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; दिनांक- 12 दिसंबर, 2017
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क्या यही तुम्हारा विशेष है?
|| मनहूसियत के मारे ||
कि बस जीते रहना है उस जीवन को
 
जो कि शेष है...
प्रकृति कहिए या ईश्वर कहिए, उसने पृथ्वी पर जो कुछ भी पैदा किया उसमें एक उल्लास पूर्ण गति अवश्य दी। मनहूस उदासी या आडम्बरी गंभीरता किसी भी जीव में नहीं दी। यहाँ तक कि वनस्पति में भी एक उल्लास से भरी हुई विकास की गति होती है। सूरजमुखी का फूल सूर्य को ही तकता रहता है और सूर्य जिस दिशा में जाता है उसी दिशा में वह मुड़ जाता है। फूलों की बेल, सहारे तलाश करती रहती हैं और जैसे अपनी बाहें फैलाकर सहारे को पकड़ ऊपर बढ़ती जाती हैं।
 
आप सड़क से एक पिल्ला उठा लाइये। सारा दिन घर में धमा-चौकड़ी मचाए रहेगा। कहने का सीधा अर्थ यह है जिसे हम सभी जानते ही हैं कि जीवन का अर्थ ही उत्सव और उल्लास है। प्रत्येक मनुष्य का प्रत्येक बच्चा जन्म से ही नृत्य, गायन, वादन, चित्रकारी, मूर्तिकारी, खेल जैसी आदि प्रतिभाओं से परिपूर्ण होता है। जिज्ञासा से भरा खोजी स्वभाव प्रत्येक बच्चे का स्वाभाविक गुण होता है। यह स्थिति मानसिक रूप से दिव्यांग बच्चों में भी होती है। मैंने बड़े क़रीब से देखा है ऐसे बच्चों को जिनकी मानसिक क्षमता हटकर होती हैं और जिन्हें हम मानसिक रूप से अविकसित या विशिष्ट रूप से विकसित मानते हैं। इन बच्चों में भी प्रसन्नता और उल्लास का भाव भरपूर होता है।
 
समस्या तब शुरु होती है जब धीरे-धीरे बच्चा बड़ा होने लगता है तो अधिकतर माता-पिता (या अन्य अभिभावक) उसकी इन प्रतिभाओं को बड़े गर्व के साथ समाप्त करने में लग जाते हैं। इसमें स्कूल भी अपनी भूमिका बख़ूबी निबाहता है। अधिकतर स्कूलों में शिक्षा जिस तरीक़े से दी जा रही है वह बेहद शोचनीय अवस्था है। पढ़ाई में सृजनात्मकता जैसा कुछ भी नहीं होता। उन्हें वह नहीं सिखाया जाता जोकि उनके व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में सहायक होगा और वे स्वयं अपनी सफलता का रास्ता चुन सकेंगे बल्कि उनको एक पारंपरिक तरीक़े की पढ़ाई दी जाती है जिससे वे कुछ नया करने की बजाय ख़ुद को किसी न किसी जॉब के लायक़ बनाने में लग जाते हैं।
 
महान विचारक जे. कृष्णमूर्ति ने कहा भी है कि स्कूलों में बच्चों को ‘क्या सोचा जाय सिखाने की बजाय कैसे सोचा जाय’ यह सिखाना चाहिए। इस आउटडेटेड उबाऊ शिक्षा पद्धिति के कारण बच्चों के भीतर की उमंग और उल्लास ख़त्म होने लगता है। ओढ़ी हुई गंभीरता मनहूसियत भरी उदासी उनका स्थाई स्वभाव बन जाता है। बच्चों को यह मौक़ा ही नहीं दिया जाता वे जान सकें कि उनमें कौन सी विशेष प्रतिभा है। बच्चों की मार्कशीट ही उनकी योग्यता की पहचान बन जाती है।
 
ज़रा बताइये कि मैंने कॅलकुलस, ट्रिगनोमॅट्री, वेक्टर, प्रॉबेबिलिटी आदि की पढ़ाई की… वह मेरे किस काम आ रही है… किसी काम नहीं। इसमें कोई दो राय नहीं कि गणित मेरा पसंदीदा विषय था लेकिन मुझे उन विषयों या क्षेत्रों को छेड़ने का मौक़ा ही नहीं मिला जो मेरे प्रिय हो सकते थे या उनमें से कोई एक मेरा पॅशन बन सकता था।


या कुछ देखना है कभी
व्यवसाय में पिता अपने वारिस को सिखाता है कि बेटा-बेटी जितनी ज़्यादा मनहूसियत भरी गंभीरता तुम ओढ़े रहोगे तुमको उतना ही बड़ा बिजनेसमॅन समझा जाएगा। सरकारी कार्यालय में चले जाएँ तो ऐसा लगता है कि यहाँ अगर ज़ोर से हँस पड़े तो शायद छत ही गिर पड़ेगी क्योंकि उस छत ने कभी हंसी की आवाज़ सुनी ही नहीं (सुबह-सुबह सफ़ाई कर्मचारी ही शायद हँसते हों)। आलम ये है कि ओढ़ी हुई गंभीरता एक संस्कृति बन चुकी है। अब न तो इस मनहूस संस्कृति को क्या नाम दिया जाय यह समझ में आता और इसको ख़त्म करने का उपाय ही।
उन पर्दों के पार की ज़िन्दगी
जो तुम्हारी उस खिड़की पर लगे हैं
जिसके गिर्द बना दी है
चाँदी की दीवार तुमने
और उन्हें
कभी न खोलने का निर्देश है


तुम्हारा वो काला चश्मा भी
एक सामान्य शिष्टाचार है कि किसी अजनबी से आपकी नज़र मिल जाय तो हल्का सा मुस्कुरा दें। यह शिष्टाचार यूरोपीय देशों में बहुत आम है। हमारे देश में यदि आप किसी अजनबी को देखकर मुस्कुरा गए और यदि वो लड़की हुई तो सोचेगी कि आप उसे छेड़ रहे हैं और यदि कोई लड़की किसी अजनबी लड़के को देखकर मुस्कुरा गई तो लड़का समझेगा कि यह प्रेम का निमंत्रण है।
उतरेगा अब नहीं
जो शौक़ था पहले
और अब व्यवसाय की मजबूरी
क्या तुम देख पाओगे कभी
कि कैसा ये देश है


परफ़्यूम भी नहीं छोड़ पाओगे
क्या आपको नहीं लगता कि ये सब बातें स्कूल में सिखाई जानी चाहिए? मेरी आज तक यह समझ में नहीं आया कि स्कूल में बच्चों को घर का काम करना क्यों नहीं सिखाया जाता। जैसे; चाय-बिस्किट-नाश्ता बनाना, कपड़े तह करना, कपड़े इस्तरी करना, शारीरिक सफ़ाई, माता-पिता से व्यवहार, कील-चोबे लगाना, कपड़ों में बटन लगाना, छोटे बच्चे की देख-भाल करना, बाग़वानी, आदि-आदि। इसके अलावा ‘डू इट योरसेल्फ़’ की बहुत सी चीज़ें सिखाई जानी चाहिए, ज़रूरतमंद लोगों की मदद क्यों, कब और कैसे करें यह उनके स्वभाव में आना चाहिए। यह सब लड़की-लड़कों को समान रूप से सिखाना चाहिए। खाना बनाना लड़कों को भी आना चाहिए। कामकाजी पति-पत्नी के घर में दोनों ही लगभग सभी काम करते हैं। ये सब बच्चों को स्कूल में सिखाया जाना चाहिए। कुछ व्यावहारिक प्रयोगों द्वारा और कुछ विडियो दिखाकर।
पसीने की गंध से तो
बहुत दूर हो जाओगे
इसी पसीने में ही तो
देश की आज़ादी का संदेश है


ख़ून बहाकर मिली थी आज़ादी
यह तो ठीक है कि हम बच्चों को महान व्यक्तियों के बारे में बताकर उन्हें अच्छा इंसान बनने के लिए प्रेरित करते हैं लेकिन बच्चों को यह भी बताना चाहिए कि छोटे बच्चे घर के कामों में अपनी माता-पिता की मदद करके भी महान बनते हैं। उनको पता होना चाहिए कि यदि वे काम पर जाने से पहले अपने पिता की साइकिल-बाइक-कार को पोंछ देंगे तो यह कितना बड़ा काम होगा। रसोई में मां का हाथ बटाएँगे तो उनके द्वारा किया काम कितना महत्वपूर्ण होगा।
ख़ून तुम भी बहाते हो लेकिन
तभी जबकि
ब्लड टेस्ट करवाते हो
कभी देखा है ग़ौर से कि
तुम्हारे ख़ून का रंग
कितना सफ़ेद है


कितने बिस्मिल थे
ज़रूरत तो इस बात की है कि प्रत्येक स्कूल, कॉलेज में कुछ विषय अलग से पढ़ाए जाने चाहिए। जिनसे छात्राओं और छात्रों को अच्छा इंसान बनने में मदद मिले। ‘संस्कृति’ एक अलग विषय होना चाहिए और इस विषय के अधीन सब-कुछ सिखाना चाहिए।
भगत सिंह और अशफ़ाक़
© आदित्य चौधरी
जिनकी आमद से
सिहर गया होगा यमराज भी
क्योंकि यही तो वह मृत्यु है
जो विशेष है
बाक़ी तो सब यूँ ही है
फ़ेक है
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|  [[चित्र:Aditya-chaudhary-facebook-post-36.jpg|250px|center]]
| 4  जुलाई, 2014
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; दिनांक- 5 दिसंबर, 2017
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मैं उन लोगों में से हूँ जो अपने बचपन में सोने से पहले बिस्तर पर लेेटे-लेटे तब तक गायत्री मंत्र का पाठ करता था कि जब तक नींद न आ जाए। इम्तिहान के दिनों में 108 मनकों की एक माला रोज़ाना सरस्वती के बीज मंत्र की करनी होती थी। अपने घर में ही, रामचरित मानस के अखंड पाठ में, मैंने उस उम्र में हिस्सा लिया था जिस उम्र में बच्चे सिर्फ़ दौड़ने और पेड़ पर चढ़ने को ही बहुत बड़ा खेल समझते हैं। हनुमान चालीसा, गणेश वन्दना और ओम जय जगदीश हरे, गीता के श्लोक, वेद और उपनिषदों के कुछ श्लोक जैसे अनेक धार्मिक पाठ... मुझे रटे हुए थे। रामचरित मानस और महाभारत का कोई प्रसंग ऐसा नहीं था जो मुझसे अछूता रहा हो।
“कोई आज भी है जो सुनता है…”
धार्मिक सिनेमा की तो हालत यह थी कि 'बलराम श्रीकृष्ण' फ़िल्म देखने के लिए मैं लगातार पूरे सप्ताह अपनी मां के साथ जाता रहा। हनुमान और बलराम मेरे हीरो उसी तरह थे जैसे आजकल स्पाइडर मॅन और बॅटमॅन बच्चों के हीरो होते हैं। कृष्ण और अर्जुन मेरी दुर्गम लक्ष्य प्राप्ति की प्रेरणा थे, हनुमान और भीम मेरी कसरत की प्रेरणा, एकलव्य और कर्ण का जीवन मुझे भावुक बना देता था।
 
आज भी मैं धार्मिक और देशभक्ति के धारावाहिक टी॰वी॰ पर देखकर बेहद भावुक हो जाता हूँ। अक्सर रो पड़ता हूँ। राधा की विरह, सुदामा की बेबसी, भरत मिलाप, हनुमान की राम भक्ति, भीष्म की प्रतिज्ञा, राजा नल की विपत्ति, सावित्री-सत्यवान प्रसंग, कर्ण का दान आदि ऐसे अनेक प्रसंग हैं जो आज भी मुझे भावुक बना देते हैं।
यह बात उन दिनों की है जब भारत पर अंग्रेज़ों का शासन था और देशभक्त क्रांतिकारी अंग्रेज़ों का विरोध कर रहे थे।
हम बचपन को छोड़ आते हैं... कमबख़्त बचपन हमें नहीं छोड़ता।
एक अंग्रेज़ अधिकारी गांधीजी से मिलने आया। उससे काफ़ी देर महात्मा गांधी से बात-चीत की, कई विषयों पर चर्चा हुई। इसके बाद वह विदा लेकर चला गया। उसके जाने के बाद गांधी जी को बताया गया कि जिस रेलगाड़ी से वह अंग्रेज़ अधिकारी आ रहा था, उस रेलगाड़ी पर क्रान्तिकारियों ने बम फेंका और जिस रेल के डिब्बे में वह अंग्रेज़ बैठा था उस डिब्बे का आधा हिस्सा बम के कारण क्षतिग्रस्त हो गया। जिस व्यक्ति ने गांधी जी को यह सूचना दी उसने पूछा कि उस अंग्रेज़ अधिकारी ने आपसे यह चर्चा अवश्य की होगी। गांधीजी ने बताया कि उसने इस तरह की कोई चर्चा नहीं की।
 
ज़रा सोचिए कि उस अंग्रेज़ ने बम फ़ेंकने की चर्चा क्यों नहीं की? इसका कारण है कि वह अंग्रेज़ नहीं चाहता था कि गांधी से वार्ता करते समय किसी ऐसी बात का ज़िक्र किया जाए जिससे कि वार्तालाप का माहौल असहज हो जाए। निश्चित रूप से इस वार्तालाप में दोनों ही सहज नहीं रह पाते यदि बम फ़ेंकने की घटना का ज़िक्र वह अंग्रेज़ अधिकारी कर देता।
 
यदि आप चाहते हैं कि लोग आपकी उपस्थिति को पसंद करें तो आपको अपने 'सुभीता स्तर' (Comfort level) की तरफ़ ध्यान देना चाहिए। याने आपकी मौजूदगी में लोग कितना सहज महसूस करते हैं। जो लोग आपके सहकर्मी, मित्र, परिवारीजन आदि हैं उन्हें आपकी उपस्थिति में कितनी सहजता महसूस होती है। सदा स्मरण रखने योग्य बात यह है कि आप योग्य कितने हैं यह बात तो महत्वपूर्ण है ही बल्कि आपका सुभीता स्तर कितना है, यह अधिक महत्वपूर्ण है। एक सफल व्यक्तित्व का रहस्य बुद्धि, प्रतिभा या योग्यता में ही छुपा नहीं है बल्कि 'सुभीता स्तर' (Comfort level) इसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
 
आजकल लोग (ऍन्ड ऑफ़कोर्स लेडीज़ ऑलसो) सुनते नहीं हैं। बोलने से ज़्यादा ज़रूरी है सुनना। सुनने के तरीक़े हैं तीन… तीन क्या बल्कि चार।
पहला तरीक़ा: सबसे घटिया तरीक़ा है। इसमें सुनने वाला कहने वाले की बात काट कर अपनी बात कहने लगता है। यह व्यक्ति सबको अप्रिय होता है।
दूसरा तरीक़ा: कहने वाले को यह लगता रहता है कि सुनने वाला कुछ कहना चाहता है। सुनने वाले के हाव-भाव-भंगिमा और आँखें, कहने वाले को, ऐसा संदेश देती हैं। जिससे कहने वाला चुप हो जाता है या फिर कहता है ”कहिए ! आप कुछ कहना चाहते हैं क्या?” सुनने का यह तरीक़ा भी घटिया ही है।
तीसरा तरीक़ा: यह तरीका बहुत सही है। इसमें सुनने वाला कहने वाले की बात ध्यान से सुनता है। अपने किसी हाव-भाव से यह महसूस नहीं होने देता कि वो ध्यान से नहीं सुन रहा।
चौथा तरीक़ा: इसमें हम कहने वाले को कुछ कहने के लिए कहते हैं, कोई प्रश्न करते हैं और उत्तर ध्यान से सुनते हैं। इस तरीक़े में हम लोगों के मौन को भी सुनने की कोशिश करते हैं और उन लोगों को कुछ कहने के लिए प्रोत्साहित करते हैं जो बहुत कम ही बोलते हैं।


