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; दिनांक- 12 दिसंबर, 2017
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मानवता, एक अत्यंत दुर्लभ गुण है। जिसे योग्यता की तरह अर्जित किया जाना या दिया जाना असंभव ही है।
|| मनहूसियत के मारे ||
मनुष्य के आवेग के क्षणों में मानवता की उपस्थिति और भी दुर्लभ हो जाती है। मानवता की परीक्षा सही मायने में, किसी व्यक्ति के क्रोध और यौन आवेग के समय ही होती है। वैसे तो सामान्य स्थिति में सभी मानवतावादी होने के दंभ भरते हैं। जो लोग देश, धर्म, जाति, व्यापार, परिवार, राजनीति, पैसा आदि के लिए मानवता के विपरीत आचरण करते हैं उन्हें मानवतावादी कैसे कहा जा सकता है। दुनिया में छद्म मानवतावादियों का बोलबाला है। सामान्यत: वास्तविक मानवतावादियों को समाज का प्रकोप सहना पड़ता है। सामाजिक होना और मानवतावादी होना दोनों एक साथ होना बहुत कठिन है शायद असंभव।
 
प्रकृति कहिए या ईश्वर कहिए, उसने पृथ्वी पर जो कुछ भी पैदा किया उसमें एक उल्लास पूर्ण गति अवश्य दी। मनहूस उदासी या आडम्बरी गंभीरता किसी भी जीव में नहीं दी। यहाँ तक कि वनस्पति में भी एक उल्लास से भरी हुई विकास की गति होती है। सूरजमुखी का फूल सूर्य को ही तकता रहता है और सूर्य जिस दिशा में जाता है उसी दिशा में वह मुड़ जाता है। फूलों की बेल, सहारे तलाश करती रहती हैं और जैसे अपनी बाहें फैलाकर सहारे को पकड़ ऊपर बढ़ती जाती हैं।
 
आप सड़क से एक पिल्ला उठा लाइये। सारा दिन घर में धमा-चौकड़ी मचाए रहेगा। कहने का सीधा अर्थ यह है जिसे हम सभी जानते ही हैं कि जीवन का अर्थ ही उत्सव और उल्लास है। प्रत्येक मनुष्य का प्रत्येक बच्चा जन्म से ही नृत्य, गायन, वादन, चित्रकारी, मूर्तिकारी, खेल जैसी आदि प्रतिभाओं से परिपूर्ण होता है। जिज्ञासा से भरा खोजी स्वभाव प्रत्येक बच्चे का स्वाभाविक गुण होता है। यह स्थिति मानसिक रूप से दिव्यांग बच्चों में भी होती है। मैंने बड़े क़रीब से देखा है ऐसे बच्चों को जिनकी मानसिक क्षमता हटकर होती हैं और जिन्हें हम मानसिक रूप से अविकसित या विशिष्ट रूप से विकसित मानते हैं। इन बच्चों में भी प्रसन्नता और उल्लास का भाव भरपूर होता है।
 
समस्या तब शुरु होती है जब धीरे-धीरे बच्चा बड़ा होने लगता है तो अधिकतर माता-पिता (या अन्य अभिभावक) उसकी इन प्रतिभाओं को बड़े गर्व के साथ समाप्त करने में लग जाते हैं। इसमें स्कूल भी अपनी भूमिका बख़ूबी निबाहता है। अधिकतर स्कूलों में शिक्षा जिस तरीक़े से दी जा रही है वह बेहद शोचनीय अवस्था है। पढ़ाई में सृजनात्मकता जैसा कुछ भी नहीं होता। उन्हें वह नहीं सिखाया जाता जोकि उनके व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में सहायक होगा और वे स्वयं अपनी सफलता का रास्ता चुन सकेंगे बल्कि उनको एक पारंपरिक तरीक़े की पढ़ाई दी जाती है जिससे वे कुछ नया करने की बजाय ख़ुद को किसी न किसी जॉब के लायक़ बनाने में लग जाते हैं।
 
महान विचारक जे. कृष्णमूर्ति ने कहा भी है कि स्कूलों में बच्चों को ‘क्या सोचा जाय सिखाने की बजाय कैसे सोचा जाय’ यह सिखाना चाहिए। इस आउटडेटेड उबाऊ शिक्षा पद्धिति के कारण बच्चों के भीतर की उमंग और उल्लास ख़त्म होने लगता है। ओढ़ी हुई गंभीरता मनहूसियत भरी उदासी उनका स्थाई स्वभाव बन जाता है। बच्चों को यह मौक़ा ही नहीं दिया जाता वे जान सकें कि उनमें कौन सी विशेष प्रतिभा है। बच्चों की मार्कशीट ही उनकी योग्यता की पहचान बन जाती है।
 
ज़रा बताइये कि मैंने कॅलकुलस, ट्रिगनोमॅट्री, वेक्टर, प्रॉबेबिलिटी आदि की पढ़ाई की… वह मेरे किस काम आ रही है… किसी काम नहीं। इसमें कोई दो राय नहीं कि गणित मेरा पसंदीदा विषय था लेकिन मुझे उन विषयों या क्षेत्रों को छेड़ने का मौक़ा ही नहीं मिला जो मेरे प्रिय हो सकते थे या उनमें से कोई एक मेरा पॅशन बन सकता था।
 
व्यवसाय में पिता अपने वारिस को सिखाता है कि बेटा-बेटी जितनी ज़्यादा मनहूसियत भरी गंभीरता तुम ओढ़े रहोगे तुमको उतना ही बड़ा बिजनेसमॅन समझा जाएगा। सरकारी कार्यालय में चले जाएँ तो ऐसा लगता है कि यहाँ अगर ज़ोर से हँस पड़े तो शायद छत ही गिर पड़ेगी क्योंकि उस छत ने कभी हंसी की आवाज़ सुनी ही नहीं (सुबह-सुबह सफ़ाई कर्मचारी ही शायद हँसते हों)। आलम ये है कि ओढ़ी हुई गंभीरता एक संस्कृति बन चुकी है। अब न तो इस मनहूस संस्कृति को क्या नाम दिया जाय यह समझ में आता और इसको ख़त्म करने का उपाय ही।
 
एक सामान्य शिष्टाचार है कि किसी अजनबी से आपकी नज़र मिल जाय तो हल्का सा मुस्कुरा दें। यह शिष्टाचार यूरोपीय देशों में बहुत आम है। हमारे देश में यदि आप किसी अजनबी को देखकर मुस्कुरा गए और यदि वो लड़की हुई तो सोचेगी कि आप उसे छेड़ रहे हैं और यदि कोई लड़की किसी अजनबी लड़के को देखकर मुस्कुरा गई तो लड़का समझेगा कि यह प्रेम का निमंत्रण है।
 
क्या आपको नहीं लगता कि ये सब बातें स्कूल में सिखाई जानी चाहिए? मेरी आज तक यह समझ में नहीं आया कि स्कूल में बच्चों को घर का काम करना क्यों नहीं सिखाया जाता। जैसे; चाय-बिस्किट-नाश्ता बनाना, कपड़े तह करना, कपड़े इस्तरी करना, शारीरिक सफ़ाई, माता-पिता से व्यवहार, कील-चोबे लगाना, कपड़ों में बटन लगाना, छोटे बच्चे की देख-भाल करना, बाग़वानी, आदि-आदि। इसके अलावा ‘डू इट योरसेल्फ़’ की बहुत सी चीज़ें सिखाई जानी चाहिए, ज़रूरतमंद लोगों की मदद क्यों, कब और कैसे करें यह उनके स्वभाव में आना चाहिए। यह सब लड़की-लड़कों को समान रूप से सिखाना चाहिए। खाना बनाना लड़कों को भी आना चाहिए। कामकाजी पति-पत्नी के घर में दोनों ही लगभग सभी काम करते हैं। ये सब बच्चों को स्कूल में सिखाया जाना चाहिए। कुछ व्यावहारिक प्रयोगों द्वारा और कुछ विडियो दिखाकर।
 
यह तो ठीक है कि हम बच्चों को महान व्यक्तियों के बारे में बताकर उन्हें अच्छा इंसान बनने के लिए प्रेरित करते हैं लेकिन बच्चों को यह भी बताना चाहिए कि छोटे बच्चे घर के कामों में अपनी माता-पिता की मदद करके भी महान बनते हैं। उनको पता होना चाहिए कि यदि वे काम पर जाने से पहले अपने पिता की साइकिल-बाइक-कार को पोंछ देंगे तो यह कितना बड़ा काम होगा। रसोई में मां का हाथ बटाएँगे तो उनके द्वारा किया काम कितना महत्वपूर्ण होगा।
 
ज़रूरत तो इस बात की है कि प्रत्येक स्कूल, कॉलेज में कुछ विषय अलग से पढ़ाए जाने चाहिए। जिनसे छात्राओं और छात्रों को अच्छा इंसान बनने में मदद मिले। ‘संस्कृति’ एक अलग विषय होना चाहिए और इस विषय के अधीन सब-कुछ सिखाना चाहिए।
© आदित्य चौधरी
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| 11 फ़रवरी, 2014
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; दिनांक- 5 दिसंबर, 2017
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बहुत से माता-पिता, अपने अभिभावक होने के अति उत्साह में अपने बच्चों कि लिए बहुत से फ़ैसले करने की सुविधा को अपना अधिकार समझने लगते हैं।  
“कोई आज भी है जो सुनता है…”
बच्चों के काफ़ी बड़े होने पर भी माता-पिता ही, उनके लिए अच्छा क्या है और बुरा क्या है, यह ख़ुद ही तय करने की प्रक्रिया अपनाते है।
 
जो कि सर्वथा ग़लत है।
यह बात उन दिनों की है जब भारत पर अंग्रेज़ों का शासन था और देशभक्त क्रांतिकारी अंग्रेज़ों का विरोध कर रहे थे।
माता-पिता का कर्तव्य अपनी संतान के लिए अच्छे-बुरे में से अच्छा चुनकर उस पर संतान को चलने पर मजबूर करना नहीं है बल्कि माता-पिता का कर्तव्य तो अपनी संतान को यह बताना है कि क्या अच्छा है और क्या बुरा।
एक अंग्रेज़ अधिकारी गांधीजी से मिलने आया। उससे काफ़ी देर महात्मा गांधी से बात-चीत की, कई विषयों पर चर्चा हुई। इसके बाद वह विदा लेकर चला गया। उसके जाने के बाद गांधी जी को बताया गया कि जिस रेलगाड़ी से वह अंग्रेज़ अधिकारी आ रहा था, उस रेलगाड़ी पर क्रान्तिकारियों ने बम फेंका और जिस रेल के डिब्बे में वह अंग्रेज़ बैठा था उस डिब्बे का आधा हिस्सा बम के कारण क्षतिग्रस्त हो गया। जिस व्यक्ति ने गांधी जी को यह सूचना दी उसने पूछा कि उस अंग्रेज़ अधिकारी ने आपसे यह चर्चा अवश्य की होगी। गांधीजी ने बताया कि उसने इस तरह की कोई चर्चा नहीं की।
माता-पिता को चाहिए कि बच्चों को इस लायक़ बनाएँ कि वे स्वयं अच्छा बुरा तय कर सकें।
 
ज़रा सोचिए कि उस अंग्रेज़ ने बम फ़ेंकने की चर्चा क्यों नहीं की? इसका कारण है कि वह अंग्रेज़ नहीं चाहता था कि गांधी से वार्ता करते समय किसी ऐसी बात का ज़िक्र किया जाए जिससे कि वार्तालाप का माहौल असहज हो जाए। निश्चित रूप से इस वार्तालाप में दोनों ही सहज नहीं रह पाते यदि बम फ़ेंकने की घटना का ज़िक्र वह अंग्रेज़ अधिकारी कर देता।
 
यदि आप चाहते हैं कि लोग आपकी उपस्थिति को पसंद करें तो आपको अपने 'सुभीता स्तर' (Comfort level) की तरफ़ ध्यान देना चाहिए। याने आपकी मौजूदगी में लोग कितना सहज महसूस करते हैं। जो लोग आपके सहकर्मी, मित्र, परिवारीजन आदि हैं उन्हें आपकी उपस्थिति में कितनी सहजता महसूस होती है। सदा स्मरण रखने योग्य बात यह है कि आप योग्य कितने हैं यह बात तो महत्वपूर्ण है ही बल्कि आपका सुभीता स्तर कितना है, यह अधिक महत्वपूर्ण है। एक सफल व्यक्तित्व का रहस्य बुद्धि, प्रतिभा या योग्यता में ही छुपा नहीं है बल्कि 'सुभीता स्तर' (Comfort level) इसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
 
आजकल लोग (ऍन्ड ऑफ़कोर्स लेडीज़ ऑलसो) सुनते नहीं हैं। बोलने से ज़्यादा ज़रूरी है सुनना। सुनने के तरीक़े हैं तीन… तीन क्या बल्कि चार।
पहला तरीक़ा: सबसे घटिया तरीक़ा है। इसमें सुनने वाला कहने वाले की बात काट कर अपनी बात कहने लगता है। यह व्यक्ति सबको अप्रिय होता है।
दूसरा तरीक़ा: कहने वाले को यह लगता रहता है कि सुनने वाला कुछ कहना चाहता है। सुनने वाले के हाव-भाव-भंगिमा और आँखें, कहने वाले को, ऐसा संदेश देती हैं। जिससे कहने वाला चुप हो जाता है या फिर कहता है ”कहिए ! आप कुछ कहना चाहते हैं क्या?” सुनने का यह तरीक़ा भी घटिया ही है।
तीसरा तरीक़ा: यह तरीका बहुत सही है। इसमें सुनने वाला कहने वाले की बात ध्यान से सुनता है। अपने किसी हाव-भाव से यह महसूस नहीं होने देता कि वो ध्यान से नहीं सुन रहा।
चौथा तरीक़ा: इसमें हम कहने वाले को कुछ कहने के लिए कहते हैं, कोई प्रश्न करते हैं और उत्तर ध्यान से सुनते हैं। इस तरीक़े में हम लोगों के मौन को भी सुनने की कोशिश करते हैं और उन लोगों को कुछ कहने के लिए प्रोत्साहित करते हैं जो बहुत कम ही बोलते हैं।
 
इस चौथे तरीक़े से बहुत कुछ सीखने को मिलता है। मैं अक्सर उन लोगों को बोलने के लिए प्रोत्साहित करता हूँ जो बहुत कम बोलते हैं।
एक संस्मरण: मेरे यहाँ एक घरेलू कर्मी था। जिसका काम मेरे साथ रहकर मेरे छोटे-मोटे काम करना था। उसे सब कमअक़्ल मानते थे। मैं उससे कोई न कोई सवाल करके उसी प्रतिक्रिया सुन लेता था। एक दिन घर के सामने से हाथी जा रहा था। मैंने कहा कि कमाल की बात है धरती का सबसे बड़ा जीव है और कितना शांत है? घरेलू कर्मी बोला कि सबसे बड़ा है इसीलिए तो शांत है। मैं उसके जवाब से दंग रह गया। कितना सटीक उत्तर था उसका।
 
ज़िन्दगी में अगर सुनना सीख लेंगें तो बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। लोगों ने सुनना तो लगभग बंद ही कर दिया है। किसी से मिलने जाते हैं तो नज़र मोबाइल फ़ोन पर ही बनी रहती है। मुझे बुज़ुर्गों से बात करने में ज़्यादा आनंद होता है क्योंकि उनमें से ज़्यादातर स्मार्ट फ़ोन इस्तेमाल नहीं करते। व्यस्तता बहुत बढ़ गई है। वैसे भी व्यस्तता एक फ़ैशन बन गया है। जिन्हें कोई भी ज़रूरी काम नहीं है उनकी व्यस्तता देखकर तो और आनंद होता है। इस व्यस्तता का दिखावा भी आपके सुभीता स्तर के लिए नुक़सानदायक है।
 
© आदित्य चौधरी
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|  26 फ़रवरी, 2014
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; दिनांक- 7 नवंबर, 2017
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मेरे प्रिय मित्र ने मुझसे प्रश्न किया है कि भगवान कृष्ण की सोलह कलाएँ कौन-कौन सी थीं?
“After Japan, China will rise and gain prosperity and strength. After China, the sun of prosperity and learning will again smile at India.”
          मेरा उत्तर: लगभग तीसरी-चौथी शताब्दी (ईसवी) तक कला का प्रयोग 'अंश', 'भाग' या 'खण्ड' के लिए हुआ। सूर्य की गति को बारह भागों में बाँटा गया जिसे राशि भी कहा गया। राशि का अर्थ भी हिस्से या अंग्रेज़ी में कहें तो 'Portion' से ही था। सूर्य की गति को बारह कलाओं या राशियों में बाँटा गया और चन्द्रमा को सोलह कलाओं में।
 
