"आदित्य चौधरी -फ़ेसबुक पोस्ट": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
No edit summary
No edit summary
पंक्ति 5: पंक्ति 5:
|
|
{| width=100% class="bharattable"
{| width=100% class="bharattable"
|-
! style="width:60%;"| पोस्ट
! style="width:25%;"| संबंधित चित्र
! style="width:15%;"| दिनांक
|-
|-
|  
|
<poem>
; दिनांक- 5 फरवरी, 2017
भारत-पाकिस्तान की दुश्मनी को लेकर काफ़ी लिखा और बोला जा रहा है। सर्जिकल स्ट्राइक के बाद पूरे भारत में एक जोश और संतुष्टि का माहौल बना है। इस कार्यवाही के बाद पाकिस्तान लगभग चुप है, जिसका कारण है कि इस सर्जिकल स्ट्राइक को अंतरराष्ट्रीय नियमों और क़ानून के मुताबिक़ हॉट पर्सुइट (Hot pursuit) की मान्यता प्राप्त होना।
संस्कार, मान्यताएँ और आस्था एक बार बन जाती हैं तो उनका टूटना बहुत मुश्किल होता है और कभी-कभी तो नामुमकिन। ये हमारी आदत भी बन जाती हैं और जब भी हम इनसे दूर हटने की कोशिश करते हैं, हमको अटपटा सा महसूस होता है।
हॉट पर्सुइट याने ‘किसी आधिकारिक सशस्त्र दल (जैसे सेना या पुलिस) द्वारा अपराधियों का अपराध करते ही त्वरित पीछा करना। इस पीछा करने और अपराधियों के ख़िलाफ़ कार्यवाही करने में देश या राज्य की सीमा पार कर जाने को अंतरराष्ट्री सीमा उल्लंघन नहीं माना जाता है। इसमें सामान्य रूप से किसी स्वीकृति या सूचना की भी आवश्यकता नहीं होती और इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त है।
 
इस मुद्दे पर कुछ विवाद भी सामने आए हैं। जिनमें से एक मुद्दा है नदियों के पानी का। विश्व भर में जलसंधियों के आधार पर नदियों के जल का बँटवारा होता है। जिसे भंग नहीं किया जा सकता, लेकिन अब ऐसा होना मुमकिन है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्सटाइन ने कहा था कि भविष्य में युद्धों के कारण जल-विवाद ही होंगे। अब यह सामने आने लगा है। नदियों के पानी बंटवारे का विवाद हमारे देश में राज्यों के आपसी विवाद का कारण भी है। जैसे फ़िलहाल में कावेरी का विवाद।
मेरे बचपन से ही हमारे घर पर प्रत्येक शनिवार को एक पंडित जी आते थे। जिन्हें कटोरी में सरसों का तेल एक लोहे की कील और सिक्का डालकर दिया जाता था। उस कटोरी में हम सब अपना चेहरा भी देखा करते थे। पंडित जी बहुत भले और सरल स्वभाव के थे। “चौधरी साहब के आनंद हों बहना, पौत्र ख़ुश रहें” पंडित जी की यह आवाज़ आज भी मेरे कानों में गूंजती है। उनका क़द ऊँचा था (कुछ बचपन की वजह से लगता भी था) छरहरा बदन था और गांधी टोपी पहनते थे।
एक बात हमें अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि चीन और पाकिस्तान से चाहे रिश्ते कितने भी मधुर हो जाएँ, नदियों के जल का विवाद होना अवश्यम्-भावी है। ब्रह्मपुत्र के पानी को लेकर इस समय चीन जो कुछ कर रहा है उसकी वजह पाकिस्तान नहीं है। पाकिस्तान पर तो वह बेवजह एहसान दिखा रहा है। ब्रह्मपुत्र के पानी को लेकर तो चीन के इरादे बहुत पहले से ही नेक नहीं हैं।
 
