"आदित्य चौधरी -फ़ेसबुक पोस्ट मार्च 2014": अवतरणों में अंतर
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| 16 मार्च, 2014 | | 16 मार्च, 2014 | ||
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एक लयबद्ध जीवन जीने की आस | |||
एक बहुत ही | |||
व्यक्तिगत जीवन का अहसास | |||
न जाने कब होगा | |||
होगा न जाने कब | |||
एक घर हो दूर कहीं छोटा सा | |||
जहाँ एकान्त की जहाँ माँग हो | |||
सबसे ज़्यादा | |||
बस मिल ना पाये | |||
कभी एकान्त | |||
न खाने को दौड़े अकेलापन | |||
कुछ ऐसे ही भविष्य का आभास | |||
लेकिन झूठ है सबकुछ | |||
ये नहीं होगा कभी भी नहीं होगा | |||
कैसे होगा ये... | |||
कि रहे कहीं ऐसी जगह | |||
जहाँ सभी अपने हों | |||
और छोटे-छोटे | |||
हक़ीक़त भरे सपने हों... | |||
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| 5 मार्च, 2014 | |||
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न नई है न पुरानी है | |||
सच तो नहीं | |||
ज़ाहिर है, कहानी है | |||
एक जोड़ा हंस हंसिनी का | |||
तैरता आसमान में | |||
तभी हंसिनी को दिखा | |||
एक उल्लू कहीं वीरान में | |||
हंसिनी, हंस से बोली- | |||
"कैसा अभागा मनहूस जन्म है उल्लू का | |||
जहाँ बैठा | |||
वहीं वीरान कर देता है | |||
क्या उल्लू भी किसी को खुशी देता है?" | |||
तेज़ कान थे उल्लू के भी | |||
सुन लिया और बोला- | |||
"अरे सुनो! उड़ने वालो ! | |||
शाम घिर आई | |||
ऐसी भी क्या जल्दी ! | |||
यहीं रुक लो भाई" | |||
ऐसी आवाज़ सुन उल्लू की | |||
उतर गए हंस हंसिनी | |||
ख़ातिर की उल्लू ने | |||
दोनों सो गए वहीं | |||
सूरज निकला सुबह | |||
चलने लगे दोनों तो... | |||
उल्लू ने हंसिनी को पकड़ लिया | |||
"पागल है क्या ? | |||
मेरी हंसिनी को कहाँ लिए जाता है ? | |||
रात का मेहमान क्या बना ? | |||
बीवी को ही भगाता है ?" | |||
हंस को काटो तो ख़ून नहीं | |||
झगड़ा बढ़ा | |||
तो फिर पास के गाँव से नेता आए | |||
अब उल्लू से झगड़ा करके | |||
कौन अपना घर उजड़वाए ! | |||
उल्लू का क्या भरोसा ? | |||
किसी नेता की छत पर ही बैठ जाए | |||
तो फ़ैसला ये हुआ | |||
कि हंसिनी पत्नी उल्लू की है | |||
और हंस तो बस उल्लू ही है | |||
नेता चले गए | |||
बेचारा हंस भी चलने को हुआ | |||
मगर उल्लू ने उसे रोका | |||
"हंस ! अपनी हंसिनी को तो ले जा | |||
मगर इतना तो बता | |||
कि उजाड़ कौन करवाता है ? | |||
उल्लू या नेता ?" | |||
</poem> | |||
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| 4 मार्च, 2014 | |||
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वक़्त बहुत कम है और काम बहुत ज़्यादा है | |||
हर एक लम्हे का दाम बहुत ज़्यादा है | |||
फ़ुर्सत अब किसको है रिश्तों को जीने की | |||
वीकेन्ड वाली इक शाम बहुत ज़्यादा है | |||
चौपालें सूनी हैं, मेलों में मातम है | |||
कहीं पे रहीम कहीं राम बहुत ज़्यादा है | |||
खुल के हँसने की जब याद कभी आए तो | |||
पल भर को झलकी मुस्कान बहुत ज़्यादा है | |||
कोयल की तानें तो अब भी हैं बाग़ों में | |||
लेकिन अब बोतल में आम बहुत ज़्यादा है | |||
जिस्मों के धन्धे को लानत अब क्या भेजें | |||
इसमें भी शोहरत है, नाम बहुत ज़्यादा है | |||
साझे चूल्हे में अब आग कहाँ जलती है | |||
शामिल रहने में ताम-झाम बहुत ज़्यादा है | |||
बस इक मुहब्बत का आलम ही राहत है | |||
लेकिन ये कोशिश नाक़ाम बहुत ज़्यादा है | |||
</poem> | |||
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| 4 मार्च, 2014 | |||
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फ़ासले मिटाके, आया क़रीब होता | |||
चाहे नसीब वाला या कम नसीब होता | |||
उसे ज़िन्दगी में अपनी, मेरी तलाश होती | |||
मैं उसकी सुबह होता, वो मेरी शाम होता | |||
मेरी आरज़ू में उसके, ख़ाबों के फूल होते | |||
यूँ साथ उसके रहना, कितना हसीन होता | |||
जब शाम कोई तन्हा, खोई हुई सी होती | |||
तब जिस्म से ज़ियादा, वो पास दिल के होता | |||
दिल के हज़ार सदमे, ग़म के हज़ार लम्हे | |||
इक साथ उसका होना, राहत तमाम होता | |||
</poem> | |||
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| 4 मार्च, 2014 | |||
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13:37, 20 अप्रैल 2014 का अवतरण
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शब्दार्थ