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<div style="width:98%; height:35px; background:#3e5c9a; border-radius:10px; padding:10px;">[[चित्र:Facebook-icon-3.png|35px|left]]<span style="background:#fff; padding-left:15px; padding-right:5px; padding-bottom:5px; padding-top:3px; font-size:18px; border-radius:5px;">आदित्य चौधरी- फ़ेसबुक पोस्ट &nbsp; &nbsp;  &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; [[चित्र:Search-icon.png|20px|link=|]]</span> &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; &nbsp; [https://www.facebook.com/aditya.bharatkosh <span style="padding:5px; color:#fff; font-size:18px;">आदित्य चौधरी फ़ेसबुक</span>]</div>
{{आदित्य चौधरी फ़ेसबुक पोस्ट}}
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मकर संक्रांति निकल गयी, सर्दी कम होने के आसार थे, लेकिन हुई नहीं, होती भी कैसे 'चिल्ला जाड़े' जो चल रहे हैं। उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद लिखते हैं-
"हवा का ऐसा ठंडा, चुभने वाला, बिच्छू के डंक का-सा झोंका लगा"
अमर कहानीकार मोपासां ने लिखा है-
"ठंड ऐसी पड़ रही थी कि पत्थर भी चटक जाय"
जाड़ा इस बार ज़्यादा पड़ रहा है। ज़बर्दस्त जाड़ा याने कि 'किटकिटी' वाली ठंड के लिए मेरी माँ कहती हैं-"चिल्ला जाड़ा चल रहा है"
मैं सोचा करता था कि जिस ठंड में चिल्लाने लगें तो वही 'चिल्ला जाड़ा!' लेकिन मन में ये बात तो रहती थी कि शायद मैं ग़लत हूँ। बाबरनामा (तुज़कि बाबरी) में बाबर ने लिखा है कि इतनी ठंड पड़ रही है कि 'कमान का चिल्ला' भी नहीं चढ़ता याने धनुष की प्रत्यंचा (डोरी) जो चमड़े की होती थी, वह ठंड से सिकुड़ कर छोटी हो जाती थी और आसानी से धनुष पर नहीं चढ़ पाती थी, तब मैंने सोचा कि शायद कमान के चिल्ले की वजह से चिल्ला जाड़े कहते हैं लेकिन बाद में मेरे इस हास्यास्पद शोध को तब बड़ा धक्का लगा जब पता चला कि 'चिल्ला' शब्द फ़ारसी भाषा में चालीस दिन के अंतराल के लिए कहा जाता है, फिर ध्यान आया कि अरे हाँ... कहा भी तो 'चालीस दिन का चिल्ला' ही जाता है।
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| 17 जनवरी, 2014
; दिनांक- 12 दिसंबर, 2017
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हमको मालूम है इन सब की हक़ीक़त लेकिन
|| मनहूसियत के मारे ||
दिल--ख़ुशफ़हमी को कुछ दिन ये 'आप' अच्छा है
 
प्रकृति कहिए या ईश्वर कहिए, उसने पृथ्वी पर जो कुछ भी पैदा किया उसमें एक उल्लास पूर्ण गति अवश्य दी। मनहूस उदासी या आडम्बरी गंभीरता किसी भी जीव में नहीं दी। यहाँ तक कि वनस्पति में भी एक उल्लास से भरी हुई विकास की गति होती है। सूरजमुखी का फूल सूर्य को ही तकता रहता है और सूर्य जिस दिशा में जाता है उसी दिशा में वह मुड़ जाता है। फूलों की बेल, सहारे तलाश करती रहती हैं और जैसे अपनी बाहें फैलाकर सहारे को पकड़ ऊपर बढ़ती जाती हैं।
 
आप सड़क से एक पिल्ला उठा लाइये। सारा दिन घर में धमा-चौकड़ी मचाए रहेगा। कहने का सीधा अर्थ यह है जिसे हम सभी जानते ही हैं कि जीवन का अर्थ ही उत्सव और उल्लास है। प्रत्येक मनुष्य का प्रत्येक बच्चा जन्म से ही नृत्य, गायन, वादन, चित्रकारी, मूर्तिकारी, खेल जैसी आदि प्रतिभाओं से परिपूर्ण होता है। जिज्ञासा से भरा खोजी स्वभाव प्रत्येक बच्चे का स्वाभाविक गुण होता है। यह स्थिति मानसिक रूप से दिव्यांग बच्चों में भी होती है। मैंने बड़े क़रीब से देखा है ऐसे बच्चों को जिनकी मानसिक क्षमता हटकर होती हैं और जिन्हें हम मानसिक रूप से अविकसित या विशिष्ट रूप से विकसित मानते हैं। इन बच्चों में भी प्रसन्नता और उल्लास का भाव भरपूर होता है।
 
समस्या तब शुरु होती है जब धीरे-धीरे बच्चा बड़ा होने लगता है तो अधिकतर माता-पिता (या अन्य अभिभावक) उसकी इन प्रतिभाओं को बड़े गर्व के साथ समाप्त करने में लग जाते हैं। इसमें स्कूल भी अपनी भूमिका बख़ूबी निबाहता है। अधिकतर स्कूलों में शिक्षा जिस तरीक़े से दी जा रही है वह बेहद शोचनीय अवस्था है। पढ़ाई में सृजनात्मकता जैसा कुछ भी नहीं होता। उन्हें वह नहीं सिखाया जाता जोकि उनके व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में सहायक होगा और वे स्वयं अपनी सफलता का रास्ता चुन सकेंगे बल्कि उनको एक पारंपरिक तरीक़े की पढ़ाई दी जाती है जिससे वे कुछ नया करने की बजाय ख़ुद को किसी न किसी जॉब के लायक़ बनाने में लग जाते हैं।
 
महान विचारक जे. कृष्णमूर्ति ने कहा भी है कि स्कूलों में बच्चों को ‘क्या सोचा जाय सिखाने की बजाय कैसे सोचा जाय’ यह सिखाना चाहिए। इस आउटडेटेड उबाऊ शिक्षा पद्धिति के कारण बच्चों के भीतर की उमंग और उल्लास ख़त्म होने लगता है। ओढ़ी हुई गंभीरता मनहूसियत भरी उदासी उनका स्थाई स्वभाव बन जाता है। बच्चों को यह मौक़ा ही नहीं दिया जाता वे जान सकें कि उनमें कौन सी विशेष प्रतिभा है। बच्चों की मार्कशीट ही उनकी योग्यता की पहचान बन जाती है।
 
ज़रा बताइये कि मैंने कॅलकुलस, ट्रिगनोमॅट्री, वेक्टर, प्रॉबेबिलिटी आदि की पढ़ाई की… वह मेरे किस काम आ रही है… किसी काम नहीं। इसमें कोई दो राय नहीं कि गणित मेरा पसंदीदा विषय था लेकिन मुझे उन विषयों या क्षेत्रों को छेड़ने का मौक़ा ही नहीं मिला जो मेरे प्रिय हो सकते थे या उनमें से कोई एक मेरा पॅशन बन सकता था।
 
व्यवसाय में पिता अपने वारिस को सिखाता है कि बेटा-बेटी जितनी ज़्यादा मनहूसियत भरी गंभीरता तुम ओढ़े रहोगे तुमको उतना ही बड़ा बिजनेसमॅन समझा जाएगा। सरकारी कार्यालय में चले जाएँ तो ऐसा लगता है कि यहाँ अगर ज़ोर से हँस पड़े तो शायद छत ही गिर पड़ेगी क्योंकि उस छत ने कभी हंसी की आवाज़ सुनी ही नहीं (सुबह-सुबह सफ़ाई कर्मचारी ही शायद हँसते हों)। आलम ये है कि ओढ़ी हुई गंभीरता एक संस्कृति बन चुकी है। अब न तो इस मनहूस संस्कृति को क्या नाम दिया जाय यह समझ में आता और इसको ख़त्म करने का उपाय ही।


-जनाब असद उल्ला ख़ां ग़ालिब की याद में
एक सामान्य शिष्टाचार है कि किसी अजनबी से आपकी नज़र मिल जाय तो हल्का सा मुस्कुरा दें। यह शिष्टाचार यूरोपीय देशों में बहुत आम है। हमारे देश में यदि आप किसी अजनबी को देखकर मुस्कुरा गए और यदि वो लड़की हुई तो सोचेगी कि आप उसे छेड़ रहे हैं और यदि कोई लड़की किसी अजनबी लड़के को देखकर मुस्कुरा गई तो लड़का समझेगा कि यह प्रेम का निमंत्रण है।
 
क्या आपको नहीं लगता कि ये सब बातें स्कूल में सिखाई जानी चाहिए? मेरी आज तक यह समझ में नहीं आया कि स्कूल में बच्चों को घर का काम करना क्यों नहीं सिखाया जाता। जैसे; चाय-बिस्किट-नाश्ता बनाना, कपड़े तह करना, कपड़े इस्तरी करना, शारीरिक सफ़ाई, माता-पिता से व्यवहार, कील-चोबे लगाना, कपड़ों में बटन लगाना, छोटे बच्चे की देख-भाल करना, बाग़वानी, आदि-आदि। इसके अलावा ‘डू इट योरसेल्फ़’ की बहुत सी चीज़ें सिखाई जानी चाहिए, ज़रूरतमंद लोगों की मदद क्यों, कब और कैसे करें यह उनके स्वभाव में आना चाहिए। यह सब लड़की-लड़कों को समान रूप से सिखाना चाहिए। खाना बनाना लड़कों को भी आना चाहिए। कामकाजी पति-पत्नी के घर में दोनों ही लगभग सभी काम करते हैं। ये सब बच्चों को स्कूल में सिखाया जाना चाहिए। कुछ व्यावहारिक प्रयोगों द्वारा और कुछ विडियो दिखाकर।
 
यह तो ठीक है कि हम बच्चों को महान व्यक्तियों के बारे में बताकर उन्हें अच्छा इंसान बनने के लिए प्रेरित करते हैं लेकिन बच्चों को यह भी बताना चाहिए कि छोटे बच्चे घर के कामों में अपनी माता-पिता की मदद करके भी महान बनते हैं। उनको पता होना चाहिए कि यदि वे काम पर जाने से पहले अपने पिता की साइकिल-बाइक-कार को पोंछ देंगे तो यह कितना बड़ा काम होगा। रसोई में मां का हाथ बटाएँगे तो उनके द्वारा किया काम कितना महत्वपूर्ण होगा।
 
ज़रूरत तो इस बात की है कि प्रत्येक स्कूल, कॉलेज में कुछ विषय अलग से पढ़ाए जाने चाहिए। जिनसे छात्राओं और छात्रों को अच्छा इंसान बनने में मदद मिले। ‘संस्कृति’ एक अलग विषय होना चाहिए और इस विषय के अधीन सब-कुछ सिखाना चाहिए।
© आदित्य चौधरी
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| 15 जनवरी, 2014
; दिनांक- 5 दिसंबर, 2017
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विश्व के महानतम निर्देशकों में अल्फ़्रेड हिचकॉक का नाम आता है। वे मेरे बेहद पसंदीदा सिनेमा निर्देशकों में से एक रहे हैं। पिछले वर्ष उनके जीवन पर बनी फ़िल्म 'Hichcock' देखी। इसमें ऍन्थनी हॉपकिन (Anthony Hopkins) ने हिचकॉक की भूमिका की है। वे भी महान कलाकार हैं और मेरे पसंदीदा ऍक्टर हैं। यह फ़िल्म मेरी पसंदीदा और हिचकॉक की मशहूर फ़िल्म साइको (Psycho) के निर्माण पर आधारित है। हमेशा की तरह इस फ़िल्म में भी ऍन्थनी हॉपकिन का अभिनय देखने लायक़ है।
“कोई आज भी है जो सुनता है…”
हिचकॉक की फ़िल्मों की नक़लें सारी दुनिया में होती रही है। उनकी फ़िल्म वर्टीगो (Vertigo) मुझे बहुत पसंद है। ये एक ज़बर्दस्त थ्रिलर है। इसमें हीरो ऍक्रोफ़ोबिया (Acrophobia) का मरीज़ होता है। ऍक्रोफ़ोबिया एक ऐसी फ़ोबिया है जिसमें बहुत ऊँचाई से नीचे देखने पर चक्कर आते हैं। राज़ की बात ये है कि मैं मुझे भी ऍक्रोफ़ोबिया है। हा हा हा
 
यह बात उन दिनों की है जब भारत पर अंग्रेज़ों का शासन था और देशभक्त क्रांतिकारी अंग्रेज़ों का विरोध कर रहे थे।
एक अंग्रेज़ अधिकारी गांधीजी से मिलने आया। उससे काफ़ी देर महात्मा गांधी से बात-चीत की, कई विषयों पर चर्चा हुई। इसके बाद वह विदा लेकर चला गया। उसके जाने के बाद गांधी जी को बताया गया कि जिस रेलगाड़ी से वह अंग्रेज़ अधिकारी आ रहा था, उस रेलगाड़ी पर क्रान्तिकारियों ने बम फेंका और जिस रेल के डिब्बे में वह अंग्रेज़ बैठा था उस डिब्बे का आधा हिस्सा बम के कारण क्षतिग्रस्त हो गया। जिस व्यक्ति ने गांधी जी को यह सूचना दी उसने पूछा कि उस अंग्रेज़ अधिकारी ने आपसे यह चर्चा अवश्य की होगी। गांधीजी ने बताया कि उसने इस तरह की कोई चर्चा नहीं की।
 
ज़रा सोचिए कि उस अंग्रेज़ ने बम फ़ेंकने की चर्चा क्यों नहीं की? इसका कारण है कि वह अंग्रेज़ नहीं चाहता था कि गांधी से वार्ता करते समय किसी ऐसी बात का ज़िक्र किया जाए जिससे कि वार्तालाप का माहौल असहज हो जाए। निश्चित रूप से इस वार्तालाप में दोनों ही सहज नहीं रह पाते यदि बम फ़ेंकने की घटना का ज़िक्र वह अंग्रेज़ अधिकारी कर देता।
 
यदि आप चाहते हैं कि लोग आपकी उपस्थिति को पसंद करें तो आपको अपने 'सुभीता स्तर' (Comfort level) की तरफ़ ध्यान देना चाहिए। याने आपकी मौजूदगी में लोग कितना सहज महसूस करते हैं। जो लोग आपके सहकर्मी, मित्र, परिवारीजन आदि हैं उन्हें आपकी उपस्थिति में कितनी सहजता महसूस होती है। सदा स्मरण रखने योग्य बात यह है कि आप योग्य कितने हैं यह बात तो महत्वपूर्ण है ही बल्कि आपका सुभीता स्तर कितना है, यह अधिक महत्वपूर्ण है। एक सफल व्यक्तित्व का रहस्य बुद्धि, प्रतिभा या योग्यता में ही छुपा नहीं है बल्कि 'सुभीता स्तर' (Comfort level) इसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
 
आजकल लोग (ऍन्ड ऑफ़कोर्स लेडीज़ ऑलसो) सुनते नहीं हैं। बोलने से ज़्यादा ज़रूरी है सुनना। सुनने के तरीक़े हैं तीन… तीन क्या बल्कि चार।
पहला तरीक़ा: सबसे घटिया तरीक़ा है। इसमें सुनने वाला कहने वाले की बात काट कर अपनी बात कहने लगता है। यह व्यक्ति सबको अप्रिय होता है।
दूसरा तरीक़ा: कहने वाले को यह लगता रहता है कि सुनने वाला कुछ कहना चाहता है। सुनने वाले के हाव-भाव-भंगिमा और आँखें, कहने वाले को, ऐसा संदेश देती हैं। जिससे कहने वाला चुप हो जाता है या फिर कहता है ”कहिए ! आप कुछ कहना चाहते हैं क्या?” सुनने का यह तरीक़ा भी घटिया ही है।
तीसरा तरीक़ा: यह तरीका बहुत सही है। इसमें सुनने वाला कहने वाले की बात ध्यान से सुनता है। अपने किसी हाव-भाव से यह महसूस नहीं होने देता कि वो ध्यान से नहीं सुन रहा।
चौथा तरीक़ा: इसमें हम कहने वाले को कुछ कहने के लिए कहते हैं, कोई प्रश्न करते हैं और उत्तर ध्यान से सुनते हैं। इस तरीक़े में हम लोगों के मौन को भी सुनने की कोशिश करते हैं और उन लोगों को कुछ कहने के लिए प्रोत्साहित करते हैं जो बहुत कम ही बोलते हैं।
 
इस चौथे तरीक़े से बहुत कुछ सीखने को मिलता है। मैं अक्सर उन लोगों को बोलने के लिए प्रोत्साहित करता हूँ जो बहुत कम बोलते हैं।
एक संस्मरण: मेरे यहाँ एक घरेलू कर्मी था। जिसका काम मेरे साथ रहकर मेरे छोटे-मोटे काम करना था। उसे सब कमअक़्ल मानते थे। मैं उससे कोई न कोई सवाल करके उसी प्रतिक्रिया सुन लेता था। एक दिन घर के सामने से हाथी जा रहा था। मैंने कहा कि कमाल की बात है धरती का सबसे बड़ा जीव है और कितना शांत है? घरेलू कर्मी बोला कि सबसे बड़ा है इसीलिए तो शांत है। मैं उसके जवाब से दंग रह गया। कितना सटीक उत्तर था उसका।
 
ज़िन्दगी में अगर सुनना सीख लेंगें तो बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। लोगों ने सुनना तो लगभग बंद ही कर दिया है। किसी से मिलने जाते हैं तो नज़र मोबाइल फ़ोन पर ही बनी रहती है। मुझे बुज़ुर्गों से बात करने में ज़्यादा आनंद होता है क्योंकि उनमें से ज़्यादातर स्मार्ट फ़ोन इस्तेमाल नहीं करते। व्यस्तता बहुत बढ़ गई है। वैसे भी व्यस्तता एक फ़ैशन बन गया है। जिन्हें कोई भी ज़रूरी काम नहीं है उनकी व्यस्तता देखकर तो और आनंद होता है। इस व्यस्तता का दिखावा भी आपके सुभीता स्तर के लिए नुक़सानदायक है।
 
© आदित्य चौधरी
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| 14 जनवरी, 2014
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; दिनांक- 7 नवंबर, 2017
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जो सीमाओं में बंधकर जीते हैं
“After Japan, China will rise and gain prosperity and strength. After China, the sun of prosperity and learning will again smile at India.”
उनका जीवन
 
उनकी मृत्यु के साथ ही समाप्त हो जाता है सीमाओं के परे, खुले आकाश में
ये शब्द किसी अंग्रेज़ अर्थशास्त्री के नहीं हैं बल्कि सन् 1902 में जापान और अमरीका की यात्रा के दौरान प्रसिद्ध वेदान्ती स्वामी रामतीर्थ के हैं। दो वर्ष अमरीका में बिताने पर स्वामी जी अमरीकियों के लिए अचम्भा बन गए थे। बर्फ़ गिरती रहती थी और रामतीर्थ निचले शरीर पर केवल धोती पहने उसमें चल देते थे। नंगे कन्धों पर बर्फ़ गिरती तो उसे झाड़ देते थे। लोग आश्चर्य से ऐसे व्यक्ति को देखते रह जाते थे।
विचरण करने वालों का जीवन
 
अनन्त काल तक चलता है।
स्वामी जी ने जब संन्यास लिया तब वे गणित के प्रोफ़ेसर थे। भारत के लिए उनके वक्तव्य अत्यंत उत्साह से भरे होते थे। वे कहते थे-
 
“भारत क्या है? मैं भारत हूँ। मेरा शरीर मानो उसकी भूमि है। मेरे दो पैर मालाबार और चोलमण्डल हैं। मेरे चरण कन्याकुमारी हैं। मेरा मस्तक हिमालय है। गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी प्रचण्ड नदियाँ मेरे केश हैं। राजस्थान और गुजरात मे मरुस्थल मेरा हृदय है। पूर्व और पश्चिम दिशाओं में मेरी भुजाएँ फैली हैं।” स्वामी विवेकानन्द के प्रभामंडल के कारण उनके ही समकालीन स्वामी रामतीर्थ को लोग ज़्यादा नहीं जान पाए। रामतीर्थ ने नयी पीढ़ी को जगाने का काम विवेकानन्द की तरह ही किया।
 
भारत को एक व्यक्ति के रूप में देखना और भारत के प्रत्येक नागरिक को भारत के रूप में देखना स्वामी रामतीर्थ की अद्भुत धारणा वास्तव में ही सत्य है। ज़रा सोचिए कि यह बात कितनी महत्वपूर्ण है कि भारत ने किसी पड़ोसी पर कभी आक्रमण नहीं किया। जो विदेशी भारत में आकर शासन कर गए उनको भी बहुत हद तक भारत की परंपराओं में ढलना पड़ा।
 
अाज जिसे हम हिन्दू धर्म कहते हैं उसकी असंख्य शाखाओं की आस्था, मत, धार्मिक विश्वास, पूजा-अर्चना, अनुष्ठान, कर्मकाण्ड आदि में आश्चर्यजनक विविधताएँ हैं। भारतीय दर्शन परंपरा में ईश्वर के अस्तित्व और स्वरूप को लेकर विभिन्न मत हैं। कोई साकार ईश्वर में आस्था रखता है तो कोई निराकार में और कोई-कोई तो ईश्वर के अस्तित्व को ही नहीं मानते। कमाल यह है कि यह सब हिन्दू धर्म में शामिल हैं।
 
प्राचीन ग्रंथों में बहुत सी जानकारियाँ ऐसी हैं जो बहुत महत्वपूर्ण हैं। पौराणिक काल में राजा अपने पुत्रों में से राज्य के उत्तराधिकारी को चुनने के लिए अनेक प्रकार की शिक्षाओं की व्यवस्था करता था। अयोध्या के राजा दशरथ ने अपने पुत्रों से अनेक संप्रदायों के ऋषि-मुनियों और आचार्यों की चर्चा करवाने की व्यवस्था की थी। राजा दशरथ राम के पास लोकायतों (चार्वाक) के आचार्यों को भेजा जिन्होंने राम को चार्वाक दर्शन का ज्ञान देने की चेष्टा की जिसमें नास्तिक होने के लाभ बताए गए लेकिन किशोरवय राम की आस्था वैदिक परंपराओं में थी। इसलिए राम ने उन्हें नकार दिया और क्षमा मांग ली। इसके अलावा भी अन्य विचारधाराएँ थीं जिनके अनुयायी पर्याप्त मात्रा में थे और आज भी हैं। इसी क्रम में, आजीवक एक अत्यंत प्राचीन संप्रदाय है। जिसके साधु और भिक्षु मस्करी वेष में रहा करते थे। रावण जब सीता हरण के लिए आया था उस समय वह इसी आजीवक संप्रदाय के मस्करी वेष में आया था।
 
