"आदित्य चौधरी -फ़ेसबुक पोस्ट": अवतरणों में अंतर

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मसरूफ़ अपनी ज़िन्दगी में इतने हो गए
मैं उन लोगों में से हूँ जो अपने बचपन में सोने से पहले बिस्तर पर लेेटे-लेटे तब तक गायत्री मंत्र का पाठ करता था कि जब तक नींद न आ जाए। इम्तिहान के दिनों में 108 मनकों की एक माला रोज़ाना सरस्वती के बीज मंत्र की करनी होती थी। अपने घर में ही, रामचरित मानस के अखंड पाठ में, मैंने उस उम्र में हिस्सा लिया था जिस उम्र में बच्चे सिर्फ़ दौड़ने और पेड़ पर चढ़ने को ही बहुत बड़ा खेल समझते हैं। हनुमान चालीसा, गणेश वन्दना और ओम जय जगदीश हरे, गीता के श्लोक, वेद और उपनिषदों के कुछ श्लोक जैसे अनेक धार्मिक पाठ... मुझे रटे हुए थे। रामचरित मानस और महाभारत का कोई प्रसंग ऐसा नहीं था जो मुझसे अछूता रहा हो।
सब मुफ़लिसी के यार, शोहरतों में खो गए
धार्मिक सिनेमा की तो हालत यह थी कि 'बलराम श्रीकृष्ण' फ़िल्म देखने के लिए मैं लगातार पूरे सप्ताह अपनी मां के साथ जाता रहा। हनुमान और बलराम मेरे हीरो उसी तरह थे जैसे आजकल स्पाइडर मॅन और बॅटमॅन बच्चों के हीरो होते हैं। कृष्ण और अर्जुन मेरी दुर्गम लक्ष्य प्राप्ति की प्रेरणा थे, हनुमान और भीम मेरी कसरत की प्रेरणा, एकलव्य और कर्ण का जीवन मुझे भावुक बना देता था।
आज भी मैं धार्मिक और देशभक्ति के धारावाहिक टी॰वी॰ पर देखकर बेहद भावुक हो जाता हूँ। अक्सर रो पड़ता हूँ। राधा की विरह, सुदामा की बेबसी, भरत मिलाप, हनुमान की राम भक्ति, भीष्म की प्रतिज्ञा, राजा नल की विपत्ति, सावित्री-सत्यवान प्रसंग, कर्ण का दान आदि ऐसे अनेक प्रसंग हैं जो आज भी मुझे भावुक बना देते हैं।
हम बचपन को छोड़ आते हैं... कमबख़्त बचपन हमें नहीं छोड़ता।


          शतरंज की बाज़ी पे वो हर रोज़ झगड़ना
लेकिन फिर भी इस सब के बाद अब मेरी अपनी पहचान क्या है ?
          ख़ाली बिसात देखकर हम हँस के रो गए
कभी लोग मुझसे पूछ लेते हैं कि वास्तव में मेरी जाति, धर्म और विचार क्या हैं। शायद इसका जवाब है कि-


इमली के घने साए में कंचों की दोपहर
"मैं सूफ़ी हिन्दू हूँ
अब क्या कहें, साए भी तो कमज़र्फ हो गए
बुतपरस्त मुस्लिम हूँ
कर्मकाण्डी शूद्र हूँ
म्लेच्छ ब्राह्मण हूँ
और
मेरे राजनैतिक और सामाजिक विचार ये हैं-
"मैं सर्वहारा बुर्जुआ हूँ
समाजवादी दक्षिणपंथी हूँ
भावुक यथार्थवादी हूँ
संन्यासी गृहस्थ हूँ"
अलबत्ता एक बात तो पक्की है कि


          हर रोज़ छत पे जाके पतंगों को लूटना
"भारत मुझको जान से प्यारा है
          छत के भी तो चलन थे, शहरों में खो गए
सबसे प्यारा गुलिस्तां हमारा है"
 
सावन की किसी रात में बरसात की रिमझिम
अब मौसमों की छोड़िये, कमरे जो हो गए
 
          सत् श्री अकाल बोल के लंगर में बैठना
          अब इस तरहा के दौर, बस इक ख़ाब हो गए
 
बिन बात के वो रूठना, खिसिया के झगड़ना
जो यार ज़िन्दगी के थे, अब दोस्त हो गए
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| 29 जून, 2014
| 24  जुलाई, 2014
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बस कुछ नहीं कहा
मृत्यु जीवन की परछाईं है
अब कुछ नहीं रहा
तभी तक साथ रहती है जब तक कि जीवन है...
 
... लोग कहते हैं कि मरने के बाद वह क्या है जो मनुष्य का साथ छोड़ देता है। कोई कहता है आत्मा, कोई ऊर्जा, कोई प्राण आदि-आदि
    आँसू जो कम पड़ें तो
लेकिन वास्तविकता यह है कि मरने पर 'मृत्यु' साथ छोड़ देती है जो कि हमारे साथ हर समय रहती है जब तक कि हम जीवित हैं।
    ले ख़ून से नहा
हमारा जन्मदिन ही हमारी मृत्यु का भी जन्मदिन भी होता है और हमारा मृत्युदिन हमारी मृत्यु का मृत्युदिन भी...
 
