"आदित्य चौधरी -फ़ेसबुक पोस्ट": अवतरणों में अंतर

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     दुनिया में भाषण देने के और विभिन्न सदनों में बोलने के तमाम कीर्तिमान हैं। क्यूबा (कुबा) के पूर्व शासक फ़िदेल कास्रो का संयुक्त राष्ट्र संघ में 4 घंटे 29 मिनट लगातार भाषण देने का कीर्तिमान है, जो गिनेस बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में भी दर्ज है। कास्त्रो का एक कीर्तिमान क्यूबा की राजधानी हवाना में 7 घंटे 10 मिनट का भी है। अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति जॉन कॅनेडी ने दिसम्बर1961 में जो भाषण दिया था उसमें 300 शब्द प्रति मिनट से भी तेज़ गति थी। 300 शब्द प्रति मिनट की गति से भाषण दे पाना बहुत ही कम लोगों के वश में है, कॅनेडी ने इस वक्तव्य में कभी-कभी 350 शब्द तक की गति भी छू ली थी।
     घर में मेरा बचपन था और एक पॅट्रोमॅक्स भी था। जिसे सही तरह से जलाना मैंने सीख लिया था। हर बार जल्दी से जल्दी सही तरह से पॅट्रोमॅक्स जलाने की ज़िम्मेदारी मेरी हुआ करती थी। फंणीश्वरनाथ रेणु की कहानी पंचलाइट के गोधन का सा हाल समझिए कुछ-कुछ...
    कैसे बोल लेते हैं लोग इतने देर तक, इतनी तेज़ गति से और इतना प्रभावशाली ? सीधी सी बात है अगर आपके पास कुछ 'कहने' को है तो आप बोल सकते हैं। यदि कुछ कहने को नहीं है तो बोलना तो क्या मंच पर खड़ा होना भी मुश्किल है। दुनिया में तमाम तरह के फ़ोबिया (डर) हैं जिनमें से सबसे बड़ा फ़ोबिया भाषण देना है, इसे ग्लोसोफ़ोबिया (Glossophobia) कहते हैं। यूनानी (ग्रीक) भाषा में जीभ को 'ग्लोसा' कहते हैं इसलिए इसका नाम भी ग्लोसोफ़ोबिया है।
बिजली के जाते ही हल्ला होता था कि 'भैया कहाँ है... भैया कहाँ है...?'।
     भारतीय संसद में अनेक प्रभावशाली संबोधन होते रहे हैं। एक समय में संसद में प्रकाशवीर शास्त्री धारा-प्रवाह बोला करते थे। संसद से बाहर (संसद बनी भी नहीं थी तब तक) लोकमान्य तिलक, सुभाष चंद्र बोस, स्वामी विवेकानंद जैसे कितने ही नाम हैं जो महान वक्ताओं की श्रेणी में आते हैं। आजकल प्रभावी वक्ताओं की संख्या में कमी आ गई है। क्या लगता है कि उनके पास बोलने को कुछ नहीं है या फिर सुनने वाले उकता गए हैं ? अटल बिहारी वाजपेयी और सोमनाथ चटर्जी के बाद कौन सा ऐसा नाम है जिसे हम संसद के प्रभावशाली सदस्य के रूप में याद रखेंगे ?
    घरेलू नौकर तो कई थे लेकिन 'गॅस की लालटेन' को सही तरह से जलाना मुझे ही आता था। दूसरे जलाते तो कभी फिलामेन्ट (फ़्लामेंट) फट जाता तो कभी बहुत ज़्यादा ज़ोर से आग के बढ़ जाने से काँच ही टूट जाते। मैं बाक़ायदा स्प्रिट का इस्तेमाल करके उसे बड़े सलीक़े से जलाता था।
दीये, लालटेन, कुल्लड़ वग़ैरा... ऐसी बहुत सी चीज़े थीं जो ज़िन्दगी से जुड़ी थीं। जिनमें एक थी 'जमना जी' (यमुना नदी)। पिताजी जीप में भरकर हम बच्चों को गर्मियों की छुट्टियों में जमना निलहाने (नहलाने) ले जाते थे और वहाँ पहुँच कर हमें तरह-तरह के निर्देश दिए जाते थे। जैसे कि कछुओं से बचने के लिए पानी को हाथ से छप-छप करते रहना, नदी में आगे जाने में बड़ा बच्चा आगे चलेगा, कोई भी किसान से पूछे बिना तरबूज़ नहीं तोड़ेगा आदि-आदि। गर्मियों में पानी कम रहता था...
    जीप, रेत पर किनारे खड़ी कर दी जाती और हम बच्चे यमुना को देखते ही जीप में ही कपड़े उतारना शुरू कर देते और जीप से कूद कर नदी की तरफ़ भाग लेते। बालू, रेत, तरबूज़ की बाड़ी और सरकंडों की झाड़ी...।