भारत का यह रंग-रंगीला स्वरूप आज भी बदला नहीं है। विभिन्न धर्मों और संप्रदायों को मानने वाले भारत में शान से रह रहे हैं और उन्हें संविधान में समान अधिकार प्राप्त हैं।
 
कुछ ही समय पहले की बात है जब एक सिख, भारत का प्रधानमंत्री (मनमोहन सिंह), एक मुसलमान, राष्ट्रपति (अब्दुल कलाम), एक हिन्दू, सदन में विपक्ष के नेता (अटल बिहारी वाजपेयी) और एक जन्म से ईसाई, शासक पार्टी की अध्यक्ष (सोनिया गांधी) होने का विलक्षण संयोग हुआ। यह भी भारत में ही संभव है।
 
नोट: (पाठकगण क्षमा करें, ऊपर के अनुच्छेद में मैंने श्रीमती सोनिया गांधी को ‘जन्म से ईसाई’ इसलिए लिखा है क्योंकि मुझे उनकी वर्तमान धार्मिक स्थिति पता नहीं है।)
 
कुछ बातें मन पर छाप छोड़ जाती हैं और अपने भारतवासी होने पर और भी अधिक गर्व होने लगता है।
अभी पिछले दिनों मुहम्मद अली जिन्हा की बेटी का देहावसान हुआ। लोगों को जानकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि पाकिस्तान बनाने वाले पाकिस्तान के क़ायद-ए-आज़म की बेटी भारत में रहती थी! पाकिस्तान में न तो जिन्हा को और न ही उनकी बहन फ़ातिमा को समुचित सम्मान दिया गया। जिन्हा के इलाज में लापरवाही हुई और
उनकी बहन फ़ातिमा तो चुनाव ही हार गयीं। जिन्हा की बेटी सम्मानपूर्वक भारत में रहीं और उन्होंने पाकिस्तान को कभी पसंद नहीं किया।
 
© आदित्य चौधरी
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| [[चित्र:Seemao se bandhkar.jpg|250px|center]]
| 14 जनवरी, 2014
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; दिनांक- 2 नवंबर, 2017
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भारत जैसे विशाल गणतंत्र के समग्र विकास के लिए
आजकल रानी पद्मावती (पद्मिनी) को लेकर काफ़ी हंगामाई बहस छिड़ी हुई है। कुछ कहते हैं कि पद्मावती कोई ऐतिहासिक चरित्र ‘नहीं है’ और कुछ कहते हैं कि ‘है’। अलाउद्दीन ख़लजी के चित्तौड़ आक्रमण के लगभग 237 वर्ष बाद, ई.सन् 1540 के क़रीब मलिक मुहम्मद जायसी ने पद्मावत नाम से एक महाकाव्य रचा।
60-70 वर्ष का समय सामान्यत: बहुत कम है
 
भारत की आज़ादी को अभी इतना समय नहीं हुआ
इस महाकाव्य के कुछ प्रमुख चरित्र; रानी पद्मिनी, राणा रतनसेन, अलाउद्दीन ख़लजी, राघव चेतन, गोरा-बादल और एक इंसानों की तरह बोलने वाला तोता हीरामन हैं।
कि भारत के संविधान का सही मूल्यांकन हो सके
अब चूँकि इस विषय पर फ़िल्म बन रही है और काफ़ी चर्चा में है तो इसका कथानक उनको भी याद हो गया है जिनको नहीं था, ये फ़ेसबुक और वॉट्स ऍप की करामात है। इसलिए कथानक पर चर्चा व्यर्थ ही है।
भारत का गणतंत्र और संविधान अभी शैशवावस्था में ही हैं
 
फिर भी यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि इस शताब्दी में भारत विश्व का सबसे शक्तिशाली देश होगा।
मलिक मुहम्मद जायसी के जीवन की घटनाएँ कहीं किसी इतिहास में दर्ज नहीं हैं। कथा-कहानियों से ही जायसी के जीवन का कुछ पता चलता है। चेचक से जायसी के चेहरे पर दाग़ हो गए और एक आंख चली गई। ‘जायसी’ उपनाम जायस (पहले राय बरेली और अब अमेठी का एक नगर) में रहने के कारण पड़ा। बाद में जायसी ने एक चमत्कारी सूफ़ी संत के रूप में प्रसिद्धी पायी।
 
जायसी को अफ़ीम के नशे की लत थी। अफ़ीम का नशा आदमी को कल्पनालोक में ले जाता है। उस समय माज़ून (भांग से बनती है) और अफ़ीम का काफ़ी प्रचलन था। शराब में अफ़ीम मिला कर पीने का भी चलन था। जिसका ज़िक्र बाबर ने बाबरनामा में किया है। अकबर भी शराब में अफ़ीम मिलाकर पिया करता था।
 
जायसी की मृत्यु के संबंध में एक काल्पनिक कथा प्रचलित है। कहते हैं कि जायसी अपने जादू से शेर बनकर जंगल में घूमा करता था। एक शिकारी ने इस शेर के रूप में जायसी को मार डाला।
 
कुछ इतिहासकारों ने पद्मिनी के जौहर को काल्पनिक कथा बताया है। इस पर चर्चा बाद में पहले सिकंदर के भारत आक्रमण के समय घटी एक घटना का ज़िक्र-
पाणिनि ने अग्रश्रेणय: नामक एक छोटे से नगर-राष्ट्र (या आज की भाषा में कहें तो क़बीले का) ज़िक्र किया है। जो इतिहास में यूनानी भाषा में परिवर्तित होकर अगलस्सोई हो गया। इन अगलस्सोई नागरिकों ने यूनानी आक्रांता सिंकंदर का जम कर मुक़ाबला किया। भारतकोश पर इसका विवरण इस तरह है:-
 
* अगलस्सोई सिकंदर के आक्रमण के समय सिन्धु नदी की घाटी के निचले भाग में शिविगण के पड़ोस में रहने वाला एक गण था।
* शिवि गण जंगली जानवरों की खाल के वस्त्र पहनते थे और विभिन्न प्रकार के ‘गदा’ और ‘मुगदर’ जैसे हथियारों का प्रयोग करते थे।
* सिकन्दर जब सिन्धु नदी के मार्ग से भारत से वापस लौट रहा था, तो इस गण के लोगों से उसका मुक़ाबला हुआ।
* अगलस्सोई गण की सेना में 40 हज़ार पैदल और तीन हज़ार घुड़सवार सैनिक थे। उन्होंने सिकन्दर के छक्के छुड़ा दिए, लेकिन अन्त में वे पराजित हो गए।
• यूनानी इतिहासकारों के अनुसार अगलस्सोई गण के 20 हज़ार आबादी वाले एक नगर के लोगों ने स्वयं अपने नगर में आग लगा दी और अपनी स्त्रियों और बच्चों के साथ जलकर मर गए, ताकि उन्हें यूनानियों की दासता न भोगनी पड़े। यह कृत्य राजपूतों में प्रचलित जौहर प्रथा से मिलता प्रतीत होता है।
 
अगलस्सोई की पहचान पाणिनिके व्याकरण में उल्लिखित अग्रश्रेणय: से की जाती है।
 
भारत में अनेक कथाएँ हैं जो जन-जन में लोकप्रिय हुईं और इनमें से कई कथाओं के पात्र भारत की जनता के लिए श्रद्धेय हो गये।
जैसे अाल्हा ऊदल, नल दमयंती, कच देवयानी आदि।
आल्हा-ऊदल काव्य में लिखा है:-
 
बड़े-बड़े चमचा गढ़ महोबे में
नौ-नौ मन जामें दार समाय
बड़े खबैया गढ़ महोबे के
नौ-नौ सै चमचा खा जाएँ
 
अब इसमें कहाँ सचाई तलाशी जाय? नौ मन दाल वाले चमचे और नौ सौ चमचे दाल खाने वाले आदमी?
नल-दमयंती की कथा में नल की कथा दमयंती और राजा नल को एक इंसानों की तरह बोलने वाला हंस सुनाता है। कच-देवयानी की कथा में कच को पकाकर शुक्राचार्य को खिला दिया जाता है और वह पेट में जीवित हो जाता है। यदि कोई इन कथाओं का ऐतिहासिक महत्व पूछे या फिर वैज्ञानिक महत्व पूछे तो?
 
इस प्रश्नों का कोई अर्थ नहीं है। ये तो कथाएँ हैं। इनके नायक-नायिका जन साधारण में कब और कितना महत्वपूर्ण बन जाएँ कोई नहीं कह सकता। अनेक व्यक्ति ऐसे हुए हैं जिनको अवतार और भगवान की मान्यता मिली है।
 
रानी पद्मिनी के जौहर की घटना का पं. जवाहर लाल नेहरू ने ज़िक्र किया है। राजस्थान का इतिहास लिखने वाले कर्नल टॉड ने भी इस घटना का ज़िक्र किया है। आजकल कर्नल टॉड के इतिहास को कोई ख़ास मान्यता नहीं दी जाती साथ ही पं. जवाहर लाल नेहरू को भी इतिहासकारों की श्रेणी में नहीं माना जाता। मशहूर फ़ारसी इतिहासकार फ़रिश्ता ने जायसी के पद्मावत को इतिहास माना है।
 
आज के इतिहासकार जायसी के पद्मावत की अनेक घटनाओं में विरोधाभास और इतिहास विरोधी तारीख़ों का उल्लेख करते हुए इसे इतिहास से अलग करते हैं। इतना अवश्य है कि आधुनिक इतिहासकारों के मत से तीन तथ्य ऐतिहासिक हैं; रतनसेन का चित्तौड़ में राजतिलक, ख़लजी का चित्तौड़ पर आक्रमण और चित्तौड़ में स्त्रियों द्वारा जौहर।
 
अब प्रश्न यह उठता है कि हमारे देश में एक ऐसी हृदय विदारक घटना घटी और इस घटना को जन-जन में कभी न भूलने वाली एक याद के रूप में कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने लोकप्रिय कर दिया तो क्या कोई गुनाह कर दिया? हम सभी भारतवासियों को अपनी संस्कृति और गौरवशाली इतिहास पर गर्व तभी तो होगा जब इसको हमें बार-बार याद दिलाया जाएगा।
 
एक नज़र फ़िल्म के कथानक पर भी डाली जाय- एक कल्पना तो जायसी ने की जिसके कारण पद्मिनी की कथा आज इतनी महत्वपूर्ण हो गई कि भारतवासी उसे अपनी अस्मिता और गौरव से जोड़ने लगे। दूसरी कल्पना फ़िल्म के लेखक ने की जिसमें अल्लाउद्दीन ख़लजी को स्वप्न में पद्मिनी के साथ विहार करते सोच लिया जो कि मनोवैज्ञानिक ढंग से संभव हो सकती है लेकिन समाज के लिए पूर्णत: नकारात्मक सोच है। कल्पना असीम होती है लेकिन कल्पना की अभिव्यक्ति सदैव सीमित और संयमित होती है।
 
आज ख़लजी के स्वप्न में पद्मिनी को दिखाने का प्रयास है तो कल रावण के स्वप्न में सीता को दिखाने का प्रयास किया जाएगा और बहाना मनोविज्ञान और कला का लिया जाएगा। मेरा नज़रिया इस संबंध में स्पष्ट है लेकिन फ़िल्म के निर्माता लीला भंसाली के साथ हाथापाई या फ़िल्म के सेट को क्षति पहुँचाना भी ग़लत है। अदालत में जन हित याचिका एक सही और क़ानूनी रास्ता है।
 
© आदित्य चौधरी
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| 14 जनवरी, 2014
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; दिनांक- 22 मई, 2017
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आपसी रिश्तों में या समाज में
मुझसे एक प्रश्न पूछा गया: आत्मबोध, स्वजागरण, अन्तरचेतना, प्रबोधन (एन्लाइटेनमेन्ट) आदि शब्दों से क्या तात्पर्य है ?
शिकायतों और उलाहनों के प्रति
 
यदि हमारा दृष्टिकोण
मेरा उत्तर: आपका व्यक्तित्व दूसरों का अनुसरण और नक़ल करके बना है। जाने-अनजाने ही न जाने कितने व्यक्तियों के व्यक्तित्व की विशेषताएँ, आदतें, हाव-भाव आदि आपके भीतर आ जाती हैं। आपको जब भी जहाँ भी कोई बात प्रभावित करती है तो वह आपके व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाती है। किसी के; पैदल चलने का ढंग, बोलने का ढंग, गाने का ढंग आदि से आप इस क़दर प्रभावित रहते हैं कि उसे अपना लेते हैं।
उन्हें गंभीरता से लेकर
 
स्वयं का विश्लेषण करने का रहता है
इसी तरह आपके सोचने की प्रक्रिया और सोचने का ढंग स्वयं का न होकर किसी न किसी के द्वारा निर्देशित होता है। आपको बचपन से ही यह सिखाया जाता है कि आप क्या सोचें जबकि सिखाया यह जाना चाहिए कि आप कैसे सोचें। अनेक शिक्षाओं, अनुशासनों, उपदेशों, नसीहतों आदि के चलते आप एक निश्चित घेरे में सोचने का कार्य करते हैं। आपका दिमाग़, सूचनाओं और ज्ञान का गोदाम बन जाता है जिसमें किसी नए विचार का अंकुर फूटना नामुमकिन हो जाता है।
तो निश्चित ही हम ख़ुद को
 
एक सकारात्मक व्यक्ति के रूप में
हालत यहाँ तक हो जाती है कि किस बात पर करुणा करनी है और किस पर क्रोध, यह भी दिमाग़ में कूट-कूट कर भर दिया जाता है। कोई धर्म और कोई जाति दे दी जाती है जिसको आपको मानना होता है। आपको बताया जाता है कि क्या सही है और क्या ग़लत। इस सब से बनता है आपका व्यक्तित्व। यह व्यक्तित्व आपका अपना नहीं है। आपके दिमाग़ में नए विचार नहीं हैं। ईश्वर, अल्लाह या जीसस का अनुसरण, आपने अपने मन से नहीं चुना है। आप एक जीवित रोबॉट भर हैं।
देख सकते हैं
 
यह महान व्यक्तियों का एक ऐसा गुण भी जो उनको महान बनाता है
आप जाग्रत तब होते हैं जब आप अपने दृष्टिकोण से सब कुछ देखते हैं। अपने जीवन के निर्णायक और निर्माता आप स्वयं होते हैं। आपके विचार स्वयं आपके विचार होते हैं। आप स्वतंत्रता के मुक्त आकाश के नीचे अपनी धरती पर मुक्त विचरण करते हैं। दूसरे के कहे या लिखे को बिना विचारे मानते नहीं हैं। जब आपको पता होता है कि आप कितने स्वतंत्र हैं और कितने परतंत्र। आप ईश्वर को स्वयं ही समझने का प्रयास करते हैं, न कि दूसरों से पूछते फिरते हैं। आप अपने से छोटों और संतान पर अपने विचार लादते नहीं है बल्कि उन्हें भी स्वयं निर्णय लेने में सक्षम बनाते हैं।
 
इसी को कहते हैं एनलाइटेनमेंन्ट और इसके लिए ध्यान धरना बहुत लाभदायक है।
 
© आदित्य चौधरी
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| 14 जनवरी, 2014
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; दिनांक- 19 मई, 2017
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कभी-कभी ऐसा लगता है कि विश्वास वह भ्रम है जो अब तक टूटा नहीं...
प्रिय मित्रो! जैसा कि आपने चाहा... मैंने एक कहानी और लिखी है। ज़रा देखिए कैसी है!
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'एक रात अचानक'
| 14 जनवरी, 2014
 
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नवम्बर का महीना था। प्रदीप एक सुनसान रास्ते पर अकेला पैदल चला जा रहा था। दिमाग़ में लगातार एक के बाद एक चिंताएँ घुमड़ रहीं थीं। हलकी ठंड होने पर भी पता नहीं उसे क्यों पसीना अा रहा था ? तेज़ चलने की वजह से या तनाव के कारण।
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‘मैं इतनी तेज़ क्यों चल रहा हूँ , क्या चक्कर है ?… कहीं जल्दी तो पहुँचना है नहीं मुझे… धीरे चलता हूँ।’
उम्रे दराज़ मांग के लाए थे चार रोज़
 
दो FB पे कट गए दो बिग बज़ार में
उसने चाल धीमी कर दी।
‘काहे का कृषि प्रधान देश है भारत… दहेज़ प्रधान है… दहेज़ प्रधान… शादी तय हो गई और पैसा पास में एक भी नहीं…’
वो धीमी आवाज़ में बड़बड़ाया।
‘रितिका को अच्छी से अच्छी पढ़ाई करवाई और अब शादी में कम से कम दस लाख रुपए ख़र्च होंगे। अरे भैया! चार लाख तो उस मंगल के बच्चे ने लगा दिए, अपनी बेटी की शादी में और वो तो बस टॅम्पो चलाता है टॅम्पो।’
 
‘कहाँ से लाऊँ इतना पैसा ?… कैसे बनेंगे ज़ेवर ?… कैसे होगी दावत ?… मेरी ससुराल वालों के पास भी कुछ नहीं है। अब क्या होगा… हे ईश्वर कुछ करो।’
 
तभी सड़क के किनारे पेड़ के नीचे, हनुमान जी का छोटा सा मंदिर दिखा। उसने रुक कर सिर झुकाकर हाथ जोड़ दिए। सर उठाया तो ऐसा लगा कि कुछ दूरी पर कोई हलचल है। थोड़ा चलने पर देखा कि दो लड़के एक लड़की को घसीटते हुए। सड़क से एक तरफ़ की गलीनुमा रास्ते की तरफ़ ले जा रहे हैं।
 
प्रदीप एक पेड़ के पीछे छुप गया और सड़क पार से झांककर उनको देखने लगा। एक लड़के के हाथ में देशी तमंचा जैसा कुछ था। पेड़ को पीछे छोड़ वो थोड़ा और आगे गया तो अंदाज़ा हुआ कि लड़की का मुँह, साफ़ी-गमछा जैसे कपड़े से बंधा था। लड़की घिसटते समय पैर पटक-पटक कर बहुत विरोध कर रही थी और इसीलिए लड़कों की लातों की ठोकर से पिट भी रही थी।
 
प्रदीप का मन बेचैन हो रहा था। मुँह सूखने लगा, दिल ज़ोरों से धड़क रहा था।
‘क्या करूँ-क्या करूँ-क्या करूँ ?… अगर मैं इनसे लड़ा और मर गया…? तो फिर मेरी बेटी का क्या होगा। कौन करवाएगा शादी?… दस लाख रुपए?… हो सकता है ये लड़की ही ग़लत हो?… भाड़ में जाने दो… घर पहुँचूँ… नहीं-नहीं मुझे ज़रूर लड़ना चाहिए… बचाना चाहिए लड़की हो।’
 
बमुश्किल बीस-पच्चीस क़दम की दूरी पर ही सब कुछ घटने वाला था। तरह-तरह की हल्की आवाज़ें आ रही थीं जिनमें गालियाँ ज़्यादा थीं।
 
‘शायद लड़की से बलात्कार और फिर उसे मार ही देंगे। सबूत थोड़े ही छोड़ेंगे।’
तभी प्रदीप कि नज़र पास ही पड़े साइकिल के टूटे करियर पर पड़ी। उसने करियर उठा लिया।
 
‘लड़के ज़्यादा तगड़े तो हैं नहीं… लेकिन मैं भी तो पचास का हो गया… पता नहीं झगड़े का क्या नतीजा निकले…’
 
फिर वही सोच… ‘रितिका की शादी… बीवी का क्या होगा… बलात्कार… ख़ून… रितिका…शादी… बलात्कार…धक-धक, धक-धक, धक-धक, धक-धक…
 
प्रदीप की पकड़ साइकिल के टूटे करियर पर कसती जा रही थी। वो आगे बढ़ा तो देखा कि एक लड़का तो लड़की को ज़मीन पर गिरा कर क़ाबू करने की कोशिश कर रहा है और दूसरा तमंचा लेकर खड़ा रखवाली जैसी कर रहा है।
 
प्रदीप उस गली में मुड़कर आगे की ओर गया और जैसे ही तमंचे वाला प्रदीप की ओर घूमा उसने तमंचे वाले हाथ पर साइकिल का करियर दे मारा। तमंचा गिर गया। करियर का दूसरा वार उसी लड़के के मुँह पर हुआ, उसके मुँह से ख़ून निकल आया और वो गली में अन्दर भाग गया। अब तक लड़की दूसरे लड़के की पकड़ से छूट चुकी थी और उसने पीछे से उस लड़के के लम्बे बालों को पकड़ लिया अब प्रदीप के लिए उस लड़के की पिटाई करना बहुत आसान हो गया।
 
लड़की ने बाल छोड़े तो तमंचा उठा लिया। लड़के में एक घूँसा ऐसा लगा कि वह बेहोश ही हो गया। लड़की लातों से उस लड़के को मारे जा रही थी। प्रदीप बुरी तरह हाँफ़ रहा था लेकिन विजेता की तरह।
 
उस लड़की की जॅकेट थोड़ी सी फट गई थी और ओठों के किनारे से ख़ून बह रहा था। लड़की किसी अच्छे घर की लग रही थी। प्रदीप ने उस लड़की को उसके घर पहुँचाया तो पता चला कि वो तो शहर के बड़े रईस घनश्याम चड्ढा की इकलौती बेटी है। चड्ढा साहब बहुत सज्जन व्यक्ति थे। शहर में उनकी नेकनामी के क़िस्से मशहूर थे। जब चड्ढा साहब को पता चला कि प्रदीप, बेटी की शादी के लिए पैसों के इन्तज़ाम के लिए परेशान है तो उन्होंने प्रदीप के बहुत मना करने के बावजूद उसकी बेटी की शादी की पूरी ज़म्मेदारी अपने ऊपर लेली।
 
शादी के दिन रितिका के पास एक सुन्दर लड़की आई और उससे बोली।
“हाय रितिका! आय एम सलोनी… मुझसे दोस्ती करोगी, मैं तुम्हारे पापा की फ़ॅन हूँ। ही एज़ वैरी ब्रेव मॅन।”
पास खड़े प्रदीप ने कहा “लेकिन सलोनी से ज़्यादा ब्रेव नहीं… हाहाहा”
सब साथ-साथ हँस पड़े।