अरसे से रुका दरिया
इस मोड़ पर बहा
 
    सपने में घर बनाया
    सपने में ही ढहा
 
यारी ग़मों से अपनी
चल ये भी इक सहा
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| 28 जून, 2014
| 24  जुलाई, 2014
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          कोई भी सफलता ऐसी नहीं जिसका कि सुख क्षणिक न होता हो लेकिन बहुत सी असफलताएँ ज़रूर ऐसी हैं जिनका आनंद शाश्वत है।
क्या हुआ ? एक हफ्ते से किसी ने मुझे candy crush खेलने के लिए invite नहीं किया और ना ही मुझे किसी अपनी जागरूक post या तस्वीर के साथ tag किया है।
आप सोचते होंगे कि असफलता में कौनसा आनंद ?
'वो FB मित्रों का मुझे tag करना... फिर फ़ौरन सारे काम छोड़कर मेरा उन tag को हटाना... मेरे पास तो अब जैसे कोई काम ही नहीं बचा...'
          ज़रा सोचिए जो लोग अपने बच्चों का करियर बनाने में अपने सपनों को भुला देते हैं और वे लोग जो मां-बाप के सपनों को ही अपनी इच्छा बना लेते हैं।
मैं जैसे ही किसी की friend request को स्वीकार करता हूँ तो अक्सर वो मुझे tag करके अपनी मित्रता का फ़र्ज़ अदा करते हैं। कितना प्यार है मुझसे...
          उन्होंने अपने लिए बज सकने वाली न जाने कितनी तालियों की गड़गड़ाहट को नहीं सुना होगा, न जाने कितनी बार अच्छे होटल को छोड़कर धर्मशाला या सराय में रुके होंगे, प्रसिद्धि के न जाने कितने अवसर अनदेखे किए होंगे...
ख़ैर...
          इस असफलता का एक आनंद है... लेकिन इस आनंद को सब ले पाते हों ऐसा नहीं है, कुछ लोग इसे अपनी कुंठा भी बना लेते हैं।
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| 24 जून, 2014
| 20 जुलाई, 2014
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एक पुरानी कहावत है-
प्रिय मित्रो ! शिवकुमार जी (Shivkumar Bilgrami) ने अपनी पत्रिका के जनवरी अंक में अम्माजी की कविता छाप दी और अब मुझे उसकी प्रति भेजी है। अम्माजी को 84 वर्ष की आयु में अब अपनी कोई कविता याद नहीं है, सिवाय इसके...
जीत के लिए कोई भी क़ीमत चुकानी पड़े
जीत हमेशा सस्ती ही होती है।
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| 24 जून, 2014
| 20 जुलाई, 2014
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हम गर्व करें ?
इस दुनिया में, वास्तविक रूप से, अपनी ग़लती मान लेने वाला व्यक्ति ही, निर्विवाद रूप से बुद्धिमान होता है।
उससे लाख गुना बेहतर है कि
इसके अलावा जितने भी बुद्धि के पैमाने हैं वे सब बहुत बाद में अपनी भूमिका रखते हैं।
हम किसी का गर्व बन सकें...
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| 24 जून, 2014
| 19  जुलाई, 2014
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          दिल की सुनना, दिल की कहना और दिल की करना तीनों ही बातों ऐसी हैं जो लिखने, पढ़ने, सुनने और कहने में ही अच्छी लगती हैं। इनकी सामाजिक जीवन में कोई भूमिका नहीं है।
मेरे एक पुराने मित्र आए और उन्होंने जो कुछ मुझसे कहा उसे थोड़ा सभ्य भाषा में प्रस्तुत कर रहा हूँ-
          यदि कोई ऐसा करने की कोशिश भी करता है तो समाज उसे प्रोत्साहित करने की बजाय पत्थर मार-मार कर जान से मार देना ज़्यादा पसंद करता है।
"तुमको ब्रजडिस्कवरी और भारतकोश बना कर क्या मिला ? ब्रजडिस्कवरी और भारतकोश बनाने-चलाने में तुम्हारे हर्निया के दो ऑपरेशन हो गए, लम्बार स्पाइन की समस्या हो गई, चश्मे के नंबर बढ़ गए, खिलाड़ियों जैसा कसरती शरीर पिलपिले बैंगन जैसा हो गया, बुढ़ापे के लिए बचाया पैसा और संपत्ति ख़त्म हो गए, राजनैतिक जीवन और मथुरा में सामाजिक जीवन समाप्त हो गया, दोस्तों से मिलना-मिलाना ख़त्म हो गया। मैंने तुमको 85 किलो बॅंच प्रॅस करते देखता था लेकिन अब 85 ग्राम का फ़ोन भी तुम्हें भारी लगता है। तुम अपने पिताजी की उस उक्ति को भूल गए जब वे कहा करते थे कि चढ़ जा बेटा सूली पै, भली करेंगे राम। अब तक तुम चौधरी सा'ब की तरह 4 बार सांसद बन सकते थे... लेकिन तुमने सब सत्यानाश कर दिया"
 
इसके बाद ज्यों के त्यों, मेरे मित्र के ही शब्द हैं "बोलो क्या मिला तुमको 'बाबा जी ठुल्लू'... मैंने तुमसे बड़ा इमोशनल फ़ूल नहीं देखा।"
 
मेरे पास मुस्कुराने के सिवा कोई चारा नहीं था। मेरे मित्र, मुझे अपनी व्यक्तिगत संपत्ति की तरह ही व्यवहार में लाते हैं और मैं इसका आनंद लेता हूँ। मेरे अजीब-अजीब जीवन-प्रयोग उन्हें चकित भी करते हैं और क्रोधित भी... पर उनके प्यार में कमी नहीं होती।
 
इस लॅक्चर के बाद मैंने उनसे कहा-
 
1857 में मेरे प्रपितामह बाबा देवकरण सिंह को विद्रोह करने पर अंग्रेज़ों ने फांसी दी थी। उनको गिरफ़्तार करवाने वाले एक ज़मीदार को इनाम में एक और ज़मीदारी दी गई। मेरे पर दादा को क्या मिला ? पूछा मैंने। भरी जवानी में मेरे पिता को अंग्रेज़ो ने जेल में डाल दिया, उन्हें क्या मिला। ये भी पूछा मैंने।
और मैं ! मैं तो उनका बस एक नालायक़ सा वंशज हूँ। मेरी औक़ात ही क्या है ! जो कुछ कर रहा हूँ वो बहुत-बहुत कम है...
 
अब तक तो मुझे किसी भ्रष्ट अधिकारी या नेता को खुले आम चुनौती देने के चक्कर में तबाह हो जाना चाहिए था। किसी जनहित आंदोलन की बलि चढ़ जाना चाहिए था, लेकिन मैं बच्चे पालने में लगा रहा। जब मेरे सर से ये ज़िम्मेदारी हट गई है, बच्चे ज़िम्मेदार हो गए हैं... तो अब तो कम से कम मुझे अपने मन की करने दो। अपने मन से जीने दो अपने मन से मरने दो। जिससे मुझे लगे कि मैं भी इस दुनिया में आकर इंसानों के श्रेणी में शामिल हूँ।
 
आज मेरे जीने का आधार क्या है ? मेरे जीने का आधार है भारतकोश के वे 10 करोड़ से अधिक पाठक जिनमें 6 करोड़ से अधिक नौजवान हैं। हर महीने 7-8 लाख लोग जो भारतकोश देख रहे हैं। वे छात्र जो परीक्षा और प्रतियोगिता के लिए भारतकोश पढ़ते हैं।
 
मेरे दोस्तो ! मैं पागल था, पागल हूँ और पागल ही रहूँगा। इसलिए परेशान होने के ज़रूरत नहीं है। हो सके तो भारतकोश की कुछ आर्थिक मदद करो... या...।
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| 24 जून, 2014
| 19  जुलाई, 2014
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          एहसान और दान का महत्व उसी क्षण समाप्त हो जाता हैं जिस क्षण हम उसका उल्लेख स्वयं करते हैं और सबसे बुरा तो तब होता है जब हम इसका उलाहना भी दे देते हैं।
जब कोई मरता है तो कहते हैं- "वे भगवान को प्यारे हो गए"
          इसमें एक बात और भी है जिसे हमको समझना चाहिए कि कुछ लोग दान, एहसान और सहायता करते ही इसलिए हैं कि उसका उल्लेख कर सकें और समय-समय पर उलाहना भी दे सकें।
जीते जी भगवान के प्यारे होने का कोई तरीक़ा नहीं है क्या ?
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| 24 जून, 2014
| 19 जुलाई, 2014
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अक्सर लोग कहते हैं-
डॉ॰ महेश चंद्र चतुर्वेदी मथुरा के विद्वानों में गिने जाते थे। वे मेरे पिताजी के पास भी आया करते थे, यह बात मुझे मेरी अम्माजी ने उनकी किताब पर उनका फ़ोटो देखकर बताई।
"लोग अच्छे-बुरे नहीं होते, वक़्त अच्छा बुरा होता है।"
उनके पुत्र आशुतोष चतुर्वेदी (Ashutosh Chaturvedi) मेरे बचपन के मित्र हैं। आशुतोष ने मुझे यह किताब दी थी। डॉ॰ साहिब की लिखी मेरी पसंद की एक कविता प्रस्तुत है-
दूसरा पहलू भी है जिसमें कहा जाता है-
 
