यदि आप चाहते हैं कि लोग आपको सराहें तो आपको अपने 'सुभीता स्तर' (Comfort level) की तरफ़ ध्यान देना चाहिए। याने आपकी मौजूदगी में लोग कितना सहज महसूस करते हैं। जो लोग आपके सहकर्मी, मित्र, परिवारी जन आदि हैं उन्हें आपकी उपस्थिति में कितनी सहजता महसूस होती है।
सदा स्मरण रखने योग्य बात यह है कि आप योग्य कितने हैं यह बात महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि आपका सुभीता स्तर कितना है, महत्वपूर्ण है।
संपूर्ण सफल व्यक्तित्व का रहस्य बुद्धि, प्रतिभा या योग्यता में ही छुपा नहीं है बल्कि 'सुभीता स्तर' (Comfort level) इसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। -आदित्य चौधरी
15 अक्टूबर, 2014
कभी क्षुब्ध होता हूँ
अपने आप से
तो कभी मुग्ध होता हूँ
अपने आप पर
कभी कुंठाग्रस्त मौन
ही मेरा आवरण
तो कभी कहीं इतना मुखर
कि जैसे आकश ही मेरा घर
कभी तरस जाता हूँ
एक मुस्कान के लिए
या गूँजता है मेरा अट्टहास
अनवरत
रह रह कर
कभी धमनियों का रक्त ही
जैसे जम जाता है
एक रोटी के लिए
सड़क पर बच्चों की
कलाबाज़ी देख कर
कभी चमक लाता है
आखों में मिरी
उसका छीन लेना
अपने हक़ को
निडर हो कर
कभी सूरज की रौशनी भी
कम पड़ जाती है
तो कभी अच्छा लगता है
कि चाँद भी दिखे तो
दूज बन कर
29 सितम्बर, 2014
प्रिय मित्रो ! एक कविता-ग़ज़ल प्रस्तुत है... इसको मेरे कुछ मित्रों ने मृत्यु का ज़िक्र होने के कारण नकारात्मक मान लिया जब कि मैंने ये पंक्तियां शहीद-ए-आज़म भगत सिंह को ध्यान में रखकर लिखी थीं। मित्रो यह कोई मेरा मृत्यु-गान नहीं है बल्कि एक अमर शहीद की याद भर है। हाँ इतना ज़रूर कि मैंने जान बूझकर सरदार भगतसिंह का ज़िक्र नहीं किया था...ख़ैर...
मेरी हस्ती को ही अब जड़ से मिटाया जाए
मरूँ या न मरूँ, मिट्टी में मिलाया जाए
इसी हसरत में कि पूछेगा, आख़री ख़्वाइश
बीच चौराहे पे फ़ांसी पे चढ़ाया जाए
उनसे कह दो कि बुनियाद में हैं छेद बहुत
मेरे मरने से पहले उनको भराया जाए
क्या कहूँ किससे कहूँ कोई नहीं सुनता है
मुल्क की तस्वीर है क्या, किसको बताया जाए
मैं तो बदज़ात हूँ, शामिल न किया महफ़िल में
नाम मुझको भी शरीफ़ों का बताया जाए
मसअले और भी हैं मेरी सरकशी के लिए
उनको तफ़्सील से ये रोज़ बताया जाए
ज़माना हो गया जब दफ़्न किया था ख़ुद को
मैं तो हैरान हूँ, क्यों मुझको जलाया जाय
28 सितम्बर, 2014
सूचनाओं को इकट्ठा करने के विरोध में नहीं हूं मैं और न ही सूचना उपलब्ध कराने वालों से कोई मेरा बैर है लेकिन ज़रा सा सोचिए...
अपने मस्तिष्क को उपयोगी-अनुपयोगी सूचनाओं का कूड़ाघर बना कर क्या हासिल कर रहे हैं हम ?
छात्रों की परीक्षा में वस्तुनिष्ठ प्रश्नों से सजा प्रश्नपत्र (objective type question papers) प्रस्तुत करके हम कहाँ ले जा रहे हैं अपनी नई पीढ़ी को ?
सूचनाओं से सजा एक मानव कंप्यूटर बना रहे हैं हम नई पीढ़ी को... जिसे चाहे जब ले जाकर 'कौन बनेगा करोड़पति' में बिठा दो तो... कुछ न कुछ जीतकर ही उठेगा।
इस पर तुर्रा ये कि नई पीढ़ी से हमारी इस बात की नाराज़गी भी रहती है कि-
अरे ! नई पीढ़ी के लोगों में
संवेदना-भावना का अभाव है,
साहित्य से अलगाव है,
रूखा स्वभाव है,
हर समय व्यस्त हैं
अपने में मस्त हैं
सुबह को सुस्त हैं
रात को चुस्त हैं...