        तीसरी-चौथी शताब्दी के बाद कला शब्द का अर्थ 'Art' के लिए होने लगा। जिसका कारण वात्सायन और जयमंगल द्वारा मनुष्य  की विभिन्न रङ्ग (रंग) क्षमताओं, विधाओं और सेवाओं को श्रेणीबद्ध कर देना रहा। जयमंगल ने इन्हें 64 श्रेणियों में विभक्त किया। जिन्हें चौंसठ योगिनी के रूप में भी प्रसिद्धि, वज्रयानियों के प्रभाव से निर्मित खजुराहो आदि में मिली।
ये शब्द किसी अंग्रेज़ अर्थशास्त्री के नहीं हैं बल्कि सन् 1902 में जापान और अमरीका की यात्रा के दौरान प्रसिद्ध वेदान्ती स्वामी रामतीर्थ के हैं। दो वर्ष अमरीका में बिताने पर स्वामी जी अमरीकियों के लिए अचम्भा बन गए थे। बर्फ़ गिरती रहती थी और रामतीर्थ निचले शरीर पर केवल धोती पहने उसमें चल देते थे। नंगे कन्धों पर बर्फ़ गिरती तो उसे झाड़ देते थे। लोग आश्चर्य से ऐसे व्यक्ति को देखते रह जाते थे।
        जिन सोलह कला का उल्लेख कृष्ण के लिए हुआ उसका संदर्भ अंश है न कि कोई 'आर्ट'। इसके लिए वैदिक और पौराणिक दो मान्यता हैं।
 
        पूर्णावतार, ईश्वर के सोलह अंश (कला) से पूर्ण होता है। सामान्य मनुष्य में पाँच अशों (कलाओं) का समावेश होता है यही मनुष्य योनि की पहचान भी है। पाँच कलाओं से कम होने पर पशु, वनस्पति आदि की योनि बनती है और पाँच से आठ कलाओं तक श्रेष्ठ मनुष्य की श्रेणी बनती है। अवतार नौ से सोलह कलाओं से युक्त होते हैं। पन्द्रह तक अंशावतार ही हैं। राम बारह और कृष्ण सोलह कलाओं से पूर्ण हैं।
स्वामी जी ने जब संन्यास लिया तब वे गणित के प्रोफ़ेसर थे। भारत के लिए उनके वक्तव्य अत्यंत उत्साह से भरे होते थे। वे कहते थे-
        एक मान्यता यह भी है कि राम सूर्यवंशी हैं तो सूर्य की बारह कलाओं के कारण, बारह कलायुक्त अंशावतार हुए। कृष्ण चंद्रवंशी हैं तो चन्द्रमा की सोलह कलाओं से युक्त होने के कारण पूर्णावतार हैं। 
 
'कला' की तरह ही अनेक ऐसे शब्द हैं जिनके अर्थ कालान्तर में बदल गए। जिनमें से एक शब्द 'संग्राम' भी है। प्राचीन काल में विभिन्न ग्रामों के सम्मेलन को संग्राम कहते थे। इन सम्मेलनों में अक्सर झगड़े होते थे और युद्ध जैसा रूप धारण कर लेते थे। धीरे-धीरे संग्राम शब्द युद्ध के लिए प्रयुक्त होने लगा।   
“भारत क्या है? मैं भारत हूँ। मेरा शरीर मानो उसकी भूमि है। मेरे दो पैर मालाबार और चोलमण्डल हैं। मेरे चरण कन्याकुमारी हैं। मेरा मस्तक हिमालय है। गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी प्रचण्ड नदियाँ मेरे केश हैं। राजस्थान और गुजरात मे मरुस्थल मेरा हृदय है। पूर्व और पश्चिम दिशाओं में मेरी भुजाएँ फैली हैं।” स्वामी विवेकानन्द के प्रभामंडल के कारण उनके ही समकालीन स्वामी रामतीर्थ को लोग ज़्यादा नहीं जान पाए। रामतीर्थ ने नयी पीढ़ी को जगाने का काम विवेकानन्द की तरह ही किया।
        'शास्त्र' शब्द को कला ने बहुत सहजता के साथ बदल दिया पाक शास्त्र , सौंदर्य शास्त्र, शिल्प शास्त्र आदि सब क्रमश: पाक कला, सौन्दर्य कला, शिल्प कला आदि हो गए।
 
भारत को एक व्यक्ति के रूप में देखना और भारत के प्रत्येक नागरिक को भारत के रूप में देखना स्वामी रामतीर्थ की अद्भुत धारणा वास्तव में ही सत्य है। ज़रा सोचिए कि यह बात कितनी महत्वपूर्ण है कि भारत ने किसी पड़ोसी पर कभी आक्रमण नहीं किया। जो विदेशी भारत में आकर शासन कर गए उनको भी बहुत हद तक भारत की परंपराओं में ढलना पड़ा।
 
अाज जिसे हम हिन्दू धर्म कहते हैं उसकी असंख्य शाखाओं की आस्था, मत, धार्मिक विश्वास, पूजा-अर्चना, अनुष्ठान, कर्मकाण्ड आदि में आश्चर्यजनक विविधताएँ हैं। भारतीय दर्शन परंपरा में ईश्वर के अस्तित्व और स्वरूप को लेकर विभिन्न मत हैं। कोई साकार ईश्वर में आस्था रखता है तो कोई निराकार में और कोई-कोई तो ईश्वर के अस्तित्व को ही नहीं मानते। कमाल यह है कि यह सब हिन्दू धर्म में शामिल हैं।
 
प्राचीन ग्रंथों में बहुत सी जानकारियाँ ऐसी हैं जो बहुत महत्वपूर्ण हैं। पौराणिक काल में राजा अपने पुत्रों में से राज्य के उत्तराधिकारी को चुनने के लिए अनेक प्रकार की शिक्षाओं की व्यवस्था करता था। अयोध्या के राजा दशरथ ने अपने पुत्रों से अनेक संप्रदायों के ऋषि-मुनियों और आचार्यों की चर्चा करवाने की व्यवस्था की थी। राजा दशरथ राम के पास लोकायतों (चार्वाक) के आचार्यों को भेजा जिन्होंने राम को चार्वाक दर्शन का ज्ञान देने की चेष्टा की जिसमें नास्तिक होने के लाभ बताए गए लेकिन किशोरवय राम की आस्था वैदिक परंपराओं में थी। इसलिए राम ने उन्हें नकार दिया और क्षमा मांग ली। इसके अलावा भी अन्य विचारधाराएँ थीं जिनके अनुयायी पर्याप्त मात्रा में थे और आज भी हैं। इसी क्रम में, आजीवक एक अत्यंत प्राचीन संप्रदाय है। जिसके साधु और भिक्षु मस्करी वेष में रहा करते थे। रावण जब सीता हरण के लिए आया था उस समय वह इसी आजीवक संप्रदाय के मस्करी वेष में आया था।
 
भारत का यह रंग-रंगीला स्वरूप आज भी बदला नहीं है। विभिन्न धर्मों और संप्रदायों को मानने वाले भारत में शान से रह रहे हैं और उन्हें संविधान में समान अधिकार प्राप्त हैं।
 
कुछ ही समय पहले की बात है जब एक सिख, भारत का प्रधानमंत्री (मनमोहन सिंह), एक मुसलमान, राष्ट्रपति (अब्दुल कलाम), एक हिन्दू, सदन में विपक्ष के नेता (अटल बिहारी वाजपेयी) और एक जन्म से ईसाई, शासक पार्टी की अध्यक्ष (सोनिया गांधी) होने का विलक्षण संयोग हुआ। यह भी भारत में ही संभव है।
 
नोट: (पाठकगण क्षमा करें, ऊपर के अनुच्छेद में मैंने श्रीमती सोनिया गांधी को ‘जन्म से ईसाई’ इसलिए लिखा है क्योंकि मुझे उनकी वर्तमान धार्मिक स्थिति पता नहीं है।)
 
कुछ बातें मन पर छाप छोड़ जाती हैं और अपने भारतवासी होने पर और भी अधिक गर्व होने लगता है।
अभी पिछले दिनों मुहम्मद अली जिन्हा की बेटी का देहावसान हुआ। लोगों को जानकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि पाकिस्तान बनाने वाले पाकिस्तान के क़ायद-ए-आज़म की बेटी भारत में रहती थी! पाकिस्तान में न तो जिन्हा को और न ही उनकी बहन फ़ातिमा को समुचित सम्मान दिया गया। जिन्हा के इलाज में लापरवाही हुई और
उनकी बहन फ़ातिमा तो चुनाव ही हार गयीं। जिन्हा की बेटी सम्मानपूर्वक भारत में रहीं और उन्होंने पाकिस्तान को कभी पसंद नहीं किया।
 
© आदित्य चौधरी
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| 21 फ़रवरी, 2014
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; दिनांक- 2 नवंबर, 2017
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ईश्वर के विषय में मुझसे बार-बार कई प्रश्न पूछे गए हैं-
आजकल रानी पद्मावती (पद्मिनी) को लेकर काफ़ी हंगामाई बहस छिड़ी हुई है। कुछ कहते हैं कि पद्मावती कोई ऐतिहासिक चरित्र ‘नहीं है’ और कुछ कहते हैं कि ‘है’। अलाउद्दीन ख़लजी के चित्तौड़ आक्रमण के लगभग 237 वर्ष बाद, ई.सन् 1540 के क़रीब मलिक मुहम्मद जायसी ने पद्मावत नाम से एक महाकाव्य रचा।
ईश्वर है या नहीं?
 
आप ईश्वर को मानते हैं या नहीं?
इस महाकाव्य के कुछ प्रमुख चरित्र; रानी पद्मिनी, राणा रतनसेन, अलाउद्दीन ख़लजी, राघव चेतन, गोरा-बादल और एक इंसानों की तरह बोलने वाला तोता हीरामन हैं।
ईश्वर कैसे मिलेगा?
अब चूँकि इस विषय पर फ़िल्म बन रही है और काफ़ी चर्चा में है तो इसका कथानक उनको भी याद हो गया है जिनको नहीं था, ये फ़ेसबुक और वॉट्स ऍप की करामात है। इसलिए कथानक पर चर्चा व्यर्थ ही है।
 
मलिक मुहम्मद जायसी के जीवन की घटनाएँ कहीं किसी इतिहास में दर्ज नहीं हैं। कथा-कहानियों से ही जायसी के जीवन का कुछ पता चलता है। चेचक से जायसी के चेहरे पर दाग़ हो गए और एक आंख चली गई। ‘जायसी’ उपनाम जायस (पहले राय बरेली और अब अमेठी का एक नगर) में रहने के कारण पड़ा। बाद में जायसी ने एक चमत्कारी सूफ़ी संत के रूप में प्रसिद्धी पायी।
 
जायसी को अफ़ीम के नशे की लत थी। अफ़ीम का नशा आदमी को कल्पनालोक में ले जाता है। उस समय माज़ून (भांग से बनती है) और अफ़ीम का काफ़ी प्रचलन था। शराब में अफ़ीम मिला कर पीने का भी चलन था। जिसका ज़िक्र बाबर ने बाबरनामा में किया है। अकबर भी शराब में अफ़ीम मिलाकर पिया करता था।
 
जायसी की मृत्यु के संबंध में एक काल्पनिक कथा प्रचलित है। कहते हैं कि जायसी अपने जादू से शेर बनकर जंगल में घूमा करता था। एक शिकारी ने इस शेर के रूप में जायसी को मार डाला।
 
कुछ इतिहासकारों ने पद्मिनी के जौहर को काल्पनिक कथा बताया है। इस पर चर्चा बाद में पहले सिकंदर के भारत आक्रमण के समय घटी एक घटना का ज़िक्र-
पाणिनि ने अग्रश्रेणय: नामक एक छोटे से नगर-राष्ट्र (या आज की भाषा में कहें तो क़बीले का) ज़िक्र किया है। जो इतिहास में यूनानी भाषा में परिवर्तित होकर अगलस्सोई हो गया। इन अगलस्सोई नागरिकों ने यूनानी आक्रांता सिंकंदर का जम कर मुक़ाबला किया। भारतकोश पर इसका विवरण इस तरह है:-
 
* अगलस्सोई सिकंदर के आक्रमण के समय सिन्धु नदी की घाटी के निचले भाग में शिविगण के पड़ोस में रहने वाला एक गण था।
* शिवि गण जंगली जानवरों की खाल के वस्त्र पहनते थे और विभिन्न प्रकार के ‘गदा’ और ‘मुगदर’ जैसे हथियारों का प्रयोग करते थे।
* सिकन्दर जब सिन्धु नदी के मार्ग से भारत से वापस लौट रहा था, तो इस गण के लोगों से उसका मुक़ाबला हुआ।
* अगलस्सोई गण की सेना में 40 हज़ार पैदल और तीन हज़ार घुड़सवार सैनिक थे। उन्होंने सिकन्दर के छक्के छुड़ा दिए, लेकिन अन्त में वे पराजित हो गए।
• यूनानी इतिहासकारों के अनुसार अगलस्सोई गण के 20 हज़ार आबादी वाले एक नगर के लोगों ने स्वयं अपने नगर में आग लगा दी और अपनी स्त्रियों और बच्चों के साथ जलकर मर गए, ताकि उन्हें यूनानियों की दासता न भोगनी पड़े। यह कृत्य राजपूतों में प्रचलित जौहर प्रथा से मिलता प्रतीत होता है।
 
अगलस्सोई की पहचान पाणिनिके व्याकरण में उल्लिखित अग्रश्रेणय: से की जाती है।
 
भारत में अनेक कथाएँ हैं जो जन-जन में लोकप्रिय हुईं और इनमें से कई कथाओं के पात्र भारत की जनता के लिए श्रद्धेय हो गये।
जैसे अाल्हा ऊदल, नल दमयंती, कच देवयानी आदि।
आल्हा-ऊदल काव्य में लिखा है:-
 
बड़े-बड़े चमचा गढ़ महोबे में
नौ-नौ मन जामें दार समाय
बड़े खबैया गढ़ महोबे के
नौ-नौ सै चमचा खा जाएँ
 
अब इसमें कहाँ सचाई तलाशी जाय? नौ मन दाल वाले चमचे और नौ सौ चमचे दाल खाने वाले आदमी?
नल-दमयंती की कथा में नल की कथा दमयंती और राजा नल को एक इंसानों की तरह बोलने वाला हंस सुनाता है। कच-देवयानी की कथा में कच को पकाकर शुक्राचार्य को खिला दिया जाता है और वह पेट में जीवित हो जाता है। यदि कोई इन कथाओं का ऐतिहासिक महत्व पूछे या फिर वैज्ञानिक महत्व पूछे तो?
 
