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राजा परीक्षित / Parikshit
जन्म कथा
उत्तरा के गर्भ में जब वह बालक ब्रह्मास्त्र के तेज से दग्ध होने लगा तब भगवान श्री कृष्णचन्द्र ने सूक्ष्म रूप से उत्तरा के गर्भ में प्रवेश किया। उनका वह ज्योतिर्मय सूक्षम शरीर अँगूठे के आकार का था। अत्तयंत सन्दर श्याम शरीर तेजोमय, पीताम्बर धारण किये हुये, सवर्णमुकुट से प्रकाशमान हो रहा था। वे चारों भुजाओं में शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किये हुये थे। कानों में कुण्ड्ल तथा आँखें रक्तवर्ण थीं। हाथ में जलती हुई गदा लेकर उस गर्भ स्थित बालक के चारों ओर घुमाते थे। जिस प्रकार सूर्यदेव अन्धकार को हटा देते हैं उसी प्रकार वह गदा अश्वत्थामा के छोड़े हुये ब्रह्मास्त्र की अग्नि को शांत करती थी। गर्भ स्थित वह बालक उस ज्योतिर्मय शक्ति को अपने चारों ओर घूमते हुये देखता था। वह सोचने लगता कि यह कौन है और कहाँ से आया है? उस समय पाण्डव लोग एक महान यज्ञ की दीक्षा के निमित्त राजा मरुत का धन लेने के लिये उत्तर दिशा में गये हुये थे। उसी बीच उनकी अनुपस्थिति में तथा भगवान श्री कृष्णचन्द्र की उपस्थिति में दस मास पश्चात उस बालक का जन्म हुआ। परन्तु बालक गर्भ से बाहर निकलते ही मृतवत् हो गया। बालक को मरा हुआ देख कर रनिवास में रुदन आरन्भ हो गया। शोक का समुद्र उमड़ पड़ा। कुरुवंश को पिण्डदान करने वाला केवल एक मात्र यही बालक उत्तपन्न हुआ था सो वह भी न रहा। कुन्ती, द्रौपदी, सुभद्रा आदि सभी महान शोक सागर में डूब कर आँसू बहाने लगीं। उत्तरा के गर्भ से मृत बालक के जन्म का समाचार सुन कर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र तुरन्त सात्यकि को साथ लेकर अन्तःपुर पहुँचे। वहाँ रनिवास में करुण क्रन्दन को सुन कर उनका हृदय भर आया। इतना करुण क्रन्दन युद्ध में मरे हुये पुत्रो के लिये कभी सुभद्रा और द्रौपदी ने नहीं किया था जितना उस नवजात शिशु की मृत्यु पर कर रही थीं। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र को देखते ही वे उनके चरणो पर गिर पड़ीं और विलाप करते हुये बोलीं -'हे जनार्दन! तुमने यह प्रतिज्ञा की थी कि यह बालक इस ब्रह्मास्त्र से मृत्यु को प्राप्त न होगा तथा साठ वर्ष तक जीवित रह कर धर्म का राज्य करेगा। किन्तु यह बालक तो मृतावस्था में पड़ा हुआ है। यह तुम्हारे पौत्र अभिमन्यु का बालक है। हे अरिसूदन! इस बालक को अपनी अमृत भरी दृष्टि से जीवन दान दो।'
श्रीकृष्ण द्वारा जीवनदान
भगवान श्रीकृष्णचन्द्र सबको सान्त्वना देकर तत्काल प्रसूतिगृह में गये और वहाँ के प्रबन्ध का अवलोकन किया। चारों ओर जल के घट रखे थे, अग्नि भी जल रही थी, घी की आहुति दी जा रही थी, श्वेत पुष्प एवं सरसों बिखरे थे और चमकते हुये अस्त्र भी रखे हुये थे। इस विधि से यज्ञ, राक्षस एवं अन्य व्याधियों से प्रसूतिगृह को सुरक्षित रखा गया था। उत्तरा पुत्रशोक के कारण मूर्छित हो गई थी। उसी समय द्रौपदी आदि रानियाँ वहाँ आकर कहने लगीं -'हे कल्याणी!तुम्हारे सामने जगत के जीवन दाता साक्षात् भगवान श्रीकृष्णचन्द्र, तुम्हारे श्वसुर खड़े हैं। चेतन हो जाओ।' भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा - 'बेटी! शोक न करो। तुम्हारा यह पुत्र अभी जीवित होता है। मैंने जीवन में कभी झूठ नहीं बोला है। सबके सामने मेँने प्रतिज्ञा की है वह अवश्य पूर्ण होगी। मैंने तुम्हारे इस बालक की रक्षा गर्भ में की है तो भला अब कैसे मरने दूँगा।' इतना कहकर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने उस बालक पर अपनी अमृतमयी दृष्टि डालि और बोले - 'यदि मैंने कभी झूठ नहीं बोला है, सदा ब्रह्मचर्य व्रत का नियम से पालन किया है, युद्ध में कभी पीठ नहीं दिखाई है, मैंने कभी भूल से भी अधर्म नहीं किया है तो अभिमन्यु का यह मृत बालक जीवित हो जाये।' उनके इतना कहते ही वह बालक हाथ पैर हिलाते हुये रुदन करने लगा। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने अपने सत्य और धर्म के बल से ब्रह्मास्त्र को पीछे लौटा कर ब्रह्मलोक में भेज दिया। उनके इस अद्भुत कर्म बालक को जीवित देख कर अन्तःपुर की सारी स्त्रियाँ आश्चर्यचकित रह गईं और उनकी वन्दना करने लगीं। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने उस बालक का नाम परीक्षित रखा क्योंकि वह कुरुकुल के परिक्षीण (नाश) होने पर उत्पन्न हुआ था।