ये अब गहन खोज में नहीं जाते
रिश्तों में खो नहीं जाते
और तब तक खपे रहते हैं काम में
जब तक कि सो नहीं जाते...
यदि नई पौध को वापस लाना है तो
शिक्षा को बदलना होगा
परीक्षा-प्रश्नपत्र को संभलना होगा
मस्तिष्क को सूचना केन्द्र नहीं बल्कि ज्ञान केन्द्र बनाना होगा।
यह मनुष्य के 'मस्तिष्क पर्यावरण' का मामला है जो धरती के पर्यावरण की तरह ही दूषित हो चला है...
15 सितम्बर, 2014
मैंने फ़ेसबुक पर यह प्रश्न पूछा था:-
मनुष्य की सबसे पहले ज़रूरत क्या बनी ?
भाषा, कहानी या अभिनय ?
याने सबसे पहले अस्तित्व में क्या आया- भाषा, कहानी या अभिनय ?
मित्रों से इसके कई उत्तर मिले, मैंने इसका उत्तर विस्तार में दिया है- 1. अभिनय की अर्थ शब्दकोश में, सामान्यत: यही होता है कि-
"किसी मनोभाव या आवेश को दृष्टि, संकेत या मनोभाव से प्रकट करना ही अभिनय है"
अभिनय यदि भावों को प्रकट करने का माध्यम है तो वह कहीं से आया नहीं बल्कि हमेशा से मौजूद माना जाय... यहाँ तक कि जानवरों में भी।
किसी जानवर (विशेषकर कुत्ते) को चोट लगे तो वह रोता है, तो क्या इसे अभिनय कहेंगे ?
किसी मनुष्य को भूख लगे और वह इशारे से बताए कि भूखा है तो क्या यह अभिनय है ?
समझिए कि कोई व्यक्ति मूक है, बोल नहीं सकता और अपने सारे विचार, अपने हाव-भाव और शारीरिक मुद्राओं से प्रकट करता है तो क्या आप इसे अभिनय कहेंगे ? इसका अर्थ तो यह हुआ कि यह व्यक्ति निरंतर अभिनय करने वाला अभिनेता है !
ऊपर बताए गए सभी उदाहरण केवल मनोभाव, मनोदशा, मन:स्थिति का संप्रेषण या प्रदर्शन मात्र है। यह सब अभिनय नहीं है।
तो फिर अभिनय क्या है ?
हम मंच, चलचित्र या दूरदर्शन पर जब किसी अभिनेता को रोते, हँसते, क्रोधित होते देखते हैं तो क्या यह सब कुछ उसका भाव प्रदर्शन है ? क्या वह रोने के लिए अपने सर में डंडा मारने के लिए कहता है कि मंच के पीछे जाकर पहले चार डंडे खाए और जब दर्द से कराहने लगे तब मंच पर आकर रोएगा ?