"धीरज धर्म मित्र और नारी
'सलीब'
आपतकाल परखिये चारी"
असली रिश्ते, वक़्त तो क्या भगवान के रूठ जाने पर भी नहीं बदलते क्योंकि उन्हें असली लोग जीते हैं और निबाहते हैं।
मुझे लगता है कि वक़्त अच्छा या बुरा नहीं होता बल्कि लोग ही अच्छे-बुरे होते हैं। कहीं हम, अपनी या किसी अपने की बुराई को ढकने लिए ही तो बुराई का कारण वक़्त के सिर नहीं मढ़ देते ?
बहुत वर्ष पहले मैं मानता था कि सभी मनुष्य एक जैसे होते हैं। अब मेरी धारणा बदल गई है। मेरे विचार बदलते रहते हैं। कभी-कभी तो सुबह कुछ और शाम को कुछ और... और तो और किसी-किसी दिन तो कई बार ऐसा हो जाता है।
हो सकता है कि किसी सशक्त तर्क या उदाहरण से ये विचार फिर बदल जाएँ।
एक उदाहरण अपनी ही बात को काटने के लिए देता हूँ-
एक चित्रकार सबसे ख़ूँख़्वार व्यक्ति का चित्र बनाने एक जेल में जा पहुँचा। जिस व्यक्ति का उसने चित्र बनाया वह व्यक्ति अपना चित्र देखकर बोला-
"आपने बीस वर्ष पहले भी मेरा चित्र बनाया था। उस चित्र में और इस चित्र में कोई समानता नहीं दिखाई देती।" चित्रकार को बहुत आश्चर्य हुआ और उसने पूछा-
"बीस साल पहले मैंने तुम्हारा चित्र क्यों बनाया था? मुझे कुछ याद नहीं आ रहा ?"
ख़ूँख़्वार दिखने वाले क़ैदी ने कहा-
"उस समय आप सबसे मासूम दिखने वाले युवा का चित्र बनाना चाहते थे।"
जब चित्रकार ने यह सुना तो उसने क़ैदी की दाढ़ी-मूँछ साफ़ करवाई और उसे नहलवाया, जब चेहरा सामने आया तो उसने पहचान लिया कि यह तो वही मासूम चेहरा है...
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| 21 जून, 2014
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सुबह के आगमन से पहले काली रात होती है
इसे तुझको समझना है, ये मुश्किल बात होती है


          तेरी हर हार में जीतों के नक़्शे बनते जाते हैं
झूठ बोलूंगा नहीं पर, सत्य की हिम्मत नहीं
          नई राहों को चुन लेना, ये मुश्किल बात होती है
मुझसे मेरी ज़िन्दगी के, हाल को मत पूछिए


हर इक सैलाब की सबको डुबो देने की फ़ितरत है
अपने हिस्से का यहाँ
तुझे इससे गुज़रना है, ये मुश्किल बात होती है
मैंने भी ढोया है सलीब
क्या सितम मुझ पर पड़े हैं
मुझसे यह मत पूछिए


          कोई क्योंकर तुझे पूछे, तेरी औक़ात ही क्या है
प्यार क्या शै है
          नया कुछ कर दिखा जाना, ये मुश्किल बात होती है
मुझे अब तक नहीं मालूम है
उम्र कैसे काट पाया
मुझसे यह मत पूछिए


ज़माना आख़री दम तक तुझे बाँधेगा बंधन में
मुस्कुरा कर काट ली है
नहीं थमना, नहीं झुकना, ये मुश्किल बात होती है
मैंने शामे ज़िन्दगी
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किससे मुझको थी शिकायत
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मुझसे यह मत पूछिए
| 21 जून, 2014
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मैं सामान्यत: अपने व्यवहार में जातियों में भेद नहीं करता। हाँ कभी-कभी कुछ लिखता ज़रूर हूँ जिससे भारत की शक्ति को बढ़ावा मिले और हम विकास और समृद्धि की ओर तेज़ी से बढ़ें।
भारतीय सेना में अधिकारी तो किसी भी जाति का मिल सकता है लेकिन सिपाही तो बहुसंख्य पराक्रमी क़ौम के ही होते हैं जो सीमाओं पर सीना तान कर गोलियाँ तो क्या तोप के गोलों का भी सामना करना के लिए डटे रहते हैं।
भारतीय सेना के जो मुख्य आधार हैं उनमें हैं- जाट (हिन्दू, आर्यसमाजी और सिक्ख), राजपूत, यादव, गुर्जर, बघेल और गुरखा आदि हैं। इनमें से ज़्यादातर पिछड़े (Backword class) कहलाते हैं। सीमा-सरहदों पर सबसे अधिक अागे रहने वाले ज़िन्दगी और समाज में पिछड़ गए। बॉर्डर पर फ़ॉरवर्ड लेकिन देश के भीतर बॅकवर्ड?
इतने पर भी न जाने क्यों सबसे ज़्यादा इनको ही समाज में असामाजिक समझा जाता है। जाटों पर और सिक्खों (सरदार) पर तो तमाम चुटकुले बनाए जाते हैं। ठाकुर (राजपूत) को हमेशा से फ़िल्मों में एक अत्याचारी व्यक्ति के रूप में दिखाया जाता रहा है।
ज़रा पूछा जाय लोगों से कि यदि ये क़ौम सेना में युद्ध न करें तो बाक़ी भारतवासियों को बचाने वाला कौन होगा? भारत नाम का देश दुनिया के नक़्शे में न होकर सिर्फ़ इतिहास में रह जाएगा। इसलिए इन जातियों का मज़ाक़ बनाने से पहले हज़ार बार सोचिए...
हम सब भाई-भाई हैं और इन जातियों के लोगों और उनके परिवार को भी आपके प्यार और आशीर्वाद की बहुत ज़रूरत है।
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| 20 जून, 2014
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मुझे बचपन में मशहूर हस्तियों के लम्बे-लम्बे नाम याद करने का बड़ा शौक़ था जैसे कि-
सॅम होरमसजी फ़्रामजी जमशेदजी मानेक शॉ (फ़ील्ड मार्शल मानेक शॉ)
एलमकुलम मनक्कल संकरन नम्बूदरीपाद (केरल के पूर्व मुख्यमंत्री)
मोबोतू सेसे सेको कूकू नग्बेन्दू वा ज़ा बांगा (कोंगो के पूर्व शासक)
एक जो और नाम याद किया था वह था महान खिलाड़ी पेले का-
सर ऍडसन अरान्तिस दो नास्सिमेंटो पेले