इस प्रश्नों का कोई अर्थ नहीं है। ये तो कथाएँ हैं। इनके नायक-नायिका जन साधारण में कब और कितना महत्वपूर्ण बन जाएँ कोई नहीं कह सकता। अनेक व्यक्ति ऐसे हुए हैं जिनको अवतार और भगवान की मान्यता मिली है।
 
रानी पद्मिनी के जौहर की घटना का पं. जवाहर लाल नेहरू ने ज़िक्र किया है। राजस्थान का इतिहास लिखने वाले कर्नल टॉड ने भी इस घटना का ज़िक्र किया है। आजकल कर्नल टॉड के इतिहास को कोई ख़ास मान्यता नहीं दी जाती साथ ही पं. जवाहर लाल नेहरू को भी इतिहासकारों की श्रेणी में नहीं माना जाता। मशहूर फ़ारसी इतिहासकार फ़रिश्ता ने जायसी के पद्मावत को इतिहास माना है।
 
आज के इतिहासकार जायसी के पद्मावत की अनेक घटनाओं में विरोधाभास और इतिहास विरोधी तारीख़ों का उल्लेख करते हुए इसे इतिहास से अलग करते हैं। इतना अवश्य है कि आधुनिक इतिहासकारों के मत से तीन तथ्य ऐतिहासिक हैं; रतनसेन का चित्तौड़ में राजतिलक, ख़लजी का चित्तौड़ पर आक्रमण और चित्तौड़ में स्त्रियों द्वारा जौहर।
 
अब प्रश्न यह उठता है कि हमारे देश में एक ऐसी हृदय विदारक घटना घटी और इस घटना को जन-जन में कभी न भूलने वाली एक याद के रूप में कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने लोकप्रिय कर दिया तो क्या कोई गुनाह कर दिया? हम सभी भारतवासियों को अपनी संस्कृति और गौरवशाली इतिहास पर गर्व तभी तो होगा जब इसको हमें बार-बार याद दिलाया जाएगा।


मेरा उत्तर है:
एक नज़र फ़िल्म के कथानक पर भी डाली जाय- एक कल्पना तो जायसी ने की जिसके कारण पद्मिनी की कथा आज इतनी महत्वपूर्ण हो गई कि भारतवासी उसे अपनी अस्मिता और गौरव से जोड़ने लगे। दूसरी कल्पना फ़िल्म के लेखक ने की जिसमें अल्लाउद्दीन ख़लजी को स्वप्न में पद्मिनी के साथ विहार करते सोच लिया जो कि मनोवैज्ञानिक ढंग से संभव हो सकती है लेकिन समाज के लिए पूर्णत: नकारात्मक सोच है। कल्पना असीम होती है लेकिन कल्पना की अभिव्यक्ति सदैव सीमित और संयमित होती है।
जो ईश्वर के संबंध में प्रश्न करता है, वह इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए परिपक्व नहीं है और जो परिपक्व है वह कभी ईश्वर के संबंध में कोई प्रश्न नहीं पूछता।
 
ईश्वर अज्ञात है और उसका अज्ञात होना ही उसका ईश्वर होना है। जो ज्ञात है या हो सकता है, वह ईश्वर कैसे हो सकता है।
आज ख़लजी के स्वप्न में पद्मिनी को दिखाने का प्रयास है तो कल रावण के स्वप्न में सीता को दिखाने का प्रयास किया जाएगा और बहाना मनोविज्ञान और कला का लिया जाएगा। मेरा नज़रिया इस संबंध में स्पष्ट है लेकिन फ़िल्म के निर्माता लीला भंसाली के साथ हाथापाई या फ़िल्म के सेट को क्षति पहुँचाना भी ग़लत है। अदालत में जन हित याचिका एक सही और क़ानूनी रास्ता है।
ईश्वर की खोज के साधन उपलब्ध नहीं हैं। जिन साधनों से ईश्वर प्राप्ति की बात की जाती है वे सभी ज्ञात साधन हैं। अज्ञात की खोज कभी ज्ञात साधनों की सहायता से नहीं होती।
 
© आदित्य चौधरी
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| 21 फ़रवरी, 2014
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; दिनांक- 22 मई, 2017
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तेरी शोहरतें हैं चारसू, तू हुस्न बेपनाह है
मुझसे एक प्रश्न पूछा गया: आत्मबोध, स्वजागरण, अन्तरचेतना, प्रबोधन (एन्लाइटेनमेन्ट) आदि शब्दों से क्या तात्पर्य है ?
तेरे चाहने वाले बहुत, क़द्रदाँ कोई नहीं
 
तेरा सब्र भी कमाल है, बफ़ा तो बेमिसाल है
मेरा उत्तर: आपका व्यक्तित्व दूसरों का अनुसरण और नक़ल करके बना है। जाने-अनजाने ही न जाने कितने व्यक्तियों के व्यक्तित्व की विशेषताएँ, आदतें, हाव-भाव आदि आपके भीतर आ जाती हैं। आपको जब भी जहाँ भी कोई बात प्रभावित करती है तो वह आपके व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाती है। किसी के; पैदल चलने का ढंग, बोलने का ढंग, गाने का ढंग आदि से आप इस क़दर प्रभावित रहते हैं कि उसे अपना लेते हैं।
हासिल है आसमाँ तुझे, मिलती ज़मीं कोई नहीं
 
इसी तरह आपके सोचने की प्रक्रिया और सोचने का ढंग स्वयं का न होकर किसी न किसी के द्वारा निर्देशित होता है। आपको बचपन से ही यह सिखाया जाता है कि आप क्या सोचें जबकि सिखाया यह जाना चाहिए कि आप कैसे सोचें। अनेक शिक्षाओं, अनुशासनों, उपदेशों, नसीहतों आदि के चलते आप एक निश्चित घेरे में सोचने का कार्य करते हैं। आपका दिमाग़, सूचनाओं और ज्ञान का गोदाम बन जाता है जिसमें किसी नए विचार का अंकुर फूटना नामुमकिन हो जाता है।
 
हालत यहाँ तक हो जाती है कि किस बात पर करुणा करनी है और किस पर क्रोध, यह भी दिमाग़ में कूट-कूट कर भर दिया जाता है। कोई धर्म और कोई जाति दे दी जाती है जिसको आपको मानना होता है। आपको बताया जाता है कि क्या सही है और क्या ग़लत। इस सब से बनता है आपका व्यक्तित्व। यह व्यक्तित्व आपका अपना नहीं है। आपके दिमाग़ में नए विचार नहीं हैं। ईश्वर, अल्लाह या जीसस का अनुसरण, आपने अपने मन से नहीं चुना है। आप एक जीवित रोबॉट भर हैं।
 
आप जाग्रत तब होते हैं जब आप अपने दृष्टिकोण से सब कुछ देखते हैं। अपने जीवन के निर्णायक और निर्माता आप स्वयं होते हैं। आपके विचार स्वयं आपके विचार होते हैं। आप स्वतंत्रता के मुक्त आकाश के नीचे अपनी धरती पर मुक्त विचरण करते हैं। दूसरे के कहे या लिखे को बिना विचारे मानते नहीं हैं। जब आपको पता होता है कि आप कितने स्वतंत्र हैं और कितने परतंत्र। आप ईश्वर को स्वयं ही समझने का प्रयास करते हैं, न कि दूसरों से पूछते फिरते हैं। आप अपने से छोटों और संतान पर अपने विचार लादते नहीं है बल्कि उन्हें भी स्वयं निर्णय लेने में सक्षम बनाते हैं।
 
इसी को कहते हैं एनलाइटेनमेंन्ट और इसके लिए ध्यान धरना बहुत लाभदायक है।
 
© आदित्य चौधरी
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| 11 फ़रवरी, 2014
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; दिनांक- 19 मई, 2017
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मेरे ताज़ा तरीन मित्र, श्री मुहम्मद ग़नी ने एक सच्ची और अच्छी कहानी चुनी फ़िल्म बनाने के लिए और बना भी डाली। फ़िल्म के 'ज़ीरो बजट' के चलते (जैसे आजकल ज़ीरो फ़िगर) इसमें तकनीक की कुछ कमियाँ ढूंढना बहुत आसान है लेकिन यदि तुलना इस बात से की जाय कि यथार्थ के क़रीब कौन सी फ़िल्म है तो 'थ्री इडियट' से कहीं बहुत-बहुत ज़्यादा यथार्थ आपको इस फ़िल्म में मिलेगा और 'तारे ज़मीन पर' से ज़्यादा ये आपके दिल को छुएगी।
प्रिय मित्रो! जैसा कि आपने चाहा... मैंने एक कहानी और लिखी है। ज़रा देखिए कैसी है!
मेरे निवास पर, ख़ास मेरे लिए, ग़नी साहिब ने इस फ़िल्म की स्क्रीनिंग रखी तो बहुत सुखदायी लगा। फ़िल्म के निर्देशक के साथ फ़िल्म देखना मेरे लिए एक प्रिय अहसास होता है।


मेरी लिखी कुछ पंक्तियों को इस फ़िल्म ने, जिसका कि नाम 'क़ैद' है, मायने दिए हैं।
'एक रात अचानक'


"कोई मर जाय सहर होने पर दूर कहीं
नवम्बर का महीना था। प्रदीप एक सुनसान रास्ते पर अकेला पैदल चला जा रहा था। दिमाग़ में लगातार एक के बाद एक चिंताएँ घुमड़ रहीं थीं। हलकी ठंड होने पर भी पता नहीं उसे क्यों पसीना अा रहा था ? तेज़ चलने की वजह से या तनाव के कारण।
ऐसा तो ज़माने का दस्तूर नहीं
एक मौक़ा उन्हें भी दो यारो
जिनको जीने का ज़रा भी शऊर नहीं"


और अब ग़नी साहिब के लिए:
‘मैं इतनी तेज़ क्यों चल रहा हूँ , क्या चक्कर है ?… कहीं जल्दी तो पहुँचना है नहीं मुझे… धीरे चलता हूँ।’


मैं ख़ुसूसीयत और दिली अक़ीदत के साथ शामिल हूँ
उसने चाल धीमी कर दी।
तेरे हर शौक़ में ग़नी
‘काहे का कृषि प्रधान देश है भारत… दहेज़ प्रधान है… दहेज़ प्रधान… शादी तय हो गई और पैसा पास में एक भी नहीं…’
तू अज़ीम हो हो, फ़र्क़ क्या
वो धीमी आवाज़ में बड़बड़ाया।
तेरा अंदाज़ ए बयाँ अज़ीम है ग़नी
‘रितिका को अच्छी से अच्छी पढ़ाई करवाई और अब शादी में कम से कम दस लाख रुपए ख़र्च होंगे। अरे भैया! चार लाख तो उस मंगल के बच्चे ने लगा दिए, अपनी बेटी की शादी में और वो तो बस टॅम्पो चलाता है टॅम्पो।’
 
‘कहाँ से लाऊँ इतना पैसा ?… कैसे बनेंगे ज़ेवर ?… कैसे होगी दावत ?… मेरी ससुराल वालों के पास भी कुछ नहीं है। अब क्या होगा… हे ईश्वर कुछ करो।’
 
तभी सड़क के किनारे पेड़ के नीचे, हनुमान जी का छोटा सा मंदिर दिखा। उसने रुक कर सिर झुकाकर हाथ जोड़ दिए। सर उठाया तो ऐसा लगा कि कुछ दूरी पर कोई हलचल है। थोड़ा चलने पर देखा कि दो लड़के एक लड़की को घसीटते हुए। सड़क से एक तरफ़ की गलीनुमा रास्ते की तरफ़ ले जा रहे हैं।
 
प्रदीप एक पेड़ के पीछे छुप गया और सड़क पार से झांककर उनको देखने लगा। एक लड़के के हाथ में देशी तमंचा जैसा कुछ था। पेड़ को पीछे छोड़ वो थोड़ा और आगे गया तो अंदाज़ा हुआ कि लड़की का मुँह, साफ़ी-गमछा जैसे कपड़े से बंधा था। लड़की घिसटते समय पैर पटक-पटक कर बहुत विरोध कर रही थी और इसीलिए लड़कों की लातों की ठोकर से पिट भी रही थी।
 
प्रदीप का मन बेचैन हो रहा था। मुँह सूखने लगा, दिल ज़ोरों से धड़क रहा था।
‘क्या करूँ-क्या करूँ-क्या करूँ ?… अगर मैं इनसे लड़ा और मर गया…? तो फिर मेरी बेटी का क्या होगा। कौन करवाएगा शादी?… दस लाख रुपए?… हो सकता है ये लड़की ही ग़लत हो?… भाड़ में जाने दो… घर पहुँचूँ… नहीं-नहीं मुझे ज़रूर लड़ना चाहिए… बचाना चाहिए लड़की हो।’
 
बमुश्किल बीस-पच्चीस क़दम की दूरी पर ही सब कुछ घटने वाला था। तरह-तरह की हल्की आवाज़ें आ रही थीं जिनमें गालियाँ ज़्यादा थीं।
 
‘शायद लड़की से बलात्कार और फिर उसे मार ही देंगे। सबूत थोड़े ही छोड़ेंगे।’
तभी प्रदीप कि नज़र पास ही पड़े साइकिल के टूटे करियर पर पड़ी। उसने करियर उठा लिया।
 
‘लड़के ज़्यादा तगड़े तो हैं नहीं… लेकिन मैं भी तो पचास का हो गया… पता नहीं झगड़े का क्या नतीजा निकले…’
 
फिर वही सोच… ‘रितिका की शादी… बीवी का क्या होगा… बलात्कार… ख़ून… रितिका…शादी… बलात्कार…धक-धक, धक-धक, धक-धक, धक-धक…
 
प्रदीप की पकड़ साइकिल के टूटे करियर पर कसती जा रही थी। वो आगे बढ़ा तो देखा कि एक लड़का तो लड़की को ज़मीन पर गिरा कर क़ाबू करने की कोशिश कर रहा है और दूसरा तमंचा लेकर खड़ा रखवाली जैसी कर रहा है।
 
प्रदीप उस गली में मुड़कर आगे की ओर गया और जैसे ही तमंचे वाला प्रदीप की ओर घूमा उसने तमंचे वाले हाथ पर साइकिल का करियर दे मारा। तमंचा गिर गया। करियर का दूसरा वार उसी लड़के के मुँह पर हुआ, उसके मुँह से ख़ून निकल आया और वो गली में अन्दर भाग गया। अब तक लड़की दूसरे लड़के की पकड़ से छूट चुकी थी और उसने पीछे से उस लड़के के लम्बे बालों को पकड़ लिया अब प्रदीप के लिए उस लड़के की पिटाई करना बहुत आसान हो गया।
 
लड़की ने बाल छोड़े तो तमंचा उठा लिया। लड़के में एक घूँसा ऐसा लगा कि वह बेहोश ही हो गया। लड़की लातों से उस लड़के को मारे जा रही थी। प्रदीप बुरी तरह हाँफ़ रहा था लेकिन विजेता की तरह।
 
उस लड़की की जॅकेट थोड़ी सी फट गई थी और ओठों के किनारे से ख़ून बह रहा था। लड़की किसी अच्छे घर की लग रही थी। प्रदीप ने उस लड़की को उसके घर पहुँचाया तो पता चला कि वो तो शहर के बड़े रईस घनश्याम चड्ढा की इकलौती बेटी है। चड्ढा साहब बहुत सज्जन व्यक्ति थे। शहर में उनकी नेकनामी के क़िस्से मशहूर थे। जब चड्ढा साहब को पता चला कि प्रदीप, बेटी की शादी के लिए पैसों के इन्तज़ाम के लिए परेशान है तो उन्होंने प्रदीप के बहुत मना करने के बावजूद उसकी बेटी की शादी की पूरी ज़म्मेदारी अपने ऊपर लेली।
 
शादी के दिन रितिका के पास एक सुन्दर लड़की आई और उससे बोली।
“हाय रितिका! आय एम सलोनी… मुझसे दोस्ती करोगी, मैं तुम्हारे पापा की फ़ॅन हूँ। ही एज़ वैरी ब्रेव मॅन।”
पास खड़े प्रदीप ने कहा “लेकिन सलोनी से ज़्यादा ब्रेव नहीं… हाहाहा”
सब साथ-साथ हँस पड़े।
 
© आदित्य चौधरी
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| 5 फ़रवरी, 2014
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; दिनांक- 18 मई, 2017
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प्रश्न किया गया है कि- मन में भय कब आता है?
प्रिय मित्रो! जैसा कि आप चाहते हैं, मैंने एक कहानी और लिखी है। ज़रा देखिए कैसी है!


मेरा उत्तर है: मन में भय होने का अर्थ है
‘दाना-पानी’
कि आपने कोई संकल्प किया है अन्यथा भय कैसा!
 
