"भ": अवतरणों में अंतर

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'''भ''' [[देवनागरी लिपि]] का छतीसवाँ [[अक्षर]] है। यह एक [[व्यंजन (व्याकरण)|व्यंजन]] है।
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'''भ''' [[देवनागरी वर्णमाला]] में 'पवर्ग' का चौथा [[व्यंजन (व्याकरण)|व्यंजन]] है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से यह द्वि-ओष्ठ्य (द्वयोष्ठ्य), स्पर्ष, घोष और महाप्राण है। इसका अल्पप्राण रूप '[[ब]]' है।
;विशेष-
* 'भ' और '[[म]]' अक्षरों को लिखने में उनके अंतर पर ध्यान रखना चाहिये।
* 'भ, भा, भि..., के अनुनासिक रूप 'भँ, भाँ, भिँ...' होते हैं परंतु शिरोरेखा के उपर कोई मात्रा होने पर, टंकण आदि की सुविधा के लिये, चंद्रबिंदु के स्थान पर केवल बिंदु का प्रयोग प्रचलित है। जैसे- भिँ-भिं, भैँ-भैं।
* व्यंजन-गुच्छों में 'भ' को प्राय: '[[य]]' और '[[र]]' से पहले आकार मिलता देखा जाता है। ऐसे में वह 'य' से अपनी खड़ी रेखा को छोड़कर सयुंक्त होता है (अभ्यास, सभ्य) और 'र' से खड़ी रेखा के साथ 'भ्र' के रूप में (भ्रम, भ्रांत)। पहले आकार 'भ' से मिलने वाले व्यंजन प्राय: अपनी 'खड़ी रेखा' छोड़कर मिलते हैं। जैसे- भब्भड़, सम्भव परंतु पहले आकर मिलने वाला 'र', 'भ' की शिरोरखा के ऊपर 'र्भ' का रूप लेता है (अर्भक, दर्भ)। जब 'द' पहले आकर मिलता है, तब 'द्' पूरा बनता है, भ उसमें नीचे की ओर छोटा-सा लगता है। जैसे- तद्भव, उद्भव, सद्भावना, उद्भिज्ज।
* हलंत व्यंजन का प्रयोग करते हुए ऐसे व्यंजन-गोच्छों को अधिक सुविधापूर्वक लिखा जा सकता है। जैसे- तद्भव, उद्भव, सद्भावना, उद्भिज्ज।
* 'भ' महाप्राण ध्वनि है अत: उसके पहले या बाद में कोई महाप्राण ध्वनि नहीं आ सकती तथा 'भ' का द्वित्व भी नहीं होता। अत: 'भब्भड़' शुद्ध है परंतु 'भभ्भडं' ग़लत है।
* [ [[संस्कृत]] (धातु) भा + ड ] [[पुल्लिंग]]- शुक्र (ग्रह), [[नक्षत्र]], [[राशि]], [[सूर्य]], तारा, तारों का समूह, मधुमक्खी, भ्रम, भ्रांति, भ्रमर, भौंरा।
* (पद्य आदि में) सत्ताइस की संख्या (27) को भी 'भ' कहते हैं।<ref>पुस्तक- हिन्दी शब्द कोश खण्ड-2 | पृष्ठ संख्या- 1843</ref>
==भ की बारहखड़ी==
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| भ
| भा
| भि
| भी
| भु
| भू
| भे
| भै
| भो
| भौ
| भं
| भः
|}
==भ अक्षर वाले शब्द==
==भ अक्षर वाले शब्द==
* [[भगत सिंह]]
* [[भगत सिंह]]