(आज 'ज़फ़र' होते शायद तो यही लिखते)
© आदित्य चौधरी
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| 14 जनवरी, 2014
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; दिनांक- 18 मई, 2017
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प्राचीन काल के दक्षिण भारत में ग्राम प्रशासन, पंचायत और प्रजातांत्रिक व्यवस्था के बेहतरीन नमूने हैं।
उत्तिरमेरूर की राजनैतिक व्यवस्थाएं चोंकाने वाली हैं। यह दक्षिण भारत में तमिलनाडु राज्य के कांचीपुरम ज़िले का एक पंचायती ग्राम है। चोल राज्य के अंतर्गत ब्राह्मणों (अग्रहार) के एक बड़े ग्राम में दसवीं शताब्दी के पश्चात अनेक शिलालेख स्थानीय राजनीति पर प्रकाश पर प्रकाश डालते हैं।
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| 7 जनवरी, 2014
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आम आदमी को परिभाषित करने और आम आदमी की समस्याओं को प्रस्तुत करने के काम जितने बढ़िया तरह से महान कार्टूनिस्ट आर॰ के॰ लक्ष्मण ने किया है उतना किसी ने नहीं।
इसके बदले में उनको लगभग हरेक सरकार द्वारा ऐसा न करने की चेतावनी दी गई और मुक़दमे चले।
अब दिल्ली सदन में आम आदमी की एक नई परिभाषा की गई है जो मेरी समझ के परे है। कहा गया है कि 'वह हरेक आदमी, आम आदमी है जो कि ईमानदार सरकार चाहता है चाहे वह ग्रेटरकैलाश और डिफ़ेन्स कॉलोनी का ही रहने वाला क्यों न हो।'
ईमानदार सरकार तो सभी चाहते हैं। मैंने किसी करोड़पति या अरबपति को कभी यह कहते नहीं सुना कि वे बेईमान सरकार चाहते हैं।
तो क्या अब 5-10 करोड़ के बंगले में रहने वाला भी आम आदमी है? बी॰ऍम॰डब्ल्यू और मर्सडीज़ का स्वामी भी आम आदमी है?
मैंने पहले लिखा था कि सत्ता की एक अपनी भाषा और संस्कृति होती है। जो सत्ता में आने के बाद अपनानी होती है। यदि ऐसा न करें तो ब्यूरो क्रेट ऐसा करवा देते हैं क्योंकि जनता को ग़लतफ़हमी चाहे कुछ भी हो लेकिन देश तो ब्यूरो क्रेट ही चला रहे हैं।
[[सत्ता का रंग -आदित्य चौधरी|-और ज़्यादा विस्तार से पढ़ना चाहें तो भारतकोश पर मेरा एक लेख पढ़ें-]]
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|  [[चित्र:Shershah-suri.jpg|250px|center]]
| 7 जनवरी, 2014
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ईमानदारी और सादगी की सार्थकता
विनम्रता के साथ ही है
यदि हमें अपनी ईमानदारी और सादगी
का अहंकार है तो ये भौंडे आडम्बरों
के अलावा और कुछ नहीं है।
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| [[चित्र:Imaandari-aur-sadgi.jpg|250px|center]]
| 6 जनवरी, 2014
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हिन्दू, मुसलमान, ईसाई आदि उसे कहते हैं जो कि अपने धर्म के धार्मिक और आध्यात्मिक रूप-स्वरूप में आस्था रखता है।
कट्टर हिन्दू, कट्टर मुसलमान, कट्टर ईसाई उसे कहते हैं जो अपने धर्म के व्यावसायिक और राजनैतिक रूप-स्वरूप में आस्था रखता है।
यदि ईमानदारी और गंभीरता से विचार करेंगे तो यह समझ में आ जाएगा कि धार्मिक या साम्प्रदायिक कट्टरता हमें अध्यात्म और धर्म दूर ले जाती है।
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| [[चित्र:Hindu-musalman-sikh-isai.jpg|250px|center]]
| 6 जनवरी, 2014
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शेक्सपीयर तो अपने मशहूर नाटक हॅमलेट में "Frailty, thy name is woman." लिख कर जन्नत नशीं हो गए। मेरी तो हमेशा की तरह शामत आई हुई है, कि व्याख्या करो इसकी। सवाल इस वाक्य का अर्थ करने का नहीं है बल्कि पूछा गया है कि क्या यह सही है?
जैसे रामचरितमानस की एक-एक चौपाई के 24-24 अर्थ आजकल होते हैं वैसे ही शेक्सपीयर के नाटकों के मशहूर संवादों के भी कई-कई अर्थ होते हैं। हॅमलेट के ही एक और संवाद "To be or not to be" के अनुवाद का भी एक ज़माने में बड़ा हल्ला रहा। इसका अनुवाद रांगेय राघव जी ने भी किया, अमृतराय जी ने भी किया। कुल मिला कर ये तय हुआ कि मामला आत्महत्या करने का है कि 'करें या नहीं'।
...ख़ैर...
"Frailty, thy name is woman." का अर्थ तो ये निकलता है कि 'कमज़ोरी' तेरा ही नाम औरत है लेकिन नाटक हॅमलेट में इसका संदर्भ है कि औरत कमज़ोर होने के कारण ही बेवफ़ा हो जाती है, तो इसका अर्थ किया गया "बेवफ़ाई, तेरा ही दूसरा नाम औरत है।"
असल में यह बात आदमी पर भी लागू होती है। आदमी का भी दूसरा नाम बेवफ़ाई ही है। पुरुष के लिए स्त्री को और स्त्री के लिए पुरुष को वफ़ादार बनाने का काम प्रकृति ने तो किया नहीं है। नर और मादा एक दूसरे के लिए वफ़ादार हों ऐसा नियम प्रकृति का नहीं है, तो फिर ये निष्ठा और वफ़ा कहाँ से आयी?
असल में बात यह है कि जो पुरुष, इंसान पहले और बाद में पुरुष होगा वही किसी स्त्री के प्रति निष्ठा या वफ़ा निभाएगा। जो स्त्री इंसान पहले और बाद में स्त्री होगी वही किसी पुरुष के प्रति निष्ठा या वफ़ा निभाएगी।
जब हम अपने आप को आदमी या औरत पहले समझते हैं और इंसान बाद में, तो हम इंसानियत के नियमों से दूर हट जाते हैं। जब हम इंसानियत से ही दूर हट गए तो फिर वफ़ा का क्या काम? इसी तरह किसी आदमी या औरत के कमज़ोर होने अनेक संभावनाएँ हो सकती है लेकिन इंसान कभी कमज़ोर नहीं होता। ऐसा लगता है कि स्त्री-पुरुष के बीच सच्ची वफ़ादारी की वजह केवल इंसानियत ही होती है। बाक़ी और वजहें तो समाज का डर या किसी स्वार्थ आदि से प्रभावित होने की संभावना रखती हैं।
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| [[चित्र:Shekspiear-facebook-update.jpg|250px|center]]
| 6 जनवरी, 2014
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राजा महाराजाओं के काल में तो यह कहा जाना सही रहा होगा-
"यथा राजा तथा प्रजा" याने जैसा राजा वैसी प्रजा।
लेकिन लोकतंत्र में तो अपना राजा, हम चुनते हैं।
अब तो इसका ठीक उल्टा याने
"यथा प्रजा तथा राजा" ही सही बैठता है।
नेता जैसे भी हैं, उनके आचरण के लिए,
वे नहीं, बल्कि सिर्फ़ और सिर्फ़ हम ज़िम्मेदार हैं।
प्रजातांत्रिक व्यवस्था में अयोग्य नेताओं को गाली देने का अर्थ है,
अपने आप को ही गाली देना।
कभी यह सोचने में भी समय लगाना चाहिए कि क्या कारण है कि नेता दिन ब दिन 'अनेता' होते जा रहे हैं ?
कहीं इसका कारण ये तो नहीं कि हम में ही कुछ गड़बड़ है ?
ज़रा हम अपने गरेबाँ में भी झांक कर देखें...
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| [[चित्र:Raja-maharajao-text-facebook.jpg|250px|center]]
| 28 दिसम्बर, 2013
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यदि पड़ोस से रोते हुए बच्चे के रोने की आवाज़ से आपके ध्यान, पूजा या स्तुति जैसे कार्य में बाधा नहीं पड़ती और आपका ध्यान भंग नहीं होता, तो आप किसी संन्यासी, साधु, सन्त या धर्मात्मा की श्रेणी में नहीं बल्कि दुष्टात्मा की श्रेणी में आते हैं।
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| 28 दिसम्बर, 2013
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प्रताप सिंह कैरों पचास के दशक में पंजाब के मुख्यमंत्री रहे। उनके शासन का उदाहरण आज भी दिया जाता है और महान नेता सरदार वल्लभ भाई पटेल से उनकी तुलना की जाती है। उस दौर में भी अनाज की कालाबाज़ारी ज़ोरों पर थी। देश नया-नया आज़ाद हुआ था। राज्य सरकारों के पास संसाधन कम थे। जमाख़ोरों और दलालों ने अनाज गोदामों में बंद किया हुआ था, मंहगाई आसमान को छूने लगी थी, जनता त्राहि-त्राहि कर रही थी। किसी के समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाना चाहिए। कैरों ने एक गंभीर जनहितकारी चाल चली... केन्द्र सरकार और रेल मंत्रालय की सहायता से कई मालगाड़ियाँ रेलवे स्टेशनों पर जा पहुँची जिनके डब्बे सील बंद थे और उनपर विभिन्न अनाजों के नाम लिखे हुए थे। शहरों में आग की तरह से ये ख़बर फैल गयी कि सरकार ने 'बाहर' से अनाज मंगवा लिया है। इतना सुनना था कि जमाख़ोरो ने अपना अनाज बाज़ार में आनन-फानन में बेचना शुरू कर दिया। मंहगाई तुरंत क़ाबू में आ गई।
प्रिय मित्रो! जैसा कि आप चाहते हैं, मैंने एक कहानी और लिखी है। ज़रा देखिए कैसी है!
एक सप्ताह बाद मालगाड़ियाँ ज्यों की त्यों वापस लौट गईं क्योंकि वे ख़ाली थीं।... यदि सरकार ठान ले तो देश की तरक्की के लिए हज़ार-लाख तरीक़े निकाल सकती है लेकिन...
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| [[चित्र:Pratap-singh-kairo-facebook-update.jpg|250px|center]]
| 14 दिसम्बर, 2013
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माता, पिता, पुत्री और गुरु को हर जगह महिमा मंडित किया जाता है। पुत्र, शिष्य, पत्नी और पति को नहीं... ऐसा क्यों?
हो सकता है कि इसका कारण ये हो कि माल-मत्ता तो सब पुत्र, शिष्य, पत्नी और पति के हाथ पड़ता है...
अब बाक़ी बचे माता-िपता, पुत्री और गुरु तो इन बेचारों की प्रशंसा करते रहो तो 'सैट' रहेंगे... ऐसा है क्या ?
ये हो भी सकता है... और नहीं भी... !
एक नज़र इस नज़रिये पर भी-
पत्नी अपने पति को माँ से अधिक लाड़ और स्नेह, बहन से अधिक साथ, पुत्री से अधिक सम्मान और गुरु से अधिक शिक्षा देकर भी
अपने पति से सार्वजनिक प्रशंसा की चार लाइनों के लिए महरूम क्यों ? पति अपनी पत्नी को पिता से अधिक लाड़ और स्नेह, भाई से अधिक सुरक्षा, पुत्र से अधिक उसके ममत्व की संतृप्ति और गुरु से अधिक शिक्षा देकर भी अपनी पत्नी से सार्वजनिक प्रशंसा की चार लाइनों के लिए महरूम क्यों ? पति या पत्नी की प्रशंसा में लिखने में हमें क्या हिचक है ? कोई शर्म है क्या ?
एक बात और है जो लोग यारी-दोस्ती में ज़्यादा मशग़ूल रहते हैं। उनको शायद यह नहीं मालूम कि पति-पत्नी, आपस में सबसे बड़े राज़दार होते हैं। इसलिए सबसे बड़े दोस्त भी। ये दोस्ती ऐसी होती है जो कि रिश्ता ख़त्म होने पर भी एक-दूसरे के राज़ बनाए रखती है, खोलती नहीं।
वो बात अलग है कि जब ये उन राज़ों को खोलने पर आते हैं तो वो राज़ भी खुल जाते हैं जिनको हम भगवान से भी छुपाते हैं लेकिन सामान्यत: ऐसा होता नहीं है।
याद रखिए अपनी जान तो हमारे लिए कोई भी दे सकता है लेकिन अपना जीवन तो एक दूसरे को पति-पत्नी ही देते हैं।


यह सही है कि 'माता-पिता ही हमारे साक्षात् भगवान हैं'।
‘दाना-पानी’
लेकिन यह भी मत भूलिए कि पति-पत्नी भी एक दूसरे के लिए
साक्षात न सही तो 'मिनी भगवान' हैं।
ऐसा नहीं है कि पति-पत्नी के रिश्ते का आधार केवल संतान है।
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| 14 दिसम्बर, 2013
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'पॉज़टिव थिंकिंग' याने सकारात्मक सोच के संबंध में कुछ लोग सिखाते हैं कि अपने प्रयत्न के अच्छे परिणाम के संबंध में आश्वस्थ रहना ही पॉज़िटिव थिंकिंग है। कुछ लोग इस शिक्षा को सीख भी जाते हैं। यह सकारात्मक सोच नहीं है बल्कि अति आशावादी होना है।
सकारात्मक सोच है परिणाम की प्रतीक्षा के प्रति सहज हो जाना। याने बिना बेचैनी के प्रतीक्षा करना। प्रतीक्षा में सहज होना ही सकारात्मक सोच है।
वैसे तो जीवन बहुत कुछ है लेकिन जीवन एक प्रतीक्षा भी है। सभी को किसी न किसी की प्रतीक्षा है और प्रतीक्षा करने में बेचैनी होना सामान्य बात है। बहुत कम लोग ऐसे हैं जो प्रतीक्षा करने में बेचैन नहीं होते। असल में हम जितने अधिक नासमझ होते हैं उतना ही प्रतीक्षा करने में बेचैन रहते हैं। बच्चों को यदि हम देखें तो आसानी से समझ सकते हैं कि किसी की प्रतीक्षा करने में बच्चे कितने अधीर होते हैं। धीरे-धीरे जब उम्र बढ़ती है तो यह अधीरता कम होती जाती है क्योंकि उनमें 'समझ' आ जाती है। इसी 'समझ' को समझना ज़रूरी है क्योंकि जब तक हम यह नहीं समझेंगे कि हमारे जीवन में प्रतीक्षा का क्या महत्त्व है और इसका हमारे जीवन पर क्या प्रभाव होता है तब तक हम सकारात्मक सोच नहीं समझ सकते।
सीधी सी बात है कि सकारात्मक सोच के व्यक्ति बहुत कम ही होते हैं। राजा हो या रंक इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। साधु-संत भी ईश्वर के दर्शन की या मोक्ष की प्रतीक्षा में रहते हैं। यहाँ समझने वाली बात ये है कि हम प्रतीक्षा कैसे कर रहे हैं। यदि कोई संत मोक्ष की प्रतीक्षा में है और वह सहज रूप से यह प्रतीक्षा नहीं कर रहा तो उसका मार्ग ही पूर्णतया अर्थहीन है। यदि और गहराई से देखें तो मोक्ष को 'प्राप्त' करने जैसा भी कुछ नहीं है। मोक्ष तो 'होता' और 'घटता' है, बस इसे समझना ज़रूरी है। जीवन में सहजता को प्राप्त हो जाना ही मोक्ष को प्राप्त हो जाना है।
प्रतीक्षा के प्रति सहज भाव हो जाना ही हमें सकारात्मक सोच वाला व्यक्ति बनाता है। असल में प्रतीक्षा के प्रति निर्लिप्त हो जाना ही सकारात्मक सोच है। जो कि निश्चित रूप से कठिन है।
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| [[चित्र:Positive-thinking-facebook-post.jpg|250px|center]]
| 13 दिसम्बर, 2013
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बहादुर उसे माना गया, जिसने अपने डर को प्रदर्शित नहीं होने दिया
सहिष्णु वह माना गया, जिसने अपनी ईर्ष्या को प्रदर्शित नहीं होने दिया
विनम्र वह माना गया, जिसने अपने अहंकार को प्रदर्शित नहीं होने दिया
सुन्दर वह माना गया, जिसने अपनी कुरूपता को प्रदर्शित नहीं होने दिया
चरित्रवान वह माना गया, जिसने अपने दुश्वरित्र को प्रदर्शित नहीं होने दिया
ईमानदार वह माना गया, जिसने अपनी बेईमानी को प्रदर्शित नहीं होने दिया
बुद्धिमान वह माना गया, जिसने अपनी मूर्खताओं को प्रदर्शित नहीं होने दिया
सफल शिक्षक वह माना गया, जिसने अपने अज्ञान को प्रदर्शित नहीं होने दिया
अहिंसक और दयालु वह माना गया, जिसने अपनी हिंसा को प्रदर्शित नहीं होने दिया
सफल प्रेमी/प्रेमिका, वे माने गए जिन्होंने अपनी पारस्परिक घृणा को प्रदर्शित नहीं होने दिया