संकल्पवान व्यक्ति को भय सताता है।
वो हमारे किराएदार थे। उनका अपना कोई नहीं था। बस हमें ही अपना मानते थे। पन्द्रह साल से हमारे साथ थे। घर के बज़ुर्ग जैसे हो गए थे। हम उन्हें काका कहते थे। सुबह शाम का दूध सब्ज़ी लाने का काम ख़ुद ही करते रहते। हमारे मना करने पर भी नहीं मानते थे। शुरू-शुरू में तो अपना खाना ख़ुद ही बनाते थे लेकिन बाद में मां ने उनका खाना भी बनाना शुरू कर दिया था। बाद में पापा ने उनसे किराया लेना बंद कर दिया तो ख़ुद ही किराए के बराबर पैसे घर के किसी किसी सामान पर ख़र्च कर देते थे।
भय की परिणति हमें नकारात्मक की ओर ही ले जाय ऐसा नहीं है बल्कि अनेक अद्भुत कृत्य भय का ही परिणाम हैं।
 
आपने वह विज्ञापन देखा होगा कि 'डर के आगे जीत है' इसका अर्थ ही यह है कि आपके मन में भय के उत्पन्न होने का कारण आपके द्वारा किया गया कोई संकल्प है।
पाँच साल पहले अपनी पेंशन भी घर में देने की ज़िद की तो पापा राज़ी नहीं हुए। काका भी नहीं माने और अपनी पेंशन वाले अकाउंट में मुझे नॉमिनी बना दिया। मैं दस साल का था जब काका हमारे यहाँ किराएदार की हैसियत से रहने अाए थे। हमेशा कहते कि तेरी शादी देखकर ही मरूँगा और तेरी शादी में ज़िन्दगी में पहली बार दारू पीकर नाचूँगा भी। जिस दिन मेरी नौकरी लगी उस दिन काका ख़ूब ख़ुश हुए और ख़ूब रोए। मैं दूसरे शहर जो जा रहा था।
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काका की तबियत ख़राब है यह सुनकर मैं छुट्टी लेकर घर आया था। अगले ही दिन वो चल बसे। उनका अंतिम संस्कार भी मैंने ही किया। रात देर तक उनके बारे में बात होती रहीं। सुबह जल्दी उठकर छत पर गया तो देखा कि कबूतर, फ़ाख़्ता और अन्य चिड़ियों का झुन्ड छत की मुंडेर पर बैठा था। मैं समझ गया और पास के टिन शेड में से दाना निकाल कर छत पर बखेर दिया तो सभी पंछी दाने पर टूट पड़े और मज़े से दाना खाने लगे। हाँ इतना ज़रूर था कि जिस तरह से काका के साथ पंछी घुल-मिल गए थे वैसे मेरे पास नहीं आ रहे थे। एक दूरी बनाकर दाना खा रहे थे।
| 5 फ़रवरी, 2014
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सिद्धांतवादी, आदर्शवादी और परम्परावादी व्यक्ति का अहिंसक होना बड़ा कठिन है।
वह अपने उसूल-आदर्शों के पालन के लिए किसी भी शारीरिक, भावनात्मक या वैचारिक हिंसा के लिए तत्पर रहता है।
यहाँ तक कि जो किसी आदर्श या परम्परा के कारण ही अहिंसा में विश्वास करते हैं उनमें भी हिंसा का एक अलग रूप होता है।
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| 5 फ़रवरी, 2014
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मुझसे प्रश्न पूछा गया है कि सच्चे प्रेमी/प्रेमिका और सच्चे मित्र की पहचान कैसे हो?
मेरा उत्तर: आप कोई कार या मोटर साइकिल ख़रीद रहे हैं कि जिसकी क्वालिटी की जांच करेंगे? प्रेम में और मित्रता में किसी की गुणवत्ता की जांच नहीं की जाती। ज़रा सोचिए कि यदि सामने वाला आपकी जांच करने लगे तो ? क्या आप खरे उतरेंगे ? क्या आप विश्वास के साथ अपने बारे में कह सकते हैं कि आप पूरी तरह खरे प्रेमी या मित्र हैं?
प्रेमियों के प्रेम में, यदि प्रथम वरीयता प्रेम ही है तभी वह प्रेम है अन्यथा वह कुछ और ही होगा प्रेम नहीं।
मित्रों की मित्रता में, यदि सबसे पहला कारण मित्रता ही है तो उसे हम मित्रता कह सकते हैं।
सामान्यत: होता यह है कि जब हम कहते हैं कि हम किसी से प्रेम करते हैं या कोई हमारा मित्र है तो- उसके पीछे कुछ कारण छुपे होते हैं। ये कारण बहुत से हो सकते हैं जिनका कोई संबंध प्रेम या मित्रता से नहीं होता। हम इन कारणों की ओर या तो ध्यान नहीं देते या फिर ध्यान देना नहीं चाहते। ऐसी मित्रता या प्रेम अस्थाई होता है।
प्रेमी/प्रेमिका या मित्र को दुर्घटनावश 'खो देना' तो बहुत दु:खदायी है लेकिन जो यह कहते हैं कि 'प्यार में धोखा' हो गया या 'मित्रता में कपट' हो गया, वे ठीक नहीं कहते । प्यार या मित्रता कोई व्यवसाय नहीं है जो कोई धोखा या कपट कर देगा।
हम प्यार 'पाने' के प्रयास में अधिक रहते हैं, प्यार 'करने' के प्रयास में कम। इसी तरह मित्रता भी। हम जब कभी स्वयं की भावनाओं का विश्लेषण करें तो हम पाएँगे कि जिससे हम प्यार करते हैं वह हमारे साथ धोखा कर ही नहीं सकता। यदि आपको धोखे की संभावना दिखाई दे रही है तो इसका अर्थ है कि आप कुछ पाना चाहते हैं और कुछ पाने की चाह ही प्रेम और मित्रता की सबसे बड़ी शत्रु है।
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| 4 फ़रवरी, 2014


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मैं सोचने लगा कि मैं तो कल चला जाऊँगा। मां अपने घुटनों की वजह से छत पर नहीं आ सकतीं, पापा कभी भी आठ बजे से पहले नहीं उठते तो फिर कल से दाना कौन खिलाएगा? तभी मेरा फ़ोन बजने लगा। फ़ोन से पता चला कि मेरी छुट्टी दो दिन और बढ़ा दी गई है। मैंने सोचा कि चलो दो दिन और… लेकिन फिर दो दिन बाद दाना कौन डालेगा?
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केन्द्रीय विद्यालय मथुरा में मेरे 'ज़माने' के छात्र-सहपाठी जमा हो रहे हैं (अध-बूढ़े हैं सब...)। 14 सितम्बर को... पवन चतुर्वेदी, सुनील आचार्य, संदीपन नागर और, और भी मित्रों ने याद किया है...
दोस्तों की याद में-
दोस्त वो निठल्ला होता है जिसके साथ बिना काम-काज की बात किए सारा दिन गुज़ारा जा सके।
दोस्त वो रिश्ता होता है जिसकी बहन की शादी में पूरी रात काम करने के बाद भी उसके और अपने
मां-बाप से डांट पड़ती है।
दोस्त वो राहत होता है जो महबूब की बेवफ़ाई में टिशू-नॅपकिन से लेकर ज़बर्दस्ती खाना खिलाने
का काम भी करता है।
दोस्त वो खड़ूस होता है जो हमें चैन से दारू और सिगरेट नहीं पीने देता।
दोस्त वो ड्रामा होता है जो हमारी बीवी के सामने अपनी इमेज हमेशा, भारतभूषण और प्रदीप कुमार जैसी बनाकर
रखता है जिससे हम अपनी बीवी को प्रेम चौपड़ा और रंजीत नज़र आते हैं
दोस्त वो पंगा होता है जो हमारी लड़ाई में अपना दांत तुड़वा लेता है या अपनी में हमारा...
दोस्त वो कलेस होता है जिसकी पजॅसिवनॅस की वजह से हमारा महबूब हमेशा कहता रहता है-
"उसी के पास जाओ! वोई है तुम्हारा दोस्त-गर्लफ़्रॅन्ड-बॉयफ़्रॅन्ड सबकुछ सबकुछ..."
दोस्त वो शॅर्लॉक होम्स होता है जो हमारी परेशानियों का कोई न कोई हल चुपचाप और बिना अहसान दिखाए करता रहता है।
दोस्त वो याड़ी होता है जिसे एक बार नज़र लग जाय तो उस पर न्यौछावर करने के लिए सारी दुनिया की दौलत भी कम पड़ जाती है...
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| 13 सितम्बर, 2013
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एक और फ़ेसबुक वार्ता:


Ajit Dixit बापू जी के बारे में नई पीढ़ी में बहुत सारी भ्रांतियां प्रचलित हो गई हैं. उनके बारे में अभद्र और मनगढ़ंत टिप्पणियां पढ़कर मन खिन्न हो जाता है. अधकचरा ज्ञान रखने वालों को मेरी सलाह है की पहले उनके बारे में पूरी जानकारी करें फिर टिप्पणी करें।
अगले दिन सुबह मुझे उठने में देर हो गई। जल्दी-जल्दी मैं छत पर पहुँचा तो देखा कि पंछी नहीं थे। मैं सोच में पड़ गया कि आख़िर माजरा क्या है! छत पर ध्यान से देखा तो कहीं-कहीं दाने पड़े थे। दाने वाला डिब्बा देखा तो ऐसा लगा कि दाना कम हुआ है। बड़े आश्चर्य की बात थी। अगले दिन मैं जल्दी जागकर छत पर छुप कर बैठ गया। धीरे-धीरे पंछी इकट्ठा होने लगे। तभी हमारे पड़ोसियों के यहाँ काम करने वाली बाई की छोटी बेटी मुंडेर से कूदी और भागकर दाने के डिब्बे से दाने निकाल कर पंछियों को डालने लगी। पंछी उससे इतने ज़्यादा घुले-मिले लगे कि मैं आश्चर्य से देखता ही रह गया।


Aditya Chaudhary: अजित जी आपने सही कहा, किसी भी विराट व्यक्तित्व की आलोचना करना आसान है, किन्तु उस जैसा बनना बहुत कठिन है। गाँधी जी की तरह यदि सभी महापुरुष और नेता अपने व्यक्तिगत जीवन को भी सार्वजनिक करने की हिम्मत करते, तभी उनका सही मूल्यांकन होता। किन्तु किसी ने ऐसा किया नहीं...। महात्मा गाँधी के अनेक कार्यों का अनुसरण करने का प्रयास किया गया और ज़ाहिर है कि आलोचना भी की गई लेकिन कोई भी गाँधी जी की तरह से अपने व्यक्तिगत जीवन की गतिविधियों को सार्वजनिक करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया।
इसका मतलब ये था कि ये लड़की रोज़ाना काका के साथ दाना डालने आती थी और अब काका नहीं रहे तो अपना फ़र्ज़ निबाह रही है। मेरे आँखें पानी से धुंधला गईं। साथ ही मुझे काका की पेंशन के रुपयों का सदुपयोग भी समझ में आ गया।


राकेश जैन जी Shreesh Rakesh Jain ने मेरे फ़ोटो पर कमेंट किया है कि मेरी मुद्रा गंभीर है... उनके सम्मान में मैंने उत्तर दिया है...
© आदित्य चौधरी
जैन साहिब बड़ी अजीब बात यह है कि मुद्रा और रूप दोनों ही शब्द ऐसे हैं जिनका अर्थ पैसा है। रूप शब्द से ही रुपया शब्द बना है। प्राचीन काल में मुद्रा-विशेषज्ञ को रूप-कला विज्ञ कहते थे।
यहाँ तक कि अर्थ का अर्थ भी वही है...। आपको मेरी मुद्रा गंभीर लगी! यह सोचकर मैं बड़ा खु‌श हूँ। उम्मीद है कि कभी न कभी मुद्रा (पैसा) भी मुझे लेकर गंभीर हो जाएगी। मैं तो चाहे जब गंभीर मुद्रा बना लेता हूँ लेकिन मुद्रा (पैसा) मुझे लेकर कभी गंभीर नहीं होती...
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| 15 अगस्त, 2013
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; दिनांक- 11 मई, 2017
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अफ़साना निगार याने कहानीकार और उपन्यासकार इतिहास को अपने मन मुताबिक़ घुमा-फिरा देते हैं। इसके बाद फ़िल्मकार तो और भी ज़्यादा मसाले का तड़का लगा देते हैं। मुग़ल इतिहास में अकबर की पत्नी, जो सलीम (जहाँगीर) की मां भी थी, का नाम जोधाबाई, कहीं भी नहीं है। अकबरनामा, जहाँगीरनामा कहीं भी देख लीजिए आपको जोधाबाई नाम जहाँगीर की पत्नी के रूप में मिलेगा, अकबर की पत्नी का नहीं। ये हिंदू रानी जो अकबर की पत्नी बनी आमेर (जयपुर) के राजा बिहारी मल (भारमल) की पुत्री थी। इसका नाम हरका, रुक्मा या हीरा था। शादी के बाद नाम हो गया था मरियम-उज़-ज़मानी। कर्नल टॉड के लोक-कथाओं पर आधारित इतिहास और मुग़ल-ए-आज़म फ़िल्म के कारण जोधाबाई नाम, अकबर की रानी के रूप में प्रसिद्ध हो गया।
मित्रो! मेरी एक और कहानी पढ़ें-
फ़तेहपुर सीकरी आगरा से 22 मील दक्षिण में, मुग़ल सम्राट अकबर का बसाया हुआ भव्य नगर जिसके खंडहर आज भी अपने प्राचीन वैभव की झाँकी प्रस्तुत करते हैं। अकबर से पूर्व यहाँ फ़तेहपुर और सीकरी नाम के दो गाँव बसे हुए थे जो अब भी हैं। इन्हें अंग्रेज़ी शासक ओल्ड विलेजेस के नाम से पुकारते थे। सन् 1527 ई. में चित्तौड़-नरेश राणा संग्रामसिंह और बाबर ने यहाँ से लगभग दस मील दूर कनवाहा नामक स्थान पर भारी युद्ध हुआ था जिसकी स्मृति में बाबर ने इस गाँव का नाम फ़तेहपुर कर दिया था। तभी से यह स्थान फ़तेहपुर सीकरी कहलाता है। कहा जाता है कि इस ग्राम के निवासी शेख सलीम चिश्ती के आशीर्वाद से अकबर के घर सलीम (जहाँगीर) का जन्म हुआ था। जहाँगीर की माता मरियम-उज़्-ज़मानी (आमेर नरेश बिहारीमल की पुत्री) और अकबर, शेख सलीम के कहने से यहाँ 6 मास तक ठहरे थे जिसके प्रसादस्वरूप उन्हें पुत्र का मुख देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।
 
सन् 1584 में एक अंग्रेज़ व्यापारी अकबर की राजधानी आया, उसने लिखा है− 'आगरा और फ़तेहपुर दोनों बड़े शहर हैं। उनमें से हर एक लंदन से बड़ा और अधिक जनसंकुल है। सारे भारत और ईरान के व्यापारी यहाँ रेशमी तथा दूसरे कपड़े, बहुमूल्य रत्न, लाल, हीरा और मोती बेचने के लिए लाते हैं।' सन् 1600 के बाद शहर वीरान होता चला गया हालांकि कुछ नए निर्माण भी यहाँ हुए थे। और जानने के लिए भारतकोश पर जाएँ...
‘इंदिरा गांधी का हॅलीकॉप्टर’
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“हम कब तक पहुँचेंगे ? अभी कितनी देर और…?”
| 18 जुलाई, 2013
“बस एक घंटे में पहुँच जाएँगे।” पति ने कार चलाते हुए जवाब दिया।
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“क्या उम्र होगी पापा की?” पति ने फिर पूछा
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“एट्टी फ़ोर… तीन दिन बाद ही तो उनका बर्डडे है और आज ही वो हमें छोड़ गए।” इतना कहकर, कार की खिड़की की तरफ़ शाम के लाल सूरज को देखने लगती है।
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“हाँऽऽऽ वोई मैं सोच रहा था।” पति ने कहा
महान स्वतंत्रता सेनानी रानी लक्ष्मीबाई (रानी झांसी) के संबंध में भारतकोश के कुछ सुधी और जागरूक पाठक गणों ने अपने प्रश्न और शंकाएँ जताई हैं।
इस संबंध में उनकी शंकाओं का निवारण करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। चूँकि हम भारतीयों में इतिहास लिखने की परंपरा नहीं रही, इसलिए ये झंझट सामने आते हैं। आइए कुछ तारीख़ों पर ग़ौर करें...
राजा झांसी गंगाधर राव के मनु (बाद में लक्ष्मीबाई) से विवाह का वर्ष लगभग सभी उल्लेखों में 1842 मिलता है। महान स्वतंत्रता सेनानी रानी लक्ष्मीबाई के जन्म का वर्ष अधिकतर 1835 ही मिलता है। इस हिसाब से विवाह की उम्र रही मात्र 7 वर्ष...? लेकिन कई स्थानों पर यह 13-14 वर्ष भी है।
गंगाधर राव का कोई जीवन चरित नहीं मिलता और ही जन्म की तारीख़... लेकिन फिर भी ये सोच कर कि वह राजा था... तो कम से कम विवाह की और मरने की तारीख़ तो सही होगी... विवाह 1842 में और गंगाधर की मृत्यु हुई 1853 में...। महारानी लक्ष्मीबाई की वीरगति प्राप्त करने की तारीख़ भी दो हैं 17 जून और 18 जून।
गंगाधर राव स्त्री पोशाक पहन कर नाटकों में हिस्सा लेता था या नहीं इसका फ़ैसला करने वाला मैं कौन होता हूँ। जो कुछ भी इतिहासकारों ने लिखा और मैंने पढ़ा वही मैं भी आप तक पहुँचाने का प्रयत्न करता हूँ...
एक बात जो मुझे महसूस हुई वह यह है कि माने हुए बड़े इतिहासकारों ने रानी लक्ष्मीबाई का जीवन-वृत्त क्यों नहीं लिखा ? इसका कारण यह हो सकता है कि ये इतिहासकार 1857 के स्वतंत्रता समर को महज़ एक आर्थिक विद्रोह की संज्ञा देते हैं और रानी लक्ष्मीबाई के संघर्ष को यह लिख कर हलका बना देते हैं कि लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र को अंग्रेज़ों ने उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया और झांसी को शासक विहीन मान लिया गया और अंग्रेज़ों ने झांसी को पूर्णत: अपने अधिकार में लेना चाहा जो कि लक्ष्मीबाई को नागवार गुज़रा...।
अब बताइए मैं क्या करूँ ? मेरे प्रपितामह याने मेरे पिताजी के दादाजी 'बाबा देवकरण सिंह' को भी अंग्रेज़ों ने फाँसी दी थी इसी 1857 के प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम में... उनका नाम इतिहास में तो दर्ज है लेकिन फाँसी की सही-सही तारीख़ नहीं मिलती।
ख़ैर मुझे बहुत अच्छा लगा कि लोग मेरे जैसे साधारण आदमी की पोस्ट में भी दिलचस्पी लेते हैं... मैं तो समझ रहा था कि जनता को नवरत्न तेल बेचने वाले महान व्यक्तित्वों से फ़ुर्सत ही नहीं...
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| 18 जून, 2013
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आज पिता दिवस है। मैं गर्व करता हूँ कि मैं चौधरी दिगम्बर सिंह जी जैसे पिता का बेटा हूँ। वे स्वतंत्रता सेनानी थे और चार बार संसद सदस्य रहे। वे मेरे गुरु और मित्र भी थे। भारतकोश के संचालक ट्रस्ट के संस्थापक भी हैं।
उनके स्वर्गवास पर मैंने एक कविता लिखी थी...