माओ का शासन प्रारम्भ होते ही चीन ने नदियों का रास्ता बदलना और नहरों का निर्माण शुरू कर दिया था जिसका कारण था आधे चीन में सूखा और रेगिस्तान साथ ही बाक़ी आधे में बाढ़। चीन में कई वर्ष शिक्षा बन्द करके सबको नदियों का बहाव मोड़ने में लगा दिया गया था।
जब नया संवतसर आता था तो वे संवत सुनाने आते थे। संवत सुनाने में वे बताते थे उस वर्ष में कितनी बारिश होगी कितनी ठंड पड़ेगी और कितनी लू चलेंगी। ज़ोरदार बात ये है कि पिताजी भी संवत सुना करते थे। “ इस बार संवत माली के घर में है बहना, तो बारिश ज़्यादा होगी।” पंडित जी बताते…। इसके साथ ही वर्ष में कितना धर्म कितना अधर्म और कितना पाप कितना पुण्य है यह भी बताते थे। वे कहते “इस संवत में 14 बिस्से पाप और 6 बिस्से पुण्य है। याने पाप ज़्यादा और पुण्य कम है।” इसका अर्थ समझने के लिए पहले उस ज़माने की गणना को समझना होगा। बिस्सा (शुद्ध रूप ‘बिस्वा’) का अर्थ है एक बीघा खेत का बीसवाँ भाग याने कि ‘सौ प्रतिशत’ कहने के लिए कहा जाता था “बात तो पूरे 20 बिस्से सही है” इसी का दूसरा रूप होता था “बात तो पूरे सोलह आने सही है।” उस समय एक रुपये में सोलह आने होते थे। कॅरेट को भी प्रतिशत के लिए इस्तेमाल किया जाता था और आज भी कहते हैं “बात तो 24 कॅरेट सही है”।
इसलिए भारत सरकार को यह अभी से तय करना होगा कि भावी योजनाएँ क्या होंगी। इन विवादों को निपटाने में कुर्सी-मेज़ और पेन-काग़ज़ काम नहीं आएँगे बल्कि सशक्त और आधुनिक तकनीक से लैस सेना काम आएगी। सेना की तनख़्वाह में बढ़ोत्तरी, प्रत्येक नागरिक की अनिवार्य रूप से सैन्य शिक्षा, सैन्य शिक्षा में स्त्रियों की बराबर भागेदारी और प्रत्येक नागरिक में राष्ट्रीय भावना का अनवरत संचार जैसे सुधार ही हमें एक सुरक्षित राष्ट्र का गौरवमयी नागरिक बना सकते हैं।
 
