"आदित्य चौधरी -फ़ेसबुक पोस्ट मई 2014": अवतरणों में अंतर

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      अक्सर सुनने में आता है कि "सबसे अच्छा दोस्त ही सबसे ख़तरनाक दुश्मन हो सकता है।" क्या सचमुच ऐसा होता है? यदि ऐसा होता है तो इसका उल्टा भी सही होता होगा, याने कि सबसे ख़तरनाक दुश्मन सबसे अच्छा दोस्त हो सकता होगा।
      असल में प्रेम का ही एक रूप दोस्ती भी है, जब तक कि आपस में ईर्ष्या से भरी स्पर्धा न हो। वैसे स्वस्थ स्पर्धा को कटु स्पर्धा में बदलते देर नहीं लगती। दो मित्रों में जब प्रेम का पलड़ा हल्का होने लगता है तो घृणा का पलड़ा भारी हो जाता है। ऐसा अक्सर अपेक्षाओं के पूरा न होने से होता है।
    दोस्ती प्रेम ही है इसलिये स्त्री-पुरुष में दोस्ती नहीं हो सकती। जिनमें होती है वहाँ स्थिति भिन्न होती है। या तो पुरुष स्त्री जैसा होता है या स्त्री पुरुष जैसी वरना स्त्री-पुरुष में दोस्ती होना मुमकिन नहीं। सामान्यत: यह प्रकृति के विपरीत भी है। हाँ ऐसा ज़रूर होता है कि कार्यक्षेत्र में स्त्री-पुरुष परस्पर सहयोगी हो सकते हैं किंतु मित्र कभी नहीं।
कहते हैं प्रेम अंधा होता है और सही मायने में प्रेम वही होता है जो प्रेम के सागर में धड़ाम से कूद कर किया जाय। यह तो ठीक है कि प्रेम अंधे  होकर किया जाता है लेकिन वह आँखें खोलकर, विवेकपूर्ण ढंग से और समझदारी के साथ निबाहना होता है वरना आँख खुलने पर कुछ और ही होता है।
      इसीलिए एक कहावत मशहूर है "यार की यारी से काम फैलों से क्या काम।"
</poem>
| [[चित्र:Aditya-Chaudhary-facebook-post-27.jpg|250px|center]]
| 25 मई, 2014
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भक्त ने कहा-
हे प्रभु ! तुम्हारे सामने पैसा कुछ नहीं
प्रभु बोले-
हे वत्स ! आज की दुनिया में, पैसा मुझसे कम भी नहीं
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| 24 मई, 2014
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दुम शेर की भी होती है और कुत्ते की भी लेकिन शेर अपनी दुम लहराता है और कुत्ता अपनी दुम हिलाता है। दुम तो दोनों हिलती हैं लेकिन मतलब अलग होता है। ये एक ऐसा फ़र्क़ है जिसको हम समझ लें तो ज़िन्दगी के बहुत से फ़न्डे क्लीयर हो जाते हैं।
जैसे कि-
          आज़ादी के वक़्त साढ़े तीन सौ से अधिक छोटी-बड़ी रियासतों में भारत बंटा हुआ था। इन रियासतों के रहनुमा अंग्रेज़ों के आगे जिस द्रुत गति से अपनी दुम हिलाते थे उससे उत्सर्जित होने वाली ऊर्जा से भारत की विद्युत आपूर्ति हो सकती थी। इन रियासतों के सरमायेदारों के नाम, आज जनता में कोई नहीं जानता। इसी समय ही अनेक व्यापारी-व्यवसायी भी थे, उन्हें भी कोई नहीं जानता। हाँ टाटा अवश्य अपवाद हैं लेकिन मैं टाटा को व्यापारी नहीं बल्कि उद्योगपति मानता हूँ जिसकी जवाबदेही जनता और देश के प्रति अवश्य होती है।
ख़ैर...
          ऐसा क्यों है कि जनता- गांधी, पटेल, सुभाष, नेहरू, भगतसिंह, सावरकर, अशफ़ाक़ आदि जैसे नाम तो जानती है लेकिन उन राजा-नवाबों के नहीं जो इन्हीं के समय में सत्ता में थे और जिनके कुत्ते भी तंदूरी मुर्ग़ का मज़ा लेते थे।
जवाब सीधा सा है जिसे सब जानते हैं-
          शक्ति का प्रयोग अय्याशी और अहंकार के लिए करने वाले शासकों से जनता का सरोकार क्षणिक होता है और शक्ति को जनता का कर्ज़ समझने वाले शासकों को जनता याद रखती है।
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| [[चित्र:Aditya-Chaudhary-facebook-post-26.jpg|250px|center]]
| 24 मई, 2014
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नारी विमर्श की सभी पूर्वानुकृतियों को पूर्णत: नवीन आयाम देती एक उत्कृष्ट कृति है 'क्वीन'।
मैंने कंगना राणावत की कोई फ़िल्म, शायद ही देखी हो और इस फ़िल्म को देखने के प्रस्ताव को भी मैंने गंभीरता से नहीं लिया था। जब यह फ़िल्म देखी तो अहसास हुआ कि निश्चित ही यह फ़िल्म सबको देखनी चाहिए।
पुरुष के निरर्थक अभिमान को विन्रमता से धूल-धूसरित करती हुई इस फ़िल्म की नायिका पूर्णत: भारतीय परिवेश और परंपराओं के साथ एक नई दुनिया में क़दम रखती है और इस क़दम को अंगद के पाँव की तरह इस क़दर जमा भी देती है कि कोई अभिमानी रावण इसे हिलाने की भी नहीं सोच सकता।
यह फ़िल्म स्त्रियों से अधिक पुरुषों को दिखाई जानी चाहिये जिससे उनकी समझ में आए कि स्त्री केवल उनकी वामांगी नहीं है बल्कि प्रकृति की संपूर्ण रूप से विकसित एक ऐसी कृति है जिसकी बराबरी करने के लिए पुरुष को ही युगों तक प्रतीक्षा करनी होगी।
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| [[चित्र:Aditya-Chaudhary-Queen-movie.jpg|250px|center]]
| 23 मई, 2014
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12:15, 5 जून 2014 का अवतरण