आप भी जानते हैं कि ऐसा कुछ नहीं है।
रोने के अभिनय के लिए अभिनेताओं की आँखों में ग्लिसरीन डाली जाती है कि आँसू दिखें... उनकी आँखों को कृत्रिम रूप से लाल किया जाता है कि दर्शकों को लगे कि वे रो रहे हैं।
अभिनय भावना से नहीं प्रतिभा, बुद्धि और अभ्यास से होता है। यदि भावना अभिनय का आधार होती तो फिर किसी से भी अभिनय करवाया जा सकता था।
मान लीजिए कि किसी व्यक्ति ने किसी अपने की मृत्यु पर भीषण विलाप किया, बुक्का फाड़ के रोया। अब इसी व्यक्ति से कहा जाय कि मंच पर भी इसी विलाप को दोहरा दे... तो ? उतना स्वाभाविक नहीं कर पाएगा। आपने देखा होगा कि हँसने और जम्हाई लेने का अभिनय करने में अभिनेताओं को नानी याद आ जाती है।
अभिनय का अर्थ है- किसी दृश्य, घटना, कथा-कहानी, संस्मरण, नाट्य, संवाद आदि का भावपूर्ण ऐसा प्रदर्शन जो कि स्वाभाविक लगे और प्रभावशाली हो। यहाँ दो बातें समझने की हैं- एक तो मैंने लिखा कि स्वाभाविक 'लगे', स्वाभाविक 'हो' नहीं बल्कि 'लगे'। दूसरा यह कि अभिनेता का कर्म है दर्शकों को भावुक और प्रभावित करना न कि स्वयं भावुक और प्रभावित होना।
अभिनय पुनरावृत्ति, पुनरावलोकन, पुनर्सृजन आदि होता है न कि किसी वर्तमान में घट रहे किसी भाव का प्रदर्शन। 2. सामान्यत: तकनीकी रूप से भाषा उसे कहते हैं जिसके पास अपनी बोली, अपनी लिपि और अपना व्याकरण हो। वैसे भाषा शब्द बहुत व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता है। विदेशियों के ग्रंथों में भारत की बोली प्राकृत, हिन्दुस्तानी, हिन्दवी, रेख़्ता या हिन्दी के लिए जो शब्द प्रयुक्त हुआ है वह है 'भाषा'। जैसे कि- वहाँ चार लोग बैठे बात कर रहे हैं तो कहा जाता था कि 'एक अरबी बोल रहा है, एक फ़ारसी, एक लॅटिन और एक 'भाषा' बोल रहा है'। याने भाषा शब्द ही भारतीय भाषा का पर्याय था।
हम ब्रजभाषा को भी भाषा कहते हैं जबकि इसके पास अपनी लिपि नहीं है और तो और संस्कृत के पास भी कभी कोई अपनी लिपि नहीं रही। फिर भी हम यही मानते हैं कि मनुष्य चाहे जैसे भी अपने भावों, विचारों, घटनाओं आदि की अभिव्यक्ति करे वह भाषा का ही कोई न कोई रूप है। जैसे इशारों की भाषा, चित्रों की भाषा, शब्द की भाषा। भाषा को भाव के स्थान पर भी प्रयोग किया जाता है जैसे कि 'उसकी भाषा समझ में आ गई... कि वह क्या चाहता है, ये तो उसकी भाषा ही बता रही थी कि वह क्या चाहता है आदि किसी भाषा के लिए नहीं बल्कि किसी के इरादों या मंतव्य का अर्थ रखता है।
हम यहाँ सामान्य अर्थ वाली भाषा की बात करें जो मात्र प्रारम्भिक बोली रही होगी। यह बोली भी किसी घटना, विचार, आदि की अभिव्यक्ति के लिए ही अस्तित्व में आई न कि किसी भाव को प्रकट करने के लिए। भाव प्रकट करने वाली स्थिति को तो हम मात्र ध्वनि ही कहते हैं। जैसे प्रारम्भ की 'हुआ हुआ' जैसे ध्वनियों को निकालने वाला मनुष्य कोई बोली नहीं बोल रहा था बल्कि मात्र ध्वनियों द्वारा संप्रेषण कर रहा था। बोली तो घटना या कहानी के लिए आई। 3. कहानी का अर्थ किसी लिखे हुए या कहे हुए व्याख्यान ही से नहीं है बल्कि सोचे हुए से भी है। कहानी को सोचने के लिए मनुष्य को किसी भाषा की आवश्यकता नहीं होती बल्कि दृश्य ही क्रमबद्ध होते जाते हैं जैसे कि स्वप्न देखने में होता है। स्वप्न तो जानवर भी देखते हैं, जिनके पास कोई व्यवस्थित भाषा नहीं है और न ही वे अभिनय करते हैं।
एक बार फिर सोचें कि पहले क्या ?- कहानी, भाषा या अभिनय ?
15 सितम्बर, 2014
प्रेम करना, नफ़रत करने के मुक़ाबले में कितना आसान है, फिर भी लोग नफ़रत क्यों करते हैं ? समझ में नहीं आता !
15 सितम्बर, 2014
हाइ गाइज़! आज हिन्दी दिवस है। फ़ोट्टीन सॅप्टॅम्बर नाइन्टीन फ़ॉर्टी नाइन को हिन्दी हमारी राजभाषा बनी। ऍन्ड यू नो गाइज़ कि हिन्दी को अभी तक राष्ट्रभाषा अक्सेप्ट नहीं किया गया है। वॉट अ क्रॅप कि हिन्दी इज़ नॉट अवर नॅशनल लॅन्ग्वेज...