ये तो तय नहीं था कि
सूरज साथ-साथ चल रहा था। बचपन के दिनों में जब गाँव से ट्रेन में पापा के साथ जाती थी तो सूरज साथ-साथ चलता था।
तुम यूँ चले जाओगे
और जाने के बाद
फिर याद बहुत आओगे


मैं उस गोद का अहसास
“पापा ! सूरज साथ-साथ क्यों चलता है?”
भुला नहीं पाता
“अरे बाबा वो तो साथ रोशनी करता चलता है न!”
तुम्हारी आवाज़ के सिवा
पापा अक्सर माँओं वाले जवाब देते पापाओं वाले नहीं। बड़े सीधे-सादे बच्चों जैसे जवाब, कोई कठिन बात नहीं कहते थे जो मेरे बाल-मन को समझ में न आए।”
अब याद कुछ नहीं आता
“तो फिर… तो फिर… तो फिर सूरज रात को क्यों नहीं साथ चलता?” मैंने भी मिलियन डॉलर कोश्चन ठोक दिया।
“सारा दिन भागेगा तो थकेगा भी न… सो जाता है बेचारा… चलो अब तुम भी सो जाओ। ट्रेन में सब सोने की तैयारी कर रहे हैं।”


तुम्हारी आँखों की चमक
“लो… गाँव वाला टर्न आ गया… क्या सोच रही हो…?” पति ने कहा।
और उनमें भरी
“कुछ नहीं बस ऐसे ही… अ…असल में आँसू रुक नहीं रहे…”
लबालब ज़िन्दगी
याद है मुझको


उन आँखों में
तीन दिन गुज़र गए। पापा की रहस्यमयी ‘फ़ेमस’ नीली डायरी उनकी अलमारी में मेरे फ़ोटो के नीचे रखी मिली। बचपन में इस डायरी के पन्ने कितने सफ़ेद, चमकीले लगते थे… आज कितनी उजड़ी हुई अपने पीले पन्नों को छुपाती सी लग रही है।
सुनहरे सपने थे
वो तुम्हारे नहीं
मेरे अपने थे


मैं उस उँगली की पकड़
ये डायरी मुझे कभी पढ़ने को नहीं मिली। मैंने जल्दी-जल्दी पन्नों को खोलना शुरू किया। एक के बाद एक पन्ना, मेरे बचपन के एक-एक दिन की तस्वीर बनाता गया। धुँधली यादों के फीके रंग गहराने लगे जैसे किसी ब्लॅक एन वाइट मूवी को कलर किया जा रहा हो। ज़िन्दगी में पहली बार अाँसू कम पड़ गए। रोने के साथ मुस्कुराना और हँसना रुक ही नही रहा था। गाँव में चारों ओर शांति थी। गाँवों में, वैसे भी सब जल्दी सो जाते हैं। कहीं दूर किसी के यहाँ शायद अखंड रामायण का पाठ हो रहा था। मैं जाग रही थी और डायरी के पन्नों को बार-बार पढ़ रही थी।
छुड़ा नहीं पाता
उस छुअन के सिवा
अब याद कुछ नहीं आता


तुम्हारी बलन्द चाल
डायरी में लिखा था-
की ठसक
एक छोटा ताला मुनमुन के लिए, तीन पहिए की साइकिल छुट्टन के लिए, भगवानजी का मंदिर (सीता दादी के घर में जैसा है वैसा ही)। रंगीन चॉक, ब्लॅकबोर्ड, हवाई जहाज़, इंदिरा गांधी वाला हॅलीकॉप्टर, शकुन्तला जीजी के लिए धूप का चश्मा… और भी न जाने क्या-क्या सूची बनी हुई थी। अचानक आँख से एक आँसू टपका तो इंदिरा गांधी के हॅलीकॉप्टर पर गिरा। शहर में उस समय की प्रधानमंत्री, इंदिरा गांधी आईं थीं। हॅलीकॉप्टर देखकर, मैं मचल गई थी कि पापा हम हॅलीकॉप्टर कब लेंगे?
और मेरा उस चाल की
नक़ल करना
याद है मुझको


तुम्हारे चौड़े कन्धों
पापा जब भी गाँव से शहर जाते थे तो हम सब बच्चे अपनी-अपनी डिमांड उन्हें बताते थे। एक दिन बाद जब वे लौटते तो रात हो चुकी होती थी। हम बच्चे सो जाते थे। अगले दिन ध्यान ही नहीं रहता था कि पापा से पूछना है कि क्या-क्या लाए।
और सीने में समाहित
सहज स्वाभिमान
याद है मुझको


तुम्हारी चिता का दृश्य
पापा उन सब चीज़ों की सूची नीली डायरी में बनाते थे। पापा की आमदनी इतनी कम थी कि वे कभी भी शहर से हमारे लिए मंहगी चीज़ नहीं ला पाए। ऐसा नहीं है कि कुछ लाते ही नहीं थे। आम तो गाँव में ही मिल जाते थे लेकिन केले और संतरे नहीं मिलते थे इसलिए टॉफ़ियाँ और केले या संतरे ज़रूर लाते थे। हमारी पढ़ाई और स्वास्थ्य के लिए पापा अपनी सारी कमाई ख़र्च करते थे जिसका नतीजा ये हुआ कि हम सब पढ़-लिख कर अच्छी नौकरी कर रहे हैं।
मैं अब तक भुला नहीं पाता
तुम्हारी याद के सिवा कुछ भी
मुझे रुला नहीं पाता
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|  [[चित्र:चौधरी दिगम्बर सिंह.jpg|200px|center|link=चौधरी दिगम्बर सिंह]]
| 17 जून, 2013
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आज मन उदास है... मेहदी हसन साहिब नहीं रहे... मैंने बहुत कम उम्र से ही उनको सुना और अब भी सुनता हूँ... उनके गायन की प्रशंसा करने के लिए मैं अति तुच्छ व्यक्ति हूँ... कभी-कभी सोचता हूँ कि राजस्थान की मिट्टी में ऐसा क्या अद्‌भुत है जिसने मेहदी हसन जैसे कला शिरोमणि को जन्म दिया... उनकी गाई और ज़फ़र (बहादुर शाह ज़फ़र) की कही ग़ज़ल आज बहुत याद आई-
बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
जैसी अब है तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी ॥
ले गया लूट के कौन आज तिरा सब्र-उ-क़रार ।
बे-क़रारी तुझे दिल कभी ऐसी तो न थी ॥
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|  [[चित्र:Mehdi-hasan.jpg|200px|center|link=मेहदी हसन]]
| 14 जून, 2013
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'कला' शब्द का अर्थ वात्स्यायन (तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व) के बाद बदल गया। वात्स्यायन ने पहली बार 'कला' शब्द को इस अर्थ में प्रयोग किया जिसे कि अंग्रेज़ी में 'आर्ट' कहते हैं। जयमंगल ने भी 64 कलाओं के बारे में बताया। इससे पहले इसका अर्थ था 'अंश' (हिस्सा)। इसी लिए चन्द्रमा या सूर्य की पृथ्वी के सापेक्ष स्थितियों को बाँटा गया तो उन्हें कला कहा गया। चन्द्रमा को सोलह अंश में और सूर्य को बारह में। इसीलिए चन्द्रमा की सोलह कला हैं और सूर्य की बारह कला। अवतारों की कला का भी यही रहस्य है। लोग अक्सर पूछते हैं कि कृष्ण की सोलह कलाएँ कौन-कौन सी थी ? असल में कृष्ण के काल में कला का अर्थ अंश था न कि आज की तरह 'आर्ट'।
ख़ैर... नृत्य कला पर भी भारतकोश पर कुछ है शायद आपकी रुचि हो
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|  [[चित्र:Bharatanatyam-Dance.jpg|200px|center|link=नृत्य कला]]
| 10 जून, 2013
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नर्गिस दत्त, जिस पृष्ठ भूमि से आयीं थीं, कोई सोच भी नहीं सकता था कि वे एक संवेदनशील समाजसेविका भी बनेंगी। ये भी उल्लेखनीय है कि वे समाजसेवा का ढोंग नहीं करती थीं (जैसा कि आजकल फ़ॅशन है)। जब वे कॅन्सर से हार कर अपनी अंतिम सांसे ले रही थीं, उस समय, पति सुनील दत्त उनके पास थे। उनके अंतिम समय की बातें सुनकर मैं इतना भावुक हो गया कि आँसू नहीं रोक पाया। आप चाहें तो भारतकोश पर उनके लेख के सबसे नीचे की ओर, बाहरी कड़ियों में उनके जीवन पर बनी छोटी सी डॉक्यूमेन्ट्री को लिंक क्लिक करके देख सकते हैं। इसमें उनकी आवाज़ की अंतिम रिकॉर्डिंग भी है।
[[नर्गिस|... विस्तार में जानने के लिए क्लिक करें]]
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|  [[चित्र:Nargis-Dutt.jpg|200px|center|link=नर्गिस]]
| 1 जून, 2013
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ईश्वर, अवतार, पैग़म्बर और संत किसी भी रूप में पक्षपाती नहीं होते। इसलिए ये किसी व्यक्ति विशेष का हित या अहित करेंगे ऐसा सोचना व्यर्थ ही है। जब इनके अस्तित्व पर हमारी आलोचना का असर नहीं होता तो फिर प्रार्थना का भी असर कैसे होगा। ज़रा सोचिए कि क्या हम यह मान सकते हैं कि ईश्वर पक्षपाती है, असंभव ही है ना ? तो फिर करें क्या ?
... प्रार्थना तो करें पर माँगे कुछ नहीं। प्रार्थना हमें विनम्र बनाती है। कर्म करें अकर्मण्य न रहें।
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| 19 मई, 2013
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मेरे मित्र श्री पी. के. वार्ष्णेय ने प्रश्न किया है- Varshney Mathura :


ADITITYA JI KYA HAMARA DHARM HINDU HAI YA SANATAN ?
नीली डायरी आज पढ़ी तो अहसास हुआ कि पापा ने कितना सहेज कर हमारी सारी मांगों को लिखा था। क्या फ़र्क़ पड़ता है अगर वे कभी पूरी नहीं हो पाईं। आज समझ में आया कि पापा के जीवन की डायरी का मतलब, सिर्फ़ हमारी मांगें और उनको पूरा न कर पाने की मायूसी थी।


मैंने उत्तर दिया है‌--------:------
तभी छोटे ने आवाज़ दी और कमरे में आ गया।
“देख दीदी पापा की अटैची से ये छोटा सा हॅलीकॉप्टर मिला है। इसपे लिखा है ‘इंदिरा गांधी का हॅलीकॉप्टर’।


तकनीकी दृष्टि से आप सनातन वैष्णव हैं। यदि आज की भाषा में कहें तो आप हिन्दू धर्म के वैष्णव संप्रदायी हैं। हिन्दू या हिन्दी तो भारतवासियों को कहा जाता था (पुराने समय में)। सिन्धु नदी को ईरानियों ने हिन्दु कहा और यूनानियों ने इंदु। हिन्दु से हिन्दू हुआ और इंदु से इंडिया। जहाँ तक मेरे धर्म का सवाल है और यदि अपना धर्म चुनने की मुझे स्वतंत्रता है तो मैं तो मरने के बाद ही अपना धर्म चुनूंगा। ऊपर जाकर जिस धर्म के भी लोग अधिक सुविधा देंगे उसे ही चुन लूंगा। ये भी हो सकता है कि कुछ चीजें किसी एक की पसंद आए और कुछ किसी दूसरे की। पता नहीं क्या पसंद आए जैसे कि अप्सरा स्वर्ग की या हूर जन्नत की, अमृत स्वर्ग का या आब-ए-हयात बहिश्त का...वग़ैरा-वग़ैरा
© आदित्य चौधरी
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| 16 मई, 2013
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; दिनांक- 8 मई, 2017
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मेरे बचपन के प्रिय सहपाठी और मित्र हैं, श्री संदीपन विमलकांत । उन्होंने FB पर पूछा " Kahan ho koi khabar naheen?" तो मैने उनके जवाब में एक शेर कहा-
दूऽऽऽर-दूऽऽऽर किसी गॅलेक्सी के किसी ग्रह के किसी देश के मंत्रालय में वार्तालाप:


वो पूछते हैं मुझसे अपनी ख़बर नहीं
“सर! आश्वासन तो ख़त्म हो गए… नहीं दे सकते”
बंदा तो दर-ब-दर है कोई एक दर नहीं ।।
“क्या?… ऐसा कैसे हो सकता है? बाहर तो सीनियर सिटीज़न्स का एक डेलीगेशन बैठा है, अब क्या करें।”
मंत्री ने अपने सचिव पर चिंता ज़ाहिर की।
“सर इनकी मांगे मान लीजिए…”
“वो तो पॉसिबिल ही नहीं है, मांगे बहुत ज़्यादा हैं। आश्वासन ही देना होगा। वैसे एक बात बताओ कि आश्वासन ख़त्म कैसे हुए ?”
“सर! आप जब सत्ता में आए तो आपको सरकारी स्टॉक में दो हज़ार आठ सौ बाईस आश्वासन मिले थे, जिनको आपने यूज़ कर लिया। आश्वासनों की तीनों कॅटेगिरि याने; पूर्ण आश्वासन, ठोस आश्वासन और आश्वासन,… ये सब आप रोज़ाना दे रहे हैं…।” सचिव ने बताया।
“अच्छा… ठीक है-ठीक है… तो फिर हम वायदा भी तो कर सकते हैं…?”
“सॉरी सर वायदों का स्टॉक तो अपोज़ीशन के पास रहता है। अापको ये स्टॉक चुनाव के दौरान मिलेगा। सरकार वायदा नहीं करती, सरकार तो आश्वासन देती है।”
“अपोज़ीशन के पास भी तो आश्वासन होंगे…? ख़रीद लो… मुँह मांगी क़ीमत पर…?”
“सर अपोज़ीशन जब सत्ता से हटी तो नियमानुसार उसने सारे आश्वासन सत्ता पक्ष याने आपको हॅन्डओवर कर दिए। जिस तरह आपने चुनाव के दौरान बचे हुए वायदे विपक्ष को दे दिए थे।”
“कहीं न कहीं तो आश्वासन बिकते होंगे? चाहे डॉलर देने पड़ें लेकिन ख़रीद लो” मंत्री ने मंत्रियाना अंन्दाज़ में कहा।
“सर डॉलर तो क्या बिट कॉइन के बदले भी आश्वासन नहीं मिल सकते।”
“कोई न कोई तरीक़ा तो होगा अश्वासन अरेन्ज करने का?”
“सर इमरजेन्सी लगा दीजिए… तब कोई कुछ पूछने या मांगने नहीं आएगा। आश्वासन का झंझट ख़त्म।”
“हाँऽऽऽ ये ठीक रहेगा… लगा दो इमरजेन्सी”
 
© आदित्य चौधरी
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| 15 मई, 2013
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==शब्दार्थ==
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<references/>
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[[Category:आदित्य चौधरी की रचनाएँ]]
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08:15, 13 दिसम्बर 2017 के समय का अवतरण

आदित्य चौधरी फ़ेसबुक पोस्ट
दिनांक- 12 दिसंबर, 2017

|| मनहूसियत के मारे ||

प्रकृति कहिए या ईश्वर कहिए, उसने पृथ्वी पर जो कुछ भी पैदा किया उसमें एक उल्लास पूर्ण गति अवश्य दी। मनहूस उदासी या आडम्बरी गंभीरता किसी भी जीव में नहीं दी। यहाँ तक कि वनस्पति में भी एक उल्लास से भरी हुई विकास की गति होती है। सूरजमुखी का फूल सूर्य को ही तकता रहता है और सूर्य जिस दिशा में जाता है उसी दिशा में वह मुड़ जाता है। फूलों की बेल, सहारे तलाश करती रहती हैं और जैसे अपनी बाहें फैलाकर सहारे को पकड़ ऊपर बढ़ती जाती हैं।

