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'''अः''' [[देवनागरी वर्णमाला]] का बारहवाँ [[अक्षर]] है। यह एक [[स्वर (व्याकरण)|स्वर]] है।
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==अः अक्षर वाले शब्द==
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'''अः''' [[देवनागरी वर्णमाला]] का तेरहवाँ [[अक्षर]] है। यह एक [[स्वर (व्याकरण)|स्वर]] है।


अः [अव्+ड]


1. विष्णु, पवित्र 'ओम्' को प्रकट करने वाली तीन (अ+उ+म्) ध्वनियों में से पहली ध्वनि-
अकारो विष्णुरुद्दिष्ट उकारस्तु महेश्वरः ।
मकारस्तु स्मृतो ब्रह्मा प्रणवस्तु त्रयात्मकः॥
(अव्य) 1. लैटिन के इन (in) [[अंग्रेज़ी]] के इन (in) या अन (un) तथा यूनानी के अ (a) या (in) के समान नकारात्मक अर्थ देने वाला [[उपसर्ग]] जो कि निषेधात्मक अव्यय नञ् के स्थान पर संज्ञाओं, विशेषणों एवं अव्ययों के (क्रियाओं के भी) पूर्व लगाया जाता है।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश|लेखक=वामन शिवराम आप्टे|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=कमल प्रकाशन, नई दिल्ली-110002|संकलन= |संपादन= |पृष्ठ संख्या=01|url=|ISBN=}}</ref>
'न' के सामान्यतया छः अर्थ गिनाए गए हैं- तस्यादृश्यम् भावश्च तदन्यत्वं तदल्पता । अप्राशस्त्यं विरोधश्च, नञर्थाः षट् प्रकीर्तितताः ।। अर्थात्
(क) '''सादृश्य''' = समानता या सरूपता यथा 'अब्राह्मणः' [[ब्राह्मण]] के समान (जनेऊ आदि पहने हुए) परंतु ब्राह्मण न होकर, [[क्षत्रिय]] [[वैश्य]] आदि।
(ख) '''अभाव''' = अनुपस्थिति, निषेध, अभाव, अविद्यमानता यथा 'अज्ञानम्' ज्ञान का न होना, इसी प्रकार, अक्रोधः, अनंगः, अकंटकः, अघटः' आदि।
(ग) '''भिन्नता'''=अन्तर या भेद यथा 'अपटः' कपड़ा नहीं, कपड़े से भिन्न या अन्य कोई वस्तु।
(घ) '''अल्पता'''=लघुता, न्यूनता, अल्पार्थवाची अव्यय के रूप में प्रयुक्त होता है- यथा 'अनुदरा' पतली कमर वाली (कृशोदरी या तनुमध्यमा।
(च) '''अप्राशस्त्य'''=बुराई, अयोग्यता तथा लघूकरण का अर्थ प्रकट करना-यथा 'अकालः' गलत या अनुपयुक्त समय; 'अकार्यम्' न करने योग्य, अनुचित, अयोग्य या बुरा काम।
(छ) '''विरोध'''= विरोधी प्रतिक्रिया, वैपरीत्य यथा 'अनीतिः' नीति
विरुद्धता, अनैतिकता, 'असित' जो श्वेत न हो, काला । कृदन्त शब्दों के साथ इसका अथ सामान्यतः 'नहीं' होता है यथा 'अदग्ध्वा' न जलाकर, 'अपश्यन्' न देखते हुए। इसी प्रकार 'असकृत्' एक बार नहीं। कभी-कभी 'अ' उत्तरपद के अर्थ को प्रभावित नहीं करता यथा 'अमूल्य', 'अनुत्तम', यथास्थान।
2. विस्मयादि द्योतक अव्यय -यथा
(क) 'अ अवद्यम्' यहाँ दया (आहू, अरे)
(ख) 'अ पचसि त्वं जाल्म' यहाँ भर्त्सना, निंदा (धिक्, छिः) अर्थ को प्रकट करता है। जैसे- 'अकरणि' 'अजीवनि' भी।
(ग) संबोधन में भी प्रयुक्त होता है यथा 'अ अनन्त'।
(घ) इसका प्रयोग निषेधात्मक अवयय के रूप में भी होता है।
3. भूतकाल के लकारों (लङ्, लुङ् और लृङ्) की रूपरचना के समय धातु के पूर्व आगम के रूप में जोड़ा जाता है यथा अगच्छत्, अगमत्, अगमिष्यत् में।