वॅल ! स्टिल, हिन्दी हमारी मदर टंग है। जो मॉम बोलती है वही मदर टंग होती है। मैं तो हिन्दी बोलने का ट्राई करता रहता हूँ। हमेशा रिक्शेवाले से, ऑटो वाले से, मॅट्रो वाले से, ईवन लोकल शॉप्स पर हिन्दी बोलता हूँ। ऐसा मुझे मेरे मॉम-डॅड ने बोला है, इससे हिन्दी स्पीकिंग की प्रॅक्टिस होती है।
अभी कल ही मैंने हिन्दी दिवस के ऑकेज़न पर हिन्दी मूवी को भी भी इन्जॉय किया। वॉट अ मूवी बडी, रियली माइंड ब्लोइंग... यू नो वॉट ? द थिंग इज़ कि आइ जस्ट लव हिन्दी मूवीज़। मैंने रिसेन्टली कई हिन्दी मूवीज़ देखी हैं जैसे 'लिसिन अमाया', 'ऍक्सक्यूज़ मी', 'देव डी', 'टारज़न द वंडर कार', फ़ाइन्डिग फ़ॅनी, ऍट सॅटरा-ऍट सॅटरा
होप यू विल ऍन्जॉय हिन्दी दिवस
कॅच यू अराउन्ड लेटर... सी याऽऽऽ... कूऽऽऽल
14 सितम्बर, 2014
प्रशासनिक अधिकारियों और नेताओं को किसी सम्मान समारोह, आध्यात्मिक उत्सव, धार्मिक संत समागम, किसी अल्पसंख्यकों के धार्मिक समारोह में जाने से पहले यह ज़रूर सुनिश्चित करना चाहिए कि प्रायोजक कौन है ? उसकी सत्यनिष्ठा क्या है ? सामान्यत: ऐसा होता नहीं है।
नेताओं और अधिकारियों का फ़ोकस तो ऐसे कार्यक्रम की भव्यता पर होता है, इसके नेपथ्य में सक्रिय असामाजिक कृत्य करने वाले आयोजक की सत्यनिष्ठा की जाँच करने पर नहीं।
ज़रा सोचिए कि कोई सामान्य व्यक्ति, जिसने ईमानदारी से अपना जीवनयापन किया हो और मध्यवर्गीय समस्याओं से लड़कर अपने अस्तित्व और प्रगति के लिए संघर्षरत रहा हो, वह लाखों-करोड़ो के ख़र्च के ऐसे आयोजन कैसे करवा सकता है।
ऐसी कुत्सित कमाई से कमाए गए पैसे से किए गए आयोजनों में हिस्सा लेने वाले नेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों को जनता क्या कहती और मानती है यह सब को मालूम है... लेकिन यह फिर भी हो रहा है...
12 सितम्बर, 2014
एक मित्र ने कुछ प्रश्न पूछे हैं। जिनका संक्षिप्त उत्तर दे रहा हूँ। प्रश्न:
1. हम अपनी असल समस्याओं को कैसे पहचानें ?
2. हम अपनी मूल प्रकृति, कमज़ोरियों और क्षमताओं को कैसे पहचानें ? कमज़ोरियों का निराकरण कैसे करें और क्षमताओं से लाभ कैसे कमाएँ ?
3. हम स्वस्थ कैसे रहें ? स्वास्थ्य का/के नैसर्गिक नियम क्या है/हैं ?
4. हम समृद्ध कैसे बनें ?
