"आदित्य चौधरी -फ़ेसबुक पोस्ट": अवतरणों में अंतर

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आज मैं, मेरी पत्नी आशा चौधरी और चित्रा चौधरी (मेरी बहन) वोट डालने गए और आज के अभियान की लीडर थीं श्रीमती चंद्रकान्ता चौधरी जिनकी उम्र 84 वर्ष है। वे पूर्व सांसद एवं स्वतंत्रता सेनानी, चौधरी दिगम्बर सिंह की धर्मपत्नी हैं। मैं और चित्रा उन पर गर्व करने वाली उनकी संतान हैं।
संयोग से बूथ पर श्रीमती हेमा मालिनी मिल गईं जिन्होंने अम्माजी से बातचीत की और आशीर्वाद लिया।
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| 24 अप्रॅल, 2014
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इसी मैदान में उस शख़्स को फाँसी लगी होगी
आज, पैसा और प्रतिष्ठा एक-दूसरे के पर्यायवाची हो चुके हैं। यहाँ तक कि वीतरागी संत होने का अर्थ भी बदल चुका है। संतों की प्रतिष्ठा त्याग के लिए हुआ करती थी लेकिन अब अथाह संपत्ति और सुविधा से घिरे तथाकथित संत अपनी दरियाई घोड़े जैसी तोंद पर हाथ फेरकर, मुग्ध होते मिलते हैं।
तमाशा देखने को भीड़ भी काफ़ी लगी होगी
 
जिन्हें आज़ाद करने की ग़रज़ से जान पर खेला
उन्हीं को चंद रोज़ों में ख़बर बासी लगी होगी
 
बड़े सरकार आए हैं, यहाँ पौधा लगाएँगे
हटाने धूल को मुद्दत में अब झाडू लगी होगी
 
शहर में लोग ज़्यादा हैं जगह रहने की भी कम है
इसी को सोचकर मैदान की बोली लगी होगी
 
यहाँ तो ज़ात और मज़हब का अब बाज़ार लगता है
उसे अपनी शहादत ही बहुत फीकी लगी होगी
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| 21 अप्रॅल, 2014
| 3 जून, 2014
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लहू बहता है तो कहना कि पसीना होगा
अक्सर ये सवाल उठता रहता है कि भारत की जनता, नेताओं के भ्रष्ट आचरण को बहुत जल्दी भुला देती है। कभी सोचा है कि ऐसा क्यों है?
न जाने कब तलक इस दौर में जीना होगा
कारण स्पष्ट है- हम हमेशा यह सोचते हैं कि 'अरे भई अगर हम उस नेता की जगह होते तो हम भी तो उतने ही नहीं थोड़े बहुत कम भ्रष्ट होते...' क्योंकि हम जब भी जहाँ होते हैं अपनी क्षमता और स्तर के अनुपात में भ्रष्टाचार करने में नहीं चूकते।
 
इसीलिए हम अगले चुनाव में ही उस नेता को बहुत सहानुभूति पूर्वक क्षमा कर देते हैं। हाँ अगर अदालत ही उसे जेल में डाल दे तो बात अलग है। वैसे हम कोशिश तो उसे जेल से भी चुनाव जिताने की करते हैं।
'छलक ना' जाय सरे शाम कहीं महफ़िल में
नेताओं की ग़लतियों और निकृष्ट कारगुज़ारियों को जल्दी क्षमा करने का और ख़ूँख़्वार क़िस्म के नेताओं को पसंद करने का एक कारण और भी होता है-
ये जाम-ए-सब्र तो हर हाल में पीना होगा
पुराने ज़माने के डाकुओं वाला नियम- जैसे पुराने वक़्त के डाकू अपने पक्ष की जनता (जो अक्सर उन्हीं की जाति की होती थी) को प्रसन्न रखते थे और दूसरे इलाक़े में लूट-पाट मचाते थे। इसी तरह हम अपनी जाति या पक्ष के नेता की हर अनियमितता को अनदेखी करते हैं।
 
