ने बाल खोले हुए थे, उन्हीं से मुंह ढककर विलाप कर रही थी।[8][9]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत कथा- भाग 5 (हिन्दी) freegita। अभिगमन तिथि: 24 अगस्त, 2015।
  2. पुरोहित
  3. वे अपने क्रुद्ध नेत्रों से देखकर किसी को भस्म नहीं करना चाहते थे।
  4. अपने बाहुबल को स्मरण कर रहा था।
  5. ऐसे ही भावी संग्राम में वह वाणों की वर्षा करेगा।
  6. दुर्दिन में कोई पहचान न ले।
  7. कोई नारी उसके रूप पर आसक्त न हो।
  8. जिस अन्याय से उसकी यह दशा हुई थी, चौदह वर्ष बाद उसके परिणाम स्वरूप शत्रु-नारियों की भी यही दशा होगी, वे अपने सगे-संबंधियों को तिलांजलि देंगी।
  9. महाभारत, सभापर्व, अध्याय 47 से 77 तक

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