लेकिन फिर भी इस सब के बाद अब मेरी अपनी पहचान क्या है ?
इस चौथे तरीक़े से बहुत कुछ सीखने को मिलता है। मैं अक्सर उन लोगों को बोलने के लिए प्रोत्साहित करता हूँ जो बहुत कम बोलते हैं।
कभी लोग मुझसे पूछ लेते हैं कि वास्तव में मेरी जाति, धर्म और विचार क्या हैं। शायद इसका जवाब है कि-
एक संस्मरण: मेरे यहाँ एक घरेलू कर्मी था। जिसका काम मेरे साथ रहकर मेरे छोटे-मोटे काम करना था। उसे सब कमअक़्ल मानते थे। मैं उससे कोई न कोई सवाल करके उसी प्रतिक्रिया सुन लेता था। एक दिन घर के सामने से हाथी जा रहा था। मैंने कहा कि कमाल की बात है धरती का सबसे बड़ा जीव है और कितना शांत है? घरेलू कर्मी बोला कि सबसे बड़ा है इसीलिए तो शांत है। मैं उसके जवाब से दंग रह गया। कितना सटीक उत्तर था उसका।


"मैं सूफ़ी हिन्दू हूँ
ज़िन्दगी में अगर सुनना सीख लेंगें तो बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। लोगों ने सुनना तो लगभग बंद ही कर दिया है। किसी से मिलने जाते हैं तो नज़र मोबाइल फ़ोन पर ही बनी रहती है। मुझे बुज़ुर्गों से बात करने में ज़्यादा आनंद होता है क्योंकि उनमें से ज़्यादातर स्मार्ट फ़ोन इस्तेमाल नहीं करते। व्यस्तता बहुत बढ़ गई है। वैसे भी व्यस्तता एक फ़ैशन बन गया है। जिन्हें कोई भी ज़रूरी काम नहीं है उनकी व्यस्तता देखकर तो और आनंद होता है। इस व्यस्तता का दिखावा भी आपके सुभीता स्तर के लिए नुक़सानदायक है।
बुतपरस्त मुस्लिम हूँ
कर्मकाण्डी शूद्र हूँ
म्लेच्छ ब्राह्मण हूँ
और
मेरे राजनैतिक और सामाजिक विचार ये हैं-
"मैं सर्वहारा बुर्जुआ हूँ
समाजवादी दक्षिणपंथी हूँ
भावुक यथार्थवादी हूँ
संन्यासी गृहस्थ हूँ"
अलबत्ता एक बात तो पक्की है कि


"भारत मुझको जान से प्यारा है
© आदित्य चौधरी
सबसे प्यारा गुलिस्तां हमारा है"
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| 24  जुलाई, 2014
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; दिनांक- 7 नवंबर, 2017
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मृत्यु जीवन की परछाईं है
“After Japan, China will rise and gain prosperity and strength. After China, the sun of prosperity and learning will again smile at India.”
तभी तक साथ रहती है जब तक कि जीवन है...
 
... लोग कहते हैं कि मरने के बाद वह क्या है जो मनुष्य का साथ छोड़ देता है। कोई कहता है आत्मा, कोई ऊर्जा, कोई प्राण आदि-आदि
ये शब्द किसी अंग्रेज़ अर्थशास्त्री के नहीं हैं बल्कि सन् 1902 में जापान और अमरीका की यात्रा के दौरान प्रसिद्ध वेदान्ती स्वामी रामतीर्थ के हैं। दो वर्ष अमरीका में बिताने पर स्वामी जी अमरीकियों के लिए अचम्भा बन गए थे। बर्फ़ गिरती रहती थी और रामतीर्थ निचले शरीर पर केवल धोती पहने उसमें चल देते थे। नंगे कन्धों पर बर्फ़ गिरती तो उसे झाड़ देते थे। लोग आश्चर्य से ऐसे व्यक्ति को देखते रह जाते थे।
लेकिन वास्तविकता यह है कि मरने पर 'मृत्यु' साथ छोड़ देती है जो कि हमारे साथ हर समय रहती है जब तक कि हम जीवित हैं।
 
हमारा जन्मदिन ही हमारी मृत्यु का भी जन्मदिन भी होता है और हमारा मृत्युदिन हमारी मृत्यु का मृत्युदिन भी...
स्वामी जी ने जब संन्यास लिया तब वे गणित के प्रोफ़ेसर थे। भारत के लिए उनके वक्तव्य अत्यंत उत्साह से भरे होते थे। वे कहते थे-
 
“भारत क्या है? मैं भारत हूँ। मेरा शरीर मानो उसकी भूमि है। मेरे दो पैर मालाबार और चोलमण्डल हैं। मेरे चरण कन्याकुमारी हैं। मेरा मस्तक हिमालय है। गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी प्रचण्ड नदियाँ मेरे केश हैं। राजस्थान और गुजरात मे मरुस्थल मेरा हृदय है। पूर्व और पश्चिम दिशाओं में मेरी भुजाएँ फैली हैं।” स्वामी विवेकानन्द के प्रभामंडल के कारण उनके ही समकालीन स्वामी रामतीर्थ को लोग ज़्यादा नहीं जान पाए। रामतीर्थ ने नयी पीढ़ी को जगाने का काम विवेकानन्द की तरह ही किया।
 
भारत को एक व्यक्ति के रूप में देखना और भारत के प्रत्येक नागरिक को भारत के रूप में देखना स्वामी रामतीर्थ की अद्भुत धारणा वास्तव में ही सत्य है। ज़रा सोचिए कि यह बात कितनी महत्वपूर्ण है कि भारत ने किसी पड़ोसी पर कभी आक्रमण नहीं किया। जो विदेशी भारत में आकर शासन कर गए उनको भी बहुत हद तक भारत की परंपराओं में ढलना पड़ा।
 
अाज जिसे हम हिन्दू धर्म कहते हैं उसकी असंख्य शाखाओं की आस्था, मत, धार्मिक विश्वास, पूजा-अर्चना, अनुष्ठान, कर्मकाण्ड आदि में आश्चर्यजनक विविधताएँ हैं। भारतीय दर्शन परंपरा में ईश्वर के अस्तित्व और स्वरूप को लेकर विभिन्न मत हैं। कोई साकार ईश्वर में आस्था रखता है तो कोई निराकार में और कोई-कोई तो ईश्वर के अस्तित्व को ही नहीं मानते। कमाल यह है कि यह सब हिन्दू धर्म में शामिल हैं।
 
प्राचीन ग्रंथों में बहुत सी जानकारियाँ ऐसी हैं जो बहुत महत्वपूर्ण हैं। पौराणिक काल में राजा अपने पुत्रों में से राज्य के उत्तराधिकारी को चुनने के लिए अनेक प्रकार की शिक्षाओं की व्यवस्था करता था। अयोध्या के राजा दशरथ ने अपने पुत्रों से अनेक संप्रदायों के ऋषि-मुनियों और आचार्यों की चर्चा करवाने की व्यवस्था की थी। राजा दशरथ राम के पास लोकायतों (चार्वाक) के आचार्यों को भेजा जिन्होंने राम को चार्वाक दर्शन का ज्ञान देने की चेष्टा की जिसमें नास्तिक होने के लाभ बताए गए लेकिन किशोरवय राम की आस्था वैदिक परंपराओं में थी। इसलिए राम ने उन्हें नकार दिया और क्षमा मांग ली। इसके अलावा भी अन्य विचारधाराएँ थीं जिनके अनुयायी पर्याप्त मात्रा में थे और आज भी हैं। इसी क्रम में, आजीवक एक अत्यंत प्राचीन संप्रदाय है। जिसके साधु और भिक्षु मस्करी वेष में रहा करते थे। रावण जब सीता हरण के लिए आया था उस समय वह इसी आजीवक संप्रदाय के मस्करी वेष में आया था।
 
भारत का यह रंग-रंगीला स्वरूप आज भी बदला नहीं है। विभिन्न धर्मों और संप्रदायों को मानने वाले भारत में शान से रह रहे हैं और उन्हें संविधान में समान अधिकार प्राप्त हैं।
 
कुछ ही समय पहले की बात है जब एक सिख, भारत का प्रधानमंत्री (मनमोहन सिंह), एक मुसलमान, राष्ट्रपति (अब्दुल कलाम), एक हिन्दू, सदन में विपक्ष के नेता (अटल बिहारी वाजपेयी) और एक जन्म से ईसाई, शासक पार्टी की अध्यक्ष (सोनिया गांधी) होने का विलक्षण संयोग हुआ। यह भी भारत में ही संभव है।
 
नोट: (पाठकगण क्षमा करें, ऊपर के अनुच्छेद में मैंने श्रीमती सोनिया गांधी को ‘जन्म से ईसाई’ इसलिए लिखा है क्योंकि मुझे उनकी वर्तमान धार्मिक स्थिति पता नहीं है।)
 
कुछ बातें मन पर छाप छोड़ जाती हैं और अपने भारतवासी होने पर और भी अधिक गर्व होने लगता है।
अभी पिछले दिनों मुहम्मद अली जिन्हा की बेटी का देहावसान हुआ। लोगों को जानकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि पाकिस्तान बनाने वाले पाकिस्तान के क़ायद-ए-आज़म की बेटी भारत में रहती थी! पाकिस्तान में न तो जिन्हा को और न ही उनकी बहन फ़ातिमा को समुचित सम्मान दिया गया। जिन्हा के इलाज में लापरवाही हुई और
उनकी बहन फ़ातिमा तो चुनाव ही हार गयीं। जिन्हा की बेटी सम्मानपूर्वक भारत में रहीं और उन्होंने पाकिस्तान को कभी पसंद नहीं किया।
 
© आदित्य चौधरी
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| 24  जुलाई, 2014
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; दिनांक- 2 नवंबर, 2017
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क्या हुआ ? एक हफ्ते से किसी ने मुझे candy crush खेलने के लिए invite नहीं किया और ना ही मुझे किसी अपनी जागरूक post या तस्वीर के साथ tag किया है।
आजकल रानी पद्मावती (पद्मिनी) को लेकर काफ़ी हंगामाई बहस छिड़ी हुई है। कुछ कहते हैं कि पद्मावती कोई ऐतिहासिक चरित्र ‘नहीं है’ और कुछ कहते हैं कि ‘है’। अलाउद्दीन ख़लजी के चित्तौड़ आक्रमण के लगभग 237 वर्ष बाद, ई.सन् 1540 के क़रीब मलिक मुहम्मद जायसी ने पद्मावत नाम से एक महाकाव्य रचा।
'वो FB मित्रों का मुझे tag करना... फिर फ़ौरन सारे काम छोड़कर मेरा उन tag को हटाना... मेरे पास तो अब जैसे कोई काम ही नहीं बचा...'
 
मैं जैसे ही किसी की friend request को स्वीकार करता हूँ तो अक्सर वो मुझे tag करके अपनी मित्रता का फ़र्ज़ अदा करते हैं। कितना प्यार है मुझसे...
इस महाकाव्य के कुछ प्रमुख चरित्र; रानी पद्मिनी, राणा रतनसेन, अलाउद्दीन ख़लजी, राघव चेतन, गोरा-बादल और एक इंसानों की तरह बोलने वाला तोता हीरामन हैं।
ख़ैर...
अब चूँकि इस विषय पर फ़िल्म बन रही है और काफ़ी चर्चा में है तो इसका कथानक उनको भी याद हो गया है जिनको नहीं था, ये फ़ेसबुक और वॉट्स ऍप की करामात है। इसलिए कथानक पर चर्चा व्यर्थ ही है।
 
मलिक मुहम्मद जायसी के जीवन की घटनाएँ कहीं किसी इतिहास में दर्ज नहीं हैं। कथा-कहानियों से ही जायसी के जीवन का कुछ पता चलता है। चेचक से जायसी के चेहरे पर दाग़ हो गए और एक आंख चली गई। ‘जायसी’ उपनाम जायस (पहले राय बरेली और अब अमेठी का एक नगर) में रहने के कारण पड़ा। बाद में जायसी ने एक चमत्कारी सूफ़ी संत के रूप में प्रसिद्धी पायी।
 
जायसी को अफ़ीम के नशे की लत थी। अफ़ीम का नशा आदमी को कल्पनालोक में ले जाता है। उस समय माज़ून (भांग से बनती है) और अफ़ीम का काफ़ी प्रचलन था। शराब में अफ़ीम मिला कर पीने का भी चलन था। जिसका ज़िक्र बाबर ने बाबरनामा में किया है। अकबर भी शराब में अफ़ीम मिलाकर पिया करता था।
 
जायसी की मृत्यु के संबंध में एक काल्पनिक कथा प्रचलित है। कहते हैं कि जायसी अपने जादू से शेर बनकर जंगल में घूमा करता था। एक शिकारी ने इस शेर के रूप में जायसी को मार डाला।
 
कुछ इतिहासकारों ने पद्मिनी के जौहर को काल्पनिक कथा बताया है। इस पर चर्चा बाद में पहले सिकंदर के भारत आक्रमण के समय घटी एक घटना का ज़िक्र-
पाणिनि ने अग्रश्रेणय: नामक एक छोटे से नगर-राष्ट्र (या आज की भाषा में कहें तो क़बीले का) ज़िक्र किया है। जो इतिहास में यूनानी भाषा में परिवर्तित होकर अगलस्सोई हो गया। इन अगलस्सोई नागरिकों ने यूनानी आक्रांता सिंकंदर का जम कर मुक़ाबला किया। भारतकोश पर इसका विवरण इस तरह है:-
 
* अगलस्सोई सिकंदर के आक्रमण के समय सिन्धु नदी की घाटी के निचले भाग में शिविगण के पड़ोस में रहने वाला एक गण था।
* शिवि गण जंगली जानवरों की खाल के वस्त्र पहनते थे और विभिन्न प्रकार के ‘गदा’ और ‘मुगदर’ जैसे हथियारों का प्रयोग करते थे।
* सिकन्दर जब सिन्धु नदी के मार्ग से भारत से वापस लौट रहा था, तो इस गण के लोगों से उसका मुक़ाबला हुआ।
* अगलस्सोई गण की सेना में 40 हज़ार पैदल और तीन हज़ार घुड़सवार सैनिक थे। उन्होंने सिकन्दर के छक्के छुड़ा दिए, लेकिन अन्त में वे पराजित हो गए।
• यूनानी इतिहासकारों के अनुसार अगलस्सोई गण के 20 हज़ार आबादी वाले एक नगर के लोगों ने स्वयं अपने नगर में आग लगा दी और अपनी स्त्रियों और बच्चों के साथ जलकर मर गए, ताकि उन्हें यूनानियों की दासता न भोगनी पड़े। यह कृत्य राजपूतों में प्रचलित जौहर प्रथा से मिलता प्रतीत होता है।
 
अगलस्सोई की पहचान पाणिनिके व्याकरण में उल्लिखित अग्रश्रेणय: से की जाती है।
 
भारत में अनेक कथाएँ हैं जो जन-जन में लोकप्रिय हुईं और इनमें से कई कथाओं के पात्र भारत की जनता के लिए श्रद्धेय हो गये।
जैसे अाल्हा ऊदल, नल दमयंती, कच देवयानी आदि।
आल्हा-ऊदल काव्य में लिखा है:-
 
बड़े-बड़े चमचा गढ़ महोबे में
नौ-नौ मन जामें दार समाय
बड़े खबैया गढ़ महोबे के
नौ-नौ सै चमचा खा जाएँ
 
अब इसमें कहाँ सचाई तलाशी जाय? नौ मन दाल वाले चमचे और नौ सौ चमचे दाल खाने वाले आदमी?
नल-दमयंती की कथा में नल की कथा दमयंती और राजा नल को एक इंसानों की तरह बोलने वाला हंस सुनाता है। कच-देवयानी की कथा में कच को पकाकर शुक्राचार्य को खिला दिया जाता है और वह पेट में जीवित हो जाता है। यदि कोई इन कथाओं का ऐतिहासिक महत्व पूछे या फिर वैज्ञानिक महत्व पूछे तो?
 