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अ:
विवरण अः देवनागरी वर्णमाला का बारहवाँ अक्षर है। यह एक स्वर है।
संबंधित लेख , , , , , , , , , अ:

अः देवनागरी वर्णमाला का तेरहवाँ अक्षर है। यह एक स्वर है।

अः [अव्+ड]

1. विष्णु, पवित्र 'ओम्' को प्रकट करने वाली तीन (अ+उ+म्) ध्वनियों में से पहली ध्वनि-

अकारो विष्णुरुद्दिष्ट उकारस्तु महेश्वरः । मकारस्तु स्मृतो ब्रह्मा प्रणवस्तु त्रयात्मकः॥

(अव्य) 1. लैटिन के इन (in) अंग्रेज़ी के इन (in) या अन (un) तथा यूनानी के अ (a) या (in) के समान नकारात्मक अर्थ देने वाला उपसर्ग जो कि निषेधात्मक अव्यय नञ् के स्थान पर संज्ञाओं, विशेषणों एवं अव्ययों के (क्रियाओं के भी) पूर्व लगाया जाता है।[1]

'न' के सामान्यतया छः अर्थ गिनाए गए हैं- तस्यादृश्यम् भावश्च तदन्यत्वं तदल्पता । अप्राशस्त्यं विरोधश्च, नञर्थाः षट् प्रकीर्तितताः ।। अर्थात्

(क) सादृश्य = समानता या सरूपता यथा 'अब्राह्मणः' ब्राह्मण के समान (जनेऊ आदि पहने हुए) परंतु ब्राह्मण न होकर, क्षत्रिय वैश्य आदि।

(ख) अभाव = अनुपस्थिति, निषेध, अभाव, अविद्यमानता यथा 'अज्ञानम्' ज्ञान का न होना, इसी प्रकार, अक्रोधः, अनंगः, अकंटकः, अघटः' आदि।

(ग) भिन्नता=अन्तर या भेद यथा 'अपटः' कपड़ा नहीं, कपड़े से भिन्न या अन्य कोई वस्तु।

(घ) अल्पता=लघुता, न्यूनता, अल्पार्थवाची अव्यय के रूप में प्रयुक्त होता है- यथा 'अनुदरा' पतली कमर वाली (कृशोदरी या तनुमध्यमा।

(च) अप्राशस्त्य=बुराई, अयोग्यता तथा लघूकरण का अर्थ प्रकट करना-यथा 'अकालः' गलत या अनुपयुक्त समय; 'अकार्यम्' न करने योग्य, अनुचित, अयोग्य या बुरा काम।

(छ) विरोध= विरोधी प्रतिक्रिया, वैपरीत्य यथा 'अनीतिः' नीति

विरुद्धता, अनैतिकता, 'असित' जो श्वेत न हो, काला । कृदन्त शब्दों के साथ इसका अथ सामान्यतः 'नहीं' होता है यथा 'अदग्ध्वा' न जलाकर, 'अपश्यन्' न देखते हुए। इसी प्रकार 'असकृत्' एक बार नहीं। कभी-कभी 'अ' उत्तरपद के अर्थ को प्रभावित नहीं करता यथा 'अमूल्य', 'अनुत्तम', यथास्थान।

2. विस्मयादि द्योतक अव्यय -यथा

(क) 'अ अवद्यम्' यहाँ दया (आहू, अरे)

(ख) 'अ पचसि त्वं जाल्म' यहाँ भर्त्सना, निंदा (धिक्, छिः) अर्थ को प्रकट करता है। जैसे- 'अकरणि' 'अजीवनि' भी।

(ग) संबोधन में भी प्रयुक्त होता है यथा 'अ अनन्त'।

(घ) इसका प्रयोग निषेधात्मक अवयय के रूप में भी होता है।

3. भूतकाल के लकारों (लङ्, लुङ् और लृङ्) की रूपरचना के समय धातु के पूर्व आगम के रूप में जोड़ा जाता है यथा अगच्छत्, अगमत्, अगमिष्यत् में।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश |लेखक: वामन शिवराम आप्टे |प्रकाशक: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली-110002 |पृष्ठ संख्या: 01 |

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