हमारे लिए फ़ुटबॉल का मतलब होता था पेले...
मैं किसी का हो न पाया
आज हालात कुछ और हैं, FIFA ने वर्ल्ड कप ट्रॉफ़ी को पेले के बजाय सुपर मॉडल जिसेल बुद्चिन (Gisele Bundchen) से दिलवाना ज़्यादा पसंद आ रहा है।
कोई मेरा था नहींं
यह हालात ब्राज़ील में ही नहीं बल्कि...
क्यों रहा दुनिया में तनहा,
मुझसे यह मत पूछिए - डॉ॰ महेशचंद्र चतुर्वेदी
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| 20 जून, 2014
| 4  जुलाई, 2014
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आज के युग के बारे में लोगों का नज़रिया है-
जावेद अख़्तर की बेमिसाल रचना है। जब भी सुनता हूँ, रो पड़ता हूँ। भूपेन हज़ारिका की आवाज़ में असमी और बंगाली रंग है। इसलिए किसी-किसी को ये आवाज़ पसंद नहीं आती... मगर इतना तो यक़ीं है कि ये ग़ज़ब है... अगर पूरा सुन लें तो...
"अधीरता, वर्तमान युग का मूल वाक्य है। आज के लोगों को 'बेकार में, किसी से मिलना-जुलना पसंद नहीं है। जब बिना मतलब के मिलना पसंद नहीं है तो मित्रता का आनंद भी समाप्त है। प्रश्न भी कुछ नए हैं जैसे कि 'प्रेम क्या है?, दोस्ती क्या है आदि। पचास-सौ वर्ष पहले ये प्रश्न किताबों में अधिक थे और सामान्य समाज में कम। आज जिसे देखो वह प्रेम और दोस्ती का अर्थ समझना चाहता है। कारण भी बहुत सीधा-सादा है कि प्रेम और दोस्ती अब बहुत ही कम देखने में आते हैं। स्त्री-पुरुष के भी मिलने के कारण- कोई कार्य अथवा शारीरिक संतुष्टि अधिक हो गया है।"
[https://www.youtube.com/watch?v=L7moo13O_P8&feature=youtu.be Duniya Parayee Log Yahan Begane]
 
क्या यह सही है? क्या ऐसा 'पहले' नहीं था? पहले भी ऐसा ही था बस इतना अंतर हुआ है कि आबादी बढ़ गई है। हाँ इतना ज़रूर है कि नई पीढ़ी के समझ में यह आ गया है कि पैसा बहुत-बहुत महत्वपूर्ण है और पैसे के सामने सारे भजन-प्रवचन बेकार हैं। यह बात पहले कुछ जाति विशेष का ही कॉपीराइट थी लेकिन अब ज़्यादातर जातियों के युवक-युवती इसे समझने लगे हैं।
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| 20 जून, 2014
| 4  जुलाई, 2014
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मित्रो ! बलात्कार की घटनाओं ने आप ही की तरह मुझे भी गहन पीड़ा दी है। सुबह अख़बार देखने को मन ही नहीं होता। बलात्कारी पिशाचों का चेहरा सोचते-सोचते अपने iPad पर यूँही उँगलियाँ चलाने लगा और जो रेखाचित्र उभरा वह आपके सामने है...
हे ईश्वर ! तूने एक करोड़ से ज़्यादा भारत वासियों पर ज़रा भी रहम नहीं किया। मुढ़िया पूनो पर इस आग बरसाती गर्मी में वे श्रद्धालु मथुरा में, गिरिराज महाराज की परिक्रमा लगाते रहे। उनके पैर जलते रहे, दण्डौती देने में जिस्म झुलसते रहे। अब कम से कम रोज़ा रखने वालों पर तो नज़र-ओ-करम रख कि पूरे दिन भूखे प्यासे रहकर वो तुझे याद करते हैं। अब तो बरस... वरना कौन तुझ पर भरोसा करेगा।
लगता है तुझे अहसास नहीं है गर्मी का...
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| [[चित्र:Aditya-Chaudhary-facebook-post-34.jpg|250px|center]]
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| 12 जून, 2014
| 13  जुलाई, 2014
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9 जून 1913 को चौधरी दिगम्बर सिंह जी का जन्म हुआ था। 1995 में उनका देहावसान हुआ। यह उनका 100 वाँ जन्मदिन है। स्वतंत्रता सेनानी थे और चार बार लोकसभा में चुने गए।
यह फ़ेसबुक पोस्ट, मेरे प्रिय छोटे भाई पवन चतुर्वेदी(Pavan Chaturvedi) को ...
1952 (एटा), 1962 (मथुरा), 1969 (मथुरा उपचुनाव), 1980 (मथुरा)
इस भाषण के समय वे काँग्रस से सांसद थे और सरकार के ही ख़िलाफ़ बोले थे (जो कि वे अक्सर करते रहते थे और इसी कारण वे केन्द्रीय मंत्री नहीं बने)।
मुझे उनका बेटा होने पर उतना ही गर्व है जितना भारतीय होने पर...


भाषण का अंश-
एक समय था जब हमारे घर पर विद्वानों का आना बना रहता था। इन विद्वानों में चतुर्वेदी अधिक संख्या में होते थे। जिनमें भाषा, धर्म, संस्कृति, दर्शन आदि के विद्वान अपने-अपने विचार रखते थे। उनकी चर्चाएँ मैं सुना करता था। जिसमें किसी भी दूसरे धर्म की आलोचना नाम-मात्र को होती थी। ब्रज और यमुना जी को लेकर उनकी चिन्ताएँ लगातार बनी रहती थीं। वे अपने ही धर्म को लेकर और नई पीढ़ी के आचार-विचार से ही व्यथित रहते थे। यह चतुर्वेदियों की एक अनोखी विशेषता थी। आजकल तो दूसरों के धर्म को बिना बात, धाराप्रवाह गालियां दी जाती हैं।
"मैं किसानों की तरफ़ से आया हूँ और उनकी तरफ़ से बात कह रहा हूँ।
 
जो अन्न पैदा करते हैं, जो गेहूँ पैदा करते हैं लेकिन उन्हें खाने को नहीं मिलता।
मथुरा के चतुर्वेदी उन गिनी-चुनी जातियों में से हैं जिनमें आज भी कई भाषाओं के पंडित आसानी से मिल जाते हैं और उन्हें प्रचार की लालसा भी नहीं है। 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम में चतुर्वेदियों के घरों में क्रांतिकारी छुपे रहे जिससे चतुर्वेदियों को अंग्रेज़ों का कोपभाजन बनना पड़ा (देखें ऍफ़॰ ऍस॰ ग्राउस की पुस्तक और ब्रोकमॅन का गज़टियर)। इससे पहली बार यह पता चला कि चतुर्वेदी शासन की हाँ में हाँ मिलाने वाली क़ौम नहीं है बल्कि प्रगति और स्वतंत्रता उसकी नसों में लहू बन के दौड़ रही है। मेरे प्रपितामह को भी 1857 में अंग्रज़ों ने फांसी दी थी। इसलिए मेरी रुचि इन संदर्भों ज्यादा है।
जो ऊन और कपास पैदा करते हैं लेकिन उनको पहनने के लिए कपड़ा नहीं मिलता।
 
मैं ऐसे लोगों की बात कहने आया हूँ जो दूध, घी पैदा करते हैं लेकिन उन्हें भूखों मरना पड़ता है।
1947 के स्वातंत्र्य संग्राम में तो चतुर्वेदियों ने मथुरा का नाम स्वर्णाक्षरों मे लिखा। जब श्री राधामोहन चतुर्वेदी और मेरे पिता चौधरी दिगम्बर सिंह एक साथ जेल में बंद थे। पिताजी बताते थे कि उस समय चतुर्वेदी जी जेल में अंग्रेज़ी की किताब हाथ में लेकर धारा प्रवाह हिन्दी अनुवाद सुनाया करते थे और क़ैदियों को अंग्रेज़ी पढ़ाया करते थे। उस समय श्री शिवदत्त चतुर्वेदी के पिताजी श्री गौरीदत्त चतुर्वेदी भी जेल में थे।
मैं उस किसान की बात कहता हूँ जिसने अपने बच्चे को सेना में भेजा है लेकिन उस किसान की रक्षा नहीं होती।
मैं उन लोगों की बात अाप से करना चाहता हूँ जो लोग अपने वोट देकर सरकार बनाते हैं लेकिन उस सरकार की ओर से उनके हितों की रक्षा नहीं होती।" -30 अप्रेल 1965 लोकसभा
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| [[चित्र:Aditya-Chaudhary-facebook-post-33.jpg|250px|center]]
| 7 जून, 2014
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      मरना तो सबका तय है, ये वक़्त कह रहा है
      पुरज़ोर एक कोशिश, जीने की बारहा है