5. हम हमेशा सुखी और आनन्दित कैसे रहें ? उत्तर:
1. समस्याएँ केवल वे होती हैं जिनका समाधान होता है। जिनका समाधान नहीं है वे समस्याएँ भी नहीं हैं। यहाँ समझने वाली बात यह है कि हम, अक्सर उन समस्याओं को लेकर चिंतित रहते हैं जिनके समाधान नहीं होते जबकि वे समस्या हैं ही नहीं, जैसे एक उदाहरण-
'कोई शारीरिक कमी'
अमिताभ बच्चन ने अपनी अधिक लम्बाई को ही अपना गुण साबित कर दिया तो राजपाल यादव ने कम लम्बाई को ही भुनाया।
2. (क) अपनी मूल प्रकृति को समझने के लिए किसी भी मनुष्य के निकट रहने वाले जानवरों को देखें, लगभग वही हमारी मूल प्रकृति है, उनसे अपनी समानता और भिन्नता को देख-समझ पाना ही अपनी प्रकृति का विश्लेषण है। ... बाक़ी तो हम सब सभ्यता, संस्कृति, बुद्धि और विवेक का सम्मिलित परिणाम हैं।
(ख) अपनी कमज़ोरियों का निराकरण करने के लिए हमको उनका आभारी और अनुग्रहीत होना चाहिए जो कि हमारी किसी कमी को हमें बताएँ। हमको कभी भी अपनी किसी कमी की ओर ध्यान दिलाए जाने पर, बचाव मुद्रा में नहीं आ जाना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से हम मूर्ख ही साबित होते हैं और कभी भी अपनी कमी को ठीक करने में सक्षम नहीं हो पाते।
(ग) क्षमताएँ कर्म करने के लिए होती हैं, लाभ तो अपने आप हो जाता है। सुकर्म करें तो लाभ होना तो अनिवार्य है।
3. स्वास्थ्य का कोई नैसर्गिक नियम नहीं है बल्कि हमारा नैसर्गिक (प्राकृतिक) हो जाना ही स्वास्थ्य है। यही स्वस्थ रहने का नियम है।
4. समृद्ध होने का अर्थ है जो आपने चाहा वह आपको मिला। यदि धन-संपत्ति की समृद्धि की बात कर रहें हैं तो इसका उत्तर मैं कैसे दे सकता हूँ? इसके लिए कोई उचित व्यक्ति तलाशें। हाँ बाक़ी सभी समृद्धियों के बारे में, मैं बता सकता हूँ।
5. हमेशा आनंदित रहा जा सकता है, सुखी नहीं। सुख तो अपने साथ दु:ख का संतुलन रखता है। आनंदित रहने का एक ही उपाय है सहज रहना। सुख-दु:ख, लाभ-हानि, प्राप्ति-प्रतीक्षा, आदि में सहज रहना। सहज व्यक्ति ही आनंदित रह सकता है। ध्यान दीजिए, संतोषी होना सहज होना नहीं है। सहज भाव से संघर्षरत रहने से आनंद होता है।
अभी इतना ही... विस्तार से फिर कभी...
12 सितम्बर, 2014
मैं जो कुछ भी, काला-पीला और आड़ा-टेड़ा, फ़ेसबुक पर लिख देता हूँ, उससे ही प्रभावित होकर मेरे एक मित्र मुझसे मिलने मेरे घर आए। मैं आश्चर्यचकित रह गया, इनकी अकादमिक योग्यता सुनकर। ऍम॰ऍस॰सी, ऍम॰बी॰ए, दो बार पीऍच॰डी। 41 किताबों का लेखन। किताबों के विषय- गणित, भौतिकी और अर्थशास्त्र।
मुझे लगा कि कोई चलता-फिरता विश्वविद्यालय मुझसे मिलने आया है। ज़रा सोचिए कि मैं बेचारा रो पीट कर बी॰ए पास करने वाला ठेठ जाट किस तरह ऐसे व्यक्ति का सामना कर पाया हूँगा...?
मैंने घबराहट की वजह से उनको यह भी नहीं बताया कि गणित और भौतिकी, मेरा प्रिय विषय रहा है। डर के मारे कि कहीं कुछ इन विषयों पर मुझसे कुछ पूछ न लें...
उनसे मिलकर मुझे अपने हाइस्कूल के दिन याद आ गए...
असल में मैं अपनी ज़िन्दगी में वास्तविक रूप से सिर्फ़ दो साल के लिए ही अकादमिक शिक्षा से जुड़ा हूँ। वो भी हाइस्कूल याने दसवीं में, बाक़ी तो परिवार वालों ने ठोक-पीट कर बी॰ए करने पर मजबूर कर दिया।
एक बार मैं ज्यामिती की एक निर्मेय हल नहीं कर पाया तो मैंने अपने अध्यापक से कहा कि यह निर्मेय ही ग़लत है। अध्यापक ने मुझे डाँटा और ख़ुद उसको हल करने में लग गए। जब हल नहीं हुई तो बोले कि अगले दिन बताएंगे। अगले दिन बताया कि वास्तव में किताब में ही ग़लत छपा है। इसके बाद मैं उनका प्रिय छात्र हो गया।
हाइस्कूल में भौतिकी की कक्षा में मैंने एक बार पूछ लिया कि प्रकाश की किरण जब किसी अन्य माध्यम में प्रवेश करती है तो अपने पथ से विचलित क्यों हो जाती है...
अध्यापक बोले कि विज्ञान के पास 'कैसे' का उत्तर है 'क्यों' का नहीं...