यमुना का पानी निर्मल जल हुआ करता था और झर-झर बहता था उसमें हम नौनिहाल किलोल किया करते थे।
    एक बार मैं अकेला ही नदी में अंदर तक चला गया... पानी बहुत गहरा था अचानक से एक गड्ढे जैसे में गुड़ुम्म से डूब गया। मुझे लगा कि भीमसेन की तरह पाताल लोक में चला गया.... लेकिन मुझे तैरना बचपन से ही आता था तो हाथ-पैर चला कर ऊपर आ गया लेकिन नाक में पानी भर गया था। बहुत देर तक चुपचाप किनारे पर बैठा रहा। किसी को बताया नहीं और किसी को पता भी नहीं चला। थोड़ी देर बाद तरबूज़ आ गया। उस वक़्त हम इसे 'तरबूजा' कहते थे। तरबूज़ मेरे लिए हमेशा चुनौती रहा। एक तो ये पता करना असंभव होता था कि कौन सा अंदर से लाल और मीठा निकलेगा दूसरा ये कि बाड़ी वाले किसान को ये बात कैसे पता चलती थी। ख़ैर तरबूज़ खाने में ये कम्पटीशन ज़रूर होता था कि बीज को कौन कितनी दूर तक फेंक सकता है। अब ध्यान तरबूज़ खाने पर कम और मुँह से बीज को दूर तक फेंकने में ज़्यादा रहता था।
    जब में साइकिल चलाना सीख गया तो मैंने कई दु:साहसिक क़दम उठाए जैसे कि तरबूज़ की ख़रीदारी...। मंडी हमारे घर से पास ही थी। मैंने एक बड़ा सा गोल तरबूज़ ख़रीदा और साइकिल के कॅरियर पर पीछे बाँध लिया। अब साइकिल चलाना अपने आप में एक सरकस था। साइकिल थी कि संभलती ही नहीं थी। ऐसा लगता था कि मैं नहीं बल्कि तरबूज़ साइकिल को कंट्रोल कर रहा है। जैसे-तैसे घर पहुँचा, तरबूज़ काटा तो सफ़ेद निकला... अम्माजी ने समझाया कि 'टांकी' लगवा के देख लिया कर कि कैसा है ! चल छोड़ इसे गंगा खा लेगी। गंगा हमारी गाय का नाम था।
     साइकिल से जुड़ाव होना बचपन की सहज प्रक्रिया होती है लेकिन साइकिल को खाट (चारपाई) के सिरहाने रखकर सोना मेरी बहुत बड़ी ख़ुशी रही। क्या आनंद आता था सोने में... खाट के सिरहाने साइकिल और तकिये के बग़ल में अपने नये जूते। एक वक़्त में 'बाटा' की भूमिका ज़िन्दगी में फ़ेसबुक और वॉट्स ऍप से ज़्यादा हुआ करती थी। जब भी बाटा के नए काले बूट मिलते मैं कई दिन तक उन्हें सिरहाने रखकर सोता...
    साइकिल की ओवरहॉलिंग मेरे पसंदीदा कामों में से एक हुआ करता था। रीम की लहक निकालना, तानों का जाल कसना सब सीख लिया था, पिताजी ने सिखाया। ये सब तो सीखा लेकिन एक खेल मैं कभी नहीं खेल पाया, वो था साइकिल के टायर या रीम को लकड़ी से चलाते हुए खेतों की पगडंडी पर भागते चला जाना। जब कभी पिताजी-अम्माजी के साथ गाँवों में जाता तो साथ के बच्चों को पहिया घुमाते हुए भागते देखता तो ईर्ष्या और आश्चर्य से भर जाता। कई बार कोशिश की लेकिन ज़्यादा दूर तक नहीं ले जा पाता था।
एक बार एक लड़की को भी पहिया भगाते देखा तो शर्म से मर ही गया... आज भी मैं पहिया नहीं चला पाता...
- बाक़ी फिर कभी...
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| 29 अक्टूबर, 2014
| 6 नवम्बर, 2014
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    अधिकतर स्त्रियों का विचार अपनी बेटी के बारे में तो यह रहता है कि 'जो मुझे नहीं मिल पाया, वह मेरी बेटी को मिलना चाहिए लेकिन बहू के बारे में सोच दूसरी ही रहती है कि 'जो मुझे नहीं मिला वह मेरी बहू को कैसे मिलने दूँगी !'। सास बहुओं के विवाद के विषय को लेकर फ़िल्में बनती हैं, धारावाहिक बनते हैं।
कल उसे मुर्ग़ा बनाया था, भरे दरबार में
    कहते हैं ज़माना बदल गया... बदल तो गया लेकिन ज़रा मध्यवर्गीय परिवारों के हालात देखिये तो कुछ भी नहीं बदला... वही है सब-कुछ... बहुओं की ज़िन्दगी घूँघट से शुरू होकर मरघट तक ख़त्म होने के बीच में कब-कहाँ उसका व्यक्तिगत जीवन होता है ये पता लगाना मुश्किल है।