                  कहने को सारी दुनिया है इश्क़ की दीवानी
मथुरा के चौबों को सामान्यत: लोग परदेसियों से मांग-खाकर गुज़रा करने वाली जाति समझ लेते हैं। इसमें कुछ ग़लत तो नहीं लेकिन चतुर्वेदियों में हुए विद्वान, कलाकार, साहित्यकार और स्वतंत्रता सेनानियों की संख्या प्रतिशत के अनुपात में अन्य जातियों से बहुत-बहुत अधिक है। ध्रुपद धमार, हवेली संगीत, पहलवानी, संस्कृत भाषा और अर्थशास्त्र में इनकी दख़ल उल्लेखनीय है।
                  हर एक शख़्स लेकिन, पैसे पे मर रहा है


      सारे सिकंदरों के, जाते हैं हाथ ख़ाली
आज भी जब मेरे छोटे भाई पवन चतुर्वेदी का हमारे घर आना होता है तो पवन की हज़ारों ग़ज़लों और शेरों के मुँह ज़बानी याद होने की प्रतिभा से दंग रह जाता हूँ (और वह भी भावार्थ सहित)। श्री जगदीश्वर चतुर्वेदी (Jagadishwar Chaturvedi) जब आते हैं तो ऐसा लगता है कि विभिन्न विषयों पर धारा प्रवाह बोलते-बोलते कभी थकेंगे ही नहीं। बड़े भाई श्री मनोहर लाल चतुर्वेदी (Manohar Lal Chaturvedi) के आने पर उनके व्यवहार से ही विनम्रता और सभ्यता का पाठ सीखने को मिलता है, जो विरासत उनके चारों बेटों में भरपूर आई है। पिछले दिनों श्री नवीन चतुर्वेदी (Navin C. Chaturvedi) आए उनका ग़ज़ल ज्ञान मुझे बहुत भाया।
      कोई मानता नहीं है, बस याद कर रहा है


                  हैवानियत के सारे, होते गुनाह माफ़ी
श्री शिवदत्त चतुर्वेदी, श्री जगदीश्वर चतुर्वेदी, श्री हरिवंश चतुर्वेदी (Harivansh Chaturvedi), श्री आशुतोष चतुर्वेदी (Ashutosh Chaturvedi)), श्री पवन चतुर्वेदी, श्री मधुवन दत्त चतुर्वेदी (Madhuvandutt Chaturvedi) जैसे कुछ नाम हैं जो एक समय-एक जगह इकट्ठे हों तो लगता है कि 'ज्ञान बाढ़' आ जाएगी ।
                  अब बेटियों का पल्लू ही क़फ़्न बन रहा है


      कोई खुदा नहीं है, अब आसमां में शायद
जै जमना मैया की...
      इन्सां का ख़ौफ़ देखो, भगवान डर रहा है
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| 5 जून, 2014
| 11  जुलाई, 2014
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आज, पैसा और प्रतिष्ठा एक-दूसरे के पर्यायवाची हो चुके हैं। यहाँ तक कि वीतरागी संत होने का अर्थ भी बदल चुका है। संतों की प्रतिष्ठा त्याग के लिए हुआ करती थी लेकिन अब अथाह संपत्ति और सुविधा से घिरे तथाकथित संत अपनी दरियाई घोड़े जैसी तोंद पर हाथ फेरकर, मुग्ध होते मिलते हैं।
अभी-अभी दु:ख भरा समाचार मिला कि महान शख़्सियत श्रीमती ज़ोहरा सहगल नहीं रहीं। मुझे जिनसे प्रेरणा मिलती थी उनमें ज़ोहरा जी का नाम बहुत-बहुत ऊँचा था। ऐसे लोग बार-बार नहीं जन्मा करते। उन्होंने जो जगह ख़ाली की उसे भरना असंभव है। मुझे उनसे मिलने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ, जब कि वे हमारी दूर की रिश्तेदार भी थीं।
 
ज़िन्दा दिल लोग सिर्फ़ जीते हैं मरते नहीं
मरते तो सिर्फ़ वो हैं
जिन्होंने ज़िन्दगी को जिया ही नहीं
 
विनम्र श्रद्धाञ्जलि
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| 10  जुलाई, 2014
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| 3 जून, 2014
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अक्सर ये सवाल उठता रहता है कि भारत की जनता, नेताओं के भ्रष्ट आचरण को बहुत जल्दी भुला देती है। कभी सोचा है कि ऐसा क्यों है?
"रात निर्मला दिन परछांई
कारण स्पष्ट है- हम हमेशा यह सोचते हैं कि 'अरे भई अगर हम उस नेता की जगह होते तो हम भी तो उतने ही नहीं थोड़े बहुत कम भ्रष्ट होते...' क्योंकि हम जब भी जहाँ होते हैं अपनी क्षमता और स्तर के अनुपात में भ्रष्टाचार करने में नहीं चूकते।
कहि 'सहदेव' कि बरसा नाहीं"
इसीलिए हम अगले चुनाव में ही उस नेता को बहुत सहानुभूति पूर्वक क्षमा कर देते हैं। हाँ अगर अदालत ही उसे जेल में डाल दे तो बात अलग है। वैसे हम कोशिश तो उसे जेल से भी चुनाव जिताने की करते हैं।
परसों अम्माजी ने यह सुनाया जिसका अर्थ है कि यदि रात में बादल नहीं हैं और सिर्फ़ दिन में ही होते हैं तो वर्षा की संभावना नहीं होती।
नेताओं की ग़लतियों और निकृष्ट कारगुज़ारियों को जल्दी क्षमा करने का और ख़ूँख़्वार क़िस्म के नेताओं को पसंद करने का एक कारण और भी होता है-
पुराने ज़माने के डाकुओं वाला नियम- जैसे पुराने वक़्त के डाकू अपने पक्ष की जनता (जो अक्सर उन्हीं की जाति की होती थी) को प्रसन्न रखते थे और दूसरे इलाक़े में लूट-पाट मचाते थे। इसी तरह हम अपनी जाति या पक्ष के नेता की हर अनियमितता को अनदेखी करते हैं।
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| 3 जून, 2014
| 4  जुलाई, 2014
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नेता, सरकारी कर्मचारी और पुलिस के भ्रष्ट और ग़ैर ज़िम्मेदार होने पर हम बहुत तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं लेकिन हमें यह भी सोचना चाहिए कि ये ऐसे क्यों है और आख़िर ये ऐसे हो क्यों जाते हैं ?
चीन की सेना ने छ: महीने की कठोर अभ्यास का पाठ्यक्रम शुरू किया है। यह विशेष रूप से उन किशोर/किशोरियों के लिए है जो इंटरनेट पर अपना समय बिताते हैं। इनकी हालत दीवानों जैसी है और इंटरनेट की दुनिया ही इनकी वास्तविक दुनिया बनती जा रही है। इससे इन छात्रों के स्वास्थ्य पर बहुत ही बुरा असर पड़ रहा है। दिमाग़, हाथ-पैर, पाचन-तंत्र आदि सब बेकार होते जा रहे हैं। चीन में ऐसे छात्रों को तलाश कर सूची बद्ध किया जा रहा है।
इसमें इनकी मदद स्कूल-कॉलेज और अभिभावकों के साथ-साथ पड़ोसी भी कर रहे हैं। सेना के विशेष कॅम्प में छ: महीने की कठोर ट्रेनिंग दी जाती है। जिसमें सब्ज़ी काटना, शौचालय साफ़ करना, झाड़ू-पौंछा, बर्तन धोना, कपड़े धोना आदि से लेकर कठोर शारीरिक कसरत भी शामिल है। इन विशेष रिहॅब (Rehabilitation centre) में कठोर अनुशासन के द्वारा इनका जीवन दोबारा से सही रास्ते पर लाया जाता है।