आप सड़क से एक पिल्ला उठा लाइये। सारा दिन घर में धमा-चौकड़ी मचाए रहेगा। कहने का सीधा अर्थ यह है जिसे हम सभी जानते ही हैं कि जीवन का अर्थ ही उत्सव और उल्लास है। प्रत्येक मनुष्य का प्रत्येक बच्चा जन्म से ही नृत्य, गायन, वादन, चित्रकारी, मूर्तिकारी, खेल जैसी आदि प्रतिभाओं से परिपूर्ण होता है। जिज्ञासा से भरा खोजी स्वभाव प्रत्येक बच्चे का स्वाभाविक गुण होता है। यह स्थिति मानसिक रूप से दिव्यांग बच्चों में भी होती है। मैंने बड़े क़रीब से देखा है ऐसे बच्चों को जिनकी मानसिक क्षमता हटकर होती हैं और जिन्हें हम मानसिक रूप से अविकसित या विशिष्ट रूप से विकसित मानते हैं। इन बच्चों में भी प्रसन्नता और उल्लास का भाव भरपूर होता है।

समस्या तब शुरु होती है जब धीरे-धीरे बच्चा बड़ा होने लगता है तो अधिकतर माता-पिता (या अन्य अभिभावक) उसकी इन प्रतिभाओं को बड़े गर्व के साथ समाप्त करने में लग जाते हैं। इसमें स्कूल भी अपनी भूमिका बख़ूबी निबाहता है। अधिकतर स्कूलों में शिक्षा जिस तरीक़े से दी जा रही है वह बेहद शोचनीय अवस्था है। पढ़ाई में सृजनात्मकता जैसा कुछ भी नहीं होता। उन्हें वह नहीं सिखाया जाता जोकि उनके व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में सहायक होगा और वे स्वयं अपनी सफलता का रास्ता चुन सकेंगे बल्कि उनको एक पारंपरिक तरीक़े की पढ़ाई दी जाती है जिससे वे कुछ नया करने की बजाय ख़ुद को किसी न किसी जॉब के लायक़ बनाने में लग जाते हैं।

महान विचारक जे. कृष्णमूर्ति ने कहा भी है कि स्कूलों में बच्चों को ‘क्या सोचा जाय सिखाने की बजाय कैसे सोचा जाय’ यह सिखाना चाहिए। इस आउटडेटेड उबाऊ शिक्षा पद्धिति के कारण बच्चों के भीतर की उमंग और उल्लास ख़त्म होने लगता है। ओढ़ी हुई गंभीरता मनहूसियत भरी उदासी उनका स्थाई स्वभाव बन जाता है। बच्चों को यह मौक़ा ही नहीं दिया जाता वे जान सकें कि उनमें कौन सी विशेष प्रतिभा है। बच्चों की मार्कशीट ही उनकी योग्यता की पहचान बन जाती है।

ज़रा बताइये कि मैंने कॅलकुलस, ट्रिगनोमॅट्री, वेक्टर, प्रॉबेबिलिटी आदि की पढ़ाई की… वह मेरे किस काम आ रही है… किसी काम नहीं। इसमें कोई दो राय नहीं कि गणित मेरा पसंदीदा विषय था लेकिन मुझे उन विषयों या क्षेत्रों को छेड़ने का मौक़ा ही नहीं मिला जो मेरे प्रिय हो सकते थे या उनमें से कोई एक मेरा पॅशन बन सकता था।

व्यवसाय में पिता अपने वारिस को सिखाता है कि बेटा-बेटी जितनी ज़्यादा मनहूसियत भरी गंभीरता तुम ओढ़े रहोगे तुमको उतना ही बड़ा बिजनेसमॅन समझा जाएगा। सरकारी कार्यालय में चले जाएँ तो ऐसा लगता है कि यहाँ अगर ज़ोर से हँस पड़े तो शायद छत ही गिर पड़ेगी क्योंकि उस छत ने कभी हंसी की आवाज़ सुनी ही नहीं (सुबह-सुबह सफ़ाई कर्मचारी ही शायद हँसते हों)। आलम ये है कि ओढ़ी हुई गंभीरता एक संस्कृति बन चुकी है। अब न तो इस मनहूस संस्कृति को क्या नाम दिया जाय यह समझ में आता और इसको ख़त्म करने का उपाय ही।

एक सामान्य शिष्टाचार है कि किसी अजनबी से आपकी नज़र मिल जाय तो हल्का सा मुस्कुरा दें। यह शिष्टाचार यूरोपीय देशों में बहुत आम है। हमारे देश में यदि आप किसी अजनबी को देखकर मुस्कुरा गए और यदि वो लड़की हुई तो सोचेगी कि आप उसे छेड़ रहे हैं और यदि कोई लड़की किसी अजनबी लड़के को देखकर मुस्कुरा गई तो लड़का समझेगा कि यह प्रेम का निमंत्रण है।

क्या आपको नहीं लगता कि ये सब बातें स्कूल में सिखाई जानी चाहिए? मेरी आज तक यह समझ में नहीं आया कि स्कूल में बच्चों को घर का काम करना क्यों नहीं सिखाया जाता। जैसे; चाय-बिस्किट-नाश्ता बनाना, कपड़े तह करना, कपड़े इस्तरी करना, शारीरिक सफ़ाई, माता-पिता से व्यवहार, कील-चोबे लगाना, कपड़ों में बटन लगाना, छोटे बच्चे की देख-भाल करना, बाग़वानी, आदि-आदि। इसके अलावा ‘डू इट योरसेल्फ़’ की बहुत सी चीज़ें सिखाई जानी चाहिए, ज़रूरतमंद लोगों की मदद क्यों, कब और कैसे करें यह उनके स्वभाव में आना चाहिए। यह सब लड़की-लड़कों को समान रूप से सिखाना चाहिए। खाना बनाना लड़कों को भी आना चाहिए। कामकाजी पति-पत्नी के घर में दोनों ही लगभग सभी काम करते हैं। ये सब बच्चों को स्कूल में सिखाया जाना चाहिए। कुछ व्यावहारिक प्रयोगों द्वारा और कुछ विडियो दिखाकर।

यह तो ठीक है कि हम बच्चों को महान व्यक्तियों के बारे में बताकर उन्हें अच्छा इंसान बनने के लिए प्रेरित करते हैं लेकिन बच्चों को यह भी बताना चाहिए कि छोटे बच्चे घर के कामों में अपनी माता-पिता की मदद करके भी महान बनते हैं। उनको पता होना चाहिए कि यदि वे काम पर जाने से पहले अपने पिता की साइकिल-बाइक-कार को पोंछ देंगे तो यह कितना बड़ा काम होगा। रसोई में मां का हाथ बटाएँगे तो उनके द्वारा किया काम कितना महत्वपूर्ण होगा।

ज़रूरत तो इस बात की है कि प्रत्येक स्कूल, कॉलेज में कुछ विषय अलग से पढ़ाए जाने चाहिए। जिनसे छात्राओं और छात्रों को अच्छा इंसान बनने में मदद मिले। ‘संस्कृति’ एक अलग विषय होना चाहिए और इस विषय के अधीन सब-कुछ सिखाना चाहिए।
© आदित्य चौधरी

दिनांक- 5 दिसंबर, 2017

“कोई आज भी है जो सुनता है…”

यह बात उन दिनों की है जब भारत पर अंग्रेज़ों का शासन था और देशभक्त क्रांतिकारी अंग्रेज़ों का विरोध कर रहे थे।
एक अंग्रेज़ अधिकारी गांधीजी से मिलने आया। उससे काफ़ी देर महात्मा गांधी से बात-चीत की, कई विषयों पर चर्चा हुई। इसके बाद वह विदा लेकर चला गया। उसके जाने के बाद गांधी जी को बताया गया कि जिस रेलगाड़ी से वह अंग्रेज़ अधिकारी आ रहा था, उस रेलगाड़ी पर क्रान्तिकारियों ने बम फेंका और जिस रेल के डिब्बे में वह अंग्रेज़ बैठा था उस डिब्बे का आधा हिस्सा बम के कारण क्षतिग्रस्त हो गया। जिस व्यक्ति ने गांधी जी को यह सूचना दी उसने पूछा कि उस अंग्रेज़ अधिकारी ने आपसे यह चर्चा अवश्य की होगी। गांधीजी ने बताया कि उसने इस तरह की कोई चर्चा नहीं की।

ज़रा सोचिए कि उस अंग्रेज़ ने बम फ़ेंकने की चर्चा क्यों नहीं की? इसका कारण है कि वह अंग्रेज़ नहीं चाहता था कि गांधी से वार्ता करते समय किसी ऐसी बात का ज़िक्र किया जाए जिससे कि वार्तालाप का माहौल असहज हो जाए। निश्चित रूप से इस वार्तालाप में दोनों ही सहज नहीं रह पाते यदि बम फ़ेंकने की घटना का ज़िक्र वह अंग्रेज़ अधिकारी कर देता।

यदि आप चाहते हैं कि लोग आपकी उपस्थिति को पसंद करें तो आपको अपने 'सुभीता स्तर' (Comfort level) की तरफ़ ध्यान देना चाहिए। याने आपकी मौजूदगी में लोग कितना सहज महसूस करते हैं। जो लोग आपके सहकर्मी, मित्र, परिवारीजन आदि हैं उन्हें आपकी उपस्थिति में कितनी सहजता महसूस होती है। सदा स्मरण रखने योग्य बात यह है कि आप योग्य कितने हैं यह बात तो महत्वपूर्ण है ही बल्कि आपका सुभीता स्तर कितना है, यह अधिक महत्वपूर्ण है। एक सफल व्यक्तित्व का रहस्य बुद्धि, प्रतिभा या योग्यता में ही छुपा नहीं है बल्कि 'सुभीता स्तर' (Comfort level) इसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

आजकल लोग (ऍन्ड ऑफ़कोर्स लेडीज़ ऑलसो) सुनते नहीं हैं। बोलने से ज़्यादा ज़रूरी है सुनना। सुनने के तरीक़े हैं तीन… तीन क्या बल्कि चार।
पहला तरीक़ा: सबसे घटिया तरीक़ा है। इसमें सुनने वाला कहने वाले की बात काट कर अपनी बात कहने लगता है। यह व्यक्ति सबको अप्रिय होता है।
दूसरा तरीक़ा: कहने वाले को यह लगता रहता है कि सुनने वाला कुछ कहना चाहता है। सुनने वाले के हाव-भाव-भंगिमा और आँखें, कहने वाले को, ऐसा संदेश देती हैं। जिससे कहने वाला चुप हो जाता है या फिर कहता है ”कहिए ! आप कुछ कहना चाहते हैं क्या?” सुनने का यह तरीक़ा भी घटिया ही है।
तीसरा तरीक़ा: यह तरीका बहुत सही है। इसमें सुनने वाला कहने वाले की बात ध्यान से सुनता है। अपने किसी हाव-भाव से यह महसूस नहीं होने देता कि वो ध्यान से नहीं सुन रहा।
चौथा तरीक़ा: इसमें हम कहने वाले को कुछ कहने के लिए कहते हैं, कोई प्रश्न करते हैं और उत्तर ध्यान से सुनते हैं। इस तरीक़े में हम लोगों के मौन को भी सुनने की कोशिश करते हैं और उन लोगों को कुछ कहने के लिए प्रोत्साहित करते हैं जो बहुत कम ही बोलते हैं।

इस चौथे तरीक़े से बहुत कुछ सीखने को मिलता है। मैं अक्सर उन लोगों को बोलने के लिए प्रोत्साहित करता हूँ जो बहुत कम बोलते हैं।
एक संस्मरण: मेरे यहाँ एक घरेलू कर्मी था। जिसका काम मेरे साथ रहकर मेरे छोटे-मोटे काम करना था। उसे सब कमअक़्ल मानते थे। मैं उससे कोई न कोई सवाल करके उसी प्रतिक्रिया सुन लेता था। एक दिन घर के सामने से हाथी जा रहा था। मैंने कहा कि कमाल की बात है धरती का सबसे बड़ा जीव है और कितना शांत है? घरेलू कर्मी बोला कि सबसे बड़ा है इसीलिए तो शांत है। मैं उसके जवाब से दंग रह गया। कितना सटीक उत्तर था उसका।

ज़िन्दगी में अगर सुनना सीख लेंगें तो बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। लोगों ने सुनना तो लगभग बंद ही कर दिया है। किसी से मिलने जाते हैं तो नज़र मोबाइल फ़ोन पर ही बनी रहती है। मुझे बुज़ुर्गों से बात करने में ज़्यादा आनंद होता है क्योंकि उनमें से ज़्यादातर स्मार्ट फ़ोन इस्तेमाल नहीं करते। व्यस्तता बहुत बढ़ गई है। वैसे भी व्यस्तता एक फ़ैशन बन गया है। जिन्हें कोई भी ज़रूरी काम नहीं है उनकी व्यस्तता देखकर तो और आनंद होता है। इस व्यस्तता का दिखावा भी आपके सुभीता स्तर के लिए नुक़सानदायक है।

© आदित्य चौधरी

दिनांक- 7 नवंबर, 2017

“After Japan, China will rise and gain prosperity and strength. After China, the sun of prosperity and learning will again smile at India.”

ये शब्द किसी अंग्रेज़ अर्थशास्त्री के नहीं हैं बल्कि सन् 1902 में जापान और अमरीका की यात्रा के दौरान प्रसिद्ध वेदान्ती स्वामी रामतीर्थ के हैं। दो वर्ष अमरीका में बिताने पर स्वामी जी अमरीकियों के लिए अचम्भा बन गए थे। बर्फ़ गिरती रहती थी और रामतीर्थ निचले शरीर पर केवल धोती पहने उसमें चल देते थे। नंगे कन्धों पर बर्फ़ गिरती तो उसे झाड़ देते थे। लोग आश्चर्य से ऐसे व्यक्ति को देखते रह जाते थे।

स्वामी जी ने जब संन्यास लिया तब वे गणित के प्रोफ़ेसर थे। भारत के लिए उनके वक्तव्य अत्यंत उत्साह से भरे होते थे। वे कहते थे-

“भारत क्या है? मैं भारत हूँ। मेरा शरीर मानो उसकी भूमि है। मेरे दो पैर मालाबार और चोलमण्डल हैं। मेरे चरण कन्याकुमारी हैं। मेरा मस्तक हिमालय है। गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी प्रचण्ड नदियाँ मेरे केश हैं। राजस्थान और गुजरात मे मरुस्थल मेरा हृदय है। पूर्व और पश्चिम दिशाओं में मेरी भुजाएँ फैली हैं।” स्वामी विवेकानन्द के प्रभामंडल के कारण उनके ही समकालीन स्वामी रामतीर्थ को लोग ज़्यादा नहीं जान पाए। रामतीर्थ ने नयी पीढ़ी को जगाने का काम विवेकानन्द की तरह ही किया।

भारत को एक व्यक्ति के रूप में देखना और भारत के प्रत्येक नागरिक को भारत के रूप में देखना स्वामी रामतीर्थ की अद्भुत धारणा वास्तव में ही सत्य है। ज़रा सोचिए कि यह बात कितनी महत्वपूर्ण है कि भारत ने किसी पड़ोसी पर कभी आक्रमण नहीं किया। जो विदेशी भारत में आकर शासन कर गए उनको भी बहुत हद तक भारत की परंपराओं में ढलना पड़ा।

अाज जिसे हम हिन्दू धर्म कहते हैं उसकी असंख्य शाखाओं की आस्था, मत, धार्मिक विश्वास, पूजा-अर्चना, अनुष्ठान, कर्मकाण्ड आदि में आश्चर्यजनक विविधताएँ हैं। भारतीय दर्शन परंपरा में ईश्वर के अस्तित्व और स्वरूप को लेकर विभिन्न मत हैं। कोई साकार ईश्वर में आस्था रखता है तो कोई निराकार में और कोई-कोई तो ईश्वर के अस्तित्व को ही नहीं मानते। कमाल यह है कि यह सब हिन्दू धर्म में शामिल हैं।

प्राचीन ग्रंथों में बहुत सी जानकारियाँ ऐसी हैं जो बहुत महत्वपूर्ण हैं। पौराणिक काल में राजा अपने पुत्रों में से राज्य के उत्तराधिकारी को चुनने के लिए अनेक प्रकार की शिक्षाओं की व्यवस्था करता था। अयोध्या के राजा दशरथ ने अपने पुत्रों से अनेक संप्रदायों के ऋषि-मुनियों और आचार्यों की चर्चा करवाने की व्यवस्था की थी। राजा दशरथ राम के पास लोकायतों (चार्वाक) के आचार्यों को भेजा जिन्होंने राम को चार्वाक दर्शन का ज्ञान देने की चेष्टा की जिसमें नास्तिक होने के लाभ बताए गए लेकिन किशोरवय राम की आस्था वैदिक परंपराओं में थी। इसलिए राम ने उन्हें नकार दिया और क्षमा मांग ली। इसके अलावा भी अन्य विचारधाराएँ थीं जिनके अनुयायी पर्याप्त मात्रा में थे और आज भी हैं। इसी क्रम में, आजीवक एक अत्यंत प्राचीन संप्रदाय है। जिसके साधु और भिक्षु मस्करी वेष में रहा करते थे। रावण जब सीता हरण के लिए आया था उस समय वह इसी आजीवक संप्रदाय के मस्करी वेष में आया था।