आदित्य चौधरी फ़ेसबुक पोस्ट
पोस्ट संबंधित चित्र दिनांक

      अक्सर सुनने में आता है कि "सबसे अच्छा दोस्त ही सबसे ख़तरनाक दुश्मन हो सकता है।" क्या सचमुच ऐसा होता है? यदि ऐसा होता है तो इसका उल्टा भी सही होता होगा, याने कि सबसे ख़तरनाक दुश्मन सबसे अच्छा दोस्त हो सकता होगा।
      असल में प्रेम का ही एक रूप दोस्ती भी है, जब तक कि आपस में ईर्ष्या से भरी स्पर्धा न हो। वैसे स्वस्थ स्पर्धा को कटु स्पर्धा में बदलते देर नहीं लगती। दो मित्रों में जब प्रेम का पलड़ा हल्का होने लगता है तो घृणा का पलड़ा भारी हो जाता है। ऐसा अक्सर अपेक्षाओं के पूरा न होने से होता है।
     दोस्ती प्रेम ही है इसलिये स्त्री-पुरुष में दोस्ती नहीं हो सकती। जिनमें होती है वहाँ स्थिति भिन्न होती है। या तो पुरुष स्त्री जैसा होता है या स्त्री पुरुष जैसी वरना स्त्री-पुरुष में दोस्ती होना मुमकिन नहीं। सामान्यत: यह प्रकृति के विपरीत भी है। हाँ ऐसा ज़रूर होता है कि कार्यक्षेत्र में स्त्री-पुरुष परस्पर सहयोगी हो सकते हैं किंतु मित्र कभी नहीं।
कहते हैं प्रेम अंधा होता है और सही मायने में प्रेम वही होता है जो प्रेम के सागर में धड़ाम से कूद कर किया जाय। यह तो ठीक है कि प्रेम अंधे होकर किया जाता है लेकिन वह आँखें खोलकर, विवेकपूर्ण ढंग से और समझदारी के साथ निबाहना होता है वरना आँख खुलने पर कुछ और ही होता है।
      इसीलिए एक कहावत मशहूर है "यार की यारी से काम फैलों से क्या काम।"