किन्तु महान केवल वह ही है जिसने अपने 'उन कारणों' के पीछे छुपी कमज़ोरियों को भी नहीं छुपाया
वो हमारे किराएदार थे। उनका अपना कोई नहीं था। बस हमें ही अपना मानते थे। पन्द्रह साल से हमारे साथ थे। घर के बज़ुर्ग जैसे हो गए थे। हम उन्हें काका कहते थे। सुबह शाम का दूध सब्ज़ी लाने का काम ख़ुद ही करते रहते। हमारे मना करने पर भी नहीं मानते थे। शुरू-शुरू में तो अपना खाना ख़ुद ही बनाते थे लेकिन बाद में मां ने उनका खाना भी बनाना शुरू कर दिया था। बाद में पापा ने उनसे किराया लेना बंद कर दिया तो ख़ुद ही किराए के बराबर पैसे घर के किसी किसी सामान पर ख़र्च कर देते थे।
'जिन कारणों' के चलते वह प्रशंसनीय और सफल हुआ।
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| 13 दिसम्बर, 2013
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मुझे गर्व है कि मैं, चौधरी दिगम्बर सिंह जी का बेटा हूँ। आज 10 दिसम्बर को उनकी पुन्य तिथि है। पिताजी स्वतंत्रता सेनानी थे। 4 बार लोकसभा सांसद रहे (तीन बार मथुरा, एक बार एटा) और 25 वर्ष लगातार, मथुरा ज़ि. सहकारी बैंक के अध्यक्ष रहे । सादगी का जीवन जीते थे। कभी कोई नशा नहीं किया और आजीवन पूर्ण स्वस्थ रहे। राजनैतिक प्रतिद्वंदी ही उनके मित्र भी होते थे। उनकी व्यक्तिगत निकटता पं. नेहरू, लोहिया जी, शास्त्री जी, पंत जी, इंदिरा जी, चौ. चरण सिंह जी, अटल जी, चंद्रशेखर जी आदि से रही।
सभी विचारधारा के लोग उनकी मित्रता की सूची में थे चाहे वह जनसंघी हो या मार्क्सवादी। सभी धर्मों का अध्ययन उन्होंने किया था। जातिवाद से उनका कोई लेना-देना नहीं था। वे बेहद 'हैंडसम' थे। उन्हें पहली संसद 1952 में मिस्टर पार्लियामेन्ट का ख़िताब भी मिला। संसद में दिए उनके भाषणों को राजस्थान में सहकारी शिक्षा के पाठ्यक्रम में लिया गया। उनकी सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह थी कि जब वे संसद में बोलते थे तो अपनी पार्टी के लिए नहीं बल्कि निष्पक्ष रूप से किसानों के हित में बोलते थे। इस कारण उनको केन्द्रीय मंत्रिमंडल में लेने से नेता सकुचाते थे कि पता नहीं कब सरकार के ही ख़िलाफ़ बोल दें। �उन्होंने ज़मींदार परिवार से होने के बावजूद अपना खेत उन्हीं को दान कर दिए थे जो उन्हें जोत रहे थे। सांसद काल में उन्होंने राजा-महाराजाओं को मिलने वाले प्रीवीपर्स के ख़िलाफ़ वोट दिया था जब कि उन्हें उस वक्त लाखों रुपये का लालच दिया गया था। उन जैसा नेता और इंसान होना अब मुमकिन नहीं है। वे मेरे हीरो थे, गुरु थे और मित्र थे। आज भारतकोश के कारण विश्व भर में मुझे पहचान और सम्मान मिल रहा है किंतु मेरी सबसे बड़ी पहचान यही है कि मैं उनका बेटा हूँ।
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| 10 दिसम्बर, 2013
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फाँसी ग़रीब का जन्मसिद्ध अधिकार है क्या ?
कभी हिसाब-किताब लगाएँ और फाँसी लगने वालों के आँकड़े देखें तो पता चलेगा कि इस सूची में शायद ही कोई भी अरबपति हो। शायद एक भी नहीं...
ये कैसा संयोग है कि कोई भी अमीर व्यक्ति फाँसी के योग्य अपराध नहीं करता? यदि यह माना भी जाय कि सीधे-सीधे अपराध में शामिल होने की संभावना किसी बड़े पूँजीपति की नहीं बनती तो भी षड़यंत्रकारी की सज़ा भी तो वही है जो अपराध कारित करने वाले की है।
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| 6 दिसम्बर, 2013
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'सन्यास' ही एकमात्र
ऐसा 'पलायन' है
जिसे समाज ने प्रतिष्ठा दी हुई है
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| 24 नवम्बर, 2013
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भारत का सर्वोच्च पद्म सम्मान, भारतरत्न से सम्मानित व्यक्ति, सम्मान देने वालों को यदि मूर्ख बता रहा है तो और कुछ हो न हो यह तो निर्विवाद ही है कि जिस व्यक्ति को यह सम्मान दिया गया है वह इस सम्मान से बड़ा है। निश्चित ही वैज्ञानिक श्री राव की गंभीर प्रतिष्ठा को किसी पद्म पुरस्कार की अपेक्षा नहीं है।
कोई भी सम्मान या पुरस्कार यदि किसी कुपात्र को दिया जाता है तो उन व्यक्तियों की प्रतिष्ठा को बहुत धक्का पहुँचता है जिनको कि वास्तविक योग्यता के आधार पर पुरस्कृत या सम्मानित किया जाता है। यहाँ उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं है पर सभी जानते हैं कि भारतरत्न मिलने वालों की सूची में कुछ नाम ऐसे भी हैं जो इस सम्मान के योग्य नहीं हैं।
सचिन तेन्दुलकर नि:संदेह हमारे देश की शान हैं। उनका क्रिकेट के मैदान में आना ही हमें स्फूर्ति से भर देता था। सचिन को सम्मानित या पुरस्कृत करना हम सभी के लिए अपार हर्ष का विषय है लेकिन हॉकी के महान खिलाड़ी ध्यानचंद जी से सचिन की तुलना करना व्यर्थ है। मेजर ध्यानचंद को भारतरत्न सम्मान से सम्मानित किया जाना तो एक बहुत ही सामान्य सी बात है। सही मायने में तो मेजर ध्यानचंद की प्रतिमा, संसद, राजपथ, इंडियागेट आदि पर लगनी चाहिए।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सारी दुनिया हिटलर से दहशत खाती थी। जर्मनी में किसी की हिम्मत नहीं थी कि हिटलर का प्रस्ताव ठुकरा दे। जर्मनी में, हिटलर के सामने, हिटलर के प्रस्ताव को ठुकराने वाले मेजर ध्यानचंद ही थे?
ध्यानचंद जी भारत के एकमात्र खिलाड़ी हैं जो भारत में ही नहीं पूरे विश्व में, अपने जीवनकाल में ही किंवदन्ती ('मिथ') बन गए थे। यह सौभाग्य अभी तक किसी खिलाड़ी को प्राप्त नहीं है।
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| 24 नवम्बर, 2013
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मेरे एक पूर्व कथन पर पाठकों ने प्रश्न किए हैं कि कैसे पता चले किसी की नीयत का ?
मैंने लिखा था- "दोस्त का मूल्याँकन करना हो या जीवन साथी चुनना हो, तो... केवल और केवल उसकी 'नीयत' देखनी चाहिए। नीयत का स्थान सर्वोपरि है। बाक़ी सारी बातें तो महत्वहीन हैं। जैसे... रूप, रंग, गुण, शरीर, धन, प्रतिभा, शिक्षा, बुद्धि, ज्ञान आदि..."
मेरा उत्तर प्रस्तुत है:-
/) मेरा अभिप्राय केवल इतना था कि हम, रूप, रंग, गुण, शरीर, धन, प्रतिभा, शिक्षा, बुद्धि, ज्ञान आदि... के आधार पर ही चुनाव करते हैं। किसी को यदि चुन रहे हैं तो हमें उसकी नीयत को अनदेखा नहीं करना चाहिए। हम यह जानते हुए भी कि नीयत बुरी है, अनदेखा करते हैं जिसका कारण बहुत सीधा-सादा होता है। जब हम अपनी नीयत के बारे में सोचते हैं कि क्या हमारी नीयत अच्छी है? जो हम किसी की नीयत को बुरा समझें!
/) हम मित्र या जीवन साथी को चुनते या मूल्याँकन करते समय नीयत के अलावा कुछ और ही देखते हैं। नीयत देखने से तो हम बचते हैं क्योंकि हम स्वयं ही नीयत के कौन से अच्छे होते हैं जो उसकी नीयत देखें... वैसे भी दूसरे कारण अधिक रुचिकर और आकर्षक होते हैं। अक्सर सुनने में आता है "मुझे कोई भाई साब टाइप का पति नहीं चाहिए" या "मुझे कोई बहन जी टाइप की पत्नी नहीं चाहिए।"
/) सीधी सी बात है भई! अच्छी नीयत वाला लड़का तो 'भाई साब टाइप' ही होगा और अच्छी नीयत वाली लड़की भी 'बहन जी टाइप' ही होगी। (मुझे मालूम है कि मैं इन पंक्तियों को लिखकर, बहुतों को नाराज़ कर रहा हूँ...)। इन 'भाई साब' और 'बहन जी' को बड़ी मुश्किल से दोस्त और जीवन साथी मिलते हैं। लेकिन ये बहुत सुखी और आनंदित जीवन जीते हैं।
/) क्या ये सच नहीं है कि यदि हमें बिल्कुल अपनी नीयत जैसा ही कोई व्यक्ति मिल जाय तो हम ही सबसे पहले उससे दूर भागेंगे क्योंकि हम अपनी नीयत की अस्लियत जानते हैं। यही सोचकर हम समझौता कर लेते हैं कि चलो हमसे तो अच्छी नीयत का ही होगा। दूसरे की नज़र में हम कितने भी अच्छी नीयत वाले बनें लेकिन हमें काफ़ी हद तक अपना तो पता होता है।
/) जिस क्षण हमारे मन में यह प्रश्न आता है कि फ़लाँ व्यक्ति सत्यनिष्ठ है या नहीं ? समझ लीजिए कि उसके सत्यनिष्ठ होने की संभावना डावांडोल है। किसी ईमानदार व्यक्ति की ईमानदारी पर कभी प्रश्नचिन्ह नहीं होता। जिस पर प्रश्न चिन्ह हो वह नीयत का साफ़ नहीं।
... लेकिन ज़रूरत क्या पड़ी दूसरे की नीयत जाँचने की ? यदि हमारी नीयत साफ़ है तो सामने वाले की नीयत कैसी भी हो, क्या फ़र्क़ पड़ता है ? अक्सर दूसरे की नीयत पर शक़ करने का अर्थ ही यह है कि हमारी नीयत में खोट है। जब बात लेन-देन की हो तो वह व्यापार की भाषा है, दोस्ती या प्यार की नहीं।
/) और अंत में एक बात और... कि यह सरासर झूठ होता है कि हमें फ़लां की ख़राब नीयत का पता नहीं था। असल में हम जानते हुए भी अनदेखा करते हैं।
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| 17 नवम्बर, 2013
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यूँ तो बहुत से कारण हैं, जिनसे मनुष्य, जानवरों से भिन्न है- जैसे कि हँसना, अँगूठे का प्रयोग, सोचने की क्षमता आदि... लेकिन वह कुछ और ही है जिसने मनुष्य को हज़ारों वर्ष तक चले, दो-दो हिम युगों को सफलता पूर्वक सहन करने की क्षमता प्रदान की।
प्रकृति की यह देन है 'पसीना'।
मनुष्य, जानवरों को भोजन बनाने की चाह में जानवरों से ज़्यादा दूरी तक भाग पाता था। पसीना बहते रहने के कारण मनुष्य का शारीरिक तापमान नियंत्रित रहता था। जानवर पसीना न बहने के कारण बहुत अधिक दूरी तक भाग नहीं पाते थे। पसीना न बहने से उनके शरीर का बढ़ता तापमान उनको रुकने पर मजबूर कर देता था और उन्हें हर हाल में लम्बे समय के लिए रुक जाना होता था।
जानवरों में मुख्य रूप से घोड़ा एक ऐसा जानवर है जो पसीना बहाने में लगभग मनुष्य की तरह ही है।
इसलिए शिकार करने में, घोड़ा मनुष्य का साथी भी बना और वाहन भी।
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| 13 नवम्बर, 2013
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जब बुद्धि थी तब अनुभव नहीं था अब अनुभव है तो बुद्धि नहीं है।
जब विचार थे तब शब्द नहीं थे, अब शब्द हैं तो विचार नहीं हैं।
जब भूख थी तब भोजन नहीं था अब भोजन है तो भूख नहीं है।
जब नींद थी तब बिस्तर नहीं था अब बिस्तर है तो नींद नहीं है।
जब दोस्त थे तो समझ नहीं थी अब समझ है तो दोस्त नहीं हैं।
जब सपने थे तब रास्ते नहीं थे अब रास्ते हैं तो सपने नहीं हैं।
जब मन था तो धन नहीं था अब धन है तो मन नहीं है।
जब उम्र थी तो प्रेम नहीं था अब प्रेम है तो उम्र नहीं है।
एक पुरानी कहावत भी है न कि-
जब दांत थे तो चने नहीं थे अब चने हैं तो दांत नहीं हैं।
और अंत में-
जब फ़ुर्सत थी तो फ़ेसबुक नहीं था अब फ़ेसबुक है तो...
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| 11 नवम्बर, 2013
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'प्रेम' व्यक्ति से होता है और उसकी यथास्थिति में ही होता है
जबकि 'श्रद्धा' किसी की प्रतिष्ठा के प्रति होती है
जो कि प्रतिष्ठा का क्षय होने से समाप्त हो जाती है
इसीलिए प्रेम शाश्वत और सर्वश्रेष्ठ है
श्रद्धा क्षणभंगुर है
और निश्चित ही, प्रेम की भांति
परम पद प्राप्त नहीं कर सकती
इसलिए किसी व्यक्ति से या ईश्वर से 'प्रेम' करने वाले
सदैव तृप्त और मस्त रहते हैं
जबकि 'श्रद्धा' रखने वाले
सदैव सशंकित और असमंजस से घिरे हुए...
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| [[चित्र:Shraddha-facebook-post.jpg|250px|center]]
| 6 नवम्बर, 2013
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दोस्ती 'हो' जाती
और
दुश्मनी 'की' जाती है
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| 6 नवम्बर, 2013
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अक्सर सुनने में आता है-
असफलता और विपरीत परिस्थिति उसी व्यक्ति को अधिक मिलती है, जिसमें इनका का सामना करने की क्षमता होती है।
इसका अर्थ क्या है? क्या ऐसा होने में भाग्य या नियति की कोई भूमिका है?
नहीं ऐसा नहीं है।
इसका कारण सीधा-सादा है-
बुद्धिमान, योग्य, प्रतिभावान, समर्थ और सक्षम व्यक्ति अधिकतर अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए प्रयासरत रहते हैं। जिससे, असफलता और संघर्ष का सामना होना सामान्य सी प्रक्रिया है।
शेष तो "संतोषी सदा सुखी" मंत्र को अपनाकर सामान्य जीवन व्यतीत करते हैं।
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| 6 नवम्बर, 2013
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मनुष्य को सभ्यता की शिक्षा दी जाती है क्योंकि समाज को मात्र 'सभ्य' लोग चाहिए।
वे 'भद्र' हैं या नहीं, इससे समाज को कोई लेना-देना नहीं है। जबकि भद्र होना ही सही मायने में इंसान होना है। 'सभ्य' होना आसान है लेकिन 'भद्र' होना मुश्किल है। हम अभ्यास से सभ्य हो सकते हैं भद्र तो विरले ही होते हैं।
सभ्य जन वे हैं जो समाज के सामने सभ्यता से पेश आते हैं, सधा और सीखा हुआ एक ऐसा व्यवहार करते हैं, जिससे यह मान लिया जाता है कि 'हाँ यह व्यक्ति सभ्य है'।
'भद्र' वह है, जो एकान्त में भी सभ्य है, जो शक्तिशाली होने पर भी सभ्य है, जो आपातकाल में भी सभ्य है, जो अभाव में भी सभ्य है, जो भूख में भी सभ्य है, जो कृपा करते हुए भी सभ्य है, जो अपमानित होने पर भी सभ्य है, जो विद्वान होने पर भी सभ्य है, जो निरक्षर होने पर भी सभ्य है...
जिस तरह धर्म और जाति किसी दूसरे की उपस्थिति में ही अस्तित्व में आते हैं उसी तरह सभ्यता भी किसी दूसरे के आने पर ही जन्म लेती है। भद्रता के लिए किसी की उपस्थिति की आवश्यकता नहीं है।
अभद्रता वह स्थिति है जहाँ हम सोचते हैं- 'यहाँ कौन देख रहा है मुझे... ऐसा करने में क्या बुराई है?' जैसे ही हम ऐसा सोचते हैं, वैसे ही हम अभद्र हो जाते हैं।
</poem>
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| 5 नवम्बर, 2013
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प्रत्येक धर्म के अनुयायी, ईश्वर से प्रार्थना करते हैं।
यह भी चाहते हैं कि ईश्वर उनकी प्रार्थना सुने तो फिर
ईश्वर से प्रार्थना भी ऐसी ही करनी चाहिए जिसे कि ईश्वर सुने...
राज़ की बात ये है कि केवल एक ही प्रार्थना ऐसी है जिसे वह सुनता है-
"हे ईश्वर ! सभी का कल्याण कर।"
इसके अलावा बहुत सी प्रार्थनाएँ ऐसी हैं जो ईश्वर ने कभी नहीं सुनी और न ही कभी सुनेगा, जैसे कि-
"हे ईश्वर मेरा भला कर।" या फिर "उसका बुरा कर" आदि-आदि।
कारण सीधा सा है-
ईश्वर पक्षपाती नहीं हो सकता और जो पक्षपाती है वह ईश्वर कैसे हो सकता है?
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| 5 नवम्बर, 2013
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कल श्री सुनील आचार्य (Sunil Acharya) मुझसे मिलने मेरे घर आए थे। वे स्टेट बैंक में कार्यरत हैं और मेरे स्कूल के समय से परिचित हैं। स्कूल में वे मेरे सीनियर थे, शायद 3-4 वर्ष।
वे उस सादगी और सहजता से जीवन जीते हैं जिसे प्राप्त करने के लिए मेरे जैसे कूढ़-मगज तरसते रहते हैं। हमने लगभग 2 घन्टे बातें की। पारिवारिक बातों के अलावा हमने कुछ और चर्चा भी कीं, जैसे कि दर्शन आदि। मैंने अपनी विद्वता झाड़ने की आदत पर काफ़ी लगाम रखते हुए उनसे बातें करने का प्रयास किया। वे सभी बातें बहुत सावधानी से सुनते रहे। यह उनका गुण है।
मैं एक वर्ष तक गाँव में पेड़ के नीचे झोंपड़ी बनाकर और मात्र दो वस्त्र पहन कर रहा लेकिन फिर भी अपने भीतर के ज़मीदार, सामंत और सूडो-विद्वान का पूरी तरह वध करने में असफल हुआ... (ये अभी भी, कभी-कभी मेरे पास आकर, मुझे डराते रहते हैं)।
सुनील जी से मेरी मुलाक़ात लम्बे-लम्बे अंतरालों के बाद होती है, जैसे कि 5 वर्ष 10 वर्ष। उनसे मिलकर हमेशा अच्छा लगता है। मेरे जैसे लोग न जाने कितने पूर्वाग्रह, कुण्ठा, और हीन-श्रेष्ठ भावनाओं से ग्रसित रहते हैं और सुनील जी जैसे लोग सहजता की प्रेरणा बने रहते हैं।
मेरे मित्रों की सूची में पूर्व प्रधानमंत्रियों का नाम भी है लेकिन मुझे जिन लोगों का मित्र होने में गर्व है उनमें से एक सुनील जी हैं। कुछ और नाम अगर लूँ तो मेरे बचपन के सहपाठी, आशुतोष चतुर्वेदी (Ashutosh Chaturvedi) का नाम तुरंत ही मन में कौंधता है...ख़ैर...
सुनील जी तो अपना स्कूटर स्टार्ट करके चले गए...
लेकिन, हे आदित्य चौधरी ! तुम कब सुधरोगे, कब ???
</poem>
| 31 अक्तूबर, 2013
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विकसित होने के क्रम में हमने बहुत कुछ पाया पर कुछ खोया भी...


ज्ञानी बढ़ रहे हैं, विचारक कम हो रहे हैं
पाँच साल पहले अपनी पेंशन भी घर में देने की ज़िद की तो पापा राज़ी नहीं हुए। काका भी नहीं माने और अपनी पेंशन वाले अकाउंट में मुझे नॉमिनी बना दिया। मैं दस साल का था जब काका हमारे यहाँ किराएदार की हैसियत से रहने अाए थे। हमेशा कहते कि तेरी शादी देखकर ही मरूँगा और तेरी शादी में ज़िन्दगी में पहली बार दारू पीकर नाचूँगा भी। जिस दिन मेरी नौकरी लगी उस दिन काका ख़ूब ख़ुश हुए और ख़ूब रोए। मैं दूसरे शहर जो जा रहा था।
व्यापारी बढ़ रहे हैं, उद्यमी कम हो रहे हैं
कलाविज्ञ बढ़ रहे हैं, कलाकार कम हो रहे हैं
परिवार बढ़ रहे हैं, समाज कम हो रहे हैं
विज्ञ बढ़ रहे हैं, वैज्ञानिक कम हो रहे हैं
सम्प्रदायी बढ़ रहे हैं, धार्मिक कम हो रहे हैं
मनुष्य बढ़ रहे हैं, इंसान कम हो रहे हैं


</poem>
काका की तबियत ख़राब है यह सुनकर मैं छुट्टी लेकर घर आया था। अगले ही दिन वो चल बसे। उनका अंतिम संस्कार भी मैंने ही किया। रात देर तक उनके बारे में बात होती रहीं। सुबह जल्दी उठकर छत पर गया तो देखा कि कबूतर, फ़ाख़्ता और अन्य चिड़ियों का झुन्ड छत की मुंडेर पर बैठा था। मैं समझ गया और पास के टिन शेड में से दाना निकाल कर छत पर बखेर दिया तो सभी पंछी दाने पर टूट पड़े और मज़े से दाना खाने लगे। हाँ इतना ज़रूर था कि जिस तरह से काका के साथ पंछी घुल-मिल गए थे वैसे मेरे पास नहीं आ रहे थे। एक दूरी बनाकर दाना खा रहे थे।
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| 29 अक्तूबर, 2013
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महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आंइस्टाइन ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात कही थी-
"आगे आने वाले समय में, प्रत्येक विषय विज्ञान हो जाएगा"
याने इसे यूँ कहें कि प्रत्येक विषय के प्रश्न का उत्तर, विज्ञान ही देगा और प्रत्येक विषय के अध्ययन का माध्यम भी विज्ञान ही होगा । हम किसी भी विषय का अध्ययन करेंगे तो विज्ञान तक जा पहुँचेंगे ।
बात तो बहुत सही कही उन्होंने लेकिन हुआ कुछ और ही...