आज बत्तीसी दिखाता चित्र है, अख़बार में
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| 29 अक्टूबर, 2014
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    उत्तर भारत में, विशेषकर उत्तरप्रदेश में दो गालियों का प्रचलन रहा है, एक तो है 'बेटी के बाप' और दूसरी है 'भांजी के मामा।
    ज़रा सोचिए इस निकृष्ट मानसिकता के बारे में जहाँ इस प्रकार की गालियाँ चलती रही हैं और कहीं-कहीं अब भी चल रही हैं। बेटी का बाप होना या मामा होना गाली क्यों है।
    किसी के बेटी पैदा होना क्या इतना बुरा है ? इसका सबसे बड़ा कारण है 'दहेज़ प्रथा' और दहेज़ प्रथा का मुख्य कारण है लड़कियों का आत्म निर्भर न होना।
    हम अक्सर देखते हैं कि लड़के वालों की ओर से घरेलू लड़की की मांग होती है। बड़ी अजीब बात है कि लड़की पढ़ी-लिखी भी होनी चाहिए और आधुनिक भी लेकिन कोई नौकरी या व्यापार न करे केवल घर की शोभा ही बनी रहे।
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| 29 अक्टूबर, 2014
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    सफलता पाने के लिए प्रयास करना, संघर्ष करना और उसका आनंद लेने के सपने देखना तो चलता ही रहता है किंतु यह आनंद उन्हीं के हिस्से आता है जो सफलता प्राप्ति के संघर्ष में सफलता को स्थाई रखना भी सीख जाते हैं...
    हाँ-हाँ बाबा मैं भी जानता हूँ कि सफलता स्थाई नहीं होती लेकिन किसी न किसी स्वरूप में बनी अवश्य रह सकती है यदि सफलता को संभालने का अनुभव हासिल कर लिया हो। यह अनुभव सफल व्यक्तियों के आचार-व्यवहार का अध्ययन करके ही होता है।
    सबसे मज़ेदार बात यह है कि सफलता प्राप्ति का लम्बा संघर्ष उस प्राप्त होने वाली सफलता को स्थाई रख पाने का शिक्षक होता है।
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| 29 अक्टूबर, 2014
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    कभी सब कुछ अच्छा होता है तब भी मन उदास होता है और कभी सब कुछ विपरीत होने पर भी मन में उल्लास रहता है।
ऐसा क्यों होता है?
    कारण है कि विपरीत स्थिति में चुनौती सामने होती है और जब सब कुछ पक्ष में होता है तो चुनौती का अभाव ही मन को उदास कर देता है। जीवन में चुनौती की भूमिका एक टॉनिक की तरह है। जो मिलता रहे तो जीवन, जीवन है और सब कुछ जीवंत। -आदित्य चौधरी
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| 29 अक्टूबर, 2014
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    युद्ध, चुनाव, स्पर्धा में लक्ष्य केवल जीत होता है। इस जीत को हासिल करने की शर्त होती है, सब कुछ दांव पर लगाना। कहते भी हैं कि जीतने के लिए कोई भी क़ीमत चुकानी पड़े, जीत हमेशा सस्ती होती है। इसका सीधा-सीधा अर्थ है कि जीत हासिल करने के लिए कुछ भी गंवाना पड़े वह जायज़ है।
    कुछ ऐसा ही हम अपने बच्चों को सिखा रहे हैं। इसके साथ-साथ हमें यह भी चिंता रहती है कि हमारे बच्चे सहृदय बनें, बुढ़ापे में हमारे साथ दें... यह कैसे मुमकिन है जब कि उनकी ट्रेनिंग ही बिल्कुल अलग तरह से हो रही है। जिसके मूल में पैसा है और हम अपने बच्चों को पैसा बनाने की मशीन बनाने के अलावा और कर क्या कर रहे हैं... - आदित्य चौधरी
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| 29 अक्टूबर, 2014
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एक ज़माना था
जब बचपन में
तू मां-बाप के लिए
तोतली ज़बान था