भारत का यह रंग-रंगीला स्वरूप आज भी बदला नहीं है। विभिन्न धर्मों और संप्रदायों को मानने वाले भारत में शान से रह रहे हैं और उन्हें संविधान में समान अधिकार प्राप्त हैं।

कुछ ही समय पहले की बात है जब एक सिख, भारत का प्रधानमंत्री (मनमोहन सिंह), एक मुसलमान, राष्ट्रपति (अब्दुल कलाम), एक हिन्दू, सदन में विपक्ष के नेता (अटल बिहारी वाजपेयी) और एक जन्म से ईसाई, शासक पार्टी की अध्यक्ष (सोनिया गांधी) होने का विलक्षण संयोग हुआ। यह भी भारत में ही संभव है।

नोट: (पाठकगण क्षमा करें, ऊपर के अनुच्छेद में मैंने श्रीमती सोनिया गांधी को ‘जन्म से ईसाई’ इसलिए लिखा है क्योंकि मुझे उनकी वर्तमान धार्मिक स्थिति पता नहीं है।)

कुछ बातें मन पर छाप छोड़ जाती हैं और अपने भारतवासी होने पर और भी अधिक गर्व होने लगता है।
अभी पिछले दिनों मुहम्मद अली जिन्हा की बेटी का देहावसान हुआ। लोगों को जानकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि पाकिस्तान बनाने वाले पाकिस्तान के क़ायद-ए-आज़म की बेटी भारत में रहती थी! पाकिस्तान में न तो जिन्हा को और न ही उनकी बहन फ़ातिमा को समुचित सम्मान दिया गया। जिन्हा के इलाज में लापरवाही हुई और
उनकी बहन फ़ातिमा तो चुनाव ही हार गयीं। जिन्हा की बेटी सम्मानपूर्वक भारत में रहीं और उन्होंने पाकिस्तान को कभी पसंद नहीं किया।

© आदित्य चौधरी

दिनांक- 2 नवंबर, 2017

आजकल रानी पद्मावती (पद्मिनी) को लेकर काफ़ी हंगामाई बहस छिड़ी हुई है। कुछ कहते हैं कि पद्मावती कोई ऐतिहासिक चरित्र ‘नहीं है’ और कुछ कहते हैं कि ‘है’। अलाउद्दीन ख़लजी के चित्तौड़ आक्रमण के लगभग 237 वर्ष बाद, ई.सन् 1540 के क़रीब मलिक मुहम्मद जायसी ने पद्मावत नाम से एक महाकाव्य रचा।

इस महाकाव्य के कुछ प्रमुख चरित्र; रानी पद्मिनी, राणा रतनसेन, अलाउद्दीन ख़लजी, राघव चेतन, गोरा-बादल और एक इंसानों की तरह बोलने वाला तोता हीरामन हैं।
अब चूँकि इस विषय पर फ़िल्म बन रही है और काफ़ी चर्चा में है तो इसका कथानक उनको भी याद हो गया है जिनको नहीं था, ये फ़ेसबुक और वॉट्स ऍप की करामात है। इसलिए कथानक पर चर्चा व्यर्थ ही है।

मलिक मुहम्मद जायसी के जीवन की घटनाएँ कहीं किसी इतिहास में दर्ज नहीं हैं। कथा-कहानियों से ही जायसी के जीवन का कुछ पता चलता है। चेचक से जायसी के चेहरे पर दाग़ हो गए और एक आंख चली गई। ‘जायसी’ उपनाम जायस (पहले राय बरेली और अब अमेठी का एक नगर) में रहने के कारण पड़ा। बाद में जायसी ने एक चमत्कारी सूफ़ी संत के रूप में प्रसिद्धी पायी।

जायसी को अफ़ीम के नशे की लत थी। अफ़ीम का नशा आदमी को कल्पनालोक में ले जाता है। उस समय माज़ून (भांग से बनती है) और अफ़ीम का काफ़ी प्रचलन था। शराब में अफ़ीम मिला कर पीने का भी चलन था। जिसका ज़िक्र बाबर ने बाबरनामा में किया है। अकबर भी शराब में अफ़ीम मिलाकर पिया करता था।

जायसी की मृत्यु के संबंध में एक काल्पनिक कथा प्रचलित है। कहते हैं कि जायसी अपने जादू से शेर बनकर जंगल में घूमा करता था। एक शिकारी ने इस शेर के रूप में जायसी को मार डाला।

कुछ इतिहासकारों ने पद्मिनी के जौहर को काल्पनिक कथा बताया है। इस पर चर्चा बाद में पहले सिकंदर के भारत आक्रमण के समय घटी एक घटना का ज़िक्र-
पाणिनि ने अग्रश्रेणय: नामक एक छोटे से नगर-राष्ट्र (या आज की भाषा में कहें तो क़बीले का) ज़िक्र किया है। जो इतिहास में यूनानी भाषा में परिवर्तित होकर अगलस्सोई हो गया। इन अगलस्सोई नागरिकों ने यूनानी आक्रांता सिंकंदर का जम कर मुक़ाबला किया। भारतकोश पर इसका विवरण इस तरह है:-

  • अगलस्सोई सिकंदर के आक्रमण के समय सिन्धु नदी की घाटी के निचले भाग में शिविगण के पड़ोस में रहने वाला एक गण था।
  • शिवि गण जंगली जानवरों की खाल के वस्त्र पहनते थे और विभिन्न प्रकार के ‘गदा’ और ‘मुगदर’ जैसे हथियारों का प्रयोग करते थे।
  • सिकन्दर जब सिन्धु नदी के मार्ग से भारत से वापस लौट रहा था, तो इस गण के लोगों से उसका मुक़ाबला हुआ।
  • अगलस्सोई गण की सेना में 40 हज़ार पैदल और तीन हज़ार घुड़सवार सैनिक थे। उन्होंने सिकन्दर के छक्के छुड़ा दिए, लेकिन अन्त में वे पराजित हो गए।

• यूनानी इतिहासकारों के अनुसार अगलस्सोई गण के 20 हज़ार आबादी वाले एक नगर के लोगों ने स्वयं अपने नगर में आग लगा दी और अपनी स्त्रियों और बच्चों के साथ जलकर मर गए, ताकि उन्हें यूनानियों की दासता न भोगनी पड़े। यह कृत्य राजपूतों में प्रचलित जौहर प्रथा से मिलता प्रतीत होता है।

अगलस्सोई की पहचान पाणिनिके व्याकरण में उल्लिखित अग्रश्रेणय: से की जाती है।

भारत में अनेक कथाएँ हैं जो जन-जन में लोकप्रिय हुईं और इनमें से कई कथाओं के पात्र भारत की जनता के लिए श्रद्धेय हो गये।
जैसे अाल्हा ऊदल, नल दमयंती, कच देवयानी आदि।
आल्हा-ऊदल काव्य में लिखा है:-

बड़े-बड़े चमचा गढ़ महोबे में
नौ-नौ मन जामें दार समाय
बड़े खबैया गढ़ महोबे के
नौ-नौ सै चमचा खा जाएँ

अब इसमें कहाँ सचाई तलाशी जाय? नौ मन दाल वाले चमचे और नौ सौ चमचे दाल खाने वाले आदमी?
नल-दमयंती की कथा में नल की कथा दमयंती और राजा नल को एक इंसानों की तरह बोलने वाला हंस सुनाता है। कच-देवयानी की कथा में कच को पकाकर शुक्राचार्य को खिला दिया जाता है और वह पेट में जीवित हो जाता है। यदि कोई इन कथाओं का ऐतिहासिक महत्व पूछे या फिर वैज्ञानिक महत्व पूछे तो?

इस प्रश्नों का कोई अर्थ नहीं है। ये तो कथाएँ हैं। इनके नायक-नायिका जन साधारण में कब और कितना महत्वपूर्ण बन जाएँ कोई नहीं कह सकता। अनेक व्यक्ति ऐसे हुए हैं जिनको अवतार और भगवान की मान्यता मिली है।

रानी पद्मिनी के जौहर की घटना का पं. जवाहर लाल नेहरू ने ज़िक्र किया है। राजस्थान का इतिहास लिखने वाले कर्नल टॉड ने भी इस घटना का ज़िक्र किया है। आजकल कर्नल टॉड के इतिहास को कोई ख़ास मान्यता नहीं दी जाती साथ ही पं. जवाहर लाल नेहरू को भी इतिहासकारों की श्रेणी में नहीं माना जाता। मशहूर फ़ारसी इतिहासकार फ़रिश्ता ने जायसी के पद्मावत को इतिहास माना है।

आज के इतिहासकार जायसी के पद्मावत की अनेक घटनाओं में विरोधाभास और इतिहास विरोधी तारीख़ों का उल्लेख करते हुए इसे इतिहास से अलग करते हैं। इतना अवश्य है कि आधुनिक इतिहासकारों के मत से तीन तथ्य ऐतिहासिक हैं; रतनसेन का चित्तौड़ में राजतिलक, ख़लजी का चित्तौड़ पर आक्रमण और चित्तौड़ में स्त्रियों द्वारा जौहर।

अब प्रश्न यह उठता है कि हमारे देश में एक ऐसी हृदय विदारक घटना घटी और इस घटना को जन-जन में कभी न भूलने वाली एक याद के रूप में कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने लोकप्रिय कर दिया तो क्या कोई गुनाह कर दिया? हम सभी भारतवासियों को अपनी संस्कृति और गौरवशाली इतिहास पर गर्व तभी तो होगा जब इसको हमें बार-बार याद दिलाया जाएगा।

एक नज़र फ़िल्म के कथानक पर भी डाली जाय- एक कल्पना तो जायसी ने की जिसके कारण पद्मिनी की कथा आज इतनी महत्वपूर्ण हो गई कि भारतवासी उसे अपनी अस्मिता और गौरव से जोड़ने लगे। दूसरी कल्पना फ़िल्म के लेखक ने की जिसमें अल्लाउद्दीन ख़लजी को स्वप्न में पद्मिनी के साथ विहार करते सोच लिया जो कि मनोवैज्ञानिक ढंग से संभव हो सकती है लेकिन समाज के लिए पूर्णत: नकारात्मक सोच है। कल्पना असीम होती है लेकिन कल्पना की अभिव्यक्ति सदैव सीमित और संयमित होती है।

आज ख़लजी के स्वप्न में पद्मिनी को दिखाने का प्रयास है तो कल रावण के स्वप्न में सीता को दिखाने का प्रयास किया जाएगा और बहाना मनोविज्ञान और कला का लिया जाएगा। मेरा नज़रिया इस संबंध में स्पष्ट है लेकिन फ़िल्म के निर्माता लीला भंसाली के साथ हाथापाई या फ़िल्म के सेट को क्षति पहुँचाना भी ग़लत है। अदालत में जन हित याचिका एक सही और क़ानूनी रास्ता है।

© आदित्य चौधरी

दिनांक- 22 मई, 2017

मुझसे एक प्रश्न पूछा गया: आत्मबोध, स्वजागरण, अन्तरचेतना, प्रबोधन (एन्लाइटेनमेन्ट) आदि शब्दों से क्या तात्पर्य है ?

मेरा उत्तर: आपका व्यक्तित्व दूसरों का अनुसरण और नक़ल करके बना है। जाने-अनजाने ही न जाने कितने व्यक्तियों के व्यक्तित्व की विशेषताएँ, आदतें, हाव-भाव आदि आपके भीतर आ जाती हैं। आपको जब भी जहाँ भी कोई बात प्रभावित करती है तो वह आपके व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाती है। किसी के; पैदल चलने का ढंग, बोलने का ढंग, गाने का ढंग आदि से आप इस क़दर प्रभावित रहते हैं कि उसे अपना लेते हैं।

इसी तरह आपके सोचने की प्रक्रिया और सोचने का ढंग स्वयं का न होकर किसी न किसी के द्वारा निर्देशित होता है। आपको बचपन से ही यह सिखाया जाता है कि आप क्या सोचें जबकि सिखाया यह जाना चाहिए कि आप कैसे सोचें। अनेक शिक्षाओं, अनुशासनों, उपदेशों, नसीहतों आदि के चलते आप एक निश्चित घेरे में सोचने का कार्य करते हैं। आपका दिमाग़, सूचनाओं और ज्ञान का गोदाम बन जाता है जिसमें किसी नए विचार का अंकुर फूटना नामुमकिन हो जाता है।

हालत यहाँ तक हो जाती है कि किस बात पर करुणा करनी है और किस पर क्रोध, यह भी दिमाग़ में कूट-कूट कर भर दिया जाता है। कोई धर्म और कोई जाति दे दी जाती है जिसको आपको मानना होता है। आपको बताया जाता है कि क्या सही है और क्या ग़लत। इस सब से बनता है आपका व्यक्तित्व। यह व्यक्तित्व आपका अपना नहीं है। आपके दिमाग़ में नए विचार नहीं हैं। ईश्वर, अल्लाह या जीसस का अनुसरण, आपने अपने मन से नहीं चुना है। आप एक जीवित रोबॉट भर हैं।

आप जाग्रत तब होते हैं जब आप अपने दृष्टिकोण से सब कुछ देखते हैं। अपने जीवन के निर्णायक और निर्माता आप स्वयं होते हैं। आपके विचार स्वयं आपके विचार होते हैं। आप स्वतंत्रता के मुक्त आकाश के नीचे अपनी धरती पर मुक्त विचरण करते हैं। दूसरे के कहे या लिखे को बिना विचारे मानते नहीं हैं। जब आपको पता होता है कि आप कितने स्वतंत्र हैं और कितने परतंत्र। आप ईश्वर को स्वयं ही समझने का प्रयास करते हैं, न कि दूसरों से पूछते फिरते हैं। आप अपने से छोटों और संतान पर अपने विचार लादते नहीं है बल्कि उन्हें भी स्वयं निर्णय लेने में सक्षम बनाते हैं।

इसी को कहते हैं एनलाइटेनमेंन्ट और इसके लिए ध्यान धरना बहुत लाभदायक है।

© आदित्य चौधरी

दिनांक- 19 मई, 2017

प्रिय मित्रो! जैसा कि आपने चाहा... मैंने एक कहानी और लिखी है। ज़रा देखिए कैसी है!

'एक रात अचानक'

नवम्बर का महीना था। प्रदीप एक सुनसान रास्ते पर अकेला पैदल चला जा रहा था। दिमाग़ में लगातार एक के बाद एक चिंताएँ घुमड़ रहीं थीं। हलकी ठंड होने पर भी पता नहीं उसे क्यों पसीना अा रहा था ? तेज़ चलने की वजह से या तनाव के कारण।

‘मैं इतनी तेज़ क्यों चल रहा हूँ , क्या चक्कर है ?… कहीं जल्दी तो पहुँचना है नहीं मुझे… धीरे चलता हूँ।’

उसने चाल धीमी कर दी।
‘काहे का कृषि प्रधान देश है भारत… दहेज़ प्रधान है… दहेज़ प्रधान… शादी तय हो गई और पैसा पास में एक भी नहीं…’
वो धीमी आवाज़ में बड़बड़ाया।
‘रितिका को अच्छी से अच्छी पढ़ाई करवाई और अब शादी में कम से कम दस लाख रुपए ख़र्च होंगे। अरे भैया! चार लाख तो उस मंगल के बच्चे ने लगा दिए, अपनी बेटी की शादी में और वो तो बस टॅम्पो चलाता है टॅम्पो।’

‘कहाँ से लाऊँ इतना पैसा ?… कैसे बनेंगे ज़ेवर ?… कैसे होगी दावत ?… मेरी ससुराल वालों के पास भी कुछ नहीं है। अब क्या होगा… हे ईश्वर कुछ करो।’

तभी सड़क के किनारे पेड़ के नीचे, हनुमान जी का छोटा सा मंदिर दिखा। उसने रुक कर सिर झुकाकर हाथ जोड़ दिए। सर उठाया तो ऐसा लगा कि कुछ दूरी पर कोई हलचल है। थोड़ा चलने पर देखा कि दो लड़के एक लड़की को घसीटते हुए। सड़क से एक तरफ़ की गलीनुमा रास्ते की तरफ़ ले जा रहे हैं।

प्रदीप एक पेड़ के पीछे छुप गया और सड़क पार से झांककर उनको देखने लगा। एक लड़के के हाथ में देशी तमंचा जैसा कुछ था। पेड़ को पीछे छोड़ वो थोड़ा और आगे गया तो अंदाज़ा हुआ कि लड़की का मुँह, साफ़ी-गमछा जैसे कपड़े से बंधा था। लड़की घिसटते समय पैर पटक-पटक कर बहुत विरोध कर रही थी और इसीलिए लड़कों की लातों की ठोकर से पिट भी रही थी।