आज के समय में प्रत्येक विषय 'व्यापार' हो गया है
मैं सोचने लगा कि मैं तो कल चला जाऊँगा। मां अपने घुटनों की वजह से छत पर नहीं आ सकतीं, पापा कभी भी आठ बजे से पहले नहीं उठते तो फिर कल से दाना कौन खिलाएगा? तभी मेरा फ़ोन बजने लगा। फ़ोन से पता चला कि मेरी छुट्टी दो दिन और बढ़ा दी गई है। मैंने सोचा कि चलो दो दिन और… लेकिन फिर दो दिन बाद दाना कौन डालेगा?
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| 26 अक्तूबर, 2013
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आग का उपयोग सीखने के बाद मनुष्य ने, नर-नारी के बीच, कार्य की प्रकृति के अनुसार बँटवारा किया। नर ने भोजन की तलाश को चुना तो नारी ने भोजन पकाना, संग्रहीत करना और निवास को सुविधाजनक बनाना। नारी के, नौ महीने बच्चे को गर्भ में रखने के दायित्व के चलते, यह बँटवारा एक सामान्य नियम बनने लगा।
इस बँटवारे से नर-नारी में कार्य  और दायित्व की आवश्यकता के अनुसार शारीरिक भेद भी विकसित होने लगे। नर, बलिष्ठ तो नारी सुन्दर और  कोमल होने लगी। इससे पहले अन्य प्रजातियों की तरह ही नर-नारी भी समान रूप से सक्रिय होने के कारण शारीरिक रूप से भी लगभग समान शक्तिशाली ही थे और भोजन की तलाश में व्यस्त रहते थे। बँटवारे से दोनों के पास अतिरिक्त समय भी होने लगा। जिसका उपयोग नर-नारी ने अपनी आवश्यकता और रुचि के अनुसार किया।
बच्चों को बोलना सिखाने के कारण नारी की भाषा सीखने-सिखाने क्षमता नर से अधिक हो गयी। नर के अधिक घूमने फिरने के कारण वह गणित, दर्शन और विज्ञान में उलझ गया।
यह एक मुख्य कारण था जिसके कारण मनुष्य अन्य प्रजातियों के मुक़ाबले में बेहतर और सभ्य हो सका जबकि अन्य प्रजातियाँ आज भी नर-मादा में कार्य का बँटवारा करने में अक्षम हैं और विकास क्रम की धारा से वंचित।
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| [[चित्र:Aag-ka-upyog-facebook-post.jpg|250px|center]]
| 26 अक्तूबर, 2013
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सुख की तलाश न होती तो कोई ईश्वर की तलाश भी न करता
सुख की तलाश में ही ईश्वर की स्तुति की जाती है यदि सभी सुखी होते तो भला ईश्वर को कौन याद करता,
लगता है कि इसीलिए ईश्वर ने सबको सुखी नहीं बनाया कि कम से कम उसे याद तो करें। 
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| [[चित्र:Sukh-ki-talash-facebook-post.jpg|250px|center]]
| 24 अक्तूबर, 2013
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समय-समय पर समाज सुधारक, विभिन्न धर्मों के कुछ ऐसे संस्कारों का विरोध करते रहे हैं, जो संस्कार, नारी और समाज के प्रति किसी भी अर्थ में उचित नहीं थे जैसे कि सती प्रथा। ये विरोध, समाज में बहुत से अच्छे परिवर्तनों का कारण भी रहे हैं।
मैंने अक्सर यह अनुभव किया है कि आधुनिकता, नारी मुक्ति, नर-नारी समान अधिकार, मानवता वाद आदि जैसे मसलों के चलते कुछ अति उत्साही जन, विभिन्न धर्मों से संबंधित कुछ संस्कारों का विरोध करते रहते हैं जिसकी कोई आवश्यकता शायद नहीं है। ऐसा ही एक संस्कार करवा चौथ है।
अनेक अन्य धर्मों की तरह ही हिन्दू धर्म में भी बहुत से संस्कार काफ़ी हद तक वैज्ञानिक और समाज हितैषी हैं।
कुछ समय पहले तक भारत में सम्मिलित परिवारों का प्रचलन था (वैसे कुछ आज-कल भी है)। किसी भी परिवार में घर की बहू को विशेष महत्व देने के लिए ही यह करवा चौथ का व्रत प्रचलन में आया। कम से कम वर्ष में एक दिन पूरे परिवार का ध्यान बहू पर ही होता है, कि उसने भोजन किया या नहीं या पानी पिया या नहीं कि उसके पास ज़ेवर-नये कपड़े हैं या नहीं...
आज कल तो नये जोड़ो में पति-पत्नी दोनों ही व्रत रखने लगे हैं। यदि गृहस्थ आश्रम के महत्व को हम मानते हैं और विवाह को आवश्यक, तो इससे जुड़े उत्सव को मनाने में बुराई क्या है। हाँ इतना ज़रूर करें कि अपनी समझ से इन त्योहारों में कुछ अच्छे फेर-बदल कर लें जैसे कि हमारे घर में 'अहोई अष्टमी' का व्रत बेटे के लिए ही नहीं बल्कि बेटी के लिए भी रखा जाता है। पता नहीं कि आप क्या सोचते हैं लेकिन मुझे तो करवा चौथ प्रेम का त्योहार लगता है, नारी ग़ुलामी का तो कहीं से नहीं...
...ये बंधन तो प्यार का बंधन है...
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| 23 अक्तूबर, 2013
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महान दार्शनिक श्री जे. कृष्णमूर्ति से किसी ने पूछा "मैं अपने माता पिता को अहसास दिलाना चाहता हूँ कि
मैं उनका सम्मान करता हूँ, मुझे क्या करना चाहिए ?"
कृष्णमूर्ति ने उत्तर दिया "सिर्फ़ इतना करें कि आप अपने माता पिता का अपमान करना बंद कर दें,
वे हमेशा अपने आप को सम्मानित ही महसूस करेंगे।"
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| [[चित्र:J-krishnamurti-facebook-post.jpg|250px|center]]
| 20 अक्तूबर, 2013
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जब प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक, कुमार गंधर्व जी से कहा
गया कि शास्त्रीय संगीत के सुनने वाले धीरे-धीरे कम
होते जा रहे हैं लेकिन आपके गायन की लगन में कोई
कमी नहीं आ रही, ऐसा कैसे ? तो उन्होंने उत्तर दिया
कि मैं तो अंतिम बचे हुए एक श्रोता के लिए भी ऐसे ही
गाऊँगा क्योंकि एक अंतिम श्रोता तो अवश्य ही रहेगा
और वही मेरा सबसे पहला श्रोता भी है, मेरा ईश्वर
</poem>
| [[चित्र:Kumar-gandharva-facebook-post.jpg|250px|center]]
| 19 अक्तूबर, 2013
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<poem>
जिसका आदर हम दिल से करते हैं , गुरु केवल वही होता है । जिसका हम आदर नहीं करते , वह गुरु कैसे हो सकता है ? इसलिए जगह-जगह यह लिखना कि-
"गुरु का आदर करना चाहिए"
कितना अर्थहीन है !
ठीक इसी तरह ‘ममतामयी’ मां अथवा ‘आज्ञाकारी’ पुत्र आदि विशेषण युक्त शब्दों का भी कोई अर्थ नहीं है। यदि मां होगी तो ममतामयी तो होगी ही अन्यथा कुमाता होगी, पुत्र तो वही है जो आज्ञाकारी हो, अन्यथा तो कुपुत्र ही होगा।
</poem>
| [[चित्र:Guru-aur-aadar-facebook-post.jpg|250px|center]]
| 17 अक्तूबर, 2013
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<poem>
यदि आप ‘कुछ अंतराल’ के लिए ख़ुद को व्यस्त बताते हैं, तब तो ठीक है...
यदि आप, अपनी अनवरत व्यस्तता के संबंध में एक व्यापक घोषणा करते रहते हैं
कि आप व्यस्त हैं तो आज के समय में आप उपहास के ही पात्र हैं क्योंकि आज के समय में तो सभी व्यस्त हैं। व्यस्तता तो अब अप्रासंगिक हो गई है।
</poem>
| [[चित्र:Antral-facebook-post.jpg|250px|center]]
| 6 अक्तूबर, 2013
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<poem>
कुछ दिन पहले गाँधी जी के लेख को लेकर कुछ मुद्दे उठे थे। आज प्रसंग वश मैं इस संबंध में कुछ बातें बता रहा हूँ।...
कुछ लोग गाँधी जी को ही प्रत्येक नकारात्मक घटना के लिए दोषी ठहरा रहे हैं। मैं कुछ बातें बिन्दुवार लिख रहा हूँ।
/).गाँधी जी देश के बँटवारे के ख़िलाफ़ थे। उन्होंने तो यहाँ तक कहा था कि चाहे मेरे शरीर के दो टुकड़े हो जाएँ पर देश के दो टुकड़े नहीं होंगे। इसके लिए उन्होंने चाहा कि जिन्हा को ही प्रधानमंत्री बना दिया जाय। इसके लिए नेहरू जी ने अपना विरोध, पटेल जी के मुख से कहलवाया। पटेल जी ने गाँधी जी को राज़ी किया। यदि गाँधी जी अपनी बात पर अड़े रहते तब भी कांग्रेसी नेता उनकी एक न चलने देते। बहुत कम ही पाठक इस तथ्य को जानते होंगे कि भारत के धार्मिक आधार पर बँटवारे के मुद्दे पर जिन्हा के साथ सारवकर जी भी सहमत थे।
/). जब जिन्हा एक वर्ष में ही चल बसे तब नेहरू जी ने कहा कि मुझे क्या पता था कि ऐसा होगा वरना मैं तो जिन्हा को ही प्रधानमंत्री बनने देता।
/). गाँधी जी की अहिंसा में कहीं कोई कायरता जैसी बात नहीं थी। कश्मीर के लिए उन्होंने कहा कि कश्मीर को बचाने के लिए भारत का बच्चा बच्चा क़ुर्बान हो जाए तब भी मुझे दु:ख नहीं होगा। जबकि पटेल जी ने कहा कश्मीर को पाकिस्तान को देदो। (दोनों ही अपनी-अपनी जगह ठीक थे)।
/). नेताजी सुभाष कांग्रेस में पट्टाभि सीता रमैया (गाँधी जी के उम्मीदवार) को हराकर अध्यक्ष बने। उनकी और गाँधी जी के वैचारिक और नीतिगत मतभेद मूल रूप से थे। गाँधी जी ने सीताभिरमैया की हार को अपनी हार बताया। नेताजी ने इस्तीफ़ा दे दिया। अपना राजनैतिक अस्तित्व बचाने के लिए तो भगवान राम ने सीता को वनवास दे दिया वे सीता के साथ वन नहीं गए जबकि सीता महल के आराम को छोड़कर राम के साथ वनवास गई थी।
/). काँग्रेस में, जिन्हा को बढ़ाने का काम भी गाँधी जी ने किया क्यों कि सर सैयद, अंग्रेज़ों के समर्थन में थे। अंंग्रेज़ों के समर्थक तो गोखले जी भी थे जो कि गाँधी जी के गुरु भी थे। गोपाल कृष्ण गोखले अँग्रेज़ो को विश्व की सर्वश्रेष्ठ जाति मानते थे किन्तु गाँधी जी ने विश्व मंच पर अंग्रेज़ों की इस छवि को धूल-धूसरित कर दिया।
/). किसी भी देश के किसी भी हिंसक आंदोलन को वैश्विक पटल पर समर्थन मिलना मुश्किल होता है। यह बात गाँधी जी अच्छी तरह समझ गए थे। इसीलिए अहिंसक आंदोलन चलाए गये। जैसे कि थॉरो से प्रेरित सविनय अवज्ञा। 1857 में क्राँति की जो असफल कोशिश हुई उसका प्रभाव गाँधी जी पर और सभी तत्कालीन विचारकों पर गहरा था। हमारे हिंसक आंदोलन इतनी ताक़त नहीं रखते थे कि क्रांति हो जाती।
/). चौरी-चौरा काण्ड सन 1922 में हुआ। चौरी-चौरा का समय इंग्लॅन्ड में जॉर्ज पंचम के शासन का समय था, उस समय इंग्लॅन्ड में लिबरल पार्टी का प्रधानमंत्री डेविड लॉयड जॉर्ज था और वॉयसरॉय था लॉर्ड रीडिंग (रफ़स आइज़क)। प्रधानमंत्री जॉर्ज भारत और कनाडा को आज़ाद करने के पक्ष में था लेकिन जॉर्ज पंचम तो पक्के तौर पर भारत में अंग्रेज़ी शासन की नींव को जमा रहा था। इसीलिए राजधानी कोलकाता से दिल्ली कर दी गई थी। वॉयसरॉय कोई प्रभावशाली व्यक्ति नहीं था और प्रधानमंत्री को भी इंग्लॅन्ड में विरोधों का सामना करना पड़ रहा था। यह क्रांति के लिए सही समय नहीं था।
/). द्वितीय विश्व युद्ध को कन्जरवेटिव पार्टी के प्रधानमंत्री चर्चिल ने जीत तो लिया लेकिन चुनाव हार गया। इसके बाद लेबर पार्टी का एटिली प्रधानमंत्री बना। यह भारत के लिए बहुत अच्छा रहा। एटिली भारत की आज़ादी के पक्ष में था। यह सही समय था।
/). सन् बयालीस में जब अंग्रज़ों के ख़िलाफ़ गाँधी जी ने भारत छोड़ो और करो या मरो आंदोलन शुरू किया तो हिन्दू महासभा, मार्क्सवादी पार्टी और जिन्हा की मुस्लिम लीग ने इसका विरोध किया। जिन्हा ने अंग्रेज़ों से समझौता करके फ़ौज में बड़े पैमाने पर मुस्लिमों की भर्ती कराई। भारत छोड़ो आंदोलन के विरोध के कई अलग-अलग कारण थे जिनमें से कोई भी देश हित में नहीं था। जैसे कि छोटी बड़ी रियासतों के राजा अपने राज्य के जाने के भय से इस आंदोलन का विरोध किया।
/). आज जब हम 70-80 साल बाद, स्वतंत्रता आंदोलन को सामान्य रूप से देखते हैं तो हमें ऐसा लगता है कि उस समय सभी नेता केवल देश हित में लगे थे लेकिन जब बहुत गहराई से जानने का प्रयास करते हैं तो ये जानकर बड़ा सदमा लगता है कि भारत की आज़ादी से अधिक रुचि इस बात में थी कि आज़ाद भारत के शासन में हमारा हिस्सा क्या होगा। जैसे आज़ादी न हुई कोई लूटी हुई जायदाद हो गयी।
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| 2 अक्तूबर, 2013
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केन्द्रीय विद्यालय मथुरा में मेरे 'ज़माने' के छात्र-सहपाठी जमा हो रहे हैं (अध-बूढ़े हैं सब...)। 14 सितम्बर को... पवन चतुर्वेदी, सुनील आचार्य, संदीपन नागर और, और भी मित्रों ने याद किया है...
दोस्तों की याद में-
दोस्त वो निठल्ला होता है जिसके साथ बिना काम-काज की बात किए सारा दिन गुज़ारा जा सके।
दोस्त वो रिश्ता होता है जिसकी बहन की शादी में पूरी रात काम करने के बाद भी उसके और अपने
मां-बाप से डांट पड़ती है।
दोस्त वो राहत होता है जो महबूब की बेवफ़ाई में टिशू-नॅपकिन से लेकर ज़बर्दस्ती खाना खिलाने
का काम भी करता है।
दोस्त वो खड़ूस होता है जो हमें चैन से दारू और सिगरेट नहीं पीने देता।
दोस्त वो ड्रामा होता है जो हमारी बीवी के सामने अपनी इमेज हमेशा, भारतभूषण और प्रदीप कुमार जैसी बनाकर
रखता है जिससे हम अपनी बीवी को प्रेम चौपड़ा और रंजीत नज़र आते हैं
दोस्त वो पंगा होता है जो हमारी लड़ाई में अपना दांत तुड़वा लेता है या अपनी में हमारा...
दोस्त वो कलेस होता है जिसकी पजॅसिवनॅस की वजह से हमारा महबूब हमेशा कहता रहता है-
"उसी के पास जाओ! वोई है तुम्हारा दोस्त-गर्लफ़्रॅन्ड-बॉयफ़्रॅन्ड सबकुछ सबकुछ..."
दोस्त वो शॅर्लॉक होम्स होता है जो हमारी परेशानियों का कोई न कोई हल चुपचाप और बिना अहसान दिखाए करता रहता है।
दोस्त वो याड़ी होता है जिसे एक बार नज़र लग जाय तो उस पर न्यौछावर करने के लिए सारी दुनिया की दौलत भी कम पड़ जाती है...
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| 13 सितम्बर, 2013
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एक और फ़ेसबुक वार्ता:


Ajit Dixit बापू जी के बारे में नई पीढ़ी में बहुत सारी भ्रांतियां प्रचलित हो गई हैं. उनके बारे में अभद्र और मनगढ़ंत टिप्पणियां पढ़कर मन खिन्न हो जाता है. अधकचरा ज्ञान रखने वालों को मेरी सलाह है की पहले उनके बारे में पूरी जानकारी करें फिर टिप्पणी करें।
अगले दिन सुबह मुझे उठने में देर हो गई। जल्दी-जल्दी मैं छत पर पहुँचा तो देखा कि पंछी नहीं थे। मैं सोच में पड़ गया कि आख़िर माजरा क्या है! छत पर ध्यान से देखा तो कहीं-कहीं दाने पड़े थे। दाने वाला डिब्बा देखा तो ऐसा लगा कि दाना कम हुआ है। बड़े आश्चर्य की बात थी। अगले दिन मैं जल्दी जागकर छत पर छुप कर बैठ गया। धीरे-धीरे पंछी इकट्ठा होने लगे। तभी हमारे पड़ोसियों के यहाँ काम करने वाली बाई की छोटी बेटी मुंडेर से कूदी और भागकर दाने के डिब्बे से दाने निकाल कर पंछियों को डालने लगी। पंछी उससे इतने ज़्यादा घुले-मिले लगे कि मैं आश्चर्य से देखता ही रह गया।


Aditya Chaudhary: अजित जी आपने सही कहा, किसी भी विराट व्यक्तित्व की आलोचना करना आसान है, किन्तु उस जैसा बनना बहुत कठिन है। गाँधी जी की तरह यदि सभी महापुरुष और नेता अपने व्यक्तिगत जीवन को भी सार्वजनिक करने की हिम्मत करते, तभी उनका सही मूल्यांकन होता। किन्तु किसी ने ऐसा किया नहीं...। महात्मा गाँधी के अनेक कार्यों का अनुसरण करने का प्रयास किया गया और ज़ाहिर है कि आलोचना भी की गई लेकिन कोई भी गाँधी जी की तरह से अपने व्यक्तिगत जीवन की गतिविधियों को सार्वजनिक करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया।
इसका मतलब ये था कि ये लड़की रोज़ाना काका के साथ दाना डालने आती थी और अब काका नहीं रहे तो अपना फ़र्ज़ निबाह रही है। मेरे आँखें पानी से धुंधला गईं। साथ ही मुझे काका की पेंशन के रुपयों का सदुपयोग भी समझ में आ गया।


राकेश जैन जी Shreesh Rakesh Jain ने मेरे फ़ोटो पर कमेंट किया है कि मेरी मुद्रा गंभीर है... उनके सम्मान में मैंने उत्तर दिया है...
© आदित्य चौधरी
जैन साहिब बड़ी अजीब बात यह है कि मुद्रा और रूप दोनों ही शब्द ऐसे हैं जिनका अर्थ पैसा है। रूप शब्द से ही रुपया शब्द बना है। प्राचीन काल में मुद्रा-विशेषज्ञ को रूप-कला विज्ञ कहते थे।
यहाँ तक कि अर्थ का अर्थ भी वही है...। आपको मेरी मुद्रा गंभीर लगी! यह सोचकर मैं बड़ा खु‌श हूँ। उम्मीद है कि कभी न कभी मुद्रा (पैसा) भी मुझे लेकर गंभीर हो जाएगी। मैं तो चाहे जब गंभीर मुद्रा बना लेता हूँ लेकिन मुद्रा (पैसा) मुझे लेकर कभी गंभीर नहीं होती...
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| 15 अगस्त, 2013
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; दिनांक- 11 मई, 2017
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अफ़साना निगार याने कहानीकार और उपन्यासकार इतिहास को अपने मन मुताबिक़ घुमा-फिरा देते हैं। इसके बाद फ़िल्मकार तो और भी ज़्यादा मसाले का तड़का लगा देते हैं। मुग़ल इतिहास में अकबर की पत्नी, जो सलीम (जहाँगीर) की मां भी थी, का नाम जोधाबाई, कहीं भी नहीं है। अकबरनामा, जहाँगीरनामा कहीं भी देख लीजिए आपको जोधाबाई नाम जहाँगीर की पत्नी के रूप में मिलेगा, अकबर की पत्नी का नहीं। ये हिंदू रानी जो अकबर की पत्नी बनी आमेर (जयपुर) के राजा बिहारी मल (भारमल) की पुत्री थी। इसका नाम हरका, रुक्मा या हीरा था। शादी के बाद नाम हो गया था मरियम-उज़-ज़मानी। कर्नल टॉड के लोक-कथाओं पर आधारित इतिहास और मुग़ल-ए-आज़म फ़िल्म के कारण जोधाबाई नाम, अकबर की रानी के रूप में प्रसिद्ध हो गया।
मित्रो! मेरी एक और कहानी पढ़ें-
फ़तेहपुर सीकरी आगरा से 22 मील दक्षिण में, मुग़ल सम्राट अकबर का बसाया हुआ भव्य नगर जिसके खंडहर आज भी अपने प्राचीन वैभव की झाँकी प्रस्तुत करते हैं। अकबर से पूर्व यहाँ फ़तेहपुर और सीकरी नाम के दो गाँव बसे हुए थे जो अब भी हैं। इन्हें अंग्रेज़ी शासक ओल्ड विलेजेस के नाम से पुकारते थे। सन् 1527 ई. में चित्तौड़-नरेश राणा संग्रामसिंह और बाबर ने यहाँ से लगभग दस मील दूर कनवाहा नामक स्थान पर भारी युद्ध हुआ था जिसकी स्मृति में बाबर ने इस गाँव का नाम फ़तेहपुर कर दिया था। तभी से यह स्थान फ़तेहपुर सीकरी कहलाता है। कहा जाता है कि इस ग्राम के निवासी शेख सलीम चिश्ती के आशीर्वाद से अकबर के घर सलीम (जहाँगीर) का जन्म हुआ था। जहाँगीर की माता मरियम-उज़्-ज़मानी (आमेर नरेश बिहारीमल की पुत्री) और अकबर, शेख सलीम के कहने से यहाँ 6 मास तक ठहरे थे जिसके प्रसादस्वरूप उन्हें पुत्र का मुख देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।
 
सन् 1584 में एक अंग्रेज़ व्यापारी अकबर की राजधानी आया, उसने लिखा है− 'आगरा और फ़तेहपुर दोनों बड़े शहर हैं। उनमें से हर एक लंदन से बड़ा और अधिक जनसंकुल है। सारे भारत और ईरान के व्यापारी यहाँ रेशमी तथा दूसरे कपड़े, बहुमूल्य रत्न, लाल, हीरा और मोती बेचने के लिए लाते हैं।' सन् 1600 के बाद शहर वीरान होता चला गया हालांकि कुछ नए निर्माण भी यहाँ हुए थे। और जानने के लिए भारतकोश पर जाएँ...
‘इंदिरा गांधी का हॅलीकॉप्टर’
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|  [[चित्र:Fatehpur-sikri-facebook-post.jpg|250px|center]]
“हम कब तक पहुँचेंगे ? अभी कितनी देर और…?”
| 18 जुलाई, 2013
“बस एक घंटे में पहुँच जाएँगे।” पति ने कार चलाते हुए जवाब दिया।
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“क्या उम्र होगी पापा की?” पति ने फिर पूछा
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“एट्टी फ़ोर… तीन दिन बाद ही तो उनका बर्डडे है और आज ही वो हमें छोड़ गए।” इतना कहकर, कार की खिड़की की तरफ़ शाम के लाल सूरज को देखने लगती है।
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“हाँऽऽऽ वोई मैं सोच रहा था।” पति ने कहा
महान स्वतंत्रता सेनानी रानी लक्ष्मीबाई (रानी झांसी) के संबंध में भारतकोश के कुछ सुधी और जागरूक पाठक गणों ने अपने प्रश्न और शंकाएँ जताई हैं।
इस संबंध में उनकी शंकाओं का निवारण करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। चूँकि हम भारतीयों में इतिहास लिखने की परंपरा नहीं रही, इसलिए ये झंझट सामने आते हैं। आइए कुछ तारीख़ों पर ग़ौर करें...
राजा झांसी गंगाधर राव के मनु (बाद में लक्ष्मीबाई) से विवाह का वर्ष लगभग सभी उल्लेखों में 1842 मिलता है। महान स्वतंत्रता सेनानी रानी लक्ष्मीबाई के जन्म का वर्ष अधिकतर 1835 ही मिलता है। इस हिसाब से विवाह की उम्र रही मात्र 7 वर्ष...? लेकिन कई स्थानों पर यह 13-14 वर्ष भी है।
गंगाधर राव का कोई जीवन चरित नहीं मिलता और ही जन्म की तारीख़... लेकिन फिर भी ये सोच कर कि वह राजा था... तो कम से कम विवाह की और मरने की तारीख़ तो सही होगी... विवाह 1842 में और गंगाधर की मृत्यु हुई 1853 में...। महारानी लक्ष्मीबाई की वीरगति प्राप्त करने की तारीख़ भी दो हैं 17 जून और 18 जून।
गंगाधर राव स्त्री पोशाक पहन कर नाटकों में हिस्सा लेता था या नहीं इसका फ़ैसला करने वाला मैं कौन होता हूँ। जो कुछ भी इतिहासकारों ने लिखा और मैंने पढ़ा वही मैं भी आप तक पहुँचाने का प्रयत्न करता हूँ...
एक बात जो मुझे महसूस हुई वह यह है कि माने हुए बड़े इतिहासकारों ने रानी लक्ष्मीबाई का जीवन-वृत्त क्यों नहीं लिखा ? इसका कारण यह हो सकता है कि ये इतिहासकार 1857 के स्वतंत्रता समर को महज़ एक आर्थिक विद्रोह की संज्ञा देते हैं और रानी लक्ष्मीबाई के संघर्ष को यह लिख कर हलका बना देते हैं कि लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र को अंग्रेज़ों ने उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया और झांसी को शासक विहीन मान लिया गया और अंग्रेज़ों ने झांसी को पूर्णत: अपने अधिकार में लेना चाहा जो कि लक्ष्मीबाई को नागवार गुज़रा...।
अब बताइए मैं क्या करूँ ? मेरे प्रपितामह याने मेरे पिताजी के दादाजी 'बाबा देवकरण सिंह' को भी अंग्रेज़ों ने फाँसी दी थी इसी 1857 के प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम में... उनका नाम इतिहास में तो दर्ज है लेकिन फाँसी की सही-सही तारीख़ नहीं मिलती।
ख़ैर मुझे बहुत अच्छा लगा कि लोग मेरे जैसे साधारण आदमी की पोस्ट में भी दिलचस्पी लेते हैं... मैं तो समझ रहा था कि जनता को नवरत्न तेल बेचने वाले महान व्यक्तित्वों से फ़ुर्सत ही नहीं...
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| 18 जून, 2013
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आज पिता दिवस है। मैं गर्व करता हूँ कि मैं चौधरी दिगम्बर सिंह जी जैसे पिता का बेटा हूँ। वे स्वतंत्रता सेनानी थे और चार बार संसद सदस्य रहे। वे मेरे गुरु और मित्र भी थे। भारतकोश के संचालक ट्रस्ट के संस्थापक भी हैं।
उनके स्वर्गवास पर मैंने एक कविता लिखी थी...