यूँ तो अहसास भी कम है चुभन का ज़ख़्मों की
तूने जो चाक़ किया तो हमें सीना होगा
 
अब तो उम्मीद भी ठोकर की तरह दिखती है
करना बदनाम यूँ किस्मत को सही ना होगा
 
यही वो शख़्स जो कुर्सी पे जाके बैठेगा
वक़्त आने पे वो तेरा तो कभी ना होगा
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| 21 अप्रॅल, 2014
| 3 जून, 2014
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बीते लम्हों की यादों से
अब उठें, भव्य उजियारा है
इस नए साल को, यूँ जीएँ
जैसे संसार हमारा है
हम जीने दें और जी भी लें
विश्वास जुटा कर उन सब में
जो बात-बात पर कहते हैं
हमको किस्मत ने मारा है
अब रहे दामिनी निर्भय हो
निर्भय इरोम का जीवन हो
अब गर्भ में मुसकाये बिटिया
यह अंश, वंश से प्यारा है
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फ़ेयर ही लवली नहीं रहे
अनफ़ेयर यही अफ़ेयर हो
काली मैया जब काली है
तो रंग से क्यों बंटवारा है
ये ज़ात-पात क्या होती है
माता की कोई ज़ात नहीं
यदि पिता ज़ात को रोता है
तो कैसा पिता हमारा है
जाने कब हम ये समझेंगे
ना जाने कब ये जानेंगे
मस्जिद में राम, मंदिर में ख़ुदा
हर मज़हब एक सहारा है
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सुबह आज़ान जगाए हमें
नेता, सरकारी कर्मचारी और पुलिस के भ्रष्ट और ग़ैर िज़म्मेदार होने पर हम बहुत तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं लेकिन हमें यह भी सोचना चाहिए कि ये ऐसे क्यों है और आख़िर ये ऐसे हो क्यों जाते हैं ?
मंदिर की आरती झपकी दे
सपनों में ख़ुदा या राम बसें
मक़सद अब प्रेम हमारा है


सहमी मस्जिद को बोल मिलेें
असल में ये सब हमारे समाज का ही आइना है, प्रतिबिंब हैं और यह हमें पूरी तरह ईमानदारी के साथ स्वीकार करना चाहिए। हमारे समाज का नियम ही कुछ ऐसा है जिसमें हम सिर्फ़ दूसरों को ईमानदारी का पाठ पढ़ाने से ही सरोकार रखते हैं, ख़ुद अपनी ईमानदारी के लिए कोई जवाबदेही नहीं बरतते।
मंदिर भी अब जी खोल मिलें
गिरजे गुरुद्वारे सब बोलें
जय हो ! यह देश हमारा है  
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| [[चित्र:Aditya-Chaudhary-facebook-post-29.jpg|250px|center]]
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| 3 जून, 2014
| 1 अप्रॅल, 2014
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12:49, 5 जून 2014 का अवतरण

आदित्य चौधरी फ़ेसबुक पोस्ट
पोस्ट संबंधित चित्र दिनांक

आज, पैसा और प्रतिष्ठा एक-दूसरे के पर्यायवाची हो चुके हैं। यहाँ तक कि वीतरागी संत होने का अर्थ भी बदल चुका है। संतों की प्रतिष्ठा त्याग के लिए हुआ करती थी लेकिन अब अथाह संपत्ति और सुविधा से घिरे तथाकथित संत अपनी दरियाई घोड़े जैसी तोंद पर हाथ फेरकर, मुग्ध होते मिलते हैं।

3 जून, 2014

अक्सर ये सवाल उठता रहता है कि भारत की जनता, नेताओं के भ्रष्ट आचरण को बहुत जल्दी भुला देती है। कभी सोचा है कि ऐसा क्यों है?
कारण स्पष्ट है- हम हमेशा यह सोचते हैं कि 'अरे भई अगर हम उस नेता की जगह होते तो हम भी तो उतने ही नहीं थोड़े बहुत कम भ्रष्ट होते...' क्योंकि हम जब भी जहाँ होते हैं अपनी क्षमता और स्तर के अनुपात में भ्रष्टाचार करने में नहीं चूकते।
इसीलिए हम अगले चुनाव में ही उस नेता को बहुत सहानुभूति पूर्वक क्षमा कर देते हैं। हाँ अगर अदालत ही उसे जेल में डाल दे तो बात अलग है। वैसे हम कोशिश तो उसे जेल से भी चुनाव जिताने की करते हैं।
नेताओं की ग़लतियों और निकृष्ट कारगुज़ारियों को जल्दी क्षमा करने का और ख़ूँख़्वार क़िस्म के नेताओं को पसंद करने का एक कारण और भी होता है-
पुराने ज़माने के डाकुओं वाला नियम- जैसे पुराने वक़्त के डाकू अपने पक्ष की जनता (जो अक्सर उन्हीं की जाति की होती थी) को प्रसन्न रखते थे और दूसरे इलाक़े में लूट-पाट मचाते थे। इसी तरह हम अपनी जाति या पक्ष के नेता की हर अनियमितता को अनदेखी करते हैं।

3 जून, 2014

नेता, सरकारी कर्मचारी और पुलिस के भ्रष्ट और ग़ैर िज़म्मेदार होने पर हम बहुत तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं लेकिन हमें यह भी सोचना चाहिए कि ये ऐसे क्यों है और आख़िर ये ऐसे हो क्यों जाते हैं ?

असल में ये सब हमारे समाज का ही आइना है, प्रतिबिंब हैं और यह हमें पूरी तरह ईमानदारी के साथ स्वीकार करना चाहिए। हमारे समाज का नियम ही कुछ ऐसा है जिसमें हम सिर्फ़ दूसरों को ईमानदारी का पाठ पढ़ाने से ही सरोकार रखते हैं, ख़ुद अपनी ईमानदारी के लिए कोई जवाबदेही नहीं बरतते।

3 जून, 2014

शब्दार्थ

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