"जनमेजय": अवतरणों में अंतर

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09:31, 27 मई 2010 का अवतरण

  • परीक्षित के पुत्र का नाम जनमेजय था। बड़े होने पर जब परीक्षित की मृत्यु का कारण सर्पदंश जाना तो उसने तक्षक से बदला लेने का उपाय सोचा। जनमेजय ने सर्पों के संहार के लिए सर्पसत्र नामक महान यज्ञ का आयोजन किया। नागों को इस यज्ञ में भस्म होने पर शाप उनकी मां कद्रू ने दिया था। नागगण अत्यंत त्रस्त थे। समुद्र मंथन में रस्सी के रूप में काम करने के उपरान्त वासुकि ने सुअवसर पाकर अपने त्रास की गाथा ब्रह्मा से कही। उन्होंने कहा कि ऋषि जरत्कारू का पुत्र धर्मात्मा सर्पों की रक्षा करेगा, दुरात्मा सर्पों का नाश उस यज्ञ में अवश्यंभावी है। अत: वासुकि ने एलायत्र नामक नाग की प्रेरणा से अपनी वहन जरत्कारू का विवाह ब्राह्मण जरत्कारू से कर दिया था। उनके पुत्र का नाम आस्तीक रखा गया।
  • जनमेजय ने सर्पसत्र प्रारंभ किया। अनेक सर्प आह्वान करने पर अग्नि में गिरने प्रारंभ हो गये, तब भयभीत तक्षक ने इन्द्र की शरण ग्रहण की। वह इन्द्रपुरी में रहने लगा। वासुकि की प्रेरणा से आस्तीक परीक्षित के यज्ञस्थल भी पहुंचा तथा भांति-भांति से यजमान तथा ऋत्विजों की स्तुति करने लगा। उधर ऋत्विजों ने तक्षक का नाम लेकर आहुति डालनी प्रारंभ की। इन्द्र तक्षक को अपने उत्तरीय में छिपाकर वहां तक आये। यज्ञ का विराट रूप देखकर वे तक्षक को अकेला छोड़कर अपने महल में चले गये। विद्वान ब्राह्मण बालक, आस्तीक, से प्रसन्न होकर जनमेजय ने उसे एक वरदान देने की इच्छा प्रकट की तो उसने यज्ञ की तुरंत समाप्ति का वर मांगा, अत: तक्षक बच गया क्योंकि उसने अभी अग्नि में प्रवेश नहीं किया था। नागों ने प्रसन्न होकर आस्तीक को वर दिया कि जो भी इस कथा का स्मरण करेगा- सर्प कभी भी उसका दंशन नहीं करेंगे।
  • जनमेजय को अनजाने में ही ब्रह्म-हत्या का दोष लग गया था। उसका सभी ने तिरस्कार किया। वह राज्य छोड़कर वन में चला गया। वहां उसका साक्षात्कार इन्द्रोत मुनि से हुआ। उन्होंने भी उसे बहुत फटकारा। जनमेजय ने अत्यंत शांत रहते हुए विनीत भाव से उनसे पूछा कि अनजाने में किये उसके पाप का निराकरण क्या हो सकता है तथा उसे सभी ने वंश सहित नष्ट हो जाने के लिए कहा है, उसका निराकरण कैसे होगा? इन्द्रोत मुनि ने शांत होकर उसे शांतिपूर्वक प्रायश्चित्त करने के लिए कहा। उसे ब्राह्मणों की सेवा तथा अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान करने के लिए कहा। जनमेजय ने वैसा ही किया तथा निष्पाप, परम् उज्ज्वल हो गया। [1]
  • परीक्षित-पुत्र जनमेजय सुयोग्य शासक था। बड़े होने पर उसे उत्तंक मुनि से ज्ञात हुआ कि तक्षक ने किस प्रकार परीक्षित को मारा थां जिस प्रकार रूरू ने अपनी भावी पत्नी को आधी आयु दी थी वैसे परीक्षित को भी बचाया जा सकता था । मन्त्रवेत्ता कश्यप कर्पंदंशन का निराकरण कर सकते थे पर तक्षक ने राजा को बचाने जाते हुए मुनि को रोककर उनका परिचय पूछा। उनके जाने का निमित्त जानकर तक्षक ने अपना परिचय देकर उन्हें परीक्षा देने के लिए कहा। तक्षक ने न्यग्रोध (बड़) के वृक्ष को डंस लिया। कश्यप ने जल छिड़ककर वृक्ष को पुन: हरा-भरा कर दिया। तक्षक ने कश्यप को पर्याप्त धन दिया तथा जाने का अनुरोध किया। कश्यप ने योगबल से जाना कि राजा की आयु समाप्त हो चुकी है, अत: वे धन लेकर लौट गये। यह सब जानकर जनमेजय क्रुद्ध हो उठा तथा उत्तंक की प्रेरणा से उसने सर्पसत्र नामक यज्ञ किया जिससे समस्त सर्पों का नाश करने की योजना थी। तक्षक इन्द्र की शरण में गया। उत्तंक ने इन्द्र सहित तक्षक का आवाहन किया। जरत्कारू के धर्मात्मा पुत्र आस्तीक ने राजा का सत्कार ग्रहण कर मनवांक्षित फल मांगा, फलत: राजा को सर्पसत्र नामक यज्ञ को समाप्त करना पड़ा। राजा ने उसे तो संतुष्ट किया किंतु स्वयं अशांत चित्त हो गया। व्यास से उसने समस्त महाभारत सुनी तथा जाना कि आस्तीक ने सर्पों की रक्षा क्यों की।

टीका-टिप्पणी

  1. महाभारत, आदिपर्व, अध्याय 15,38,39,48 से 56 तक, शांतिपर्व, 150 से 152 तक

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