ये तो तय नहीं था कि
सूरज साथ-साथ चल रहा था। बचपन के दिनों में जब गाँव से ट्रेन में पापा के साथ जाती थी तो सूरज साथ-साथ चलता था।
तुम यूँ चले जाओगे
और जाने के बाद
फिर याद बहुत आओगे


मैं उस गोद का अहसास
“पापा ! सूरज साथ-साथ क्यों चलता है?”
भुला नहीं पाता
“अरे बाबा वो तो साथ रोशनी करता चलता है न!”
तुम्हारी आवाज़ के सिवा
पापा अक्सर माँओं वाले जवाब देते पापाओं वाले नहीं। बड़े सीधे-सादे बच्चों जैसे जवाब, कोई कठिन बात नहीं कहते थे जो मेरे बाल-मन को समझ में न आए।”
अब याद कुछ नहीं आता
“तो फिर… तो फिर… तो फिर सूरज रात को क्यों नहीं साथ चलता?” मैंने भी मिलियन डॉलर कोश्चन ठोक दिया।
“सारा दिन भागेगा तो थकेगा भी न… सो जाता है बेचारा… चलो अब तुम भी सो जाओ। ट्रेन में सब सोने की तैयारी कर रहे हैं।”


तुम्हारी आँखों की चमक
“लो… गाँव वाला टर्न आ गया… क्या सोच रही हो…?” पति ने कहा।
और उनमें भरी
“कुछ नहीं बस ऐसे ही… अ…असल में आँसू रुक नहीं रहे…”
लबालब ज़िन्दगी
याद है मुझको


उन आँखों में
तीन दिन गुज़र गए। पापा की रहस्यमयी ‘फ़ेमस’ नीली डायरी उनकी अलमारी में मेरे फ़ोटो के नीचे रखी मिली। बचपन में इस डायरी के पन्ने कितने सफ़ेद, चमकीले लगते थे… आज कितनी उजड़ी हुई अपने पीले पन्नों को छुपाती सी लग रही है।
सुनहरे सपने थे
वो तुम्हारे नहीं
मेरे अपने थे


मैं उस उँगली की पकड़
ये डायरी मुझे कभी पढ़ने को नहीं मिली। मैंने जल्दी-जल्दी पन्नों को खोलना शुरू किया। एक के बाद एक पन्ना, मेरे बचपन के एक-एक दिन की तस्वीर बनाता गया। धुँधली यादों के फीके रंग गहराने लगे जैसे किसी ब्लॅक एन वाइट मूवी को कलर किया जा रहा हो। ज़िन्दगी में पहली बार अाँसू कम पड़ गए। रोने के साथ मुस्कुराना और हँसना रुक ही नही रहा था। गाँव में चारों ओर शांति थी। गाँवों में, वैसे भी सब जल्दी सो जाते हैं। कहीं दूर किसी के यहाँ शायद अखंड रामायण का पाठ हो रहा था। मैं जाग रही थी और डायरी के पन्नों को बार-बार पढ़ रही थी।
छुड़ा नहीं पाता
उस छुअन के सिवा
अब याद कुछ नहीं आता


तुम्हारी बलन्द चाल
डायरी में लिखा था-
की ठसक
एक छोटा ताला मुनमुन के लिए, तीन पहिए की साइकिल छुट्टन के लिए, भगवानजी का मंदिर (सीता दादी के घर में जैसा है वैसा ही)। रंगीन चॉक, ब्लॅकबोर्ड, हवाई जहाज़, इंदिरा गांधी वाला हॅलीकॉप्टर, शकुन्तला जीजी के लिए धूप का चश्मा… और भी न जाने क्या-क्या सूची बनी हुई थी। अचानक आँख से एक आँसू टपका तो इंदिरा गांधी के हॅलीकॉप्टर पर गिरा। शहर में उस समय की प्रधानमंत्री, इंदिरा गांधी आईं थीं। हॅलीकॉप्टर देखकर, मैं मचल गई थी कि पापा हम हॅलीकॉप्टर कब लेंगे?
और मेरा उस चाल की
नक़ल करना
याद है मुझको


तुम्हारे चौड़े कन्धों
पापा जब भी गाँव से शहर जाते थे तो हम सब बच्चे अपनी-अपनी डिमांड उन्हें बताते थे। एक दिन बाद जब वे लौटते तो रात हो चुकी होती थी। हम बच्चे सो जाते थे। अगले दिन ध्यान ही नहीं रहता था कि पापा से पूछना है कि क्या-क्या लाए।
और सीने में समाहित
सहज स्वाभिमान
याद है मुझको


तुम्हारी चिता का दृश्य
पापा उन सब चीज़ों की सूची नीली डायरी में बनाते थे। पापा की आमदनी इतनी कम थी कि वे कभी भी शहर से हमारे लिए मंहगी चीज़ नहीं ला पाए। ऐसा नहीं है कि कुछ लाते ही नहीं थे। आम तो गाँव में ही मिल जाते थे लेकिन केले और संतरे नहीं मिलते थे इसलिए टॉफ़ियाँ और केले या संतरे ज़रूर लाते थे। हमारी पढ़ाई और स्वास्थ्य के लिए पापा अपनी सारी कमाई ख़र्च करते थे जिसका नतीजा ये हुआ कि हम सब पढ़-लिख कर अच्छी नौकरी कर रहे हैं।
मैं अब तक भुला नहीं पाता
तुम्हारी याद के सिवा कुछ भी
मुझे रुला नहीं पाता
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|  [[चित्र:चौधरी दिगम्बर सिंह.jpg|200px|center|link=चौधरी दिगम्बर सिंह]]
| 17 जून, 2013
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आज मन उदास है... मेहदी हसन साहिब नहीं रहे... मैंने बहुत कम उम्र से ही उनको सुना और अब भी सुनता हूँ... उनके गायन की प्रशंसा करने के लिए मैं अति तुच्छ व्यक्ति हूँ... कभी-कभी सोचता हूँ कि राजस्थान की मिट्टी में ऐसा क्या अद्‌भुत है जिसने मेहदी हसन जैसे कला शिरोमणि को जन्म दिया... उनकी गाई और ज़फ़र (बहादुर शाह ज़फ़र) की कही ग़ज़ल आज बहुत याद आई-
बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
जैसी अब है तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी ॥
ले गया लूट के कौन आज तिरा सब्र-उ-क़रार ।
बे-क़रारी तुझे दिल कभी ऐसी तो न थी ॥
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|  [[चित्र:Mehdi-hasan.jpg|200px|center|link=मेहदी हसन]]
| 14 जून, 2013
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'कला' शब्द का अर्थ वात्स्यायन (तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व) के बाद बदल गया। वात्स्यायन ने पहली बार 'कला' शब्द को इस अर्थ में प्रयोग किया जिसे कि अंग्रेज़ी में 'आर्ट' कहते हैं। जयमंगल ने भी 64 कलाओं के बारे में बताया। इससे पहले इसका अर्थ था 'अंश' (हिस्सा)। इसी लिए चन्द्रमा या सूर्य की पृथ्वी के सापेक्ष स्थितियों को बाँटा गया तो उन्हें कला कहा गया। चन्द्रमा को सोलह अंश में और सूर्य को बारह में। इसीलिए चन्द्रमा की सोलह कला हैं और सूर्य की बारह कला। अवतारों की कला का भी यही रहस्य है। लोग अक्सर पूछते हैं कि कृष्ण की सोलह कलाएँ कौन-कौन सी थी ? असल में कृष्ण के काल में कला का अर्थ अंश था न कि आज की तरह 'आर्ट'।
ख़ैर... नृत्य कला पर भी भारतकोश पर कुछ है शायद आपकी रुचि हो
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|  [[चित्र:Bharatanatyam-Dance.jpg|200px|center|link=नृत्य कला]]
| 10 जून, 2013
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नर्गिस दत्त, जिस पृष्ठ भूमि से आयीं थीं, कोई सोच भी नहीं सकता था कि वे एक संवेदनशील समाजसेविका भी बनेंगी। ये भी उल्लेखनीय है कि वे समाजसेवा का ढोंग नहीं करती थीं (जैसा कि आजकल फ़ॅशन है)। जब वे कॅन्सर से हार कर अपनी अंतिम सांसे ले रही थीं, उस समय, पति सुनील दत्त उनके पास थे। उनके अंतिम समय की बातें सुनकर मैं इतना भावुक हो गया कि आँसू नहीं रोक पाया। आप चाहें तो भारतकोश पर उनके लेख के सबसे नीचे की ओर, बाहरी कड़ियों में उनके जीवन पर बनी छोटी सी डॉक्यूमेन्ट्री को लिंक क्लिक करके देख सकते हैं। इसमें उनकी आवाज़ की अंतिम रिकॉर्डिंग भी है।
[[नर्गिस|... विस्तार में जानने के लिए क्लिक करें]]
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|  [[चित्र:Nargis-Dutt.jpg|200px|center|link=नर्गिस]]
| 1 जून, 2013
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ईश्वर, अवतार, पैग़म्बर और संत किसी भी रूप में पक्षपाती नहीं होते। इसलिए ये किसी व्यक्ति विशेष का हित या अहित करेंगे ऐसा सोचना व्यर्थ ही है। जब इनके अस्तित्व पर हमारी आलोचना का असर नहीं होता तो फिर प्रार्थना का भी असर कैसे होगा। ज़रा सोचिए कि क्या हम यह मान सकते हैं कि ईश्वर पक्षपाती है, असंभव ही है ना ? तो फिर करें क्या ?
... प्रार्थना तो करें पर माँगे कुछ नहीं। प्रार्थना हमें विनम्र बनाती है। कर्म करें अकर्मण्य न रहें।
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| 19 मई, 2013
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मेरे मित्र श्री पी. के. वार्ष्णेय ने प्रश्न किया है- Varshney Mathura :


ADITITYA JI KYA HAMARA DHARM HINDU HAI YA SANATAN ?
नीली डायरी आज पढ़ी तो अहसास हुआ कि पापा ने कितना सहेज कर हमारी सारी मांगों को लिखा था। क्या फ़र्क़ पड़ता है अगर वे कभी पूरी नहीं हो पाईं। आज समझ में आया कि पापा के जीवन की डायरी का मतलब, सिर्फ़ हमारी मांगें और उनको पूरा न कर पाने की मायूसी थी।


मैंने उत्तर दिया है‌--------:------
तभी छोटे ने आवाज़ दी और कमरे में आ गया।
“देख दीदी पापा की अटैची से ये छोटा सा हॅलीकॉप्टर मिला है। इसपे लिखा है ‘इंदिरा गांधी का हॅलीकॉप्टर’।


तकनीकी दृष्टि से आप सनातन वैष्णव हैं। यदि आज की भाषा में कहें तो आप हिन्दू धर्म के वैष्णव संप्रदायी हैं। हिन्दू या हिन्दी तो भारतवासियों को कहा जाता था (पुराने समय में)। सिन्धु नदी को ईरानियों ने हिन्दु कहा और यूनानियों ने इंदु। हिन्दु से हिन्दू हुआ और इंदु से इंडिया। जहाँ तक मेरे धर्म का सवाल है और यदि अपना धर्म चुनने की मुझे स्वतंत्रता है तो मैं तो मरने के बाद ही अपना धर्म चुनूंगा। ऊपर जाकर जिस धर्म के भी लोग अधिक सुविधा देंगे उसे ही चुन लूंगा। ये भी हो सकता है कि कुछ चीजें किसी एक की पसंद आए और कुछ किसी दूसरे की। पता नहीं क्या पसंद आए जैसे कि अप्सरा स्वर्ग की या हूर जन्नत की, अमृत स्वर्ग का या आब-ए-हयात बहिश्त का...वग़ैरा-वग़ैरा
© आदित्य चौधरी
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| 16 मई, 2013
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; दिनांक- 8 मई, 2017
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मेरे बचपन के प्रिय सहपाठी और मित्र हैं, श्री संदीपन विमलकांत । उन्होंने FB पर पूछा " Kahan ho koi khabar naheen?" तो मैने उनके जवाब में एक शेर कहा-
दूऽऽऽर-दूऽऽऽर किसी गॅलेक्सी के किसी ग्रह के किसी देश के मंत्रालय में वार्तालाप:


वो पूछते हैं मुझसे अपनी ख़बर नहीं
“सर! आश्वासन तो ख़त्म हो गए… नहीं दे सकते”
बंदा तो दर-ब-दर है कोई एक दर नहीं ।।
“क्या?… ऐसा कैसे हो सकता है? बाहर तो सीनियर सिटीज़न्स का एक डेलीगेशन बैठा है, अब क्या करें।”
मंत्री ने अपने सचिव पर चिंता ज़ाहिर की।
“सर इनकी मांगे मान लीजिए…”
“वो तो पॉसिबिल ही नहीं है, मांगे बहुत ज़्यादा हैं। आश्वासन ही देना होगा। वैसे एक बात बताओ कि आश्वासन ख़त्म कैसे हुए ?”
“सर! आप जब सत्ता में आए तो आपको सरकारी स्टॉक में दो हज़ार आठ सौ बाईस आश्वासन मिले थे, जिनको आपने यूज़ कर लिया। आश्वासनों की तीनों कॅटेगिरि याने; पूर्ण आश्वासन, ठोस आश्वासन और आश्वासन,… ये सब आप रोज़ाना दे रहे हैं…।” सचिव ने बताया।
“अच्छा… ठीक है-ठीक है… तो फिर हम वायदा भी तो कर सकते हैं…?”
“सॉरी सर वायदों का स्टॉक तो अपोज़ीशन के पास रहता है। अापको ये स्टॉक चुनाव के दौरान मिलेगा। सरकार वायदा नहीं करती, सरकार तो आश्वासन देती है।”
“अपोज़ीशन के पास भी तो आश्वासन होंगे…? ख़रीद लो… मुँह मांगी क़ीमत पर…?”
“सर अपोज़ीशन जब सत्ता से हटी तो नियमानुसार उसने सारे आश्वासन सत्ता पक्ष याने आपको हॅन्डओवर कर दिए। जिस तरह आपने चुनाव के दौरान बचे हुए वायदे विपक्ष को दे दिए थे।”
“कहीं न कहीं तो आश्वासन बिकते होंगे? चाहे डॉलर देने पड़ें लेकिन ख़रीद लो” मंत्री ने मंत्रियाना अंन्दाज़ में कहा।
“सर डॉलर तो क्या बिट कॉइन के बदले भी आश्वासन नहीं मिल सकते।”
“कोई न कोई तरीक़ा तो होगा अश्वासन अरेन्ज करने का?”
“सर इमरजेन्सी लगा दीजिए… तब कोई कुछ पूछने या मांगने नहीं आएगा। आश्वासन का झंझट ख़त्म।”
“हाँऽऽऽ ये ठीक रहेगा… लगा दो इमरजेन्सी”
 
© आदित्य चौधरी
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| 15 मई, 2013
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==शब्दार्थ==
<references/>
==संबंधित लेख==
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08:15, 13 दिसम्बर 2017 के समय का अवतरण

आदित्य चौधरी फ़ेसबुक पोस्ट
दिनांक- 12 दिसंबर, 2017

|| मनहूसियत के मारे ||

प्रकृति कहिए या ईश्वर कहिए, उसने पृथ्वी पर जो कुछ भी पैदा किया उसमें एक उल्लास पूर्ण गति अवश्य दी। मनहूस उदासी या आडम्बरी गंभीरता किसी भी जीव में नहीं दी। यहाँ तक कि वनस्पति में भी एक उल्लास से भरी हुई विकास की गति होती है। सूरजमुखी का फूल सूर्य को ही तकता रहता है और सूर्य जिस दिशा में जाता है उसी दिशा में वह मुड़ जाता है। फूलों की बेल, सहारे तलाश करती रहती हैं और जैसे अपनी बाहें फैलाकर सहारे को पकड़ ऊपर बढ़ती जाती हैं।

आप सड़क से एक पिल्ला उठा लाइये। सारा दिन घर में धमा-चौकड़ी मचाए रहेगा। कहने का सीधा अर्थ यह है जिसे हम सभी जानते ही हैं कि जीवन का अर्थ ही उत्सव और उल्लास है। प्रत्येक मनुष्य का प्रत्येक बच्चा जन्म से ही नृत्य, गायन, वादन, चित्रकारी, मूर्तिकारी, खेल जैसी आदि प्रतिभाओं से परिपूर्ण होता है। जिज्ञासा से भरा खोजी स्वभाव प्रत्येक बच्चे का स्वाभाविक गुण होता है। यह स्थिति मानसिक रूप से दिव्यांग बच्चों में भी होती है। मैंने बड़े क़रीब से देखा है ऐसे बच्चों को जिनकी मानसिक क्षमता हटकर होती हैं और जिन्हें हम मानसिक रूप से अविकसित या विशिष्ट रूप से विकसित मानते हैं। इन बच्चों में भी प्रसन्नता और उल्लास का भाव भरपूर होता है।

समस्या तब शुरु होती है जब धीरे-धीरे बच्चा बड़ा होने लगता है तो अधिकतर माता-पिता (या अन्य अभिभावक) उसकी इन प्रतिभाओं को बड़े गर्व के साथ समाप्त करने में लग जाते हैं। इसमें स्कूल भी अपनी भूमिका बख़ूबी निबाहता है। अधिकतर स्कूलों में शिक्षा जिस तरीक़े से दी जा रही है वह बेहद शोचनीय अवस्था है। पढ़ाई में सृजनात्मकता जैसा कुछ भी नहीं होता। उन्हें वह नहीं सिखाया जाता जोकि उनके व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में सहायक होगा और वे स्वयं अपनी सफलता का रास्ता चुन सकेंगे बल्कि उनको एक पारंपरिक तरीक़े की पढ़ाई दी जाती है जिससे वे कुछ नया करने की बजाय ख़ुद को किसी न किसी जॉब के लायक़ बनाने में लग जाते हैं।

महान विचारक जे. कृष्णमूर्ति ने कहा भी है कि स्कूलों में बच्चों को ‘क्या सोचा जाय सिखाने की बजाय कैसे सोचा जाय’ यह सिखाना चाहिए। इस आउटडेटेड उबाऊ शिक्षा पद्धिति के कारण बच्चों के भीतर की उमंग और उल्लास ख़त्म होने लगता है। ओढ़ी हुई गंभीरता मनहूसियत भरी उदासी उनका स्थाई स्वभाव बन जाता है। बच्चों को यह मौक़ा ही नहीं दिया जाता वे जान सकें कि उनमें कौन सी विशेष प्रतिभा है। बच्चों की मार्कशीट ही उनकी योग्यता की पहचान बन जाती है।

ज़रा बताइये कि मैंने कॅलकुलस, ट्रिगनोमॅट्री, वेक्टर, प्रॉबेबिलिटी आदि की पढ़ाई की… वह मेरे किस काम आ रही है… किसी काम नहीं। इसमें कोई दो राय नहीं कि गणित मेरा पसंदीदा विषय था लेकिन मुझे उन विषयों या क्षेत्रों को छेड़ने का मौक़ा ही नहीं मिला जो मेरे प्रिय हो सकते थे या उनमें से कोई एक मेरा पॅशन बन सकता था।

व्यवसाय में पिता अपने वारिस को सिखाता है कि बेटा-बेटी जितनी ज़्यादा मनहूसियत भरी गंभीरता तुम ओढ़े रहोगे तुमको उतना ही बड़ा बिजनेसमॅन समझा जाएगा। सरकारी कार्यालय में चले जाएँ तो ऐसा लगता है कि यहाँ अगर ज़ोर से हँस पड़े तो शायद छत ही गिर पड़ेगी क्योंकि उस छत ने कभी हंसी की आवाज़ सुनी ही नहीं (सुबह-सुबह सफ़ाई कर्मचारी ही शायद हँसते हों)। आलम ये है कि ओढ़ी हुई गंभीरता एक संस्कृति बन चुकी है। अब न तो इस मनहूस संस्कृति को क्या नाम दिया जाय यह समझ में आता और इसको ख़त्म करने का उपाय ही।

एक सामान्य शिष्टाचार है कि किसी अजनबी से आपकी नज़र मिल जाय तो हल्का सा मुस्कुरा दें। यह शिष्टाचार यूरोपीय देशों में बहुत आम है। हमारे देश में यदि आप किसी अजनबी को देखकर मुस्कुरा गए और यदि वो लड़की हुई तो सोचेगी कि आप उसे छेड़ रहे हैं और यदि कोई लड़की किसी अजनबी लड़के को देखकर मुस्कुरा गई तो लड़का समझेगा कि यह प्रेम का निमंत्रण है।

क्या आपको नहीं लगता कि ये सब बातें स्कूल में सिखाई जानी चाहिए? मेरी आज तक यह समझ में नहीं आया कि स्कूल में बच्चों को घर का काम करना क्यों नहीं सिखाया जाता। जैसे; चाय-बिस्किट-नाश्ता बनाना, कपड़े तह करना, कपड़े इस्तरी करना, शारीरिक सफ़ाई, माता-पिता से व्यवहार, कील-चोबे लगाना, कपड़ों में बटन लगाना, छोटे बच्चे की देख-भाल करना, बाग़वानी, आदि-आदि। इसके अलावा ‘डू इट योरसेल्फ़’ की बहुत सी चीज़ें सिखाई जानी चाहिए, ज़रूरतमंद लोगों की मदद क्यों, कब और कैसे करें यह उनके स्वभाव में आना चाहिए। यह सब लड़की-लड़कों को समान रूप से सिखाना चाहिए। खाना बनाना लड़कों को भी आना चाहिए। कामकाजी पति-पत्नी के घर में दोनों ही लगभग सभी काम करते हैं। ये सब बच्चों को स्कूल में सिखाया जाना चाहिए। कुछ व्यावहारिक प्रयोगों द्वारा और कुछ विडियो दिखाकर।