असल में ये सब हमारे समाज का ही आइना है, प्रतिबिंब हैं और यह हमें पूरी तरह ईमानदारी के साथ स्वीकार करना चाहिए। हमारे समाज का नियम ही कुछ ऐसा है जिसमें हम सिर्फ़ दूसरों को ईमानदारी का पाठ पढ़ाने से ही सरोकार रखते हैं, ख़ुद अपनी ईमानदारी के लिए कोई जवाबदेही नहीं बरतते।
ज़रा सोचिए कि चीन की आबादी भारत से ज़्यादा है...
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| 3 जून, 2014
| 4  जुलाई, 2014
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10:58, 2 अगस्त 2014 का अवतरण

आदित्य चौधरी फ़ेसबुक पोस्ट
पोस्ट संबंधित चित्र दिनांक

मैं उन लोगों में से हूँ जो अपने बचपन में सोने से पहले बिस्तर पर लेेटे-लेटे तब तक गायत्री मंत्र का पाठ करता था कि जब तक नींद न आ जाए। इम्तिहान के दिनों में 108 मनकों की एक माला रोज़ाना सरस्वती के बीज मंत्र की करनी होती थी। अपने घर में ही, रामचरित मानस के अखंड पाठ में, मैंने उस उम्र में हिस्सा लिया था जिस उम्र में बच्चे सिर्फ़ दौड़ने और पेड़ पर चढ़ने को ही बहुत बड़ा खेल समझते हैं। हनुमान चालीसा, गणेश वन्दना और ओम जय जगदीश हरे, गीता के श्लोक, वेद और उपनिषदों के कुछ श्लोक जैसे अनेक धार्मिक पाठ... मुझे रटे हुए थे। रामचरित मानस और महाभारत का कोई प्रसंग ऐसा नहीं था जो मुझसे अछूता रहा हो।
धार्मिक सिनेमा की तो हालत यह थी कि 'बलराम श्रीकृष्ण' फ़िल्म देखने के लिए मैं लगातार पूरे सप्ताह अपनी मां के साथ जाता रहा। हनुमान और बलराम मेरे हीरो उसी तरह थे जैसे आजकल स्पाइडर मॅन और बॅटमॅन बच्चों के हीरो होते हैं। कृष्ण और अर्जुन मेरी दुर्गम लक्ष्य प्राप्ति की प्रेरणा थे, हनुमान और भीम मेरी कसरत की प्रेरणा, एकलव्य और कर्ण का जीवन मुझे भावुक बना देता था।
आज भी मैं धार्मिक और देशभक्ति के धारावाहिक टी॰वी॰ पर देखकर बेहद भावुक हो जाता हूँ। अक्सर रो पड़ता हूँ। राधा की विरह, सुदामा की बेबसी, भरत मिलाप, हनुमान की राम भक्ति, भीष्म की प्रतिज्ञा, राजा नल की विपत्ति, सावित्री-सत्यवान प्रसंग, कर्ण का दान आदि ऐसे अनेक प्रसंग हैं जो आज भी मुझे भावुक बना देते हैं।
हम बचपन को छोड़ आते हैं... कमबख़्त बचपन हमें नहीं छोड़ता।

लेकिन फिर भी इस सब के बाद अब मेरी अपनी पहचान क्या है ?
कभी लोग मुझसे पूछ लेते हैं कि वास्तव में मेरी जाति, धर्म और विचार क्या हैं। शायद इसका जवाब है कि-

"मैं सूफ़ी हिन्दू हूँ
बुतपरस्त मुस्लिम हूँ
कर्मकाण्डी शूद्र हूँ
म्लेच्छ ब्राह्मण हूँ
और
मेरे राजनैतिक और सामाजिक विचार ये हैं-
"मैं सर्वहारा बुर्जुआ हूँ
समाजवादी दक्षिणपंथी हूँ
भावुक यथार्थवादी हूँ
संन्यासी गृहस्थ हूँ"
अलबत्ता एक बात तो पक्की है कि

"भारत मुझको जान से प्यारा है
सबसे प्यारा गुलिस्तां हमारा है"

24 जुलाई, 2014

मृत्यु जीवन की परछाईं है
तभी तक साथ रहती है जब तक कि जीवन है...
... लोग कहते हैं कि मरने के बाद वह क्या है जो मनुष्य का साथ छोड़ देता है। कोई कहता है आत्मा, कोई ऊर्जा, कोई प्राण आदि-आदि
लेकिन वास्तविकता यह है कि मरने पर 'मृत्यु' साथ छोड़ देती है जो कि हमारे साथ हर समय रहती है जब तक कि हम जीवित हैं।
हमारा जन्मदिन ही हमारी मृत्यु का भी जन्मदिन भी होता है और हमारा मृत्युदिन हमारी मृत्यु का मृत्युदिन भी...

24 जुलाई, 2014

क्या हुआ ? एक हफ्ते से किसी ने मुझे candy crush खेलने के लिए invite नहीं किया और ना ही मुझे किसी अपनी जागरूक post या तस्वीर के साथ tag किया है।
'वो FB मित्रों का मुझे tag करना... फिर फ़ौरन सारे काम छोड़कर मेरा उन tag को हटाना... मेरे पास तो अब जैसे कोई काम ही नहीं बचा...'
मैं जैसे ही किसी की friend request को स्वीकार करता हूँ तो अक्सर वो मुझे tag करके अपनी मित्रता का फ़र्ज़ अदा करते हैं। कितना प्यार है मुझसे...
ख़ैर...

20 जुलाई, 2014

प्रिय मित्रो ! शिवकुमार जी (Shivkumar Bilgrami) ने अपनी पत्रिका के जनवरी अंक में अम्माजी की कविता छाप दी और अब मुझे उसकी प्रति भेजी है। अम्माजी को 84 वर्ष की आयु में अब अपनी कोई कविता याद नहीं है, सिवाय इसके...