प्रदीप का मन बेचैन हो रहा था। मुँह सूखने लगा, दिल ज़ोरों से धड़क रहा था।
‘क्या करूँ-क्या करूँ-क्या करूँ ?… अगर मैं इनसे लड़ा और मर गया…? तो फिर मेरी बेटी का क्या होगा। कौन करवाएगा शादी?… दस लाख रुपए?… हो सकता है ये लड़की ही ग़लत हो?… भाड़ में जाने दो… घर पहुँचूँ… नहीं-नहीं मुझे ज़रूर लड़ना चाहिए… बचाना चाहिए लड़की हो।’

बमुश्किल बीस-पच्चीस क़दम की दूरी पर ही सब कुछ घटने वाला था। तरह-तरह की हल्की आवाज़ें आ रही थीं जिनमें गालियाँ ज़्यादा थीं।

‘शायद लड़की से बलात्कार और फिर उसे मार ही देंगे। सबूत थोड़े ही छोड़ेंगे।’
तभी प्रदीप कि नज़र पास ही पड़े साइकिल के टूटे करियर पर पड़ी। उसने करियर उठा लिया।

‘लड़के ज़्यादा तगड़े तो हैं नहीं… लेकिन मैं भी तो पचास का हो गया… पता नहीं झगड़े का क्या नतीजा निकले…’

फिर वही सोच… ‘रितिका की शादी… बीवी का क्या होगा… बलात्कार… ख़ून… रितिका…शादी… बलात्कार…धक-धक, धक-धक, धक-धक, धक-धक…

प्रदीप की पकड़ साइकिल के टूटे करियर पर कसती जा रही थी। वो आगे बढ़ा तो देखा कि एक लड़का तो लड़की को ज़मीन पर गिरा कर क़ाबू करने की कोशिश कर रहा है और दूसरा तमंचा लेकर खड़ा रखवाली जैसी कर रहा है।

प्रदीप उस गली में मुड़कर आगे की ओर गया और जैसे ही तमंचे वाला प्रदीप की ओर घूमा उसने तमंचे वाले हाथ पर साइकिल का करियर दे मारा। तमंचा गिर गया। करियर का दूसरा वार उसी लड़के के मुँह पर हुआ, उसके मुँह से ख़ून निकल आया और वो गली में अन्दर भाग गया। अब तक लड़की दूसरे लड़के की पकड़ से छूट चुकी थी और उसने पीछे से उस लड़के के लम्बे बालों को पकड़ लिया अब प्रदीप के लिए उस लड़के की पिटाई करना बहुत आसान हो गया।

लड़की ने बाल छोड़े तो तमंचा उठा लिया। लड़के में एक घूँसा ऐसा लगा कि वह बेहोश ही हो गया। लड़की लातों से उस लड़के को मारे जा रही थी। प्रदीप बुरी तरह हाँफ़ रहा था लेकिन विजेता की तरह।

उस लड़की की जॅकेट थोड़ी सी फट गई थी और ओठों के किनारे से ख़ून बह रहा था। लड़की किसी अच्छे घर की लग रही थी। प्रदीप ने उस लड़की को उसके घर पहुँचाया तो पता चला कि वो तो शहर के बड़े रईस घनश्याम चड्ढा की इकलौती बेटी है। चड्ढा साहब बहुत सज्जन व्यक्ति थे। शहर में उनकी नेकनामी के क़िस्से मशहूर थे। जब चड्ढा साहब को पता चला कि प्रदीप, बेटी की शादी के लिए पैसों के इन्तज़ाम के लिए परेशान है तो उन्होंने प्रदीप के बहुत मना करने के बावजूद उसकी बेटी की शादी की पूरी ज़म्मेदारी अपने ऊपर लेली।

शादी के दिन रितिका के पास एक सुन्दर लड़की आई और उससे बोली।
“हाय रितिका! आय एम सलोनी… मुझसे दोस्ती करोगी, मैं तुम्हारे पापा की फ़ॅन हूँ। ही एज़ वैरी ब्रेव मॅन।”
पास खड़े प्रदीप ने कहा “लेकिन सलोनी से ज़्यादा ब्रेव नहीं… हाहाहा”
सब साथ-साथ हँस पड़े।

© आदित्य चौधरी

दिनांक- 18 मई, 2017

प्रिय मित्रो! जैसा कि आप चाहते हैं, मैंने एक कहानी और लिखी है। ज़रा देखिए कैसी है!

‘दाना-पानी’

वो हमारे किराएदार थे। उनका अपना कोई नहीं था। बस हमें ही अपना मानते थे। पन्द्रह साल से हमारे साथ थे। घर के बज़ुर्ग जैसे हो गए थे। हम उन्हें काका कहते थे। सुबह शाम का दूध सब्ज़ी लाने का काम ख़ुद ही करते रहते। हमारे मना करने पर भी नहीं मानते थे। शुरू-शुरू में तो अपना खाना ख़ुद ही बनाते थे लेकिन बाद में मां ने उनका खाना भी बनाना शुरू कर दिया था। बाद में पापा ने उनसे किराया लेना बंद कर दिया तो ख़ुद ही किराए के बराबर पैसे घर के किसी न किसी सामान पर ख़र्च कर देते थे।

पाँच साल पहले अपनी पेंशन भी घर में देने की ज़िद की तो पापा राज़ी नहीं हुए। काका भी नहीं माने और अपनी पेंशन वाले अकाउंट में मुझे नॉमिनी बना दिया। मैं दस साल का था जब काका हमारे यहाँ किराएदार की हैसियत से रहने अाए थे। हमेशा कहते कि तेरी शादी देखकर ही मरूँगा और तेरी शादी में ज़िन्दगी में पहली बार दारू पीकर नाचूँगा भी। जिस दिन मेरी नौकरी लगी उस दिन काका ख़ूब ख़ुश हुए और ख़ूब रोए। मैं दूसरे शहर जो जा रहा था।

काका की तबियत ख़राब है यह सुनकर मैं छुट्टी लेकर घर आया था। अगले ही दिन वो चल बसे। उनका अंतिम संस्कार भी मैंने ही किया। रात देर तक उनके बारे में बात होती रहीं। सुबह जल्दी उठकर छत पर गया तो देखा कि कबूतर, फ़ाख़्ता और अन्य चिड़ियों का झुन्ड छत की मुंडेर पर बैठा था। मैं समझ गया और पास के टिन शेड में से दाना निकाल कर छत पर बखेर दिया तो सभी पंछी दाने पर टूट पड़े और मज़े से दाना खाने लगे। हाँ इतना ज़रूर था कि जिस तरह से काका के साथ पंछी घुल-मिल गए थे वैसे मेरे पास नहीं आ रहे थे। एक दूरी बनाकर दाना खा रहे थे।

मैं सोचने लगा कि मैं तो कल चला जाऊँगा। मां अपने घुटनों की वजह से छत पर नहीं आ सकतीं, पापा कभी भी आठ बजे से पहले नहीं उठते तो फिर कल से दाना कौन खिलाएगा? तभी मेरा फ़ोन बजने लगा। फ़ोन से पता चला कि मेरी छुट्टी दो दिन और बढ़ा दी गई है। मैंने सोचा कि चलो दो दिन और… लेकिन फिर दो दिन बाद दाना कौन डालेगा?

अगले दिन सुबह मुझे उठने में देर हो गई। जल्दी-जल्दी मैं छत पर पहुँचा तो देखा कि पंछी नहीं थे। मैं सोच में पड़ गया कि आख़िर माजरा क्या है! छत पर ध्यान से देखा तो कहीं-कहीं दाने पड़े थे। दाने वाला डिब्बा देखा तो ऐसा लगा कि दाना कम हुआ है। बड़े आश्चर्य की बात थी। अगले दिन मैं जल्दी जागकर छत पर छुप कर बैठ गया। धीरे-धीरे पंछी इकट्ठा होने लगे। तभी हमारे पड़ोसियों के यहाँ काम करने वाली बाई की छोटी बेटी मुंडेर से कूदी और भागकर दाने के डिब्बे से दाने निकाल कर पंछियों को डालने लगी। पंछी उससे इतने ज़्यादा घुले-मिले लगे कि मैं आश्चर्य से देखता ही रह गया।

इसका मतलब ये था कि ये लड़की रोज़ाना काका के साथ दाना डालने आती थी और अब काका नहीं रहे तो अपना फ़र्ज़ निबाह रही है। मेरे आँखें पानी से धुंधला गईं। साथ ही मुझे काका की पेंशन के रुपयों का सदुपयोग भी समझ में आ गया।

© आदित्य चौधरी

दिनांक- 11 मई, 2017

मित्रो! मेरी एक और कहानी पढ़ें-

‘इंदिरा गांधी का हॅलीकॉप्टर’

“हम कब तक पहुँचेंगे ? अभी कितनी देर और…?”
“बस एक घंटे में पहुँच जाएँगे।” पति ने कार चलाते हुए जवाब दिया।
“क्या उम्र होगी पापा की?” पति ने फिर पूछा
“एट्टी फ़ोर… तीन दिन बाद ही तो उनका बर्डडे है और आज ही वो हमें छोड़ गए।” इतना कहकर, कार की खिड़की की तरफ़ शाम के लाल सूरज को देखने लगती है।
“हाँऽऽऽ वोई मैं सोच रहा था।” पति ने कहा

सूरज साथ-साथ चल रहा था। बचपन के दिनों में जब गाँव से ट्रेन में पापा के साथ जाती थी तो सूरज साथ-साथ चलता था।

“पापा ! सूरज साथ-साथ क्यों चलता है?”
“अरे बाबा वो तो साथ रोशनी करता चलता है न!”
पापा अक्सर माँओं वाले जवाब देते पापाओं वाले नहीं। बड़े सीधे-सादे बच्चों जैसे जवाब, कोई कठिन बात नहीं कहते थे जो मेरे बाल-मन को समझ में न आए।”
“तो फिर… तो फिर… तो फिर सूरज रात को क्यों नहीं साथ चलता?” मैंने भी मिलियन डॉलर कोश्चन ठोक दिया।
“सारा दिन भागेगा तो थकेगा भी न… सो जाता है बेचारा… चलो अब तुम भी सो जाओ। ट्रेन में सब सोने की तैयारी कर रहे हैं।”

“लो… गाँव वाला टर्न आ गया… क्या सोच रही हो…?” पति ने कहा।
“कुछ नहीं बस ऐसे ही… अ…असल में आँसू रुक नहीं रहे…”

तीन दिन गुज़र गए। पापा की रहस्यमयी ‘फ़ेमस’ नीली डायरी उनकी अलमारी में मेरे फ़ोटो के नीचे रखी मिली। बचपन में इस डायरी के पन्ने कितने सफ़ेद, चमकीले लगते थे… आज कितनी उजड़ी हुई अपने पीले पन्नों को छुपाती सी लग रही है।

ये डायरी मुझे कभी पढ़ने को नहीं मिली। मैंने जल्दी-जल्दी पन्नों को खोलना शुरू किया। एक के बाद एक पन्ना, मेरे बचपन के एक-एक दिन की तस्वीर बनाता गया। धुँधली यादों के फीके रंग गहराने लगे जैसे किसी ब्लॅक एन वाइट मूवी को कलर किया जा रहा हो। ज़िन्दगी में पहली बार अाँसू कम पड़ गए। रोने के साथ मुस्कुराना और हँसना रुक ही नही रहा था। गाँव में चारों ओर शांति थी। गाँवों में, वैसे भी सब जल्दी सो जाते हैं। कहीं दूर किसी के यहाँ शायद अखंड रामायण का पाठ हो रहा था। मैं जाग रही थी और डायरी के पन्नों को बार-बार पढ़ रही थी।

डायरी में लिखा था-
एक छोटा ताला मुनमुन के लिए, तीन पहिए की साइकिल छुट्टन के लिए, भगवानजी का मंदिर (सीता दादी के घर में जैसा है वैसा ही)। रंगीन चॉक, ब्लॅकबोर्ड, हवाई जहाज़, इंदिरा गांधी वाला हॅलीकॉप्टर, शकुन्तला जीजी के लिए धूप का चश्मा… और भी न जाने क्या-क्या सूची बनी हुई थी। अचानक आँख से एक आँसू टपका तो इंदिरा गांधी के हॅलीकॉप्टर पर गिरा। शहर में उस समय की प्रधानमंत्री, इंदिरा गांधी आईं थीं। हॅलीकॉप्टर देखकर, मैं मचल गई थी कि पापा हम हॅलीकॉप्टर कब लेंगे?

पापा जब भी गाँव से शहर जाते थे तो हम सब बच्चे अपनी-अपनी डिमांड उन्हें बताते थे। एक दिन बाद जब वे लौटते तो रात हो चुकी होती थी। हम बच्चे सो जाते थे। अगले दिन ध्यान ही नहीं रहता था कि पापा से पूछना है कि क्या-क्या लाए।

पापा उन सब चीज़ों की सूची नीली डायरी में बनाते थे। पापा की आमदनी इतनी कम थी कि वे कभी भी शहर से हमारे लिए मंहगी चीज़ नहीं ला पाए। ऐसा नहीं है कि कुछ लाते ही नहीं थे। आम तो गाँव में ही मिल जाते थे लेकिन केले और संतरे नहीं मिलते थे इसलिए टॉफ़ियाँ और केले या संतरे ज़रूर लाते थे। हमारी पढ़ाई और स्वास्थ्य के लिए पापा अपनी सारी कमाई ख़र्च करते थे जिसका नतीजा ये हुआ कि हम सब पढ़-लिख कर अच्छी नौकरी कर रहे हैं।

नीली डायरी आज पढ़ी तो अहसास हुआ कि पापा ने कितना सहेज कर हमारी सारी मांगों को लिखा था। क्या फ़र्क़ पड़ता है अगर वे कभी पूरी नहीं हो पाईं। आज समझ में आया कि पापा के जीवन की डायरी का मतलब, सिर्फ़ हमारी मांगें और उनको पूरा न कर पाने की मायूसी थी।

तभी छोटे ने आवाज़ दी और कमरे में आ गया।
“देख दीदी पापा की अटैची से ये छोटा सा हॅलीकॉप्टर मिला है। इसपे लिखा है ‘इंदिरा गांधी का हॅलीकॉप्टर’।

© आदित्य चौधरी

दिनांक- 8 मई, 2017

दूऽऽऽर-दूऽऽऽर किसी गॅलेक्सी के किसी ग्रह के किसी देश के मंत्रालय में वार्तालाप:

“सर! आश्वासन तो ख़त्म हो गए… नहीं दे सकते”
“क्या?… ऐसा कैसे हो सकता है? बाहर तो सीनियर सिटीज़न्स का एक डेलीगेशन बैठा है, अब क्या करें।”
मंत्री ने अपने सचिव पर चिंता ज़ाहिर की।
“सर इनकी मांगे मान लीजिए…”
“वो तो पॉसिबिल ही नहीं है, मांगे बहुत ज़्यादा हैं। आश्वासन ही देना होगा। वैसे एक बात बताओ कि आश्वासन ख़त्म कैसे हुए ?”
“सर! आप जब सत्ता में आए तो आपको सरकारी स्टॉक में दो हज़ार आठ सौ बाईस आश्वासन मिले थे, जिनको आपने यूज़ कर लिया। आश्वासनों की तीनों कॅटेगिरि याने; पूर्ण आश्वासन, ठोस आश्वासन और आश्वासन,… ये सब आप रोज़ाना दे रहे हैं…।” सचिव ने बताया।
“अच्छा… ठीक है-ठीक है… तो फिर हम वायदा भी तो कर सकते हैं…?”
“सॉरी सर वायदों का स्टॉक तो अपोज़ीशन के पास रहता है। अापको ये स्टॉक चुनाव के दौरान मिलेगा। सरकार वायदा नहीं करती, सरकार तो आश्वासन देती है।”
“अपोज़ीशन के पास भी तो आश्वासन होंगे…? ख़रीद लो… मुँह मांगी क़ीमत पर…?”
“सर अपोज़ीशन जब सत्ता से हटी तो नियमानुसार उसने सारे आश्वासन सत्ता पक्ष याने आपको हॅन्डओवर कर दिए। जिस तरह आपने चुनाव के दौरान बचे हुए वायदे विपक्ष को दे दिए थे।”
“कहीं न कहीं तो आश्वासन बिकते होंगे? चाहे डॉलर देने पड़ें लेकिन ख़रीद लो” मंत्री ने मंत्रियाना अंन्दाज़ में कहा।
“सर डॉलर तो क्या बिट कॉइन के बदले भी आश्वासन नहीं मिल सकते।”
“कोई न कोई तरीक़ा तो होगा अश्वासन अरेन्ज करने का?”
“सर इमरजेन्सी लगा दीजिए… तब कोई कुछ पूछने या मांगने नहीं आएगा। आश्वासन का झंझट ख़त्म।”
“हाँऽऽऽ ये ठीक रहेगा… लगा दो इमरजेन्सी”

© आदित्य चौधरी


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