यह तो ठीक है कि हम बच्चों को महान व्यक्तियों के बारे में बताकर उन्हें अच्छा इंसान बनने के लिए प्रेरित करते हैं लेकिन बच्चों को यह भी बताना चाहिए कि छोटे बच्चे घर के कामों में अपनी माता-पिता की मदद करके भी महान बनते हैं। उनको पता होना चाहिए कि यदि वे काम पर जाने से पहले अपने पिता की साइकिल-बाइक-कार को पोंछ देंगे तो यह कितना बड़ा काम होगा। रसोई में मां का हाथ बटाएँगे तो उनके द्वारा किया काम कितना महत्वपूर्ण होगा।

ज़रूरत तो इस बात की है कि प्रत्येक स्कूल, कॉलेज में कुछ विषय अलग से पढ़ाए जाने चाहिए। जिनसे छात्राओं और छात्रों को अच्छा इंसान बनने में मदद मिले। ‘संस्कृति’ एक अलग विषय होना चाहिए और इस विषय के अधीन सब-कुछ सिखाना चाहिए।
© आदित्य चौधरी

दिनांक- 5 दिसंबर, 2017

“कोई आज भी है जो सुनता है…”

यह बात उन दिनों की है जब भारत पर अंग्रेज़ों का शासन था और देशभक्त क्रांतिकारी अंग्रेज़ों का विरोध कर रहे थे।
एक अंग्रेज़ अधिकारी गांधीजी से मिलने आया। उससे काफ़ी देर महात्मा गांधी से बात-चीत की, कई विषयों पर चर्चा हुई। इसके बाद वह विदा लेकर चला गया। उसके जाने के बाद गांधी जी को बताया गया कि जिस रेलगाड़ी से वह अंग्रेज़ अधिकारी आ रहा था, उस रेलगाड़ी पर क्रान्तिकारियों ने बम फेंका और जिस रेल के डिब्बे में वह अंग्रेज़ बैठा था उस डिब्बे का आधा हिस्सा बम के कारण क्षतिग्रस्त हो गया। जिस व्यक्ति ने गांधी जी को यह सूचना दी उसने पूछा कि उस अंग्रेज़ अधिकारी ने आपसे यह चर्चा अवश्य की होगी। गांधीजी ने बताया कि उसने इस तरह की कोई चर्चा नहीं की।

ज़रा सोचिए कि उस अंग्रेज़ ने बम फ़ेंकने की चर्चा क्यों नहीं की? इसका कारण है कि वह अंग्रेज़ नहीं चाहता था कि गांधी से वार्ता करते समय किसी ऐसी बात का ज़िक्र किया जाए जिससे कि वार्तालाप का माहौल असहज हो जाए। निश्चित रूप से इस वार्तालाप में दोनों ही सहज नहीं रह पाते यदि बम फ़ेंकने की घटना का ज़िक्र वह अंग्रेज़ अधिकारी कर देता।

यदि आप चाहते हैं कि लोग आपकी उपस्थिति को पसंद करें तो आपको अपने 'सुभीता स्तर' (Comfort level) की तरफ़ ध्यान देना चाहिए। याने आपकी मौजूदगी में लोग कितना सहज महसूस करते हैं। जो लोग आपके सहकर्मी, मित्र, परिवारीजन आदि हैं उन्हें आपकी उपस्थिति में कितनी सहजता महसूस होती है। सदा स्मरण रखने योग्य बात यह है कि आप योग्य कितने हैं यह बात तो महत्वपूर्ण है ही बल्कि आपका सुभीता स्तर कितना है, यह अधिक महत्वपूर्ण है। एक सफल व्यक्तित्व का रहस्य बुद्धि, प्रतिभा या योग्यता में ही छुपा नहीं है बल्कि 'सुभीता स्तर' (Comfort level) इसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

आजकल लोग (ऍन्ड ऑफ़कोर्स लेडीज़ ऑलसो) सुनते नहीं हैं। बोलने से ज़्यादा ज़रूरी है सुनना। सुनने के तरीक़े हैं तीन… तीन क्या बल्कि चार।
पहला तरीक़ा: सबसे घटिया तरीक़ा है। इसमें सुनने वाला कहने वाले की बात काट कर अपनी बात कहने लगता है। यह व्यक्ति सबको अप्रिय होता है।
दूसरा तरीक़ा: कहने वाले को यह लगता रहता है कि सुनने वाला कुछ कहना चाहता है। सुनने वाले के हाव-भाव-भंगिमा और आँखें, कहने वाले को, ऐसा संदेश देती हैं। जिससे कहने वाला चुप हो जाता है या फिर कहता है ”कहिए ! आप कुछ कहना चाहते हैं क्या?” सुनने का यह तरीक़ा भी घटिया ही है।
तीसरा तरीक़ा: यह तरीका बहुत सही है। इसमें सुनने वाला कहने वाले की बात ध्यान से सुनता है। अपने किसी हाव-भाव से यह महसूस नहीं होने देता कि वो ध्यान से नहीं सुन रहा।
चौथा तरीक़ा: इसमें हम कहने वाले को कुछ कहने के लिए कहते हैं, कोई प्रश्न करते हैं और उत्तर ध्यान से सुनते हैं। इस तरीक़े में हम लोगों के मौन को भी सुनने की कोशिश करते हैं और उन लोगों को कुछ कहने के लिए प्रोत्साहित करते हैं जो बहुत कम ही बोलते हैं।

इस चौथे तरीक़े से बहुत कुछ सीखने को मिलता है। मैं अक्सर उन लोगों को बोलने के लिए प्रोत्साहित करता हूँ जो बहुत कम बोलते हैं।
एक संस्मरण: मेरे यहाँ एक घरेलू कर्मी था। जिसका काम मेरे साथ रहकर मेरे छोटे-मोटे काम करना था। उसे सब कमअक़्ल मानते थे। मैं उससे कोई न कोई सवाल करके उसी प्रतिक्रिया सुन लेता था। एक दिन घर के सामने से हाथी जा रहा था। मैंने कहा कि कमाल की बात है धरती का सबसे बड़ा जीव है और कितना शांत है? घरेलू कर्मी बोला कि सबसे बड़ा है इसीलिए तो शांत है। मैं उसके जवाब से दंग रह गया। कितना सटीक उत्तर था उसका।

ज़िन्दगी में अगर सुनना सीख लेंगें तो बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। लोगों ने सुनना तो लगभग बंद ही कर दिया है। किसी से मिलने जाते हैं तो नज़र मोबाइल फ़ोन पर ही बनी रहती है। मुझे बुज़ुर्गों से बात करने में ज़्यादा आनंद होता है क्योंकि उनमें से ज़्यादातर स्मार्ट फ़ोन इस्तेमाल नहीं करते। व्यस्तता बहुत बढ़ गई है। वैसे भी व्यस्तता एक फ़ैशन बन गया है। जिन्हें कोई भी ज़रूरी काम नहीं है उनकी व्यस्तता देखकर तो और आनंद होता है। इस व्यस्तता का दिखावा भी आपके सुभीता स्तर के लिए नुक़सानदायक है।

© आदित्य चौधरी

दिनांक- 7 नवंबर, 2017

“After Japan, China will rise and gain prosperity and strength. After China, the sun of prosperity and learning will again smile at India.”

ये शब्द किसी अंग्रेज़ अर्थशास्त्री के नहीं हैं बल्कि सन् 1902 में जापान और अमरीका की यात्रा के दौरान प्रसिद्ध वेदान्ती स्वामी रामतीर्थ के हैं। दो वर्ष अमरीका में बिताने पर स्वामी जी अमरीकियों के लिए अचम्भा बन गए थे। बर्फ़ गिरती रहती थी और रामतीर्थ निचले शरीर पर केवल धोती पहने उसमें चल देते थे। नंगे कन्धों पर बर्फ़ गिरती तो उसे झाड़ देते थे। लोग आश्चर्य से ऐसे व्यक्ति को देखते रह जाते थे।

स्वामी जी ने जब संन्यास लिया तब वे गणित के प्रोफ़ेसर थे। भारत के लिए उनके वक्तव्य अत्यंत उत्साह से भरे होते थे। वे कहते थे-

“भारत क्या है? मैं भारत हूँ। मेरा शरीर मानो उसकी भूमि है। मेरे दो पैर मालाबार और चोलमण्डल हैं। मेरे चरण कन्याकुमारी हैं। मेरा मस्तक हिमालय है। गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी प्रचण्ड नदियाँ मेरे केश हैं। राजस्थान और गुजरात मे मरुस्थल मेरा हृदय है। पूर्व और पश्चिम दिशाओं में मेरी भुजाएँ फैली हैं।” स्वामी विवेकानन्द के प्रभामंडल के कारण उनके ही समकालीन स्वामी रामतीर्थ को लोग ज़्यादा नहीं जान पाए। रामतीर्थ ने नयी पीढ़ी को जगाने का काम विवेकानन्द की तरह ही किया।

भारत को एक व्यक्ति के रूप में देखना और भारत के प्रत्येक नागरिक को भारत के रूप में देखना स्वामी रामतीर्थ की अद्भुत धारणा वास्तव में ही सत्य है। ज़रा सोचिए कि यह बात कितनी महत्वपूर्ण है कि भारत ने किसी पड़ोसी पर कभी आक्रमण नहीं किया। जो विदेशी भारत में आकर शासन कर गए उनको भी बहुत हद तक भारत की परंपराओं में ढलना पड़ा।

अाज जिसे हम हिन्दू धर्म कहते हैं उसकी असंख्य शाखाओं की आस्था, मत, धार्मिक विश्वास, पूजा-अर्चना, अनुष्ठान, कर्मकाण्ड आदि में आश्चर्यजनक विविधताएँ हैं। भारतीय दर्शन परंपरा में ईश्वर के अस्तित्व और स्वरूप को लेकर विभिन्न मत हैं। कोई साकार ईश्वर में आस्था रखता है तो कोई निराकार में और कोई-कोई तो ईश्वर के अस्तित्व को ही नहीं मानते। कमाल यह है कि यह सब हिन्दू धर्म में शामिल हैं।

प्राचीन ग्रंथों में बहुत सी जानकारियाँ ऐसी हैं जो बहुत महत्वपूर्ण हैं। पौराणिक काल में राजा अपने पुत्रों में से राज्य के उत्तराधिकारी को चुनने के लिए अनेक प्रकार की शिक्षाओं की व्यवस्था करता था। अयोध्या के राजा दशरथ ने अपने पुत्रों से अनेक संप्रदायों के ऋषि-मुनियों और आचार्यों की चर्चा करवाने की व्यवस्था की थी। राजा दशरथ राम के पास लोकायतों (चार्वाक) के आचार्यों को भेजा जिन्होंने राम को चार्वाक दर्शन का ज्ञान देने की चेष्टा की जिसमें नास्तिक होने के लाभ बताए गए लेकिन किशोरवय राम की आस्था वैदिक परंपराओं में थी। इसलिए राम ने उन्हें नकार दिया और क्षमा मांग ली। इसके अलावा भी अन्य विचारधाराएँ थीं जिनके अनुयायी पर्याप्त मात्रा में थे और आज भी हैं। इसी क्रम में, आजीवक एक अत्यंत प्राचीन संप्रदाय है। जिसके साधु और भिक्षु मस्करी वेष में रहा करते थे। रावण जब सीता हरण के लिए आया था उस समय वह इसी आजीवक संप्रदाय के मस्करी वेष में आया था।

भारत का यह रंग-रंगीला स्वरूप आज भी बदला नहीं है। विभिन्न धर्मों और संप्रदायों को मानने वाले भारत में शान से रह रहे हैं और उन्हें संविधान में समान अधिकार प्राप्त हैं।

कुछ ही समय पहले की बात है जब एक सिख, भारत का प्रधानमंत्री (मनमोहन सिंह), एक मुसलमान, राष्ट्रपति (अब्दुल कलाम), एक हिन्दू, सदन में विपक्ष के नेता (अटल बिहारी वाजपेयी) और एक जन्म से ईसाई, शासक पार्टी की अध्यक्ष (सोनिया गांधी) होने का विलक्षण संयोग हुआ। यह भी भारत में ही संभव है।

नोट: (पाठकगण क्षमा करें, ऊपर के अनुच्छेद में मैंने श्रीमती सोनिया गांधी को ‘जन्म से ईसाई’ इसलिए लिखा है क्योंकि मुझे उनकी वर्तमान धार्मिक स्थिति पता नहीं है।)

कुछ बातें मन पर छाप छोड़ जाती हैं और अपने भारतवासी होने पर और भी अधिक गर्व होने लगता है।
अभी पिछले दिनों मुहम्मद अली जिन्हा की बेटी का देहावसान हुआ। लोगों को जानकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि पाकिस्तान बनाने वाले पाकिस्तान के क़ायद-ए-आज़म की बेटी भारत में रहती थी! पाकिस्तान में न तो जिन्हा को और न ही उनकी बहन फ़ातिमा को समुचित सम्मान दिया गया। जिन्हा के इलाज में लापरवाही हुई और
उनकी बहन फ़ातिमा तो चुनाव ही हार गयीं। जिन्हा की बेटी सम्मानपूर्वक भारत में रहीं और उन्होंने पाकिस्तान को कभी पसंद नहीं किया।

© आदित्य चौधरी

दिनांक- 2 नवंबर, 2017

आजकल रानी पद्मावती (पद्मिनी) को लेकर काफ़ी हंगामाई बहस छिड़ी हुई है। कुछ कहते हैं कि पद्मावती कोई ऐतिहासिक चरित्र ‘नहीं है’ और कुछ कहते हैं कि ‘है’। अलाउद्दीन ख़लजी के चित्तौड़ आक्रमण के लगभग 237 वर्ष बाद, ई.सन् 1540 के क़रीब मलिक मुहम्मद जायसी ने पद्मावत नाम से एक महाकाव्य रचा।

इस महाकाव्य के कुछ प्रमुख चरित्र; रानी पद्मिनी, राणा रतनसेन, अलाउद्दीन ख़लजी, राघव चेतन, गोरा-बादल और एक इंसानों की तरह बोलने वाला तोता हीरामन हैं।
अब चूँकि इस विषय पर फ़िल्म बन रही है और काफ़ी चर्चा में है तो इसका कथानक उनको भी याद हो गया है जिनको नहीं था, ये फ़ेसबुक और वॉट्स ऍप की करामात है। इसलिए कथानक पर चर्चा व्यर्थ ही है।

मलिक मुहम्मद जायसी के जीवन की घटनाएँ कहीं किसी इतिहास में दर्ज नहीं हैं। कथा-कहानियों से ही जायसी के जीवन का कुछ पता चलता है। चेचक से जायसी के चेहरे पर दाग़ हो गए और एक आंख चली गई। ‘जायसी’ उपनाम जायस (पहले राय बरेली और अब अमेठी का एक नगर) में रहने के कारण पड़ा। बाद में जायसी ने एक चमत्कारी सूफ़ी संत के रूप में प्रसिद्धी पायी।

जायसी को अफ़ीम के नशे की लत थी। अफ़ीम का नशा आदमी को कल्पनालोक में ले जाता है। उस समय माज़ून (भांग से बनती है) और अफ़ीम का काफ़ी प्रचलन था। शराब में अफ़ीम मिला कर पीने का भी चलन था। जिसका ज़िक्र बाबर ने बाबरनामा में किया है। अकबर भी शराब में अफ़ीम मिलाकर पिया करता था।

जायसी की मृत्यु के संबंध में एक काल्पनिक कथा प्रचलित है। कहते हैं कि जायसी अपने जादू से शेर बनकर जंगल में घूमा करता था। एक शिकारी ने इस शेर के रूप में जायसी को मार डाला।

कुछ इतिहासकारों ने पद्मिनी के जौहर को काल्पनिक कथा बताया है। इस पर चर्चा बाद में पहले सिकंदर के भारत आक्रमण के समय घटी एक घटना का ज़िक्र-
पाणिनि ने अग्रश्रेणय: नामक एक छोटे से नगर-राष्ट्र (या आज की भाषा में कहें तो क़बीले का) ज़िक्र किया है। जो इतिहास में यूनानी भाषा में परिवर्तित होकर अगलस्सोई हो गया। इन अगलस्सोई नागरिकों ने यूनानी आक्रांता सिंकंदर का जम कर मुक़ाबला किया। भारतकोश पर इसका विवरण इस तरह है:-

  • अगलस्सोई सिकंदर के आक्रमण के समय सिन्धु नदी की घाटी के निचले भाग में शिविगण के पड़ोस में रहने वाला एक गण था।
  • शिवि गण जंगली जानवरों की खाल के वस्त्र पहनते थे और विभिन्न प्रकार के ‘गदा’ और ‘मुगदर’ जैसे हथियारों का प्रयोग करते थे।
  • सिकन्दर जब सिन्धु नदी के मार्ग से भारत से वापस लौट रहा था, तो इस गण के लोगों से उसका मुक़ाबला हुआ।
  • अगलस्सोई गण की सेना में 40 हज़ार पैदल और तीन हज़ार घुड़सवार सैनिक थे। उन्होंने सिकन्दर के छक्के छुड़ा दिए, लेकिन अन्त में वे पराजित हो गए।

• यूनानी इतिहासकारों के अनुसार अगलस्सोई गण के 20 हज़ार आबादी वाले एक नगर के लोगों ने स्वयं अपने नगर में आग लगा दी और अपनी स्त्रियों और बच्चों के साथ जलकर मर गए, ताकि उन्हें यूनानियों की दासता न भोगनी पड़े। यह कृत्य राजपूतों में प्रचलित जौहर प्रथा से मिलता प्रतीत होता है।

अगलस्सोई की पहचान पाणिनिके व्याकरण में उल्लिखित अग्रश्रेणय: से की जाती है।

भारत में अनेक कथाएँ हैं जो जन-जन में लोकप्रिय हुईं और इनमें से कई कथाओं के पात्र भारत की जनता के लिए श्रद्धेय हो गये।
जैसे अाल्हा ऊदल, नल दमयंती, कच देवयानी आदि।
आल्हा-ऊदल काव्य में लिखा है:-

बड़े-बड़े चमचा गढ़ महोबे में
नौ-नौ मन जामें दार समाय
बड़े खबैया गढ़ महोबे के
नौ-नौ सै चमचा खा जाएँ

अब इसमें कहाँ सचाई तलाशी जाय? नौ मन दाल वाले चमचे और नौ सौ चमचे दाल खाने वाले आदमी?
नल-दमयंती की कथा में नल की कथा दमयंती और राजा नल को एक इंसानों की तरह बोलने वाला हंस सुनाता है। कच-देवयानी की कथा में कच को पकाकर शुक्राचार्य को खिला दिया जाता है और वह पेट में जीवित हो जाता है। यदि कोई इन कथाओं का ऐतिहासिक महत्व पूछे या फिर वैज्ञानिक महत्व पूछे तो?

इस प्रश्नों का कोई अर्थ नहीं है। ये तो कथाएँ हैं। इनके नायक-नायिका जन साधारण में कब और कितना महत्वपूर्ण बन जाएँ कोई नहीं कह सकता। अनेक व्यक्ति ऐसे हुए हैं जिनको अवतार और भगवान की मान्यता मिली है।

रानी पद्मिनी के जौहर की घटना का पं. जवाहर लाल नेहरू ने ज़िक्र किया है। राजस्थान का इतिहास लिखने वाले कर्नल टॉड ने भी इस घटना का ज़िक्र किया है। आजकल कर्नल टॉड के इतिहास को कोई ख़ास मान्यता नहीं दी जाती साथ ही पं. जवाहर लाल नेहरू को भी इतिहासकारों की श्रेणी में नहीं माना जाता। मशहूर फ़ारसी इतिहासकार फ़रिश्ता ने जायसी के पद्मावत को इतिहास माना है।

आज के इतिहासकार जायसी के पद्मावत की अनेक घटनाओं में विरोधाभास और इतिहास विरोधी तारीख़ों का उल्लेख करते हुए इसे इतिहास से अलग करते हैं। इतना अवश्य है कि आधुनिक इतिहासकारों के मत से तीन तथ्य ऐतिहासिक हैं; रतनसेन का चित्तौड़ में राजतिलक, ख़लजी का चित्तौड़ पर आक्रमण और चित्तौड़ में स्त्रियों द्वारा जौहर।

अब प्रश्न यह उठता है कि हमारे देश में एक ऐसी हृदय विदारक घटना घटी और इस घटना को जन-जन में कभी न भूलने वाली एक याद के रूप में कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने लोकप्रिय कर दिया तो क्या कोई गुनाह कर दिया? हम सभी भारतवासियों को अपनी संस्कृति और गौरवशाली इतिहास पर गर्व तभी तो होगा जब इसको हमें बार-बार याद दिलाया जाएगा।

एक नज़र फ़िल्म के कथानक पर भी डाली जाय- एक कल्पना तो जायसी ने की जिसके कारण पद्मिनी की कथा आज इतनी महत्वपूर्ण हो गई कि भारतवासी उसे अपनी अस्मिता और गौरव से जोड़ने लगे। दूसरी कल्पना फ़िल्म के लेखक ने की जिसमें अल्लाउद्दीन ख़लजी को स्वप्न में पद्मिनी के साथ विहार करते सोच लिया जो कि मनोवैज्ञानिक ढंग से संभव हो सकती है लेकिन समाज के लिए पूर्णत: नकारात्मक सोच है। कल्पना असीम होती है लेकिन कल्पना की अभिव्यक्ति सदैव सीमित और संयमित होती है।

आज ख़लजी के स्वप्न में पद्मिनी को दिखाने का प्रयास है तो कल रावण के स्वप्न में सीता को दिखाने का प्रयास किया जाएगा और बहाना मनोविज्ञान और कला का लिया जाएगा। मेरा नज़रिया इस संबंध में स्पष्ट है लेकिन फ़िल्म के निर्माता लीला भंसाली के साथ हाथापाई या फ़िल्म के सेट को क्षति पहुँचाना भी ग़लत है। अदालत में जन हित याचिका एक सही और क़ानूनी रास्ता है।

© आदित्य चौधरी

दिनांक- 22 मई, 2017

मुझसे एक प्रश्न पूछा गया: आत्मबोध, स्वजागरण, अन्तरचेतना, प्रबोधन (एन्लाइटेनमेन्ट) आदि शब्दों से क्या तात्पर्य है ?