बस यही मेरे लिए चुनौती बन गया। मुझे तो 'क्यों' का उत्तर चाहिए था। मैं कई दिनों तक प्रकाश की गति पर सोचता रहा। घर का एक कमरा प्रयोगशाला जैसा हो गया। रासायनिक प्रयोगशाला के बनाने के चक्कर में ऍसिटलीन का प्लांट घर में पहले ही फट चुका था, अब बारी थी भौतिकी के बवाल की...
प्रकाश की गति का नियम-
v = nλ में प्रकाश की गति उसकी तरंदैर्ध्य की लम्बाई के अनुपात में निर्भर है। जितनी अधिक गति उतनी ही बड़ी तरंग दैर्ध्य। लेकिन आवृति एक अपरिवर्तनीय रहती है। मैंने साधारण से प्रयोग से यह सिद्ध कर दिया कि तरंग दैर्ध्य किस कारण से अपने पथ से विचलित होती है और क्यों का जवाब मिल गया।
मैं बहुत ज़िद्दी हुआ करता था विशेषकर ईमानदारी को लेकर (थोड़ा-बहुत अब भी बचा हूँ)। मुझे पता था कि हाइस्कूल में, मुझे गणित में 100 में से 100 अंक मिलेंगे क्योंकि यह मेरा प्रिय विषय था, लेकिन ऐसा हुआ नहीं... मेरे 6 अंक कम रह गए।
इसका कारण भी मेरी मूर्खता का ज़बर्दस्त नमूना है। परीक्षा कक्ष में मेरे पास बैठे मेरे मित्र ने बहुत बताया कि मैंने एक प्रश्न का उत्तर ग़लत लिख दिया है (असल में वो मेरी नक़ल कर रहा था और संयोग से उसे इस एक ही 6 अंक के प्रश्न का उत्तर उसे सही मालूम था)
मैंने उसके कहने पे अपना उत्तर काट कर उसका बताया हुआ सही उत्तर लिख दिया। परीक्षा का समय लगभग समाप्त हो चुका था लेकिन मेरे मन और दिमाग़ में जैसे कीलें चुभ रही थीं...
मैं जानते बूझते हुए कि मेरा जवाब ग़लत है, उसका बताया हुआ सही जवाब काटके वापस ग़लत जवाब लिख दिया और भारी मन से बाहर आ गया। मेरे 6 अंक कट गए मुझे 100 में से 100 की बजाय 94 अंक ही मिले।
इसके बाद मैंने पढ़ाई छोड़ दी, उसका कारण यह था कि हमारे कॉलेज में जहाँ सबसे ज़्यादा अंक मेरे आने चाहिए थे वह मेरे न आकर एक दूसरे लड़के के अाए जिसे अध्यापकों ने जम के नक़ल कराई थी क्यों कि वह एक अध्यापक का रिश्तेदार था।
मुझे सरकार से छात्रवृत्ति भी मिली लेकिन मेरा मन पढ़ाई से उचट गया।
लेकिन बाद में अपनी रुचि के कारण क्वांटम फ़िज़िक्स से लेकर हॉकिंग की समय-व्याख्या तक काफ़ी पढ़ लिया।
12 सितम्बर, 2014
बुढ़ापे में, बुढ़ापा कम और जवानी ज़्यादा परेशान करती है...
4 सितम्बर, 2014
कोई भी 'आज' ऐसा नहीं होता जिसका कोई 'कल' न हो, चाहे तो गुज़रा हुआ या फिर आने वाला...
लेकिन 'ऐसे आज' की तलाश हरदम रहती है।
न जाने क्यों? यह जानते हुए भी कि 'कल' के बिना 'आज' हो ही नहीं सकता...
लोग कहते हैं 'आज' में जीओ... वर्तमान में जीओ...
कोई जी पाया है क्या?
कहने का क्या है न जाने क्या क्या कहा जाता है...
जो जितना बड़ा झूठ बोले वह उतना ही दिव्य, भव्य और स्थापित है, धर्म, मान्यता और आस्था के क्षेत्र में...
जो सच बोला वह संत कबीर की तरसा है... ज़िन्दगी में सुख सुविधा के लिए और मरने के बाद अनुयायियों के लिए...
जिन्होंने सुपर-डुपर झूठ बोला उन्होंने मौज की... किसी ने तो जीते जी और किसी के अनुयायियों ने...
बहुत कुछ कहने की कोशिश की है मैंने ऊपर की पंक्तियों में, विस्तार में कहूँगा तो बोलेंगे कि बोलता है... -आदित्य चौधरी