लेकिन अब
    ज़ोर से दुम को हिलाना सीख लें, काम आएगी
तू मां-बाप के लिए
    ये कला बेजोड़ है, हर एक कारोबार में
मार्कशीट है
तेरे नम्बर ही
उनकी हार्टबीट है


एक ज़माना था
नाक को भी काटकर रख लें, छुपाकर जेब में
जब अस्पताल में
ज़िन्दगी का फ़लसफा है, नाक के आकार में
तू मरीज़ था
तू ही डॉक्टर का
अज़ीज़ था


लेकिन अब
    रुक गया ट्रॅफ़िक, संभल के सांस को भी रोक लो
तू मात्र एक बिल है
    उनका कुत्ता सो रहा, लम्बी सी काली कार में
तुझसे क़ीमती तो
तेरी किडनी है
दिल है
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एक ज़माना था
जब बहन-बेटियों से
गाँव आबाद था
और उनका पति
गाँव भर का
दामाद था


लेकिन अब
अब झुका लो गर्दनें वरना कटेंगी खच्च से
वो मात्र लड़की है
बहुत सारे जोखिमों का रिस्क है दीदार में
उसकी पढ़ाई
और शादी न होना
गाँव की शर्म नहीं
उसके मां-बाप की
कड़की है


एक ज़माना था
    कौन से सपने सुनहरे देखते रहते हो तुम
जब तेरा काम
    अनगिनत हैं, जिनको चुनवाया गया दीवार में
दफ़्तर की ज़िम्मेदारी था
बाबू तेरी चाय पीकर ही
आभारी था


लेकिन अब
जाने कब होगा सवेरा ? मौन क़ब्रस्तान का
तू अफ़सर की
इस तरह की बात मत करना यहाँ बेकार में
फ़ाइल है
और वो अब
जनता का नहीं
पैसे का काइल है
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एक ज़माना था
जब तेरे खेत में
सिर्फ़ तेरी दख़ल थी
देश का मतलब ही
तेरे खेत की फ़सल थी
 
लेकिन अब तू
बिना खेत का
किसान है
तेरा खेत तो
सीमेंट का जंगल है
जिसमें तुझे छोड़
सबका मकान है
 
एक ज़माना था
जब अज़ान से
तेरी सुबह
और आरती से
शाम थी
भारत के नाम से ही
पहचान तमाम थी
 