25 मई, 2014

भक्त ने कहा-
हे प्रभु ! तुम्हारे सामने पैसा कुछ नहीं
प्रभु बोले-
हे वत्स ! आज की दुनिया में, पैसा मुझसे कम भी नहीं

24 मई, 2014

दुम शेर की भी होती है और कुत्ते की भी लेकिन शेर अपनी दुम लहराता है और कुत्ता अपनी दुम हिलाता है। दुम तो दोनों हिलती हैं लेकिन मतलब अलग होता है। ये एक ऐसा फ़र्क़ है जिसको हम समझ लें तो ज़िन्दगी के बहुत से फ़न्डे क्लीयर हो जाते हैं।
जैसे कि-
          आज़ादी के वक़्त साढ़े तीन सौ से अधिक छोटी-बड़ी रियासतों में भारत बंटा हुआ था। इन रियासतों के रहनुमा अंग्रेज़ों के आगे जिस द्रुत गति से अपनी दुम हिलाते थे उससे उत्सर्जित होने वाली ऊर्जा से भारत की विद्युत आपूर्ति हो सकती थी। इन रियासतों के सरमायेदारों के नाम, आज जनता में कोई नहीं जानता। इसी समय ही अनेक व्यापारी-व्यवसायी भी थे, उन्हें भी कोई नहीं जानता। हाँ टाटा अवश्य अपवाद हैं लेकिन मैं टाटा को व्यापारी नहीं बल्कि उद्योगपति मानता हूँ जिसकी जवाबदेही जनता और देश के प्रति अवश्य होती है।
ख़ैर...
          ऐसा क्यों है कि जनता- गांधी, पटेल, सुभाष, नेहरू, भगतसिंह, सावरकर, अशफ़ाक़ आदि जैसे नाम तो जानती है लेकिन उन राजा-नवाबों के नहीं जो इन्हीं के समय में सत्ता में थे और जिनके कुत्ते भी तंदूरी मुर्ग़ का मज़ा लेते थे।
जवाब सीधा सा है जिसे सब जानते हैं-
          शक्ति का प्रयोग अय्याशी और अहंकार के लिए करने वाले शासकों से जनता का सरोकार क्षणिक होता है और शक्ति को जनता का कर्ज़ समझने वाले शासकों को जनता याद रखती है।

24 मई, 2014

नारी विमर्श की सभी पूर्वानुकृतियों को पूर्णत: नवीन आयाम देती एक उत्कृष्ट कृति है 'क्वीन'।
मैंने कंगना राणावत की कोई फ़िल्म, शायद ही देखी हो और इस फ़िल्म को देखने के प्रस्ताव को भी मैंने गंभीरता से नहीं लिया था। जब यह फ़िल्म देखी तो अहसास हुआ कि निश्चित ही यह फ़िल्म सबको देखनी चाहिए।
पुरुष के निरर्थक अभिमान को विन्रमता से धूल-धूसरित करती हुई इस फ़िल्म की नायिका पूर्णत: भारतीय परिवेश और परंपराओं के साथ एक नई दुनिया में क़दम रखती है और इस क़दम को अंगद के पाँव की तरह इस क़दर जमा भी देती है कि कोई अभिमानी रावण इसे हिलाने की भी नहीं सोच सकता।
यह फ़िल्म स्त्रियों से अधिक पुरुषों को दिखाई जानी चाहिये जिससे उनकी समझ में आए कि स्त्री केवल उनकी वामांगी नहीं है बल्कि प्रकृति की संपूर्ण रूप से विकसित एक ऐसी कृति है जिसकी बराबरी करने के लिए पुरुष को ही युगों तक प्रतीक्षा करनी होगी।