20 जुलाई, 2014

इस दुनिया में, वास्तविक रूप से, अपनी ग़लती मान लेने वाला व्यक्ति ही, निर्विवाद रूप से बुद्धिमान होता है।
इसके अलावा जितने भी बुद्धि के पैमाने हैं वे सब बहुत बाद में अपनी भूमिका रखते हैं।

19 जुलाई, 2014

मेरे एक पुराने मित्र आए और उन्होंने जो कुछ मुझसे कहा उसे थोड़ा सभ्य भाषा में प्रस्तुत कर रहा हूँ-
"तुमको ब्रजडिस्कवरी और भारतकोश बना कर क्या मिला ? ब्रजडिस्कवरी और भारतकोश बनाने-चलाने में तुम्हारे हर्निया के दो ऑपरेशन हो गए, लम्बार स्पाइन की समस्या हो गई, चश्मे के नंबर बढ़ गए, खिलाड़ियों जैसा कसरती शरीर पिलपिले बैंगन जैसा हो गया, बुढ़ापे के लिए बचाया पैसा और संपत्ति ख़त्म हो गए, राजनैतिक जीवन और मथुरा में सामाजिक जीवन समाप्त हो गया, दोस्तों से मिलना-मिलाना ख़त्म हो गया। मैंने तुमको 85 किलो बॅंच प्रॅस करते देखता था लेकिन अब 85 ग्राम का फ़ोन भी तुम्हें भारी लगता है। तुम अपने पिताजी की उस उक्ति को भूल गए जब वे कहा करते थे कि चढ़ जा बेटा सूली पै, भली करेंगे राम। अब तक तुम चौधरी सा'ब की तरह 4 बार सांसद बन सकते थे... लेकिन तुमने सब सत्यानाश कर दिया"

इसके बाद ज्यों के त्यों, मेरे मित्र के ही शब्द हैं "बोलो क्या मिला तुमको 'बाबा जी ठुल्लू'... मैंने तुमसे बड़ा इमोशनल फ़ूल नहीं देखा।"

मेरे पास मुस्कुराने के सिवा कोई चारा नहीं था। मेरे मित्र, मुझे अपनी व्यक्तिगत संपत्ति की तरह ही व्यवहार में लाते हैं और मैं इसका आनंद लेता हूँ। मेरे अजीब-अजीब जीवन-प्रयोग उन्हें चकित भी करते हैं और क्रोधित भी... पर उनके प्यार में कमी नहीं होती।

इस लॅक्चर के बाद मैंने उनसे कहा-

1857 में मेरे प्रपितामह बाबा देवकरण सिंह को विद्रोह करने पर अंग्रेज़ों ने फांसी दी थी। उनको गिरफ़्तार करवाने वाले एक ज़मीदार को इनाम में एक और ज़मीदारी दी गई। मेरे पर दादा को क्या मिला ? पूछा मैंने। भरी जवानी में मेरे पिता को अंग्रेज़ो ने जेल में डाल दिया, उन्हें क्या मिला। ये भी पूछा मैंने।
और मैं ! मैं तो उनका बस एक नालायक़ सा वंशज हूँ। मेरी औक़ात ही क्या है ! जो कुछ कर रहा हूँ वो बहुत-बहुत कम है...

अब तक तो मुझे किसी भ्रष्ट अधिकारी या नेता को खुले आम चुनौती देने के चक्कर में तबाह हो जाना चाहिए था। किसी जनहित आंदोलन की बलि चढ़ जाना चाहिए था, लेकिन मैं बच्चे पालने में लगा रहा। जब मेरे सर से ये ज़िम्मेदारी हट गई है, बच्चे ज़िम्मेदार हो गए हैं... तो अब तो कम से कम मुझे अपने मन की करने दो। अपने मन से जीने दो अपने मन से मरने दो। जिससे मुझे लगे कि मैं भी इस दुनिया में आकर इंसानों के श्रेणी में शामिल हूँ।

आज मेरे जीने का आधार क्या है ? मेरे जीने का आधार है भारतकोश के वे 10 करोड़ से अधिक पाठक जिनमें 6 करोड़ से अधिक नौजवान हैं। हर महीने 7-8 लाख लोग जो भारतकोश देख रहे हैं। वे छात्र जो परीक्षा और प्रतियोगिता के लिए भारतकोश पढ़ते हैं।

मेरे दोस्तो ! मैं पागल था, पागल हूँ और पागल ही रहूँगा। इसलिए परेशान होने के ज़रूरत नहीं है। हो सके तो भारतकोश की कुछ आर्थिक मदद करो... या...।

19 जुलाई, 2014

जब कोई मरता है तो कहते हैं- "वे भगवान को प्यारे हो गए"
जीते जी भगवान के प्यारे होने का कोई तरीक़ा नहीं है क्या ?

19 जुलाई, 2014

डॉ॰ महेश चंद्र चतुर्वेदी मथुरा के विद्वानों में गिने जाते थे। वे मेरे पिताजी के पास भी आया करते थे, यह बात मुझे मेरी अम्माजी ने उनकी किताब पर उनका फ़ोटो देखकर बताई।
उनके पुत्र आशुतोष चतुर्वेदी (Ashutosh Chaturvedi) मेरे बचपन के मित्र हैं। आशुतोष ने मुझे यह किताब दी थी। डॉ॰ साहिब की लिखी मेरी पसंद की एक कविता प्रस्तुत है-

'सलीब'

झूठ बोलूंगा नहीं पर, सत्य की हिम्मत नहीं
मुझसे मेरी ज़िन्दगी के, हाल को मत पूछिए

अपने हिस्से का यहाँ
मैंने भी ढोया है सलीब
क्या सितम मुझ पर पड़े हैं
मुझसे यह मत पूछिए

प्यार क्या शै है
मुझे अब तक नहीं मालूम है
उम्र कैसे काट पाया
मुझसे यह मत पूछिए

मुस्कुरा कर काट ली है
मैंने शामे ज़िन्दगी
किससे मुझको थी शिकायत
मुझसे यह मत पूछिए

मैं किसी का हो न पाया
कोई मेरा था नहींं
क्यों रहा दुनिया में तनहा,
मुझसे यह मत पूछिए - डॉ॰ महेशचंद्र चतुर्वेदी

4 जुलाई, 2014

जावेद अख़्तर की बेमिसाल रचना है। जब भी सुनता हूँ, रो पड़ता हूँ। भूपेन हज़ारिका की आवाज़ में असमी और बंगाली रंग है। इसलिए किसी-किसी को ये आवाज़ पसंद नहीं आती... मगर इतना तो यक़ीं है कि ये ग़ज़ब है... अगर पूरा सुन लें तो...
Duniya Parayee Log Yahan Begane

4 जुलाई, 2014

हे ईश्वर ! तूने एक करोड़ से ज़्यादा भारत वासियों पर ज़रा भी रहम नहीं किया। मुढ़िया पूनो पर इस आग बरसाती गर्मी में वे श्रद्धालु मथुरा में, गिरिराज महाराज की परिक्रमा लगाते रहे। उनके पैर जलते रहे, दण्डौती देने में जिस्म झुलसते रहे। अब कम से कम रोज़ा रखने वालों पर तो नज़र-ओ-करम रख कि पूरे दिन भूखे प्यासे रहकर वो तुझे याद करते हैं। अब तो बरस... वरना कौन तुझ पर भरोसा करेगा।
लगता है तुझे अहसास नहीं है गर्मी का...

13 जुलाई, 2014

यह फ़ेसबुक पोस्ट, मेरे प्रिय छोटे भाई पवन चतुर्वेदी(Pavan Chaturvedi) को ...