दूसरा विवाद है, कुछ एक भारतीय फ़िल्मी अभिनेताओं द्वारा पाकिस्तानी कलाकारों का पक्ष लेना। इसमें पहली बात यह है कि इस तरह के अभिनेता कोई ज़िम्मेदार क़िस्म के इंसान नहीं है। इससे पहले भी इनकी ग़ैरज़िम्मेदाराना हरक़तें सामने आई हैं जिनकी चर्चा करना व्यर्थ है।
पंडित जी को स्वर्गवासी हुए बीसियों साल हो गए। उनके बाद उनका दामाद आने लगा और अब उनका धेवता (बेटी का बेटा) आता है। ये लोग कभी संवत नहीं सुना पाए क्योंकि इन्हें जानकारी ही नहीं है। अब फिर नया संवत आने वाला है, बहुत मन करता है कि कोई आए और संवत सुनाए। असल बात यह है कि मैं बिल्कुल भी यह नहीं मानता कि शनिदेव किसी का भला-बुरा कर सकते हैं लेकिन बचपन के संस्कार अभी तक चले आ रहे हैं और उन्हें निबाहने में आनंद भी आता है।
समझना तो आम जनता को है जो कि फ़िल्मी कलाकारों को हीरो समझने लगती है और उन्हें असली ज़िन्दगी में भी बढ़िया इंसान मानने लगती है। तमाम एक्टर ऐसे हैं जो पर्दे पर खलनायक की भूमिका करते हैं लेकिन असल ज़िन्दगी में एक बेहतरीन इंसान हैं, ठीक इसका उल्टा नायक की भूमिका करने वाले के साथ भी हो सकता है। इसलिए जनता को अपने हीरो पर्दे से नहीं बल्कि असल ज़िन्दगी से ही चुनने चाहिए।
कलाकार भी इंसान ही होता है और उसका भी अपना देश और देशभक्ति होती है। पाकिस्तानी कलाकारों की देशभक्ति उनके पाकिस्तान के लिए है। उनसे भारत के लिए वफ़ादारी की उम्मीद करना फ़ुज़ूल की बात है। पाकिस्तानी कलाकार अपनी कमाई को पाकिस्तान ले जाता है और वहीं टॅक्स देता है, संपत्ति ख़रीदता है और ख़र्चा करता है। पाकिस्तान चाहे आतंकी देश हो या अहिंसावादी उस पाकिस्तानी कलाकार के लिए तो वही उसका देश है।
अब ज़रा सोचिए कि हम पाकिस्तानी आतंकवाद में उस कलाकार का हिस्सा मानें या नहीं। जब सानिया मिर्ज़ा एक पाकिस्तानी से शादी करती है तो भारतवासी ये उम्मीद करते हैं कि वह अब भी भारत के लिए खेले और भारत को ही अपना देश समझे… तो बताइये कि पाकिस्तानी कलाकार भी तो शुद्ध रूप से पाकिस्तानी ही हुआ या नहीं? इस समय किसी पाकिस्तानी कलाकार की कमाई भारत में कराने से हम स्पष्ट रुप से पाकिस्तान की मदद ही कर रहे हैं।
ऐसी बात नहीं है कि मुझे पाकिस्तान का कभी भी कुछ भी पसंद नहीं रहा। मेरे भी पसंदीदा शायर कुछ पाकिस्तानी रहे हैं जैसे फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और अहमद फ़राज़। ग़ज़ल गायकों में मेंहदी हसन मेरे पसंदीदा हैं लेकिन पाकिस्तान के किसी शायर की ग़ज़ल पसंद करना एक अलग बात है और फ़िल्मी और टीवी कलाकारों को भारत में बिठाकर उसकी करोड़ों-अरबों की कमाई करवाना एक बिल्कुल अलग बात है।
</poem>
|
| 4 अक्टूबर, 2016
|-
|-
|
|
<poem>
; दिनांक- 18 जनवरी, 2017
हिन्दी अकादमी दिल्ली में मेरे व्याख्यान का एक अंश यहाँ प्रस्तुत है ताकि सनद रहे कि मैं कहीं भी मौजूद होता हूँ तो ब्रज को नहीं भूलता…
आज ही लिखी कुछ पंक्तियाँ आपकी सेवा में मित्रो!
“हिन्दी की इमारत लोकभाषाओं के स्तंभों पर टिकी हुई है। लोकभाषाएँ हिन्दी के स्तम्भ हैं उसकी नींव हैं। सारी दुनिया में से लोकभाषाएँ एक-एक करके समाप्त हो रही हैं। विश्व में 6000 भाषा-बोलियों का रंग-बिरंगा संसार है जिसमें से हर पच्चीसवें दिन एक लोकभाषा सदा के लिए विलुप्त हो जाती है और उसके साथ ही एक संस्कृति, एक विज्ञान, एक कला, एक पद्धति, एक परम्परा और एक शब्दावली भी मर जाती है।
 
ज़रूरत हिन्दी अकादमी की नहीं बल्कि लोकभाषाओं की अकादमी की है जैसे ब्रजभाषा, अवधी, भोजपुरी, मागधी आदि की अकादमी बननी चाहिए क्योंकि जब लोकभाषा का ही संरक्षण नहीं होगा तो हिन्दी में प्रयुक्त होने वाले शब्दों का मूल हम कहाँ खोजेंगे। हमारी समृद्ध हिन्दी एक इतिहास रहित खोखली भाषा बनकर रह जाएगी।”
"क्योंकि ये चुनाव है"
शायद आप नहीं जानते होंगे कि ब्रजभाषा अकादमी राजस्थान में तो है पर उत्तर प्रदेश में नहीं…
 
</poem>
वादों के पुल पर
| [[चित्र:Aditya-Chaudhary-Delhi-Akadami.jpg|center|200px]]
उम्मीदों के कारवाँ
| 1 अक्टूबर, 2016
ज़िन्दगी की कश्मकश की
उफनती नदी को
पार करने की कोशिश
करते नज़र आएँगे
 
मगर अफ़सोस
सब दिल का बहलाव है
क्योंकि ये चुनाव है
 
अाँखों की झाइयों से
कंपती उँगलियों की
ख़ाली अँजली को ताकते
उसके भरने की चाह में
नारों से गुँजाते तंबुओं
में अपने घर का सपना देख आएँगे
 