लेकिन अब
तू सिख, ईसाई, हिन्दू
या मुसलमान है
तेरे लिए
अब देश नहीं
तेरा मज़हब ही
महान है
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| 17 अक्टूबर, 2014
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    यदि आप चाहते हैं कि लोग आपको सराहें तो आपको अपने 'सुभीता स्तर' (Comfort level) की तरफ़ ध्यान देना चाहिए। याने आपकी मौजूदगी में लोग कितना सहज महसूस करते हैं। जो लोग आपके सहकर्मी, मित्र, परिवारी जन आदि हैं उन्हें आपकी उपस्थिति में कितनी सहजता महसूस होती है।
    सदा स्मरण रखने योग्य बात यह है कि आप योग्य कितने हैं यह बात महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि आपका सुभीता स्तर कितना है, महत्वपूर्ण है।
    संपूर्ण सफल व्यक्तित्व का रहस्य बुद्धि, प्रतिभा या योग्यता में ही छुपा नहीं है बल्कि 'सुभीता स्तर' (Comfort level) इसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। -आदित्य चौधरी
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|  [[चित्र:Yahan-bekar-me-aditya-chaudhary.jpg|250px|center]]
| 15 अक्टूबर, 2014
| 2 नवम्बर, 2014
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07:40, 8 नवम्बर 2014 का अवतरण