इस प्रश्नों का कोई अर्थ नहीं है। ये तो कथाएँ हैं। इनके नायक-नायिका जन साधारण में कब और कितना महत्वपूर्ण बन जाएँ कोई नहीं कह सकता। अनेक व्यक्ति ऐसे हुए हैं जिनको अवतार और भगवान की मान्यता मिली है।
 
रानी पद्मिनी के जौहर की घटना का पं. जवाहर लाल नेहरू ने ज़िक्र किया है। राजस्थान का इतिहास लिखने वाले कर्नल टॉड ने भी इस घटना का ज़िक्र किया है। आजकल कर्नल टॉड के इतिहास को कोई ख़ास मान्यता नहीं दी जाती साथ ही पं. जवाहर लाल नेहरू को भी इतिहासकारों की श्रेणी में नहीं माना जाता। मशहूर फ़ारसी इतिहासकार फ़रिश्ता ने जायसी के पद्मावत को इतिहास माना है।
 
आज के इतिहासकार जायसी के पद्मावत की अनेक घटनाओं में विरोधाभास और इतिहास विरोधी तारीख़ों का उल्लेख करते हुए इसे इतिहास से अलग करते हैं। इतना अवश्य है कि आधुनिक इतिहासकारों के मत से तीन तथ्य ऐतिहासिक हैं; रतनसेन का चित्तौड़ में राजतिलक, ख़लजी का चित्तौड़ पर आक्रमण और चित्तौड़ में स्त्रियों द्वारा जौहर।
 
अब प्रश्न यह उठता है कि हमारे देश में एक ऐसी हृदय विदारक घटना घटी और इस घटना को जन-जन में कभी न भूलने वाली एक याद के रूप में कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने लोकप्रिय कर दिया तो क्या कोई गुनाह कर दिया? हम सभी भारतवासियों को अपनी संस्कृति और गौरवशाली इतिहास पर गर्व तभी तो होगा जब इसको हमें बार-बार याद दिलाया जाएगा।
 
एक नज़र फ़िल्म के कथानक पर भी डाली जाय- एक कल्पना तो जायसी ने की जिसके कारण पद्मिनी की कथा आज इतनी महत्वपूर्ण हो गई कि भारतवासी उसे अपनी अस्मिता और गौरव से जोड़ने लगे। दूसरी कल्पना फ़िल्म के लेखक ने की जिसमें अल्लाउद्दीन ख़लजी को स्वप्न में पद्मिनी के साथ विहार करते सोच लिया जो कि मनोवैज्ञानिक ढंग से संभव हो सकती है लेकिन समाज के लिए पूर्णत: नकारात्मक सोच है। कल्पना असीम होती है लेकिन कल्पना की अभिव्यक्ति सदैव सीमित और संयमित होती है।
 
आज ख़लजी के स्वप्न में पद्मिनी को दिखाने का प्रयास है तो कल रावण के स्वप्न में सीता को दिखाने का प्रयास किया जाएगा और बहाना मनोविज्ञान और कला का लिया जाएगा। मेरा नज़रिया इस संबंध में स्पष्ट है लेकिन फ़िल्म के निर्माता लीला भंसाली के साथ हाथापाई या फ़िल्म के सेट को क्षति पहुँचाना भी ग़लत है। अदालत में जन हित याचिका एक सही और क़ानूनी रास्ता है।
 
© आदित्य चौधरी
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| 20 जुलाई, 2014
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; दिनांक- 22 मई, 2017
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प्रिय मित्रो ! शिवकुमार जी (Shivkumar Bilgrami) ने अपनी पत्रिका के जनवरी अंक में अम्माजी की कविता छाप दी और अब मुझे उसकी प्रति भेजी है। अम्माजी को 84 वर्ष की आयु में अब अपनी कोई कविता याद नहीं है, सिवाय इसके...
मुझसे एक प्रश्न पूछा गया: आत्मबोध, स्वजागरण, अन्तरचेतना, प्रबोधन (एन्लाइटेनमेन्ट) आदि शब्दों से क्या तात्पर्य है ?
 
मेरा उत्तर: आपका व्यक्तित्व दूसरों का अनुसरण और नक़ल करके बना है। जाने-अनजाने ही न जाने कितने व्यक्तियों के व्यक्तित्व की विशेषताएँ, आदतें, हाव-भाव आदि आपके भीतर आ जाती हैं। आपको जब भी जहाँ भी कोई बात प्रभावित करती है तो वह आपके व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाती है। किसी के; पैदल चलने का ढंग, बोलने का ढंग, गाने का ढंग आदि से आप इस क़दर प्रभावित रहते हैं कि उसे अपना लेते हैं।
 
इसी तरह आपके सोचने की प्रक्रिया और सोचने का ढंग स्वयं का न होकर किसी न किसी के द्वारा निर्देशित होता है। आपको बचपन से ही यह सिखाया जाता है कि आप क्या सोचें जबकि सिखाया यह जाना चाहिए कि आप कैसे सोचें। अनेक शिक्षाओं, अनुशासनों, उपदेशों, नसीहतों आदि के चलते आप एक निश्चित घेरे में सोचने का कार्य करते हैं। आपका दिमाग़, सूचनाओं और ज्ञान का गोदाम बन जाता है जिसमें किसी नए विचार का अंकुर फूटना नामुमकिन हो जाता है।
 
हालत यहाँ तक हो जाती है कि किस बात पर करुणा करनी है और किस पर क्रोध, यह भी दिमाग़ में कूट-कूट कर भर दिया जाता है। कोई धर्म और कोई जाति दे दी जाती है जिसको आपको मानना होता है। आपको बताया जाता है कि क्या सही है और क्या ग़लत। इस सब से बनता है आपका व्यक्तित्व। यह व्यक्तित्व आपका अपना नहीं है। आपके दिमाग़ में नए विचार नहीं हैं। ईश्वर, अल्लाह या जीसस का अनुसरण, आपने अपने मन से नहीं चुना है। आप एक जीवित रोबॉट भर हैं।
 
आप जाग्रत तब होते हैं जब आप अपने दृष्टिकोण से सब कुछ देखते हैं। अपने जीवन के निर्णायक और निर्माता आप स्वयं होते हैं। आपके विचार स्वयं आपके विचार होते हैं। आप स्वतंत्रता के मुक्त आकाश के नीचे अपनी धरती पर मुक्त विचरण करते हैं। दूसरे के कहे या लिखे को बिना विचारे मानते नहीं हैं। जब आपको पता होता है कि आप कितने स्वतंत्र हैं और कितने परतंत्र। आप ईश्वर को स्वयं ही समझने का प्रयास करते हैं, न कि दूसरों से पूछते फिरते हैं। आप अपने से छोटों और संतान पर अपने विचार लादते नहीं है बल्कि उन्हें भी स्वयं निर्णय लेने में सक्षम बनाते हैं।
 
इसी को कहते हैं एनलाइटेनमेंन्ट और इसके लिए ध्यान धरना बहुत लाभदायक है।
 
© आदित्य चौधरी
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| 20 जुलाई, 2014
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; दिनांक- 19 मई, 2017
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इस दुनिया में, वास्तविक रूप से, अपनी ग़लती मान लेने वाला व्यक्ति ही, निर्विवाद रूप से बुद्धिमान होता है।  
प्रिय मित्रो! जैसा कि आपने चाहा... मैंने एक कहानी और लिखी है। ज़रा देखिए कैसी है!
इसके अलावा जितने भी बुद्धि के पैमाने हैं वे सब बहुत बाद में अपनी भूमिका रखते हैं।
 
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'एक रात अचानक'
 
| 19  जुलाई, 2014
नवम्बर का महीना था। प्रदीप एक सुनसान रास्ते पर अकेला पैदल चला जा रहा था। दिमाग़ में लगातार एक के बाद एक चिंताएँ घुमड़ रहीं थीं। हलकी ठंड होने पर भी पता नहीं उसे क्यों पसीना अा रहा था ? तेज़ चलने की वजह से या तनाव के कारण।
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‘मैं इतनी तेज़ क्यों चल रहा हूँ , क्या चक्कर है ?… कहीं जल्दी तो पहुँचना है नहीं मुझे… धीरे चलता हूँ।’
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मेरे एक पुराने मित्र आए और उन्होंने जो कुछ मुझसे कहा उसे थोड़ा सभ्य भाषा में प्रस्तुत कर रहा हूँ-
उसने चाल धीमी कर दी।
"तुमको ब्रजडिस्कवरी और भारतकोश बना कर क्या मिला ? ब्रजडिस्कवरी और भारतकोश बनाने-चलाने में तुम्हारे हर्निया के दो ऑपरेशन हो गए, लम्बार स्पाइन की समस्या हो गई, चश्मे के नंबर बढ़ गए, खिलाड़ियों जैसा कसरती शरीर पिलपिले बैंगन जैसा हो गया, बुढ़ापे के लिए बचाया पैसा और संपत्ति ख़त्म हो गए, राजनैतिक जीवन और मथुरा में सामाजिक जीवन समाप्त हो गया, दोस्तों से मिलना-मिलाना ख़त्म हो गया। मैंने तुमको 85 किलो बॅंच प्रॅस करते देखता था लेकिन अब 85 ग्राम का फ़ोन भी तुम्हें भारी लगता है। तुम अपने पिताजी की उस उक्ति को भूल गए जब वे कहा करते थे कि चढ़ जा बेटा सूली पै, भली करेंगे राम। अब तक तुम चौधरी सा'ब की तरह 4 बार सांसद बन सकते थे... लेकिन तुमने सब सत्यानाश कर दिया"
‘काहे का कृषि प्रधान देश है भारत… दहेज़ प्रधान है… दहेज़ प्रधान… शादी तय हो गई और पैसा पास में एक भी नहीं…’
वो धीमी आवाज़ में बड़बड़ाया।
‘रितिका को अच्छी से अच्छी पढ़ाई करवाई और अब शादी में कम से कम दस लाख रुपए ख़र्च होंगे। अरे भैया! चार लाख तो उस मंगल के बच्चे ने लगा दिए, अपनी बेटी की शादी में और वो तो बस टॅम्पो चलाता है टॅम्पो।’
 
‘कहाँ से लाऊँ इतना पैसा ?… कैसे बनेंगे ज़ेवर ?… कैसे होगी दावत ?… मेरी ससुराल वालों के पास भी कुछ नहीं है। अब क्या होगा… हे ईश्वर कुछ करो।’
 
तभी सड़क के किनारे पेड़ के नीचे, हनुमान जी का छोटा सा मंदिर दिखा। उसने रुक कर सिर झुकाकर हाथ जोड़ दिए। सर उठाया तो ऐसा लगा कि कुछ दूरी पर कोई हलचल है। थोड़ा चलने पर देखा कि दो लड़के एक लड़की को घसीटते हुए। सड़क से एक तरफ़ की गलीनुमा रास्ते की तरफ़ ले जा रहे हैं।
 
प्रदीप एक पेड़ के पीछे छुप गया और सड़क पार से झांककर उनको देखने लगा। एक लड़के के हाथ में देशी तमंचा जैसा कुछ था। पेड़ को पीछे छोड़ वो थोड़ा और आगे गया तो अंदाज़ा हुआ कि लड़की का मुँह, साफ़ी-गमछा जैसे कपड़े से बंधा था। लड़की घिसटते समय पैर पटक-पटक कर बहुत विरोध कर रही थी और इसीलिए लड़कों की लातों की ठोकर से पिट भी रही थी।
 
प्रदीप का मन बेचैन हो रहा था। मुँह सूखने लगा, दिल ज़ोरों से धड़क रहा था।
‘क्या करूँ-क्या करूँ-क्या करूँ ?… अगर मैं इनसे लड़ा और मर गया…? तो फिर मेरी बेटी का क्या होगा। कौन करवाएगा शादी?… दस लाख रुपए?… हो सकता है ये लड़की ही ग़लत हो?… भाड़ में जाने दो… घर पहुँचूँ… नहीं-नहीं मुझे ज़रूर लड़ना चाहिए… बचाना चाहिए लड़की हो।’
 
बमुश्किल बीस-पच्चीस क़दम की दूरी पर ही सब कुछ घटने वाला था। तरह-तरह की हल्की आवाज़ें आ रही थीं जिनमें गालियाँ ज़्यादा थीं।
 
‘शायद लड़की से बलात्कार और फिर उसे मार ही देंगे। सबूत थोड़े ही छोड़ेंगे।’
तभी प्रदीप कि नज़र पास ही पड़े साइकिल के टूटे करियर पर पड़ी। उसने करियर उठा लिया।
 
‘लड़के ज़्यादा तगड़े तो हैं नहीं… लेकिन मैं भी तो पचास का हो गया… पता नहीं झगड़े का क्या नतीजा निकले…’


इसके बाद ज्यों के त्यों, मेरे मित्र के ही शब्द हैं "बोलो क्या मिला तुमको 'बाबा जी ठुल्लू'... मैंने तुमसे बड़ा इमोशनल फ़ूल नहीं देखा।"
फिर वही सोच… ‘रितिका की शादी… बीवी का क्या होगा… बलात्कार… ख़ून… रितिका…शादी… बलात्कार…धक-धक, धक-धक, धक-धक, धक-धक…


मेरे पास मुस्कुराने के सिवा कोई चारा नहीं था। मेरे मित्र, मुझे अपनी व्यक्तिगत संपत्ति की तरह ही व्यवहार में लाते हैं और मैं इसका आनंद लेता हूँ। मेरे अजीब-अजीब जीवन-प्रयोग उन्हें चकित भी करते हैं और क्रोधित भी... पर उनके प्यार में कमी नहीं होती।
प्रदीप की पकड़ साइकिल के टूटे करियर पर कसती जा रही थी। वो आगे बढ़ा तो देखा कि एक लड़का तो लड़की को ज़मीन पर गिरा कर क़ाबू करने की कोशिश कर रहा है और दूसरा तमंचा लेकर खड़ा रखवाली जैसी कर रहा है।


इस लॅक्चर के बाद मैंने उनसे कहा-
प्रदीप उस गली में मुड़कर आगे की ओर गया और जैसे ही तमंचे वाला प्रदीप की ओर घूमा उसने तमंचे वाले हाथ पर साइकिल का करियर दे मारा। तमंचा गिर गया। करियर का दूसरा वार उसी लड़के के मुँह पर हुआ, उसके मुँह से ख़ून निकल आया और वो गली में अन्दर भाग गया। अब तक लड़की दूसरे लड़के की पकड़ से छूट चुकी थी और उसने पीछे से उस लड़के के लम्बे बालों को पकड़ लिया अब प्रदीप के लिए उस लड़के की पिटाई करना बहुत आसान हो गया।


1857 में मेरे प्रपितामह बाबा देवकरण सिंह को विद्रोह करने पर अंग्रेज़ों ने फांसी दी थी। उनको गिरफ़्तार करवाने वाले एक ज़मीदार को इनाम में एक और ज़मीदारी दी गई। मेरे पर दादा को क्या मिला ? पूछा मैंने। भरी जवानी में मेरे पिता को अंग्रेज़ो ने जेल में डाल दिया, उन्हें क्या मिला। ये भी पूछा मैंने।
लड़की ने बाल छोड़े तो तमंचा उठा लिया। लड़के में एक घूँसा ऐसा लगा कि वह बेहोश ही हो गया। लड़की लातों से उस लड़के को मारे जा रही थी। प्रदीप बुरी तरह हाँफ़ रहा था लेकिन विजेता की तरह।
और मैं ! मैं तो उनका बस एक नालायक़ सा वंशज हूँ। मेरी औक़ात ही क्या है ! जो कुछ कर रहा हूँ वो बहुत-बहुत कम है...