मेरा उत्तर: आपका व्यक्तित्व दूसरों का अनुसरण और नक़ल करके बना है। जाने-अनजाने ही न जाने कितने व्यक्तियों के व्यक्तित्व की विशेषताएँ, आदतें, हाव-भाव आदि आपके भीतर आ जाती हैं। आपको जब भी जहाँ भी कोई बात प्रभावित करती है तो वह आपके व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाती है। किसी के; पैदल चलने का ढंग, बोलने का ढंग, गाने का ढंग आदि से आप इस क़दर प्रभावित रहते हैं कि उसे अपना लेते हैं।

इसी तरह आपके सोचने की प्रक्रिया और सोचने का ढंग स्वयं का न होकर किसी न किसी के द्वारा निर्देशित होता है। आपको बचपन से ही यह सिखाया जाता है कि आप क्या सोचें जबकि सिखाया यह जाना चाहिए कि आप कैसे सोचें। अनेक शिक्षाओं, अनुशासनों, उपदेशों, नसीहतों आदि के चलते आप एक निश्चित घेरे में सोचने का कार्य करते हैं। आपका दिमाग़, सूचनाओं और ज्ञान का गोदाम बन जाता है जिसमें किसी नए विचार का अंकुर फूटना नामुमकिन हो जाता है।

हालत यहाँ तक हो जाती है कि किस बात पर करुणा करनी है और किस पर क्रोध, यह भी दिमाग़ में कूट-कूट कर भर दिया जाता है। कोई धर्म और कोई जाति दे दी जाती है जिसको आपको मानना होता है। आपको बताया जाता है कि क्या सही है और क्या ग़लत। इस सब से बनता है आपका व्यक्तित्व। यह व्यक्तित्व आपका अपना नहीं है। आपके दिमाग़ में नए विचार नहीं हैं। ईश्वर, अल्लाह या जीसस का अनुसरण, आपने अपने मन से नहीं चुना है। आप एक जीवित रोबॉट भर हैं।

आप जाग्रत तब होते हैं जब आप अपने दृष्टिकोण से सब कुछ देखते हैं। अपने जीवन के निर्णायक और निर्माता आप स्वयं होते हैं। आपके विचार स्वयं आपके विचार होते हैं। आप स्वतंत्रता के मुक्त आकाश के नीचे अपनी धरती पर मुक्त विचरण करते हैं। दूसरे के कहे या लिखे को बिना विचारे मानते नहीं हैं। जब आपको पता होता है कि आप कितने स्वतंत्र हैं और कितने परतंत्र। आप ईश्वर को स्वयं ही समझने का प्रयास करते हैं, न कि दूसरों से पूछते फिरते हैं। आप अपने से छोटों और संतान पर अपने विचार लादते नहीं है बल्कि उन्हें भी स्वयं निर्णय लेने में सक्षम बनाते हैं।

इसी को कहते हैं एनलाइटेनमेंन्ट और इसके लिए ध्यान धरना बहुत लाभदायक है।

© आदित्य चौधरी

दिनांक- 19 मई, 2017

प्रिय मित्रो! जैसा कि आपने चाहा... मैंने एक कहानी और लिखी है। ज़रा देखिए कैसी है!

'एक रात अचानक'

नवम्बर का महीना था। प्रदीप एक सुनसान रास्ते पर अकेला पैदल चला जा रहा था। दिमाग़ में लगातार एक के बाद एक चिंताएँ घुमड़ रहीं थीं। हलकी ठंड होने पर भी पता नहीं उसे क्यों पसीना अा रहा था ? तेज़ चलने की वजह से या तनाव के कारण।

‘मैं इतनी तेज़ क्यों चल रहा हूँ , क्या चक्कर है ?… कहीं जल्दी तो पहुँचना है नहीं मुझे… धीरे चलता हूँ।’

उसने चाल धीमी कर दी।
‘काहे का कृषि प्रधान देश है भारत… दहेज़ प्रधान है… दहेज़ प्रधान… शादी तय हो गई और पैसा पास में एक भी नहीं…’
वो धीमी आवाज़ में बड़बड़ाया।
‘रितिका को अच्छी से अच्छी पढ़ाई करवाई और अब शादी में कम से कम दस लाख रुपए ख़र्च होंगे। अरे भैया! चार लाख तो उस मंगल के बच्चे ने लगा दिए, अपनी बेटी की शादी में और वो तो बस टॅम्पो चलाता है टॅम्पो।’

‘कहाँ से लाऊँ इतना पैसा ?… कैसे बनेंगे ज़ेवर ?… कैसे होगी दावत ?… मेरी ससुराल वालों के पास भी कुछ नहीं है। अब क्या होगा… हे ईश्वर कुछ करो।’

तभी सड़क के किनारे पेड़ के नीचे, हनुमान जी का छोटा सा मंदिर दिखा। उसने रुक कर सिर झुकाकर हाथ जोड़ दिए। सर उठाया तो ऐसा लगा कि कुछ दूरी पर कोई हलचल है। थोड़ा चलने पर देखा कि दो लड़के एक लड़की को घसीटते हुए। सड़क से एक तरफ़ की गलीनुमा रास्ते की तरफ़ ले जा रहे हैं।

प्रदीप एक पेड़ के पीछे छुप गया और सड़क पार से झांककर उनको देखने लगा। एक लड़के के हाथ में देशी तमंचा जैसा कुछ था। पेड़ को पीछे छोड़ वो थोड़ा और आगे गया तो अंदाज़ा हुआ कि लड़की का मुँह, साफ़ी-गमछा जैसे कपड़े से बंधा था। लड़की घिसटते समय पैर पटक-पटक कर बहुत विरोध कर रही थी और इसीलिए लड़कों की लातों की ठोकर से पिट भी रही थी।

प्रदीप का मन बेचैन हो रहा था। मुँह सूखने लगा, दिल ज़ोरों से धड़क रहा था।
‘क्या करूँ-क्या करूँ-क्या करूँ ?… अगर मैं इनसे लड़ा और मर गया…? तो फिर मेरी बेटी का क्या होगा। कौन करवाएगा शादी?… दस लाख रुपए?… हो सकता है ये लड़की ही ग़लत हो?… भाड़ में जाने दो… घर पहुँचूँ… नहीं-नहीं मुझे ज़रूर लड़ना चाहिए… बचाना चाहिए लड़की हो।’

बमुश्किल बीस-पच्चीस क़दम की दूरी पर ही सब कुछ घटने वाला था। तरह-तरह की हल्की आवाज़ें आ रही थीं जिनमें गालियाँ ज़्यादा थीं।

‘शायद लड़की से बलात्कार और फिर उसे मार ही देंगे। सबूत थोड़े ही छोड़ेंगे।’
तभी प्रदीप कि नज़र पास ही पड़े साइकिल के टूटे करियर पर पड़ी। उसने करियर उठा लिया।

‘लड़के ज़्यादा तगड़े तो हैं नहीं… लेकिन मैं भी तो पचास का हो गया… पता नहीं झगड़े का क्या नतीजा निकले…’

फिर वही सोच… ‘रितिका की शादी… बीवी का क्या होगा… बलात्कार… ख़ून… रितिका…शादी… बलात्कार…धक-धक, धक-धक, धक-धक, धक-धक…

प्रदीप की पकड़ साइकिल के टूटे करियर पर कसती जा रही थी। वो आगे बढ़ा तो देखा कि एक लड़का तो लड़की को ज़मीन पर गिरा कर क़ाबू करने की कोशिश कर रहा है और दूसरा तमंचा लेकर खड़ा रखवाली जैसी कर रहा है।

प्रदीप उस गली में मुड़कर आगे की ओर गया और जैसे ही तमंचे वाला प्रदीप की ओर घूमा उसने तमंचे वाले हाथ पर साइकिल का करियर दे मारा। तमंचा गिर गया। करियर का दूसरा वार उसी लड़के के मुँह पर हुआ, उसके मुँह से ख़ून निकल आया और वो गली में अन्दर भाग गया। अब तक लड़की दूसरे लड़के की पकड़ से छूट चुकी थी और उसने पीछे से उस लड़के के लम्बे बालों को पकड़ लिया अब प्रदीप के लिए उस लड़के की पिटाई करना बहुत आसान हो गया।

लड़की ने बाल छोड़े तो तमंचा उठा लिया। लड़के में एक घूँसा ऐसा लगा कि वह बेहोश ही हो गया। लड़की लातों से उस लड़के को मारे जा रही थी। प्रदीप बुरी तरह हाँफ़ रहा था लेकिन विजेता की तरह।

उस लड़की की जॅकेट थोड़ी सी फट गई थी और ओठों के किनारे से ख़ून बह रहा था। लड़की किसी अच्छे घर की लग रही थी। प्रदीप ने उस लड़की को उसके घर पहुँचाया तो पता चला कि वो तो शहर के बड़े रईस घनश्याम चड्ढा की इकलौती बेटी है। चड्ढा साहब बहुत सज्जन व्यक्ति थे। शहर में उनकी नेकनामी के क़िस्से मशहूर थे। जब चड्ढा साहब को पता चला कि प्रदीप, बेटी की शादी के लिए पैसों के इन्तज़ाम के लिए परेशान है तो उन्होंने प्रदीप के बहुत मना करने के बावजूद उसकी बेटी की शादी की पूरी ज़म्मेदारी अपने ऊपर लेली।

शादी के दिन रितिका के पास एक सुन्दर लड़की आई और उससे बोली।
“हाय रितिका! आय एम सलोनी… मुझसे दोस्ती करोगी, मैं तुम्हारे पापा की फ़ॅन हूँ। ही एज़ वैरी ब्रेव मॅन।”
पास खड़े प्रदीप ने कहा “लेकिन सलोनी से ज़्यादा ब्रेव नहीं… हाहाहा”
सब साथ-साथ हँस पड़े।

© आदित्य चौधरी

दिनांक- 18 मई, 2017

प्रिय मित्रो! जैसा कि आप चाहते हैं, मैंने एक कहानी और लिखी है। ज़रा देखिए कैसी है!

‘दाना-पानी’

वो हमारे किराएदार थे। उनका अपना कोई नहीं था। बस हमें ही अपना मानते थे। पन्द्रह साल से हमारे साथ थे। घर के बज़ुर्ग जैसे हो गए थे। हम उन्हें काका कहते थे। सुबह शाम का दूध सब्ज़ी लाने का काम ख़ुद ही करते रहते। हमारे मना करने पर भी नहीं मानते थे। शुरू-शुरू में तो अपना खाना ख़ुद ही बनाते थे लेकिन बाद में मां ने उनका खाना भी बनाना शुरू कर दिया था। बाद में पापा ने उनसे किराया लेना बंद कर दिया तो ख़ुद ही किराए के बराबर पैसे घर के किसी न किसी सामान पर ख़र्च कर देते थे।

पाँच साल पहले अपनी पेंशन भी घर में देने की ज़िद की तो पापा राज़ी नहीं हुए। काका भी नहीं माने और अपनी पेंशन वाले अकाउंट में मुझे नॉमिनी बना दिया। मैं दस साल का था जब काका हमारे यहाँ किराएदार की हैसियत से रहने अाए थे। हमेशा कहते कि तेरी शादी देखकर ही मरूँगा और तेरी शादी में ज़िन्दगी में पहली बार दारू पीकर नाचूँगा भी। जिस दिन मेरी नौकरी लगी उस दिन काका ख़ूब ख़ुश हुए और ख़ूब रोए। मैं दूसरे शहर जो जा रहा था।

काका की तबियत ख़राब है यह सुनकर मैं छुट्टी लेकर घर आया था। अगले ही दिन वो चल बसे। उनका अंतिम संस्कार भी मैंने ही किया। रात देर तक उनके बारे में बात होती रहीं। सुबह जल्दी उठकर छत पर गया तो देखा कि कबूतर, फ़ाख़्ता और अन्य चिड़ियों का झुन्ड छत की मुंडेर पर बैठा था। मैं समझ गया और पास के टिन शेड में से दाना निकाल कर छत पर बखेर दिया तो सभी पंछी दाने पर टूट पड़े और मज़े से दाना खाने लगे। हाँ इतना ज़रूर था कि जिस तरह से काका के साथ पंछी घुल-मिल गए थे वैसे मेरे पास नहीं आ रहे थे। एक दूरी बनाकर दाना खा रहे थे।

मैं सोचने लगा कि मैं तो कल चला जाऊँगा। मां अपने घुटनों की वजह से छत पर नहीं आ सकतीं, पापा कभी भी आठ बजे से पहले नहीं उठते तो फिर कल से दाना कौन खिलाएगा? तभी मेरा फ़ोन बजने लगा। फ़ोन से पता चला कि मेरी छुट्टी दो दिन और बढ़ा दी गई है। मैंने सोचा कि चलो दो दिन और… लेकिन फिर दो दिन बाद दाना कौन डालेगा?

अगले दिन सुबह मुझे उठने में देर हो गई। जल्दी-जल्दी मैं छत पर पहुँचा तो देखा कि पंछी नहीं थे। मैं सोच में पड़ गया कि आख़िर माजरा क्या है! छत पर ध्यान से देखा तो कहीं-कहीं दाने पड़े थे। दाने वाला डिब्बा देखा तो ऐसा लगा कि दाना कम हुआ है। बड़े आश्चर्य की बात थी। अगले दिन मैं जल्दी जागकर छत पर छुप कर बैठ गया। धीरे-धीरे पंछी इकट्ठा होने लगे। तभी हमारे पड़ोसियों के यहाँ काम करने वाली बाई की छोटी बेटी मुंडेर से कूदी और भागकर दाने के डिब्बे से दाने निकाल कर पंछियों को डालने लगी। पंछी उससे इतने ज़्यादा घुले-मिले लगे कि मैं आश्चर्य से देखता ही रह गया।

इसका मतलब ये था कि ये लड़की रोज़ाना काका के साथ दाना डालने आती थी और अब काका नहीं रहे तो अपना फ़र्ज़ निबाह रही है। मेरे आँखें पानी से धुंधला गईं। साथ ही मुझे काका की पेंशन के रुपयों का सदुपयोग भी समझ में आ गया।

© आदित्य चौधरी

दिनांक- 11 मई, 2017

मित्रो! मेरी एक और कहानी पढ़ें-

‘इंदिरा गांधी का हॅलीकॉप्टर’

“हम कब तक पहुँचेंगे ? अभी कितनी देर और…?”
“बस एक घंटे में पहुँच जाएँगे।” पति ने कार चलाते हुए जवाब दिया।
“क्या उम्र होगी पापा की?” पति ने फिर पूछा
“एट्टी फ़ोर… तीन दिन बाद ही तो उनका बर्डडे है और आज ही वो हमें छोड़ गए।” इतना कहकर, कार की खिड़की की तरफ़ शाम के लाल सूरज को देखने लगती है।
“हाँऽऽऽ वोई मैं सोच रहा था।” पति ने कहा

सूरज साथ-साथ चल रहा था। बचपन के दिनों में जब गाँव से ट्रेन में पापा के साथ जाती थी तो सूरज साथ-साथ चलता था।

“पापा ! सूरज साथ-साथ क्यों चलता है?”
“अरे बाबा वो तो साथ रोशनी करता चलता है न!”
पापा अक्सर माँओं वाले जवाब देते पापाओं वाले नहीं। बड़े सीधे-सादे बच्चों जैसे जवाब, कोई कठिन बात नहीं कहते थे जो मेरे बाल-मन को समझ में न आए।”
“तो फिर… तो फिर… तो फिर सूरज रात को क्यों नहीं साथ चलता?” मैंने भी मिलियन डॉलर कोश्चन ठोक दिया।
“सारा दिन भागेगा तो थकेगा भी न… सो जाता है बेचारा… चलो अब तुम भी सो जाओ। ट्रेन में सब सोने की तैयारी कर रहे हैं।”

“लो… गाँव वाला टर्न आ गया… क्या सोच रही हो…?” पति ने कहा।
“कुछ नहीं बस ऐसे ही… अ…असल में आँसू रुक नहीं रहे…”

तीन दिन गुज़र गए। पापा की रहस्यमयी ‘फ़ेमस’ नीली डायरी उनकी अलमारी में मेरे फ़ोटो के नीचे रखी मिली। बचपन में इस डायरी के पन्ने कितने सफ़ेद, चमकीले लगते थे… आज कितनी उजड़ी हुई अपने पीले पन्नों को छुपाती सी लग रही है।

ये डायरी मुझे कभी पढ़ने को नहीं मिली। मैंने जल्दी-जल्दी पन्नों को खोलना शुरू किया। एक के बाद एक पन्ना, मेरे बचपन के एक-एक दिन की तस्वीर बनाता गया। धुँधली यादों के फीके रंग गहराने लगे जैसे किसी ब्लॅक एन वाइट मूवी को कलर किया जा रहा हो। ज़िन्दगी में पहली बार अाँसू कम पड़ गए। रोने के साथ मुस्कुराना और हँसना रुक ही नही रहा था। गाँव में चारों ओर शांति थी। गाँवों में, वैसे भी सब जल्दी सो जाते हैं। कहीं दूर किसी के यहाँ शायद अखंड रामायण का पाठ हो रहा था। मैं जाग रही थी और डायरी के पन्नों को बार-बार पढ़ रही थी।

डायरी में लिखा था-
एक छोटा ताला मुनमुन के लिए, तीन पहिए की साइकिल छुट्टन के लिए, भगवानजी का मंदिर (सीता दादी के घर में जैसा है वैसा ही)। रंगीन चॉक, ब्लॅकबोर्ड, हवाई जहाज़, इंदिरा गांधी वाला हॅलीकॉप्टर, शकुन्तला जीजी के लिए धूप का चश्मा… और भी न जाने क्या-क्या सूची बनी हुई थी। अचानक आँख से एक आँसू टपका तो इंदिरा गांधी के हॅलीकॉप्टर पर गिरा। शहर में उस समय की प्रधानमंत्री, इंदिरा गांधी आईं थीं। हॅलीकॉप्टर देखकर, मैं मचल गई थी कि पापा हम हॅलीकॉप्टर कब लेंगे?

पापा जब भी गाँव से शहर जाते थे तो हम सब बच्चे अपनी-अपनी डिमांड उन्हें बताते थे। एक दिन बाद जब वे लौटते तो रात हो चुकी होती थी। हम बच्चे सो जाते थे। अगले दिन ध्यान ही नहीं रहता था कि पापा से पूछना है कि क्या-क्या लाए।

पापा उन सब चीज़ों की सूची नीली डायरी में बनाते थे। पापा की आमदनी इतनी कम थी कि वे कभी भी शहर से हमारे लिए मंहगी चीज़ नहीं ला पाए। ऐसा नहीं है कि कुछ लाते ही नहीं थे। आम तो गाँव में ही मिल जाते थे लेकिन केले और संतरे नहीं मिलते थे इसलिए टॉफ़ियाँ और केले या संतरे ज़रूर लाते थे। हमारी पढ़ाई और स्वास्थ्य के लिए पापा अपनी सारी कमाई ख़र्च करते थे जिसका नतीजा ये हुआ कि हम सब पढ़-लिख कर अच्छी नौकरी कर रहे हैं।

नीली डायरी आज पढ़ी तो अहसास हुआ कि पापा ने कितना सहेज कर हमारी सारी मांगों को लिखा था। क्या फ़र्क़ पड़ता है अगर वे कभी पूरी नहीं हो पाईं। आज समझ में आया कि पापा के जीवन की डायरी का मतलब, सिर्फ़ हमारी मांगें और उनको पूरा न कर पाने की मायूसी थी।

तभी छोटे ने आवाज़ दी और कमरे में आ गया।
“देख दीदी पापा की अटैची से ये छोटा सा हॅलीकॉप्टर मिला है। इसपे लिखा है ‘इंदिरा गांधी का हॅलीकॉप्टर’।

© आदित्य चौधरी

दिनांक- 8 मई, 2017

दूऽऽऽर-दूऽऽऽर किसी गॅलेक्सी के किसी ग्रह के किसी देश के मंत्रालय में वार्तालाप:

“सर! आश्वासन तो ख़त्म हो गए… नहीं दे सकते”
“क्या?… ऐसा कैसे हो सकता है? बाहर तो सीनियर सिटीज़न्स का एक डेलीगेशन बैठा है, अब क्या करें।”
मंत्री ने अपने सचिव पर चिंता ज़ाहिर की।
“सर इनकी मांगे मान लीजिए…”
“वो तो पॉसिबिल ही नहीं है, मांगे बहुत ज़्यादा हैं। आश्वासन ही देना होगा। वैसे एक बात बताओ कि आश्वासन ख़त्म कैसे हुए ?”
“सर! आप जब सत्ता में आए तो आपको सरकारी स्टॉक में दो हज़ार आठ सौ बाईस आश्वासन मिले थे, जिनको आपने यूज़ कर लिया। आश्वासनों की तीनों कॅटेगिरि याने; पूर्ण आश्वासन, ठोस आश्वासन और आश्वासन,… ये सब आप रोज़ाना दे रहे हैं…।” सचिव ने बताया।
“अच्छा… ठीक है-ठीक है… तो फिर हम वायदा भी तो कर सकते हैं…?”
“सॉरी सर वायदों का स्टॉक तो अपोज़ीशन के पास रहता है। अापको ये स्टॉक चुनाव के दौरान मिलेगा। सरकार वायदा नहीं करती, सरकार तो आश्वासन देती है।”
“अपोज़ीशन के पास भी तो आश्वासन होंगे…? ख़रीद लो… मुँह मांगी क़ीमत पर…?”
“सर अपोज़ीशन जब सत्ता से हटी तो नियमानुसार उसने सारे आश्वासन सत्ता पक्ष याने आपको हॅन्डओवर कर दिए। जिस तरह आपने चुनाव के दौरान बचे हुए वायदे विपक्ष को दे दिए थे।”
“कहीं न कहीं तो आश्वासन बिकते होंगे? चाहे डॉलर देने पड़ें लेकिन ख़रीद लो” मंत्री ने मंत्रियाना अंन्दाज़ में कहा।
“सर डॉलर तो क्या बिट कॉइन के बदले भी आश्वासन नहीं मिल सकते।”
“कोई न कोई तरीक़ा तो होगा अश्वासन अरेन्ज करने का?”
“सर इमरजेन्सी लगा दीजिए… तब कोई कुछ पूछने या मांगने नहीं आएगा। आश्वासन का झंझट ख़त्म।”
“हाँऽऽऽ ये ठीक रहेगा… लगा दो इमरजेन्सी”

© आदित्य चौधरी


शब्दार्थ

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