आदित्य चौधरी फ़ेसबुक पोस्ट
पोस्ट संबंधित चित्र दिनांक

     घर में मेरा बचपन था और एक पॅट्रोमॅक्स भी था। जिसे सही तरह से जलाना मैंने सीख लिया था। हर बार जल्दी से जल्दी सही तरह से पॅट्रोमॅक्स जलाने की ज़िम्मेदारी मेरी हुआ करती थी। फंणीश्वरनाथ रेणु की कहानी पंचलाइट के गोधन का सा हाल समझिए कुछ-कुछ...
बिजली के जाते ही हल्ला होता था कि 'भैया कहाँ है... भैया कहाँ है...?'।
     घरेलू नौकर तो कई थे लेकिन 'गॅस की लालटेन' को सही तरह से जलाना मुझे ही आता था। दूसरे जलाते तो कभी फिलामेन्ट (फ़्लामेंट) फट जाता तो कभी बहुत ज़्यादा ज़ोर से आग के बढ़ जाने से काँच ही टूट जाते। मैं बाक़ायदा स्प्रिट का इस्तेमाल करके उसे बड़े सलीक़े से जलाता था।
दीये, लालटेन, कुल्लड़ वग़ैरा... ऐसी बहुत सी चीज़े थीं जो ज़िन्दगी से जुड़ी थीं। जिनमें एक थी 'जमना जी' (यमुना नदी)। पिताजी जीप में भरकर हम बच्चों को गर्मियों की छुट्टियों में जमना निलहाने (नहलाने) ले जाते थे और वहाँ पहुँच कर हमें तरह-तरह के निर्देश दिए जाते थे। जैसे कि कछुओं से बचने के लिए पानी को हाथ से छप-छप करते रहना, नदी में आगे जाने में बड़ा बच्चा आगे चलेगा, कोई भी किसान से पूछे बिना तरबूज़ नहीं तोड़ेगा आदि-आदि। गर्मियों में पानी कम रहता था...
     जीप, रेत पर किनारे खड़ी कर दी जाती और हम बच्चे यमुना को देखते ही जीप में ही कपड़े उतारना शुरू कर देते और जीप से कूद कर नदी की तरफ़ भाग लेते। बालू, रेत, तरबूज़ की बाड़ी और सरकंडों की झाड़ी...।
यमुना का पानी निर्मल जल हुआ करता था और झर-झर बहता था उसमें हम नौनिहाल किलोल किया करते थे।
     एक बार मैं अकेला ही नदी में अंदर तक चला गया... पानी बहुत गहरा था अचानक से एक गड्ढे जैसे में गुड़ुम्म से डूब गया। मुझे लगा कि भीमसेन की तरह पाताल लोक में चला गया.... लेकिन मुझे तैरना बचपन से ही आता था तो हाथ-पैर चला कर ऊपर आ गया लेकिन नाक में पानी भर गया था। बहुत देर तक चुपचाप किनारे पर बैठा रहा। किसी को बताया नहीं और किसी को पता भी नहीं चला। थोड़ी देर बाद तरबूज़ आ गया। उस वक़्त हम इसे 'तरबूजा' कहते थे। तरबूज़ मेरे लिए हमेशा चुनौती रहा। एक तो ये पता करना असंभव होता था कि कौन सा अंदर से लाल और मीठा निकलेगा दूसरा ये कि बाड़ी वाले किसान को ये बात कैसे पता चलती थी। ख़ैर तरबूज़ खाने में ये कम्पटीशन ज़रूर होता था कि बीज को कौन कितनी दूर तक फेंक सकता है। अब ध्यान तरबूज़ खाने पर कम और मुँह से बीज को दूर तक फेंकने में ज़्यादा रहता था।
     जब में साइकिल चलाना सीख गया तो मैंने कई दु:साहसिक क़दम उठाए जैसे कि तरबूज़ की ख़रीदारी...। मंडी हमारे घर से पास ही थी। मैंने एक बड़ा सा गोल तरबूज़ ख़रीदा और साइकिल के कॅरियर पर पीछे बाँध लिया। अब साइकिल चलाना अपने आप में एक सरकस था। साइकिल थी कि संभलती ही नहीं थी। ऐसा लगता था कि मैं नहीं बल्कि तरबूज़ साइकिल को कंट्रोल कर रहा है। जैसे-तैसे घर पहुँचा, तरबूज़ काटा तो सफ़ेद निकला... अम्माजी ने समझाया कि 'टांकी' लगवा के देख लिया कर कि कैसा है ! चल छोड़ इसे गंगा खा लेगी। गंगा हमारी गाय का नाम था।
     साइकिल से जुड़ाव होना बचपन की सहज प्रक्रिया होती है लेकिन साइकिल को खाट (चारपाई) के सिरहाने रखकर सोना मेरी बहुत बड़ी ख़ुशी रही। क्या आनंद आता था सोने में... खाट के सिरहाने साइकिल और तकिये के बग़ल में अपने नये जूते। एक वक़्त में 'बाटा' की भूमिका ज़िन्दगी में फ़ेसबुक और वॉट्स ऍप से ज़्यादा हुआ करती थी। जब भी बाटा के नए काले बूट मिलते मैं कई दिन तक उन्हें सिरहाने रखकर सोता...
     साइकिल की ओवरहॉलिंग मेरे पसंदीदा कामों में से एक हुआ करता था। रीम की लहक निकालना, तानों का जाल कसना सब सीख लिया था, पिताजी ने सिखाया। ये सब तो सीखा लेकिन एक खेल मैं कभी नहीं खेल पाया, वो था साइकिल के टायर या रीम को लकड़ी से चलाते हुए खेतों की पगडंडी पर भागते चला जाना। जब कभी पिताजी-अम्माजी के साथ गाँवों में जाता तो साथ के बच्चों को पहिया घुमाते हुए भागते देखता तो ईर्ष्या और आश्चर्य से भर जाता। कई बार कोशिश की लेकिन ज़्यादा दूर तक नहीं ले जा पाता था।
एक बार एक लड़की को भी पहिया भगाते देखा तो शर्म से मर ही गया... आज भी मैं पहिया नहीं चला पाता...
- बाक़ी फिर कभी...

6 नवम्बर, 2014

कल उसे मुर्ग़ा बनाया था, भरे दरबार में
आज बत्तीसी दिखाता चित्र है, अख़बार में

     ज़ोर से दुम को हिलाना सीख लें, काम आएगी
     ये कला बेजोड़ है, हर एक कारोबार में

नाक को भी काटकर रख लें, छुपाकर जेब में
ज़िन्दगी का फ़लसफा है, नाक के आकार में

     रुक गया ट्रॅफ़िक, संभल के सांस को भी रोक लो
     उनका कुत्ता सो रहा, लम्बी सी काली कार में

अब झुका लो गर्दनें वरना कटेंगी खच्च से
बहुत सारे जोखिमों का रिस्क है दीदार में

     कौन से सपने सुनहरे देखते रहते हो तुम
     अनगिनत हैं, जिनको चुनवाया गया दीवार में

जाने कब होगा सवेरा ? मौन क़ब्रस्तान का
इस तरह की बात मत करना यहाँ बेकार में

2 नवम्बर, 2014

शब्दार्थ

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