23 मई, 2014

महाभारत युद्ध चल रहा था। प्रथा के अनुसार अर्जुन ने कहा कि संध्या हो गई अब युद्ध विराम होता है, शेष युद्ध कल होगा। यह सुनकर श्रीकृष्ण को आश्चर्य हुआ और बोले कि अर्जुन जब हमें आने वाले अगले क्षण का भी पता नहीं हैं कि आगे क्या होगा तो तुमने कैसे कह दिया कि शेष युद्ध कल होगा। क्या तुमने समय को जीत लिया है या भविष्य दृष्टा बन गए हो। समय के संबंध में इस प्रकार का अर्थहीन वक्तव्य नहीं देना चाहिये। तुम मात्र इतना कह सकते हो कि आज युद्ध विराम होता है।
यह पूर्णत: सही है कि अगले क्षण का भी पता हमें नहीं होता कि क्या होने वाला है। हम भविष्य की योजना बना सकते हैं उसे नियोजित करने का कार्यक्रम बना सकते हैं लेकिन भविष्य को निश्चित नहीं मान सकते।

23 मई, 2014

किसी बड़े से शहर में किसी बड़े से आदमी ने मुझसे पूछा...
Well Mr. Chaudhary ! what makes you crazy ?

मैंने जवाब तो कुछ नहीं दिया सिर्फ़ हंस कर रह गया लेकिन सोचने लगा कि जवाब देता तो क्या देता...

कहीं किसी गाँव की पगडंडी पर साइकिल चलाता कोई आदमी जो देखने में फ़ौजी लग रहा हो और उसकी पत्नी साइकिल के कॅरियर पर बैठी हो... गोद में बच्चा लिए...
या फिर-
मिट्टी के चूल्हे पर बबूल की लकड़ियों से सिकती पानी के हाथ की देशी घी से चुपड़ी रोटी और साथ में छुकी हरी मिर्च, दूध में चाय की पत्ती डली हो... और हाँ... इस पूरी प्रक्रिया में काँच की चूड़ियों की खनक भी आती रहे...
या फिर-
कहीं किसी गाँव में कोई तन्दुरुस्त सी अधेड़ देेहाती औरत जिसने छींट की कमीज़ और सीधे पल्ले की हल्के रंग की धोती पहनी हो...
या फिर-
हाथ से ताज़ा चला हुआ मठ्ठा (छाछ) जिसमें मक्खन के कुछ दाने तैरते रह गए हों और साथ में गुड़...
या फिर-
कहीं किसी खेत में लाल मिर्च और काले नमक के साथ चने का साग (कच्चा)...
या फिर-
जलती होली में भुनते होले...
या फिर-
गाढ़ी-गाढ़ी कढ़ी, चावल के साथ...
या फिर-
कहीं किसी गाँव में चलती चक्की की कु कु कु की आवाज़...
या फिर-
कभी-कहीं, हल्की-हल्की, बूँदा-बाँदी में लकड़ी के कोयलों में सिकते दूधिया भुट्टे, काला नमक और नीबू लगा के...
या फिर-
किसी बाग़ में सिकती भूभर बाटी और दाल, चटनी और चूरमा के लड्डुओं के साथ...
या फिर-
कहीं किसी गाँव में चाँदनी रात, खरहरी खाट, हवा पुरवाई हो...
या फिर-

टेंटी का अचार, झर बेरिया के बेर, टपका आम, पापड़ी, इमली (कटारे) ... और न जाने क्या-क्या ...चाहें तो कुछ आप भी गिनाएँ...

21 मई, 2014

जिस दिन भी मुझे ऐसा लगता है कि मैं अब बहुत अनुभवी और परिपक्व हो गया हूँ उसी दिन कोई न कोई वज्र मूर्खता का प्रदर्शन कर बैठता हूँ और सारी बुद्धिमत्ता धरी की धरी रह जाती है।

उम्र बढ़ने से अनुभव तो बढ़ता है पर बुद्धि कम होती जाती है। वैसे भी समाज में जीने के लिए अनुभव ही तो चाहिए बुद्धि बेचारी को पूछता ही कौन है...