युधिष्ठिर द्वारा दानपुण्य
जब धर्मराज युधिष्ठिर लौट कर आये और पुत्र जन्म का समाचार सुना तो वे अति प्रसन्न हुये और उन्होंने असंख्य गौ, गाँव, हाथी, घोड़े, अन्न आदि ब्राह्मणों को दान दिये। उत्तम ज्योतिषियों को बुला कर बालक के भविष्य के विषय में प्रश्न पूछे। ज्योतिषियों ने बताया कि वह बालक अति प्रतापी, यशस्वी तथा इक्ष्वाकु समान प्रजापालक, दानी, धर्मी, पराक्रमी और भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का भक्त होगा। एक ऋषि के शाप से तक्षक द्वारा मृत्यु से पहले संसार के माया मोह को त्याग कर गंगा के तट पर श्री शुकदेव जी से आत्मज्ञान प्राप्त करेगा।
शासन प्रबन्ध
पाण्डवों के महाप्रयाण के बाद भगवान के परम भक्त महाराज परीक्षित श्रेष्ठ ब्राह्मणों की शिक्षा के अनुसार पृथ्वी का शासन करने लगे। उन्होंने उत्तर की पुत्री इरावती से विवाह किया। उससे उन्हें जनमेजय आदि चार पुत्र उत्पन्न हुए। उन्होंने कृपाचार्य को आचार्य बनाकर गंगातट पर तीन अश्वमेध यज्ञ किये। उनके राज्य में प्रजा को किसी प्रकार का कष्ट नहीं था।
परीक्षित और कलि युग कथा
एक दिन महाराज परीक्षित ने एक साँड़ देखा, जिसके तीन पैर टूट गये थे। केवल एक पैर शेष था। उसके पास ही एक गाय आँसू बहाती हुई उदास खड़ी थी। एक काले रंग का शूद्र राजाओं की भाँति मुकुट धारण किये हाथ में डंडा लेकर उस गाय और बैल को पीट रहा था। जब महाराज परीक्षित को यह ज्ञात हुआ कि गाय पृथ्वीदेवी है और बैल साक्षात धर्म है तथा उन्हें पीटने वाला शूद्र रूप में कलि युग है, तब उन्होंने उसे मारने के लिये अपने म्यान से तत्काल तलवार खींच ली। शूद्ररूपी कलि काल अपना मुकुट उतार कर महाराज परीक्षित के चरणों में गिर पड़ा। महाराज ने उसे क्षमा करते हुए अपने राज्य की सीमा से बाहर चले जाने के लिये कहा। कलि ने प्रार्थना की - 'महाराज! आप चक्रवर्ती सम्राट हैं । मैं भी आपकी ही प्रजा हूँ। अत: मुझे भी रहने का कोई स्थान देने की कृपा करें। महाराज ने कलि के निवास के लिये जुआ, शराब, स्त्री, हिंसा और स्वर्ण- ये पाँच स्थान निर्धारित कर दिये।
परीक्षित और ॠषि का श्राप
एक दिन महाराज परीक्षित आखेट करते हुए वन में भटक गये। भूख और प्यास से व्याकुल होकर वे एक ऋषि के आश्रम में पहुँचे। समाधिस्थ ऋषि से उन्होंने जल माँगा। ऋषि को राजा की उपस्थिति का ज्ञान नहीं हुआ। राजा ने समझा ऋषि जान बूझकर मेरा अपमान कर रहे हैं। उन्होंने कलियुग से प्रभावित होने के कारण ऋषि के गले में एक मरा हुआ सर्प डाल दिया और अपनी राजधानी लौट आये। ऋषि पुत्र को जब राजा के इस दुष्कर्म का ज्ञान हुआ तब उसने सातवें दिन तक्षक के काटने से राजा की मृत्यु होने का शाप दे दिया। घर पहुँचने पर महाराज परीक्षित को ऋषि कुमार के शाप की बात ज्ञात हुई। ये अपने पुत्र जनमेजय को राज्य देकर गंगातट पर पहुँचे और आगामी सात दिनों तक निर्जल व्रत का निश्चय किया। वहाँ पर वामदेव आदि बहुत-से ऋषि आये। उसी समय घूमते हुए श्रीशुकदेव जी भी वहाँ आ गये। परीक्षित ने उनका विधिवत पूजन किया और उनसे अपनी मुक्ति का उपाय पूछा। शुकदेव जी ने उन्हें सात दिनों तक श्रीमद्भागवत की पावन कथा का श्रवण कराया। श्रीमद्भागवत श्रवण से परीक्षित का मन पूर्णरूप से भगवान में लग गया और सातवें दिन तक्षक के काटने के बाद भी उनकी मुक्ति हो गयी।
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