मगर अफ़सोस
सब दिल का बहलाव है
क्योंकि ये चुनाव है
 
झूठ के लबादों से लदे
ओढ़े नक़ाब
दिल फ़रेब वफ़ादारी का
शोर मचाते क़ाफ़िलों
से बिखेरते जलवा अपना
करिश्माई ज़ुबान में
अपना भाषण सुनाएँगे
कि भई हम जनता के लिए
जनता की सरकार बनाएँगे
 
मगर अफ़सोस
सब दिल का बहलाव है
क्योंकि ये चुनाव है
 
न रिश्वत बदलेगी
न चौथ
सरकारी अस्पताल चलेंगे
बिना डॉक्टर-दवाई
स्कूल चलेंगे बिना पढ़ाई
जनता रहेगी चुप और गुमसुम
कुछ भी बदलेगा नहीं
सिर्फ़ चेहरे बदलते जाएँगे
शायद नए चेहरे कुछ तो बदल पाएँगे?
 
मगर अफ़सोस
सब दिल का बहलाव है
क्योंकि ये चुनाव है
 
© आदित्य चौधरी
|-
|-
|
|
<poem>
; दिनांक- 8 जनवरी, 2017
ओलंपिक मेडल जीतने के बाद जो करोड़ों रुपए की बरसात खिलाड़ियों पर होती है, वह पैसा अगर उन कोच को दिया जाए जिन्होंने उस खिलाड़ी को बनाया तो ज़्यादा बेहतर नतीजे सामने आ सकते हैं। 10 सिंधु मिलकर एक [[पुलेला गोपीचंद]] नहीं बना सकतीं हैं जबकि एक पुलेला गोपीचंद 10 [[पी.वी. सिंधु|सिंधु]] बना सकता है...
सुरक्षा और संतुष्टि की स्थिति प्राप्त करने के लिए बहुत ज़्यादा पैसा कमाने की इच्छा हो जाती है लेकिन होता कुछ और ही है।
</poem>
बहुत सारा पैसा कमाने के बाद असुरक्षा और असंतुष्टि का भाव और ज़्यादा बढ़ जाता है।
| 28 अगस्त, 2016
|-
|-
|
|  
<poem>
; दिनांक- 6 जनवरी, 2017
किसी व्यक्ति का सही मूल्याँकन उसके जीवन के किसी कालखंड से नहीं बल्कि उसके पूरे जीवनकाल से होता है।
क़ामयाबी कोई पंछी नहीं है जिसे पिंजरे में क़ैद करके रख लिया जाय। क़ामयाबी तो उड़ती पतंग है जिसे कटने का डर बना रहता है। कभी ‘ढील देकर’ से तो कभी ‘डोर खींच कर’ से इसे आकाश में थामे रहना पड़ता है। पेच लड़ाना भी हर हाल में आना चाहिए वरना हाथ में सिर्फ़ डोर ही रह जाती है।
</poem>
|  [[चित्र:Aditya-Chaudhary-Facebook-post-3.jpg|center|200px]]
| 17 अगस्त, 2016
|-
|-
|
|
; दिनांक- 3 जनवरी, 2017
<poem>
<poem>
एक विदेशी पत्रकार ने एक आधुनिक नेता का इंटरव्यू लिया
नया साल आ गया अब कुछ नसीहतें देदी जायें… न न न आपको नहीं ख़ुद को ही। मतलब ये कि नए साल में क्या-क्या करना है और क्या-क्या नहीं करना है।
पत्रकार: सुनने में आया है कि आपके यहाँ बलात्कार की क्लिप 10 से 15 रुपये में मिलती है। यह तो बहुत शर्मनाक है।
जैसे कि-
नेता: बिल्कुल झूठ है सर जी! ये सब अफ़वाह है। ऐसा कुछ नहीं है।
 
पत्रकार: तो फिर सच क्या है?
कोई डेढ़ सौ बार सुना सुनाया हाथी-चींटी वाला चुटकुला सुना रहा हो तब भी पूरे चुटकुले को पूरे धैर्य से सुनना है जिससे कि सुनाने वाला ‘हर्ट’ न हो। सुनने के बाद हँसी न भी आए तब भी मुस्कुराना ज़रूर है या फिर ‘नाइस जोक’ कह देना है।
नेता: सच ये है सर कि क्लिप बिल्कुल मुफ़्त मिल रही है। कोई पैसा नहीं देना पड़ता। आप कहें तो आपको वाट्स एप कर दूँ?
 