अब तक तो मुझे किसी भ्रष्ट अधिकारी या नेता को खुले आम चुनौती देने के चक्कर में तबाह हो जाना चाहिए था। किसी जनहित आंदोलन की बलि चढ़ जाना चाहिए था, लेकिन मैं बच्चे पालने में लगा रहा। जब मेरे सर से ये ज़िम्मेदारी हट गई है, बच्चे ज़िम्मेदार हो गए हैं... तो अब तो कम से कम मुझे अपने मन की करने दो। अपने मन से जीने दो अपने मन से मरने दो। जिससे मुझे लगे कि मैं भी इस दुनिया में आकर इंसानों के श्रेणी में शामिल हूँ।
उस लड़की की जॅकेट थोड़ी सी फट गई थी और ओठों के किनारे से ख़ून बह रहा था। लड़की किसी अच्छे घर की लग रही थी। प्रदीप ने उस लड़की को उसके घर पहुँचाया तो पता चला कि वो तो शहर के बड़े रईस घनश्याम चड्ढा की इकलौती बेटी है। चड्ढा साहब बहुत सज्जन व्यक्ति थे। शहर में उनकी नेकनामी के क़िस्से मशहूर थे। जब चड्ढा साहब को पता चला कि प्रदीप, बेटी की शादी के लिए पैसों के इन्तज़ाम के लिए परेशान है तो उन्होंने प्रदीप के बहुत मना करने के बावजूद उसकी बेटी की शादी की पूरी ज़म्मेदारी अपने ऊपर लेली।


आज मेरे जीने का आधार क्या है ? मेरे जीने का आधार है भारतकोश के वे 10 करोड़ से अधिक पाठक जिनमें 6 करोड़ से अधिक नौजवान हैं। हर महीने 7-8 लाख लोग जो भारतकोश देख रहे हैं। वे छात्र जो परीक्षा और प्रतियोगिता के लिए भारतकोश पढ़ते हैं।
शादी के दिन रितिका के पास एक सुन्दर लड़की आई और उससे बोली।
“हाय रितिका! आय एम सलोनी… मुझसे दोस्ती करोगी, मैं तुम्हारे पापा की फ़ॅन हूँ। ही एज़ वैरी ब्रेव मॅन।”
पास खड़े प्रदीप ने कहा “लेकिन सलोनी से ज़्यादा ब्रेव नहीं… हाहाहा”
सब साथ-साथ हँस पड़े।


मेरे दोस्तो ! मैं पागल था, पागल हूँ और पागल ही रहूँगा। इसलिए परेशान होने के ज़रूरत नहीं है। हो सके तो भारतकोश की कुछ आर्थिक मदद करो... या...।
© आदित्य चौधरी
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| 19  जुलाई, 2014
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; दिनांक- 18 मई, 2017
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जब कोई मरता है तो कहते हैं- "वे भगवान को प्यारे हो गए"
प्रिय मित्रो! जैसा कि आप चाहते हैं, मैंने एक कहानी और लिखी है। ज़रा देखिए कैसी है!
जीते जी भगवान के प्यारे होने का कोई तरीक़ा नहीं है क्या ?
 
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‘दाना-पानी’
 
| 19 जुलाई, 2014
वो हमारे किराएदार थे। उनका अपना कोई नहीं था। बस हमें ही अपना मानते थे। पन्द्रह साल से हमारे साथ थे। घर के बज़ुर्ग जैसे हो गए थे। हम उन्हें काका कहते थे। सुबह शाम का दूध सब्ज़ी लाने का काम ख़ुद ही करते रहते। हमारे मना करने पर भी नहीं मानते थे। शुरू-शुरू में तो अपना खाना ख़ुद ही बनाते थे लेकिन बाद में मां ने उनका खाना भी बनाना शुरू कर दिया था। बाद में पापा ने उनसे किराया लेना बंद कर दिया तो ख़ुद ही किराए के बराबर पैसे घर के किसी न किसी सामान पर ख़र्च कर देते थे।
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डॉ॰ महेश चंद्र चतुर्वेदी मथुरा के विद्वानों में गिने जाते थे। वे मेरे पिताजी के पास भी आया करते थे, यह बात मुझे मेरी अम्माजी ने उनकी किताब पर उनका फ़ोटो देखकर बताई।
उनके पुत्र आशुतोष चतुर्वेदी (Ashutosh Chaturvedi) मेरे बचपन के मित्र हैं। आशुतोष ने मुझे यह किताब दी थी। डॉ॰ साहिब की लिखी मेरी पसंद की एक कविता प्रस्तुत है-


'सलीब'
पाँच साल पहले अपनी पेंशन भी घर में देने की ज़िद की तो पापा राज़ी नहीं हुए। काका भी नहीं माने और अपनी पेंशन वाले अकाउंट में मुझे नॉमिनी बना दिया। मैं दस साल का था जब काका हमारे यहाँ किराएदार की हैसियत से रहने अाए थे। हमेशा कहते कि तेरी शादी देखकर ही मरूँगा और तेरी शादी में ज़िन्दगी में पहली बार दारू पीकर नाचूँगा भी। जिस दिन मेरी नौकरी लगी उस दिन काका ख़ूब ख़ुश हुए और ख़ूब रोए। मैं दूसरे शहर जो जा रहा था।


झूठ बोलूंगा नहीं पर, सत्य की हिम्मत नहीं
काका की तबियत ख़राब है यह सुनकर मैं छुट्टी लेकर घर आया था। अगले ही दिन वो चल बसे। उनका अंतिम संस्कार भी मैंने ही किया। रात देर तक उनके बारे में बात होती रहीं। सुबह जल्दी उठकर छत पर गया तो देखा कि कबूतर, फ़ाख़्ता और अन्य चिड़ियों का झुन्ड छत की मुंडेर पर बैठा था। मैं समझ गया और पास के टिन शेड में से दाना निकाल कर छत पर बखेर दिया तो सभी पंछी दाने पर टूट पड़े और मज़े से दाना खाने लगे। हाँ इतना ज़रूर था कि जिस तरह से काका के साथ पंछी घुल-मिल गए थे वैसे मेरे पास नहीं आ रहे थे। एक दूरी बनाकर दाना खा रहे थे।
मुझसे मेरी ज़िन्दगी के, हाल को मत पूछिए


अपने हिस्से का यहाँ
मैं सोचने लगा कि मैं तो कल चला जाऊँगा। मां अपने घुटनों की वजह से छत पर नहीं आ सकतीं, पापा कभी भी आठ बजे से पहले नहीं उठते तो फिर कल से दाना कौन खिलाएगा? तभी मेरा फ़ोन बजने लगा। फ़ोन से पता चला कि मेरी छुट्टी दो दिन और बढ़ा दी गई है। मैंने सोचा कि चलो दो दिन और… लेकिन फिर दो दिन बाद दाना कौन डालेगा?
मैंने भी ढोया है सलीब
क्या सितम मुझ पर पड़े हैं
मुझसे यह मत पूछिए


प्यार क्या शै है
अगले दिन सुबह मुझे उठने में देर हो गई। जल्दी-जल्दी मैं छत पर पहुँचा तो देखा कि पंछी नहीं थे। मैं सोच में पड़ गया कि आख़िर माजरा क्या है! छत पर ध्यान से देखा तो कहीं-कहीं दाने पड़े थे। दाने वाला डिब्बा देखा तो ऐसा लगा कि दाना कम हुआ है। बड़े आश्चर्य की बात थी। अगले दिन मैं जल्दी जागकर छत पर छुप कर बैठ गया। धीरे-धीरे पंछी इकट्ठा होने लगे। तभी हमारे पड़ोसियों के यहाँ काम करने वाली बाई की छोटी बेटी मुंडेर से कूदी और भागकर दाने के डिब्बे से दाने निकाल कर पंछियों को डालने लगी। पंछी उससे इतने ज़्यादा घुले-मिले लगे कि मैं आश्चर्य से देखता ही रह गया।
मुझे अब तक नहीं मालूम है
उम्र कैसे काट पाया
मुझसे यह मत पूछिए


मुस्कुरा कर काट ली है
इसका मतलब ये था कि ये लड़की रोज़ाना काका के साथ दाना डालने आती थी और अब काका नहीं रहे तो अपना फ़र्ज़ निबाह रही है। मेरे आँखें पानी से धुंधला गईं। साथ ही मुझे काका की पेंशन के रुपयों का सदुपयोग भी समझ में आ गया।
मैंने शामे ज़िन्दगी
किससे मुझको थी शिकायत
मुझसे यह मत पूछिए


मैं किसी का हो न पाया
© आदित्य चौधरी
कोई मेरा था नहींं
क्यों रहा दुनिया में तनहा,
मुझसे यह मत पूछिए - डॉ॰ महेशचंद्र चतुर्वेदी
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| [[चित्र:Maheshchandra-chaturvedi.jpg|250px|center]]
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| 4  जुलाई, 2014
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; दिनांक- 11 मई, 2017
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जावेद अख़्तर की बेमिसाल रचना है। जब भी सुनता हूँ, रो पड़ता हूँ। भूपेन हज़ारिका की आवाज़ में असमी और बंगाली रंग है। इसलिए किसी-किसी को ये आवाज़ पसंद नहीं आती... मगर इतना तो यक़ीं है कि ये ग़ज़ब है... अगर पूरा सुन लें तो...
मित्रो! मेरी एक और कहानी पढ़ें-
[https://www.youtube.com/watch?v=L7moo13O_P8&feature=youtu.be Duniya Parayee Log Yahan Begane]
 
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‘इंदिरा गांधी का हॅलीकॉप्टर’
 
| 4  जुलाई, 2014
“हम कब तक पहुँचेंगे ? अभी कितनी देर और…?
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“बस एक घंटे में पहुँच जाएँगे।” पति ने कार चलाते हुए जवाब दिया।
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“क्या उम्र होगी पापा की?” पति ने फिर पूछा
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“एट्टी फ़ोर… तीन दिन बाद ही तो उनका बर्डडे है और आज ही वो हमें छोड़ गए।” इतना कहकर, कार की खिड़की की तरफ़ शाम के लाल सूरज को देखने लगती है।
हे ईश्वर ! तूने एक करोड़ से ज़्यादा भारत वासियों पर ज़रा भी रहम नहीं किया। मुढ़िया पूनो पर इस आग बरसाती गर्मी में वे श्रद्धालु मथुरा में, गिरिराज महाराज की परिक्रमा लगाते रहे। उनके पैर जलते रहे, दण्डौती देने में जिस्म झुलसते रहे। अब कम से कम रोज़ा रखने वालों पर तो नज़र--करम रख कि पूरे दिन भूखे प्यासे रहकर वो तुझे याद करते हैं। अब तो बरस... वरना कौन तुझ पर भरोसा करेगा।
“हाँऽऽऽ वोई मैं सोच रहा था।” पति ने कहा
लगता है तुझे अहसास नहीं है गर्मी का...
 
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सूरज साथ-साथ चल रहा था। बचपन के दिनों में जब गाँव से ट्रेन में पापा के साथ जाती थी तो सूरज साथ-साथ चलता था।
 
| 13  जुलाई, 2014
“पापा ! सूरज साथ-साथ क्यों चलता है?”
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“अरे बाबा वो तो साथ रोशनी करता चलता है न!”
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पापा अक्सर माँओं वाले जवाब देते पापाओं वाले नहीं। बड़े सीधे-सादे बच्चों जैसे जवाब, कोई कठिन बात नहीं कहते थे जो मेरे बाल-मन को समझ में न आए।”
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“तो फिर… तो फिर… तो फिर सूरज रात को क्यों नहीं साथ चलता?” मैंने भी मिलियन डॉलर कोश्चन ठोक दिया।
यह फ़ेसबुक पोस्ट, मेरे प्रिय छोटे भाई पवन चतुर्वेदी(Pavan Chaturvedi) को ...
“सारा दिन भागेगा तो थकेगा भी न… सो जाता है बेचारा… चलो अब तुम भी सो जाओ। ट्रेन में सब सोने की तैयारी कर रहे हैं।”


एक समय था जब हमारे घर पर विद्वानों का आना बना रहता था। इन विद्वानों में चतुर्वेदी अधिक संख्या में होते थे। जिनमें भाषा, धर्म, संस्कृति, दर्शन आदि के विद्वान अपने-अपने विचार रखते थे। उनकी चर्चाएँ मैं सुना करता था। जिसमें किसी भी दूसरे धर्म की आलोचना नाम-मात्र को होती थी। ब्रज और यमुना जी को लेकर उनकी चिन्ताएँ लगातार बनी रहती थीं। वे अपने ही धर्म को लेकर और नई पीढ़ी के आचार-विचार से ही व्यथित रहते थे। यह चतुर्वेदियों की एक अनोखी विशेषता थी। आजकल तो दूसरों के धर्म को बिना बात, धाराप्रवाह गालियां दी जाती हैं।
“लो… गाँव वाला टर्न आ गया… क्या सोच रही हो…?” पति ने कहा।
“कुछ नहीं बस ऐसे ही… अ…असल में आँसू रुक नहीं रहे…”


मथुरा के चतुर्वेदी उन गिनी-चुनी जातियों में से हैं जिनमें आज भी कई भाषाओं के पंडित आसानी से मिल जाते हैं और उन्हें प्रचार की लालसा भी नहीं है। 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम में चतुर्वेदियों के घरों में क्रांतिकारी छुपे रहे जिससे चतुर्वेदियों को अंग्रेज़ों का कोपभाजन बनना पड़ा (देखें ऍफ़॰ ऍस॰ ग्राउस की पुस्तक और ब्रोकमॅन का गज़टियर)। इससे पहली बार यह पता चला कि चतुर्वेदी शासन की हाँ में हाँ मिलाने वाली क़ौम नहीं है बल्कि प्रगति और स्वतंत्रता उसकी नसों में लहू बन के दौड़ रही है। मेरे प्रपितामह को भी 1857 में अंग्रज़ों ने फांसी दी थी। इसलिए मेरी रुचि इन संदर्भों ज्यादा है।
तीन दिन गुज़र गए। पापा की रहस्यमयी ‘फ़ेमस’ नीली डायरी उनकी अलमारी में मेरे फ़ोटो के नीचे रखी मिली। बचपन में इस डायरी के पन्ने कितने सफ़ेद, चमकीले लगते थे… आज कितनी उजड़ी हुई अपने पीले पन्नों को छुपाती सी लग रही है।


1947 के स्वातंत्र्य संग्राम में तो चतुर्वेदियों ने मथुरा का नाम स्वर्णाक्षरों मे लिखा। जब श्री राधामोहन चतुर्वेदी और मेरे पिता चौधरी दिगम्बर सिंह एक साथ जेल में बंद थे। पिताजी बताते थे कि उस समय चतुर्वेदी जी जेल में अंग्रेज़ी की किताब हाथ में लेकर धारा प्रवाह हिन्दी अनुवाद सुनाया करते थे और क़ैदियों को अंग्रेज़ी पढ़ाया करते थे। उस समय श्री शिवदत्त चतुर्वेदी के पिताजी श्री गौरीदत्त चतुर्वेदी भी जेल में थे।
ये डायरी मुझे कभी पढ़ने को नहीं मिली। मैंने जल्दी-जल्दी पन्नों को खोलना शुरू किया। एक के बाद एक पन्ना, मेरे बचपन के एक-एक दिन की तस्वीर बनाता गया। धुँधली यादों के फीके रंग गहराने लगे जैसे किसी ब्लॅक एन वाइट मूवी को कलर किया जा रहा हो। ज़िन्दगी में पहली बार अाँसू कम पड़ गए। रोने के साथ मुस्कुराना और हँसना रुक ही नही रहा था। गाँव में चारों ओर शांति थी। गाँवों में, वैसे भी सब जल्दी सो जाते हैं। कहीं दूर किसी के यहाँ शायद अखंड रामायण का पाठ हो रहा था। मैं जाग रही थी और डायरी के पन्नों को बार-बार पढ़ रही थी।


मथुरा के चौबों को सामान्यत: लोग परदेसियों से मांग-खाकर गुज़रा करने वाली जाति समझ लेते हैं। इसमें कुछ ग़लत तो नहीं लेकिन चतुर्वेदियों में हुए विद्वान, कलाकार, साहित्यकार और स्वतंत्रता सेनानियों की संख्या प्रतिशत के अनुपात में अन्य जातियों से बहुत-बहुत अधिक है। ध्रुपद धमार, हवेली संगीत, पहलवानी, संस्कृत भाषा और अर्थशास्त्र में इनकी दख़ल उल्लेखनीय है।
डायरी में लिखा था-
एक छोटा ताला मुनमुन के लिए, तीन पहिए की साइकिल छुट्टन के लिए, भगवानजी का मंदिर (सीता दादी के घर में जैसा है वैसा ही)। रंगीन चॉक, ब्लॅकबोर्ड, हवाई जहाज़, इंदिरा गांधी वाला हॅलीकॉप्टर, शकुन्तला जीजी के लिए धूप का चश्मा… और भी न जाने क्या-क्या सूची बनी हुई थी। अचानक आँख से एक आँसू टपका तो इंदिरा गांधी के हॅलीकॉप्टर पर गिरा। शहर में उस समय की प्रधानमंत्री, इंदिरा गांधी आईं थीं। हॅलीकॉप्टर देखकर, मैं मचल गई थी कि पापा हम हॅलीकॉप्टर कब लेंगे?