09:44, 8 जनवरी 2017 का अवतरण

विवरण देवनागरी वर्णमाला में 'पवर्ग' का चौथा व्यंजन है।
भाषाविज्ञान की दृष्टि से यह द्वि-ओष्ठ्य (द्वयोष्ठ्य), स्पर्ष, घोष और महाप्राण है। इसका अल्पप्राण रूप '' है।
व्याकरण [ संस्कृत (धातु) भा + ड ] पुल्लिंग- शुक्र (ग्रह), नक्षत्र, राशि, सूर्य, तारा, तारों का समूह, मधुमक्खी, भ्रम, भ्रांति, भ्रमर, भौंरा।
विशेष 'भ' महाप्राण ध्वनि है अत: उसके पहले या बाद में कोई महाप्राण ध्वनि नहीं आ सकती तथा 'भ' का द्वित्व भी नहीं होता।
संबंधित लेख , , ,
अन्य जानकारी व्यंजन-गुच्छों में 'भ' को प्राय: '' और '' से पहले आकार मिलता देखा जाता है। ऐसे में वह 'य' से अपनी खड़ी रेखा को छोड़कर सयुंक्त होता है (अभ्यास, सभ्य) और 'र' से खड़ी रेखा के साथ 'भ्र' के रूप में (भ्रम, भ्रांत)।

देवनागरी वर्णमाला में 'पवर्ग' का चौथा व्यंजन है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से यह द्वि-ओष्ठ्य (द्वयोष्ठ्य), स्पर्ष, घोष और महाप्राण है। इसका अल्पप्राण रूप '' है।

विशेष-
  • 'भ' और '' अक्षरों को लिखने में उनके अंतर पर ध्यान रखना चाहिये।
  • 'भ, भा, भि..., के अनुनासिक रूप 'भँ, भाँ, भिँ...' होते हैं परंतु शिरोरेखा के उपर कोई मात्रा होने पर, टंकण आदि की सुविधा के लिये, चंद्रबिंदु के स्थान पर केवल बिंदु का प्रयोग प्रचलित है। जैसे- भिँ-भिं, भैँ-भैं।
  • व्यंजन-गुच्छों में 'भ' को प्राय: '' और '' से पहले आकार मिलता देखा जाता है। ऐसे में वह 'य' से अपनी खड़ी रेखा को छोड़कर सयुंक्त होता है (अभ्यास, सभ्य) और 'र' से खड़ी रेखा के साथ 'भ्र' के रूप में (भ्रम, भ्रांत)। पहले आकार 'भ' से मिलने वाले व्यंजन प्राय: अपनी 'खड़ी रेखा' छोड़कर मिलते हैं। जैसे- भब्भड़, सम्भव परंतु पहले आकर मिलने वाला 'र', 'भ' की शिरोरखा के ऊपर 'र्भ' का रूप लेता है (अर्भक, दर्भ)। जब 'द' पहले आकर मिलता है, तब 'द्' पूरा बनता है, भ उसमें नीचे की ओर छोटा-सा लगता है। जैसे- तद्भव, उद्भव, सद्भावना, उद्भिज्ज।
  • हलंत व्यंजन का प्रयोग करते हुए ऐसे व्यंजन-गोच्छों को अधिक सुविधापूर्वक लिखा जा सकता है। जैसे- तद्भव, उद्भव, सद्भावना, उद्भिज्ज।
  • 'भ' महाप्राण ध्वनि है अत: उसके पहले या बाद में कोई महाप्राण ध्वनि नहीं आ सकती तथा 'भ' का द्वित्व भी नहीं होता। अत: 'भब्भड़' शुद्ध है परंतु 'भभ्भडं' ग़लत है।
  • [ संस्कृत (धातु) भा + ड ] पुल्लिंग- शुक्र (ग्रह), नक्षत्र, राशि, सूर्य, तारा, तारों का समूह, मधुमक्खी, भ्रम, भ्रांति, भ्रमर, भौंरा।
  • (पद्य आदि में) सत्ताइस की संख्या (27) को भी 'भ' कहते हैं।[1]

भ की बारहखड़ी

भा भि भी भु भू भे भै भो भौ भं भः

भ अक्षर वाले शब्द


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पुस्तक- हिन्दी शब्द कोश खण्ड-2 | पृष्ठ संख्या- 1843

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