पत्रकार: जी नहीं मुझे नहीं चाहिए।… ये बताइये कि आपके यहाँ बिजली की बहुत समस्या है? आम आदमी के घरों में आपने अंधेरा कर रखा है?
किसी से मिलने पर उसके कपड़ों की तारीफ़ करनी है। कपड़े फटीचर हों तो ये ज़रूर कहना है कि ‘बडे़ फ़्रॅश लग रहे हो’। अगर चार दिन की दाढ़ी बढ़ रही हो तो कहना है ‘वैसे दाढ़ी भी तुम पर सूट करती है, थोड़ा अलग हट के लग रहे हो’ और हाँ, अच्छा कहने के लिए ‘कूल’ कहना है।
नेता: ये भी ग़लत सूचना है। घरों में अंधेरा होने की बात झूठी है। घर-घर में इन्वर्टर हैं। ऍल.ई.डी लाइट हैं, बैटरी वाली। साथ ही हम उनको इन्वर्टर चार्ज करने के लिए हर दो घंटे बाद एक घंटा बिजली देते हैं। हम अफ़ग़ानिस्तान से ज़्यादा बिजली की सप्लाई दे रहे हैं। … सर आख़िर हम नेता भी तो इंसान ही हैं। जनता का दुख-दर्द हम नहीं समझेंगे तो कौन समझेगा।
 
पत्रकार: आपकी पुलिस से जनता डरती है। पुलिस के पास जाने में घबराती है। ऐसा क्यों?
कोई छींके तो ‘गॉड ब्लॅस यू’ या सिर्फ़ ‘गॉड ब्लॅस’ कहना है, भले ही वो हमारे मुँह पर ही छींके। हाँ उसके छींकने से जो बौछार हमारे ऊपर आएगी उसे उसके सामने ही नहीं पौंछना है।इधर-उधर जा कर पौंछना है।
नेता: डरने का क्या है जी… डरते तो लोग भूत-प्रेत से भी हैं पर भूत-प्रेत कोई डरने की चीज़ हैं। जब भूत-प्रेत होते ही नहीं तो उनसे डरना क्या?
 
पत्रकार: तो अाप कहना चाहते हैं कि आपके पास पुलिस है ही नहीं ये बस जनता का भ्रम है जैसे कि भूत-प्रेत?
किसी ग़लती पर या हल्की फुल्की चोट पर ‘ओह’ या ‘अरे’ नहीं कहना है बल्कि ‘आउच’ कहना है। यदि और अधिक सु-संस्कृत होना है तो
नेता: असल में हमारी पॉलिसी बहुत ज़बर्दस्त है सर! हम पुलिस को अपनी सीक्योरिटी में लगाए रखते हैं। जिससे पुलिस जनता के पास पहुँचती ही नहीं है तो जनता डरेगी कैसे? दूसरी बात ये है सर कि जब हमारी पुलिस से चोर, डाकू और बलात्कारी जैसे लोग नहीं डरते जबकि वे भी तो इंसान हैं… इसी समाज का हिस्सा हैं … तो फिर जनता को डरने की क्या ज़रूरत है ?
फिर ’ऊप्स’ कहना है। ये भी ध्यान रहे कि’ओ माइ गॉड’ अादि का उपयोग भी समय-समय पर करना है। ‘हे भगवान’ या ‘हे राम’ कहेंगे तो गँवार माने जाएँगे।
पत्रकार: आपके यहाँ सड़कों में गड्ढे हैं। बरसात में सड़कों पर पानी भर जाता है। इसका भी कोई जवाब है आपके पास ?
 