आज भी जब मेरे छोटे भाई पवन चतुर्वेदी का हमारे घर आना होता है तो पवन की हज़ारों ग़ज़लों और शेरों के मुँह ज़बानी याद होने की प्रतिभा से दंग रह जाता हूँ (और वह भी भावार्थ सहित)। श्री जगदीश्वर चतुर्वेदी (Jagadishwar Chaturvedi) जब आते हैं तो ऐसा लगता है कि विभिन्न विषयों पर धारा प्रवाह बोलते-बोलते कभी थकेंगे ही नहीं। बड़े भाई श्री मनोहर लाल चतुर्वेदी (Manohar Lal Chaturvedi) के आने पर उनके व्यवहार से ही विनम्रता और सभ्यता का पाठ सीखने को मिलता है, जो विरासत उनके चारों बेटों में भरपूर आई है। पिछले दिनों श्री नवीन चतुर्वेदी (Navin C. Chaturvedi) आए उनका ग़ज़ल ज्ञान मुझे बहुत भाया।
पापा जब भी गाँव से शहर जाते थे तो हम सब बच्चे अपनी-अपनी डिमांड उन्हें बताते थे। एक दिन बाद जब वे लौटते तो रात हो चुकी होती थी। हम बच्चे सो जाते थे। अगले दिन ध्यान ही नहीं रहता था कि पापा से पूछना है कि क्या-क्या लाए।


श्री शिवदत्त चतुर्वेदी, श्री जगदीश्वर चतुर्वेदी, श्री हरिवंश चतुर्वेदी (Harivansh Chaturvedi), श्री आशुतोष चतुर्वेदी (Ashutosh Chaturvedi)), श्री पवन चतुर्वेदी, श्री मधुवन दत्त चतुर्वेदी (Madhuvandutt Chaturvedi) जैसे कुछ नाम हैं जो एक समय-एक जगह इकट्ठे हों तो लगता है कि 'ज्ञान बाढ़' आ जाएगी ।
पापा उन सब चीज़ों की सूची नीली डायरी में बनाते थे। पापा की आमदनी इतनी कम थी कि वे कभी भी शहर से हमारे लिए मंहगी चीज़ नहीं ला पाए। ऐसा नहीं है कि कुछ लाते ही नहीं थे। आम तो गाँव में ही मिल जाते थे लेकिन केले और संतरे नहीं मिलते थे इसलिए टॉफ़ियाँ और केले या संतरे ज़रूर लाते थे। हमारी पढ़ाई और स्वास्थ्य के लिए पापा अपनी सारी कमाई ख़र्च करते थे जिसका नतीजा ये हुआ कि हम सब पढ़-लिख कर अच्छी नौकरी कर रहे हैं।


जै जमना मैया की...
नीली डायरी आज पढ़ी तो अहसास हुआ कि पापा ने कितना सहेज कर हमारी सारी मांगों को लिखा था। क्या फ़र्क़ पड़ता है अगर वे कभी पूरी नहीं हो पाईं। आज समझ में आया कि पापा के जीवन की डायरी का मतलब, सिर्फ़ हमारी मांगें और उनको पूरा न कर पाने की मायूसी थी।
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| 11  जुलाई, 2014
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अभी-अभी दु:ख भरा समाचार मिला कि महान शख़्सियत श्रीमती ज़ोहरा सहगल नहीं रहीं। मुझे जिनसे प्रेरणा मिलती थी उनमें ज़ोहरा जी का नाम बहुत-बहुत ऊँचा था। ऐसे लोग बार-बार नहीं जन्मा करते। उन्होंने जो जगह ख़ाली की उसे भरना असंभव है। मुझे उनसे मिलने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ, जब कि वे हमारी दूर की रिश्तेदार भी थीं।


ज़िन्दा दिल लोग सिर्फ़ जीते हैं मरते नहीं
तभी छोटे ने आवाज़ दी और कमरे में आ गया।
मरते तो सिर्फ़ वो हैं
“देख दीदी पापा की अटैची से ये छोटा सा हॅलीकॉप्टर मिला है। इसपे लिखा है ‘इंदिरा गांधी का हॅलीकॉप्टर’।
जिन्होंने ज़िन्दगी को जिया ही नहीं


विनम्र श्रद्धाञ्जलि
© आदित्य चौधरी
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| [[चित्र:Zohra-sehgal-2.jpg|250px|center]]
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| 10  जुलाई, 2014
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; दिनांक- 8 मई, 2017
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"रात निर्मला दिन परछांई
दूऽऽऽर-दूऽऽऽर किसी गॅलेक्सी के किसी ग्रह के किसी देश के मंत्रालय में वार्तालाप:
कहि 'सहदेव' कि बरसा नाहीं"
 
परसों अम्माजी ने यह सुनाया जिसका अर्थ है कि यदि रात में बादल नहीं हैं और सिर्फ़ दिन में ही होते हैं तो वर्षा की संभावना नहीं होती।
“सर! आश्वासन तो ख़त्म हो गए… नहीं दे सकते”
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“क्या?… ऐसा कैसे हो सकता है? बाहर तो सीनियर सिटीज़न्स का एक डेलीगेशन बैठा है, अब क्या करें।”
मंत्री ने अपने सचिव पर चिंता ज़ाहिर की।
| 4  जुलाई, 2014
“सर इनकी मांगे मान लीजिए…”
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“वो तो पॉसिबिल ही नहीं है, मांगे बहुत ज़्यादा हैं। आश्वासन ही देना होगा। वैसे एक बात बताओ कि आश्वासन ख़त्म कैसे हुए ?”
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“सर! आप जब सत्ता में आए तो आपको सरकारी स्टॉक में दो हज़ार आठ सौ बाईस आश्वासन मिले थे, जिनको आपने यूज़ कर लिया। आश्वासनों की तीनों कॅटेगिरि याने; पूर्ण आश्वासन, ठोस आश्वासन और आश्वासन,… ये सब आप रोज़ाना दे रहे हैं…।” सचिव ने बताया।
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“अच्छा… ठीक है-ठीक है… तो फिर हम वायदा भी तो कर सकते हैं…?”
चीन की सेना ने छ: महीने की कठोर अभ्यास का पाठ्यक्रम शुरू किया है। यह विशेष रूप से उन किशोर/किशोरियों के लिए है जो इंटरनेट पर अपना समय बिताते हैं। इनकी हालत दीवानों जैसी है और इंटरनेट की दुनिया ही इनकी वास्तविक दुनिया बनती जा रही है। इससे इन छात्रों के स्वास्थ्य पर बहुत ही बुरा असर पड़ रहा है। दिमाग़, हाथ-पैर, पाचन-तंत्र आदि सब बेकार होते जा रहे हैं। चीन में ऐसे छात्रों को तलाश कर सूची बद्ध किया जा रहा है।
“सॉरी सर वायदों का स्टॉक तो अपोज़ीशन के पास रहता है। अापको ये स्टॉक चुनाव के दौरान मिलेगा। सरकार वायदा नहीं करती, सरकार तो आश्वासन देती है।”
इसमें इनकी मदद स्कूल-कॉलेज और अभिभावकों के साथ-साथ पड़ोसी भी कर रहे हैं। सेना के विशेष कॅम्प में छ: महीने की कठोर ट्रेनिंग दी जाती है। जिसमें सब्ज़ी काटना, शौचालय साफ़ करना, झाड़ू-पौंछा, बर्तन धोना, कपड़े धोना आदि से लेकर कठोर शारीरिक कसरत भी शामिल है। इन विशेष रिहॅब (Rehabilitation centre) में कठोर अनुशासन के द्वारा इनका जीवन दोबारा से सही रास्ते पर लाया जाता है।
“अपोज़ीशन के पास भी तो आश्वासन होंगे…? ख़रीद लो… मुँह मांगी क़ीमत पर…?”
“सर अपोज़ीशन जब सत्ता से हटी तो नियमानुसार उसने सारे आश्वासन सत्ता पक्ष याने आपको हॅन्डओवर कर दिए। जिस तरह आपने चुनाव के दौरान बचे हुए वायदे विपक्ष को दे दिए थे।”
“कहीं न कहीं तो आश्वासन बिकते होंगे? चाहे डॉलर देने पड़ें लेकिन ख़रीद लो” मंत्री ने मंत्रियाना अंन्दाज़ में कहा।
“सर डॉलर तो क्या बिट कॉइन के बदले भी आश्वासन नहीं मिल सकते।”
“कोई न कोई तरीक़ा तो होगा अश्वासन अरेन्ज करने का?”
“सर इमरजेन्सी लगा दीजिए… तब कोई कुछ पूछने या मांगने नहीं आएगा। आश्वासन का झंझट ख़त्म।”
“हाँऽऽऽ ये ठीक रहेगा… लगा दो इमरजेन्सी”


ज़रा सोचिए कि चीन की आबादी भारत से ज़्यादा है...
© आदित्य चौधरी
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| 4  जुलाई, 2014
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==शब्दार्थ==
==शब्दार्थ==

08:15, 13 दिसम्बर 2017 के समय का अवतरण

आदित्य चौधरी फ़ेसबुक पोस्ट
दिनांक- 12 दिसंबर, 2017

|| मनहूसियत के मारे ||

प्रकृति कहिए या ईश्वर कहिए, उसने पृथ्वी पर जो कुछ भी पैदा किया उसमें एक उल्लास पूर्ण गति अवश्य दी। मनहूस उदासी या आडम्बरी गंभीरता किसी भी जीव में नहीं दी। यहाँ तक कि वनस्पति में भी एक उल्लास से भरी हुई विकास की गति होती है। सूरजमुखी का फूल सूर्य को ही तकता रहता है और सूर्य जिस दिशा में जाता है उसी दिशा में वह मुड़ जाता है। फूलों की बेल, सहारे तलाश करती रहती हैं और जैसे अपनी बाहें फैलाकर सहारे को पकड़ ऊपर बढ़ती जाती हैं।

आप सड़क से एक पिल्ला उठा लाइये। सारा दिन घर में धमा-चौकड़ी मचाए रहेगा। कहने का सीधा अर्थ यह है जिसे हम सभी जानते ही हैं कि जीवन का अर्थ ही उत्सव और उल्लास है। प्रत्येक मनुष्य का प्रत्येक बच्चा जन्म से ही नृत्य, गायन, वादन, चित्रकारी, मूर्तिकारी, खेल जैसी आदि प्रतिभाओं से परिपूर्ण होता है। जिज्ञासा से भरा खोजी स्वभाव प्रत्येक बच्चे का स्वाभाविक गुण होता है। यह स्थिति मानसिक रूप से दिव्यांग बच्चों में भी होती है। मैंने बड़े क़रीब से देखा है ऐसे बच्चों को जिनकी मानसिक क्षमता हटकर होती हैं और जिन्हें हम मानसिक रूप से अविकसित या विशिष्ट रूप से विकसित मानते हैं। इन बच्चों में भी प्रसन्नता और उल्लास का भाव भरपूर होता है।

समस्या तब शुरु होती है जब धीरे-धीरे बच्चा बड़ा होने लगता है तो अधिकतर माता-पिता (या अन्य अभिभावक) उसकी इन प्रतिभाओं को बड़े गर्व के साथ समाप्त करने में लग जाते हैं। इसमें स्कूल भी अपनी भूमिका बख़ूबी निबाहता है। अधिकतर स्कूलों में शिक्षा जिस तरीक़े से दी जा रही है वह बेहद शोचनीय अवस्था है। पढ़ाई में सृजनात्मकता जैसा कुछ भी नहीं होता। उन्हें वह नहीं सिखाया जाता जोकि उनके व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में सहायक होगा और वे स्वयं अपनी सफलता का रास्ता चुन सकेंगे बल्कि उनको एक पारंपरिक तरीक़े की पढ़ाई दी जाती है जिससे वे कुछ नया करने की बजाय ख़ुद को किसी न किसी जॉब के लायक़ बनाने में लग जाते हैं।

महान विचारक जे. कृष्णमूर्ति ने कहा भी है कि स्कूलों में बच्चों को ‘क्या सोचा जाय सिखाने की बजाय कैसे सोचा जाय’ यह सिखाना चाहिए। इस आउटडेटेड उबाऊ शिक्षा पद्धिति के कारण बच्चों के भीतर की उमंग और उल्लास ख़त्म होने लगता है। ओढ़ी हुई गंभीरता मनहूसियत भरी उदासी उनका स्थाई स्वभाव बन जाता है। बच्चों को यह मौक़ा ही नहीं दिया जाता वे जान सकें कि उनमें कौन सी विशेष प्रतिभा है। बच्चों की मार्कशीट ही उनकी योग्यता की पहचान बन जाती है।

ज़रा बताइये कि मैंने कॅलकुलस, ट्रिगनोमॅट्री, वेक्टर, प्रॉबेबिलिटी आदि की पढ़ाई की… वह मेरे किस काम आ रही है… किसी काम नहीं। इसमें कोई दो राय नहीं कि गणित मेरा पसंदीदा विषय था लेकिन मुझे उन विषयों या क्षेत्रों को छेड़ने का मौक़ा ही नहीं मिला जो मेरे प्रिय हो सकते थे या उनमें से कोई एक मेरा पॅशन बन सकता था।

व्यवसाय में पिता अपने वारिस को सिखाता है कि बेटा-बेटी जितनी ज़्यादा मनहूसियत भरी गंभीरता तुम ओढ़े रहोगे तुमको उतना ही बड़ा बिजनेसमॅन समझा जाएगा। सरकारी कार्यालय में चले जाएँ तो ऐसा लगता है कि यहाँ अगर ज़ोर से हँस पड़े तो शायद छत ही गिर पड़ेगी क्योंकि उस छत ने कभी हंसी की आवाज़ सुनी ही नहीं (सुबह-सुबह सफ़ाई कर्मचारी ही शायद हँसते हों)। आलम ये है कि ओढ़ी हुई गंभीरता एक संस्कृति बन चुकी है। अब न तो इस मनहूस संस्कृति को क्या नाम दिया जाय यह समझ में आता और इसको ख़त्म करने का उपाय ही।