एक समय था जब हमारे घर पर विद्वानों का आना बना रहता था। इन विद्वानों में चतुर्वेदी अधिक संख्या में होते थे। जिनमें भाषा, धर्म, संस्कृति, दर्शन आदि के विद्वान अपने-अपने विचार रखते थे। उनकी चर्चाएँ मैं सुना करता था। जिसमें किसी भी दूसरे धर्म की आलोचना नाम-मात्र को होती थी। ब्रज और यमुना जी को लेकर उनकी चिन्ताएँ लगातार बनी रहती थीं। वे अपने ही धर्म को लेकर और नई पीढ़ी के आचार-विचार से ही व्यथित रहते थे। यह चतुर्वेदियों की एक अनोखी विशेषता थी। आजकल तो दूसरों के धर्म को बिना बात, धाराप्रवाह गालियां दी जाती हैं।

मथुरा के चतुर्वेदी उन गिनी-चुनी जातियों में से हैं जिनमें आज भी कई भाषाओं के पंडित आसानी से मिल जाते हैं और उन्हें प्रचार की लालसा भी नहीं है। 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम में चतुर्वेदियों के घरों में क्रांतिकारी छुपे रहे जिससे चतुर्वेदियों को अंग्रेज़ों का कोपभाजन बनना पड़ा (देखें ऍफ़॰ ऍस॰ ग्राउस की पुस्तक और ब्रोकमॅन का गज़टियर)। इससे पहली बार यह पता चला कि चतुर्वेदी शासन की हाँ में हाँ मिलाने वाली क़ौम नहीं है बल्कि प्रगति और स्वतंत्रता उसकी नसों में लहू बन के दौड़ रही है। मेरे प्रपितामह को भी 1857 में अंग्रज़ों ने फांसी दी थी। इसलिए मेरी रुचि इन संदर्भों ज्यादा है।

1947 के स्वातंत्र्य संग्राम में तो चतुर्वेदियों ने मथुरा का नाम स्वर्णाक्षरों मे लिखा। जब श्री राधामोहन चतुर्वेदी और मेरे पिता चौधरी दिगम्बर सिंह एक साथ जेल में बंद थे। पिताजी बताते थे कि उस समय चतुर्वेदी जी जेल में अंग्रेज़ी की किताब हाथ में लेकर धारा प्रवाह हिन्दी अनुवाद सुनाया करते थे और क़ैदियों को अंग्रेज़ी पढ़ाया करते थे। उस समय श्री शिवदत्त चतुर्वेदी के पिताजी श्री गौरीदत्त चतुर्वेदी भी जेल में थे।

मथुरा के चौबों को सामान्यत: लोग परदेसियों से मांग-खाकर गुज़रा करने वाली जाति समझ लेते हैं। इसमें कुछ ग़लत तो नहीं लेकिन चतुर्वेदियों में हुए विद्वान, कलाकार, साहित्यकार और स्वतंत्रता सेनानियों की संख्या प्रतिशत के अनुपात में अन्य जातियों से बहुत-बहुत अधिक है। ध्रुपद धमार, हवेली संगीत, पहलवानी, संस्कृत भाषा और अर्थशास्त्र में इनकी दख़ल उल्लेखनीय है।

आज भी जब मेरे छोटे भाई पवन चतुर्वेदी का हमारे घर आना होता है तो पवन की हज़ारों ग़ज़लों और शेरों के मुँह ज़बानी याद होने की प्रतिभा से दंग रह जाता हूँ (और वह भी भावार्थ सहित)। श्री जगदीश्वर चतुर्वेदी (Jagadishwar Chaturvedi) जब आते हैं तो ऐसा लगता है कि विभिन्न विषयों पर धारा प्रवाह बोलते-बोलते कभी थकेंगे ही नहीं। बड़े भाई श्री मनोहर लाल चतुर्वेदी (Manohar Lal Chaturvedi) के आने पर उनके व्यवहार से ही विनम्रता और सभ्यता का पाठ सीखने को मिलता है, जो विरासत उनके चारों बेटों में भरपूर आई है। पिछले दिनों श्री नवीन चतुर्वेदी (Navin C. Chaturvedi) आए उनका ग़ज़ल ज्ञान मुझे बहुत भाया।

श्री शिवदत्त चतुर्वेदी, श्री जगदीश्वर चतुर्वेदी, श्री हरिवंश चतुर्वेदी (Harivansh Chaturvedi), श्री आशुतोष चतुर्वेदी (Ashutosh Chaturvedi)), श्री पवन चतुर्वेदी, श्री मधुवन दत्त चतुर्वेदी (Madhuvandutt Chaturvedi) जैसे कुछ नाम हैं जो एक समय-एक जगह इकट्ठे हों तो लगता है कि 'ज्ञान बाढ़' आ जाएगी ।

जै जमना मैया की...

11 जुलाई, 2014

अभी-अभी दु:ख भरा समाचार मिला कि महान शख़्सियत श्रीमती ज़ोहरा सहगल नहीं रहीं। मुझे जिनसे प्रेरणा मिलती थी उनमें ज़ोहरा जी का नाम बहुत-बहुत ऊँचा था। ऐसे लोग बार-बार नहीं जन्मा करते। उन्होंने जो जगह ख़ाली की उसे भरना असंभव है। मुझे उनसे मिलने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ, जब कि वे हमारी दूर की रिश्तेदार भी थीं।

ज़िन्दा दिल लोग सिर्फ़ जीते हैं मरते नहीं
मरते तो सिर्फ़ वो हैं
जिन्होंने ज़िन्दगी को जिया ही नहीं

विनम्र श्रद्धाञ्जलि

10 जुलाई, 2014

"रात निर्मला दिन परछांई
कहि 'सहदेव' कि बरसा नाहीं"
परसों अम्माजी ने यह सुनाया जिसका अर्थ है कि यदि रात में बादल नहीं हैं और सिर्फ़ दिन में ही होते हैं तो वर्षा की संभावना नहीं होती।

4 जुलाई, 2014

चीन की सेना ने छ: महीने की कठोर अभ्यास का पाठ्यक्रम शुरू किया है। यह विशेष रूप से उन किशोर/किशोरियों के लिए है जो इंटरनेट पर अपना समय बिताते हैं। इनकी हालत दीवानों जैसी है और इंटरनेट की दुनिया ही इनकी वास्तविक दुनिया बनती जा रही है। इससे इन छात्रों के स्वास्थ्य पर बहुत ही बुरा असर पड़ रहा है। दिमाग़, हाथ-पैर, पाचन-तंत्र आदि सब बेकार होते जा रहे हैं। चीन में ऐसे छात्रों को तलाश कर सूची बद्ध किया जा रहा है।
इसमें इनकी मदद स्कूल-कॉलेज और अभिभावकों के साथ-साथ पड़ोसी भी कर रहे हैं। सेना के विशेष कॅम्प में छ: महीने की कठोर ट्रेनिंग दी जाती है। जिसमें सब्ज़ी काटना, शौचालय साफ़ करना, झाड़ू-पौंछा, बर्तन धोना, कपड़े धोना आदि से लेकर कठोर शारीरिक कसरत भी शामिल है। इन विशेष रिहॅब (Rehabilitation centre) में कठोर अनुशासन के द्वारा इनका जीवन दोबारा से सही रास्ते पर लाया जाता है।

ज़रा सोचिए कि चीन की आबादी भारत से ज़्यादा है...

4 जुलाई, 2014

शब्दार्थ

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