नेता: हमारे कर्मचारी, दिन और रात गड्ढे भरने में लगे रहते हैं सर! हमारा देश बहुत बड़ा है। लाखों किलोमीटर सड़कें हैं। देश बड़ा होने से ट्रॅफ़िक भी ज़्यादा है। रोड ऍक्सीडेन्ट कम हों इसलिए हमको गड्ढे भी बना कर रखने पड़ते हैं। गड्ढों की वजह से स्पीड कम रहती है और ऍक्सीडेन्ट कम होते हैं।
बहुत ज़्यादा सड़ी हुई बदबू को बदबू न कहकर ‘फ़नी स्मॅल’ कहना है। ख़ुद चाहे तीन दिन तक न नहाएँ लेकिन परफ़्यूम से पसीने की गंध को दबाए रखना है।
पत्रकार: आप अपने बारे में बताइये कि आप कितने पढ़े-लिखे हैं ?
 
नेता: देश सेवा से फ़ुर्सत मिलती तभी तो पढ़ता…
सिनेमाहॉल में हँसी की बात पर भी ज़ोर से हँसना नहीं है। सिर्फ़ ‘आइ लाइक इट’ कह देना है। फ़िल्में भी सिर्फ़ हॉलीवुड की देखनी हैं (भले ही अग्रेज़ी समझ में न आए)। चार लोगों में बैठकर हिन्दी फ़िल्मों का मज़ाक़ उड़ाना है। गाने भी अंग्रेज़ी सुनने हैं।
पत्रकार ने मौन धारण कर लिया और वापस चला गया।
 
रिक्शे-ऑटो वालों तक से अंग्रेज़ी में बात करनी है या फिर हर एक वाक्य में कम से कम चार शब्द अंग्रेज़ी के बोलने हैं। जैसे कि "भैया प्लीज़ मुझे ना वो नॅक्स्ट क्रॉसिंग पे ड्राप कर दोगे क्या? वोई रॅड बिल्डिंग के जस्ट बग़ल में… अॅक्चुली मैं लेट हो रहा हूँ जॉब के लिए”।
 
खाना खाने के लिए किसी दाल-रोटी वाले भोजनालय की बजाय किसी इटॅलियन, मॅक्सिकन या जापानी रेस्त्रां में जाना है। वहाँ के खाने के अजीब-अजीब नामों को याद करना है जैसे ब्लॅकबीन साल्सा, पास्ता, टॉरटिला सूप, सुशी आदि। खाना कितना भी बेस्वाद हो (वो तो होगा ही) लेकिन उसे बहुत तारीफ़ करते हुए खाना है। यम्मी-यम्मी भी कहते रहना है।
 
इतना सब करके देखा जाय, बाक़ी बाद में।
इस तरह नया साल भी आराम से कट जाएगा।
अापको नववर्ष की शुभकामनाएँ।
</poem>
</poem>
| 14 अगस्त, 2016
|}
|}
|}
|}

12:37, 8 फ़रवरी 2017 का अवतरण

आदित्य चौधरी फ़ेसबुक पोस्ट
दिनांक- 5 फरवरी, 2017

संस्कार, मान्यताएँ और आस्था एक बार बन जाती हैं तो उनका टूटना बहुत मुश्किल होता है और कभी-कभी तो नामुमकिन। ये हमारी आदत भी बन जाती हैं और जब भी हम इनसे दूर हटने की कोशिश करते हैं, हमको अटपटा सा महसूस होता है।

मेरे बचपन से ही हमारे घर पर प्रत्येक शनिवार को एक पंडित जी आते थे। जिन्हें कटोरी में सरसों का तेल एक लोहे की कील और सिक्का डालकर दिया जाता था। उस कटोरी में हम सब अपना चेहरा भी देखा करते थे। पंडित जी बहुत भले और सरल स्वभाव के थे। “चौधरी साहब के आनंद हों बहना, पौत्र ख़ुश रहें” पंडित जी की यह आवाज़ आज भी मेरे कानों में गूंजती है। उनका क़द ऊँचा था (कुछ बचपन की वजह से लगता भी था) छरहरा बदन था और गांधी टोपी पहनते थे।