एक सामान्य शिष्टाचार है कि किसी अजनबी से आपकी नज़र मिल जाय तो हल्का सा मुस्कुरा दें। यह शिष्टाचार यूरोपीय देशों में बहुत आम है। हमारे देश में यदि आप किसी अजनबी को देखकर मुस्कुरा गए और यदि वो लड़की हुई तो सोचेगी कि आप उसे छेड़ रहे हैं और यदि कोई लड़की किसी अजनबी लड़के को देखकर मुस्कुरा गई तो लड़का समझेगा कि यह प्रेम का निमंत्रण है।

क्या आपको नहीं लगता कि ये सब बातें स्कूल में सिखाई जानी चाहिए? मेरी आज तक यह समझ में नहीं आया कि स्कूल में बच्चों को घर का काम करना क्यों नहीं सिखाया जाता। जैसे; चाय-बिस्किट-नाश्ता बनाना, कपड़े तह करना, कपड़े इस्तरी करना, शारीरिक सफ़ाई, माता-पिता से व्यवहार, कील-चोबे लगाना, कपड़ों में बटन लगाना, छोटे बच्चे की देख-भाल करना, बाग़वानी, आदि-आदि। इसके अलावा ‘डू इट योरसेल्फ़’ की बहुत सी चीज़ें सिखाई जानी चाहिए, ज़रूरतमंद लोगों की मदद क्यों, कब और कैसे करें यह उनके स्वभाव में आना चाहिए। यह सब लड़की-लड़कों को समान रूप से सिखाना चाहिए। खाना बनाना लड़कों को भी आना चाहिए। कामकाजी पति-पत्नी के घर में दोनों ही लगभग सभी काम करते हैं। ये सब बच्चों को स्कूल में सिखाया जाना चाहिए। कुछ व्यावहारिक प्रयोगों द्वारा और कुछ विडियो दिखाकर।

यह तो ठीक है कि हम बच्चों को महान व्यक्तियों के बारे में बताकर उन्हें अच्छा इंसान बनने के लिए प्रेरित करते हैं लेकिन बच्चों को यह भी बताना चाहिए कि छोटे बच्चे घर के कामों में अपनी माता-पिता की मदद करके भी महान बनते हैं। उनको पता होना चाहिए कि यदि वे काम पर जाने से पहले अपने पिता की साइकिल-बाइक-कार को पोंछ देंगे तो यह कितना बड़ा काम होगा। रसोई में मां का हाथ बटाएँगे तो उनके द्वारा किया काम कितना महत्वपूर्ण होगा।

ज़रूरत तो इस बात की है कि प्रत्येक स्कूल, कॉलेज में कुछ विषय अलग से पढ़ाए जाने चाहिए। जिनसे छात्राओं और छात्रों को अच्छा इंसान बनने में मदद मिले। ‘संस्कृति’ एक अलग विषय होना चाहिए और इस विषय के अधीन सब-कुछ सिखाना चाहिए।
© आदित्य चौधरी

दिनांक- 5 दिसंबर, 2017

“कोई आज भी है जो सुनता है…”

यह बात उन दिनों की है जब भारत पर अंग्रेज़ों का शासन था और देशभक्त क्रांतिकारी अंग्रेज़ों का विरोध कर रहे थे।
एक अंग्रेज़ अधिकारी गांधीजी से मिलने आया। उससे काफ़ी देर महात्मा गांधी से बात-चीत की, कई विषयों पर चर्चा हुई। इसके बाद वह विदा लेकर चला गया। उसके जाने के बाद गांधी जी को बताया गया कि जिस रेलगाड़ी से वह अंग्रेज़ अधिकारी आ रहा था, उस रेलगाड़ी पर क्रान्तिकारियों ने बम फेंका और जिस रेल के डिब्बे में वह अंग्रेज़ बैठा था उस डिब्बे का आधा हिस्सा बम के कारण क्षतिग्रस्त हो गया। जिस व्यक्ति ने गांधी जी को यह सूचना दी उसने पूछा कि उस अंग्रेज़ अधिकारी ने आपसे यह चर्चा अवश्य की होगी। गांधीजी ने बताया कि उसने इस तरह की कोई चर्चा नहीं की।

ज़रा सोचिए कि उस अंग्रेज़ ने बम फ़ेंकने की चर्चा क्यों नहीं की? इसका कारण है कि वह अंग्रेज़ नहीं चाहता था कि गांधी से वार्ता करते समय किसी ऐसी बात का ज़िक्र किया जाए जिससे कि वार्तालाप का माहौल असहज हो जाए। निश्चित रूप से इस वार्तालाप में दोनों ही सहज नहीं रह पाते यदि बम फ़ेंकने की घटना का ज़िक्र वह अंग्रेज़ अधिकारी कर देता।

यदि आप चाहते हैं कि लोग आपकी उपस्थिति को पसंद करें तो आपको अपने 'सुभीता स्तर' (Comfort level) की तरफ़ ध्यान देना चाहिए। याने आपकी मौजूदगी में लोग कितना सहज महसूस करते हैं। जो लोग आपके सहकर्मी, मित्र, परिवारीजन आदि हैं उन्हें आपकी उपस्थिति में कितनी सहजता महसूस होती है। सदा स्मरण रखने योग्य बात यह है कि आप योग्य कितने हैं यह बात तो महत्वपूर्ण है ही बल्कि आपका सुभीता स्तर कितना है, यह अधिक महत्वपूर्ण है। एक सफल व्यक्तित्व का रहस्य बुद्धि, प्रतिभा या योग्यता में ही छुपा नहीं है बल्कि 'सुभीता स्तर' (Comfort level) इसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

आजकल लोग (ऍन्ड ऑफ़कोर्स लेडीज़ ऑलसो) सुनते नहीं हैं। बोलने से ज़्यादा ज़रूरी है सुनना। सुनने के तरीक़े हैं तीन… तीन क्या बल्कि चार।
पहला तरीक़ा: सबसे घटिया तरीक़ा है। इसमें सुनने वाला कहने वाले की बात काट कर अपनी बात कहने लगता है। यह व्यक्ति सबको अप्रिय होता है।
दूसरा तरीक़ा: कहने वाले को यह लगता रहता है कि सुनने वाला कुछ कहना चाहता है। सुनने वाले के हाव-भाव-भंगिमा और आँखें, कहने वाले को, ऐसा संदेश देती हैं। जिससे कहने वाला चुप हो जाता है या फिर कहता है ”कहिए ! आप कुछ कहना चाहते हैं क्या?” सुनने का यह तरीक़ा भी घटिया ही है।
तीसरा तरीक़ा: यह तरीका बहुत सही है। इसमें सुनने वाला कहने वाले की बात ध्यान से सुनता है। अपने किसी हाव-भाव से यह महसूस नहीं होने देता कि वो ध्यान से नहीं सुन रहा।
चौथा तरीक़ा: इसमें हम कहने वाले को कुछ कहने के लिए कहते हैं, कोई प्रश्न करते हैं और उत्तर ध्यान से सुनते हैं। इस तरीक़े में हम लोगों के मौन को भी सुनने की कोशिश करते हैं और उन लोगों को कुछ कहने के लिए प्रोत्साहित करते हैं जो बहुत कम ही बोलते हैं।

इस चौथे तरीक़े से बहुत कुछ सीखने को मिलता है। मैं अक्सर उन लोगों को बोलने के लिए प्रोत्साहित करता हूँ जो बहुत कम बोलते हैं।
एक संस्मरण: मेरे यहाँ एक घरेलू कर्मी था। जिसका काम मेरे साथ रहकर मेरे छोटे-मोटे काम करना था। उसे सब कमअक़्ल मानते थे। मैं उससे कोई न कोई सवाल करके उसी प्रतिक्रिया सुन लेता था। एक दिन घर के सामने से हाथी जा रहा था। मैंने कहा कि कमाल की बात है धरती का सबसे बड़ा जीव है और कितना शांत है? घरेलू कर्मी बोला कि सबसे बड़ा है इसीलिए तो शांत है। मैं उसके जवाब से दंग रह गया। कितना सटीक उत्तर था उसका।

ज़िन्दगी में अगर सुनना सीख लेंगें तो बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। लोगों ने सुनना तो लगभग बंद ही कर दिया है। किसी से मिलने जाते हैं तो नज़र मोबाइल फ़ोन पर ही बनी रहती है। मुझे बुज़ुर्गों से बात करने में ज़्यादा आनंद होता है क्योंकि उनमें से ज़्यादातर स्मार्ट फ़ोन इस्तेमाल नहीं करते। व्यस्तता बहुत बढ़ गई है। वैसे भी व्यस्तता एक फ़ैशन बन गया है। जिन्हें कोई भी ज़रूरी काम नहीं है उनकी व्यस्तता देखकर तो और आनंद होता है। इस व्यस्तता का दिखावा भी आपके सुभीता स्तर के लिए नुक़सानदायक है।

© आदित्य चौधरी

दिनांक- 7 नवंबर, 2017

“After Japan, China will rise and gain prosperity and strength. After China, the sun of prosperity and learning will again smile at India.”

ये शब्द किसी अंग्रेज़ अर्थशास्त्री के नहीं हैं बल्कि सन् 1902 में जापान और अमरीका की यात्रा के दौरान प्रसिद्ध वेदान्ती स्वामी रामतीर्थ के हैं। दो वर्ष अमरीका में बिताने पर स्वामी जी अमरीकियों के लिए अचम्भा बन गए थे। बर्फ़ गिरती रहती थी और रामतीर्थ निचले शरीर पर केवल धोती पहने उसमें चल देते थे। नंगे कन्धों पर बर्फ़ गिरती तो उसे झाड़ देते थे। लोग आश्चर्य से ऐसे व्यक्ति को देखते रह जाते थे।

स्वामी जी ने जब संन्यास लिया तब वे गणित के प्रोफ़ेसर थे। भारत के लिए उनके वक्तव्य अत्यंत उत्साह से भरे होते थे। वे कहते थे-

“भारत क्या है? मैं भारत हूँ। मेरा शरीर मानो उसकी भूमि है। मेरे दो पैर मालाबार और चोलमण्डल हैं। मेरे चरण कन्याकुमारी हैं। मेरा मस्तक हिमालय है। गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी प्रचण्ड नदियाँ मेरे केश हैं। राजस्थान और गुजरात मे मरुस्थल मेरा हृदय है। पूर्व और पश्चिम दिशाओं में मेरी भुजाएँ फैली हैं।” स्वामी विवेकानन्द के प्रभामंडल के कारण उनके ही समकालीन स्वामी रामतीर्थ को लोग ज़्यादा नहीं जान पाए। रामतीर्थ ने नयी पीढ़ी को जगाने का काम विवेकानन्द की तरह ही किया।

भारत को एक व्यक्ति के रूप में देखना और भारत के प्रत्येक नागरिक को भारत के रूप में देखना स्वामी रामतीर्थ की अद्भुत धारणा वास्तव में ही सत्य है। ज़रा सोचिए कि यह बात कितनी महत्वपूर्ण है कि भारत ने किसी पड़ोसी पर कभी आक्रमण नहीं किया। जो विदेशी भारत में आकर शासन कर गए उनको भी बहुत हद तक भारत की परंपराओं में ढलना पड़ा।

अाज जिसे हम हिन्दू धर्म कहते हैं उसकी असंख्य शाखाओं की आस्था, मत, धार्मिक विश्वास, पूजा-अर्चना, अनुष्ठान, कर्मकाण्ड आदि में आश्चर्यजनक विविधताएँ हैं। भारतीय दर्शन परंपरा में ईश्वर के अस्तित्व और स्वरूप को लेकर विभिन्न मत हैं। कोई साकार ईश्वर में आस्था रखता है तो कोई निराकार में और कोई-कोई तो ईश्वर के अस्तित्व को ही नहीं मानते। कमाल यह है कि यह सब हिन्दू धर्म में शामिल हैं।

प्राचीन ग्रंथों में बहुत सी जानकारियाँ ऐसी हैं जो बहुत महत्वपूर्ण हैं। पौराणिक काल में राजा अपने पुत्रों में से राज्य के उत्तराधिकारी को चुनने के लिए अनेक प्रकार की शिक्षाओं की व्यवस्था करता था। अयोध्या के राजा दशरथ ने अपने पुत्रों से अनेक संप्रदायों के ऋषि-मुनियों और आचार्यों की चर्चा करवाने की व्यवस्था की थी। राजा दशरथ राम के पास लोकायतों (चार्वाक) के आचार्यों को भेजा जिन्होंने राम को चार्वाक दर्शन का ज्ञान देने की चेष्टा की जिसमें नास्तिक होने के लाभ बताए गए लेकिन किशोरवय राम की आस्था वैदिक परंपराओं में थी। इसलिए राम ने उन्हें नकार दिया और क्षमा मांग ली। इसके अलावा भी अन्य विचारधाराएँ थीं जिनके अनुयायी पर्याप्त मात्रा में थे और आज भी हैं। इसी क्रम में, आजीवक एक अत्यंत प्राचीन संप्रदाय है। जिसके साधु और भिक्षु मस्करी वेष में रहा करते थे। रावण जब सीता हरण के लिए आया था उस समय वह इसी आजीवक संप्रदाय के मस्करी वेष में आया था।

भारत का यह रंग-रंगीला स्वरूप आज भी बदला नहीं है। विभिन्न धर्मों और संप्रदायों को मानने वाले भारत में शान से रह रहे हैं और उन्हें संविधान में समान अधिकार प्राप्त हैं।

कुछ ही समय पहले की बात है जब एक सिख, भारत का प्रधानमंत्री (मनमोहन सिंह), एक मुसलमान, राष्ट्रपति (अब्दुल कलाम), एक हिन्दू, सदन में विपक्ष के नेता (अटल बिहारी वाजपेयी) और एक जन्म से ईसाई, शासक पार्टी की अध्यक्ष (सोनिया गांधी) होने का विलक्षण संयोग हुआ। यह भी भारत में ही संभव है।

नोट: (पाठकगण क्षमा करें, ऊपर के अनुच्छेद में मैंने श्रीमती सोनिया गांधी को ‘जन्म से ईसाई’ इसलिए लिखा है क्योंकि मुझे उनकी वर्तमान धार्मिक स्थिति पता नहीं है।)

कुछ बातें मन पर छाप छोड़ जाती हैं और अपने भारतवासी होने पर और भी अधिक गर्व होने लगता है।
अभी पिछले दिनों मुहम्मद अली जिन्हा की बेटी का देहावसान हुआ। लोगों को जानकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि पाकिस्तान बनाने वाले पाकिस्तान के क़ायद-ए-आज़म की बेटी भारत में रहती थी! पाकिस्तान में न तो जिन्हा को और न ही उनकी बहन फ़ातिमा को समुचित सम्मान दिया गया। जिन्हा के इलाज में लापरवाही हुई और
उनकी बहन फ़ातिमा तो चुनाव ही हार गयीं। जिन्हा की बेटी सम्मानपूर्वक भारत में रहीं और उन्होंने पाकिस्तान को कभी पसंद नहीं किया।

© आदित्य चौधरी

दिनांक- 2 नवंबर, 2017

आजकल रानी पद्मावती (पद्मिनी) को लेकर काफ़ी हंगामाई बहस छिड़ी हुई है। कुछ कहते हैं कि पद्मावती कोई ऐतिहासिक चरित्र ‘नहीं है’ और कुछ कहते हैं कि ‘है’। अलाउद्दीन ख़लजी के चित्तौड़ आक्रमण के लगभग 237 वर्ष बाद, ई.सन् 1540 के क़रीब मलिक मुहम्मद जायसी ने पद्मावत नाम से एक महाकाव्य रचा।