20 मई, 2014

Mohad Gani मोहम्मद ग़नी, आज अम्माजी की कुशल क्षेम पूछने आए और गुलाब के फूल भी लाए। अम्माजी, मेरी बहन गुड़िया (चित्रा) के साथ बैठी थीं।पाँच गुलाब देख कर मैंने कहा कि शायद पंच तत्वों से बने शरीर के कारण ही पाँच गुलाब लाए तो अम्माजी ने बहुत याद करने की कोशिश के बाद कहा-
"छिति, जल, पावक, गगन, समीरा
पंच तत्व विधि रचा सरीरा"
यह गोस्वामी तुलसी दास कृत रामचरित मानस की चौपाई है।
छिति (क्षिति)= पृथ्वी, पावक=अग्नि, समीरा=वायु
अम्माजी की ये परफ़ॉरमेन्स तो ब्रेन क्लॉट के बाद है जबकि काफ़ी याद्दाश्त जा चुकी है...

20 मई, 2014

आम आदमी से वायदे करके चुनाव जीता जाता है और ख़ास आदमियों से किए वादे निभाकर सरकार चलाई जाती है। काश इसका उल्टा हो सकता...

19 मई, 2014

निष्ठुर हुए बिना या कहें कि सहृयता क़ायम रखते हुए किसी व्यवसाय-व्यापार में कैसे सफल हुआ जा सकता है? किसी को मालूम हो तो मुझे ज़रूर बताएँ...

19 मई, 2014

भारत के चुनाव में सेक्यूलरिज़्म याने धर्म निरपेक्षता शायद अब सामयिक मुद्दा नहीं रहा। नई पीढ़ी 'धर्म सापेक्ष' है और काफ़ी हद तक 'सर्व धर्म सम्मान' या कहें कि 'सर्व धर्म सापेक्ष' है।
निश्चय ही 'नीरस धर्म िनरपेक्षता' से धर्म के सांस्कृतिक स्वरूप का अनुसरण सुखदायी है। मुझे कभी नहीं लगा कि धर्म निरपेक्षता, संकीर्णता से भरे दिमाग़ से मुक्त होने की कोई गारंटी है। संकीर्णता को एक बार फिर से परिभाषित किए जाने की आवश्यकता है।
विकास, रोज़गार और भ्रष्टाचार निवारण इस चुनाव में जनता द्वारा वोट देने का पक्ष चुनने का कारण बना। जनता का निर्णय अधिकतर सही ही होता है। उपलब्ध विकल्पों में से श्री नरेन्द्र मोदी को वोट देकर जनता फ़िलहाल, बेहतर को ही चुना है।
मैं निष्पक्ष विचार प्रकट करने का भरसक प्रयत्न करता हूँ और मैं ऐसा कर पाऊँ इसलिए मैं किसी राजनैतिक दल में सक्रिय नहीं हूँ।
सिर्फ़ चुनाव में ही नहीं बल्कि आज के ज़माने के शादियों में भी देखने में आ रहा है कि अन्तर-धर्म शादी में नई पीढ़ी के लोग अपने जीवन साथी का धर्म बदलने पर कोई ज़ोर नहीं देते और एक दूसरे के धर्म का सम्मान करते हैं।
भारत के विकास की अनंत संभावनाएँ हैं...

19 मई, 2014

मैं पिछले कई महीनों से कम काम कर पा रहा था। पिछले दो महीनों से तो न के बराबर ही... कारण था अम्माजी की बीमारी और वृद्धावस्था। ख़ैर अब लगता है कि धीरे-धीरे फिर से काम कर पाऊँगा...
श्रीमती चंद्रकांता चौधरी, हमारी माँ पिछ्ले दिनों ब्रेन स्ट्रोक (क्लॉट) के कारण दिल्ली, अस्पताल में भर्ती रहीं। वहाँ भी दवाइयों से ज़्यादा रुचि समाचारों में रही। आप सभी की दुआओं से अब घर वापस आ गईं हैं। एक बदलाव ज़रूर आया है। पहले माउंटेन ड्यू पीती थीं लेकिन अब स्प्राइट पीने लगी हैं। उनके दीर्घ और स्वस्थ जीवन की कामना सहित...
-अनुराग (दामाद), चित्रा (पुत्री), आशा (बहू) और मैं (बेटा)।

18 मई, 2014

शब्दार्थ

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