जब नया संवतसर आता था तो वे संवत सुनाने आते थे। संवत सुनाने में वे बताते थे उस वर्ष में कितनी बारिश होगी कितनी ठंड पड़ेगी और कितनी लू चलेंगी। ज़ोरदार बात ये है कि पिताजी भी संवत सुना करते थे। “ इस बार संवत माली के घर में है बहना, तो बारिश ज़्यादा होगी।” पंडित जी बताते…। इसके साथ ही वर्ष में कितना धर्म कितना अधर्म और कितना पाप कितना पुण्य है यह भी बताते थे। वे कहते “इस संवत में 14 बिस्से पाप और 6 बिस्से पुण्य है। याने पाप ज़्यादा और पुण्य कम है।” इसका अर्थ समझने के लिए पहले उस ज़माने की गणना को समझना होगा। बिस्सा (शुद्ध रूप ‘बिस्वा’) का अर्थ है एक बीघा खेत का बीसवाँ भाग याने कि ‘सौ प्रतिशत’ कहने के लिए कहा जाता था “बात तो पूरे 20 बिस्से सही है” इसी का दूसरा रूप होता था “बात तो पूरे सोलह आने सही है।” उस समय एक रुपये में सोलह आने होते थे। कॅरेट को भी प्रतिशत के लिए इस्तेमाल किया जाता था और आज भी कहते हैं “बात तो 24 कॅरेट सही है”।

पंडित जी को स्वर्गवासी हुए बीसियों साल हो गए। उनके बाद उनका दामाद आने लगा और अब उनका धेवता (बेटी का बेटा) आता है। ये लोग कभी संवत नहीं सुना पाए क्योंकि इन्हें जानकारी ही नहीं है। अब फिर नया संवत आने वाला है, बहुत मन करता है कि कोई आए और संवत सुनाए। असल बात यह है कि मैं बिल्कुल भी यह नहीं मानता कि शनिदेव किसी का भला-बुरा कर सकते हैं लेकिन बचपन के संस्कार अभी तक चले आ रहे हैं और उन्हें निबाहने में आनंद भी आता है।

दिनांक- 18 जनवरी, 2017

आज ही लिखी कुछ पंक्तियाँ आपकी सेवा में मित्रो!

"क्योंकि ये चुनाव है"

वादों के पुल पर उम्मीदों के कारवाँ ज़िन्दगी की कश्मकश की उफनती नदी को पार करने की कोशिश करते नज़र आएँगे

मगर अफ़सोस सब दिल का बहलाव है क्योंकि ये चुनाव है

अाँखों की झाइयों से कंपती उँगलियों की ख़ाली अँजली को ताकते उसके भरने की चाह में नारों से गुँजाते तंबुओं में अपने घर का सपना देख आएँगे

मगर अफ़सोस सब दिल का बहलाव है क्योंकि ये चुनाव है

झूठ के लबादों से लदे ओढ़े नक़ाब दिल फ़रेब वफ़ादारी का शोर मचाते क़ाफ़िलों से बिखेरते जलवा अपना करिश्माई ज़ुबान में अपना भाषण सुनाएँगे कि भई हम जनता के लिए जनता की सरकार बनाएँगे

मगर अफ़सोस सब दिल का बहलाव है क्योंकि ये चुनाव है

न रिश्वत बदलेगी न चौथ सरकारी अस्पताल चलेंगे बिना डॉक्टर-दवाई स्कूल चलेंगे बिना पढ़ाई जनता रहेगी चुप और गुमसुम कुछ भी बदलेगा नहीं सिर्फ़ चेहरे बदलते जाएँगे शायद नए चेहरे कुछ तो बदल पाएँगे?

मगर अफ़सोस सब दिल का बहलाव है क्योंकि ये चुनाव है

© आदित्य चौधरी

दिनांक- 8 जनवरी, 2017

सुरक्षा और संतुष्टि की स्थिति प्राप्त करने के लिए बहुत ज़्यादा पैसा कमाने की इच्छा हो जाती है लेकिन होता कुछ और ही है। बहुत सारा पैसा कमाने के बाद असुरक्षा और असंतुष्टि का भाव और ज़्यादा बढ़ जाता है।

दिनांक- 6 जनवरी, 2017

क़ामयाबी कोई पंछी नहीं है जिसे पिंजरे में क़ैद करके रख लिया जाय। क़ामयाबी तो उड़ती पतंग है जिसे कटने का डर बना रहता है। कभी ‘ढील देकर’ से तो कभी ‘डोर खींच कर’ से इसे आकाश में थामे रहना पड़ता है। पेच लड़ाना भी हर हाल में आना चाहिए वरना हाथ में सिर्फ़ डोर ही रह जाती है।