इस महाकाव्य के कुछ प्रमुख चरित्र; रानी पद्मिनी, राणा रतनसेन, अलाउद्दीन ख़लजी, राघव चेतन, गोरा-बादल और एक इंसानों की तरह बोलने वाला तोता हीरामन हैं।
अब चूँकि इस विषय पर फ़िल्म बन रही है और काफ़ी चर्चा में है तो इसका कथानक उनको भी याद हो गया है जिनको नहीं था, ये फ़ेसबुक और वॉट्स ऍप की करामात है। इसलिए कथानक पर चर्चा व्यर्थ ही है।

मलिक मुहम्मद जायसी के जीवन की घटनाएँ कहीं किसी इतिहास में दर्ज नहीं हैं। कथा-कहानियों से ही जायसी के जीवन का कुछ पता चलता है। चेचक से जायसी के चेहरे पर दाग़ हो गए और एक आंख चली गई। ‘जायसी’ उपनाम जायस (पहले राय बरेली और अब अमेठी का एक नगर) में रहने के कारण पड़ा। बाद में जायसी ने एक चमत्कारी सूफ़ी संत के रूप में प्रसिद्धी पायी।

जायसी को अफ़ीम के नशे की लत थी। अफ़ीम का नशा आदमी को कल्पनालोक में ले जाता है। उस समय माज़ून (भांग से बनती है) और अफ़ीम का काफ़ी प्रचलन था। शराब में अफ़ीम मिला कर पीने का भी चलन था। जिसका ज़िक्र बाबर ने बाबरनामा में किया है। अकबर भी शराब में अफ़ीम मिलाकर पिया करता था।

जायसी की मृत्यु के संबंध में एक काल्पनिक कथा प्रचलित है। कहते हैं कि जायसी अपने जादू से शेर बनकर जंगल में घूमा करता था। एक शिकारी ने इस शेर के रूप में जायसी को मार डाला।

कुछ इतिहासकारों ने पद्मिनी के जौहर को काल्पनिक कथा बताया है। इस पर चर्चा बाद में पहले सिकंदर के भारत आक्रमण के समय घटी एक घटना का ज़िक्र-
पाणिनि ने अग्रश्रेणय: नामक एक छोटे से नगर-राष्ट्र (या आज की भाषा में कहें तो क़बीले का) ज़िक्र किया है। जो इतिहास में यूनानी भाषा में परिवर्तित होकर अगलस्सोई हो गया। इन अगलस्सोई नागरिकों ने यूनानी आक्रांता सिंकंदर का जम कर मुक़ाबला किया। भारतकोश पर इसका विवरण इस तरह है:-

  • अगलस्सोई सिकंदर के आक्रमण के समय सिन्धु नदी की घाटी के निचले भाग में शिविगण के पड़ोस में रहने वाला एक गण था।
  • शिवि गण जंगली जानवरों की खाल के वस्त्र पहनते थे और विभिन्न प्रकार के ‘गदा’ और ‘मुगदर’ जैसे हथियारों का प्रयोग करते थे।
  • सिकन्दर जब सिन्धु नदी के मार्ग से भारत से वापस लौट रहा था, तो इस गण के लोगों से उसका मुक़ाबला हुआ।
  • अगलस्सोई गण की सेना में 40 हज़ार पैदल और तीन हज़ार घुड़सवार सैनिक थे। उन्होंने सिकन्दर के छक्के छुड़ा दिए, लेकिन अन्त में वे पराजित हो गए।

• यूनानी इतिहासकारों के अनुसार अगलस्सोई गण के 20 हज़ार आबादी वाले एक नगर के लोगों ने स्वयं अपने नगर में आग लगा दी और अपनी स्त्रियों और बच्चों के साथ जलकर मर गए, ताकि उन्हें यूनानियों की दासता न भोगनी पड़े। यह कृत्य राजपूतों में प्रचलित जौहर प्रथा से मिलता प्रतीत होता है।

अगलस्सोई की पहचान पाणिनिके व्याकरण में उल्लिखित अग्रश्रेणय: से की जाती है।

भारत में अनेक कथाएँ हैं जो जन-जन में लोकप्रिय हुईं और इनमें से कई कथाओं के पात्र भारत की जनता के लिए श्रद्धेय हो गये।
जैसे अाल्हा ऊदल, नल दमयंती, कच देवयानी आदि।
आल्हा-ऊदल काव्य में लिखा है:-

बड़े-बड़े चमचा गढ़ महोबे में
नौ-नौ मन जामें दार समाय
बड़े खबैया गढ़ महोबे के
नौ-नौ सै चमचा खा जाएँ

अब इसमें कहाँ सचाई तलाशी जाय? नौ मन दाल वाले चमचे और नौ सौ चमचे दाल खाने वाले आदमी?
नल-दमयंती की कथा में नल की कथा दमयंती और राजा नल को एक इंसानों की तरह बोलने वाला हंस सुनाता है। कच-देवयानी की कथा में कच को पकाकर शुक्राचार्य को खिला दिया जाता है और वह पेट में जीवित हो जाता है। यदि कोई इन कथाओं का ऐतिहासिक महत्व पूछे या फिर वैज्ञानिक महत्व पूछे तो?

इस प्रश्नों का कोई अर्थ नहीं है। ये तो कथाएँ हैं। इनके नायक-नायिका जन साधारण में कब और कितना महत्वपूर्ण बन जाएँ कोई नहीं कह सकता। अनेक व्यक्ति ऐसे हुए हैं जिनको अवतार और भगवान की मान्यता मिली है।

रानी पद्मिनी के जौहर की घटना का पं. जवाहर लाल नेहरू ने ज़िक्र किया है। राजस्थान का इतिहास लिखने वाले कर्नल टॉड ने भी इस घटना का ज़िक्र किया है। आजकल कर्नल टॉड के इतिहास को कोई ख़ास मान्यता नहीं दी जाती साथ ही पं. जवाहर लाल नेहरू को भी इतिहासकारों की श्रेणी में नहीं माना जाता। मशहूर फ़ारसी इतिहासकार फ़रिश्ता ने जायसी के पद्मावत को इतिहास माना है।

आज के इतिहासकार जायसी के पद्मावत की अनेक घटनाओं में विरोधाभास और इतिहास विरोधी तारीख़ों का उल्लेख करते हुए इसे इतिहास से अलग करते हैं। इतना अवश्य है कि आधुनिक इतिहासकारों के मत से तीन तथ्य ऐतिहासिक हैं; रतनसेन का चित्तौड़ में राजतिलक, ख़लजी का चित्तौड़ पर आक्रमण और चित्तौड़ में स्त्रियों द्वारा जौहर।

अब प्रश्न यह उठता है कि हमारे देश में एक ऐसी हृदय विदारक घटना घटी और इस घटना को जन-जन में कभी न भूलने वाली एक याद के रूप में कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने लोकप्रिय कर दिया तो क्या कोई गुनाह कर दिया? हम सभी भारतवासियों को अपनी संस्कृति और गौरवशाली इतिहास पर गर्व तभी तो होगा जब इसको हमें बार-बार याद दिलाया जाएगा।

एक नज़र फ़िल्म के कथानक पर भी डाली जाय- एक कल्पना तो जायसी ने की जिसके कारण पद्मिनी की कथा आज इतनी महत्वपूर्ण हो गई कि भारतवासी उसे अपनी अस्मिता और गौरव से जोड़ने लगे। दूसरी कल्पना फ़िल्म के लेखक ने की जिसमें अल्लाउद्दीन ख़लजी को स्वप्न में पद्मिनी के साथ विहार करते सोच लिया जो कि मनोवैज्ञानिक ढंग से संभव हो सकती है लेकिन समाज के लिए पूर्णत: नकारात्मक सोच है। कल्पना असीम होती है लेकिन कल्पना की अभिव्यक्ति सदैव सीमित और संयमित होती है।

आज ख़लजी के स्वप्न में पद्मिनी को दिखाने का प्रयास है तो कल रावण के स्वप्न में सीता को दिखाने का प्रयास किया जाएगा और बहाना मनोविज्ञान और कला का लिया जाएगा। मेरा नज़रिया इस संबंध में स्पष्ट है लेकिन फ़िल्म के निर्माता लीला भंसाली के साथ हाथापाई या फ़िल्म के सेट को क्षति पहुँचाना भी ग़लत है। अदालत में जन हित याचिका एक सही और क़ानूनी रास्ता है।

© आदित्य चौधरी

दिनांक- 22 मई, 2017

मुझसे एक प्रश्न पूछा गया: आत्मबोध, स्वजागरण, अन्तरचेतना, प्रबोधन (एन्लाइटेनमेन्ट) आदि शब्दों से क्या तात्पर्य है ?

मेरा उत्तर: आपका व्यक्तित्व दूसरों का अनुसरण और नक़ल करके बना है। जाने-अनजाने ही न जाने कितने व्यक्तियों के व्यक्तित्व की विशेषताएँ, आदतें, हाव-भाव आदि आपके भीतर आ जाती हैं। आपको जब भी जहाँ भी कोई बात प्रभावित करती है तो वह आपके व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाती है। किसी के; पैदल चलने का ढंग, बोलने का ढंग, गाने का ढंग आदि से आप इस क़दर प्रभावित रहते हैं कि उसे अपना लेते हैं।

इसी तरह आपके सोचने की प्रक्रिया और सोचने का ढंग स्वयं का न होकर किसी न किसी के द्वारा निर्देशित होता है। आपको बचपन से ही यह सिखाया जाता है कि आप क्या सोचें जबकि सिखाया यह जाना चाहिए कि आप कैसे सोचें। अनेक शिक्षाओं, अनुशासनों, उपदेशों, नसीहतों आदि के चलते आप एक निश्चित घेरे में सोचने का कार्य करते हैं। आपका दिमाग़, सूचनाओं और ज्ञान का गोदाम बन जाता है जिसमें किसी नए विचार का अंकुर फूटना नामुमकिन हो जाता है।

हालत यहाँ तक हो जाती है कि किस बात पर करुणा करनी है और किस पर क्रोध, यह भी दिमाग़ में कूट-कूट कर भर दिया जाता है। कोई धर्म और कोई जाति दे दी जाती है जिसको आपको मानना होता है। आपको बताया जाता है कि क्या सही है और क्या ग़लत। इस सब से बनता है आपका व्यक्तित्व। यह व्यक्तित्व आपका अपना नहीं है। आपके दिमाग़ में नए विचार नहीं हैं। ईश्वर, अल्लाह या जीसस का अनुसरण, आपने अपने मन से नहीं चुना है। आप एक जीवित रोबॉट भर हैं।

आप जाग्रत तब होते हैं जब आप अपने दृष्टिकोण से सब कुछ देखते हैं। अपने जीवन के निर्णायक और निर्माता आप स्वयं होते हैं। आपके विचार स्वयं आपके विचार होते हैं। आप स्वतंत्रता के मुक्त आकाश के नीचे अपनी धरती पर मुक्त विचरण करते हैं। दूसरे के कहे या लिखे को बिना विचारे मानते नहीं हैं। जब आपको पता होता है कि आप कितने स्वतंत्र हैं और कितने परतंत्र। आप ईश्वर को स्वयं ही समझने का प्रयास करते हैं, न कि दूसरों से पूछते फिरते हैं। आप अपने से छोटों और संतान पर अपने विचार लादते नहीं है बल्कि उन्हें भी स्वयं निर्णय लेने में सक्षम बनाते हैं।

इसी को कहते हैं एनलाइटेनमेंन्ट और इसके लिए ध्यान धरना बहुत लाभदायक है।

© आदित्य चौधरी

दिनांक- 19 मई, 2017

प्रिय मित्रो! जैसा कि आपने चाहा... मैंने एक कहानी और लिखी है। ज़रा देखिए कैसी है!

'एक रात अचानक'

नवम्बर का महीना था। प्रदीप एक सुनसान रास्ते पर अकेला पैदल चला जा रहा था। दिमाग़ में लगातार एक के बाद एक चिंताएँ घुमड़ रहीं थीं। हलकी ठंड होने पर भी पता नहीं उसे क्यों पसीना अा रहा था ? तेज़ चलने की वजह से या तनाव के कारण।

‘मैं इतनी तेज़ क्यों चल रहा हूँ , क्या चक्कर है ?… कहीं जल्दी तो पहुँचना है नहीं मुझे… धीरे चलता हूँ।’

उसने चाल धीमी कर दी।
‘काहे का कृषि प्रधान देश है भारत… दहेज़ प्रधान है… दहेज़ प्रधान… शादी तय हो गई और पैसा पास में एक भी नहीं…’
वो धीमी आवाज़ में बड़बड़ाया।
‘रितिका को अच्छी से अच्छी पढ़ाई करवाई और अब शादी में कम से कम दस लाख रुपए ख़र्च होंगे। अरे भैया! चार लाख तो उस मंगल के बच्चे ने लगा दिए, अपनी बेटी की शादी में और वो तो बस टॅम्पो चलाता है टॅम्पो।’

‘कहाँ से लाऊँ इतना पैसा ?… कैसे बनेंगे ज़ेवर ?… कैसे होगी दावत ?… मेरी ससुराल वालों के पास भी कुछ नहीं है। अब क्या होगा… हे ईश्वर कुछ करो।’

तभी सड़क के किनारे पेड़ के नीचे, हनुमान जी का छोटा सा मंदिर दिखा। उसने रुक कर सिर झुकाकर हाथ जोड़ दिए। सर उठाया तो ऐसा लगा कि कुछ दूरी पर कोई हलचल है। थोड़ा चलने पर देखा कि दो लड़के एक लड़की को घसीटते हुए। सड़क से एक तरफ़ की गलीनुमा रास्ते की तरफ़ ले जा रहे हैं।

प्रदीप एक पेड़ के पीछे छुप गया और सड़क पार से झांककर उनको देखने लगा। एक लड़के के हाथ में देशी तमंचा जैसा कुछ था। पेड़ को पीछे छोड़ वो थोड़ा और आगे गया तो अंदाज़ा हुआ कि लड़की का मुँह, साफ़ी-गमछा जैसे कपड़े से बंधा था। लड़की घिसटते समय पैर पटक-पटक कर बहुत विरोध कर रही थी और इसीलिए लड़कों की लातों की ठोकर से पिट भी रही थी।

प्रदीप का मन बेचैन हो रहा था। मुँह सूखने लगा, दिल ज़ोरों से धड़क रहा था।
‘क्या करूँ-क्या करूँ-क्या करूँ ?… अगर मैं इनसे लड़ा और मर गया…? तो फिर मेरी बेटी का क्या होगा। कौन करवाएगा शादी?… दस लाख रुपए?… हो सकता है ये लड़की ही ग़लत हो?… भाड़ में जाने दो… घर पहुँचूँ… नहीं-नहीं मुझे ज़रूर लड़ना चाहिए… बचाना चाहिए लड़की हो।’

बमुश्किल बीस-पच्चीस क़दम की दूरी पर ही सब कुछ घटने वाला था। तरह-तरह की हल्की आवाज़ें आ रही थीं जिनमें गालियाँ ज़्यादा थीं।

‘शायद लड़की से बलात्कार और फिर उसे मार ही देंगे। सबूत थोड़े ही छोड़ेंगे।’
तभी प्रदीप कि नज़र पास ही पड़े साइकिल के टूटे करियर पर पड़ी। उसने करियर उठा लिया।

‘लड़के ज़्यादा तगड़े तो हैं नहीं… लेकिन मैं भी तो पचास का हो गया… पता नहीं झगड़े का क्या नतीजा निकले…’

फिर वही सोच… ‘रितिका की शादी… बीवी का क्या होगा… बलात्कार… ख़ून… रितिका…शादी… बलात्कार…धक-धक, धक-धक, धक-धक, धक-धक…

प्रदीप की पकड़ साइकिल के टूटे करियर पर कसती जा रही थी। वो आगे बढ़ा तो देखा कि एक लड़का तो लड़की को ज़मीन पर गिरा कर क़ाबू करने की कोशिश कर रहा है और दूसरा तमंचा लेकर खड़ा रखवाली जैसी कर रहा है।

प्रदीप उस गली में मुड़कर आगे की ओर गया और जैसे ही तमंचे वाला प्रदीप की ओर घूमा उसने तमंचे वाले हाथ पर साइकिल का करियर दे मारा। तमंचा गिर गया। करियर का दूसरा वार उसी लड़के के मुँह पर हुआ, उसके मुँह से ख़ून निकल आया और वो गली में अन्दर भाग गया। अब तक लड़की दूसरे लड़के की पकड़ से छूट चुकी थी और उसने पीछे से उस लड़के के लम्बे बालों को पकड़ लिया अब प्रदीप के लिए उस लड़के की पिटाई करना बहुत आसान हो गया।

लड़की ने बाल छोड़े तो तमंचा उठा लिया। लड़के में एक घूँसा ऐसा लगा कि वह बेहोश ही हो गया। लड़की लातों से उस लड़के को मारे जा रही थी। प्रदीप बुरी तरह हाँफ़ रहा था लेकिन विजेता की तरह।

उस लड़की की जॅकेट थोड़ी सी फट गई थी और ओठों के किनारे से ख़ून बह रहा था। लड़की किसी अच्छे घर की लग रही थी। प्रदीप ने उस लड़की को उसके घर पहुँचाया तो पता चला कि वो तो शहर के बड़े रईस घनश्याम चड्ढा की इकलौती बेटी है। चड्ढा साहब बहुत सज्जन व्यक्ति थे। शहर में उनकी नेकनामी के क़िस्से मशहूर थे। जब चड्ढा साहब को पता चला कि प्रदीप, बेटी की शादी के लिए पैसों के इन्तज़ाम के लिए परेशान है तो उन्होंने प्रदीप के बहुत मना करने के बावजूद उसकी बेटी की शादी की पूरी ज़म्मेदारी अपने ऊपर लेली।

शादी के दिन रितिका के पास एक सुन्दर लड़की आई और उससे बोली।
“हाय रितिका! आय एम सलोनी… मुझसे दोस्ती करोगी, मैं तुम्हारे पापा की फ़ॅन हूँ। ही एज़ वैरी ब्रेव मॅन।”
पास खड़े प्रदीप ने कहा “लेकिन सलोनी से ज़्यादा ब्रेव नहीं… हाहाहा”
सब साथ-साथ हँस पड़े।

© आदित्य चौधरी

दिनांक- 18 मई, 2017

प्रिय मित्रो! जैसा कि आप चाहते हैं, मैंने एक कहानी और लिखी है। ज़रा देखिए कैसी है!

‘दाना-पानी’

वो हमारे किराएदार थे। उनका अपना कोई नहीं था। बस हमें ही अपना मानते थे। पन्द्रह साल से हमारे साथ थे। घर के बज़ुर्ग जैसे हो गए थे। हम उन्हें काका कहते थे। सुबह शाम का दूध सब्ज़ी लाने का काम ख़ुद ही करते रहते। हमारे मना करने पर भी नहीं मानते थे। शुरू-शुरू में तो अपना खाना ख़ुद ही बनाते थे लेकिन बाद में मां ने उनका खाना भी बनाना शुरू कर दिया था। बाद में पापा ने उनसे किराया लेना बंद कर दिया तो ख़ुद ही किराए के बराबर पैसे घर के किसी न किसी सामान पर ख़र्च कर देते थे।

पाँच साल पहले अपनी पेंशन भी घर में देने की ज़िद की तो पापा राज़ी नहीं हुए। काका भी नहीं माने और अपनी पेंशन वाले अकाउंट में मुझे नॉमिनी बना दिया। मैं दस साल का था जब काका हमारे यहाँ किराएदार की हैसियत से रहने अाए थे। हमेशा कहते कि तेरी शादी देखकर ही मरूँगा और तेरी शादी में ज़िन्दगी में पहली बार दारू पीकर नाचूँगा भी। जिस दिन मेरी नौकरी लगी उस दिन काका ख़ूब ख़ुश हुए और ख़ूब रोए। मैं दूसरे शहर जो जा रहा था।

काका की तबियत ख़राब है यह सुनकर मैं छुट्टी लेकर घर आया था। अगले ही दिन वो चल बसे। उनका अंतिम संस्कार भी मैंने ही किया। रात देर तक उनके बारे में बात होती रहीं। सुबह जल्दी उठकर छत पर गया तो देखा कि कबूतर, फ़ाख़्ता और अन्य चिड़ियों का झुन्ड छत की मुंडेर पर बैठा था। मैं समझ गया और पास के टिन शेड में से दाना निकाल कर छत पर बखेर दिया तो सभी पंछी दाने पर टूट पड़े और मज़े से दाना खाने लगे। हाँ इतना ज़रूर था कि जिस तरह से काका के साथ पंछी घुल-मिल गए थे वैसे मेरे पास नहीं आ रहे थे। एक दूरी बनाकर दाना खा रहे थे।

मैं सोचने लगा कि मैं तो कल चला जाऊँगा। मां अपने घुटनों की वजह से छत पर नहीं आ सकतीं, पापा कभी भी आठ बजे से पहले नहीं उठते तो फिर कल से दाना कौन खिलाएगा? तभी मेरा फ़ोन बजने लगा। फ़ोन से पता चला कि मेरी छुट्टी दो दिन और बढ़ा दी गई है। मैंने सोचा कि चलो दो दिन और… लेकिन फिर दो दिन बाद दाना कौन डालेगा?

अगले दिन सुबह मुझे उठने में देर हो गई। जल्दी-जल्दी मैं छत पर पहुँचा तो देखा कि पंछी नहीं थे। मैं सोच में पड़ गया कि आख़िर माजरा क्या है! छत पर ध्यान से देखा तो कहीं-कहीं दाने पड़े थे। दाने वाला डिब्बा देखा तो ऐसा लगा कि दाना कम हुआ है। बड़े आश्चर्य की बात थी। अगले दिन मैं जल्दी जागकर छत पर छुप कर बैठ गया। धीरे-धीरे पंछी इकट्ठा होने लगे। तभी हमारे पड़ोसियों के यहाँ काम करने वाली बाई की छोटी बेटी मुंडेर से कूदी और भागकर दाने के डिब्बे से दाने निकाल कर पंछियों को डालने लगी। पंछी उससे इतने ज़्यादा घुले-मिले लगे कि मैं आश्चर्य से देखता ही रह गया।

इसका मतलब ये था कि ये लड़की रोज़ाना काका के साथ दाना डालने आती थी और अब काका नहीं रहे तो अपना फ़र्ज़ निबाह रही है। मेरे आँखें पानी से धुंधला गईं। साथ ही मुझे काका की पेंशन के रुपयों का सदुपयोग भी समझ में आ गया।

© आदित्य चौधरी

दिनांक- 11 मई, 2017

मित्रो! मेरी एक और कहानी पढ़ें-

‘इंदिरा गांधी का हॅलीकॉप्टर’

“हम कब तक पहुँचेंगे ? अभी कितनी देर और…?”
“बस एक घंटे में पहुँच जाएँगे।” पति ने कार चलाते हुए जवाब दिया।
“क्या उम्र होगी पापा की?” पति ने फिर पूछा
“एट्टी फ़ोर… तीन दिन बाद ही तो उनका बर्डडे है और आज ही वो हमें छोड़ गए।” इतना कहकर, कार की खिड़की की तरफ़ शाम के लाल सूरज को देखने लगती है।
“हाँऽऽऽ वोई मैं सोच रहा था।” पति ने कहा

सूरज साथ-साथ चल रहा था। बचपन के दिनों में जब गाँव से ट्रेन में पापा के साथ जाती थी तो सूरज साथ-साथ चलता था।

“पापा ! सूरज साथ-साथ क्यों चलता है?”
“अरे बाबा वो तो साथ रोशनी करता चलता है न!”
पापा अक्सर माँओं वाले जवाब देते पापाओं वाले नहीं। बड़े सीधे-सादे बच्चों जैसे जवाब, कोई कठिन बात नहीं कहते थे जो मेरे बाल-मन को समझ में न आए।”
“तो फिर… तो फिर… तो फिर सूरज रात को क्यों नहीं साथ चलता?” मैंने भी मिलियन डॉलर कोश्चन ठोक दिया।
“सारा दिन भागेगा तो थकेगा भी न… सो जाता है बेचारा… चलो अब तुम भी सो जाओ। ट्रेन में सब सोने की तैयारी कर रहे हैं।”

“लो… गाँव वाला टर्न आ गया… क्या सोच रही हो…?” पति ने कहा।
“कुछ नहीं बस ऐसे ही… अ…असल में आँसू रुक नहीं रहे…”

तीन दिन गुज़र गए। पापा की रहस्यमयी ‘फ़ेमस’ नीली डायरी उनकी अलमारी में मेरे फ़ोटो के नीचे रखी मिली। बचपन में इस डायरी के पन्ने कितने सफ़ेद, चमकीले लगते थे… आज कितनी उजड़ी हुई अपने पीले पन्नों को छुपाती सी लग रही है।

ये डायरी मुझे कभी पढ़ने को नहीं मिली। मैंने जल्दी-जल्दी पन्नों को खोलना शुरू किया। एक के बाद एक पन्ना, मेरे बचपन के एक-एक दिन की तस्वीर बनाता गया। धुँधली यादों के फीके रंग गहराने लगे जैसे किसी ब्लॅक एन वाइट मूवी को कलर किया जा रहा हो। ज़िन्दगी में पहली बार अाँसू कम पड़ गए। रोने के साथ मुस्कुराना और हँसना रुक ही नही रहा था। गाँव में चारों ओर शांति थी। गाँवों में, वैसे भी सब जल्दी सो जाते हैं। कहीं दूर किसी के यहाँ शायद अखंड रामायण का पाठ हो रहा था। मैं जाग रही थी और डायरी के पन्नों को बार-बार पढ़ रही थी।

डायरी में लिखा था-
एक छोटा ताला मुनमुन के लिए, तीन पहिए की साइकिल छुट्टन के लिए, भगवानजी का मंदिर (सीता दादी के घर में जैसा है वैसा ही)। रंगीन चॉक, ब्लॅकबोर्ड, हवाई जहाज़, इंदिरा गांधी वाला हॅलीकॉप्टर, शकुन्तला जीजी के लिए धूप का चश्मा… और भी न जाने क्या-क्या सूची बनी हुई थी। अचानक आँख से एक आँसू टपका तो इंदिरा गांधी के हॅलीकॉप्टर पर गिरा। शहर में उस समय की प्रधानमंत्री, इंदिरा गांधी आईं थीं। हॅलीकॉप्टर देखकर, मैं मचल गई थी कि पापा हम हॅलीकॉप्टर कब लेंगे?

पापा जब भी गाँव से शहर जाते थे तो हम सब बच्चे अपनी-अपनी डिमांड उन्हें बताते थे। एक दिन बाद जब वे लौटते तो रात हो चुकी होती थी। हम बच्चे सो जाते थे। अगले दिन ध्यान ही नहीं रहता था कि पापा से पूछना है कि क्या-क्या लाए।

पापा उन सब चीज़ों की सूची नीली डायरी में बनाते थे। पापा की आमदनी इतनी कम थी कि वे कभी भी शहर से हमारे लिए मंहगी चीज़ नहीं ला पाए। ऐसा नहीं है कि कुछ लाते ही नहीं थे। आम तो गाँव में ही मिल जाते थे लेकिन केले और संतरे नहीं मिलते थे इसलिए टॉफ़ियाँ और केले या संतरे ज़रूर लाते थे। हमारी पढ़ाई और स्वास्थ्य के लिए पापा अपनी सारी कमाई ख़र्च करते थे जिसका नतीजा ये हुआ कि हम सब पढ़-लिख कर अच्छी नौकरी कर रहे हैं।

नीली डायरी आज पढ़ी तो अहसास हुआ कि पापा ने कितना सहेज कर हमारी सारी मांगों को लिखा था। क्या फ़र्क़ पड़ता है अगर वे कभी पूरी नहीं हो पाईं। आज समझ में आया कि पापा के जीवन की डायरी का मतलब, सिर्फ़ हमारी मांगें और उनको पूरा न कर पाने की मायूसी थी।

तभी छोटे ने आवाज़ दी और कमरे में आ गया।
“देख दीदी पापा की अटैची से ये छोटा सा हॅलीकॉप्टर मिला है। इसपे लिखा है ‘इंदिरा गांधी का हॅलीकॉप्टर’।

© आदित्य चौधरी

दिनांक- 8 मई, 2017

दूऽऽऽर-दूऽऽऽर किसी गॅलेक्सी के किसी ग्रह के किसी देश के मंत्रालय में वार्तालाप:

“सर! आश्वासन तो ख़त्म हो गए… नहीं दे सकते”
“क्या?… ऐसा कैसे हो सकता है? बाहर तो सीनियर सिटीज़न्स का एक डेलीगेशन बैठा है, अब क्या करें।”
मंत्री ने अपने सचिव पर चिंता ज़ाहिर की।
“सर इनकी मांगे मान लीजिए…”
“वो तो पॉसिबिल ही नहीं है, मांगे बहुत ज़्यादा हैं। आश्वासन ही देना होगा। वैसे एक बात बताओ कि आश्वासन ख़त्म कैसे हुए ?”
“सर! आप जब सत्ता में आए तो आपको सरकारी स्टॉक में दो हज़ार आठ सौ बाईस आश्वासन मिले थे, जिनको आपने यूज़ कर लिया। आश्वासनों की तीनों कॅटेगिरि याने; पूर्ण आश्वासन, ठोस आश्वासन और आश्वासन,… ये सब आप रोज़ाना दे रहे हैं…।” सचिव ने बताया।
“अच्छा… ठीक है-ठीक है… तो फिर हम वायदा भी तो कर सकते हैं…?”
“सॉरी सर वायदों का स्टॉक तो अपोज़ीशन के पास रहता है। अापको ये स्टॉक चुनाव के दौरान मिलेगा। सरकार वायदा नहीं करती, सरकार तो आश्वासन देती है।”
“अपोज़ीशन के पास भी तो आश्वासन होंगे…? ख़रीद लो… मुँह मांगी क़ीमत पर…?”
“सर अपोज़ीशन जब सत्ता से हटी तो नियमानुसार उसने सारे आश्वासन सत्ता पक्ष याने आपको हॅन्डओवर कर दिए। जिस तरह आपने चुनाव के दौरान बचे हुए वायदे विपक्ष को दे दिए थे।”
“कहीं न कहीं तो आश्वासन बिकते होंगे? चाहे डॉलर देने पड़ें लेकिन ख़रीद लो” मंत्री ने मंत्रियाना अंन्दाज़ में कहा।
“सर डॉलर तो क्या बिट कॉइन के बदले भी आश्वासन नहीं मिल सकते।”
“कोई न कोई तरीक़ा तो होगा अश्वासन अरेन्ज करने का?”
“सर इमरजेन्सी लगा दीजिए… तब कोई कुछ पूछने या मांगने नहीं आएगा। आश्वासन का झंझट ख़त्म।”
“हाँऽऽऽ ये ठीक रहेगा… लगा दो इमरजेन्सी”

© आदित्य चौधरी


शब्दार्थ

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