दिनांक- 3 जनवरी, 2017

नया साल आ गया अब कुछ नसीहतें देदी जायें… न न न आपको नहीं ख़ुद को ही। मतलब ये कि नए साल में क्या-क्या करना है और क्या-क्या नहीं करना है।
जैसे कि-

कोई डेढ़ सौ बार सुना सुनाया हाथी-चींटी वाला चुटकुला सुना रहा हो तब भी पूरे चुटकुले को पूरे धैर्य से सुनना है जिससे कि सुनाने वाला ‘हर्ट’ न हो। सुनने के बाद हँसी न भी आए तब भी मुस्कुराना ज़रूर है या फिर ‘नाइस जोक’ कह देना है।

किसी से मिलने पर उसके कपड़ों की तारीफ़ करनी है। कपड़े फटीचर हों तो ये ज़रूर कहना है कि ‘बडे़ फ़्रॅश लग रहे हो’। अगर चार दिन की दाढ़ी बढ़ रही हो तो कहना है ‘वैसे दाढ़ी भी तुम पर सूट करती है, थोड़ा अलग हट के लग रहे हो’ और हाँ, अच्छा कहने के लिए ‘कूल’ कहना है।

कोई छींके तो ‘गॉड ब्लॅस यू’ या सिर्फ़ ‘गॉड ब्लॅस’ कहना है, भले ही वो हमारे मुँह पर ही छींके। हाँ उसके छींकने से जो बौछार हमारे ऊपर आएगी उसे उसके सामने ही नहीं पौंछना है।इधर-उधर जा कर पौंछना है।

किसी ग़लती पर या हल्की फुल्की चोट पर ‘ओह’ या ‘अरे’ नहीं कहना है बल्कि ‘आउच’ कहना है। यदि और अधिक सु-संस्कृत होना है तो
फिर ’ऊप्स’ कहना है। ये भी ध्यान रहे कि’ओ माइ गॉड’ अादि का उपयोग भी समय-समय पर करना है। ‘हे भगवान’ या ‘हे राम’ कहेंगे तो गँवार माने जाएँगे।

बहुत ज़्यादा सड़ी हुई बदबू को बदबू न कहकर ‘फ़नी स्मॅल’ कहना है। ख़ुद चाहे तीन दिन तक न नहाएँ लेकिन परफ़्यूम से पसीने की गंध को दबाए रखना है।

सिनेमाहॉल में हँसी की बात पर भी ज़ोर से हँसना नहीं है। सिर्फ़ ‘आइ लाइक इट’ कह देना है। फ़िल्में भी सिर्फ़ हॉलीवुड की देखनी हैं (भले ही अग्रेज़ी समझ में न आए)। चार लोगों में बैठकर हिन्दी फ़िल्मों का मज़ाक़ उड़ाना है। गाने भी अंग्रेज़ी सुनने हैं।

रिक्शे-ऑटो वालों तक से अंग्रेज़ी में बात करनी है या फिर हर एक वाक्य में कम से कम चार शब्द अंग्रेज़ी के बोलने हैं। जैसे कि "भैया प्लीज़ मुझे ना वो नॅक्स्ट क्रॉसिंग पे ड्राप कर दोगे क्या? वोई रॅड बिल्डिंग के जस्ट बग़ल में… अॅक्चुली मैं लेट हो रहा हूँ जॉब के लिए”।

खाना खाने के लिए किसी दाल-रोटी वाले भोजनालय की बजाय किसी इटॅलियन, मॅक्सिकन या जापानी रेस्त्रां में जाना है। वहाँ के खाने के अजीब-अजीब नामों को याद करना है जैसे ब्लॅकबीन साल्सा, पास्ता, टॉरटिला सूप, सुशी आदि। खाना कितना भी बेस्वाद हो (वो तो होगा ही) लेकिन उसे बहुत तारीफ़ करते हुए खाना है। यम्मी-यम्मी भी कहते रहना है।

इतना सब करके देखा जाय, बाक़ी बाद में।
इस तरह नया साल भी आराम से कट जाएगा।
अापको नववर्ष की शुभकामनाएँ।






शब्दार्थ

संबंधित लेख